जाट कौम का राजनीतिक भविष्य
(ब्राह्मणवाद एक विचारधारा है, एक मानसिकता है, एक जाट भी ब्राह्मणवादी हो सकता है और एक ब्राह्मण भी गैर ब्राह्मणवादी हो सकता है। इस लेख में दिए गए तथ्यों के प्रमाण मेरे पास सुरक्षित हैं और कोई विवाद होने पर इसका न्यायक्षेत्र भिवानी होगा। )
ग्यासुद्दीन गाजी ने 1857 के पहले स्वतंंत्रता संग्राम से पहले ही अपनी जाति और धर्म बदली करके अपना नाम गंगाधर रखकर पुलिस में भर्ती होकर 1857 के संग्राम के समय क्रांतिकारियों की मुखबरी करते हुए और अग्रेजों की पूर्णतया वफादारी करते हुए दिल्ली का कोतवाल बन गया और अंग्रेजों के हाथों क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करवाने में उन्होंने अहम् भूमिका निभाई। यही कोतवाल महाशय महान क्रांतिकारी राजा नाहर सिंह, सेनापति गुलाबसिंह सैनी, खुशहाल सिंह और भूरासिंह को चांदनी चौक में फांसी देने के लिए सजाकर लाए थे। अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में अंग्रेजों की वफादारी के परिणामस्वरूप कमाई धनराशि के बल पर इलाहाबाद में बसकर आनंद भवन बना और अपने आप को कौल ब्राह्मण प्रचारित कर दिया। इन्हीं के पुत्र मोतीलाल नेहरू वकालत करके वकील बने और एक नहर के पास बसने के कारण अपने आप को नेहरू कहलाने लगे और कश्मीरी ब्राह्मण हो गए। अपने वकालत के साथ-साथ राजनीति भी करने लगे। इसी बीच एक अंग्रेज ए.ओ.ह्यूम ने सन 1885 में कांग्रेस की स्थापना की, जिसका उद्देश्य भारतीय राजनीतिज्ञों का अंग्रेजी सरकार से तालमेल स्थापित करना था। मोतीलाल के पुत्र पंडित जवाहरलाल नेहरू हुए, जिन्होंने अपनी वकालत की शिक्षा इंग्लैंड से ली और वे एक आधुनिक संस्कृति के अग्रदूत रहते हुए भारत में आकर राजनीति करने लगे और उन्होंने कांग्रेस में अपना एक अहम् स्थान बना लिया। यह अह्म स्थान गांधी के साथ उसके पिता के संबंधों के कारण और भी सुगम हो गया था।
देश की आजादी की लड़ाई कई मोर्चों पर लड़ी जा रही थी, जिसमें उग्र स्वभाव वाले करतार सिंह सराबा, भगत सिंह, बंता सिंह, व बाबा बैसाखा सिंह आदि थे। कांग्रेस में भी दो प्रकार के व्यक्ति थे, जिसमें एक गर्म दल तथा दूसरा नर्म दल था। गर्म दल की अगुवाई सुभाषचंद्र बोस कर रहे थे, जिन्होंने सन् 1936 में महात्मा गांधी के विरोध में कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा, जबकि महात्मा गांधी सीतारमैया की वकालत कर रहे थे, लेकिन इसके बावजूद भी सुभाषचंद्र बोस विजयी घोषित हुए, लेकिन नेहरू-गांधी की मंडली ने उन्हें इतना परेशान किया कि उन्हें एक वर्ष के भीतर ही अपना त्यागपत्र देना पड़ा(पुस्तक - महानायक)। जब दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों ने ये भरोसा दिलाया कि वे युद्ध के जीतने के बाद भारत वर्ष को आजाद कर देंगे। इस पर भारत वर्ष का भावी प्रधानमंत्री बनाने पर चर्चा होने लगी। तत्कालीन भारत के 15 राज्यों के कांग्रेस अध्यक्षोंं से भावी प्रधानमंंत्री बनाने की सलाह ली गई तो 12 प्रदेशों के अध्यक्षों ने सरदार पटेल का इस पद के लिए समर्थन किया। इस पर पंडित नेहरू के कान खड़े हो गए और उन्होंने बड़ी ही चालाकी से कांग्रेस अध्यक्ष का पद अब्दुल कलाम से हथिया लिया तथा भारत के सभी 14 राज्यों के कांग्रेस अध्यक्ष ब्राह्मण जाति से मनोनीत कर दिए गए, लेकिन भारत का 15 वां राज्य बाम्बे का अध्यक्ष नरीमन जो पारसी था और एक बहुत बड़ा विद्वान भी था, ने अपने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने से मना कर दिया तो उस व्यक्ति को इतना परेशान किया गया कि उसे आत्महत्या करनी पड़ी और इस आत्महत्या को आम मौत में तब्दील करवा दिया गया। 15 अगस्त, 1947 को जब देश आजाद हुआ तो महात्मा गांधी ने पंडित नेहरू के नाम का देश के प्रधानमंत्री के तौर पर अनुमोदन किया और इस प्रकार सशक्त दावेदार सरदार पटेल को एक किनारे कर दिया गया। इससे पहले जब मुस्लिम लीग के नेता लाला मोहम्मद अली जिन्नाह को यह आभास हो गया कि भारत वर्ष में उसे प्रधानमंत्री का पद मिलने वाला नहीं है तो उसने सन् 1944 से ही अलग पाकिस्तान की मांग कर डाली थी, लेकिन उनकी सबसे बड़ी अड़चन यह थी कि जहां पश्चिमी पंजाब में पश्चिमी पाकिस्तान बनना था, वहां जमींदारा पार्टी का राज था, जहां चौ. छोटूराम की तूती बोल रही थी और इसी वर्ष चौ. छोटूराम ने जिन्हा को पंजाब से यह चेतावनी देते हुए खदेड़ दिया था कि वे यदि यहां आकर दोबारा पाकिस्तान की मांग करेंगे तो उनको सलाखों के अंदर कर दिया जाएगा। लेकिन दुर्भाग्य से 9 जनवरी, 1945 को चौ. छोटूराम का आकस्मिक निधन हो गया और उनकी पार्टी छिन्न-भिन्न हो गई। परिणाम स्वरूप उन्हीं की पार्टी के विधायक बाद में मोहम्मद अली जिन्हा की पार्टी मुस्लिम लीग में शामिल हो गए और पाकिस्तान का निर्माण हो गया।
15 अगस्त, 1947 को देश आजाद होते ही पंडित नेहरू देश के प्रधानमंत्री बने और सभी प्रदेशों के ब्राह्मण अध्यक्षों को प्रदेशों का मुख्यमंत्री बनाया गया। देश की सत्ता ब्राह्मण, कायस्थ और बनियों के हाथ में आ गई। जब भारतवर्ष से मुसलमान पाकिस्तान गए, तो मुस्लिम अधिकारियों की जगह ब्राह्मणों को अधिकारी बनाए जाने के लिए पंडित नेहरू ने अपने सभी ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों को गुप्त पत्र लिखकर उनके स्थान भरवा दिए गए और भारतवर्ष में अप्रत्यक्ष रूप से ब्राह्मणवाद को स्थापित कर दिया गया(पुस्तक - मुसलमानों की सियासत)। यही पंडित नेहरू, जिन्होंने सन् 1946 में कहा था : दिल्ली और इसके आसपास जाट एक ऐसी ताकतवर कौम रहती है, वह जब चाहे, दिल्ली पर कब्जा कर सकती है। कब्जे की बात तो छोड़ें, दिल्ली की केंद्र सरकार में जाटों को कोई भी तवज्जो नहीं दी गई। केंद्र के मंत्रीमंडल में रक्षा मंत्री के बतौर बलदेव सिंह को अवश्य लिया गया, लेकिन ये प्रतिनिधित्व सिख के नाम पर था, न कि जाट के नाम पर।
इससे पहले सन् 1925 में नागपुर में एक बहुत बड़ी गैर ब्राह्मण सभा का आयोजन किया गया, जिस पर ब्राह्मणवाद के कान खड़े हो गए। इस सभा की प्रतिक्रिया में इसी वर्ष चार ब्राह्मणों डॉ. हैडगेवार, बी.एस. मुंजे, बहाराव सावरकर(वीर सावरकर का भाई) और बी.बी.थालकर ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(आरएसएस)की स्थापना की, जिसमें कॉलेज में पढऩे वाले ब्राह्मणों के लडक़ों को ही इसमें भर्ती किया गया, जिनकी आरंभ में कुल 91 संख्या थी, जिनको गुप्त तौर पर एक शपथ दिलाई गई थी, लेकिन इन ब्राह्मणों का उस समय मूल उद्देश्य पेशवा ब्राह्मणों के गौरव का प्रचार करना था, जो कभी उन्होंने शिवाजी भौंसले की मृत्यु के पश्चात बड़े षडयंत्रों के तहत प्राप्त किया था, लेकिन 1761 में पानीपत की लड़ाई में अहमद शाह अब्दाली के हाथ इनकी शर्मनाक हार हुई। इसी आरएसएस ने समय आने पर बड़ी चालाकी से अपना हिंदुत्व का एजेंडा तैयार किया क्योंकि वे जानते थे कि आने वाले समय में प्रजातंत्र में अकेले ब्राह्मण न तो सत्ता पर काबिज हो पाएंगे और न ही सत्ता संभाल पाएंगे क्योंकि उनकी पूरे भारतवर्ष में मात्र तीन प्रतिशत जनसंख्या थी और आज भी है। इसीलिए सभी हिंदुओं को हिंदू धर्म के नाम पर बरगलाना बहुत आवश्यक था और इन्होने धीरे-धीरे इस संगठन को पश्चिमी और मध्यप्रदेश के अतिरिक्त उत्तर भारत में भी फैलाना शुरू कर दिया और जगह-जगह इसकी शाखाएं खुलने लगीं। लेकिन ये संगठन सन् 1947 तक अपने पैर नहीं फैला पाया था और इसका प्रचार सीमित था, लेकिन इससे पहले ही पंजाब में एक महान पुरूष चौ. छोटूराम जन्म ले चुका था, जिन्होंने कांग्रेस और आरएसएस के षड्यंत्रों को समझते हुए हिंदू, सिख, इसाई और मुस्लिम किसानों की पार्टी बनाई और धर्म के नाम से इनको शोषण से बचाया। इस पार्टी में मुस्लिम किसानों का विशेष योगदान था। ये पार्टी कांग्रेस और आरएसएस की कुटिल चालों की एक बहुत बड़ी काट थी। इसी पार्टी ने संयुक्त पंजाब में अपनी धाक जमाई और सत्ता पर पूर्णतया कब्जा कर लिया, जिस पर संयुक्त पंजाब में कांग्रेस और आरएसएस की पूर्णतया बोलती बंद हो गई और इस पार्टी ने छोटूराम के आकस्मिक निधन तक एकछत्र राज्य किया, लेकिन ये किसानों, मजदूरों और भारत वर्ष का दुर्भाग्य था कि इनका आकस्मिक निधन हो गया और देश का बंटवारा करके पाकिस्तान बनाया गया। 15 अगस्त, 1947 से लेकर पंडित नेहरू की मृत्यु 27 मई, 1964 तक भारतवर्ष पर पंडित नेहरू बनाम कांग्रेस का एकछत्र राज्य रहा और इस अवधि में भारतवर्ष के लोगों की मानसिकता ब्राह्मणवादी मीडिया की बदौलत यहां तक बदल दी गई कि लोग कहने लगे : यदि नेहरू नहीं होगा तो इस देश का क्या होगा? वही पंडित जी, जो जाटों को एक बहादुर जाति बतला रहे थे, को दिल्ली में अल्पसंख्यक बनाने के लिए सन् 1947 में जहां दिल्ली से एक लाख मुसलमान पाकिस्तान गए, उनकी जगह चार लाख चालीस हजार पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों को जान-बूझकर दिल्ली में बसाया गया क्योंकि ये लोग पहले संयुक्त पंजाब में कांग्रेस समर्थक थे। उसके बाद हजारों तिब्तियन को भी सन् 1959 में दिल्ली में बसाया गया। इसलिए नेहरू ने एक तीर से दो शिकार करने की चाल चली। लेकिन 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया और भारतवर्ष की एक शर्मनाक पराजय हुई, जिससे नेहरूवाद की धज्जियां उड़ गईं क्योंकि यही पंडित नेहरू थे, जिन्होंने पंचशील की स्थापना करके हिंदी-चीनी-भाई-भाई का नारा दिया था और यही पराजय शायद पंडित नेहरू की मौत का कारण बनी(पुस्तक - सफरन फासिज्म तथा अनटोल्ड स्टोरी ऑफ 1962)। हालांकि उनकी मौत का कारण लोगों ने कुछ और भी बतलाया है। 27 मई, 1964 को नेहरू की मृत्यु होने पर 9 जून, 1964 तक गुलजारी लाल नंदा को कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया। उसके बाद 11 जनवरी, 1966 तक ताशकंद में आकस्मित मृत्यु होने तक लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री रहे। इसके बाद फिर से गुलजारी लाल नंदा को कार्यवाहक अध्यक्ष बनाया गया। लेकिन 24 जनवरी, 1966 से श्रीमति इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाया गया, जो 24 मार्च, 1977 तक इस पद पर रहीं। इस अवधि में केवल एक बार सन् 1975 में चौ. बंसीलाल को रक्षा मंत्री बनाया गया। इसके अतिरिक्त जाटों का केंद्र में प्रतिनिधित्व लगभग शून्य रहा, जबकि जाटों ने 1971 की लड़ाई में बहुत बड़ी शहादत दी थी। कांग्रेस के राज में एक-आध बार कुछ अन्य जाट भी मंत्री बनते रहे, जैसे कि रामनिवास मिर्धा और प्रोफेसर शेरसिंह आदि।
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