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Thread: मारवाड़ी जाट री महिमा

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  1. #1

    मारवाड़ी जाट री महिमा

    Marwdi jat ro DIL..NARAM...ICE CREAM Jeso,
    Marwadi jat ri JABAAN.
    MEETHI.JALEBI Jesi,
    Marwadi jat ro GUSSO.. GARAM..fulka Jeso,
    Marwadi jat ro SAATH..CHATPATO..Achar jeso,
    Marwadi jat ro CONFIDENCE..
    KADAK..KHAKHRA Jeso,
    Marwadi jat ro SWABHAAV..MILANSAR..DAAL
    DHOKLI Jeso,
    MORAL:::
    Marwadi jat SAATHE raho TO BHUKHA koni
    RAHO.
    जय भारत

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    lrburdak (December 28th, 2017), rajpaldular (October 25th, 2013)

  3. #2
    कथा लगभग छह सात सौ साल पहले की यानि कि सल्तनत काल की है और यूं है कि नागौर में दो चौधरी हुआ करते थे। नाम था गोपाल जी और धर्मो जी। गोपाल जी जायल गांव के बासट गोत के जाट और धर्मो जी खिंयाला के बिडियासर । दोनों चौधरी उस समय के पटवारी के पद पर थे। दिल्ली के सुल्तानों के लिए लगान संग्रहण करने का कार्य किया करते थे और ये काम वो दोनों कई सालों से किया करते थे। क्योंकि सुल्तान बदल जाया करते हैं, पटवारी नहीं बदला करते।
    दोनों चौधरी साल में एक बार किसानों से निर्धारित रकम वसूला करते, जो भी सुल्तान गद्दी पर होता, उस तक पहुंचा दिया करते और अपनी तनख्वाह ले लिया करते।
    इस बार हुआ यूं कि सुल्तान ने लगान बढ़ा दिया। कारण क्या रहा, मुझे नहीं मालूम। कोई नई लड़ाई छेड़ बैठा होगा, कोई नई खुराफात सूझी होगी या कोई नई शादी की मन में आ गई होगी।
    दिल्ली की जायज नाजायज मांगे दूर कहीं खेतों में खप रहा किसान हमेशा से ही आंखे मींच पूरी करता रहा है।
    खैर, कारण जो भी रहा हो, कहानी को इस बात से मतलब है कि चौधरियों को दुगुने पैसे ले कर जल्दी से जल्दी वहां पहुंचने के लिए पाबन्द किया गया था।
    तो नागौरी चौधरी भागे, दौड़े, माया इकट्ठी की और ऊंटों पर रकम बांध कर सुल्तान को सौंप देने दिल्ली के लिए तैयार हुए।
    सूर्योदय से पहले,जायल में बने गोपाल जी के घर से दोनों साथी ऊंटों पर सवार हो कर निकले और शाम ढलने के बाद 7-8 बजे तक हरमाड़ा नाम के एक गांव तक पहुंचे। जायल से पचास साठ कोस दूर। जयपुर से थोड़ा सा पहले।
    चूंकि दिन भर चलते चलते चौपाए और दोपाए दोनों थक चुके थे, इसलिए हरमाड़ा गांव की कांकड़ में कुंए के पास चौधरियों ने डेरा जमाया, ऊंटों को चारा पानी किया और खुद सन्ध्या पूजा कर भोजन करने बैठे।
    उसी गांव की गुर्जर जाति की एक सामान्य सी गृहिणी, लिछमा, उस समय अपनी पुत्री के परिणय उत्सव के प्रबंध में लगी थी। लेकिन विवाह के उत्साह से बिल्कुल परे। आकुल, व्याकुल, दुविधाग्रस्त और कारण ये था कि उसके पीहर (मायके) में कोई था नहीं जो उसकी पुत्री के विवाह में भात भरने के लिए आ सके।
    भात या मायरे की प्रथा में विवाह के सुअवसर पर मातुल पक्ष के लोग कुछ उपहार ले कर प्रस्तुत होते हैं। ये उपहार सामान्यतः वस्त्र,आभूषण या नकदी के रूप में होते हैं। सामर्थ्य श्रद्धा अनुसार।
    लेकिन उपहार और सहायता के नाम पर चली ये परम्परा प्रतिष्ठा का प्रश्न बनते हुए मध्यकाल में महिलाओं के लिए गले की फांस बन गयी थी।
    जब तक मायके से मायरा आ न जाए (अच्छे भले उपहारों के साथ), तब तक ना तो नारी चिंता मुक्त हो पाती थी और ना ही कुल कुटुम्ब उसे चैन से सांस लेने ही देता था। भात में कितने पैसे आए, कौन कौन से आभूषण आए, किस भाँति के वस्त्र आए इत्यादि प्रश्नों के उत्तर आने वाले कई दिन-महीनों-सालों तक ससुराल में नारी की प्रतिष्ठा और महत्त्व को निर्धारित करते थे। भात कम आने का अर्थ ही जहाँ जीवन भर सास-ननद, देवरानी-जेठानी आदि के ताने हुआ करता हो, वहाँ भात नहीं आने पर क्या हाल हो सकता है, कल्पना सहज ही की जा सकती है।
    अब, अगले दिन विवाह का कार्यक्रम निश्चित था। घर भर में उत्सव का उत्साह और उमंग। जेठानी और देवरानी की पुत्रियों का भी विवाह था। उनका भी भात कल ही आना था, वे दोनों अपने अपने पिता-भाई और भात के स्वागत का प्रबंध कर रही थीं।
    ऐसे में लिछमा स्वयं को दुर्भाग्यशाली न समझे तो क्या करे, पिता संसार छोड़ कर चल बसे थे, सगा भाई कोई था नहीं। मां के जाए बीर बिना कुण भात भरण ने आवे! आंसू आंखों की कोर में तैर रहे थे, छलके नहीं, क्योंकि अभी तक इस प्रसंग पर चर्चा हुई नहीं थी। लिछमा को लगा- मेरे मायके की स्थिति सर्वज्ञात है, हो सकता है इसी से मुझे मायरे से मुक्ति दे दी गई हो।
    लेकिन ऐसा थोड़े ही हुआ करता है। पंजाब में कहावत है- सांप में एक 'स', सास में दो 'स'। सास ये मौका ऐसे ही थोड़े छोड़ देने वाली थी। सास समुदाय की प्राचीन एवं प्रचलित परम्परा का पूर्ण रूपेण निर्वहन हुआ। खुल कर तिक्त वचन सुनाए गए।
    भात बिना कोई विवाह हुआ है कभी जो तेरी बेटी का हो जाएगा, फूटे भाग हमारे जो तेरे जैसी बहु मिली, मर क्यों नहीं जाती कहीं जाकर!
    अपमान के नमक से अंतर के घाव चिरमिरा उठे। लिछमा रोने लगी। मन में विचार आया-तिरस्कार सह कर जीने से तो अच्छा प्राण ही दे दिए जाएं। कौनसा सार बचा है जीवन में।
    पनघट से पानी लाने का बहाना बनाया, घड़ा उठाया और रोते रोते चल पड़ी।
    लिछमा पनघट पर बैठ के खुल के रोई, सोचा- मरना तो है ही, जी तो हल्का करूँ।
    राम जाने विधाता ने कैसे भाग लिखे हैं, जो कोई मेरा भी भाई होता तो आज मरने की नौबत थोड़े ही आती।
    भाग्य को भी लिछमा की तरह कोसा जाना सहन नहीं हुआ और उसने भी बदल जाने की ठान ली।
    और भाग्यवश, दैव योग से ही, लिछमा का रुदन चौधरियों के कानों में पड़ा।
    चौधरी भोजनादि से निवृत्त हो कर सोने की तैयारी कर रहे थे। रुदन सुन चौंके। रात्रि का दूसरा प्रहर शुरू होने को है, ऐसे में पनघट पर स्त्री कण्ठ से रुदन की ध्वनि, यह कौन दुखियारी है।
    दोनों में से एक उठा, लिछमा तक पहुंचा और बोला- री पणिहारी! रोती क्यों है, कौन विपत्ति आन पड़ी। मुझे बता, शायद मैं कुछ सहायता कर सकूँ।
    लिछमा ने सोचा- इसे सुना कर ही क्यों न मरूँ, मरना तो है ही, जी तो हल्का हो।
    लिछमा ने चौधरी को सब कुछ कह सुनाया।
    चौधरी साहब व्यथा सुन व्याकुल हो गए, बोले- पणिहारी, कौन कहता है तेरा कोई भाई नहीं है,मुझे राखी बांध,मैं तेरा भाई हूँ।
    लिछमा हिचकिचाई, चौधरी फिर बोला- लिछमा, चीर फाड़ के बांध कलाई पर, मैं तेरा धर्म का भाई हूँ। अब से तेरा सम्मान मेरा सम्मान। तेरी लाज मेरी लाज। तेरी व्यथा- मेरी व्यथा। भात की चिंता मत कर। भात मैं भरूँगा।
    चौधरी की जबान थी, लिछमा आश्वस्त हो गई।
    लिछमा के ओढ़नी के टुकड़े ने चौधरी की कलाई पर बन्ध कर भाई बहन के रिश्ते की नींव पड़ने की साख भरी।
    गूजरी दुःख की घड़ी में भाई का सा स्नेह पा बड़ी प्रसन्न हुई और घड़ा उठा घर की ओर चली।
    सास-ननद, जेठानी-देवरानी के पक्ष से विष बुझे वचन शरों का वर्षण जारी रहा। लेकिन लिछमा तो मन ही मन मुदित थी, प्रमुदित थी सो सब झेलती रही।
    उधर, चौधरी ने दूसरे चौधरी को सारा वृत्तांत सुनाया और कहा- वचन दे आया हूँ, सुबह भात भरना है।
    दूसरा चौधरी जबान की कीमत समझता था, भात भरने का कह दिया, मतलब भात तो भरना ही है।
    लेकिन, पैसे कहाँ से आएं ? ऊंटों पर जो रकम लदी है, वो तो मालगुजारी के पैसे हैं। सुल्तान की अमानत। हिंदुस्तान की सरजमीं पर एकछत्र राज करने वाले बादशाह की अमानत और इस अमानत में खयानत करना यानि अपनी मौत खुद आमन्त्रित करना। रकम भी कोई छोटी मोटी नहीं थी, पूरी 22000 अशर्फियाँ। सैंकड़ो किसानों से वसूला गया कर। राजा ज़िंदा तो नहीं छोड़ेगा। ये तो तय है। क्या किया जाए।
    लेकिन, जबान दे, फिर नट जाएं, इससे अच्छा तो यही कि कट जाएं। प्राण जाय पर वचन न जाई।
    भात तो भरेंगे, बादशाह जो करेगा, देखा जाएगा।
    चौधरियों ने खूंटों से बंधे ऊंटों को खोला, सवार हुए और घण्टे भर में जा पहुंचे जयपुर।
    कुछ पुरानी पहचान का वास्ता दिया, कुछ पैसों का जोर दिखाया,आधी रात में दो चार दुकानें खुलवाई और मायरे के लिए उपहार, वस्त्र और आभूषण खरीद भोर होते होते पुनः हरमाड़ा पहुंच गए।
    सुबह, जब बात गांव भर में फैली कि लिछमा के धर्म भाई आए हैं और भात भी भरा जाएगा तो इसे मजाक समझ देवरानी जेठानी ने मुंह बनाया। कल तक तो कोई भाई न था। अब कौन कृष्ण भगवान भात भरने आ रहे हैं।
    लेकिन कलाई पर बंधे चीर ने फिर एक अद्भुत मुहूर्त की साख भरी। भाई ने बहन को गले लगाया, भात भरा और सम्मान की प्रतीक नौरंगी चूनरी ओढ़ाई। लिछमा ने मंगल गीत गाये। पूरे कुल कुटुम्ब के बीच लिछमा नौरंगी चूनरी ओढ़े खड़ी थी। भाव विह्वल। एक सूत्र की शक्ति, एक धागे की ताकत संसार देख रहा था। अज्ञात कुल, नाम, ग्राम की नारी, जिसे कल तक देखा तक न था, उसके हाथों रक्षा सूत्र बन्ध जाने के बाद, उसके सम्मान की रक्षा की खातिर चौधरी बादशाह तक को चुनौती दे बैठे।
    भात में पूरे कुल कुटुम्ब में छोटे बड़े सब लोगों के लिए तरह तरह के वस्त्राभूषण सहित अन्य उपहार दिए गए। चौधरियों ने बहन और भानजी को शीशफूल से लेकर झांझर तक के आभूषणों से लाद दिया।सास-ननद, देवरानी- जेठानी ने भी अपना हिस्सा पाया।
    इस तरह नेह सूत्र- रक्षा सूत्र से बंधे भाईयों ने बहन के सम्मान की रक्षा की और भात में दोनों ऊँटों सहित सारी माया लुटा, हाथ जोड़, चौधरी दिल्ली को निकल पड़े।
    दो चार दिन बाद दिल्ली पहुंचे, दरबार में हाजरी लगाई। मालगुजारी जमा करवाने के वक़्त बादशाह के सम्मुख हाथ जोड़ खड़े हो गए। पूरा वृत्तांत कह सुनाया। मौत का भय तो था ही नहीं, मरना तो निश्चित मान के गए थे। लेकिन- "हिम्मत कीमत होय, बिन हिम्मत कीमत नहीं।" "कर भला तो हो भला।" बादशाह घटना सुन कर और चौधरियों की हिम्मत देख कर प्रभावित हो गया। उसने घटना की सत्यता जांचने का हुक्म दिया और सत्यता प्रमाणित होते ही दोनों चौधरियों को पुरस्कृत भी किया।
    दोनों चौधरी सुल्तान के यहां से 1000 बीघा जमीन पुरस्कार में प्राप्त कर खुशी खुशी घर लौटे और हजार बीघा जमीन के साथ ही कमा लाए- हजारों वर्षों के लिए नाम। राजस्थान में आज तक बहनें अपने भाईयों से उन चौधरियों की तरह बनने को कहा करती है। वचन के पक्के, निडर, हिम्मती और दरियादिल। आज भी रक्षा बंधन के और भात के गीतों में ये पंक्तियां गाई जाती हैं-
    "बीरा बणजे तू जायल रो जाट,
    बणजे खिंयाला रो चौधरी।"
    जय भारत

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    dndeswal (October 2nd, 2017), lrburdak (December 28th, 2017), neel6318 (October 6th, 2017)

  5. #3
    कथा लगभग छह सात सौ साल पहले की यानि कि सल्तनत काल की है.............................
    katha to karva chauth ki bhi nahi padhi jaati, aap bekar mein pata nahin kaunsi-2 katha chhap rahe ho.....bas ye bata do pandit waali to nahi hai na .....?
    fir padh lungi

  6. #4
    Quote Originally Posted by neel6318 View Post


    katha to karva chauth ki bhi nahi padhi jaati, aap bekar mein pata nahin kaunsi-2 katha chhap rahe ho.....bas ye bata do pandit waali to nahi hai na .....?
    fir padh lungi
    लगता है आपको पंडित जी से कुछ ज्यादा ही चिढ़ हैं वैसे इस कथा में नीलम जी कहीं भी पंडित का जिक्र नहीं हैं।
    जय भारत

  7. #5
    Quote Originally Posted by SALURAM View Post
    लगता है आपको पंडित जी से कुछ ज्यादा ही चिढ़ हैं वैसे इस कथा में नीलम जी कहीं भी पंडित का जिक्र नहीं हैं।
    aisi baat nahi hai, lekin agar kisi se hoti hai to uska zimmewar wo khud hi hain ......I learnt how accept them even, atleast for formality.

    And I love our family Panditji, kyunki wo katha vaachte hain aur kaam ki baat karke gaon ko rawana ho jaate hain. Unnse hi judi rahti hun issliye bure lagne waale to lagenge. Har koi gaon aur gaon ke logon jaisa nahi hota na. So Via Panditji to Family and then to Dadaji

  8. The Following User Says Thank You to neel6318 For This Useful Post:

    SALURAM (September 29th, 2017)

  9. #6
    Quote Originally Posted by neel6318 View Post
    aisi baat nahi hai, lekin agar kisi se hoti hai to uska zimmewar wo khud hi hain ......I learnt how accept them even, atleast for formality.

    And I love our family Panditji, kyunki wo katha vaachte hain aur kaam ki baat karke gaon ko rawana ho jaate hain. Unnse hi judi rahti hun issliye bure lagne waale to lagenge. Har koi gaon aur gaon ke logon jaisa nahi hota na. So Via Panditji to Family and then to Dadaji
    कोई बात नी नीलम जी... वैसे भी हमारे राजस्थान में कहावत हैं अपनी माँ को डाकण कोई नहीं कैवे। .. वैसे ही अपने अपने पंडित और बाबाओं को भी कोई कुछ नहीं कहता हैं जी........
    जय भारत

  10. #7
    Quote Originally Posted by SALURAM View Post
    Marwdi jat ro DIL..NARAM...ICE CREAM Jeso,
    Marwadi jat ri JABAAN.
    MEETHI.JALEBI Jesi,
    Marwadi jat ro GUSSO.. GARAM..fulka Jeso,
    Marwadi jat ro SAATH..CHATPATO..Achar jeso,
    Marwadi jat ro CONFIDENCE..
    KADAK..KHAKHRA Jeso,
    Marwadi jat ro SWABHAAV..MILANSAR..DAAL
    DHOKLI Jeso,
    MORAL:::
    Marwadi jat SAATHE raho TO BHUKHA koni
    RAHO.
    koi milyo to bataiyo re

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