जब तक मुंह ना लावें, ना लावें, लावें तो खींच लें खाल चर्म से:
चंगेजों की उड़ी धज्जियाँ, जब चली रणचंडी चढ़ के,
घोड़े की जब चापें पड़ें, धरती जाए दहल पल में|
सर्वखाप चले जब धुन में, दुश्मनों के कलेजे फड़कें,
दिल्ली-मुल्तान एक बना दें, मौत नाचती दिखे घन में||
जब प्रकोप जाटणी का झिड़के, दुश्मन पछाड़ मार छक जे,
पिंड छुड़ा दे दादीराणी से, अल्लाह रहम कर तेरे बन्दे ते|||
चालीस हजार की महिला आर्मी खड़ी कर दूँ क्षण में,
जहां बहेगा खून हमरे मर्दों का, हथेली ताक पे धर दें|
वो आगे-आगे बढ़ चलें, हम पीछे मलीया-मेट कर दें,
अकट नदी के कंटकों तक दुश्मन की रूह चली कतरते||
खापलैंड की सिंह जाटणी हूँ, तेरी नाकों चणे भर दूँ,
दुश्मन बहुत हुआ भाग ले, नहीं "के बणी" वाली कर दूँ|||
पच्चीस कोस तक लिए भगा के, दुश्मन के पसीने टपकें,
खुल्ला मैदान है तेरा भाग ले, विचार करियो ना मुड़ के|
पार कर गया तो पार उतर गया, वर्ना लूंगी साँटों के फटके,
चालीस हजार योद्ध्यायें नभ में, यूँ करें कोतूहल चढ़-चढ़ के||
सर्वखाप है यह हरयाणे की, बैरी नहीं लियो इसको हल्के-हल्के,
जब तक मुंह ना लावें, ना लावें, लावें तो खींच लें खाल चर्म से|||
प्राण उखड़ गए मामूर के, 36 धड़ी सिंहनी ने जब लियो आंट में धर के,
अढ़ाई घंटे तक दंगली मौत खिलाई, फिर फाड़ दिया छलनी करके|
ब्रह्मचारिणी दादीराणी क्या दुर्गा क्या काली, सब दिखी तुझमे मिलके,
दुश्मन भोचक्को रह गयो, ये क्या बला आई थी घुमड़ के||
हरियाणे की सिंहनी गर्जना से, मंगोलों के सीने यूँ थे चटके,
"फुल्ले भगत" पे मेहर हो माता, दूँ छंद तुझपे निराले घड़-घड़ के|||
A poem on 1355 AD conquest between army of Changez Khaan and Dadirani Bhagirathi Ji Maharani - Phool Kumar Malik