Page 1 of 4 1 2 3 4 LastLast
Results 1 to 20 of 68

Thread: Unearthing the Ancient Jat History in Saurashtra (Gujarat)

  1. #1

    Unearthing the Ancient Jat History in Saurashtra (Gujarat)

    Traditional and mythological accounts tell us that Krishna went to Dwarka from Mathura out of fear of Jarasandha and Kalayavana. He took away with him all his 18 new clans people and reconstructed already existing Kushasthali , named it to Dwarka. He ruled there for 36 years. While Krishna was ruling at Dwaraka, Duryodhana was oppressing the Pandavas at Hastinapur and sought to compass their death. Krishna and Balarama went to give them help.

    Jat historians tell us that Krishna founded a Sangha called Gyati-Sangha which later changed to Jat Sangha. If it is true then Krishna might have formed this Sangha at Dwarka because as per traditions he died at place called [wiki]Bhalka Tirtha[/wiki] near Somnath.

    My belief is that if Jat Sangha operated from Dwarka then the Jats might have left some traces which can help un in retracing our History. With this thing in my mind I visited Saurasthra region of Gujarat:

    [wiki]Junagarh[/wiki]-[wiki]Girnar[/wiki] (19.12.2013),

    [wiki]Somnath[/wiki] ([wiki]Veraval[/wiki]) (20.12.2013),

    [wiki]Porbandar[/wiki]-[wiki]Dwarka[/wiki]-[wiki]Bet Dwarka[/wiki] (21-22.12.2013),

    [wiki]Jamnagar[/wiki] (23-24.12.2013),

    [wiki]Ahmedabad[/wiki] (25-26.12.2013)

    I visited the religious and historical places of this region, collected available literature, studied related historical contents and created pages on each of the towns which you may see by clicking on each place name's active link.

    Two articles have been created after synthesis about which members may suggest if any thing is to be added or corrected. These are:

    http://www.jatland.com/home/Jat_History_in_Gujarat

    http://www.jatland.com/home/Dwarka

    I found visible connections of Ancient Jat History with these places.
    Laxman Burdak

  2. The Following 5 Users Say Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    anilsangwan (January 17th, 2014), dndeswal (January 15th, 2014), DrRajpalSingh (January 15th, 2014), krishdel (January 19th, 2014), rajpaldular (January 15th, 2014)

  3. #2
    प्रस्तावना : जाट एक आदिकालीन समुदाय है और प्राचीनतम क्षेत्रीय वर्ग है। भारत में मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और गुजरात में वसते हैं। पंजाब में यह जट कहलाते हैं तथा शेष प्रदेशों में जाट कहलाते है। जाटों के वर्तमान विस्तार को देखते हुए यह कल्पना करना सम्भव नहीं है कि इस जाति का गुजरात से कोई सम्बन्ध रहा हो। कुछ प्रमुख इतिहासकार यह मानते हैं कि जाट जाति का विकास कृष्ण द्वारा गठित ज्ञाति संघ से हुआ है। कृष्ण अपने 18 नये कुल-बंधुओ के साथ द्वारका आ गए। यहीं 36 वर्ष राज्य करने के बाद देहावसान हुआ। द्वारका के समुद्र में डूब जाने और यादव कुलों के नष्ट हो जाने के बाद कृष्ण के प्रपौत्र वज्र अथवा वज्रनाभ् द्वार के यदुवंश का अंतिम शासक था जो जीवित बचा था। द्वारका के समुद्र में डूबने पर अर्जुन द्वारका गए और वज्र तथा शेष बची यादव महिलाओं को हस्तिनापुर ले गए। कृष्ण के प्रपौत्र वज्र को हस्तिनापुर में मथुरा का राजा घोषित किया। वज्रनाभ् के नाम से ही मथुरा क्षेत्र को ब्रजमंडल कहा जाता है। इन्हीं से भरतपुर के सिनसिनवार जाट शासकों का निकास हुआ है।
    Laxman Burdak

  4. The Following 4 Users Say Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    anilsangwan (January 17th, 2014), dndeswal (January 18th, 2014), DrRajpalSingh (January 18th, 2014), rajpaldular (January 22nd, 2014)

  5. #3
    कृष्ण का द्वारका अभिगमन

    कृष्ण ने राजा कंस का वध कर दिया तो कंस के श्वसुर मगधपति जरासंध ने कृष्ण से वैर ठान कर यादवों पर बारम्बार आक्रमण किये। यादवों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कृष्ण ने उस स्थान को बदलने का निश्चय किया। विनता के पुत्र गरुड़ की सलाह एवं ककुद्मी के आमंत्रण पर कृष्ण कुशस्थली आ गये। वर्तमान द्वारका नगर कुशस्थली के रूप में पहले से ही विद्यमान था, कृष्ण ने इसी उजाड़ हो चुकी नगरी का पुनः संस्कार किया। महाभारत युद्ध का सञ्चालन द्वारका से ही किया। महाभारत के अनुसार कृष्ण ने द्वारका में 36 वर्ष राज्य किया।

    कृष्ण के कुशल निर्देशन में यह सभ्यता सम्पन्नता के शिखर पर पहुँच गयी। इस असीम समृद्धि के फलस्वरूप यादव भोग-विलास में लग गए। उनमें अहंकार आ गया और अनुशासन ख़त्म हो गया। यादवों ने पिण्डतारक (पिण्डारक) क्षेत्र के मुनिजनों को अपमानित किया। कृष्ण ने इन यादवों के संरक्षण का एक प्रयास किया और द्वारका पर आने वाले संकट को ध्यान में रखकर वे उन यादवों को साथ लेकर प्रभास क्षेत्र की तरफ चल पड़े। उन्होंने वृद्धों और स्त्रियों को शंखोद्धार (बेट) जाने की सलाह दी और अन्यों के साथ स्वयं प्रभास आ गए। ऋषियों के शाप के वशीभूत यादव कालक्रम से विनष्ट हो गए। इधर कृष्ण के निवास को छोड़ कर सारी द्वारका को समुद्र ने आत्मसात कर लिया।

    इस घटना में कृष्ण और बलराम जिन्दा बचे। कृष्ण ने अर्जुन को सन्देश भेजकर द्वारका को पांडवों के प्रभार में दिया और वन की ओर चल दिए। भाई बलराम ने वन में देहत्याग कर अनंत नाग के रूप में समुद्र में प्रवेश कर गए। कृष्ण वन में योग की मुद्रा में थे तभी एक ज़रा नाम के शिकारी ने हिरन के भ्रम में भल्लबाण चलाया और कृष्ण स्वर्ग सिधार गए। यह स्थान सोमनाथ के पास वेरावल में भालका तीर्थ के रूप में विद्यमान है।

    लेखक का सौराष्ट्र प्रवास : लेखक (लक्ष्मण बुरड़क) की जिज्ञासा थी कि जिस भगवान कृष्ण के ज्ञाति संघ से जाट जाति का विकास हुआ उनकी नगरी द्वारका और निर्वाण स्थली भलका तीर्थ का दर्शन किया जाये। इस हेतु लेखक ने गुजरात प्रान्त के सौराष्ट्र क्षेत्र के जूनागढ़-गिरनार (19.12.2013), सोमनाथ (वेरावल) (20.12.2013), पोरबंदर-द्वारका-बेट द्वारका (21-22.12.2013), जामनगर (23-24.12.2013), अहमदाबाद (25-26.12.2013) का पत्नी श्रीमती गोमती बुरड़क के साथ प्रवास किया। इन स्थानों के धार्मिक स्थलों का अवलोकन कर उनसे सम्बंधित साहित्य का अध्ययन किया और जाटलैंड साईट पर पूर्व से संकलित तथ्यों के साथ विवेचना की, जिसके आधार पर यह लेख प्रस्तुत किया गया है। गुजरात के इस पश्चिमी भू-भाग को सौराष्ट्र या काठियावाड़ नाम से पुकारा जाता है। प्राचीन साहित्य में इसे सुराष्ट्र कहा गया है।

    सौराष्ट्र का परिचय : सौराष्ट्र, वर्तमान काठियावाड़-प्रदेश, जो प्रायद्वीपीय क्षेत्र है। सौराष्ट्र का भू-भाग ज्यादातर दलदली और मरुस्थलीय है। महाभारत के समय द्वारिकापुरी इसी क्षेत्र में स्थित थी। सुराष्ट्र को सहदेव ने अपनी दिग्विजय यात्रा के प्रसंग में विजित किया था। विष्णु पुराण में अपरान्त के साथ सौराष्ट्र का उल्लेख है। इतिहास प्रसिद्ध सोमनाथ का मन्दिर सौराष्ट्र ही की विभूति था। रैवतकपर्वत गिरनार पर्वतमाला का ही एक भाग था। अशोक, रुद्रदामन तथा गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त के समय के महत्त्वपूर्ण अभिलेख जूनागढ़ के निकट एक चट्टान पर अंकित हैं, जिससे प्राचीन काल में इस प्रदेश के महत्त्व पर प्रकाश पड़ता है। रुद्रदामन के अभिलेख में सुराष्ट्र पर शक क्षत्रपों का प्रभुत्व बताया गया है। इस आधार पर कुछ इतिहासकारों ने सुराष्ट्र को शक-राष्ट्र भी कहा है। जान पड़ता है कि अलक्षेन्द्र के पंजाब पर आक्रमण के समय वहाँ निवास करने वाली जाति कठ/कठी जिसने यवन सम्राट के दाँत खट्टे कर दिए थे, कालान्तर में पंजाब छोड़कर दक्षिण की ओर आ गई और सौराष्ट्र में बस गई, जिससे इस देश का नाम काठियावाड़ भी हो गया। गुजरात के काठियावाड़ प्राय:द्वीप में भादर नदी के समीप स्थित रंगपुर की खुदाई 1953-1954 ई. में 'ए. रंगनाथ राव' द्वारा की गई। यहाँ पर पूर्व हड़प्पा कालीन संस्कृति के अवशेष मिले हैं। यहाँ मिले कच्ची ईटों के दुर्ग, नालियां, मृदभांड, बांट, पत्थर के फलक आदि महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ धान की भूसी के ढेर मिले हैं। यहाँ उत्तरोत्तर हड़प्पा संस्कृति के भी साक्ष्य पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं।
    Laxman Burdak

  6. The Following User Says Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    rajpaldular (January 22nd, 2014)

  7. #4
    Quote Originally Posted by lrburdak View Post
    कृष्ण का द्वारका अभिगमन

    कृष्ण ने राजा कंस का वध कर दिया तो कंस के श्वसुर मगधपति जरासंध ने कृष्ण से वैर ठान कर यादवों पर बारम्बार आक्रमण किये। यादवों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कृष्ण ने उस स्थान को बदलने का निश्चय किया। विनता के पुत्र गरुड़ की सलाह एवं ककुद्मी के आमंत्रण पर कृष्ण कुशस्थली आ गये। वर्तमान द्वारका नगर कुशस्थली के रूप में पहले से ही विद्यमान था, कृष्ण ने इसी उजाड़ हो चुकी नगरी का पुनः संस्कार किया। महाभारत युद्ध का सञ्चालन द्वारका से ही किया। महाभारत के अनुसार कृष्ण ने द्वारका में 36 वर्ष राज्य किया।

    कृष्ण के कुशल निर्देशन में यह सभ्यता सम्पन्नता के शिखर पर पहुँच गयी। इस असीम समृद्धि के फलस्वरूप यादव भोग-विलास में लग गए। उनमें अहंकार आ गया और अनुशासन ख़त्म हो गया। यादवों ने पिण्डतारक (पिण्डारक) क्षेत्र के मुनिजनों को अपमानित किया। कृष्ण ने इन यादवों के संरक्षण का एक प्रयास किया और द्वारका पर आने वाले संकट को ध्यान में रखकर वे उन यादवों को साथ लेकर प्रभास क्षेत्र की तरफ चल पड़े। उन्होंने वृद्धों और स्त्रियों को शंखोद्धार (बेट) जाने की सलाह दी और अन्यों के साथ स्वयं प्रभास आ गए। ऋषियों के शाप के वशीभूत यादव कालक्रम से विनष्ट हो गए। इधर कृष्ण के निवास को छोड़ कर सारी द्वारका को समुद्र ने आत्मसात कर लिया।

    इस घटना में कृष्ण और बलराम जिन्दा बचे। कृष्ण ने अर्जुन को सन्देश भेजकर द्वारका को पांडवों के प्रभार में दिया और वन की ओर चल दिए। भाई बलराम ने वन में देहत्याग कर अनंत नाग के रूप में समुद्र में प्रवेश कर गए। कृष्ण वन में योग की मुद्रा में थे तभी एक ज़रा नाम के शिकारी ने हिरन के भ्रम में भल्लबाण चलाया और कृष्ण स्वर्ग सिधार गए। यह स्थान सोमनाथ के पास वेरावल में भालका तीर्थ के रूप में विद्यमान है।

    लेखक का सौराष्ट्र प्रवास : लेखक (लक्ष्मण बुरड़क) की जिज्ञासा थी कि जिस भगवान कृष्ण के ज्ञाति संघ से जाट जाति का विकास हुआ उनकी नगरी द्वारका और निर्वाण स्थली भलका तीर्थ का दर्शन किया जाये। इस हेतु लेखक ने गुजरात प्रान्त के सौराष्ट्र क्षेत्र के जूनागढ़-गिरनार (19.12.2013), सोमनाथ (वेरावल) (20.12.2013), पोरबंदर-द्वारका-बेट द्वारका (21-22.12.2013), जामनगर (23-24.12.2013), अहमदाबाद (25-26.12.2013) का पत्नी श्रीमती गोमती बुरड़क के साथ प्रवास किया। इन स्थानों के धार्मिक स्थलों का अवलोकन कर उनसे सम्बंधित साहित्य का अध्ययन किया और जाटलैंड साईट पर पूर्व से संकलित तथ्यों के साथ विवेचना की, जिसके आधार पर यह लेख प्रस्तुत किया गया है। गुजरात के इस पश्चिमी भू-भाग को सौराष्ट्र या काठियावाड़ नाम से पुकारा जाता है। प्राचीन साहित्य में इसे सुराष्ट्र कहा गया है।

    सौराष्ट्र का परिचय : सौराष्ट्र, वर्तमान काठियावाड़-प्रदेश, जो प्रायद्वीपीय क्षेत्र है। सौराष्ट्र का भू-भाग ज्यादातर दलदली और मरुस्थलीय है। महाभारत के समय द्वारिकापुरी इसी क्षेत्र में स्थित थी। सुराष्ट्र को सहदेव ने अपनी दिग्विजय यात्रा के प्रसंग में विजित किया था। विष्णु पुराण में अपरान्त के साथ सौराष्ट्र का उल्लेख है। इतिहास प्रसिद्ध सोमनाथ का मन्दिर सौराष्ट्र ही की विभूति था। रैवतकपर्वत गिरनार पर्वतमाला का ही एक भाग था। अशोक, रुद्रदामन तथा गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त के समय के महत्त्वपूर्ण अभिलेख जूनागढ़ के निकट एक चट्टान पर अंकित हैं, जिससे प्राचीन काल में इस प्रदेश के महत्त्व पर प्रकाश पड़ता है। रुद्रदामन के अभिलेख में सुराष्ट्र पर शक क्षत्रपों का प्रभुत्व बताया गया है। इस आधार पर कुछ इतिहासकारों ने सुराष्ट्र को शक-राष्ट्र भी कहा है। जान पड़ता है कि अलक्षेन्द्र के पंजाब पर आक्रमण के समय वहाँ निवास करने वाली जाति कठ/कठी जिसने यवन सम्राट के दाँत खट्टे कर दिए थे, कालान्तर में पंजाब छोड़कर दक्षिण की ओर आ गई और सौराष्ट्र में बस गई, जिससे इस देश का नाम काठियावाड़ भी हो गया। गुजरात के काठियावाड़ प्राय:द्वीप में भादर नदी के समीप स्थित रंगपुर की खुदाई 1953-1954 ई. में 'ए. रंगनाथ राव' द्वारा की गई। यहाँ पर पूर्व हड़प्पा कालीन संस्कृति के अवशेष मिले हैं। यहाँ मिले कच्ची ईटों के दुर्ग, नालियां, मृदभांड, बांट, पत्थर के फलक आदि महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ धान की भूसी के ढेर मिले हैं। यहाँ उत्तरोत्तर हड़प्पा संस्कृति के भी साक्ष्य पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं।
    Burdakji,

    If some conclusive evidence in the form of archaeological finds quoted by you from these places testifies the later day historians about their claim on that area as their earlier inhabitation.

    Are there still Jats residing or not ?

    Thanks and regards,
    History is best when created, better when re-constructed and worst when invented.

  8. The Following User Says Thank You to DrRajpalSingh For This Useful Post:

    rajpaldular (January 22nd, 2014)

  9. #5
    Rajpalji we will first dig the mythological layers then our history layers and in last the archaeological layers. Yes there are evidences in the form of archaeological finds which support our Mahabharata and other ancient literature accounts of ancient habitations in the area. For the present day Jats in Gujarat see -

    http://www.jatland.com/home/Gujarat#Jats_in_Gujarat

    Regards,
    Laxman Burdak

  10. The Following 2 Users Say Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    DrRajpalSingh (January 19th, 2014), rajpaldular (January 22nd, 2014)

  11. #6
    द्वारका का परिचय

    द्वारका भारत के पश्चिम में गुजरात राज्य के देवभूमि-द्वारका जिले में कच्छ की खाड़ी में स्थित है। द्वारका एक छोटा-सा-कस्बा है। कस्बे के एक हिस्से के चारों ओर चहारदीवारी खिंची है इसके भीतर ही सारे बड़े-बड़े मन्दिर है। आज से हजारों वर्ष पूर्व भगवान कॄष्ण ने इसे बसाया था। कृष्ण मथुरा में उत्पन्न हुए, गोकुल में पले, पर राज उन्होने द्वारका में ही किया। यहीं बैठकर उन्होने सारे देश की बागडोर अपने हाथ में संभाली। पांड़वों को सहारा दिया। धर्म की जीत कराई और, शिशुपाल और दुर्योधन जैसे अधर्मी राजाओं को मिटाया। द्वारका उस जमाने में राजधानी बन गई थीं। बड़े-बड़े राजा यहां आते थे और बहुत-से मामले में भगवान कृष्ण की सलाह लेते थे।

    द्वारका के प्राचीन नाम: द्वारका भारत के सबसे प्राचीन सात नगरों में से है. इसके विभिन्न नाम इस प्रकार हैं - द्वारावती, कुशस्थली, आनर्तक, ओखा-मण्डल, गोमती द्वारका, चक्रतीर्थ, अन्तर्द्वीप, वारिदुर्ग, उदधिमध्यस्थान

    वर्तमान द्वारका - गुजरात प्रान्त के पश्चिम किनारे सागर तट पर द्वारका स्थित है। ऐसा माना जाता है कि वर्तमान त्रैलोक्य सुन्दर जगत-मंदिर का पुनर्निर्माण लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व मुग़ल बादशाह अकबर के शासन काल (1593-1605) में किया गया। भगवान् श्री द्वारकाधीश जी की मूर्ती पश्चिमाभिमुख है। मंदिर के दो प्रवेश द्वार हैं - दक्षिण का प्रवेश द्वार गोमती घाट की तरफ से 56 सीढियाँ चढ़कर प्रवेश किया जाता है। उसे स्वर्ग द्वार कहते हैं और उत्तर का द्वार मोक्षद्वार नाम से जाना जाता है। पूर्व पश्चिम मंदिर की लम्बाई 27.4 मीटर और उत्तर दक्षिण लम्बाई 22 मीटर है। (पृ.20)

    त्रैलोक्य सुन्दर जगत-मंदिर - गोमती नदी के उत्तर समुद्र तल से फुट की ऊंचाई पर पश्चिमाभिमुख द्वारकाधीश जी का मंदिर है। इसका शिखर भूतल से 150 फुट ऊँचा है। वहाँ 52 गज (40 मीटर) की ध्वजा फहराती रहती है जो दिन में 4-5 बार बदली जाती है। इस मंदिर में मौर्य, गुप्त, गारुलक, चावड़ा व चालुक्य राजकलीन तथा जैन और बौद्ध धर्म के शिल्प का समन्वय दृष्टिगोचर होता है। (पृ.23)

    भगवान श्री कृष्ण के शासनकाल में द्वारका की शासन व्यवस्था को सुदृढ़ एवं सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिए भोज, वृष्णि, अंधक, सात्त्वक और दशार्ह कुलों में से तेरह-तेरह यादवों को उनकी योग्यता के अनुसार द्वारका का शासन सौंपा गया था। प्राचीन मान्यता के अनुसार सम्भव है कि भगवान् द्वारकाधीश के मंदिर पर चढ़ाई जान वाली ध्वजा उन बावन प्रकार के यादवों की स्मृति कराती हो। (पृ.30) ऐसा माना जाता है कि यह ध्वजा विश्व की सबसे बड़ी ध्वजा है। धार्मिक मान्यता के अनुसार मंदिर पर चढ़ाई जान वाली ध्वजा उस देवता का स्वरुप ही मानी जाती है। (पृ.31)

    सन्दर्भ - द्वारका के सम्बन्ध में विवरण पुस्तक - दिव्य द्वारका, प्रकाशक: दण्डी स्वामी श्री सदानन्द सरस्वती जी, सचिव श्रीद्वारकाधीश संस्कृत अकेडमी एण्ड इंडोलॉजिकल रिसर्च द्वारका गुजरात, से लिया गया है
    Laxman Burdak

  12. The Following User Says Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    rajpaldular (January 22nd, 2014)

  13. #7
    Quote Originally Posted by lrburdak View Post
    Rajpalji we will first dig the mythological layers then our history layers and in last the archaeological layers. Yes there are evidences in the form of archaeological finds which support our Mahabharata and other ancient literature accounts of ancient habitations in the area. For the present day Jats in Gujarat see -

    http://www.jatland.com/home/Gujarat#Jats_in_Gujarat

    Regards,
    Hope to share fascinating proof of ancient Jat abodes in Gujrat as revealed by archaeological finds !
    History is best when created, better when re-constructed and worst when invented.

  14. The Following User Says Thank You to DrRajpalSingh For This Useful Post:

    rajpaldular (January 22nd, 2014)

  15. #8
    कृष्ण द्वारा ज्ञाति-संघ का गठन

    कृष्ण द्वारा द्वारका में शासन करने के दौरान ज्ञाति-संघ का गठन किया गया था। ठाकुर देशराज (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृ.101, 109) एवं डॉ नत्थन सिंह ('जाट इतिहास', पृ. 41) लिखते हैं कि जाट शब्द की उत्पत्ति के विषय में, सर्वाधिक तर्क-संगत एवं भाषा विज्ञान शास्त्र के अनुरूप, उचित मत है कि जाट शब्द का निर्माण संस्कृत के 'ज्ञात' शब्द से हुआ है। अथवा यों कहिये कि यह 'ज्ञात' शब्द का अपभ्रंश है। महाभारत के शांति पर्व अध्याय 82 से सिद्ध होता है की श्रीकृष्ण ने अन्धक तथा वृष्णि जातियों का गण-संघ बनाया था। [1] ठाकुर देशराज (जाट इतिहास, पृ. 89.) लिखते हैं कि महाभारत काल में गण का प्रयोग संघ के रूप में किया गया है। बुद्ध के समय भारतवर्ष में 116 प्रजातंत्र थे। गणों के सम्बन्ध में महाभारत शांति पर्व के अध्याय 108 में विस्तार से दिया गया है। इसमें युधिष्ठिर भीष्म से पूछते हैं कि गणों के सम्बन्ध में आप मुझे यह बताने की कृपा करें कि वे किस तरह वर्धित होते हैं, किस प्रकार शत्रु की भेद-नीति से बचते हैं, शत्रुओं पर किस तरह विजय प्राप्त करते हैं, किस तरह मित्र बनाते हैं, किस तरह गुप्त मंत्रों को छुपाते हैं।

    महाभारत काल में भारत में अराजकता का व्यापक प्रभाव था। यह चर्म सीमा को लाँघ चुका था। मगध में अत्याचारी जरासंध का एकछत्र राज्य था। हस्तिनापुर में दुर्योधन पांडवों को नष्ट करने की कुटिल चाल चल रहा था। दक्षिण में चेदी नरेश शिशुपाल जरासंध का पुष्टि-पोषक था। मथुरा में कंस पिता को बंदी बनाकर यादवों को पीड़ित कर रहा था। बंगाल नरेश नरकासुर, कामरूप नरेश भगदत्त, उत्तरी आसाम का शासक बाणासुर आदि भी जरासंध की अधीनता में काम कर रहे थे। इस प्रकार उत्तरी भारत में साम्राज्यवादी शासकों ने प्रजा को असह्य विपदा में डाल रखा था। इस स्थिति को देखकर कृष्ण ने अग्रज बलराम की सहायता से कंस को समाप्त कर उग्रसेन को मथुरा का शासक नियुक्त किया। कृष्ण ने साम्राज्यवादी शासकों से संघर्ष करने हेतु एक संघ का निर्माण किया। उस समय यादवों के अनेक कुल थे किंतु सर्व प्रथम उन्होंने अन्धक और वृष्णि कुलों का ही संघ बनाया। संघ के सदस्य आपस में सम्बन्धी होते थे इसी कारण उस संघ का नाम 'ज्ञाति-संघ' रखा गया। [2][3] [4]


    यह 'ज्ञाति-संघ' व्यक्ति प्रधान नहीं था। इसमें शामिल होते ही किसी राजकुल का पूर्व नाम आदि सब समाप्त हो जाते थे। वह केवल ज्ञाति के नाम से ही जाने जाते थे। यह राजनैतिक संघ था जिसमें दो दल थे। एक के नेता श्री कृष्ण और दूसरे के उग्रसेन थे। श्री कृष्ण द्वारा स्थापित ज्ञाति-संघ समाजवादी सिद्धांतों के बलपर अपना प्रभाव बढाने लगा और शनै-शनै श्रीकृष्ण ने पीड़ित जनता की रक्षा की। अतएव इस संघ का क्षत्रियत्व स्वयंसिद्ध हो गया। तभी कल्पसूत्र नाम के जैन आगम में इस ज्ञाति-संघ को क्षत्रियों का प्रसिद्ध कुल घोषित कर दिया। [5] 'नायाणं खत्तियांण' यानी क्षत्रियों के प्रसिद्ध कुल के नाम से उत्तर भारत में इसकी प्रसिद्धि हो गई। आगे चलकर इसके अनेक ज्ञाति-संघ बन गए। कुछ ज्ञाति लोगों ने सम्राट या राजा की भी उपाधि धारण कर ली जो राजन्य कहलाये किन्तु प्रसिद्धी उनकी ज्ञातियों के नाम से रही। [6]

    सन्दर्भ

    1.↑ धन्यं यशस्यम आयुष्यं सवपक्षॊथ्भावनं शुभम । ज्ञातीनाम अविनाशः सयाथ यदा कृष्ण तदा कुरु ।। (XII.82.27); माधवाः कुकुरा भॊजाः सर्वे चान्धकवृष्णयः । तवय्य आसक्ता महाबाहॊ लॊका लॊकेश्वराश च ये ।।(XII.82.29)

    2.↑ Shanti Parva Mahabharata Book XII Chapter 82

    3.↑ ठाकुर गंगासिंह: "जाट शब्द का उदय कब और कैसे", जाट-वीर स्मारिका, ग्वालियर, 1992, पृ. 6

    4.↑ किशोरी लाल फौजदार: "महाभारत कालीन जाट वंश", जाट समाज, आगरा, जुलाई 1995, पृ 7

    5.↑ जैन धर्म की मासिक पत्रिका 'अनेकांत', माह जनवरी 1940 , पृ. 240

    6.↑ ठाकुर गंगासिंह: "जाट शब्द का उदय कब और कैसे", जाट-वीर स्मारिका, ग्वालियर, 1992, पृ. 6
    Laxman Burdak

  16. The Following User Says Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    rajpaldular (January 22nd, 2014)

  17. #9
    Quote Originally Posted by DrRajpalSingh View Post
    Burdakji,

    If some conclusive evidence in the form of archaeological finds quoted by you from these places testifies the later day historians about their claim on that area as their earlier inhabitation.

    Thanks and regards,
    Let us forget archaeological evidence for the time being ...Do you find this Jat identity evolving out of this Gyati Sangh theory at all convincing???

  18. The Following User Says Thank You to narenderkharb For This Useful Post:

    rajpaldular (January 22nd, 2014)

  19. #10
    ज्ञात से जाट शब्द का बनना

    प्राचीन ग्रंथो के अध्ययन से यह बात साफ हो जाती है कि परिस्थिति और भाषा के बदलते रूप के कारण 'ज्ञात' शब्द ने 'जाट' शब्द का रूप धारण कर लिया। महाभारत काल में शिक्षित लोगों की भाषा संस्कृत थी. इसी में साहित्य सर्जन होता था। कुछ समय पश्चात जब संस्कृत का स्थान प्राकृत भाषा ने ग्रहण कर लिया तब भाषा भेद के कारण 'ज्ञात' शब्द का उच्चारण 'जाट' हो गया। आज से दो हजार वर्ष पूर्व की प्राकृत भाषा की पुस्तकों में संस्कृत 'ज्ञ' का स्थान 'ज' एवं 'त' का स्थान 'ट' हुआ मिलता है. इसकी पुष्टि व्याकरण के पंडित बेचारदास जी ने भी की है। उन्होंने कई प्राचीन प्राकृत भाषा के व्यकरणों के आधार पर नवीन प्राकृत व्याकरण बनाया है जिसमे नियम लिखा है कि संस्कृत 'ज्ञ' का 'ज' प्राकृत में विकल्प से हो जाता है और इसी भांति 'त' के स्थान पर 'ट' हो जाता है। [7] इसके इस तथ्य की पुष्टि सम्राट अशोक के शिलालेखों से भी होती है जो उन्होंने 264-227 ई. पूर्व में धर्मलियों के रूप में स्तंभों पर खुदवाई थी। उसमें भी 'कृत' का 'कट' और 'मृत' का 'मट' हुआ मिलता है। अतः उपरोक्त प्रमाणों के आधार पर सिद्ध होता है कि 'जाट' शब्द संस्कृत के 'ज्ञात' शब्द का ही रूपांतर है. अतः जैसे ज्ञात शब्द संघ का बोध कराता है उसी प्रकार जाट शब्द भी संघ का वाचक है। [8]

    यह रूपांतर कब हुआ और 'जाट' शब्द कब अस्तित्व में आया। खेद का विषय है कि ब्राह्मण-श्रमण एवं बौध धर्म के संघर्ष में जाटों द्वारा ब्राह्मण धर्म का विरोध करने के कारण इसका इतिहास नष्ट हो गया। जहाँ-तहां इस इस इतिहास के कुछ संकेत मात्र शेष रह गए हैं। व्याकरण के विद्वान पाणिनि का जन्म ई. पूर्व आठवीं शताब्दी में प्राचीन गंधार राज्य के सालतुरा गाँव में हुआ था, जो इस समय अफगानिस्तान में है, उन्होंने अष्टाध्यायी व्याकरण में 'जट' धातु का प्रयोग कर 'जट झट संघाते' सूत्र बना दिया। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि जाट शब्द का निर्माण ईशा पूर्व आठवीं शदी में हो चुका था। पाणिनि रचित अष्टाध्यायी व्याकरण का अध्याय 3 पाद 3 सूत्र 19 देखें: 3. 3. 19 अकर्तरि च कारके संज्ञायां । अकर्तरि च कारके संज्ञायां से जट् धातु से संज्ञा में घ ञ् प्रत्यय होता है. जट् + घ ञ् और घ ञ प्रत्यय के 'घ्' और 'ञ्' की इति संज्ञा होकर लोप हो जाता है। 'अ' रह जाता है अर्थात जट् + अ ऐसा रूप होता है। फ़िर अष्टाध्यायी के अध्याय 7 पाद 2 सूत्र 116 - 7. 2. 116 अतः उपधायाः से उपधा अर्थात 'जट' में के 'ज' अक्षर के 'अ' के स्थान पर वृद्धि अथवा दीर्घ हो जाता है. जाट् + अ = जाट [9]

    सन्दर्भ -

    7. प्राकृत व्याकरण द्वारा बेचारदास, पृ. 41
    8. ठाकुर गंगासिंह: "जाट शब्द का उदय कब और कैसे", जाट-वीर स्मारिका, ग्वालियर, 1992, पृ. 7
    9. डॉ महेन्द्रसिंह आर्य, धर्मपाल डूडी, किसनसिंह फौजदार, डॉ विजेन्द्रसिंह नरवार:आधुनिक जाट इतिहास, 1998, पृ. 1
    Last edited by lrburdak; January 23rd, 2014 at 09:14 AM.
    Laxman Burdak

  20. The Following User Says Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    rajpaldular (January 23rd, 2014)

  21. #11
    Quote Originally Posted by lrburdak View Post
    ज्ञात से जाट शब्द का बनना

    प्राचीन ग्रंथो के अध्ययन से यह बात साफ हो जाती है कि परिस्थिति और भाषा के बदलते रूप के कारण 'ज्ञात' शब्द ने 'जाट' शब्द का रूप धारण कर लिया। महाभारत काल में शिक्षित लोगों की भाषा संस्कृत थी. इसी में साहित्य सर्जन होता था। कुछ समय पश्चात जब संस्कृत का स्थान प्राकृत भाषा ने ग्रहण कर लिया तब भाषा भेद के कारण 'ज्ञात' शब्द का उच्चारण 'जाट' हो गया। आज से दो हजार वर्ष पूर्व की प्राकृत भाषा की पुस्तकों में संस्कृत 'ज्ञ' का स्थान 'ज' एवं 'त' का स्थान 'ट' हुआ मिलता है. इसकी पुष्टि व्याकरण के पंडित बेचारदास जी ने भी की है। उन्होंने कई प्राचीन प्राकृत भाषा के व्यकरणों के आधार पर नवीन प्राकृत व्याकरण बनाया है जिसमे नियम लिखा है कि संस्कृत 'ज्ञ' का 'ज' प्राकृत में विकल्प से हो जाता है और इसी भांति 'त' के स्थान पर 'ट' हो जाता है। [7] इसके इस तथ्य की पुष्टि सम्राट अशोक के शिलालेखों से भी होती है जो उन्होंने 264-227 ई. पूर्व में धर्मलियों के रूप में स्तंभों पर खुदवाई थी। उसमें भी 'कृत' का 'कट' और 'मृत' का 'मट' हुआ मिलता है। अतः उपरोक्त प्रमाणों के आधार पर सिद्ध होता है कि 'जाट' शब्द संस्कृत के 'ज्ञात' शब्द का ही रूपांतर है. अतः जैसे ज्ञात शब्द संघ का बोध कराता है उसी प्रकार जाट शब्द भी संघ का वाचक है। [8]

    यह रूपांतर कब हुआ और 'जाट' शब्द कब अस्तित्व में आया। खेद का विषय है कि ब्राह्मण-श्रमण एवं बौध धर्म के संघर्ष में जाटों द्वारा ब्राह्मण धर्म का विरोध करने के कारण इसका इतिहास नष्ट हो गया। जहाँ-तहां इस इस इतिहास के कुछ संकेत मात्र शेष रह गए हैं। व्याकरण के विद्वान पाणिनि का जन्म ई. पूर्व आठवीं शताब्दी में प्राचीन गंधार राज्य के सालतुरा गाँव में हुआ था, जो इस समय अफगानिस्तान में है, उन्होंने अष्टाध्यायी व्याकरण में 'जट' धातु का प्रयोग कर 'जट झट संघाते' सूत्र बना दिया। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि जाट शब्द का निर्माण ईशा पूर्व आठवीं शदी में हो चुका था। पाणिनि रचित अष्टाध्यायी व्याकरण का अध्याय 3 पाद 3 सूत्र 19 देखें: 3. 3. 19 अकर्तरि च कारके संज्ञायां । अकर्तरि च कारके संज्ञायां से जट् धातु से संज्ञा में घ ञ् प्रत्यय होता है. जट् + घ ञ् और घ ञ प्रत्यय के 'घ्' और 'ञ्' की इति संज्ञा होकर लोप हो जाता है। 'अ' रह जाता है अर्थात जट् + अ ऐसा रूप होता है। फ़िर अष्टाध्यायी के अध्याय 7 पाद 2 सूत्र 116 - 7. 2. 116 अतः उपधायाः से उपधा अर्थात 'जट' में के 'ज' अक्षर के 'अ' के स्थान पर वृद्धि अथवा दीर्घ हो जाता है. जाट् + अ = जाट [9]

    सन्दर्भ -

    7. प्राकृत व्याकरण द्वारा बेचारदास, पृ. 41
    8. ठाकुर गंगासिंह: "जाट शब्द का उदय कब और कैसे", जाट-वीर स्मारिका, ग्वालियर, 1992, पृ. 7
    9. डॉ महेन्द्रसिंह आर्य, धर्मपाल डूडी, किसनसिंह फौजदार, डॉ विजेन्द्रसिंह नरवार:आधुनिक जाट इतिहास, 1998, पृ. 1
    Burdakji,

    Good discussion but a bit perplexing also. One fails to understand When Panini had established Jat earlier than Mbt composition period then how Jat became 'Gyat' and then later on again became Jat.

    Could you share this point in some more detail !

    Thanks and regards
    History is best when created, better when re-constructed and worst when invented.

  22. #12
    Panini was in 8th century BC and Krishna existed much earlier. One of date associated with Krishna is 3102 BC. As per Archaeological excavations Dwarka provides evidences of 1600 BC. It was Krishna who formed Gyati Sangha which was earlier than Panini. By the time of Panini Jat word existed. It does not disturb the chronology.
    Last edited by lrburdak; January 24th, 2014 at 09:30 AM.
    Laxman Burdak

  23. The Following User Says Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    DrRajpalSingh (January 24th, 2014)

  24. #13
    Quote Originally Posted by lrburdak View Post
    Panini was in 8th century and Krishna existed much earlier. One of date associated with Krishna is 3102 BC. As per Archaeological excavations Dwarka provides evidences of 1600 BC. It was Krishna who formed Gyati Sangha which was earlier than Panini. By the time of Panini Jat word existed. It does not disturb the chronology.
    Friend,

    Thanks for the information.

    It would be interesting to know which of the two books was authored earlier :

    Ashtaddhayi of Panini

    or

    present version of Mahabharata !

    Perhaps, reply to this question would help us in solving the puzzle of the origin of the word Jat !

    Regards
    History is best when created, better when re-constructed and worst when invented.

  25. #14
    जाट संघ में शामिल वंश

    श्री कृष्ण के वंश का नाम भी जाट था। कृष्ण के वंशज जो कृष्णिया या कासनिया कहलाते हैं वर्तमान में जाटों के एक गोत्र के रूप में मौजूद हैं। इस जाट संघ का समर्थन पांडव वंशीय सम्राट युधिस्ठिर तथा उनके भाइयों ने भी किया। आज की जाट जाति में पांडव वंश पाकिस्तान के पंजाब के शहर गुजरांवाला में पाया जाता है। गुजरांवाला से ही गूजर गोत्र का निकास हुआ और गूजर जाट गोत्र के रूप में राजस्थान के नागौर, बाड़मेर, पाली, जोधपुर आदि जिलों में आज भी पाए जाते हैं। राजस्थान के जयपुर जिले में पाण्डु जाट गोत्र आज भी रहते हैं। समकालीन राजवंश गांधार, यादव, सिंधु, नाग, लावा, कुशमा, बन्दर, नर्देय आदि वंश ने कृष्ण के प्रस्ताव को स्वीकार किया तथा जाट संघ में शामिल हो गए। गांधार गोत्र के जाट उत्तर प्रदेश में रघुनाथपुर जिला बदायूं, आगरा जिले के बिचपुरी, जउपुरा, लड़ामदा आदि गाँवों में, अलीगढ़ जिले में तथा मध्य प्रदेश के नीमच जिले में रहते हैं। यादव वंश के जाट क्षत्रिय धर्मपुर जिला बदायूं में अब भी हैं। सिंधु गोत्र तो प्रसिद्ध गोत्र है। इसी के नाम पर सिंधु नदी तथा प्रान्त का नाम सिंध पड़ा। पंजाब की कलसिया रियासत इसी गोत्र की थी। नाग गोत्र के जाट उत्तर प्रदेश में खुदागंज तथा रमपुरिया ग्राम जिला बदायूं में हैं। नागा जाट राजस्थान के नागौर, अलवर, सीकर, टोंक, जयपुर, उदयपुर, चित्तोड़ और जैसलमेर जिलों में तथा मध्य प्रदेश के खरगोन, इन्दोर और रतलाम जिलों में भी पाए जाते है। इसी प्रकार वानर/बन्दर गोत्र जिसके हनुमान थे वे पंजाब और हरयाणा के जाटों में पाये जाते हैं. नर्देय गोत्र भी कांट जिला मुरादाबाद के जाट क्षेत्र में है।[10]


    पुरातन काल में नाग क्षत्रिय समस्त भारत में शासक थे। नाग शासकों में सबसे महत्वपूर्ण और संघर्षमय इतिहास तक्षकों का और फ़िर शेषनागों का है। एक समय समस्त कश्मीर और पश्चिमी पंचनद नाग लोगों से आच्छादित था। इसमें कश्मीर के कर्कोटक और अनंत नागों का बड़ा दबदबा था। पंचनद (पंजाब) में तक्षक लोग अधिक प्रसिद्ध थे। कर्कोटक नागों का समूह विन्ध्य की और बढ़ गया और यहीं से सारे मध्य भारत में छा गया। यह स्मरणीय है कि मध्य भारत के समस्त नाग एक लंबे समय के पश्चात बौद्ध काल के अंत में पनपने वाले ब्रह्मण धर्म में दीक्षित हो गए। बाद में ये भारशिव और नए नागों के रूप में प्रकट हुए। इन्हीं लोगों के वंशज खैरागढ़, ग्वालियर आदि के नरेश थे। ये अब राजपूत और मराठे कहलाने लगे। तक्षक लोगों का समूह तीन चौथाई भाग से भी ज्यादा जाट संघ में शामिल हो गए थे। वे आज टोकस और तक्षक जाटों के रूप में जाने जाते हैं। शेष नाग वंश पूर्ण रूप से जाट संघ में शामिल हो गया जो आज शेषमा कहलाते हैं। वासुकि नाग भी मारवाड़ में पहुंचे। इनके अतिरिक्त नागों के कई वंश मारवाड़ में विद्यमान हैं। जो सब जाट जाति में शामिल हैं।[11] इससे स्वत: स्पस्ट है कि काफी संख्या में नागवंशी लोग जाट संघ में शामिल हुए।

    जाटसंघ में सामिल 3000 से अधिक गोत्रों की उत्पत्ति और विस्तार का विवरण जाटलैंड वेबसाइट (http://www.jatland.com/home/Gotras) पर उपलब्ध है। जाटसंघ में इतनी अधिक गोत्रों का समावेश इसकी प्राचीनता और प्राचीन काल में उपयोगिता को रेखांकित करता है। किसी भी मानवजातीय समूह में सम्मिलित सामाजिक समूहों की यह सर्वाधिक संख्या है।

    सन्दर्भ
    10. किशोरी लाल फौजदार: "महाभारत कालीन जाट वंश", जाट समाज, आगरा, जुलाई 1995, पृ 7
    11. किशोरी लाल फौजदार: "महाभारत कालीन जाट वंश", जाट समाज, आगरा, जुलाई 1995, पृ 8
    Laxman Burdak

  26. The Following User Says Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    DrRajpalSingh (January 24th, 2014)

  27. #15
    Quote Originally Posted by lrburdak View Post
    Panini was in 8th century BC and Krishna existed much earlier. One of date associated with Krishna is 3102 BC. As per Archaeological excavations Dwarka provides evidences of 1600 BC. It was Krishna who formed Gyati Sangha which was earlier than Panini. By the time of Panini Jat word existed. It does not disturb the chronology.
    Friend,

    To which timeline can we subscribe with authenticity of the historical facts: Krishana existed in 3102 BC or 1600 BC; and why !

    Thanks and regards
    History is best when created, better when re-constructed and worst when invented.

  28. #16
    Quote Originally Posted by lrburdak View Post
    जाट संघ में शामिल वंश

    श्री कृष्ण के वंश का नाम भी जाट था। कृष्ण के वंशज जो कृष्णिया या कासनिया कहलाते हैं वर्तमान में जाटों के एक गोत्र के रूप में मौजूद हैं। इस जाट संघ का समर्थन पांडव वंशीय सम्राट युधिस्ठिर तथा उनके भाइयों ने भी किया। आज की जाट जाति में पांडव वंश पाकिस्तान के पंजाब के शहर गुजरांवाला में पाया जाता है। गुजरांवाला से ही गूजर गोत्र का निकास हुआ और गूजर जाट गोत्र के रूप में राजस्थान के नागौर, बाड़मेर, पाली, जोधपुर आदि जिलों में आज भी पाए जाते हैं। राजस्थान के जयपुर जिले में पाण्डु जाट गोत्र आज भी रहते हैं। समकालीन राजवंश गांधार, यादव, सिंधु, नाग, लावा, कुशमा, बन्दर, नर्देय आदि वंश ने कृष्ण के प्रस्ताव को स्वीकार किया तथा जाट संघ में शामिल हो गए। गांधार गोत्र के जाट उत्तर प्रदेश में रघुनाथपुर जिला बदायूं, आगरा जिले के बिचपुरी, जउपुरा, लड़ामदा आदि गाँवों में, अलीगढ़ जिले में तथा मध्य प्रदेश के नीमच जिले में रहते हैं। यादव वंश के जाट क्षत्रिय धर्मपुर जिला बदायूं में अब भी हैं। सिंधु गोत्र तो प्रसिद्ध गोत्र है। इसी के नाम पर सिंधु नदी तथा प्रान्त का नाम सिंध पड़ा। पंजाब की कलसिया रियासत इसी गोत्र की थी। नाग गोत्र के जाट उत्तर प्रदेश में खुदागंज तथा रमपुरिया ग्राम जिला बदायूं में हैं। नागा जाट राजस्थान के नागौर, अलवर, सीकर, टोंक, जयपुर, उदयपुर, चित्तोड़ और जैसलमेर जिलों में तथा मध्य प्रदेश के खरगोन, इन्दोर और रतलाम जिलों में भी पाए जाते है। इसी प्रकार वानर/बन्दर गोत्र जिसके हनुमान थे वे पंजाब और हरयाणा के जाटों में पाये जाते हैं. नर्देय गोत्र भी कांट जिला मुरादाबाद के जाट क्षेत्र में है।[10]


    पुरातन काल में नाग क्षत्रिय समस्त भारत में शासक थे। नाग शासकों में सबसे महत्वपूर्ण और संघर्षमय इतिहास तक्षकों का और फ़िर शेषनागों का है। एक समय समस्त कश्मीर और पश्चिमी पंचनद नाग लोगों से आच्छादित था। इसमें कश्मीर के कर्कोटक और अनंत नागों का बड़ा दबदबा था। पंचनद (पंजाब) में तक्षक लोग अधिक प्रसिद्ध थे। कर्कोटक नागों का समूह विन्ध्य की और बढ़ गया और यहीं से सारे मध्य भारत में छा गया। यह स्मरणीय है कि मध्य भारत के समस्त नाग एक लंबे समय के पश्चात बौद्ध काल के अंत में पनपने वाले ब्रह्मण धर्म में दीक्षित हो गए। बाद में ये भारशिव और नए नागों के रूप में प्रकट हुए। इन्हीं लोगों के वंशज खैरागढ़, ग्वालियर आदि के नरेश थे। ये अब राजपूत और मराठे कहलाने लगे। तक्षक लोगों का समूह तीन चौथाई भाग से भी ज्यादा जाट संघ में शामिल हो गए थे। वे आज टोकस और तक्षक जाटों के रूप में जाने जाते हैं। शेष नाग वंश पूर्ण रूप से जाट संघ में शामिल हो गया जो आज शेषमा कहलाते हैं। वासुकि नाग भी मारवाड़ में पहुंचे। इनके अतिरिक्त नागों के कई वंश मारवाड़ में विद्यमान हैं। जो सब जाट जाति में शामिल हैं।[11] इससे स्वत: स्पस्ट है कि काफी संख्या में नागवंशी लोग जाट संघ में शामिल हुए।

    जाटसंघ में सामिल 3000 से अधिक गोत्रों की उत्पत्ति और विस्तार का विवरण जाटलैंड वेबसाइट (http://www.jatland.com/home/Gotras) पर उपलब्ध है। जाटसंघ में इतनी अधिक गोत्रों का समावेश इसकी प्राचीनता और प्राचीन काल में उपयोगिता को रेखांकित करता है। किसी भी मानवजातीय समूह में सम्मिलित सामाजिक समूहों की यह सर्वाधिक संख्या है।

    सन्दर्भ
    10. किशोरी लाल फौजदार: "महाभारत कालीन जाट वंश", जाट समाज, आगरा, जुलाई 1995, पृ 7
    11. किशोरी लाल फौजदार: "महाभारत कालीन जाट वंश", जाट समाज, आगरा, जुलाई 1995, पृ 8
    Friend,

    It would be good if you could share original sources quoted by Kishori Lal Faujdar in his book under reference, for, this would add more authenticity to what he has avered on the issue !

    As regards your own conclusion on the basis of Mahabharata references identified with present day Jat Gotras, good exercise to unearth lost identity but jumbled position in Indian social system casts a shadow of doubt to accept them exclusively for the contemporary Jats only as they are found in other castes too !

    This overlapping juxtaposition of the Gotras in various castes leads to some doubt to the authenticity of this attempt to link all Mahabharata mentioned clans solely to present day Jats.

    Overall a good attempt because this is the purpose of research to give some path breaking hypotheses which could lead to more research on the issue validating/invalidating these findings in future.

    Kindly keep it up, please.

    Thanks and regards,
    Last edited by DrRajpalSingh; January 24th, 2014 at 09:54 AM.
    History is best when created, better when re-constructed and worst when invented.

  29. #17
    जाट इतिहास में द्वारका

    जाट वीरों का इतिहास[12] के लेखक - कैप्टन दलीप सिंह अहलावत लिखते हैं कि श्रीकृष्ण जी ने बहुत सोच-विचार के बाद बृज को छोड़ दिया। वहां से जाकर काठियावाड़ में उन्होंने द्वारिका नगरी बसाई। बृज से उनके साथ समस्त वृष्णि, अन्धक, शूर और माधव लोग चले गए थे। वहां पर जाकर कृष्ण जी ने ज्ञाति-राज्य की स्थापना की। वे चाहते थे कि सारे देश में ज्ञाति-राष्ट्र स्थापित हो। यहां यह बता देना जरूरी है कि कि भारत उस समय अनेक कुल-राज्यों (कबीलों के राज्य) में बंटा हुआ था। केवल बृज ही जो कि चौरासी कोस में सीमित है, 9 नन्दवासियों के, 7 वृष्णि लोगों के, 2 शूरों के राज्य थे। इनके अतिरिक्त अन्धक, नव, कारपर्शव और वृष्णि भी इसी 84 कोस के भीतर राज्य करते थे। ये सब जाट थे। द्वारिका में जाति अथवा ज्ञाति-राज्य के आरम्भ में अन्धक और वृष्णि लोग शामिल हुए थे। ये दोनों ही कुल या कबीले थे। मालूम ऐसा होता है कि यादव जाति का प्रायः सारा ही समूह चाहे वे शूर, दशार्ण, भोज, कुन्तिभोज, काम्भोज कुछ भी कहलाते हों, जाति राष्ट्र के रूप में परिणत हो गया था। महाभारत के युद्ध में भी बहुत संख्या में यही लोग थे। द्वारिका के अतिरिक्त मध्यभारत, पंजाब और मगध में जाति-राष्ट्रों की स्थापना हो गई थी। महाभारत में मालवा के बिन्दु और अनुबिन्दु दो राजा शामिल हुए थे, जो जाति-राष्ट्र के ही प्रतिनिधि थे। इस तरह की ज्ञाति (संघ) सबसे अधिक 'वाहीक' देश (पंजाब, सिन्ध, गान्धार) में बनी थी। काशीप्रसाद जायसवाल ने 'वाहीक' को नदियों का प्रदेश माना है। जो प्रदेश हिमालय, गंगा, सरस्वती, यमुना और कुरुक्षेत्र सीमा से बाहर है, तथा जो सतलुज, व्यास, रावी, चिनाव, जेहलम और सिन्धु नदी के बीच स्थित है, उन्हें “वाहीक” कहते हैं। (महाभारत कर्ण पर्व 44 अध्याय, श्लोक 6-7)।

    महाभारत में शान्तनु के भाई वाल्हीक के देश को 'वाहीक' कहा है और वाल्हीक प्रतीक का पुत्र और शान्तनु का भाई बताया गया है। इससे साफ है कि पंजाब में अधिकांश संघ चन्द्रवंशी क्षत्रियों के थे। बिहार में अथवा नेपाल की तराई में शाक्य और बृजियों तथा लिच्छवि आदि के संघ थे। यहां पर एक ऐसे राज्यवंश का भी पता चलता है जो कि हमारे ज्ञात शब्द का समानवाची है जिसमें कि भगवान् महावीर पैदा हुए थे।

    ज्ञाति अथवा जाति-राष्ट्रों के सम्बन्ध में “भारत शासन पद्धति” के लेखक और पटना कालिज के प्रोफेसर पं० राधाकृष्ण झा ने इस प्रकार लिखा है - “बौद्धकाल के बाद जातीय राष्ट्रों का अन्त हो गया। एक जातीय राष्ट्र दूसरे से या तो मिल-जुल गया या आपस में लड़-झगड़ कर जातीय राष्ट्र को नष्ट कर दिया।”

    पुरुवंशी राजा वीरभद्र जाट राजा था जिसके शिविवंशी गण (संघ) शिव की जटा (शिवालक पहाड़ियों) में थे। इसकी राजधानी हरद्वार के निकट तलखापुर थी। शिवपुराण में लिखा है कि वीरभद्र की संतान से बड़े-बड़े जाट गोत्र प्रचलित हुए। वीरभद्र की वंशावली राणा धौलपुर जाट नरेश के राजवंश इतिहास से ली गई है जो निम्नलिखित हैं।
    राजा वीरभद्र के 5 पुत्र और 2 पौत्रों से चले जाटवंश[13]

    ययाति



    पुरु


    संयाति



    7 पीढ़ियां



    वीरभद्र



    (1) पौनभद्र, (2) कल्हनभद्र, (3) अतिसुरभद्र, (4) जखभद्र



    अंजना जटा शंकर



    (1) ब्रह्मभद्र, (2) दहीभद्र

    1.पौनभद्र के नाम से पौनिया (पूनिया) गोत्र चला। यह जाट गोत्र हरयाणा, राजस्थान, बृज, उत्तरप्रदेश, पंजाब तथा पाकिस्तान में फैला हुआ है।

    2.कल्हनभद्र के नाम से कल्हन जाट गोत्र प्रचलित हुआ। इस गोत्र के जाट काठियावाड़ एवं गुजरात में हैं।

    3.अतिसुरभद्र के नाम से अंजना जाट गोत्र प्रचलित हुआ। ये लोग मालवा, मेवाड़ और पाकिस्तान में हैं।

    4.जखभद्र के नाम से जाखड़ जाट गोत्र चला। ये लोग हरयाणा, राजस्थान, पंजाब, कश्मीर और पाकिस्तान में फैले हुए हैं।

    5.ब्रह्मभद्र के नाम से भिमरौलिया जाट गोत्र चला। जाट राणा धौलपुर इसी गोत्र के थे। धौलपुर की राजवंशावली में वीरभद्र से लेकर धौलपुर के नरेशों तक सब राजाओं के नाम लिखे हुए हैं। इस जाट गोत्र के लोग हरयाणा, हरद्वार क्षेत्र, पंजाब, जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान में हैं।

    6.दहीभद्र से दहिया जाट गोत्र प्रचलित हुआ। दहिया जाट हरयाणा, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, पंजाब तथा मध्य एशिया में फैले हुए हैं।

    ठाकुर देशराज[14] लिखते हैं कि जाखड़ गोत्र उन क्षत्रियों के एक दल के नाम पर प्रसिद्ध हुआ है, जो सूर्य-वंशी कहलाते थे। मि. डब्लयू. क्रुक ने-‘उत्तर-पश्चिमी प्रान्त और अवध की जातियां’ नामक पुस्तक में लिखा है कि “द्वारिका के राजा के पास एक बड़ा भारी धनुष और बाण था। उसने प्रतिज्ञा की थी कि इसे कोई तोड़ देगा, उसका दर्जा राजा से ऊंचा कर दिया जाएगा। जाखर ने इस भारी कार्य की चेष्टा की और असफल रहा। इसी लाज के कारण उसने अपनी मातृ-भूमि को छोड़ दिया और बीकानेर में आ बसा।” जाखर बीकानेर में कहां बसा इसका मता ‘जाट वर्ण मीमांसा’ के लेखक पंडित अमीचन्द शर्मा ने दिया है। जाखड़ ने रिडी को अपनी राजधानी बनाया। भाट के ग्रन्थों में लिखा है कि द्वारिका के राजा के परम रूपवती लड़की थी। उसने प्रतिज्ञा की थी कि जो कोई मनुष्य धनुष को तोड़ देगा, उसी के साथ में लड़की की शादी कर दी जाएगी। साथ ही उसे राजाओं से बड़ा पद दिया जाएगा। जाखड़ सफल न हुआ। जाखड़ एक नरेश था। इस कहानी से यह मालूम होता है कि जाखड़ लोगों का इससे भी पहले अजमेर प्रान्त पर राज्य था, यह भी भाट के ग्रन्थों से पता चलता है।

    ठाकुर देशराज के उपरोक्त विवरण से यह स्पस्ट होता है कि जाखड़ गोत्र के राजा द्वारका के आस-पास ही स्थित थे। एच. ए. रोस[15] ने जाखड़ का उल्लेख पाकिस्तान के सिंध प्रान्त के उमरकोट राज्य में किया है, जाम जाखड़ ने सुराड, सुभागो, सीलडो और चाचडिया गोत्र के लोगों को बुंगा राय राजा की दासता से मुक्त कराया था। जाम पदवी सिंध में चौधरी सरदार के प्रयोग की जाती है।

    राम सरूप जून[16] लिखते हैं कि भरतपुर राज्य के सिनसिनवार जाट शासकों के यदुवंशी पूर्वज द्वारका से आकर सिनसिनी (भरतपुर) में अपना राज्य स्थापित किया था।

    हुकुम सिंह पंवार[17] ने भरतपुर जाट शासकों की वंशावली दी है जो यदु से प्रारम्भ होकर वर्तमान शासक तक है इसमें अनुक्रमांक-1 पर यदु अनुक्रमांक-38 पर शिनि, अनुक्रमांक-43 पर कृष्ण निम्नानुसार हैं:

    34. अंधक → 35. भजमान → 36. विदूरथ → 37. शूर → 38. शिनि → 39. भोज → 40. → हर्दिक→ 41. देवमीढ→ 42. वासुदेव→ 43. कृष्ण → 44. प्रद्युम्न→ 45. अनिरुद्ध 46. वज्र → → → →

    131. बृजराज → 132. भाव सिंह → 133. बदन सिंह (1722 – 1756) → 134. महाराजा सूरज मल (13 फ़रवरी 1707 - 25 दिसंबर 1763) → 135. महाराजा जवाहर सिंह (1763-1768) → 136. महाराजा रतन सिंह (1768-1769) → 137. महाराजा केहरी सिंह (1769-1771) → 138. महाराजा रणजीत सिंह (1776 - 1805) → 139. महाराजा रणधीर सिंह (1805 - 1823) → 140. महाराजा बलदेव सिंह (1823 - 1825) → 141. महाराजा बलवंत सिंह (1820 - 1853) → 142. महाराजा जशवंत सिंह (1853-1893) → 143. महाराजा राम सिंह (1893 - 1900)→ 144. महाराजा किशन सिंह (1918 - 1929)→ 145. महाराजा विश्वेन्द्र सिंह

    द्वारका के समुद्र में डूब जाने और समस्त यादव कुलों के नष्ट हो जाने के बाद कृष्ण के प्रपौत्र वज्र अथवा वज्रनाभ् द्वारका के यदुवंश का अंतिम शासक था जो जीवित बचा था। द्वारका के समुद्र में डूबने पर अर्जुन द्वारका गए और वज्र तथा शेष बची यादव महिलाओं को हस्तिनापुर ले गए। कृष्ण के प्रपौत्र वज्र को हस्तिनापुर में मथुरा का राजा घोषित किया। पांडवों के हिमालय को प्रस्थान से पूर्व अर्जुन के पौत्र परीक्षित को इंद्रप्रस्थ का राजा नियुक्त किया। परीक्षित वज्र से मिलने के लिए मथुरा गए तथा मथुरा के पुनर्स्थापना में सहायता के लिए ऋषि शांडिल्य को भेजा।

    सन्दर्भ

    12. Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter II, pp.98-99

    13. जाट इतिहास पृ० 83 लेखक लेफ्टिनेंट रामसरूप जून

    14. जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृ.594-595

    15. A glossary of the Tribes and Castes of the Punjab and North-West Frontier Province By H.A. Rose Vol II/C, p.145

    16. History of the Jats/Chapter V,p.77,s.n.27

    17. The Jats:Their Origin, Antiquity and Migrations/Appendices/Appendix No.1
    Last edited by lrburdak; January 24th, 2014 at 08:24 PM.
    Laxman Burdak

  30. The Following User Says Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    DrRajpalSingh (January 25th, 2014)

  31. #18
    Quote Originally Posted by DrRajpalSingh View Post
    Burdakji,

    Good discussion but a bit perplexing also. One fails to understand When Panini had established Jat earlier than Mbt composition period then how Jat became 'Gyat' and then later on again became Jat.

    Could you share this point in some more detail !

    Thanks and regards
    Gyat of Mbh first becomes Jat than jatt in panini times than again jat in modern times.



    This entire theory is based on conjuctures and sermises that has little to do with facts.

    Fact of the matter is Jats are least clustered with Yadavs as compared to Gujjars and Rajputs with whom they share a majority of clans and inhabitation areas.

    Fallacy of this theory can come out if we share here primary sources for Gyati sangh references rather than sermises of our Jat historians.

  32. The Following User Says Thank You to narenderkharb For This Useful Post:

    DrRajpalSingh (January 25th, 2014)

  33. #19
    Quote Originally Posted by narenderkharb View Post
    Gyat of Mbh first becomes Jat than jatt in panini times than again jat in modern times.



    This entire theory is based on conjuctures and sermises that has little to do with facts.

    Fact of the matter is Jats are least clustered with Yadavs as compared to Gujjars and Rajputs with whom they share a majority of clans and inhabitation areas.

    Fallacy of this theory can come out if we share here primary sources for Gyati sangh references rather than sermises of our Jat historians.
    How the 'fallacy of this theory' could be brought out is the question !
    History is best when created, better when re-constructed and worst when invented.

  34. #20
    Mahabharata on Sanghas and Ganas

    We have page on Jatland the chapter which deals with Ganas and Sanghas. See
    [wiki]Shanti Parva Mahabharata Book XII Chapter 108[/wiki]

    "Yudhishthira said, 'Thou hast, O scorcher of foes, described the course of duties, the general conduct, the means of livelihood, with their results, of Brahmanas and Kshatriyas and Vaisyas and Sudras. Thou hast discoursed also on the duties of kings, the subject of their treasuries, the means of filling them, and the topic of conquest and victory. Thou hast spoken also of the characteristics of ministers, the measures, that lead to the advancement of the subjects, the characteristics of the sixfold limbs of a kingdom, the qualities of armies, the means of distinguishing the wicked, and the marks of those that are good, the attributes of those that are equal, those that are inferior, and those that are superior, the behaviour which a king desirous of advancement should adopt towards the masses, and the manner in which the weak should be protected and cherished. Thou hast discoursed on all these subjects, O Bharata, laying down instructions that are plain according to what has been inculcated hi sacred treatise. Thou hast spoken also of the behaviour that should be adopted by kings desirous of conquering their foes.

    About Ganas

    I desire now, O foremost of intelligent men, to listen to the behaviour that one should observe towards the multitude of courageous men that assemble round a king! Ganas

    I desire to hear how these may grow, how they may be attached to the king, O Bharata, how may they succeed in subjugating their foes and in acquiring friends.

    It seems to me that disunion alone can bring about their destruction. I think it is always difficult to keep counsels secret when many are concerned.

    I desire to hear all this in detail, O scorcher of foes! Tell me also, O king, the means by which they may be prevented from falling out with the king.'

    "Bhishma said, 'Between the aristocracy on the one side and the kings on the other, avarice and wrath, O monarch, are the causes that produce enmity. One of these parties (viz., the king,) yields to avarice. As a consequence, wrath takes possession of the other (the aristocracy). Each intent upon weakening and wasting the other, they both meet with destruction.

    By employing spies, contrivances of policy, and physical force, and adopting the arts of conciliation, gifts, and disunion and applying other methods for producing weakness, waste, and fear, the parties assail each other.

    The aristocracy of a kingdom, having the characteristics of a compact body, become dissociated from the king if the latter seeks to take too much from them. Dissociated from the king, all of them become dissatisfied, and acting from fear, side with the enemies of their ruler.

    If again the aristocracy of a kingdom be disunited amongst themselves, they meet with destruction. Disunited, they fall an easy prey to foes. The nobles, therefore, should always act in concert. If they be united together, they may earn acquisitions of value by means of their strength and prowess. Indeed, when they are thus united, many outsiders seek their alliance.

    Men of knowledge applaud those nobles that art united with one another in bonds of love. If united in purpose, all of them can be happy. They can (by their example) establish righteous courses of conduct. By behaving properly, they advance in prosperity.

    By restraining their sons and brothers and teaching them their duties, and by behaving kindly towards all persons whose pride has been quelled by knowledge, 1 the aristocracy advance in prosperity.

    By always attending to the duties of setting spies and devising means of policy, as also to the matter of filling their treasuries, the aristocracy, O thou of mighty arms, advance in prosperity.

    By showing proper reverence for them that are possessed of wisdom and courage and perseverance and that display steady prowess in all kinds of work, the aristocracy advance in prosperity. Possessed of wealth and resources, of knowledge of the scriptures and all arts and sciences, the aristocracy rescue the ignorant masses from every kind of distress and danger. Wrath (on the of part the king), rupture, terror, chastisement, persecution, oppression, and executions, O chief of the Bharatas, speedily cause the aristocracy to fall away from the king and side with the king's enemies.

    They, therefore, that are the leaders of the aristocracy should be honoured by the king. The affairs of the kingdom, O king, depend to a great extent upon them. Consultations should be held with only those that are the leaders of the aristocracy, and secret agents should be placed, O crusher of foes, with them only.

    The king should not, O Bharata, consult with every member of the aristocracy. The king, acting in concert with the leaders, should do what is for the good of the whole order.

    When, however, the aristocracy becomes separated and disunited and destitute of leaders, other courses of action should be followed.

    If the members of the aristocracy quarrel with one another and act, each according to his own resources, without combination, their prosperity dwindles away and diverse kinds of evil occur.

    Those amongst them that are possessed of learning and wisdom should tread down a dispute as soon as it happens. Indeed, if the seniors of a race look on with indifference, quarrels break out amongst the members.

    Such quarrels bring about the destruction of a race and produce disunion among the (entire order of the) nobles. Protect thyself, O king, from all fears that arise from within.

    Fears, however, that arise from outside are of little consequence. The first kind of fear, O king, may cut thy roots in a single day. Persons that are equal to one another in family and blood, influenced by wrath or folly or covetousness arising from their very natures, cease to speak with one another. This is an indication of defeat.

    It is not by courage, nor by intelligence, nor by beauty, nor by wealth, that enemies succeed in destroying the aristocracy. It is only by disunion and gifts that it can be reduced to subjugation. For this reason, combination has been said to be the great refuge of the aristocracy.'"

    1 [य]
    बराह्मणक्षत्रियविशां शूथ्राणां च परंतप
    धर्मॊ वृत्तं च वृत्तिश च वृत्त्युपायफलानि च
    2 राज्ञां वृत्तं च कॊशश च कॊशसंजननं महत
    अमात्यगुणवृथ्धिश च परकृतीनां च वर्धनम
    3 षाड्गुण्य गुणकल्पश च सेना नीतिस तदैव च
    थुष्टस्य च परिज्ञानम अथुष्टस्य च लक्षणम
    4 समहीनाधिकानां च यदावल लक्षणॊच्चयः
    मध्यमस्य च तुष्ट्यर्दं यदा सदेयं विवर्धता
    5 कषीणसंग्रह वृत्तिश च यदावत संप्रकीर्तिता
    लभुनाथेश रूपेण गरन्द यॊगेन भारत
    6 विजिगीषॊस तदा वृत्तम उक्तं चैव तदैव ते
    गणानां वृत्तिम इच्छामि शरॊतुं मतिमतां वर
    7 यदा गणाः परवर्धन्ते न भिथ्यन्ते च भारत
    अरीन हि विजिगीषन्ते सुहृथः पराप्नुवन्ति च
    8 भेथमूलॊ विनाशॊ हि गणानाम उपलभ्यते
    मन्त्रसंवरणं थुःखं बहूनाम इति मे मतिः
    9 एतथ इच्छाम्य अहं शरॊतुं निखिलेन परंतप
    यदा च ते न भिथ्येरंस तच च मे बरूहि पार्दिव
    10 [भ]
    गणानां च कुलानां च राज्ञां च भरतर्षभ
    वैरसंथीपनाव एतौ लॊभामर्षौ जनाधिप
    11 लॊभम एकॊ हि वृणुते ततॊ ऽमर्षम अनन्तरम
    तौ कषयव्यय संयुक्ताव अन्यॊन्यजनिताश्रयौ
    12 चारमन्त्रबलाथानैः सामथानविभेथनैः
    कषयव्यय भयॊपायैः कर्शयन्तीतरेतरम
    13 तत्र थानेन भिथ्यन्ते गणाः संघातवृत्तयः
    भिन्ना विमनसः सर्वे गच्छन्त्य अरिवशं भयात
    14 भेथाथ गणा विनश्यन्ति भिन्नाः सूपजपाः परैः
    तस्मात संघातयॊगेषु परयतेरन गणाः सथा
    15 अर्दा हय एवाधिगम्यन्ते संघातबलपौरुषात
    बाह्याश च मैत्रीं कुर्वन्ति तेषु संघातवृत्तिषु
    16 ज्ञान वृद्धान परशंसन्तः शुश्रूषन्तः परस्परम
    विनिवृत्ताभिसंधानाः सुखम एधन्ति सर्वशः
    17 धर्मिष्ठान वयवहारांश च सदापयन्तश च शास्त्रतः
    यदावत संप्रवर्तन्तॊ विवर्धन्ते गणॊत्तमाः
    18 पुत्रान भरातॄन निगृह्णन्तॊ विनये च सथा रताः
    विनीतांश च परगृह्णन्तॊ विवर्धन्ते गणॊत्तमाः
    19 चारमन्त्रविधानेषु कॊशसंनिचयेषु च
    नित्ययुक्ता महाबाहॊ वर्धन्ते सर्वतॊ गणाः
    20 पराज्ञाञ शूरान महेष्वासान कर्मसु सदिरपौरुषान
    मानयन्तः सथा युक्ता विवर्धन्ते गणा नृप
    21 थरव्यवन्तश च शूराश च शस्त्रज्ञाः शास्त्रपारगाः
    कृच्छ्रास्व आपत्सु संमूढान गणान उत्तारयन्ति ते
    22 करॊधॊ भेथॊ भयॊ थण्डः कर्शनं निग्रहॊ वधः
    नयन्त्य अरिवशं सथ्यॊ गणान भरतसत्तम
    23 तस्मान मानयितव्यास ते गणमुख्याः परधानतः
    लॊकयात्रा समायत्ता भूयसी तेषु पार्दिव
    24 मन्त्रगुप्तिः परधानेषु चारश चामित्रकर्शन
    न गणाः कृत्स्नशॊ मन्त्रं शरॊतुम अर्हन्ति भारत
    25 गणमुख्यैस तु संभूय कार्यं गणहितं मिदः
    पृदग गणस्य भिन्नस्य विमतस्य ततॊ ऽनयदा
    अर्दाः परत्यवसीथन्ति तदानर्दा भवन्ति च
    26 तेषाम अन्यॊन्यभिन्नानां सवशक्तिम अनुतिष्ठताम
    निग्रहः पण्डितैः कार्यः कषिप्रम एव परधानतः
    27 कुलेषु कलहा जाताः कुलवृथ्धैर उपेक्षिताः
    गॊत्रस्य राजन कुर्वन्ति गणसंभेथ कारिकाम
    28 आभ्यन्तरं भयं रक्ष्यं सुरक्ष्यं बाह्यतॊ भयम
    अभ्यन्तराथ भयं जातं सथ्यॊ मूलं निकृन्तति
    29 अकस्मात करॊधलॊभाथ वा मॊहाथ वापि सवभावजात
    अन्यॊन्यं नाभिभाषन्ते तत्पराभव लक्षणम
    30 जात्या च सथृशाः सर्वे कुलेन सथृशास तदा
    न तु शौर्येण बुथ्ध्या वा रूपथ्रव्येण वा पुनः
    31 भेथाच चैव परमाथाच च नाम्यन्ते रिपुभिर गणाः
    तस्मात संघातम एवाहुर गणानां शरणं महत
    Last edited by lrburdak; January 25th, 2014 at 09:44 AM.
    Laxman Burdak

Posting Permissions

  • You may not post new threads
  • You may not post replies
  • You may not post attachments
  • You may not edit your posts
  •