"लाशें"
बात कुछ तीस साल पहले की है पुलिस उप अधीक्षक बने जुमा जुमा दो साल हुए थे. अपराध अन्वेषण के सिनसिले में मुझे राजस्थान के एक पश्चिमी जिले के एक गाँव में जाना था। सम्बंधित थाने में जा कर मैने अपना परिचय दिया और आने का उद्देश्य बताया। थानेदार साहब ने शानदार खातिरदारी कर तुरंत दो कांस्टेबल साहिबान को मेरे साथ कर दिया।
वो गाँव 20 किलोमीटर दूर था और जाने का साधन एक प्राइवेट खटारा बस थी। मैं सादा कपड़ो में था और सिपाही वर्दी में। दोनों कुछ डर और अदब के कारण कुछ दूर खड़े थे , जैसे ही बस आयी, वर्दी देख कर रुक गयी, शर्ट पेंट यानि शहरी लिबास देख कर ड्राईवर ने अपने पास की "वी आई पी" सीट बैठने का आग्रह किया। मैं वही जाकर बैठ गया और दोनों सिपाही बिलकुल पीछे जा कर बैठ गए।
कंडक्टर ने आकर पूछा … 'टिकट ?' …… मैंने कहा 'रूपनगढ़' और टिकट ले कर जेब में रख ली. हिचकोले खाती बस चल पड़ी।
कंडक्टर दस पंद्रह मिनिट में सभी को टिकट दे कर ड्राईवर के पास आकर खड़ा हो गया, ड्राइवर (जो बस का मालिक भी था) ने
पूछा "कितनी सवारी !!" …… कंडक्टर बोला "27 सवारी और दो लाशें" ........लाशें !! लाशो का नाम सुन कर मेरे कान खड़े हो गए,............. पीछे मुड़कर सारी बस में निगाहें गुमाई कुछ नज़र नहीं आया तब कंडेक्टर से पूछा "भाई लाशें कहा है ?"
वो हँस कर बोला "साब वो सिपाही बेटिकट ही चलते है ये बेगारी लाशें ढोने जैसी ही है। "
मैंने जेब में रखा टिकिट टटोला और उसे कस के पकड़ लिया बस मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया " थैंक्स गॉड आज मैं लाश बनने से बच गया."
( एक पुलिस अफसर की यादों की अलमारी से )
…………… नमन (संजय सूद)