25 साल से चली आ रही ‘अजगर’ फूट का नतीजा है ‘संशोधित भूमि-अधिग्रहण अध्यादेश’ (अजगर की फूट पर पनपती राजनीति):
अपील: इस लेख को हर किसान के बालक (चाहे वो किसी भी जाति का हो) तक पहुंचाने हेतु ज्यादा से ज्यादा शेयर करें|
सचेत: 30 दिसंबर 2014 को आया "संशोधित भूमि-अधिग्रहण अध्यादेश" किसी और चीज का नहीं अपितु 1990 से निभाई जा रही अजगर यानी अहीर-जाट-गुज्जर-राजपूत की आपसी फूट रुपी रस्म का नतीजा है| छोटी किसान जातियों की उदासी के बांटे भी इसका थोड़ा हिस्सा आता है; परन्तु बड़ा व् सीधा-सीधा श्रेय तो अजगरों को ही जाता है|
उद्घोषणा: हालाँकि इस लेख को ‘अजगर’ को केंद्र में रखते हुए लिख रहा हूँ, परन्तु यह है हर किसान जाति के लिए| अजगर सिर्फ इसलिए चुना है क्योंकि यह किसान वर्ग की सबसे बड़ी जातियां हैं और इनकी आपसी फूट ही 30 दिसंबर 2014 की काली तारीख किसान कौम का काला अध्याय बनके उतरी है; काला भी इतना कि कोई दूसरा छोटूराम बन अवतारे तो ही इसको धो सके| यहां साथ ही यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि इस ‘अजगर’ फॉर्मूले में सिर्फ हिन्दू अजगर ही नहीं होते थे अपितु सिख और मुस्लिम अजगर भी होते थे, यानी सब धर्मों के अजगरों के साथ अन्य छोटी किसान जातियों का एकता सूत्र था यह|
भूमिका: इस 30 दिसंबर 2014 की काली तारीख की बिसात तो 1990 में तभी बिछ चुकी थी, जब 'अजगर' रुपी एकता को व्यापार और धर्मजगत की नजर लगी थी, और एक जाट और एक राजपूत इसकी भेंट चढ़ाये गए थे| उस दिन का रोपा हुआ बीज आज अंकुरित हुआ है| इस संशोधन से किसानों पर उसी जमाने के हालातों की पुनरावृति होने की पूरी-पूरी संभावना होगी, जिनसे कभी सर छोटूराम किसानों को मुर्गी जैसे अंडे सेती है ऐसे सेते हुए निकाल के लाये थे|
व्याख्या: 30 दिसंबर 2014 को सेंट्रल कैबिनेट से पास हो के आया "संशोधित भूमि-अधिग्रहण अध्यादेश " किसानी जातियों को यह समझाने के लिए काफी होना चाहिए कि उनके भाईचारे में समरसता और उनकी एकता कितनी अहम है| सर छोटूराम के जमाने में सार्वजनिक तौर पर बना चार प्रमुख व् बड़ी कृषक जातियों का संगठन ‘अजगर’ यानी अहीर-जाट-गुज्जर-राजपूत, चौधरी चरण सिंह से होता हुआ नीचे ग्राउंड पर बाबा महेंद्र सिंह टिकैत के हाथों संरक्षित व् राजनैतिक तौर पर वी. पी. सिंह और ताऊ देवीलाल के सानिध्य में फलता-फूलता हुआ सुरक्षित व् बुलंद अपनी पतवार खे रहा था| और इनको संगठित देख सरकारों, व्यापारियों और धर्माधीसों को अहसास रहता था कि आप किसान को पालने और चलाने वाले नहीं अपितु वो आपको पालने और चलाने वाले हैं| परन्तु व्यापार व् धर्मजगत अंदरखाते इस बात से बौखलाया हुआ था कि अभी लगभग एक दशक पहले बड़ी मुश्किल से तो चौधरी चरण सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी से हटाया था, अब फिर से यह किसानों की सरकार बन गई और वो भी एक नहीं दो-दो किसान जातियों के सर्वोच्च व्यक्ति सरकार के सर्वोच्च पदों पर आन बैठे| और तभी से इन दोनों के पद छीनने की साजिशें इन लोगों ने रचनी शुरू कर दी|
और इनकी एक साल की कोशिशों के बाद इस ‘अजगर’ में फूट पड़ी पूर्व प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह (एक राजपूत) और उनको प्रधानमंत्री बनाने वाले पूर्व उप-प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल (एक जाट) की वो तालमेल और भाईचारा कायम ना रखने की वजह से जो खुद प्रधानमंत्री बनने का मौका हाथ होते हुए भी ताऊ देवीलाल ने वी. पी. सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी दे, अपने लिए किंगमेकर की भूमिका चुन दिखाया था| इस वक्त तक इन दोनों दिग्गजों के रूप में सच्चे अर्थों में चौधरी छोटूराम और चौधरी चरण सिंह के उत्तराधिकारी नजर आये थे| निसंदेह इन्होनें अजगरों को एक मुठ्ठी में बंधे रहने का बड़ा नायाब उत्साह और जज्बा दिया था और सब कुछ सही चल रहा था|
लेकिन इनकी समरसता पर नजर गढ़ाए बैठे व्यापारिक और धार्मिक ताकतों को यह एकता रास नहीं आ रही थी| आज जो सत्तासीन हैं इनके घटकों ने इस समरसता को तोड़ने अथवा इसमें फुट डालने हेतु षड्यंत्र चलने शुरू किये| वी. पी. सिंह को यह कह के उकसाया जाता कि असली प्रधानमंत्री तो ताऊ है, आप तो सिर्फ नाम-मात्र हैं| सरकार को बने एक साल ही हुआ था कि वी. पी. सिंह और ताऊ देवीलाल में इतना तनाव पैदा कर दिया गया कि वी. पी. सिंह ने ताऊ देवीलाल को उप-प्रधानमंत्री पद से हटाने तक का मन बना लिया| सत्ता के गलियारों से होते हुए जब यह खबर ताऊ देवीलाल तक पहुंची तो वो बड़े आहत हुए| राष्ट्रीय ताऊ जी को लगने लगा कि जिस व्यक्ति को मैंने अपनी जगह बैठाया वही आदमी मेरे साथ ऐसा क्यों कर रहा है| ताऊ जी ने थोड़े दिन स्थिति को समझने में निकाले और इंतज़ार किया कि वी. पी. सिंह सही रास्ते पर लौट आएं परन्तु काल को तो जैसे कुछ और ही मंजूर था| वी. पी. सिंह वापिस नहीं लौटे अपितु उन्होंने ताऊ जी को उप-प्रधानमंत्री पद से हटाने के अपने निर्णय को और पक्का कर लिया|
यह सब देखकर ताऊ जी ने चौधरी चरण सिंह के जमाने से लम्बित पड़ी "मंडल कमीशन" की रिपोर्ट को लागू करने का मन बनाया| इससे ताऊ ने एक तीर से दो निशाने साधने थे, एक तो दलित आरक्षण को आगे चालू रखने के साथ-साथ अजगर व् अन्य ओबीसी जातियों को भी आरक्षण दिया जाना था और दूसरा वी. पी. सिंह पर इसके जरिये दबाव बनाकर सरकार में अपनी अहमियत बनाये रखना था|
तो इसके लिए ताऊ ने दिल्ली के बोट-क्लब में दो दिन बाद ही एक विशाल रैली रख मंडल कमीशन को लागू करने का प्लान बनाया| जिसकी भनक इन दोनों सिंहों की लड़ाई पर गिद्धों की तरह दृष्टि जमाये बैठे व्यापारिक राजनीतिज्ञों और धर्माधीसों को लगी| इससे इनके कान खड़े हो गए कि एक तो पहले से ही दलितों को आरक्षण चला आ रहा है और अब अगर यह दलितों के साथ-साथ अजगर और अन्य ओबीसी को भी मिल गया तो ताऊ के जड़ें अनंतकाल के लिए सत्ता पर जम जाएँगी| फिर आजीवन इनको दिल्ली से कोई नहीं हिला पायेगा| अत: उन्होंने सर छोटूराम के जमाने से चली आ रही अजगर एकता को तोड़ने की अपनी चाल का अगला मोहरा फेंका, जो कि अब तक सिर्फ वी. पी. सिंह और ताऊ में फूट डलवाने तक निहित थी|
उन्होंने रातों-रात वी. पी. सिंह को इस बारे भड़का के उकसाया कि दो दिन बाद ताऊ देवीलाल दिल्ली बोट-कलब पर रैली कर मंडल कमीशन को लागू करने की सिफारिस करने वाले हैं और अगर ऐसा हुआ तो ना सिर्फ ताऊ देवीलाल का कद और बढ़ेगा बल्कि आपकी प्रधानमंत्री की कुर्सी को भी खतरा हो सकता है| और यहीं वी. पी. सिंह समझने में चूक कर गए कि भला वो आदमी जिसने खुद उन्हें यह कुर्सी दे रखी थी वो उनकी ही कुर्सी क्यों छीनता| और कुर्सी छीनने जैसा कुछ था भी नहीं, यह तो ताऊ सिर्फ अपना खुद का राजनैतिक जीवन बचाने हेतु व् वी. पी. सिंह को भटकी सोच वाली राह से वापिस लाने हेतु कर रहे थे| वो ऐसा कर रहे थे यह इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि वी. पी. सिंह व्यापारिक व् धार्मिक ताकतों के बहकावे में आ ताऊ देवीलाल को पद से हटाने की बात ना करते तो, ताऊ इतना आगे तक सोचते ही नहीं|
खैर होनी होने को हुई और वही मंडल रिपोर्ट जो ताऊ दो दिन बाद लागू करने की सिफारिस करने वाले थे; व्यापारियों और धार्मिक ताकतों के बहकावे में आ वी. पी. सिंह ने रातों-रात लागू कर दी| यहां सनद रहे कि इस रिपोर्ट से जाट और राजपूत निकाल दिए गए थे|
वी. पी. सिंह की इस अकस्मात चाल से ताऊ देवीलाल भड़के और इस भड़क को व्यापारियों और धार्मिक ताकतों ने कैश कर लिया| उन्होंने ताऊ देवीलाल से घड़ियाली सहानुभूति जताते हुए और अपना समर्थन दिखाते हुए "मंडल कमीशन" का विरोध करने का कहा| और यहां वी. पी. सिंह की पहली गलती के बाद दूसरी गलती ताऊ देवीलाल कर बैठे, और उसी "मंडल कमीशन" का विरोध कर बैठे जिसको कि दो दिन बाद वो खुद लागू करने की सिफारिस करने वाले थे| और जाट और राजपूत के मंडल कमीशन के रिपोर्ट में रहने पर जो दंगे नहीं भड़कने थे या नामात्र भड़कने थे, वो ताऊ देवीलाल के इसके विरोध में आने से जाटलैंड (क्योंकि जाट-बहुल क्षेत्र में संदेश गया कि ताऊ इसके विरोध में हैं तो सारे जाट भी व्यापारिक व् धार्मिक ताकतों के साथ इसके विरोध में उतर आये) में ऐसे भड़के कि वी. पी. सिंह की कुर्सी की आहुति ले के माने|
अब इन दो दिग्गज सिंहों की लड़ाई के परिणाम यह हुए कि वी. पी. सिंह की प्रधानमंत्री की कुर्सी तो गई सो गई, साथ ही गुज्जर और अहीर ताऊ देवीलाल के विरोधी हो गए| क्योंकि अजगर समूह की यह दोनों जातियां इस आरक्षण के दायरे में आ गई थी, जिसका कि अब ताऊ देवीलाल विरोध कर रहे थे| और उधर धार्मिक ताकतों ने उन राजपूतों को जो इनसे 1947 में इनकी रियासतें छीनने से खफा चले आ रहे थे, उनको जाटों से छिंटक व् अपना पुराना प्रेम बरसा वापिस अपनी तरफ करने का मौका मिल गया| मुलायम-लालू-शरद यादव जो ताऊ के सानिध्य में राजनीति सीख रहे थे गैर-हरियाणवी अहीर लॉबी को ले भागे| दिल्ली से आगरा तक यमुना के दोनों ओर के गुज्जर अलग समूह बना गए, हरियाणा के अहीरों पर राव खानदानों ने कज्बा जमा लिया| हरियाणा में भजनलाल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गए| और ऐसे हुई चौधरी छोटूराम के जमाने से चली आ रही अजगर एकता की फाड़-फाड़|
लेकिन नहीं विधि ने शायद अजगर को इसकी इससे भी और बड़ी सजा देनी थी, इसलिए उसने 30 दिसंबर 2014 की तारीख जैसे पहले से ही मुक़्क़र्र कर रखी थी, कि एक राजपूत के गृह-मंत्री होते हुए और एक जाट के ग्रामीण विकास मंत्री होते हुए भी यह नया संसोधित अध्यादेश उनकी कैबिनेट में पास हो गया| भले ही इन दोनों नेताओं ने इस अध्यादेश में किसान के लिए कुछ बचा के रखवा छोड़ा हो, परन्तु जितना टूटा है उसका नुक्सान भरने को अजगरों को शायद एक-दो दशक तो कम-से-कम लगें|
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