सन 1857 और हरियाणा-खाप की वीरांगनाएँ:
हे मेरी जाट-कौम! यह कविता पढ़ो और जानो दो बातें:
- कि क्यों फंडी और तथाकथित राष्ट्रवादी आप लोगों को आपका इतिहास भूल जाने को कहते हैं, ताकि आप इनसे यह ना पूछ लो कि आजतक हमारे गौरवशाली इतिहास को भारत की लाइब्रेरियों-पुस्तकों-प्रश्नों-फिल्मों-सीरियलों में यथायोग्य स्थान क्यों नहीं मिला? जो नहीं जानता वो जान ले कि फंडी को जो आप पैसा दान के रूप में देते हैं वो यह लोग मनमाने ढंग से आपका इतिहास लिखने और अपनी पसंद के किरदारों पर फ़िल्में-सीरियल बनाने में भेजते हैं| यानी पैसा आपका और आपकी ही कौम के इतिहास का कहीं गुणगान नहीं, बखान नहीं, सिवाय हमारी सर्वखाप के द्वारा यह गुणगान करने के| सर्वखाप ना होती तो जाटों का इतिहास ही लिखने और गाने वाला शायद कोई होता|
- ताकि जो इनकी मान तथाकथित क्षत्री बन, अपनी पत्नियों से शाक्के-जौहर-स्वग्निप्रवेश यानी औरतों को सतीत्व खोने का डर दिखा लड़ते हुए मरने की बजाय उनको मुफ्त में सती करवाते रहे, ऐसी मूर्खपूर्ण हरकतें इनकी ना खुल जाएँ|
देख लो फर्क इस कविता को पढ़ के, हमारे बुजुर्ग इन फंडी-पाखंडियों के फंडों-फंडों से दूर रहे, स्वछंद रहे तो हमारी औरतें भी ऐसी वीरताएँ दिखा पाई, वरना इनकी मानते तो व्यर्थ में बिना लड़े आग में झुकवा देनी थी इन्होनें हमारी औरतें भी|
और हाँ यह कविता उन भांड मीडिया वालों को भी पढ़ाना, जो यह भोंकते नहीं छकते कि जाट औरतों को अवसर-अधिकार-मान देना क्या जानें, औरत के जज्बे की कदर क्या जानें| और उन तथाकथित डेमोक्रेट्स को भी पढ़ाना जो पूछते रहते हैं कि जाटों और खापों का योगदान ही क्या था, तो यह तो उस योगदान का एक छोटा सा अंश है, सारी गाथा तो पूरा 1857 ही अपने में समेट लेगी|
अब प्रस्तुत है कविता:
सन 1857 और हरियाणा-खाप की वीरांगनाएँ:
एक कहानी अजब सुनो, सन अठारह सौ सत्तावन की,
एक लड़की देश-खाप में ब्याही, थी गठवाला बावन की|
नाम था ‘धर्मबीरी’, इसकी उम्र थी अठाईस साल भाई,
बड़ौत गारद के, अठारह गौरों की तेग से गर्दन उड़ाई|
चार घाव गोली के खाकर, फिर इसे मूर्छा आई थी,
देश-खाप दादा की हवेली में, तुरंत गई पहुंचाई थी|
एक कहानी बिजवाड़े रजवाड़े की बतलानी है,
बिजवाड़े की बहु, वीरों की क़ुरबानी लासानी है|
सिसौली की पुत्री थी, इसकी अजब कहानी है,
फ़ौज घुसी जब बिजवाड़े में, आगे आई यह मर्दानी है|
दोनों हाथ से तेग चलाई, कई गौरों ने मार्ग छोड़ दिया,
आखरी दम तक लड़ी गाँव में, अपना मोहरा तोड़ दिया|
पच्चीस पैदल - नौ सरदारों का थोड़े अरसे में काम तमाम किया,
जीते जी शत्रु को पीछे हटा, अपना ऊँचा नाम किया|
अमर हुई गई स्वर्गलोक यह बिजवाड़े की रानी थी,
जीते जी इसने गोरों की बोटी-बोटी छानी थी|
तीसरी कहानी शाहपुर बड़ौली में, एक देवी ने देशप्रेम दर्शाया था,
बड़ौत के मैदानों में, पैंसठ गोरों से लड़कर खूब दिखाया था|
सातों को नेजे से मारा, बाकी को तेग से घायल बनाया था,
मिला अमर पद इस 'ज्ञानो' को, नाम शहीदों में पाया था|
क्योंकि एक गोरे ने पीछे से, भाले का इसपर वार किया,
बाएं हाथ से भाला पकड़ा, दायें से गोरे का सर तार लिया|
धड़ाम से पड़ा वह धरती पर, उसके साथी घबराये,
दो सवार बढे आगे को, वे भी 'ज्ञानो' ने मार गिराये|
डेढ़ पहर तक लड़ी अकेली, खून से वस्त्र लाल हुए,
रेजा-रेजा कटा 'ज्ञानो' का सात गोली के वार कमाल हुए|
ऐसी-ऐसी अमर देवियों की, सच्ची अमर कहानी है,
देश-खाप की वीरांगनाओं का, महान जीवन लासानी है|
कविता लेखक: रामदत्त भाट
सौजन्य: सर्वखाप इतिहास, सौरम मुख्यालय
लेख लेखक: फूल कुमार मलिक