पुराने जमाने में और हरियाणवी ग्रामीण में तो आज भी दुल्हन को उसका मामा गोद में उठा या साथ चल के दुल्हन का मार्ग-दर्शक बन विवाह मंडप तक लाते थे, वहीँ आजकल मामाओं की जगह भाइयों ने ले ली है और वो भी चार-चार भाई एक लत्ते के चारों पल्ले पकड़ के उसके नीचे दुल्हन बनी बहन को मंडप/स्टेज तक लाते हैं। कोई अच्छा ऊत देशी कहो या हरियाणवी रिवाजों का जानकार तो इनको देख के कर्कश ही कहकहा लगा उठेगा कि, 'अरे के मींह ब...रसे सै, अक छोरी भीज जागी, जो इसके ऊपर चाद्दर करें ल्याओ सो'। और वैसे भी जो काज मामा का होता था उसको भाई करें ये कहाँ का तुक हुआ? पता नहीं कब, कैसे, क्यों और कहाँ से ये रिवाज चला है।
शहर में जा के इंसान का आर्थिक रूतबा तो बदलता/बदलते सबका/सबको देखा पर ये हरियाणवी ही पूरे जमाने में ऐसे निराले हैं जो आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक मान्यता और रिवाज भी बदल लेते हैं। देखा कितना घुलने-मिलने वाले होते हैं हरियाणवी, फिर भी भारतीय मीडिया इनको रिजिड, ऑर्थोडॉक्स और पता नहीं क्या-क्या कहने से बाज नहीं आता। अरे भाइयो! दूसरों की तरह आर्थिक तरक्की करते हुए, अपनी सामाजिक मान्यताओं पर रह के देखो तो शायद मीडिया तुम्हारी बेकार की टांग-खिंचाई करनी छोड़ दे।
विशेष: इस पोस्ट का मतलब किसी भी समाज/वर्ग की भावनाओं का अनादर करना नहीं है, अपितु जो अपनियों का आदर नहीं करते उनकी आँखें खोलना ही इसका मकसद है|