जब 18 साल का बंदा/बंदी वोट डाल के मनपसंद नेता चुन सकता है तो जीवनसाथी क्यों नहीं!
चुनावों का मौसम है तो सोचा इसपे लिखने का इससे अच्छा मौका और कौनसा होगा? तो ज्यादा भूमिका ना बांधता हुआ सीधा मुद्दे पे आता हूँ|
जो प्यार/पसंद और माँ-बाप की रजामंदी दोनों के मेल से हो, ऐसी शादी का मैं खुलकर समर्थक हूँ, लेकिन कई तथाकथित स्व्छन्द परन्तु तर्क-वितर्क से पैदल लोग जब हर ऐरे-गैरे प्यार को सही ठहराने को "जब 18 साल का बंदा/बंदी वोट डाल के मनपसंद नेता चुन सकता है तो जीवनसाथी क्यों नहीं|" जैसे बेतुके logic लगाते हैं तो वो उस वक्त यह क्यों भूल जाते हैं कि अबे नेता को सिर्फ पाँच साल झेलना होगा, जबकि प्यार वाली या वाले को तो उम्र भर झेलना है| तो उसको चुनना एक नेता चुनने जितना आसान कैसे हो सकता है?
बता कर लो बात, इतना भी भेजा नहीं कि पहली तो बात हम अपने जीवन में छत्तीस बार छत्तीसियों नेता चुनते हैं और दूसरी बात नेता बदलना वोटिंग मशीन का एक बटन मात्र दबाने जितना आसान काम है, जबकि जीवनसाथी, पहली तो बात कोई पांच साल में बदलने के लिए नहीं चुनता, चाहे भले ही बाद में निभे या ना निभे, परन्तु शुरू में तो यही तय करके चुनता है कि ताउम्र इसके साथ गुजारनी है|
और दूसरी बात ऐसे मूर्खों के logics से दुनिया चले तो हर पांच साल में लोकसभा इलेक्शन के साथ-साथ पति-पत्नी बदलो इलेक्शन भी होने शुरू हो जाएँ| धत: तेरी की यही advance thinking होती है क्या?
जनमानस का सियापा ही यही है, उनको क्षणिक विद्रोही अथवा क्रांतिकारी बनने जैसे ideas ही सबसे पहले strike करते हैं और ऐसे ideas को like करने वालों को देख ऐसे ideas देने वाले खुद को खुलेपन और मानवता के चक्षु समझने लगते हैं| जबकि ऐसे भोन्दू खुद नहीं जानते होते कि अबे तुम अंधों में काणे राजे से ज्यादा कुछ नहीं|
Phool Kumar Malik