Page 2 of 4 FirstFirst 1 2 3 4 LastLast
Results 21 to 40 of 68

Thread: Unearthing the Ancient Jat History in Saurashtra (Gujarat)

  1. #21
    Kindly also read [wiki]Jat History Thakur Deshraj/Chapter II[/wiki] available on Jatland. I reproduce here-

    श्रीकृष्ण द्वारा ज्ञाति-संघ की स्थापना

    महाभारत के उपर्युक्त सन्दर्भ (कथा) का सारांश यह है कि - यदुवंश के दो कुलों - अंधक और वृष्णियों - ने एक राजनैतिक-संघ (लीग) स्थापित किया था। उस संघ मे दो राजनैतिक दल थे जिनमें एक की तरफ श्रीकृष्ण और दूसरे की तरफ उग्रसेन थे । कृष्ण दल के जो लोग थे, वे बलवान बुद्धिमान होते हुए भी आलसी और प्रमादी थे। इसीलिये दूसरे दल के मुकाबले में श्रीकृष्ण को वाद-विवाद के समय अधिक दिक्कतें उठानी पड़ती थीं। उनकी पार्लियामेंट या कोन्सिल में खूब वाद-विवाद हुआ करते थे, क्योंकि वह प्रत्येक राजनैतिक काम में प्रभुत्व स्थापित करना चाहती थी । इन्हीं अपनी कठिनाइयों का वर्णन श्रीकृष्ण ने नारद से किया है और नारद ने उन्हें जोर के साथ यही सलाह दी है कि जैसे भी बन सके संघ (फेड्रेशन) को नष्ट न होने दें। अर्थात् संघ को नारद अत्युत्तम समझते थे।

    संघ-संचालन के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है, वे भी उन्होंने श्रीकृष्ण को बताए। हम पहले अध्याय में यह बता चुके हैं कि श्रीकृष्ण प्रजातंत्रवादी विचार के लोगों में से थे और उसी समय में दुर्योधन, जरासंघ, कंस, शिशुपाल आदि साम्राज्यवादी शासक भी मौजूद थे। श्रीकृष्ण का और उनके विरोध का यही मुख्य कारण था। मथुरा के आस-पास कंस ने गौपराष्ट्र, नवराष्ट्र आदि प्रजातंत्रों को नष्ट करके साम्राज्य की नींव डाल दी थी। मगध में जरासंघ ने एक बड़ा साम्राज्य खड़ा कर दिया था। कंस को परास्त करने के बाद श्रीकृष्ण ने यादवों के अनेक प्रजातन्त्री समूहों को श्रृंखलाबद्ध करने के लिए जरासंघ की निगाह से सुदूर द्वारिका में जा के एक ऐसी शासन-प्रणाली की नींव डाली जो प्रजातंत्री भी थी और जिसमें अनेक जातियां शामिल भी हो सकती थीं । इस शासन-प्रणाली को संयुक्त शासन-तंत्र या भोज-शासन-सम्बन्ध कह कसते हैं। इसमें प्रत्येक दल की तरफ से एक प्रेसिडेंट होता था जैसा कि ऊपर के वर्णन से प्रकट है कि अंधकों की ओर से उग्रसेन और वृष्णियों की ओर से श्रीकृष्ण निर्वाचित सभापति या प्रधान थे। हमारे इतिहास से सम्बन्धित बातें जो उक्त सन्दर्भ में निकलती हैं, वे ये हैं-

    1. श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित जिस संघ का ऊपर वर्णन किया गया है ज्ञाति-संघ कहलाता था,
    2. कोई भी राजकुल या जाति इस जाति-संघ में शामिल हो सकती थी,
    3. चूंकि यह संघ ज्ञाति-प्रधान था, व्यक्ति-प्रधान नहीं, इसलिए संघ में शामिल होते ही उस जाति या वंश के पूर्व नाम की कोई विशेषता न रहती थी ।

    1. उपर्युक्त श्लोकों का अर्थ ‘हिन्दू राज्य तंत्र’ से लिया गया है।

    जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-106
    ----

    की वह ‘ज्ञाति’ संज्ञा में आ जाता था। हां, वैवाहिक सम्बन्धों के लिए वे अपने वंशों के नाम को स्मरण रखते थे जो कालांतर में गोत्रों के रूप में परिणत हो गए,

    4. ज्ञाति के स्थापन से एक बात यह और हुई कि एक ही राज्यवंश के कुछ लोग साम्राज्यवादी विचार के होने के कारण और कुछ लोग प्रजातंत्रवादी मत रखने से दो श्रेणियों में विभाजित हो गए। एक साम्राज्यवादी अथवा राजन्य, दूसरे प्रजातन्त्र वादी (ज्ञातिवादी)। ज्ञाति के विधान तथा नियम और शासन-प्रणाली में विश्वास रखने वाले और उसे देश और समाज के लिए कल्याणकारी समझने वाले लोग आगे चलकर के ज्ञात कहलाने लगे। अर्थात्-ज्ञातवादी ही, ज्ञात, जात अथवा जाट नाम से प्रसिद्ध हुए। इसमें यह प्रश्न किया जा सकता है कि ज्ञाति से सम्बन्ध रखने वाले ज्ञात कैसे कहलाने लगे? इसके लिए प्रत्यक्ष उदाहरण है कि कम्यूनिज्म के मानने वाले कम्यूनिष्ट और शोशलिज्म के अनुयायी शोशलिस्ट कांग्रेस वाले कांग्रेसी, समाजवाद वाले समाजी कहे जाते हैं। पहले भी ऐसा ही होता था। विष्णु के उपासक ‘वैष्णव’, शिव के अनुयायी ‘शैव’ और शक्तियों में विश्वास रखने वाले ‘शाक्त’ कहलाते थे।
    ज्ञात का उच्चारण हिन्दी और सरल संस्कृत में जात होता है। फिर जिस समय से ज्ञात से जात या जाट आम बोल-चाल में प्रयोग होने लगा, उस समय उत्तर भारत की भाषा संस्कृत मिश्रित पैशाची (प्राकृत) थी। इसलिए वह कोई असम्भव बात नहीं कि तत्कालीन बोलचाल के अनुसार ज्ञात अथवा जात से जट वा जाट हो गया1 और उसी को उत्तर-भारत के प्रसिद्ध व्याकरण रचियता पाणिनि ने जो कि जाटों के पूर्व इतिहास से पूर्णतया परिचित जान पड़ता है, अपने धातुपाठ में जट झट संघाते सूत्र लिखा है।

    1. माधुरी वर्ष 4 खण्ड 2 संख्या 3 में आनन्द बन्धु लिखते हैं - हमें इस बात का पूर्ण ज्ञान है कि पंजाबी, हिन्दू-आर्य भाषाओं के मध्य-प्रान्त की भाषा है और यह निरी मिश्रित भाषा ही है। परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि लुन्डा, पंजाबी, पश्चिमी हिन्दी, और सिन्धी यह सारी भाषाएं प्राकृत से निकली हैं । उदहारण के तौर पर देख लीजिए कि संस्कृत शब्द भक्त का अपभ्रंश-प्राकृत के रूप भट्ट है जो पश्चिमी हिन्दी में ज्ञात, सिन्धी से भट कहलाता है। इस प्रकार ये सारी भाषाएं प्राकृत ये निकली हैं ।
    प्राकृत भाषा कब प्रचलित हुई इस बात का पूरा पता नहीं। परन्तु यह तय हो चुका है कि संस्कृत भाषा पूर्वकाल में समस्त भारत में कहीं न कहीं बोली जाती थी। जिस प्रकार अंग्रेजी में बोल चाल की भाषा और लिपिबद्ध अंग्रेजी में बहुत भेद है अर्थात् कई शब्द ऐसे हैं जो केवल बोल-चाल में ही व्यवहृत होते हैं लेकिन लिखने-पढ़ने में प्रयुक्त नहीं होते। इसी प्रकार जब संस्कृत भाषा का प्रचार था तो प्राकृत बोल-चाल की भाषा थी। प्राकृत भाषा संस्कृत का रूपान्तर है और शेष सारी भाषाएं प्राकृत से निकली हैं। पृ.366
    नोट - बस जैसा संस्कृत भक्त का प्राकृत भट्ट है, उसी भांति संस्कृत ज्ञात का प्राकृत जात अथवा जट्ट है। (लेखक)
    -----
    जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-107

    श्रीकृष्ण के इस संघ का अनुकरण कर पूर्वोत्तर भारत में अनेक क्षत्रिय जाति अथवा राजवंशों ने ज्ञाति (संघ) की स्थापना की। पाणिनि ने 5, 3, 114 से 117 तक वाहीक देश के संघों के सम्बन्ध में तिद्धत के नियम दिए हैं। उन नियमों से यही सिद्ध होता है कि आर्य-जाति और राजवंशों के सम्मिलित से संघ स्थापित होते थे। श्रीकाशीप्रसाद जायसवाल हिन्दू राज्यतन्त्र में लिखते हैं कि - पाणिनि धार्मिक संघों से परिचित नहीं था। उसने अपने व्याकरण में जिन संघों का उल्लेख किया है वे सब राजनैतिक (प्रजातन्त्री) संघ थे।

    ऐसे संघ अर्थात् इस तरह की ज्ञाति सबसे अधिक ‘वाहीक’ देश (पंजाब, सिन्ध, गन्धार) में बनी थी। काशीप्रसाद जायसवाल ने ‘वाहीक’ का अर्थ नदियों का प्रदेश माना है जिससे कि हमारे कथन की पुष्टि होती है। महाभारत में शान्तनु के भाई वाल्हीक के देश को ‘वाहीक’ कहा है और वाल्हीक प्रतीक का पुत्र और शान्तनु का भाई बताया गया है। इससे यह मतलब निकलता है कि पंजाब में अधिकांश संघ चन्द्रवंशी क्षत्रियों के थे। बिहार में अथवा नेपाल की तराई में शाक्य और वृजियों तथा लिच्छिवि आदि के संघ थे। यहां एक ऐसे राज्यवंश का भी पता चलता है जो कि अपने लिए ज्ञातृ कहते थे जो कि हमारे ज्ञात शब्द का समान-वाची है जिसमें कि भगवान महावीर पैदा हुए थे।

    बिहार और बंगाल में इस समय ज्ञातृ वंश का कुछ भी पता नहीं चलता। जनवरी सन् 32 की गंगा मासिक पत्रिका में त्रिपिटकाचार्य राहुल सांकृत्यायन ने ‘बसाढ़ की खुदाई’ नामक लेख में यह साबित करने की चेष्टा की थी कि बेतिया का राजवंश जथरिया नाम होने के कारण ज्ञातृवंश है। किन्तु चूंकि बेतिया का राजवंश ब्राह्मण, ज्ञातृ लोग क्षत्री थे, इसी आधार को लेकर पं. जगन्नाथ शर्मा एम.ए. ने सांकृत्यायन की धारणा का विरोध किया है। निश्चय ही बिहार के ज्ञातृ भी जाट ही थे जो समय पाकर अधिक संख्या में बसे हुए अपने भाइयों की तरफ पंजाब में आ गए। उधर से उनके पंजाब की तरफ आने का कारण पौराणिक धर्म से संघर्ष भी हो सकता है।

    जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं पंजाब के चन्द्रवंशी क्षत्रिय बाल्हीक कहलाते थे। वेदों में वाहीक व वाल्हीक शब्द आते हैं। पुराणों में भी इनका जिक्र है|

    जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-108
    -----

    लेकिन पुराणों ने उनको अच्छे शब्दों में नहीं लिया। इसका कारण यही हो सकता है कि पुराणपंथी प्रजातन्त्र शासन से सन्तुष्ट नहीं थे। धर्म-ग्रन्थों के सम्बन्ध में उनके चाहे जैसे विचार रहे हों, पर इसमें सन्देह नहीं कि वाहीक देश के प्रायः सारे राज्यवंश प्रजातंत्र शासन-प्रणाली के मानने वाले (ज्ञातिवाद) अथवा जाट थे। और वाहीक देश से ही ये मालवा, राजपूताना, अफगानिस्तान, ईरान आदि दूर देशों तक पहुंचे। चीन की तरफ बढ़ने वालों का नाम जिट, जेटा, गात आदि हो गया। अरबी साहित्य में जाट, शब्द के स्थान पर उनके लिए जत नाम शब्द का प्रयोग किया गया है। ईसा से 480 वर्ष पूर्व जरक्सीज ने जाटों की सहायता से यूनान पर धावा किया था। उस धावे में गांधार (जाटों का एक गोत विशेष) अधिक संख्या में शामिल थे।

    जाट शब्द की उत्पत्ति के इतिहास और कारणों के सम्बन्ध में, हमारी स्थापना और धारणा के लिए, इतना वर्णन तथा सबूत काफी है। इसके सिवाय दूसरा कोई मत हो ही नही सकता कि जाट ज्ञात के अतिरिक्त कुछ और हैं ।

    जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अन्य इतिहासकारों को जो कल्पनाएं लगानी पड़ी हैं, उनकी समीक्षा करते हुए जाटों की उत्पत्ति-सम्बन्धी वास्तविक इतिहास तथा उत्पत्तिमूलक शब्द का प्रकाश में लाकर भविष्य के इतिहासकारों और अन्वेषकों की इस कठिनाई को सुलझा दिया गया है, जो उन्हें जाट शब्द की खोज के लिए उठानी पड़ती ! हमें यह भी आशा है कि जिन लोगों ने हैरानी के कारण अर्थात् तथ्य तक न पहुंचने की वजह से, कुछ अपूर्ण एवं निराधार धारणाएं बनाई थीं, वे भी हमारी खोजपूर्ण और सही स्थापना से सहमत होंगे।

    जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-109
    Laxman Burdak

  2. The Following User Says Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    rajpaldular (February 3rd, 2014)

  3. #22
    Quote Originally Posted by lrburdak View Post
    Kindly also read Jat History Thakur Deshraj/Chapter II available on Jatland. I reproduce here-

    श्रीकृष्ण द्वारा ज्ञाति-संघ की स्थापना

    महाभारत के उपर्युक्त सन्दर्भ (कथा) का सारांश यह है कि - यदुवंश के दो कुलों - अंधक और वृष्णियों - ने एक राजनैतिक-संघ (लीग) स्थापित किया था। उस संघ मे दो राजनैतिक दल थे जिनमें एक की तरफ श्रीकृष्ण और दूसरे की तरफ उग्रसेन थे । कृष्ण दल के जो लोग थे, वे बलवान बुद्धिमान होते हुए भी आलसी और प्रमादी थे। इसीलिये दूसरे दल के मुकाबले में श्रीकृष्ण को वाद-विवाद के समय अधिक दिक्कतें उठानी पड़ती थीं। उनकी पार्लियामेंट या कोन्सिल में खूब वाद-विवाद हुआ करते थे, क्योंकि वह प्रत्येक राजनैतिक काम में प्रभुत्व स्थापित करना चाहती थी । इन्हीं अपनी कठिनाइयों का वर्णन श्रीकृष्ण ने नारद से किया है और नारद ने उन्हें जोर के साथ यही सलाह दी है कि जैसे भी बन सके संघ (फेड्रेशन) को नष्ट न होने दें। अर्थात् संघ को नारद अत्युत्तम समझते थे।

    संघ-संचालन के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है, वे भी उन्होंने श्रीकृष्ण को बताए। हम पहले अध्याय में यह बता चुके हैं कि श्रीकृष्ण प्रजातंत्रवादी विचार के लोगों में से थे और उसी समय में दुर्योधन, जरासंघ, कंस, शिशुपाल आदि साम्राज्यवादी शासक भी मौजूद थे। श्रीकृष्ण का और उनके विरोध का यही मुख्य कारण था। मथुरा के आस-पास कंस ने गौपराष्ट्र, नवराष्ट्र आदि प्रजातंत्रों को नष्ट करके साम्राज्य की नींव डाल दी थी। मगध में जरासंघ ने एक बड़ा साम्राज्य खड़ा कर दिया था। कंस को परास्त करने के बाद श्रीकृष्ण ने यादवों के अनेक प्रजातन्त्री समूहों को श्रृंखलाबद्ध करने के लिए जरासंघ की निगाह से सुदूर द्वारिका में जा के एक ऐसी शासन-प्रणाली की नींव डाली जो प्रजातंत्री भी थी और जिसमें अनेक जातियां शामिल भी हो सकती थीं । इस शासन-प्रणाली को संयुक्त शासन-तंत्र या भोज-शासन-सम्बन्ध कह कसते हैं। इसमें प्रत्येक दल की तरफ से एक प्रेसिडेंट होता था जैसा कि ऊपर के वर्णन से प्रकट है कि अंधकों की ओर से उग्रसेन और वृष्णियों की ओर से श्रीकृष्ण निर्वाचित सभापति या प्रधान थे। हमारे इतिहास से सम्बन्धित बातें जो उक्त सन्दर्भ में निकलती हैं, वे ये हैं-

    1. श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित जिस संघ का ऊपर वर्णन किया गया है ज्ञाति-संघ कहलाता था,
    2. कोई भी राजकुल या जाति इस जाति-संघ में शामिल हो सकती थी,
    3. चूंकि यह संघ ज्ञाति-प्रधान था, व्यक्ति-प्रधान नहीं, इसलिए संघ में शामिल होते ही उस जाति या वंश के पूर्व नाम की कोई विशेषता न रहती थी ।

    1. उपर्युक्त श्लोकों का अर्थ ‘हिन्दू राज्य तंत्र’ से लिया गया है।

    जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-106
    ----

    की वह ‘ज्ञाति’ संज्ञा में आ जाता था। हां, वैवाहिक सम्बन्धों के लिए वे अपने वंशों के नाम को स्मरण रखते थे जो कालांतर में गोत्रों के रूप में परिणत हो गए,

    4. ज्ञाति के स्थापन से एक बात यह और हुई कि एक ही राज्यवंश के कुछ लोग साम्राज्यवादी विचार के होने के कारण और कुछ लोग प्रजातंत्रवादी मत रखने से दो श्रेणियों में विभाजित हो गए। एक साम्राज्यवादी अथवा राजन्य, दूसरे प्रजातन्त्र वादी (ज्ञातिवादी)। ज्ञाति के विधान तथा नियम और शासन-प्रणाली में विश्वास रखने वाले और उसे देश और समाज के लिए कल्याणकारी समझने वाले लोग आगे चलकर के ज्ञात कहलाने लगे। अर्थात्-ज्ञातवादी ही, ज्ञात, जात अथवा जाट नाम से प्रसिद्ध हुए। इसमें यह प्रश्न किया जा सकता है कि ज्ञाति से सम्बन्ध रखने वाले ज्ञात कैसे कहलाने लगे? इसके लिए प्रत्यक्ष उदाहरण है कि कम्यूनिज्म के मानने वाले कम्यूनिष्ट और शोशलिज्म के अनुयायी शोशलिस्ट कांग्रेस वाले कांग्रेसी, समाजवाद वाले समाजी कहे जाते हैं। पहले भी ऐसा ही होता था। विष्णु के उपासक ‘वैष्णव’, शिव के अनुयायी ‘शैव’ और शक्तियों में विश्वास रखने वाले ‘शाक्त’ कहलाते थे।
    ज्ञात का उच्चारण हिन्दी और सरल संस्कृत में जात होता है। फिर जिस समय से ज्ञात से जात या जाट आम बोल-चाल में प्रयोग होने लगा, उस समय उत्तर भारत की भाषा संस्कृत मिश्रित पैशाची (प्राकृत) थी। इसलिए वह कोई असम्भव बात नहीं कि तत्कालीन बोलचाल के अनुसार ज्ञात अथवा जात से जट वा जाट हो गया1 और उसी को उत्तर-भारत के प्रसिद्ध व्याकरण रचियता पाणिनि ने जो कि जाटों के पूर्व इतिहास से पूर्णतया परिचित जान पड़ता है, अपने धातुपाठ में जट झट संघाते सूत्र लिखा है।

    1. माधुरी वर्ष 4 खण्ड 2 संख्या 3 में आनन्द बन्धु लिखते हैं - हमें इस बात का पूर्ण ज्ञान है कि पंजाबी, हिन्दू-आर्य भाषाओं के मध्य-प्रान्त की भाषा है और यह निरी मिश्रित भाषा ही है। परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि लुन्डा, पंजाबी, पश्चिमी हिन्दी, और सिन्धी यह सारी भाषाएं प्राकृत से निकली हैं । उदहारण के तौर पर देख लीजिए कि संस्कृत शब्द भक्त का अपभ्रंश-प्राकृत के रूप भट्ट है जो पश्चिमी हिन्दी में ज्ञात, सिन्धी से भट कहलाता है। इस प्रकार ये सारी भाषाएं प्राकृत ये निकली हैं ।
    प्राकृत भाषा कब प्रचलित हुई इस बात का पूरा पता नहीं। परन्तु यह तय हो चुका है कि संस्कृत भाषा पूर्वकाल में समस्त भारत में कहीं न कहीं बोली जाती थी। जिस प्रकार अंग्रेजी में बोल चाल की भाषा और लिपिबद्ध अंग्रेजी में बहुत भेद है अर्थात् कई शब्द ऐसे हैं जो केवल बोल-चाल में ही व्यवहृत होते हैं लेकिन लिखने-पढ़ने में प्रयुक्त नहीं होते। इसी प्रकार जब संस्कृत भाषा का प्रचार था तो प्राकृत बोल-चाल की भाषा थी। प्राकृत भाषा संस्कृत का रूपान्तर है और शेष सारी भाषाएं प्राकृत से निकली हैं। पृ.366
    नोट - बस जैसा संस्कृत भक्त का प्राकृत भट्ट है, उसी भांति संस्कृत ज्ञात का प्राकृत जात अथवा जट्ट है। (लेखक)
    -----
    जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-107

    श्रीकृष्ण के इस संघ का अनुकरण कर पूर्वोत्तर भारत में अनेक क्षत्रिय जाति अथवा राजवंशों ने ज्ञाति (संघ) की स्थापना की। पाणिनि ने 5, 3, 114 से 117 तक वाहीक देश के संघों के सम्बन्ध में तिद्धत के नियम दिए हैं। उन नियमों से यही सिद्ध होता है कि आर्य-जाति और राजवंशों के सम्मिलित से संघ स्थापित होते थे। श्रीकाशीप्रसाद जायसवाल हिन्दू राज्यतन्त्र में लिखते हैं कि - पाणिनि धार्मिक संघों से परिचित नहीं था। उसने अपने व्याकरण में जिन संघों का उल्लेख किया है वे सब राजनैतिक (प्रजातन्त्री) संघ थे।

    ऐसे संघ अर्थात् इस तरह की ज्ञाति सबसे अधिक ‘वाहीक’ देश (पंजाब, सिन्ध, गन्धार) में बनी थी। काशीप्रसाद जायसवाल ने ‘वाहीक’ का अर्थ नदियों का प्रदेश माना है जिससे कि हमारे कथन की पुष्टि होती है। महाभारत में शान्तनु के भाई वाल्हीक के देश को ‘वाहीक’ कहा है और वाल्हीक प्रतीक का पुत्र और शान्तनु का भाई बताया गया है। इससे यह मतलब निकलता है कि पंजाब में अधिकांश संघ चन्द्रवंशी क्षत्रियों के थे। बिहार में अथवा नेपाल की तराई में शाक्य और वृजियों तथा लिच्छिवि आदि के संघ थे। यहां एक ऐसे राज्यवंश का भी पता चलता है जो कि अपने लिए ज्ञातृ कहते थे जो कि हमारे ज्ञात शब्द का समान-वाची है जिसमें कि भगवान महावीर पैदा हुए थे।

    बिहार और बंगाल में इस समय ज्ञातृ वंश का कुछ भी पता नहीं चलता। जनवरी सन् 32 की गंगा मासिक पत्रिका में त्रिपिटकाचार्य राहुल सांकृत्यायन ने ‘बसाढ़ की खुदाई’ नामक लेख में यह साबित करने की चेष्टा की थी कि बेतिया का राजवंश जथरिया नाम होने के कारण ज्ञातृवंश है। किन्तु चूंकि बेतिया का राजवंश ब्राह्मण, ज्ञातृ लोग क्षत्री थे, इसी आधार को लेकर पं. जगन्नाथ शर्मा एम.ए. ने सांकृत्यायन की धारणा का विरोध किया है। निश्चय ही बिहार के ज्ञातृ भी जाट ही थे जो समय पाकर अधिक संख्या में बसे हुए अपने भाइयों की तरफ पंजाब में आ गए। उधर से उनके पंजाब की तरफ आने का कारण पौराणिक धर्म से संघर्ष भी हो सकता है।

    जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं पंजाब के चन्द्रवंशी क्षत्रिय बाल्हीक कहलाते थे। वेदों में वाहीक व वाल्हीक शब्द आते हैं। पुराणों में भी इनका जिक्र है|

    जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-108
    -----

    लेकिन पुराणों ने उनको अच्छे शब्दों में नहीं लिया। इसका कारण यही हो सकता है कि पुराणपंथी प्रजातन्त्र शासन से सन्तुष्ट नहीं थे। धर्म-ग्रन्थों के सम्बन्ध में उनके चाहे जैसे विचार रहे हों, पर इसमें सन्देह नहीं कि वाहीक देश के प्रायः सारे राज्यवंश प्रजातंत्र शासन-प्रणाली के मानने वाले (ज्ञातिवाद) अथवा जाट थे। और वाहीक देश से ही ये मालवा, राजपूताना, अफगानिस्तान, ईरान आदि दूर देशों तक पहुंचे। चीन की तरफ बढ़ने वालों का नाम जिट, जेटा, गात आदि हो गया। अरबी साहित्य में जाट, शब्द के स्थान पर उनके लिए जत नाम शब्द का प्रयोग किया गया है। ईसा से 480 वर्ष पूर्व जरक्सीज ने जाटों की सहायता से यूनान पर धावा किया था। उस धावे में गांधार (जाटों का एक गोत विशेष) अधिक संख्या में शामिल थे।

    जाट शब्द की उत्पत्ति के इतिहास और कारणों के सम्बन्ध में, हमारी स्थापना और धारणा के लिए, इतना वर्णन तथा सबूत काफी है। इसके सिवाय दूसरा कोई मत हो ही नही सकता कि जाट ज्ञात के अतिरिक्त कुछ और हैं ।

    जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अन्य इतिहासकारों को जो कल्पनाएं लगानी पड़ी हैं, उनकी समीक्षा करते हुए जाटों की उत्पत्ति-सम्बन्धी वास्तविक इतिहास तथा उत्पत्तिमूलक शब्द का प्रकाश में लाकर भविष्य के इतिहासकारों और अन्वेषकों की इस कठिनाई को सुलझा दिया गया है, जो उन्हें जाट शब्द की खोज के लिए उठानी पड़ती ! हमें यह भी आशा है कि जिन लोगों ने हैरानी के कारण अर्थात् तथ्य तक न पहुंचने की वजह से, कुछ अपूर्ण एवं निराधार धारणाएं बनाई थीं, वे भी हमारी खोजपूर्ण और सही स्थापना से सहमत होंगे।

    जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-109
    Burdak ji,

    Instead of posting long passages, would giving link to wiki pages not serve the purpose of finding the discussion there what Deshraj has viewed it in the context of Mahabharata.

    Had the composition or formation of two Samghas Jats in either of the two or only in one !

    Thanking you.
    History is best when created, better when re-constructed and worst when invented.

  4. The Following User Says Thank You to DrRajpalSingh For This Useful Post:

    rajpaldular (February 3rd, 2014)

  5. #23
    Quote Originally Posted by lrburdak View Post
    Kindly also read Jat History Thakur Deshraj/Chapter II available on Jatland. I reproduce here-

    श्रीकृष्ण द्वारा ज्ञाति-संघ की स्थापना

    महाभारत के उपर्युक्त सन्दर्भ (कथा) का सारांश यह है कि - यदुवंश के दो कुलों - अंधक और वृष्णियों - ने एक राजनैतिक-संघ (लीग) स्थापित किया था। उस संघ मे दो राजनैतिक दल थे जिनमें एक की तरफ श्रीकृष्ण और दूसरे की तरफ उग्रसेन थे । कृष्ण दल के जो लोग थे, वे बलवान बुद्धिमान होते हुए भी आलसी और प्रमादी थे। इसीलिये दूसरे दल के मुकाबले में श्रीकृष्ण को वाद-विवाद के समय अधिक दिक्कतें उठानी पड़ती थीं। उनकी पार्लियामेंट या कोन्सिल में खूब वाद-विवाद हुआ करते थे, क्योंकि वह प्रत्येक राजनैतिक काम में प्रभुत्व स्थापित करना चाहती थी । इन्हीं अपनी कठिनाइयों का वर्णन श्रीकृष्ण ने नारद से किया है और नारद ने उन्हें जोर के साथ यही सलाह दी है कि जैसे भी बन सके संघ (फेड्रेशन) को नष्ट न होने दें। अर्थात् संघ को नारद अत्युत्तम समझते थे।

    संघ-संचालन के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है, वे भी उन्होंने श्रीकृष्ण को बताए। हम पहले अध्याय में यह बता चुके हैं कि श्रीकृष्ण प्रजातंत्रवादी विचार के लोगों में से थे और उसी समय में दुर्योधन, जरासंघ, कंस, शिशुपाल आदि साम्राज्यवादी शासक भी मौजूद थे। श्रीकृष्ण का और उनके विरोध का यही मुख्य कारण था। मथुरा के आस-पास कंस ने गौपराष्ट्र, नवराष्ट्र आदि प्रजातंत्रों को नष्ट करके साम्राज्य की नींव डाल दी थी। मगध में जरासंघ ने एक बड़ा साम्राज्य खड़ा कर दिया था। कंस को परास्त करने के बाद श्रीकृष्ण ने यादवों के अनेक प्रजातन्त्री समूहों को श्रृंखलाबद्ध करने के लिए जरासंघ की निगाह से सुदूर द्वारिका में जा के एक ऐसी शासन-प्रणाली की नींव डाली जो प्रजातंत्री भी थी और जिसमें अनेक जातियां शामिल भी हो सकती थीं । इस शासन-प्रणाली को संयुक्त शासन-तंत्र या भोज-शासन-सम्बन्ध कह कसते हैं। इसमें प्रत्येक दल की तरफ से एक प्रेसिडेंट होता था जैसा कि ऊपर के वर्णन से प्रकट है कि अंधकों की ओर से उग्रसेन और वृष्णियों की ओर से श्रीकृष्ण निर्वाचित सभापति या प्रधान थे। हमारे इतिहास से सम्बन्धित बातें जो उक्त सन्दर्भ में निकलती हैं, वे ये हैं-

    1. श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित जिस संघ का ऊपर वर्णन किया गया है ज्ञाति-संघ कहलाता था,
    2. कोई भी राजकुल या जाति इस जाति-संघ में शामिल हो सकती थी,
    3. चूंकि यह संघ ज्ञाति-प्रधान था, व्यक्ति-प्रधान नहीं, इसलिए संघ में शामिल होते ही उस जाति या वंश के पूर्व नाम की कोई विशेषता न रहती थी ।

    1. उपर्युक्त श्लोकों का अर्थ ‘हिन्दू राज्य तंत्र’ से लिया गया है।

    जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-106
    ----

    की वह ‘ज्ञाति’ संज्ञा में आ जाता था। हां, वैवाहिक सम्बन्धों के लिए वे अपने वंशों के नाम को स्मरण रखते थे जो कालांतर में गोत्रों के रूप में परिणत हो गए,

    4. ज्ञाति के स्थापन से एक बात यह और हुई कि एक ही राज्यवंश के कुछ लोग साम्राज्यवादी विचार के होने के कारण और कुछ लोग प्रजातंत्रवादी मत रखने से दो श्रेणियों में विभाजित हो गए। एक साम्राज्यवादी अथवा राजन्य, दूसरे प्रजातन्त्र वादी (ज्ञातिवादी)। ज्ञाति के विधान तथा नियम और शासन-प्रणाली में विश्वास रखने वाले और उसे देश और समाज के लिए कल्याणकारी समझने वाले लोग आगे चलकर के ज्ञात कहलाने लगे। अर्थात्-ज्ञातवादी ही, ज्ञात, जात अथवा जाट नाम से प्रसिद्ध हुए। इसमें यह प्रश्न किया जा सकता है कि ज्ञाति से सम्बन्ध रखने वाले ज्ञात कैसे कहलाने लगे? इसके लिए प्रत्यक्ष उदाहरण है कि कम्यूनिज्म के मानने वाले कम्यूनिष्ट और शोशलिज्म के अनुयायी शोशलिस्ट कांग्रेस वाले कांग्रेसी, समाजवाद वाले समाजी कहे जाते हैं। पहले भी ऐसा ही होता था। विष्णु के उपासक ‘वैष्णव’, शिव के अनुयायी ‘शैव’ और शक्तियों में विश्वास रखने वाले ‘शाक्त’ कहलाते थे।
    ज्ञात का उच्चारण हिन्दी और सरल संस्कृत में जात होता है। फिर जिस समय से ज्ञात से जात या जाट आम बोल-चाल में प्रयोग होने लगा, उस समय उत्तर भारत की भाषा संस्कृत मिश्रित पैशाची (प्राकृत) थी। इसलिए वह कोई असम्भव बात नहीं कि तत्कालीन बोलचाल के अनुसार ज्ञात अथवा जात से जट वा जाट हो गया1 और उसी को उत्तर-भारत के प्रसिद्ध व्याकरण रचियता पाणिनि ने जो कि जाटों के पूर्व इतिहास से पूर्णतया परिचित जान पड़ता है, अपने धातुपाठ में जट झट संघाते सूत्र लिखा है।

    1. माधुरी वर्ष 4 खण्ड 2 संख्या 3 में आनन्द बन्धु लिखते हैं - हमें इस बात का पूर्ण ज्ञान है कि पंजाबी, हिन्दू-आर्य भाषाओं के मध्य-प्रान्त की भाषा है और यह निरी मिश्रित भाषा ही है। परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि लुन्डा, पंजाबी, पश्चिमी हिन्दी, और सिन्धी यह सारी भाषाएं प्राकृत से निकली हैं । उदहारण के तौर पर देख लीजिए कि संस्कृत शब्द भक्त का अपभ्रंश-प्राकृत के रूप भट्ट है जो पश्चिमी हिन्दी में ज्ञात, सिन्धी से भट कहलाता है। इस प्रकार ये सारी भाषाएं प्राकृत ये निकली हैं ।
    प्राकृत भाषा कब प्रचलित हुई इस बात का पूरा पता नहीं। परन्तु यह तय हो चुका है कि संस्कृत भाषा पूर्वकाल में समस्त भारत में कहीं न कहीं बोली जाती थी। जिस प्रकार अंग्रेजी में बोल चाल की भाषा और लिपिबद्ध अंग्रेजी में बहुत भेद है अर्थात् कई शब्द ऐसे हैं जो केवल बोल-चाल में ही व्यवहृत होते हैं लेकिन लिखने-पढ़ने में प्रयुक्त नहीं होते। इसी प्रकार जब संस्कृत भाषा का प्रचार था तो प्राकृत बोल-चाल की भाषा थी। प्राकृत भाषा संस्कृत का रूपान्तर है और शेष सारी भाषाएं प्राकृत से निकली हैं। पृ.366
    नोट - बस जैसा संस्कृत भक्त का प्राकृत भट्ट है, उसी भांति संस्कृत ज्ञात का प्राकृत जात अथवा जट्ट है। (लेखक)
    -----
    जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-107

    श्रीकृष्ण के इस संघ का अनुकरण कर पूर्वोत्तर भारत में अनेक क्षत्रिय जाति अथवा राजवंशों ने ज्ञाति (संघ) की स्थापना की। पाणिनि ने 5, 3, 114 से 117 तक वाहीक देश के संघों के सम्बन्ध में तिद्धत के नियम दिए हैं। उन नियमों से यही सिद्ध होता है कि आर्य-जाति और राजवंशों के सम्मिलित से संघ स्थापित होते थे। श्रीकाशीप्रसाद जायसवाल हिन्दू राज्यतन्त्र में लिखते हैं कि - पाणिनि धार्मिक संघों से परिचित नहीं था। उसने अपने व्याकरण में जिन संघों का उल्लेख किया है वे सब राजनैतिक (प्रजातन्त्री) संघ थे।

    ऐसे संघ अर्थात् इस तरह की ज्ञाति सबसे अधिक ‘वाहीक’ देश (पंजाब, सिन्ध, गन्धार) में बनी थी। काशीप्रसाद जायसवाल ने ‘वाहीक’ का अर्थ नदियों का प्रदेश माना है जिससे कि हमारे कथन की पुष्टि होती है। महाभारत में शान्तनु के भाई वाल्हीक के देश को ‘वाहीक’ कहा है और वाल्हीक प्रतीक का पुत्र और शान्तनु का भाई बताया गया है। इससे यह मतलब निकलता है कि पंजाब में अधिकांश संघ चन्द्रवंशी क्षत्रियों के थे। बिहार में अथवा नेपाल की तराई में शाक्य और वृजियों तथा लिच्छिवि आदि के संघ थे। यहां एक ऐसे राज्यवंश का भी पता चलता है जो कि अपने लिए ज्ञातृ कहते थे जो कि हमारे ज्ञात शब्द का समान-वाची है जिसमें कि भगवान महावीर पैदा हुए थे।

    बिहार और बंगाल में इस समय ज्ञातृ वंश का कुछ भी पता नहीं चलता। जनवरी सन् 32 की गंगा मासिक पत्रिका में त्रिपिटकाचार्य राहुल सांकृत्यायन ने ‘बसाढ़ की खुदाई’ नामक लेख में यह साबित करने की चेष्टा की थी कि बेतिया का राजवंश जथरिया नाम होने के कारण ज्ञातृवंश है। किन्तु चूंकि बेतिया का राजवंश ब्राह्मण, ज्ञातृ लोग क्षत्री थे, इसी आधार को लेकर पं. जगन्नाथ शर्मा एम.ए. ने सांकृत्यायन की धारणा का विरोध किया है। निश्चय ही बिहार के ज्ञातृ भी जाट ही थे जो समय पाकर अधिक संख्या में बसे हुए अपने भाइयों की तरफ पंजाब में आ गए। उधर से उनके पंजाब की तरफ आने का कारण पौराणिक धर्म से संघर्ष भी हो सकता है।

    जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं पंजाब के चन्द्रवंशी क्षत्रिय बाल्हीक कहलाते थे। वेदों में वाहीक व वाल्हीक शब्द आते हैं। पुराणों में भी इनका जिक्र है|

    जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-108
    -----

    लेकिन पुराणों ने उनको अच्छे शब्दों में नहीं लिया। इसका कारण यही हो सकता है कि पुराणपंथी प्रजातन्त्र शासन से सन्तुष्ट नहीं थे। धर्म-ग्रन्थों के सम्बन्ध में उनके चाहे जैसे विचार रहे हों, पर इसमें सन्देह नहीं कि वाहीक देश के प्रायः सारे राज्यवंश प्रजातंत्र शासन-प्रणाली के मानने वाले (ज्ञातिवाद) अथवा जाट थे। और वाहीक देश से ही ये मालवा, राजपूताना, अफगानिस्तान, ईरान आदि दूर देशों तक पहुंचे। चीन की तरफ बढ़ने वालों का नाम जिट, जेटा, गात आदि हो गया। अरबी साहित्य में जाट, शब्द के स्थान पर उनके लिए जत नाम शब्द का प्रयोग किया गया है। ईसा से 480 वर्ष पूर्व जरक्सीज ने जाटों की सहायता से यूनान पर धावा किया था। उस धावे में गांधार (जाटों का एक गोत विशेष) अधिक संख्या में शामिल थे।

    जाट शब्द की उत्पत्ति के इतिहास और कारणों के सम्बन्ध में, हमारी स्थापना और धारणा के लिए, इतना वर्णन तथा सबूत काफी है। इसके सिवाय दूसरा कोई मत हो ही नही सकता कि जाट ज्ञात के अतिरिक्त कुछ और हैं ।

    जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अन्य इतिहासकारों को जो कल्पनाएं लगानी पड़ी हैं, उनकी समीक्षा करते हुए जाटों की उत्पत्ति-सम्बन्धी वास्तविक इतिहास तथा उत्पत्तिमूलक शब्द का प्रकाश में लाकर भविष्य के इतिहासकारों और अन्वेषकों की इस कठिनाई को सुलझा दिया गया है, जो उन्हें जाट शब्द की खोज के लिए उठानी पड़ती ! हमें यह भी आशा है कि जिन लोगों ने हैरानी के कारण अर्थात् तथ्य तक न पहुंचने की वजह से, कुछ अपूर्ण एवं निराधार धारणाएं बनाई थीं, वे भी हमारी खोजपूर्ण और सही स्थापना से सहमत होंगे।

    जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-109
    Burdak ji,

    Instead of posting long passages, would giving link to wiki pages not serve the purpose of finding the discussion there what Deshraj has viewed it in the context of Mahabharata.

    Had the composition or formation of two Samghas included Jats in either of the two or in both of them !

    Thanking you.
    History is best when created, better when re-constructed and worst when invented.

  6. The Following User Says Thank You to DrRajpalSingh For This Useful Post:

    rajpaldular (February 3rd, 2014)

  7. #24
    Quote Originally Posted by DrRajpalSingh View Post
    Burdak ji,


    Had the composition or formation of two Samghas included Jats in either of the two or in both of them !

    Thanking you.
    Nerenderji wanted primary sources. So I posted both references from Mahabharata and Thakur Deshraj with complete chapters for better understanding. Question is are both Sanghas connected ? This is what Thakur Deshraj Concluded. But we have to do further research and expect our historians to go deep into the matter.
    Laxman Burdak

  8. The Following 2 Users Say Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    DrRajpalSingh (January 28th, 2014), rajpaldular (February 3rd, 2014)

  9. #25
    द्वारका का पौराणिक आधार

    नोट : द्वारका के सम्बन्ध में पौराणिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक जानकारी पुस्तक - दिव्य द्वारका, प्रकाशक: दण्डी स्वामी श्री सदानन्द सरस्वती जी, सचिव श्रीद्वारकाधीश संस्कृत अकेडमी एण्ड इंडोलॉजिकल रिसर्च द्वारका गुजरात, 2013, से ली गयी है तथा इस पुस्तक का पृष्ठ यहाँ अंकित किया गया है।

    द्वारावती: भारतवर्ष की सात मोक्षदायिका पुरियों में से द्वारावती एक है जो द्वारका के रूप में विख्यात है। विविध पुराणों में द्वारकापुरी को कुशस्थली, गोमती द्वारका, चक्रतीर्थ, आनर्तक क्षेत्र एवं ओखा-मण्डल (उषा मंडल) इत्यादि विविध नामों से अभिहित किया है। माना जाता है कि महाराज रैवत ने समुद्र के मध्य की भूमि पर कुश बिछाकर एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया था, जिस कारण इस भूमि का नाम कुशस्थली पड़ा। एक अन्य मत के अनुसार कुश नामक दैत्य के नाम से कुशस्थली नाम पड़ा है,जिन्हें यहाँ कुशेश्वर महादेव नाम से जाना जाता है। (पृ.10)

    आनर्तक क्षेत्र: पूर्वकाल में सौराष्ट्र देश में राजा शर्याति के पुत्र आनर्त का शासन होने के कारण उन्हीं के नाम से संयुक्त इस सम्पूर्ण क्षेत्र को आनर्तक क्षेत्र कहा गया है। देवी भागवत के सातवें स्कंध के सप्तम में इस प्रसंग का वर्णन है। (पृ.10)

    ओखा नाम उषा का ही परिवर्तित रूप प्रतीत होता है। कल्याण राय जोशी के मतानुसार ध्रेवाण नामक ग्राम से उद्भूत उषा नदी के कारण इस मंडल का नाम ओखा-मंडल रखा गया है। अथवा कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का बाणासुर की पुत्री उषा के साथ विवाह किये जान के कारण उषा के नाम से ओखा पड़ा है।(पृ.10)

    कृष्ण का मथुरा से द्वारका आगमन: कृष्ण ने राजा कंस का वध कर दिया तो कंस के श्वसुर मगधपति जरासंध ने कृष्ण से वैर ठान कर यादवों पर बारम्बार आक्रमण किये। यादवों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कृष्ण ने उस स्थान को बदलने का निश्चय किया। विनता के पुत्र गरुड़ की सलाह एवं ककुद्मी के आमंत्रण पर कुशस्थली आना तय हुआ। समस्त यादवों के साथ कृष्ण कुरु, जांगल, पांचाल, ब्रह्मावर्त, सौवीर, मरू, धन्वदेश आदि होते हुए कुशस्थली पहुंचे। कुशस्थली में रहने वाले असुरों - कुशादित्य, कर्णादित्य, सर्वादित्य और गुहादित्य के साथ युद्ध कर उन्हें निर्मूल किया और समुद्र के तट पर पुण्य और दिव्य नगरी द्वारका का निर्माण किया। इसके लिए उन्हें समुद्र से 12 योजन जमीन लेनी पड़ी । (पृ.11)

    कुशस्थली: कुछ लोगों के मत में यह नगर कुशस्थली के रूप में पहले से ही विद्यमान था, जिसका सम्बन्ध रैवत गिरी के साथ था। महाभारत के सभा पर्व के अनुसार आनर्त के पौत्र रेवत ने रैवत गिरी के पास कुशस्थली बसाई थी। कृष्ण ने इसी उजाड़ हो चुकी नगरी का पुनः संस्कार किया। (पृ.12)

    पंचनद: गोमती द्वारका को विशेष पवित्र बनाने के लिए मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह और क्रतु इन पांच मुनियों ने पांच तीर्थों के सहित यहाँ निवास किया। यह पंचनद नाम से जाना जाता है। सनकादि मुनियों के द्वारा पूजित सिद्धेश्वर महादेव और कृष्ण के समस्त कार्यों को सिद्ध करने भद्रकाली देवी के शक्तिपीठ पौराणिक और प्राचीन स्थल द्वारका की भूमि को सिद्धिदायक बनाते हैं।(पृ.12)

    कृष्ण द्वारा द्वारका से सम्पादित कार्य : कृष्ण ने द्वारका को बसाने के बाद इसे अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया और अनेक कार्य यहाँ रहकर अथवा यहाँ से जाकर सम्पादित किये - जैसे,
    कुश नामक दैत्य का वध, जिनके नाम से कुशस्थली नाम पड़ा है, जिन्हें यहाँ कुशेश्वर महादेव नाम से जाना जाता है, कुश और कुशवा दोनों गोत्र जाट हैं।

    रुक्मिणी हरण तथा विवाह,

    रुक्मी विजय, रूक्मी के वंशज जाटों में रैकवार गोत्र से जाने जाते हैं।

    स्यमन्तक मणि सम्बंधित घटनाएं,

    जाम्बवती, रोहिणी, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रविन्दा, सत्या, नाग्नजिती, सुशीलामाद्री, लक्ष्मणा व दत्ता सुशैल्या आदि के साथ विवाह,

    नरकासुर वध, कृष्ण ने मुरा और उसके राजा नरकासुर का वध किया था। मुरा से मौर्य जाट निकले हैं।

    प्राग्ज्योतिषपुर विजय,

    बाणासुर विजय, बाणासुर से बाणा जाट निकले हैं।

    उषा-अनिरुद्ध विवाह,

    ज्ञाति-संघ अथवा जाट-संघ का गठन

    महाभारत युद्ध सञ्चालन,

    द्रौपदी की प्रतिष्ठा की रक्षा,

    युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में हस्तिनापुर गमन,

    पौंड्रिक वध, पौंड्रिक के वंशज पुन्डीर जाट हैं।

    शिशुपाल वध

    शाल्व वध, शाल्व एक जाट गोत्र है। महाराजा शाल्व के वंशज शक कहलाये।

    द्वारका की रचना का मूल कारण: कालयवन और जरासंध से त्रस्त यदुवंशियों की रक्षा करना और सुदूर रहकर महाभारत युद्ध सञ्चालन करना था; परन्तु साथ ही दुनिया के अन्य देशों से वैदेशिक सम्बन्धों का सुदृढ़ीकरण, आवागमन, आयात-निर्यात, व्यापर आदि तथ्यों का ध्यान रखा गया प्रतीत होता है। क्योंकि प्रारम्भ से ही यह अरब देशों से भारत में प्रवेश द्वार का काम करता था|

    कृष्ण के कुशल निर्देशन में यह सभ्यता सम्पन्नता के शिखर पर पहुँच गयी। इस असीम समृद्धि के फलस्वरूप यादव भोग-विलास में लग गए। उनमें अहंकार आगया और अनुशासन ख़त्म हो गया। यादवों ने पिण्डतारक (पिण्डारक) क्षेत्र के मुनिजनों को अपमानित किया। कृष्ण ने इन यादवों के संरक्षण का एक प्रयास किया और द्वारका पर आने वाले संकट को ध्यान में रखकर वे उन यादवों को साथ लेकर प्रभास क्षेत्र की तरफ चल पड़े। उन्होंने वृद्धों और स्त्रियों को शंखोद्धार (बेट) जाने की सलाह दी और अन्यों के साथ स्वयं प्रभास आ गए। ऋषयो के शाप के वशीभूत यादव कालक्रम से विनष्ट हो गए। इधर कृष्ण के निवास को छोड़ कर सारी द्वारका को समुद्र ने आत्मसात कर लिया।

    बाद में युधिष्ठिर ने कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ को शूरसेन देश का राजा बनाया। बड़े होने पर वज्रनाभ द्वारका आ गए और उन्होंने अपने दादा कृष्ण की स्मृति में त्रैलोक्य सुन्दर विशाल मंदिर का निर्माण कराया। (पृ.13)
    Last edited by lrburdak; January 26th, 2014 at 11:37 PM.
    Laxman Burdak

  10. The Following 2 Users Say Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    DrRajpalSingh (January 28th, 2014), rajpaldular (February 3rd, 2014)

  11. #26
    Quote Originally Posted by lrburdak View Post
    द्वारका का पौराणिक आधार

    नोट : द्वारका के सम्बन्ध में पौराणिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक जानकारी पुस्तक - दिव्य द्वारका, प्रकाशक: दण्डी स्वामी श्री सदानन्द सरस्वती जी, सचिव श्रीद्वारकाधीश संस्कृत अकेडमी एण्ड इंडोलॉजिकल रिसर्च द्वारका गुजरात, 2013, से ली गयी है तथा इस पुस्तक का पृष्ठ यहाँ अंकित किया गया है।

    ...........................................

    कृष्ण द्वारा द्वारका से सम्पादित कार्य : कृष्ण ने द्वारका को बसाने के बाद इसे अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया और अनेक कार्य यहाँ रहकर अथवा यहाँ से जाकर सम्पादित किये - जैसे,
    कुश नामक दैत्य का वध, जिनके नाम से कुशस्थली नाम पड़ा है, जिन्हें यहाँ कुशेश्वर महादेव नाम से जाना जाता है, कुश और कुशवा दोनों गोत्र जाट हैं।

    रुक्मिणी हरण तथा विवाह,

    रुक्मी विजय, रूक्मी के वंशज जाटों में रैकवार गोत्र से जाने जाते हैं।

    स्यमन्तक मणि सम्बंधित घटनाएं,

    जाम्बवती, रोहिणी, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रविन्दा, सत्या, नाग्नजिती, सुशीलामाद्री, लक्ष्मणा व दत्ता सुशैल्या आदि के साथ विवाह,

    नरकासुर वध, कृष्ण ने मुरा और उसके राजा नरकासुर का वध किया था। मुरा से मौर्य जाट निकले हैं।

    प्राग्ज्योतिषपुर विजय,

    बाणासुर विजय, बाणासुर से बाणा जाट निकले हैं।

    उषा-अनिरुद्ध विवाह,

    ज्ञाति-संघ अथवा जाट-संघ का गठन

    महाभारत युद्ध सञ्चालन,

    द्रौपदी की प्रतिष्ठा की रक्षा,

    युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में हस्तिनापुर गमन,

    पौंड्रिक वध, पौंड्रिक के वंशज पुन्डीर जाट हैं।

    शिशुपाल वध

    शाल्व वध, शाल्व एक जाट गोत्र है। महाराजा शाल्व के वंशज शक कहलाये।

    ..................... (पृ.13)
    Friend,

    Does this passage forms part of the original book as quoted in the beginning of the post. If so kindly let us know full sources/references, page number etc.

    Thanks and regards,
    History is best when created, better when re-constructed and worst when invented.

  12. The Following User Says Thank You to DrRajpalSingh For This Useful Post:

    rajpaldular (February 3rd, 2014)

  13. #27
    Rajpalji

    Jat and Jat Gotra words are inferences by me and rest is from पुस्तक - दिव्य द्वारका, प्रकाशक: दण्डी स्वामी श्री सदानन्द सरस्वती जी, सचिव श्रीद्वारकाधीश संस्कृत अकेडमी एण्ड इंडोलॉजिकल रिसर्च द्वारका गुजरात, 2013, page is 13 as given in the last.
    Laxman Burdak

  14. The Following User Says Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    rajpaldular (February 3rd, 2014)

  15. #28
    इतिहासकारों के मत में द्वारका

    नोट : द्वारका के सम्बन्ध में पौराणिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक जानकारी पुस्तक - दिव्य द्वारका, प्रकाशक: दण्डी स्वामी श्री सदानन्द सरस्वती जी, सचिव श्रीद्वारकाधीश संस्कृत अकेडमी एण्ड इंडोलॉजिकल रिसर्च द्वारका गुजरात, 2013, से ली गयी है तथा इस पुस्तक का पृष्ठ यहाँ अंकित किया गया है।

    लावा के ठंडा होकर जमने और परत बिछ जाने से सौराष्ट्र में गिरिनार और बरड़ा जैसे पर्वत हैं। 300 वर्गमील के विस्तार का ओखा मंडल अथवा द्वारका प्रदेश अपने प्रारम्भ काल में छोटे-छोटे टापुओं का समूह था। वर्षों बाद वह सारे सौराष्ट्र और गुजरात के साथ मिलकर एक हुआ। प्रमाण मिले हैं कि 5000 वर्षों पूर्व भी गुजरात सहित शेष भारत के प्रदेशों से द्वारका का व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हो चुका था। सात आठ टापुओं का समूह यह ओखा मंडल कब प्रसिद्धि में आया, यह तो अज्ञात है तथापि इरिथ्रियन के समुद्र के प्रवास के लगभग 1900 वर्षों पूर्व लिखे गए 'पेरिप्लस' [18] में इसे बराके नाम से पहचाना गया है। बर एक आस्ट्रिक शब्द है, अनुमान होता है कि यह नाम देने वाले लोग आस्ट्रिक मूल के रहे हों अथवा उनको द्वारका शब्द के उच्चारण में कठिनाई होने से द्वारका को बराका और फिर बराके हो गया हो। इतिहास से ज्ञात होता है कि कभी आस्ट्रिक लोग बंगाल के उपसागर के नजदीक से प्रविष्ट होकर गुजरात में भृगुकच्छ (भरूच) भाल और द्वारका प्रदेश में फैले थे। (पृ.16)

    ई. पूर्व 5वीं सदी के लगभग पाणिनि के गणपाठ में कच्छ, सुराष्ट्र और आनर्त नाम परिगणित हैं। (पृ.16)

    नागों का वास: कुछ ऒर प्रमाण भी मिलते हैं जिससे सिद्ध होता है कि द्वारका क्षेत्र में आर्यों के आगमन से पहले नागों का वास था। पाताळ में बसने वाले नाग समुद्र से आकर इस क्षेत्र में बसे थे। इस प्रदेश के नाग द्वारका सहित समस्त सौराष्ट्र प्रदेश के संपर्क में थे। स्कंदपुराण के कुमारिका खंड में पातालपुरी को अत्यंत समृद्ध महाप्रसादों तथा मणिरत्नों से अलंकृत एवं स्वरूपवती नागकन्याओं से युक्त बताया गया है। यदुवंश के संस्थापक यदु का विवाह धौम्रवर्ण की पांच नाग कन्याओं के साथ हुआ था। कुशस्थली (द्वारका) का राजा रैवत मूल से तक्षक नाग था। (पृ.16)

    शिव पुराण के अनुसार इसका एक प्रसिद्ध नाम दारुका वन (Mbt:V.82.22) था , जहाँ नागों का निवास था। आर्यों ने उन्हें वर्णाश्रम-धर्म का अनुयायी बनाया और नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना की। ब्रह्माण्डपुराण (3.7.100) के अनुसार कश्यप का पुत्र यक्ष (गुह्यक) था, जिसे पञ्चचूड़ा क्रतुस्थला नाम की अप्सरा से रजतनाथ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ और उनके मणिवर तथा मणिभद्र नाम के दो पुत्र हुए। इनमें मणिभद्र का विवाह पुण्यजनी नाम की कन्या से हुआ। इस पुण्यजनी की संतानें पुण्यजनी कहलाई। इनका कुछ दिनों तक इस क्षेत्र पर अधिपत्य रहा और कालांतर में भीस्मक के पुत्र रुक्मी ने इन्हें पराजित कर भगाया था । तभी द्वारका उजड़ गयी थी और इसी उजड़ी हुई द्वारका को कृष्ण ने फिर से बसाया था. सम्भवतः इसी कारण महाभारत में द्वारका के 'पुनर्निवेशनम्' शब्द का प्रयोग किया है। (पृ.16)

    डॉ. सांकलिया द्वारा 1962 ई. में द्वारकाधीश मंदिर के पास कराई गयी खुदाई में पाये गए मंदिर के अवशेषों से यह प्रमाणित हो जाता है कि इस युग के पहले भी द्वारका का अस्तित्व था। ई. पूर्व युग में ही द्वारका क्षेत्र के विशिष्ट पंडित यवनाचार्य थे । इनके छोटे भाई श्रवणाचार्य ने गृहत्याग कर एथेंस तक की यात्रा की थी और होरागणित का ज्ञान यवनजातक नाम से प्रसिद्द ज्योतिषग्रन्थ की रचना की। (पृ.16)

    ई. पूर्व पांचवीं शताब्दी में एक दण्डधारी युवक परिव्राजक सन्यासी आदिशंकराचार्य के द्वारा आने का प्रमाण प्राप्त होता है। (पृ.16) आदिशंकराचार्य ने द्वारका में धर्मशासन हेतू शारदापीठ की स्थापना की। श्रीमत्वित्सुखाचार्य द्वारा 'बृहतशंकरविजय' नामक ग्रन्थ की रचना की गयी उसमें 'अब्दे नन्दने दिनमणावुदगध्वाभाजि' अर्थात ई.पूर्व 509 उल्लिखित है। यही प्रमाणित भी है। दण्डी स्वामी श्रीमच्छङ्कराचार्य का समय निश्चित रूप से ई. पू 509 ही है।(पृ.17)

    युधिष्ठिर वर्ष 2663 का स्थापित शारदापीठ द्वारका : लगभग 2520 वर्ष पूर्व आदि शंकराचार्य ने अद्वैत सिद्धांत प्रतिपादित किया था। उन्होंने समग्र देश में भ्रमण कर लोगों के जीवन को तपस्वी बनाया देश की चार दिशाओं में चार पीठों की स्थापना की। उत्तर में ज्योतिष्पीठ, दक्षिण में शृंगेरीपीठ, पूर्व में गोवर्धनपीठ और पश्चिम में शारदापीठ। इन चार पीठों में से सर्वप्रथम द्वारका में शारदापीठ की स्थापना हुई। ऐसा 'मठाम्नाय' नामक ग्रन्थ में लिखा है - प्रथमः पश्चिमाम्नाय: शारदामठ उच्यते। (पृ.45)

    राजा सुधन्वा - राजा सुधन्वा आदि शंकराचार्य के समकालीन थे और उन्होंने ही शंकराचार्यों को राजोपचार तथा प्रजा से धर्मकर लेने के अधिकार उपलब्ध कराये थे। अभिलेखीय साक्ष्यों के अनुसार राजा सुधन्वा चाहमान (चौहान) वंश के छठे राजा थे, जो युधिष्ठिर के वंशज थे। महाभारत से ज्ञात होता है कि युधिष्ठिर ने यादवों के गृह युद्ध के पश्चात अंधक वंशी कृतवर्मा के पुत्र को मार्तिकावत (III.116.6)), शिनिवंशी सात्यकी के पुत्र युयुधान को सरस्वती नदी के तटवर्ती क्षेत्रों तथा इंद्रप्रस्थ का राज्य कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ को, कृष्ण की मृत्यु के पश्चात दे दिया था। महिष्मति का राज्य भी युधिष्ठिर द्वारा ही राजा को दे दिया था। यह जैमिनी के अश्वघोष पर्व से ज्ञात होता है। कर्नल टॉड, डॉ रमेशचंद्र मजुमदार एवं राजस्थानी इतिवृत चौहानों का मूल राज्य माहिष्मती को ही मानते हैं। (पृ.47)
    Laxman Burdak

  16. The Following User Says Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    rajpaldular (February 3rd, 2014)

  17. #29
    पुरातत्वविदों द्वारा द्वारका में खोज का कार्य

    नोट : द्वारका के सम्बन्ध में निम्न पुरातात्विक जानकारी पुस्तक - दिव्य द्वारका, प्रकाशक: दण्डी स्वामी श्री सदानन्द सरस्वती जी, सचिव श्रीद्वारकाधीश संस्कृत अकेडमी एण्ड इंडोलॉजिकल रिसर्च द्वारका गुजरात, 2013, से ली गयी है तथा इस पुस्तक का पृष्ठ यहाँ अंकित किया गया है।

    पुराततव से सम्बंधित अनुसन्धान के लिए गोमती नदी के ठीक पश्चिम में विद्यमान समुद्रनारायण या वरुणदेवता का मंदिर अतिमहत्वपूर्ण है। द्वारका सम्बन्धी प्राचीनता का उल्लेख ई. सन 574 के एक ताम्रपत्र में मिलता है। यह ताम्रपत्र बलभी के मैत्रकों के सामन्त गारूलक शासक सिंहादित्य ने लिखवाया था। सिंहादित्य वराहदास का लड़का था जो द्वारकाधिपति था। (पृ.17)

    1963 में पुणे के डेक्कन कालेज ने जो खुदाई कराई थी, उससे यह निष्कर्ष निकला कि सबसे पहली द्वारका के निर्माण का समय ई. सन के प्रारम्भ में जान पड़ता है। उससे बहुत पहले तो नहीं। खुदाई करने वालों ने यह भी कहा कि द्वारका और उसके आस-पास के इलाकों को देखने के बाद यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि महाभारत, स्कन्द पुराण और घटजातक में जिस द्वारका का उल्लेख किया गया है वह यही द्वारका है। (पृ.17)

    अगर यह सही माना जावे तो महाभारत में उल्लेखित द्वारका मौर्य युग के बाद अस्तित्व में आई होगी। ऐसा माना जाना आजतक स्थापित ऐतिहासिक प्रमाणों के विपरीत होगा। इसके एकदम विपरीत नागेश्वर और द्वारका के आसपास के 20 कि.मी. क्षेत्र में जो मकान बने हुए हैं, वे हड़प्पन युग के अंतिम चरण में बनाये गए थे। उन्हें देखने से यह माना जा सकता है कि हड़प्पन युग के अंत में या उसके तुरंत बाद द्वारका अस्तित्व में आई होगी। (पृ.17)


    1979-1980 के खुदाई के परिणामों से द्वारका के समय को ई. पश्चात् 15वीं सदी के बदले ई. पूर्व 20वीं सदी में रखना पडा। यह बात सिद्ध हुई कि चार हजार वर्ष पूर्व समुद्र के किनारे बसी हुई द्वारका समुद्र के कारण नष्ट हुई। द्वारका के आसपास आठ बस्तियों को पहचाना जा सका है। ई. पूर्व 15 वीं सदी में अस्तित्व में आई पहली बस्ती समुद्र में डूब गयी। इसी तरह दूसरी बस्ती ई. पूर्व 10 वीं सदी में समुद्र में डूब गयी और तीसरी बस्ती बसाई गयी। इसी समय प्रथम मंदिर का निर्माण हुआ। इसके पहले का मंदिर समुद्र के कारण नष्ट हो गया और उसके मलबे पर दूसरे मंदिर का निर्माण किया। जब दूसरा मंदिर भी डूब गया तब विष्णु किंवा वासुदेव का तीसरा मंदिर नवीं सदी में बनाया गया। वर्तमान मंदिर पांचवां है। जबकि वर्तमान बस्ती आठवीं है। (पृ.18)

    महाभारत और अन्य ग्रंथों में बताये अनुसार द्वारका की स्थापना कुकुद्मी रैवत के द्वारा स्थापित कुशस्थली नामक राजधानी के मलवे पर की गयी थी। जैसा हरिवंश में लिखा है उस समय समुद्र का जल 12 योजन जमीन छोड़कर पीछे हट गया होगा। हरिवंश में द्वारका के लिए वारिदुर्ग और उदधि मध्यस्थान जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। इससे यह जान पड़ता है कि द्वारका एक द्वीप रहा होगा। ऐसा माना जाता है कि बेट द्वारका विहारधाम रहा होगा। यादव लोग नौका के द्वारा वहाँ जाते रहे होंगे। (पृ.18)

    द्वारका में जहाँ पहले बंदरगाह था और गोमती जहाँ समुद्र से मिलती है, वहाँ पिछले कुछ वर्षों में रेती जम जान के कारण अब कोई भी नाव नहीं आ सकता है। समुद्र में तीसरी बार खोज करते समय समुद्र नारायण मंदिर के समुद्र से 200-700 मीटर तक चारों जगहों पर वनस्पति और कीचड़ हटाया गया तो वहाँ एक परिवहन रेखा दिखाई दी। (पृ.18)

    चौथे अन्वेषण में मालूम पड़ा कि यहाँ जो निर्माण हुआ था उसको समुद्र के ज्वार से काफी नुकसान हुआ है। पत्थर कीचड़ के नीचे दबे हुए थे। पत्थरों के दोनों तरफ़ खुदाई की हुई थी जिससे चिनाई का काम दिखाई दे सके। इस खोज में तीन छिद्रों वाले लंगर मिले, जो पत्थर के बने हुए थे और जिनका उपयोग ई. पूर्व 14-12 वीं सदी में साइप्रस और सीरिया में हुआ करता था। (पृ.19)

    तीसरी और चौथी खोज में समुद्र के नीचे निर्माण दिखाई दिया। पांचवीं खोज में एक तराशा हुआ मोटा पत्थर और गढ़ की चिनाई मिली। समुद्र नारायण के मंदिर से 600 मीटर अंदर समुद्र में निर्माण में प्रयुक्त पत्थर मिले। आस-पास खोदने पर एक छेनी मिली। खुदाई में किसी टूटे हुए जहाज के लकड़ियों के अवशेष मिले। इनमे से एक दो छिद्र हैं। नौका-चालक लोग नावों की रस्सी तानने के लिए इन छिद्रदार टुकड़ों का उपयोग करते थे। पत्थरों के साथ टकराने से नौकाएं टूट गयी होंगी और लकड़ियों के टुकड़े समुद्र की तली में समा गए होंगे। (पृ.19)

    द्वारका और बेट द्वारका कब समुद्र में डूब गए यह निश्चित करने में सिंधु संस्कृति की एक मुद्रा, एक छेनी, एक बर्तन जिस पर कुछ खोदकर लिखा हुआ है और पत्थर की एक मुद्रा आदि निर्णायक हैं। इन अवशेषों से और मिटटी के टुकड़े से निश्चित किया हुआ समय मिलता-जुलता है। छोटी लम्बी और चोकोर आकर की एक मुद्रा मिली थी, जिसे शंख से बनाया गया था। इस मुद्रा में छोटे सींगवाला एक बैल, एक सींगवाला घोडा और बकरी खुदे हुए हैं। यह बात पक्की है कि यह नमूना सिंधु संस्कृति का है। वेट के पास से मिले हुए पात्रों के अवशेष बताते हैं कि बहरीन और बेट द्वारका के मध्य व्यापारिक सम्बन्ध रहे होंगे। बेट द्वारका जब समुद्र में डूबी होगी उस समय बहरीन का भी कुछ क्षेत्र समुद्र में डूब गया होगा। महाभारत के खिलभाग हरिवंश के अनुसार द्वारका पर शाल्व ने जब हमला किया उसके बाद नियम बनाया गया कि प्रत्येक द्वारकावासी को अपनी पहचान के लिए एक परिचय मुद्रा साथ में रखनी होगी। बेट द्वारका से मिलती हुई मुद्रा ईसापूर्व 15 वीं सदी की होनी चाहिए। (पृ.19)

    चौड़े मुख वाली एक बरनी पर सात अक्षर खुदे हुए दिखाई पड़ते हैं। उसके नीचे के भाग में छिद्र भी हैं। इन सात अक्षरों में से छः अक्षर हड़प्पन लिपि से मिलते जुलते हैं शेष एक अक्षर हड़प्पन और ब्राह्मी लिपि का सम्मिश्रण प्रतीत होता है। द्वारका के पास मिला हुआ तिकोना लंगर 500 किलोग्राम से ज्यादा वजनी है। मोहनजोदड़ो की एक मुद्रा में जहाज के मुख पर से त्रिकोणाकार लंगर को समुद्र में डालते हुए दिखाया गया है। द्वारका के नाविक भी वजनदार लंगर को पानी में डालने का यही तरीका अपनाते रहे होंगे। बेट द्वारका के समुद्र से प्राप्त सामानांतर नौक वाली और द्वारका में मिले हुए खुरदारी धार वाली छेनी हड़प्पा और लोथल में मिली छेनियों से मिलती-जुलती है। बेट द्वारका के पास से मिली हुई एक सकरे मुंह वाली शीशी इटली के बर्तनों से मिलती जुलती है। चूने के पत्थरों से बनाया हुआ एक तीन छिद्रों वाला बर्तन बेट द्वारका के किनारे से मिला। ऐसा ही एक सांचा, जिससे ताम्बे या कांसे की सुई बनाई जाती थी और जो बहुत संकरा था, लोथल में मिला था। (पृ.20)
    Laxman Burdak

  18. The Following 2 Users Say Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    rajpaldular (February 3rd, 2014), shivamchaudhary (February 1st, 2014)

  19. #30
    Quote Originally Posted by lrburdak View Post
    इतिहासकारों के मत में द्वारका

    नोट : द्वारका के सम्बन्ध में पौराणिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक जानकारी पुस्तक - दिव्य द्वारका, प्रकाशक: दण्डी स्वामी श्री सदानन्द सरस्वती जी, सचिव श्रीद्वारकाधीश संस्कृत अकेडमी एण्ड इंडोलॉजिकल रिसर्च द्वारका गुजरात, 2013, से ली गयी है तथा इस पुस्तक का पृष्ठ यहाँ अंकित किया गया है।

    लावा के ठंडा होकर जमने और परत बिछ जाने से सौराष्ट्र में गिरिनार और बरड़ा जैसे पर्वत हैं। 300 वर्गमील के विस्तार का ओखा मंडल अथवा द्वारका प्रदेश अपने प्रारम्भ काल में छोटे-छोटे टापुओं का समूह था।......................................

    ई. पूर्व पांचवीं शताब्दी में एक दण्डधारी युवक परिव्राजक सन्यासी आदिशंकराचार्य के द्वारा आने का प्रमाण प्राप्त होता है। (पृ.16) आदिशंकराचार्य ने द्वारका में धर्मशासन हेतू शारदापीठ की स्थापना की। श्रीमत्वित्सुखाचार्य द्वारा 'बृहतशंकरविजय' नामक ग्रन्थ की रचना की गयी उसमें 'अब्दे नन्दने दिनमणावुदगध्वाभाजि' अर्थात ई.पूर्व 509 उल्लिखित है। यही प्रमाणित भी है। दण्डी स्वामी श्रीमच्छङ्कराचार्य का समय निश्चित रूप से ई. पू 509 ही है।(पृ.17)

    युधिष्ठिर वर्ष 2663 का स्थापित शारदापीठ द्वारका : लगभग 2520 वर्ष पूर्व आदि शंकराचार्य ने अद्वैत सिद्धांत प्रतिपादित किया था। उन्होंने समग्र देश में भ्रमण कर लोगों के जीवन को तपस्वी बनाया देश की चार दिशाओं में चार पीठों की स्थापना की। उत्तर में ज्योतिष्पीठ, दक्षिण में शृंगेरीपीठ, पूर्व में गोवर्धनपीठ और पश्चिम में शारदापीठ। इन चार पीठों में से सर्वप्रथम द्वारका में शारदापीठ की स्थापना हुई। ऐसा 'मठाम्नाय' नामक ग्रन्थ में लिखा है - प्रथमः पश्चिमाम्नाय: शारदामठ उच्यते। (पृ.45)

    राजा सुधन्वा - राजा सुधन्वा आदि शंकराचार्य के समकालीन थे और उन्होंने ही शंकराचार्यों को राजोपचार तथा प्रजा से धर्मकर लेने के अधिकार उपलब्ध कराये थे। अभिलेखीय साक्ष्यों के अनुसार राजा सुधन्वा चाहमान (चौहान) वंश के छठे राजा थे, जो युधिष्ठिर के वंशज थे। महाभारत से ज्ञात होता है कि युधिष्ठिर ने यादवों के गृह युद्ध के पश्चात अंधक वंशी कृतवर्मा के पुत्र को मार्तिकावत (III.116.6)), शिनिवंशी सात्यकी के पुत्र युयुधान को सरस्वती नदी के तटवर्ती क्षेत्रों तथा इंद्रप्रस्थ का राज्य कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ को, कृष्ण की मृत्यु के पश्चात दे दिया था। महिष्मति का राज्य भी युधिष्ठिर द्वारा ही राजा को दे दिया था। यह जैमिनी के अश्वघोष पर्व से ज्ञात होता है। कर्नल टॉड, डॉ रमेशचंद्र मजुमदार एवं राजस्थानी इतिवृत चौहानों का मूल राज्य माहिष्मती को ही मानते हैं। (पृ.47)
    Quote Originally Posted by lrburdak View Post

    पुरातत्वविदों द्वारा द्वारका में खोज का कार्य


    नोट : द्वारका के सम्बन्ध में निम्न पुरातात्विक जानकारी पुस्तक - दिव्य द्वारका, प्रकाशक: दण्डी स्वामी श्री सदानन्द सरस्वती जी, सचिव श्रीद्वारकाधीश संस्कृत अकेडमी एण्ड इंडोलॉजिकल रिसर्च द्वारका गुजरात, 2013, से ली गयी है तथा इस पुस्तक का पृष्ठ यहाँ अंकित किया गया है।

    पुराततव से सम्बंधित अनुसन्धान के लिए गोमती नदी के ठीक पश्चिम में विद्यमान समुद्रनारायण या वरुणदेवता का मंदिर अतिमहत्वपूर्ण है। द्वारका सम्बन्धी प्राचीनता का उल्लेख ई. सन 574 के एक ताम्रपत्र में मिलता है। यह ताम्रपत्र बलभी के मैत्रकों के सामन्त गारूलक शासक सिंहादित्य ने लिखवाया था। सिंहादित्य वराहदास का लड़का था जो द्वारकाधिपति था। (पृ.17)

    1963 में पुणे के डेक्कन कालेज ने जो खुदाई कराई थी, उससे यह निष्कर्ष निकला कि सबसे पहली द्वारका के निर्माण का समय ई. सन के प्रारम्भ में जान पड़ता है। उससे बहुत पहले तो नहीं। खुदाई करने वालों ने यह भी कहा कि द्वारका और उसके आस-पास के इलाकों को देखने के बाद यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि महाभारत, स्कन्द पुराण और घटजातक में जिस द्वारका का उल्लेख किया गया है वह यही द्वारका है। (पृ.17)

    अगर यह सही माना जावे तो महाभारत में उल्लेखित द्वारका मौर्य युग के बाद अस्तित्व में आई होगी। ऐसा माना जाना आजतक स्थापित ऐतिहासिक प्रमाणों के विपरीत होगा। इसके एकदम विपरीत नागेश्वर और द्वारका के आसपास के 20 कि.मी. क्षेत्र में जो मकान बने हुए हैं, वे हड़प्पन युग के अंतिम चरण में बनाये गए थे। उन्हें देखने से यह माना जा सकता है कि हड़प्पन युग के अंत में या उसके तुरंत बाद द्वारका अस्तित्व में आई होगी। (पृ.17)


    1979-1980 के खुदाई के परिणामों से द्वारका के समय को ई. पश्चात् 15वीं सदी के बदले ई. पूर्व 20वीं सदी में रखना पडा। यह बात सिद्ध हुई कि चार हजार वर्ष पूर्व समुद्र के किनारे बसी हुई द्वारका समुद्र के कारण नष्ट हुई। द्वारका के आसपास आठ बस्तियों को पहचाना जा सका है। ई. पूर्व 15 वीं सदी में अस्तित्व में आई पहली बस्ती समुद्र में डूब गयी। इसी तरह दूसरी बस्ती ई. पूर्व 10 वीं सदी में समुद्र में डूब गयी और तीसरी बस्ती बसाई गयी। इसी समय प्रथम मंदिर का निर्माण हुआ। इसके पहले का मंदिर समुद्र के कारण नष्ट हो गया और उसके मलबे पर दूसरे मंदिर का निर्माण किया। जब दूसरा मंदिर भी डूब गया तब विष्णु किंवा वासुदेव का तीसरा मंदिर नवीं सदी में बनाया गया। वर्तमान मंदिर पांचवां है। जबकि वर्तमान बस्ती आठवीं है।
    Burdakji,
    The chronology given in the posts/book under reference seems to be self contradictory. Tradition based Yudhishtra Era year 2663 i.e. c 2520 given at page 45 and then c.1500 BCE or C 2000 BCE suggested by Archaeologists [pp 17-18] have wide gaps.

    Could you suggest which of these dates/timeline, [or any other timeline ?] could be taken representative for foundation/established of Dwarika !
    History is best when created, better when re-constructed and worst when invented.

  20. The Following User Says Thank You to DrRajpalSingh For This Useful Post:

    rajpaldular (February 3rd, 2014)

  21. #31
    2520 वर्ष पूर्व = 509 BC

    c.1500 BCE or C 2000 BCE Dwarka existed.

    509 BC Dwarka was existing.

    But these are evidences of different periods. Not contradictory.
    Last edited by lrburdak; February 1st, 2014 at 05:29 PM.
    Laxman Burdak

  22. The Following User Says Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    rajpaldular (February 3rd, 2014)

  23. #32
    Rajpalji

    Kindly do not copy and quote the entire post. Because we are still improving the text. We can improve a post within 24 hours. So copy and quote only the line to be discussed.
    Laxman Burdak

  24. The Following User Says Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    rajpaldular (February 3rd, 2014)

  25. #33
    Quote Originally Posted by lrburdak View Post
    Rajpalji

    Kindly do not copy and quote the entire post. Because we are still improving the text. We can improve a post within 24 hours. So copy and quote only the line to be discussed.
    Thanks, I promise not interfere; please carry forward as you like !!!!
    History is best when created, better when re-constructed and worst when invented.

  26. The Following User Says Thank You to DrRajpalSingh For This Useful Post:

    rajpaldular (February 3rd, 2014)

  27. #34
    द्वारका के जाट इतिहास से सम्बन्धित स्थल

    त्रैलोक्य सुन्दर जगत-मंदिर परिसर द्वारका में और उसके निकट विभिन्न ऐतिहासिक स्थल, देवी-देवताओं एवं पटरानियों के मंदिर स्थित हैं। जिन स्थानों का सम्बन्ध जाट गोत्रों अथवा जाट इतिहास से है उनका विवरण इस प्रकार है -

    कुशेश्वर महादेव मंदिर - द्वारकाधीश जी के मंदिर परिसर में कुल बीस मंदिर हैं. मोक्षद्वार से प्रवेश करने पर दाहिने और नवग्रह देवता के यंत्र और समीप कुशेश्वर महादेव शिवलिंग विराजमान है। कहा जाता है कि द्वारका की यात्रा के आधे भाग का मालिक कुशेश्वर महादेव है। एक मत के अनुसार कुश नामक दैत्य के नाम से कुशस्थली नाम पड़ा है,जिन्हें यहाँ कुशेश्वर महादेव नाम से जाना जाता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कस्वां और कुश जैसे दोनों गोत्र अब भी भी जाटों में विद्यमान हैं। कुशस्थली नगरी कुश अथवा कस्वां गोत्र के जाटों द्वारा बसाई गयी थी। कृष्ण द्वारा राज्य अधिग्रहण करने के कारण ये वहाँ से चलकर राजस्थान और हरयाणा में आ गए। ठाकुर देशराज[19] लिखते हैं कि आरम्भ में कस्वां सिन्ध में राज्य करते थे। ईसा की चौथी सदी से पहले जांगल-प्रदेश में आबाद हुए थे। इनके अधिकार में लगभग चार सौ गांव थे। सीधमुख राजधानी थी। राठौरों से जिस समय युद्ध हुआ, उसय समय कंवरपाल नामी सरदार इनका राजा था। इस वंश के लोग धैर्य के साथ लड़ने में बहुत प्रसिद्ध थे। कहा जाता है दो हजार ऊंट और पांच सौ सवार इनके प्रतिक्षण शत्रु से मुकाबला करने के लिए तैयार रहते थे। यह कुल सेना राजधानी में तैयार न रहती थी। वे उत्तम कृषिकार और श्रेष्ठ सैनिक समझे जाते थे। राज्य उनका भरा-पूरा था। प्रजा पर कोई अत्याचार न था। सत्रहवीं शताब्दी में इनका भी राज राठौंरों द्वारा अपहरण कर लिया गया। इनके पड़ौस में चाहर भी रहते थे। राजा का चुनाव होता था, ऐसा कहा जाता है। चाहरों की ओर से एक बार मालदेव नाम के उपराजा का भी चुनाव हुआ था।

    कुशस्थली: विजयेन्द्र कुमार माथुर[20] लिखते हैं कि कुशस्थली द्वारका का ही प्राचीन नाम है। पौराणिक कथाओं के अनुसार महाराजा रैवतक के कुश बिछाकर यज्ञ करने के कारण इसका नाम कुशस्थली नाम पड़ा। पीछे त्रिविक्रम भगवान् कुश नामक दानव का वध भी यहीं किया था। त्रिविक्रम का मंदिर भी द्वारका में रणछोड़ जी के मंदिर के पास है। ऐसा जान पड़ता है कि महाराज रैवतक (बलराम की पत्नी रेवती के पिता) ने प्रथम बार, समुद्र में से कुछ भूमि बाहर निकलकर यह नगरी बसाई थी। हरिवंश पुराण (1.1.4) के अनुसार कुशस्थली उस प्रदेश का नाम था जहाँ यादवों ने द्वारका बसाई थी। विष्णु पुराण के अनुसार, आनर्तस्यापि रेवतनामा पुत्रोजज्ञे योऽसावानर्त विषयं बुभुजे पुरीं च कुशस्थली मध्युवास अर्थात आनर्त के रेवत नामक पुत्र हुआ जिसने कुशस्थली नामक पुरी में रहकर आनर्त विषय पर राज्य किया। एक प्राचीन किंवदंती में द्वारका का सम्बन्ध पुण्यजनों से बताया गया है। ये पुण्यजन वैदिक पाणिक या पणि हो सकते हैं। अनेक विद्वानों का मत है कि ये प्राचीन ग्रीस के फिनिशियनों का ही भारतीय नाम है। ये अपने को कुश की सन्तान मानते थे। (वेडल: मेकर्स ऑफ़ सिविलाइजेशन पृ.80)

    आनर्त विषय का अंतिम राजा ककुद्मी था जिसके पश्चात् कुशस्थली पर पुण्यजनों का राज्य कायम हुआ। ककुद्मी ने ही कृष्ण को मथुरा से यहाँ आमंत्रित किया था।[21] हमारा मत है कि ये पुण्यजन ओर कोई नहीं पूनिया जाट ही थे।

    प्रद्युम्न मंदिर - कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का मंदिर। प्रद्युम्न का उल्लेख भरतपुर के सिनसिनवार जाट शासकों कि वंशावली में अनुक्रमांक 44 पर किया गया है। महाराज प्रद्युम्न से पनहार और पनही जाट गोत्रों का निकास हुआ है।

    अनिरुद्ध मंदिर - कृष्ण के प्रपौत्र प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध का मंदिर। अनिरुद्ध का विवाह बाणासुर की पुत्री उषा के साथ हुआ था, जिसके कारण द्वारका क्षेत्र को उषामण्डल कहा जाता है। अनिरुद्ध का उल्लेख भरतपुर के सिनसिनवार जाट शासकों कि वंशावली में अनुक्रमांक-45 पर किया गया है। महाभारत के शल्य पर्व में राजा बाली के पुत्र बाणासुर का उल्लेख किया गया है, जो कार्तिकेय के डर से क्रौञ्च पर्वत में छुप गया। बाणॊ नामाद दैतेयॊ बलेः पुत्रॊ महाबलः। क्रौञ्चं पर्वतम आसाद्य देवसंघान अबाधत (Mahabharata IX.45.71) बाणासुर के वंसज वर्तमान में बाना जाट गोत्र के रूप में राजस्थान में पाये जाते हैं। बाना जाटों ने ही भरतपुर के समीप बयाना नामक क़स्बा बसाया था जिसका प्राचीन नाम श्रीपथ भी है जो द्वारका से मथुरा के रास्ते पर होने से पड़ा प्रतीत होता है। बयाना में भी एक उषा मंदिर है जो द्वारका से सम्बन्ध होने का प्रतीक है।

    बाण तीर्थ: सोमनाथ कस्बे से करीब एक मील पश्चिम मे चलने पर एक और तीर्थ आता है। यहां जरा नाम के शिकारी ने कृष्ण भगवान के पैर में भल्ल-बाण मारा था। इसी तीर से घायल होकर कृष्ण परमधाम गये थे। इस जगह को बाण-तीर्थ कहते है। यहां बैशाख मे बड़ा भारी मेला भरता है। बाण-तीर्थ से डेढ़ मील उत्तर में एक और बस्ती है। इसका नाम भालपुर है। इसे भालका तीर्थ भी कहते हैं। वहां एक पद्मकुण्ड नाम का तालाब है। हिरण्य नदी के दाहिने तट पर एक पतला-सा बड़ का पेड़ है। पहले इस स्थान पर बहुत बड़ा पेड़ था। बलरामजी ने इस पेड़ के नीचे ही समाधि लगाई थी। यहीं उन्होनें शरीर छोड़ा था। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जराह/जारा जाट अभी पाकिस्तान के मुल्तान क्षेत्र में पाये जाते हैं

    अम्बा मंदिर - कृष्ण की कुलदेवी का मंदिर जिसकी पूजा शारदा पीठ द्वारा संपन्न की जा रही है।

    शेषावतार श्री बलदेव मंदिर - बलदेवजी भगवान त्रिविक्रमजी के साथ पातळ लोक से पधारे थे। श्री द्वारकाधीश मंदिर के सभा मंडप के कोने में आपका मंदिर है। शेषनाग से शेसानो और शेषमा जाट गोत्र निकले हैं। शेषमा जाट गोत्र के लोग अभी राजस्थान में पाये जाते हैं।

    माधवराय मंदिर - रुक्मिणी हरण के बाद कृष्ण की शादी रुक्मिणी के साथ माधवपुर गाँव में हुई थी। उस स्मृति के फलस्वरूप यहाँ मंदिर है। मधु गोत्र के लोग अभी राजस्थान में पाये जाते हैं।

    त्रिविक्रम मंदिर - कृष्ण के बड़े भाई बलभद्र का यह मंदिर है। बलभद्र नाम का जाटों में गोत्र है।

    दुर्वासा मंदिर
    - दुर्वासा मुनि के शाप से श्रीकृष्ण और रुक्मिणी में वियोग हुआ। इस कारण रुक्मिणी का मंदिर द्वारका से बाहर है। दुर्वास/दुर्वासा गोत्र का उद्गम ऋषि दुर्वासा से हुआ है, इस जाट गोत्र के लोग मध्य प्रदेश में पाये जाते हैं।

    जाम्बुवती मंदिर - जाम्बुवान की पुत्री और कृष्ण की पटरानी का मंदिर। जाम्बुवान एक वानर राजा है। वस्तुतः वानर नागवंशी गोत्र था। कृष्ण ने उसको हराकर उसकी पुत्री से शादी की। वानर जाट गोत्र हरयाणा और पंजाब में पाया जाता है।

    सत्यभामा मंदिर - कृष्ण की पटरानी, सत्राजित की पुत्री। सत्राजित ने कृष्ण पर स्यमन्तक मणि चुराने का आरोप लगाया था। जाम्बुवन से मणि प्राप्त होने पर लज्जित होकर अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह कृष्ण के साथ मणि दहेज़ में दी। इनके रूठने पर कृष्ण ने स्वर्गलोक के नंदनवन से पारिजात वृक्ष इनको प्रसन्न किया।

    पंचनद तीर्थ - द्वारका तीर्थ के गोमती नदी पर पंचनद तीर्थ है। यहाँ की लोक भाषा में इस तीर्थ को पंचकुई कहा जाता है। यहाँ चारों तरफ समुद्र का खारा पानी है परन्तु इन पांच कुओं में मीठा पानी है। कहते हैं कि यहाँ पांडवों ने निवास किया था। इसके समीप ही लक्ष्मीनारायणदेव जी का मंदिर है। बगल में पांडवों की गुफा है। (पृ.62) पंचनद (पंजाब) में तक्षक लोग अधिक प्रसिद्ध थे। पंजाब से आये तक्षक नागवंशी जाटों द्वारा ही यह पंचनद तीर्थ बनाया गया है।

    सिद्धेश्वर महादेव मंदिर - द्वारका तीर्थ के अंतर्गत आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित शारदापीठ के आराध्य सिद्धेश्वर महादेव मंदिर का वर्णन स्कन्द पुराण के द्वारका महात्म्य के चतुर्थ अध्याय में किया गया है। (पृ.66)

    सन्दर्भ
    -
    19. जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठ-620
    20. Aitihasik Sthanavali,p. 272
    21. Pargiter, F.E. (1922, reprint 1972). Ancient Indian Historical Tradition, New Delhi: Motilal Banarsidass, p.98
    Last edited by lrburdak; February 3rd, 2014 at 07:53 PM.
    Laxman Burdak

  28. The Following User Says Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    rajpaldular (February 3rd, 2014)

  29. #35
    भद्रकाली माताजी मंदिर - द्वारकाधीश स्थित शारदापीठ की आराध्या भगवती भद्रकाली का मंदिर इससे आधा किमी पर स्थित है। इस मंदिर के पत्थर पर श्रीचक्र अंकित है। भद्रकाली वस्तुतः वीरभद्र की पत्नी है वीरभद्र से अनेक जाट गोत्रों का निकास हुआ है जैसे पूनिया, कल्हन, अंजना, जाखड़, भिमरौलिया, दहिया आदि। एर्स्किन के अनुसार गुजरात में पाये जान वाले जाटों का अंजना एक गोत्र है। राजस्थान में मेड़ता क्षेत्र में भी यह जाट गोत्र पाया जाता है। वी. पी. देसाई की गुजराती पुस्तक 'भारतना आंजना' (भारत के चौधरी) में लेख किया गया है कि इस जाति ने दश शताब्दियों तक भारत में प्रजातान्त्रिक ढंग से राज्य किया।

    शंख तालाब : रणछोड़ के मन्दिर से डेढ़ मील चलकर शंख-तालाब आता है। इस जगह भगवान कृष्ण ने शंख नामक राक्षस को मारा था। इसके किनारे पर शंख नारायण का मन्दिर है। ऐसी मान्यता है कि शंख-तालाब में नहाकर शंख नारायण के दर्शन करने से बड़ा पुण्य होता है। संखार/ संखाल गोत्र के जाटों का वंशज शंख नामक महाभारत कालीन नागवंशी राजा होना जाट इतिहासकारों द्वारा प्रतिवेदित है।

    कृकलास कुण्ड - द्वारका के तीर्थों में कृकलास कुण्ड प्राचीन एवं ऐतिहासिक स्थान है। इस स्थान का महात्म्य श्रीमद भागवत और सकंदपुराण के राजा नृग के आख्यान के साथ जुड़ा हुआ है।(पृ.68) कृकलास एक नागवंशी राजा थे। नृग भी जाट गोत्रों की सूचि में पाया जाता है परन्तु इसका विस्तार नहीं है। करकला जाट गोत्र भरतपुर में पाया जाता है।

    यादवस्थान: सोमनाथ पट्टन बस्ती से थोड़ी दूर पर हिरण्य नदी के किनारे एक स्थान है, जिसे यादवस्थान कहते हैं। यहां पर एक तरह की लंबी घास मिलती है, जिसके चौड़े-चौड़ पत्ते होते है। यही वही घास है, जिसको तोड़-तोडकर यादव आपस में लड़े थे और यही वह जगह है, जहां वे खत्म हुए थे।

    सोमनाथ पाटन: बेट-द्वारका से समुद्र के रास्ते जाकर बिरावल बन्दरगाह पर उतरना पड़ता है। ढाई-तीन मील दक्षिण-पूरब की तरफ चलने पर एक कस्बा मिलता है इसी का नाम सोमनाथ पाटन है। यहां एक बड़ी धर्मशाला है और बहुत से मन्दिर है। कस्बे से करीब पौने तीन मील पर हिरण्य, सरस्वती और कपिला इन तीन नदियों का संगम है। इस संगम के पास ही भगवान कृष्ण के शरीर का अंतिम संस्कार किया गया था।

    सोमनाथ: इस सोमनाथ पट्टन कस्बे में ही सोमनाथ भगवान का प्रसिद्ध मन्दिर है। इस मन्दिर को महमूद गजनवी ने तोड़ा था। यह समुद्र के किनारे बना है इसमें काला पत्थर लगा है। इतने हीरे और रत्न इसमें कभी जुडे थे कि देखकर बड़े-बड़े राजाओं के खजाने भी शरमा जायं। शिवलिंग के अन्दर इतने जवाहरात थे कि महमूद गजनवी को ऊंटों पर लादकर उन्हें ले जाना पड़ा। महमूद गजनवी के जाने के बाद यह दुबारा न बन सका। लगभग सात सौ साल बाद इन्दौर की रानी अहिल्याबाई ने एक नया सोमनाथ का मन्दिर कस्बे के अन्दर बनबाया था। यह अब भी खड़ा है।

    नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर - नागेश्वर मन्दिर द्वारका का एक प्रसिद्ध मन्दिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। यह द्वारका, गुजरात के बाहरी क्षेत्र में द्वारकापुरी से लगभग 25 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यह शिव जी के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। हिन्दू धर्म के अनुसार नागेश्वर अर्थात नागों का ईश्वर होता है। यह विष आदि से बचाव का सांकेतिक भी है। रुद्र संहिता में इन भगवान को दारुकावने नागेशं कहा गया है इस पवित्र ज्योतिर्लिंग के दर्शन की शास्त्रों में बड़ी महिमा बताई गई है। कहा गया है कि जो श्रद्धापूर्वक इसकी उत्पत्ति और माहात्म्य की कथा सुनेगा वह सारे पापों से छुटकारा पाकर समस्त सुखों का भोग करता हुआ अंत में भगवान् शिव के परम पवित्र दिव्य धाम को प्राप्त होगा। एतद् यः श्रृणुयान्नित्यं नागेशोद्भवमादरात्। सर्वान् कामानियाद् धीमान् महापातकनाशनम्

    गोपी तालाब: नागेश्वर ज्योतिर्लिंग से कुछ किलोमीटर चलने के बाद बेट द्वारका के रास्ते में आता है गोपी तालाब। गोपी तलाव द्वारका से 20 किलोमीटर तथा नागेश्वर से मात्र 5 किलोमीटर की दूरी पर बेट द्वारका के मार्ग पर स्थित है। गोपी तालाब एक छोटा सा तालाब है जो कि चन्दन जैसी पिली मिट्टी से घिरा है जिसे गोपी चन्दन कहते हैं, यह चन्दन भगवान् श्री कृष्ण के भक्तों के द्वारा माथे पर तिलक लगाने के लिए किया जाता है। यह तालाब हिन्दू पौराणिक कथाओं में विशेष स्थान रखता है।

    इस सम्बन्ध में कथा प्रचलित है कि भौमासुर नामक एक राजा ने वरुण का छात्र, माता अदिति का कुंडल और मेरुपर्वत पर स्थित देवताओं का मणिपर्वत नामक स्थान छीन लिया। इंद्र ने कृष्ण को बताया तो कृष्ण पत्नी सत्यभामा के साथ भौमासुर की राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर गए। वहाँ भयंकर युद्ध हुआ जिसमें भौमासुर मारे गए। कृष्ण ने वहाँ कैद 16000 राजकुमारियों को मुक्त किया। (भागवत स्कंध अध्याय 59 श्लोक 33-42) (पृ.71) जाट इतिहास में भौबिया जाट गोत्र की उत्पत्ति भौमासुर से बताई गयी है।

    इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि इस स्थल पर कृष्ण ने अर्जुन का अहंकार दूर किया था। कृष्ण ने अपनी सभी रानियों को द्वारका से बाहर सुरक्षित लेजाने का भार अर्जुन को सौंपा था। अर्जुन को अहंकार हो गया कि उसके पास गांडीव जैसा धनुष है और महाभारत जैसे युद्ध में विजय पाई है। काबा जाति के लोगों ने अर्जुन पर हमला कर गोपियों को लूट लिया। अर्जुन के गांडीव ने काम नहीं किया। लुटेरों के डर से कितनी ही रानियाँ तालाब में डूब कर मर गयी। इसलिए उस तालाब को आज भी गोपी तालाब कहते हैं। वहाँ की चिकनी एवं पीले रंग की मिटटी गोपी चन्दन के रूप में प्रसिद्ध है। इस चन्दन को लगाने से खाज-खुजली मिट जाती है, ऐसी मान्यता है। (पृ.72)

    इन्द्रेश्वर महादेव मंदिर - यह महाभारत कालीन मंदिर है। महाभारत के अनुसार कृष्ण के बड़े भाई बलराम अपनी बहन सुभद्रा का विवाह दुर्योधन के साथ चाहते थे, परन्तु कृष्ण सुभद्रा का विवाह अर्जुन के साथ चाहते थे। अर्जुन ने कृष्ण की प्रेरणा से सुभद्रा का अपहरण किया। इन्द्रेश्वर महादेव मंदिर का सम्बन्ध इस घटना से है। ऐसा माना जाता है कि अर्जुन ने बरड़िया ग्राम के सीतापुरी कुंड के पास सुभद्रा के साथ विवाह किया। अर्जुन इंद्र का पुत्र था इसलिए उसका नाम इंद्रेश्वर पड़ा। (पृ.74)

    चंद्रभागा मंदिर - यह स्थान द्वारका से 5 कि.मी. की दूरी पर बरडिया के पास स्थित है। यहाँ द्वारकाधीश जी की कुलदेवी माता चंद्रभागा का मंदिर है। स्यमन्तक मणि के लिए जाम्बुवान के साथ लम्बे समय तक युद्ध चला। यहाँ युद्ध में सफलता के बाद कृष्ण ने पटरानी जाम्बुवती के साथ आकर आशीर्वाद प्राप्त किया। (पृ.75)

    पिण्डारक तीर्थ - द्वारका से 60 किमी दूर स्थित है। द्वारका-जामनगर रेल लाईन पर स्थित भोपालका स्टेशन से 35 किमी दूर है। यहाँ पिंड दान किया जाता है। भाटिया से 14 कि.मी. दूर पिंडारा नाम का गाँव है। (पृ.76) पिण्डारक महाभारत कालीन नागवंशी राजा थे। नागः शङ्खनकश चैव तथा च सफण्डकॊ ऽपरः । क्षेमकश च महानागॊ नागः पिण्डारकस तथा (i.35.11) पिण्डले/ पिण्डेल जाट गोत्र के लोग पिण्डारक के वंशज बताये जाते हैं।
    Last edited by lrburdak; February 3rd, 2014 at 09:58 AM.
    Laxman Burdak

  30. The Following User Says Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    rajpaldular (February 3rd, 2014)

  31. #36
    No example or relics of Mbt times temples is found in India.

    First known oldest temples built of burnt bricks found so far by the archaeologists in India are at Bhitarigoan belonging to Gupta period.
    History is best when created, better when re-constructed and worst when invented.

  32. The Following User Says Thank You to DrRajpalSingh For This Useful Post:

    rajpaldular (February 25th, 2014)

  33. #37
    गुजरात का जाट से सम्बन्धों की विवेचना

    गुजरात का नामकरण: इतिहासकार मानते हैं कि गुजरात नाम गुर्जरत्रा से आया है। गुर्जरो का साम्राज्य गुर्जरत्रा या गुर्जरभूमि के नाम से जाना जाता था। इस तथ्य की विवेचना आवश्यक है। कुछ गुर्जर इतिहास लेखक चेची (गुर्जर गोत्र) का सम्बन्ध सीधे-सीधे यूची (कुषाणों) से जोड़ते हैं। जबकि चेची (चेष्टम) और क्षयरात तथा नहपान गोत्र शकों के थे जिनको कुषाणों और गुप्तों ने हराया था। कुषाण का मूल चीनी नाम यूची है जिसका भारतीय रूपांतर जेटी या जाट ही बनता है। जाटों में ही कस्वां और कुश गोत्र आज भी मिलते हैं। ये सीधे कुषाण से जुड़ते हैं। जाट शासकों सम्राट हर्षवर्धन और उनसे पूर्व यशोधर्मा ने हूणों और गुर्जरों को मालवा में परास्त कर उनको सुदूर कन्नौज और कश्मीर में बसने के लिए बाध्य कर दिया था। तभी से उनकी आवास भूमि या तो राजस्थान का मरुस्थल या जम्मू कश्मीर का पर्वतीय क्षेत्र है अथवा यमुना और गंगा के कछार (खादर) हैं। किसी भी वैदिक संहिता अथवा संस्कृत साहित्य ग्रन्थ में भारत में गुर्जरों किवां हूणों का उल्लेख नहीं मिलता। महाभारत में अर्जुन के द्वारा और रघुवंश महाकाव्य में राम के द्वारा किवां हूणों को पाटल प्रदेश किवां अफगानिस्तान में पराजित ही दिखाया है। ये दोनों 5वीं शताब्दी की हैं अतएव इस काल के पश्चात् ही हूणों और गुर्जरों का प्रवेश भारतवर्ष में हुआ। गुजरात के कुर्मी अधिकांश में शक हैं। यहाँ पर यह ज्ञातव्य है कि कर्नल टॉड ने राजस्थान के इतिहास में लिखा है कि शक और कुषाण दोनों ही कैस्पियन सागर के पूर्वी तट से चलकर ईरान के सिस्तान किवां शकस्तान में बसने वाली मस्सागेटी किवां महाजट जाती के ही अंगभूत अवयव हैं। उनको किसी भी इतिहासकार ने गुर्जर नहीं लिखा है।[22]

    प्रो. विंगले ने तो जाटों की एक शाखा का ही नाम गुर्जर बताया है जो अफगानिस्तान के रास्ते से पंजाब होते हुए गुजरात में आये थे। पुनः वहीँ से राजस्थान के मार्ग से उसने सौराष्ट्र को विजित किया था, अतएव नामकरण गुजरात किया था। इसी आधार पर ठाकुर देशराज[23] भी अपने जाट इतिहास में अफगानिस्तान में बसने वाली गूजर शाखा को जाट जाति का ही अभिन्न अंग बताया गया है। आज तक भी जाटों में गूजर और गाबर जैसे गोत्र हैं, गूजर जाति में जाट जैसा गोत्र नहीं है। संस्कृत साहित्य में हमें जर्त अथवा जट्ट जैसे गणों या गणसंघों का नामकरण मिलता है। जैसे कि पाणिनि के अष्टाध्यायी में 'जट झट संघाते' सूत्र से परिलक्षित होता है।[24]

    गुर्जरत्र यहाँ जातिसूचक न होकर क्षेत्र सूचक है। इतिहासकार डी. आर. भंडारकर के अनुसार 'गुर्जरत्र' में राजस्थान के नागौर जिले के डीडवाना और परबतसर क्षेत्रों को सम्मिलित किया गया है। गुर्जरत्र का संधि विच्छेद करें तो इस प्रकार बनता है: गुर्जरत्र = गुर + जर्त। यहाँ 'गुर' का अर्थ होता है 'बड़ा' या 'महा' और 'जर्त' का अर्थ है 'जाट'। इस प्रकार गुर्जरत्र का अर्थ है महाजाट अर्थात हिरोडोटस (c. 484 BC - c. 425 BC) का मस्सागेटी

    काठियावाड़ का नामकरण - सौराष्ट्र के इस भू-भाग का नामकरण काठियावाड़ भी कठी जाटों के नाम पर किया गया था। एच. डब्ल्यू. बेल्यु[25] ने लेख किया है कि अलक्षेन्द्र के पंजाब पर आक्रमण के समय वहाँ निवास करने वाली जाति कठी जिसने यवन सम्राट के दाँत खट्टे कर दिए थे, कालान्तर में पंजाब छोड़कर दक्षिण की ओर आ गई और सौराष्ट्र में बस गई, जिससे इस देश का नाम काठियावाड़ भी हो गया।

    नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर द्वारका का एक प्रसिद्ध मन्दिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। यह शिव जी के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। हिन्दू धर्म के अनुसार नागेश्वर अर्थात नागों का ईश्वर होता है। यह स्पष्ट करता है कि द्वारका में नागवंशी अनेक राजा थे तथा नागेश्वर उनका मुख्य अधिपति था। कृष्ण ने वहाँ के सभी नागवंशी राजाओं को जाट-संघ में सम्मिलित किया प्रतीत होता है। यह शिव से जाटों के सम्बन्ध को भी इंगित करता है। स्वत: स्पस्ट है कि काफी संख्या में नागवंशी लोग जाट संघ में शामिल हुए

    'ज्ञाति-संघ' अथवा 'जाट-संघ' का गठन: श्री कृष्ण द्वारा 'ज्ञाति-संघ' अथवा 'जाट-संघ' का गठन द्वारका में राज्य करते हुए किया गया प्रतीत होता है क्योंकि उनकी मृत्यु सौराष्ट्र में ही सोमनाथ के पास स्थित भालका तीर्थ में हुई थी। श्री कृष्ण द्वारा स्थापित ज्ञाति-संघ समाजवादी सिद्धांतों के बलपर अपना प्रभाव बढाने लगा और शनै-शनै श्रीकृष्ण ने पीड़ित जनता की रक्षा की। इस संघ के गठन में कुछ समुदाय अवश्य ही ना खुश हुए होंगे। यह मानव की स्वाभाविक प्रवृति है। उल्लेखनीय है कि भारत के स्वतंत्र होने पर भारतीय संघ का गठन भी सौराष्ट्र के ही सरदार वल्लभ भाई पटेल के प्रयासों से ही सम्भव हो पाया था। हमें ज्ञात है कि इस प्रक्रिया में सौराष्ट्र में जूनागढ़ नवाब ने भारतीय संघ में मिलना अस्वीकार किया था, परन्तु जनता उनके साथ नहीं थी इसलिए वे स्वयं भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गए। यही स्थिति कृष्ण के ज्ञाति-संघ के गठन में हुई होगी। सम्भवतः कृष्ण के ज्ञाति संघ में सम्मिलित नहीं होने वाले समुदाय ही बाद में कृष्ण की मृत्यु का कारण बना हो।

    श्रीकृष्ण की मृत्यु: श्रीकृष्ण की मृत्यु के बारे में जो किंवदंतियां प्रचलित हैं उनके अनुसार सोमनाथ कस्बे से करीब एक मील पश्चिम मे जरा नाम के शिकारी ने कृष्ण भगवान के पैर में भल्ल-बाण मारा था। इसी तीर से घायल होकर वह परमधाम गये थे। इस जगह को बाण-तीर्थ कहते है। बाण-तीर्थ से डेढ़ मील उत्तर में एक और बस्ती है। इसका नाम भालपुर है। इसे भालका तीर्थ भी कहते हैं। चन्द्रवंश का यहाँ पतन होने के कारण ही इस स्थान को सोमनाथ पाटन कहते हैं।

    कृष्ण की मृत्यु के सम्बन्ध में आने वाला विवरण सांकेतिक प्रतीत होता है। इसमें आने वाले नामों से स्पष्ट होता है कि भाल, भाला, भलान, भल्लान, भालार आदि जाट गोत्रों के नाम हैं जो पंजाब और पाकिस्तान में पाये जाते हैं। बल्हीक प्राचीन पंजाब के जाटों के लिए प्रयोग किया जाता था। भालका एक बलोच गोत्र भी है। जराह/जारा जाट अभी पाकिस्तान के मुल्तान क्षेत्र में पाये जाते हैं। बाण/बाणा/बाना जाट राजस्थान में पाये जाते हैं। जैसा कि नाम से प्रतीत होता है ये सभी आयुद्धजीवी क्षत्रिय रहे होंगे जो कृष्ण से असंतुष्ट होंगे और कृष्णके साम्राज्य के कमजोर होने पर उनको हमला कर ख़त्म किया हो। इस तरह द्वारकापुरी का पतन राजनैतिक कारणों से हुआ प्रतीत होता है न कि धार्मिक ग्रंथों में बताये गए ऋषियों के श्राप अथवा गांधारी के श्राप से नष्ट होना।

    भौमासुर: गोपी तालाब के सम्बन्ध में कथा प्रचलित है कि भौमासुर नामक एक राजा ने वरुण का छत्र, माता अदिति का कुंडल और मेरुपर्वत पर स्थित देवताओं का मणिपर्वत नामक स्थान छीन लिया। इंद्र ने कृष्ण को बताया तो कृष्ण पत्नी सत्यभामा के साथ भौमासुर की राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर गए। वहाँ भयंकर युद्ध हुआ जिसमें भौमासुर मारे गए। जाट इतिहास में भौबिया जाट गोत्र की उत्पत्ति भौमासुर से बताई गयी है।

    जूनागढ़: सौराष्ट्र में स्थित जूनागढ़ गिरनार पहाड़ियों के निचले हिस्से पर स्थित है। जूनागढ़ के प्राचीन शहर का नामकरण एक पुराने दुर्ग के नाम पर हुआ है। यहाँ पूर्व-हड़प्पा काल के स्थलों की खुदाई हुई है। इस शहर का निर्माण नौवीं शताब्दी में हुआ था। यह चूड़ासमा क्षत्रियों की राजधानी थी। गिरनार के रास्ते में एक गहरे रंग की बेसाल्ट चट्टान है, जिस पर तीन राजवंशों का प्रतिनिधित्व करने वाला शिलालेख अंकित है। मौर्य शासक अशोक (लगभग 260-238 ई.पू.) रुद्रदामन (150 ई.) और स्कंदगुप्त (लगभग 455-467)। यहाँ 100-700 ई. के दौरान बौद्धों द्वारा बनाई गई गुफ़ाओं के साथ एक स्तूप भी है।

    जूनागढ़ के बारे में विविधतीर्थकल्प अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इसका प्राचीन नाम 'जुण्ण-डुग्ग' है जो जून जाट गोत्र से सम्बन्धित है। [26] जूनागढ़ में शक क्षत्रप रुद्रदमन का 150 ई. का शिलालेख है जिसमे इसको यवन राजा तुषास्प के अधीन बताया गया है। संकृत में यवन प्राकृत भाषा में जून बनता है। जाट इतिहासकार भीमसिंह दहिया[27] शक राजाओं चस्टान और रुद्रदमन को शहरावत जाट गोत्र का मानते हैं। फुल्का/फुलफखर जाट गोत्र का सम्बन्ध जूनागढ़ में स्थित गाँव फुलका और वहाँ बहने वाली नदी फुलजर से है।

    बरड़ा: सौराष्ट्र में बरड़ा नाम का पर्वत है। इरिथ्रियन के समुद्र के प्रवास के लगभग 1900 वर्षों पूर्व लिखे गए 'पेरिप्लस' [28] में द्वारका को बराके नाम से पहचाना गया है। बर एक आस्ट्रिक शब्द है, अनुमान होता है कि यह नाम देने वाले लोग आस्ट्रिक मूल के रहे हों अथवा उनको द्वारका शब्द के उच्चारण में कठिनाई होने से द्वारका को बराका और फिर बराके हो गया हो। इतिहास से ज्ञात होता है कि कभी आस्ट्रिक लोग बंगाल के उपसागर के नजदीक से प्रविष्ट होकर गुजरात में भृगुकच्छ (भरूच) भाल और द्वारका प्रदेश में फैले थे। चरक्ष की पार्थियन स्टेशन नामक पुस्तक प्रथम शताब्दी ई. पूर्व में सीस्तान में बरड़ा नामक शकों के शाही शहर के नाम का उल्लेख करती है। इसका सम्बन्ध बुरडक़ गोत्र से होना प्रतीत होता है। बर भी एक जाट गोत्र है। इसी प्रकार बराडिय़ा भी एक जाट गोत्र है।

    बड़वाला : बड़वाला नामक गाँव द्वारका के उत्तर में स्थित है जहाँ प्राचीन गुहादित्य का मंदिर बना है। बड़वाल नामक गोत्र के लोग मंदसौर मध्य प्रदेश में पाये जाते हैं।

    सौराष्ट्र और द्वारका से सम्बंधित जाट गोत्र - उपरोकत विवरण से स्पष्ट कि निम्नलिखित जाट गोत्र प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से सौराष्ट्र के क्षेत्रों और द्वारका से सम्बंधित प्रतीत होते हैं : अंजना, बमरौलिया, बाणा, बरा, बराड़िया, बड़वाल, भल्लान, भौबिया, बुरडक़, चालुक्य, चौहान, चावड़ा, दहिया, दुर्वास, गारुलक, गूजर, गुप्त, जाखड़, ज़रा, जून, कल्हन, करकला, कस्वां , कठ, कठी, कुश, मौर्य, मौर्य, नागा, नंदा, पिण्डले, पिण्डेल, पुन्डीर, पूनिया, रैकवार, शहरावत, संखाल, संखार, शक, शाल्व, शेषमा, शूरा, सिनसिनवार, तक्षक, वरन, वरनवार.

    सन्दर्भ

    22.धर्मंचन्द विद्यालंकार: जाट समाज, अगस्त 2013, पृ.20-21
    23. Jat History Thakur Deshraj/Chapter IX, p.695, s.n.114
    24. धर्मंचन्द विद्यालंकार: जाट समाज, अगस्त 2013, पृ.20-21
    25. An Inquiry Into the Ethnography of Afghanistan By H. W. Bellew, The Oriental University Institute, Woking, 1891, p.17
    26. f.n. 47. Vividhatlrthakalpa p. 10 : तं जहा-उग्गसेणगढ़ं ति वा, खंगारागढ़ं ति वा । जुण्ण-डुग्गं ति वा । उत्तरदिशाए विसालथम्भसाला-सोहियो दसदसार मंडवो गिरिदुवारे य पंचमो हरी दामोअरो सुवण्णरेहा-नईपारे वट्टह ।)
    27. Bhim Singh Dahiya: Jats the Ancient Rulers (A clan study),p.74
    28. Periplus of the Erythraean Sea,s.n.41
    Last edited by lrburdak; February 10th, 2014 at 11:04 PM.
    Laxman Burdak

  34. The Following 3 Users Say Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    dndeswal (February 23rd, 2014), DrRajpalSingh (February 23rd, 2014), rajpaldular (February 25th, 2014)

  35. #38
    Mentionof Dwarka by Periplus

    Dwarka is mentioned by Periplus as Baraca in 'Periplus of the Erythraean Sea'. [wiki]Bharuch[/wiki] was called by the name of Barygaza by Greeks/Romans. North India also traded with western and southern nations via Ujjain and Bharuch. Trade with the Indian harbour of Barygaza is described extensively in the Periplus. Nahapana, ruler of the Indo-Scythian Western Satraps is mentioned under the name Nambanus, [Anjali Desai, India Guide Gujarat, India Guide Publications, 2007, page 160, ISBN 978-0-9789517-0-2] as ruler of the area around Barigaza:

    41. "Beyond the gulf of Baraca is that of Barygaza and the coast of the country of Ariaca, which is the beginning of the Kingdom of Nambanus and of all India. That part of it lying inland and adjoining Scythia is called Abiria, but the coast is called Syrastrene. It is a fertile country, yielding wheat and rice and sesame oil and clarified butter, cotton and the Indian cloths made therefrom, of the coarser sorts. Very many cattle are pastured there, and the men are of great stature and black in color. The metropolis of this country is Minnagara, from which much cotton cloth is brought down to Barygaza."

    —Periplus of the Erythraean Sea, Chap. 41
    Laxman Burdak

  36. The Following 2 Users Say Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    DrRajpalSingh (February 23rd, 2014), rajpaldular (February 25th, 2014)

  37. #39
    Apart from "sudra jats", which other shudra castes have ruling history in Gujarat?
    Become more and more innocent, less knowledgeable and more childlike. Take life as fun - because that's precisely what it is!

  38. The Following 2 Users Say Thank You to prashantacmet For This Useful Post:

    DrRajpalSingh (February 24th, 2014), rajpaldular (February 25th, 2014)

  39. #40
    ..............................repeat post
    Last edited by narenderkharb; February 24th, 2014 at 10:22 PM.

Posting Permissions

  • You may not post new threads
  • You may not post replies
  • You may not post attachments
  • You may not edit your posts
  •