Kindly also read
Jat History Thakur Deshraj/Chapter II available on Jatland. I reproduce here-
श्रीकृष्ण द्वारा ज्ञाति-संघ की स्थापना
महाभारत के उपर्युक्त सन्दर्भ (कथा) का सारांश यह है कि - यदुवंश के दो कुलों - अंधक और वृष्णियों - ने एक राजनैतिक-संघ (लीग) स्थापित किया था। उस संघ मे दो राजनैतिक दल थे जिनमें एक की तरफ श्रीकृष्ण और दूसरे की तरफ उग्रसेन थे । कृष्ण दल के जो लोग थे, वे बलवान बुद्धिमान होते हुए भी आलसी और प्रमादी थे। इसीलिये दूसरे दल के मुकाबले में श्रीकृष्ण को वाद-विवाद के समय अधिक दिक्कतें उठानी पड़ती थीं। उनकी पार्लियामेंट या कोन्सिल में खूब वाद-विवाद हुआ करते थे, क्योंकि वह प्रत्येक राजनैतिक काम में प्रभुत्व स्थापित करना चाहती थी । इन्हीं अपनी कठिनाइयों का वर्णन श्रीकृष्ण ने नारद से किया है और नारद ने उन्हें जोर के साथ यही सलाह दी है कि जैसे भी बन सके संघ (फेड्रेशन) को नष्ट न होने दें। अर्थात् संघ को नारद अत्युत्तम समझते थे।
संघ-संचालन के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है, वे भी उन्होंने श्रीकृष्ण को बताए। हम पहले अध्याय में यह बता चुके हैं कि श्रीकृष्ण प्रजातंत्रवादी विचार के लोगों में से थे और उसी समय में दुर्योधन, जरासंघ, कंस, शिशुपाल आदि साम्राज्यवादी शासक भी मौजूद थे। श्रीकृष्ण का और उनके विरोध का यही मुख्य कारण था। मथुरा के आस-पास कंस ने गौपराष्ट्र, नवराष्ट्र आदि प्रजातंत्रों को नष्ट करके साम्राज्य की नींव डाल दी थी। मगध में जरासंघ ने एक बड़ा साम्राज्य खड़ा कर दिया था। कंस को परास्त करने के बाद श्रीकृष्ण ने यादवों के अनेक प्रजातन्त्री समूहों को श्रृंखलाबद्ध करने के लिए जरासंघ की निगाह से सुदूर द्वारिका में जा के एक ऐसी शासन-प्रणाली की नींव डाली जो प्रजातंत्री भी थी और जिसमें अनेक जातियां शामिल भी हो सकती थीं । इस शासन-प्रणाली को संयुक्त शासन-तंत्र या भोज-शासन-सम्बन्ध कह कसते हैं। इसमें प्रत्येक दल की तरफ से एक प्रेसिडेंट होता था जैसा कि ऊपर के वर्णन से प्रकट है कि अंधकों की ओर से उग्रसेन और वृष्णियों की ओर से श्रीकृष्ण निर्वाचित सभापति या प्रधान थे। हमारे इतिहास से सम्बन्धित बातें जो उक्त सन्दर्भ में निकलती हैं, वे ये हैं-
1. श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित जिस संघ का ऊपर वर्णन किया गया है ज्ञाति-संघ कहलाता था,
2. कोई भी राजकुल या जाति इस जाति-संघ में शामिल हो सकती थी,
3. चूंकि यह संघ ज्ञाति-प्रधान था, व्यक्ति-प्रधान नहीं, इसलिए संघ में शामिल होते ही उस जाति या वंश के पूर्व नाम की कोई विशेषता न रहती थी ।
1. उपर्युक्त श्लोकों का अर्थ ‘हिन्दू राज्य तंत्र’ से लिया गया है।
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-106
----
की वह ‘ज्ञाति’ संज्ञा में आ जाता था। हां, वैवाहिक सम्बन्धों के लिए वे अपने वंशों के नाम को स्मरण रखते थे जो कालांतर में गोत्रों के रूप में परिणत हो गए,
4. ज्ञाति के स्थापन से एक बात यह और हुई कि एक ही राज्यवंश के कुछ लोग साम्राज्यवादी विचार के होने के कारण और कुछ लोग प्रजातंत्रवादी मत रखने से दो श्रेणियों में विभाजित हो गए। एक साम्राज्यवादी अथवा राजन्य, दूसरे प्रजातन्त्र वादी (ज्ञातिवादी)। ज्ञाति के विधान तथा नियम और शासन-प्रणाली में विश्वास रखने वाले और उसे देश और समाज के लिए कल्याणकारी समझने वाले लोग आगे चलकर के ज्ञात कहलाने लगे। अर्थात्-ज्ञातवादी ही, ज्ञात, जात अथवा जाट नाम से प्रसिद्ध हुए। इसमें यह प्रश्न किया जा सकता है कि ज्ञाति से सम्बन्ध रखने वाले ज्ञात कैसे कहलाने लगे? इसके लिए प्रत्यक्ष उदाहरण है कि कम्यूनिज्म के मानने वाले कम्यूनिष्ट और शोशलिज्म के अनुयायी शोशलिस्ट कांग्रेस वाले कांग्रेसी, समाजवाद वाले समाजी कहे जाते हैं। पहले भी ऐसा ही होता था। विष्णु के उपासक ‘वैष्णव’, शिव के अनुयायी ‘शैव’ और शक्तियों में विश्वास रखने वाले ‘शाक्त’ कहलाते थे।
ज्ञात का उच्चारण हिन्दी और सरल संस्कृत में जात होता है। फिर जिस समय से ज्ञात से जात या जाट आम बोल-चाल में प्रयोग होने लगा, उस समय उत्तर भारत की भाषा संस्कृत मिश्रित पैशाची (प्राकृत) थी। इसलिए वह कोई असम्भव बात नहीं कि तत्कालीन बोलचाल के अनुसार ज्ञात अथवा जात से जट वा जाट हो गया1 और उसी को उत्तर-भारत के प्रसिद्ध व्याकरण रचियता पाणिनि ने जो कि जाटों के पूर्व इतिहास से पूर्णतया परिचित जान पड़ता है, अपने धातुपाठ में जट झट संघाते सूत्र लिखा है।
1. माधुरी वर्ष 4 खण्ड 2 संख्या 3 में आनन्द बन्धु लिखते हैं - हमें इस बात का पूर्ण ज्ञान है कि पंजाबी, हिन्दू-आर्य भाषाओं के मध्य-प्रान्त की भाषा है और यह निरी मिश्रित भाषा ही है। परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि लुन्डा, पंजाबी, पश्चिमी हिन्दी, और सिन्धी यह सारी भाषाएं प्राकृत से निकली हैं । उदहारण के तौर पर देख लीजिए कि संस्कृत शब्द भक्त का अपभ्रंश-प्राकृत के रूप भट्ट है जो पश्चिमी हिन्दी में ज्ञात, सिन्धी से भट कहलाता है। इस प्रकार ये सारी भाषाएं प्राकृत ये निकली हैं ।
प्राकृत भाषा कब प्रचलित हुई इस बात का पूरा पता नहीं। परन्तु यह तय हो चुका है कि संस्कृत भाषा पूर्वकाल में समस्त भारत में कहीं न कहीं बोली जाती थी। जिस प्रकार अंग्रेजी में बोल चाल की भाषा और लिपिबद्ध अंग्रेजी में बहुत भेद है अर्थात् कई शब्द ऐसे हैं जो केवल बोल-चाल में ही व्यवहृत होते हैं लेकिन लिखने-पढ़ने में प्रयुक्त नहीं होते। इसी प्रकार जब संस्कृत भाषा का प्रचार था तो प्राकृत बोल-चाल की भाषा थी। प्राकृत भाषा संस्कृत का रूपान्तर है और शेष सारी भाषाएं प्राकृत से निकली हैं। पृ.366
नोट - बस जैसा संस्कृत भक्त का प्राकृत भट्ट है, उसी भांति संस्कृत ज्ञात का प्राकृत जात अथवा जट्ट है। (लेखक)
-----
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-107
श्रीकृष्ण के इस संघ का अनुकरण कर पूर्वोत्तर भारत में अनेक क्षत्रिय जाति अथवा राजवंशों ने ज्ञाति (संघ) की स्थापना की। पाणिनि ने 5, 3, 114 से 117 तक वाहीक देश के संघों के सम्बन्ध में तिद्धत के नियम दिए हैं। उन नियमों से यही सिद्ध होता है कि आर्य-जाति और राजवंशों के सम्मिलित से संघ स्थापित होते थे। श्रीकाशीप्रसाद जायसवाल हिन्दू राज्यतन्त्र में लिखते हैं कि - पाणिनि धार्मिक संघों से परिचित नहीं था। उसने अपने व्याकरण में जिन संघों का उल्लेख किया है वे सब राजनैतिक (प्रजातन्त्री) संघ थे।
ऐसे संघ अर्थात् इस तरह की ज्ञाति सबसे अधिक ‘वाहीक’ देश (पंजाब, सिन्ध, गन्धार) में बनी थी। काशीप्रसाद जायसवाल ने ‘वाहीक’ का अर्थ नदियों का प्रदेश माना है जिससे कि हमारे कथन की पुष्टि होती है। महाभारत में शान्तनु के भाई वाल्हीक के देश को ‘वाहीक’ कहा है और वाल्हीक प्रतीक का पुत्र और शान्तनु का भाई बताया गया है। इससे यह मतलब निकलता है कि पंजाब में अधिकांश संघ चन्द्रवंशी क्षत्रियों के थे। बिहार में अथवा नेपाल की तराई में शाक्य और वृजियों तथा लिच्छिवि आदि के संघ थे। यहां एक ऐसे राज्यवंश का भी पता चलता है जो कि अपने लिए ज्ञातृ कहते थे जो कि हमारे ज्ञात शब्द का समान-वाची है जिसमें कि भगवान महावीर पैदा हुए थे।
बिहार और बंगाल में इस समय ज्ञातृ वंश का कुछ भी पता नहीं चलता। जनवरी सन् 32 की गंगा मासिक पत्रिका में त्रिपिटकाचार्य राहुल सांकृत्यायन ने ‘बसाढ़ की खुदाई’ नामक लेख में यह साबित करने की चेष्टा की थी कि बेतिया का राजवंश जथरिया नाम होने के कारण ज्ञातृवंश है। किन्तु चूंकि बेतिया का राजवंश ब्राह्मण, ज्ञातृ लोग क्षत्री थे, इसी आधार को लेकर पं. जगन्नाथ शर्मा एम.ए. ने सांकृत्यायन की धारणा का विरोध किया है। निश्चय ही बिहार के ज्ञातृ भी जाट ही थे जो समय पाकर अधिक संख्या में बसे हुए अपने भाइयों की तरफ पंजाब में आ गए। उधर से उनके पंजाब की तरफ आने का कारण पौराणिक धर्म से संघर्ष भी हो सकता है।
जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं पंजाब के चन्द्रवंशी क्षत्रिय बाल्हीक कहलाते थे। वेदों में वाहीक व वाल्हीक शब्द आते हैं। पुराणों में भी इनका जिक्र है|
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-108
-----
लेकिन पुराणों ने उनको अच्छे शब्दों में नहीं लिया। इसका कारण यही हो सकता है कि पुराणपंथी प्रजातन्त्र शासन से सन्तुष्ट नहीं थे। धर्म-ग्रन्थों के सम्बन्ध में उनके चाहे जैसे विचार रहे हों, पर इसमें सन्देह नहीं कि वाहीक देश के प्रायः सारे राज्यवंश प्रजातंत्र शासन-प्रणाली के मानने वाले (ज्ञातिवाद) अथवा जाट थे। और वाहीक देश से ही ये मालवा, राजपूताना, अफगानिस्तान, ईरान आदि दूर देशों तक पहुंचे। चीन की तरफ बढ़ने वालों का नाम जिट, जेटा, गात आदि हो गया। अरबी साहित्य में जाट, शब्द के स्थान पर उनके लिए जत नाम शब्द का प्रयोग किया गया है। ईसा से 480 वर्ष पूर्व जरक्सीज ने जाटों की सहायता से यूनान पर धावा किया था। उस धावे में गांधार (जाटों का एक गोत विशेष) अधिक संख्या में शामिल थे।
जाट शब्द की उत्पत्ति के इतिहास और कारणों के सम्बन्ध में, हमारी स्थापना और धारणा के लिए, इतना वर्णन तथा सबूत काफी है। इसके सिवाय दूसरा कोई मत हो ही नही सकता कि जाट ज्ञात के अतिरिक्त कुछ और हैं ।
जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अन्य इतिहासकारों को जो कल्पनाएं लगानी पड़ी हैं, उनकी समीक्षा करते हुए जाटों की उत्पत्ति-सम्बन्धी वास्तविक इतिहास तथा उत्पत्तिमूलक शब्द का प्रकाश में लाकर भविष्य के इतिहासकारों और अन्वेषकों की इस कठिनाई को सुलझा दिया गया है, जो उन्हें जाट शब्द की खोज के लिए उठानी पड़ती ! हमें यह भी आशा है कि जिन लोगों ने हैरानी के कारण अर्थात् तथ्य तक न पहुंचने की वजह से, कुछ अपूर्ण एवं निराधार धारणाएं बनाई थीं, वे भी हमारी खोजपूर्ण और सही स्थापना से सहमत होंगे।
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-109