इधर भी गधे है उधर भी गधे है
जिधर देखता हू गधे ही गधे है
गधे हँस रहे आदमी रो रहा है
हिन्दोस्तां मे ये क्या हो रहा है
जवानी का आलम गधो के लिए है
ये रसिया ये बालम गधो के लिए है
ये दिल्ली ये पालम गधो के लिए है
ये संसार सालम गधो के लिए है
पिलाये जा सकी पिलाये जा डट के
तू विहस्की के मटके पे मटके पे मटके
मे दुनिया को अब भूलना चाहता हू
गधो की तरह झूमना चाहता हू
घोड़ो को मिलती नहीं घास देखो
गधे खा रहे चवनप्राश देखो
यहाँ आदमी की कहा कब बनी है
ये दुनिया गधो के लिए ही बनी है
जो गलियों मे डोले वो कच्चा गधा है
जो कोठे पे बोले वो सच्चा गधा है
जो खेतो मे दिखे वो फसली गधा है
जो माइक पे चीखे वो असली गधा है
मे क्या बक गया हू मे क्या कह गया हू
नशे की पिनक मे कहा बह गया हू
मुझे माफ़ करना मे भटका हुआ था
वो ठर्रा था भीतर जो अटका हुआ था
पी अस :
बहुत पहले एक कवि सम्मलेन मे सुनी थी कवि का नाम तो याद नहीं पर आज पढ़ी तो लगा के आज के राजनितिक हिसाब से बिलकुल सही है|