"बोलना ले सीख" से आगे क्या?
{पूर्व प्रधानमंत्री माननीय चौधरी चरण सिंह जी की जन्म-जयंती २३ दिसंबर (किसान दिवस) पर विशेष}
बोलना सिर्फ उसी का, जिसकी देश की अर्थव्यवस्था और नीति-निर्धारण में जितनी गहरी पैठ! और किसान को यह पैठ एक ही सूरत में मिल सकती है यदि वह अपने उत्पाद का मूल्य दूसरों द्वारा निर्धारित करने की बंधुआ मजदूरी वाली प्रथा की बेड़ियां काटे और इसको अपने हाथ में ले तो|
भूमिका: एक समाज और संस्कृति तभी तक फल-फूल सकती है जब उसकी सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था में बराबर की भागीदारी व् समन्वय हो| और शायद इसी तरह की वेदना सर छोटूराम की यह कहते हुए रही होगी कि "ऐ मेरे भोले किसान! तू मेरी दो बात मान ले, «एक बोलना ले सीख और दूजा दुश्मन पहचान ले»। बचपन से ले कर आज तक जितनी भी चिंतन की समझ बना पाया हूँ, उसके पनपने में रहबरे-हिन्द की इस बात ने गहरी छाप छोड़ी है|
सही तारीख का तो पता नहीं कि रहबरे-हिन्द ने यह बात कब कही थी लेकिन जब कही थी तब भी इसकी मार्मिकता और आशय उतना ही औचित्यपूर्ण था और आज भी उतना ही औचित्यपूर्ण है| किसान को सीख, भाषण और डांट लगाने वाले आज भी गाहे-बगाहे उसको इन पंक्तियों का हवाला देते हैं, जैसे कि यह पंक्तियाँ भाषण हेतु सामग्री मात्र बन के रह गई हों और आज लगभग एक सदी बीत जाने के बाद भी ये पंक्तियाँ यूँ की यूँ यथावत किसान जाति के मत्थे पर जमी खड़ी हैं| क्या यही स्थाई भाग्य है किसान का? क्या यह पंक्तियाँ कभी बदलेंगी नहीं? क्या इनको मिटाने का कोई हल नहीं? इन्हीं सब झंझावट भरे सवालों के उत्तर तलाशने हेतु एक प्रयास है यह लेख|
बात की तह तक जाने से पहले "बंधुवा मजदूरी" क्या होती है इसपे चर्चा करते चलना होगा:
जब मैंने बड़े-बड़े कॉम्युनिस्टों से ले नीति-निर्धारकों से पूछा कि आखिर क्यों नहीं किसान को उसके उत्पाद का मूल्य निर्धारण का हक़ दिया जाता भारत में?
तो उन्होंने जवाब दिया कि हमें शंका है कि यह हक़ भारत में तो क्या पूरे विश्व में भी कहीं हो किसान के पास?
तो मैंने कॉम्युनिस्टों (जो कि मजदूरों के हकों के लिए लड़ने और बंधुवा मजदूरी के खिलाफ आवाज उठाने वालों में विश्व-विख्यात व् अग्रणी होते आये हैं) से खासकर पूछा कि तो क्या यह बंधुवा मजदूरी का एक रूप नहीं?
तो वो बोले कि किसान तो जमींदार होता है वह बंधुवा मजदूर कैसे हुआ?
मैंने कहा कि क्या नहीं जानते कि बंधुवा मजदूर वो होता है जिसको, उसके काम के बदले उससे काम लेने वाला जो दाम पकड़ा दे उसको बिना किसी मोल-भाव के चुपचाप एक गुलाम की तरह पकड़ लेना होता है?
तो वह बोले कि हाँ यही परिभाषा होती है एक बंधुवा मजदूर की|
तो फिर मैंने कहा कि तो किसान भी तो बंधुवा मजदूर ही हुआ? वो भी तो उसकी मेहनत यानि उसकी फसल रुपी उत्पाद के वही दाम पकड़ लेता है या उसको पकड़ने होते हैं जो सरकार या व्यापारी उसको पकड़ा दे? उसके आगे मोल-भाव करने का विकल्प कहाँ दिया गया है?
और वो जमींदार और उनका जमींदारा भी तभी तक होते हैं जब तक सरकार और व्यापार उनपे मेहरबान हैं| जिस दिन ये दोनों करवटें बदलते हैं, उस दिन किसान को उसकी जमीन से ऐसे अलग करके बैठा दिया जाता है जैसे अंग्रेज भारतीय रियासतों के राजाओं को उनकी सत्ता से बेदखल कर पेंशन दे के बैठा दिया करते थे और फिर उस रियासत में जो चाहे मनमानी करते थे; नहीं?
तो वो कहते हैं कि हाँ आप तो सच कह रहे हैं, वास्तव में तो 'किसान-जमींदार' बंधुवा मजदूर हुआ; और हैरान होते हुए बोले कि हमने तो ऐसा पहले सोचा ही नहीं कभी|
तब मैंने कहा कि और मेरा मानना है कि इसी बंधुवा मजदूरी में सर छोटूराम वाले "एक बोलना ले सीख और दूजा दुश्मन पहचान ले" की जड़ और हल दोनों छुपे हैं|
तो वो बोलते है कि वो कैसे?
तो मैंने कहा कि उसको समझने के लिए पहले आपको "थ्योरी ऑफ़ बिज़नस एंड थ्योरी ऑफ़ मनी एअरनिंग विद नीड ऑफ़ इंटरेक्शन एंड कम्युनिकेशन (theory of business and theory of money earning with need of interaction and communication) समझनी होंगी|
थ्योरी ऑफ़ बिज़नस (theory of business) का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है आदमी का आदमी द्वारा रिझाना, जो कि किसान के मामले में फसल को मंडी तक लाने तक सिमित कर दिया गया है| मंडी वो जगह है जहां से थ्योरी ऑफ़ बिज़नस (theory of business) और थ्योरी ऑफ़ मनी एअरनिंग (theory of money earning) चलती है| किसान द्वारा जो उत्पन्न किया गया वो थ्योरी ऑफ़ हार्ड एंड ऑनेस्ट वर्क टू गॉड (theory of hard and honest work to God) है, लेकिन मंडी से ले के मंडी से उठाये उत्पाद से बने प्रोडक्ट (product) जब वापिस किसान की दहलीज तक पहुंचाने का जो खेल होता है उसको कहते हैं थ्योरी ऑफ़ इंटरेक्शन एंड कम्युनिकेशन (theory of interaction and communication), जहां से किसान ही गायब है|
इस चक्र में नीचे की तरफ किसान को रोक दिया गया है मंडी तक और ऊपर की तरफ किसान को रोक दिया गया है दुकान के दरवाजे तक, जहां से वो उसी के उत्पाद से बनी चीजें उनके निर्धारित दामों पर खरीदता है|
और यहीं पर शुरू होता है किसान से उसी का माल उनके (व्यापारियों/सरकारों के निर्धारित दामों पर) द्वारा ले उसी को उनके (व्यापारियों/सरकारों के निर्धारित दामों पर) निर्धारित दामों पर खरीदने के इस चक्र में किसान को इससे बाहर रख उसपे "बोलना ले सीख" जैसी डांट मार उसको दब्बू, गंवार, गांवटी, मोलड़ बनाये रखने का खेल|
और जब तक यह चक्र नहीं टूटेगा या इसको तोड़ने को कोई आगे नहीं आएगा, सर छोटूराम की कही पंक्तियाँ अनंतकाल तक प्रलयकाल बन किसान को ऐसे ही सालती रहेंगी| उसको बंधुवा मजदूर बना के रखेंगी| और वैसे भी इतिहास और तारीखें गवाह रही हैं कि बंधुवा मजदूर को सर्व तो बोलने का हक़ नहीं होता और कोई बोलने दे भी तो उसकी बात को आदर नहीं मिलता, वजन व् महत्व नहीं मिलता| और वो महत्व इसलिए नहीं मिलता क्योंकि उसके हाथ में सिर्फ मेहनत के अलावा उससे काम लेने वालों ने, उसके मालिकों ने कोई हक़ नहीं छोड़ा होता| और किसान की बंधुवा मजदूरी के मामले में छुपे छदम भेष में हैं व्यापारी और सरकार| और जिसके पास हक़ नहीं होता, उसका स्वाभिमान सिमित होता है, परिधियों में बंधा हुआ होता है| और यही वो व्यथा है जिसकी बेड़ियां काटने का वक्त आ गया है|
और क्योंकि स्वाभिमान और अकड़/दुर्व्यवहार एक दूसरे के व्युत्क्रमानुपाती (inversely proportional) होते हैं; इसलिए स्वाभिमान कम तो दुर्व्यवहार ज्यादा और स्वाभिमान ज्यादा तो दुर्व्यवहार कम| और किसान का स्वाभिमान एक सीमित दायरे से ज्यादा बने, उसके तमाम रास्ते सदियों से बंद हैं| वो उस सीमित स्वाभिमान वाले दायरे की अकड़ को ही अपना अक्खड़पन समझ के जीवन बिताता है, जबकि असली अक्खड़पन की चरमसीमा तो कई पायदानों ऊपर है, जहां व्यापारी और सरकारें कुंडली मार के बैठे हैं| इसलिए अगर किसान की इन बंधुवा मजदूरी वाली बेड़ियां तोड़ने की पहल अगर विश्व में आजतक कहीं नहीं हुई है तो भारत से शुरू करनी होगी, भारत में भी कहीं नहीं हुई तो हरियाणा (खापलैंड) से ही सही पर यह शुरू करनी होगी| इन बेड़ियों को काटने हेतु, किसान के स्वाभिमान पे खींची इन परिधियों के डोरों को काटने हेतु किसान को इस "बोलना ले सीख" की बात को अब आगे ले के चलना होगा|
"बोलना ले सीख" की व्याधा किसान की जिंदगी में झील के ठहरे पानी सी क्यों जमी हुई है?:
जैसे कि ऊपर देखा एक बंधुवा मजदूर की अपनी कोई मर्जी नहीं होती और जितनी मर्जी उसके लिए छोड़ी जाती है वो उसकी मेहनत का मोल निर्धारित करने वालों द्वारा सिर्फ इस हद तक छोड़ता है कि मजदूर सिर्फ जीने के लिए रेंग सको| और रेंग के जीना कोई जीना नहीं होता| और इन ऊपर-चर्चित कारणों की वजह से किसान के जीवन में यह रेंगना झील के पानी की तरह ठहर चुका है|
इसपे एक-आध बड़े-जमींदार घरानों के लोग बोल सकते हैं कि हमें क्या कमी है हम तो राजा हैं| हो सकता है आप राजा हों पर ऐसे राजा जो अपनी स्व्छंदता से समाज नहीं चलाता, अपने तथाकथित दस-बीस-पचास एकड़ के राज्य के उत्पादों में लगी मेहनत का मूल्य स्वंय निर्धारित नहीं करता|
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