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Thread: आज़ादी के बाद प्रथम "असहयोग आंदोलन" की घड़

  1. #1

    आज़ादी के बाद प्रथम "असहयोग आंदोलन" की घड़

    आज़ादी के बाद प्रथम "असहयोग आंदोलन" की घड़ी!:


    प्रस्तावना:
    1.नया संसोधित भूमि अधिग्रहण बिल/ऑर्डिनेंस: किसानों द्वारा व्यापारिक वर्गों से "सम्पूर्ण असहयोग आंदोलन” ही नए संसोधित भूमि अधिग्रहण बिल/ऑर्डिनेंस को वापिस करवाने का सबल रास्ता है| इस संकट की घड़ी में आप किसी प्रकार के अन्य वाद जैसे कि "धर्मवाद", "जातिवाद", "वंशवाद", "अपवाद" पर ध्यान मत दो, सिर्फ "बाजारवाद" और "किसानवाद" पर ध्यान दो|


    2.यूरिया के लिए किसान महिलाओं तक का, वो भी रातभर लाईन में खड़े होना पड़ना: क्या कोई व्यापारी या सरकार यह बताएगी कि अगर कल को किसान से फसल लेने के लिए, पहली तो बात मंडी की जगह उसके दरवाजे पे जाना पड़े, दूसरी बात दरवाजे पे भी ना जा के व्यापारी को कहा जाए कि जाओ थाने से गेहूं/चावल/सब्जी ले लो? क्या बता सकते हो कितने व्यापारी ख़ुशी-ख़ुशी थानों के आगे ऐसे ही लाइनें बना के अनाज/सब्जी लेने जा सकते हैं जैसे आज किसान तनाये (मजबूर) हुए हैं? क्या किसान अपराधी हैं या खेती करना इतना बड़ा अपराध हो गया है या फिर यूरिया नहीं यह कोई बम बनाने की सामग्री है, जिसकी पुलिस द्वारा जाँच-परख करके ही इसको किसानों को दिया जा रहा है?


    3. कहते हैं कि आज भारतियों द्वारा शुद्ध रूप से भारतियों की सरकार है; उसमें भी गहन उतर के देखें तो हिन्दुओं द्वारा शुद्ध रूप से हिन्दुओं की सरकार है, और किसानों में 90% से ज्यादा हिन्दू किसान ही बोले जाते है| यह भावनात्मक पहलु यहां मैं इसलिए प्रयोग कर रहा हूँ, इस शब्द की दुहाई इसलिए ले रहा हूँ ताकि हर इस-उस बहाने-मौके हिन्दू की बात करने वालों (सरकारी, गैर-सरकारी, धर्माधीस, व्यापारी या कोई भी) में शायद कोई सच्चा और समर्थ हिन्दू ही उठ के किसान के इस लहू चला देने वाले दर्द को मेट (मिटा) दे| वही हिन्दू जिसकी एकता और बराबरी के नारे के जरिये सरकारें बनती भी हैं और बिगड़ती भी| आज उन्हीं हिन्दू कहे जाने वाले हिन्दुओं की औरतें रातों को पुलिस थानों में सिर्फ यूरिया खाद लेने के लिए लाइनों में लगवाई जा रही हैं; है कोई हिन्दू इस जघन्य प्रताड़ना से अपनी नारियों को मुक्ति दिलाने वाला? सरकार से बाहर ना सही, कोई सरकार के अंदर ही हो?


    भूमिका: "असहयोग आंदोलन" शब्द फैशनेबल तो है ही बड़ा कारगर भी है| इसलिए इसके इतिहास, परिभाषा, महत्व और उपयोगिता पर फ़िलहाल ज्यादा ना जाते हुए, सीधा इसकी आज की किसान की समस्याओं के निबटारे हेतु कितनी सख्त जरूरत आन पड़ी है, उसपे आऊंगा| कई बंधुओं-दोस्तों-जानकारों से सुनने को मिल रहा है कि कुछ भी हो जाए वो संसोधित भूमि अधिग्रहण बिल/ऑर्डिनेंस को पास नहीं होने देंगे, फिर चाहे इसके लिए रोड जाम करने पड़ें, अथवा दिल्ली का दूध-पानी रोकना पड़े या अनंत धरने देने पड़ें| और कुछ ऐसा ही हालात हरियाणा में यूरिया खाद की किल्ल्त को ले के बने हुए हैं| सरकार से बाहर कोई राजनैतिक पार्टी, कोई सामाजिक संस्था अथवा एन. जी. ओ. सब चुप्पी साधे बैठे हैं|


    इन सबके बीच मुझे एक चीज नजर आई कि किसानों की मांगों, दुखों और आवाजों को सरकार तक पहुँचाने का सबसे सकारात्मक व् असरदार जरिया सड़कों पर उत्र कर विरोध करना रहेगा अथवा असहयोग आंदोलन के रास्ते चल के समाज-सरकार को चलाने में अपनी भूमिका दिखाना होगा| गहन मंथन से जो समझ आता है वो है, "किसानों द्वारा व्यापारिक वर्गों से सम्पूर्ण असहयोग आंदोलन|


    असहयोग आंदोलन ही सबसे कारगर हथियार क्यों?:
    जो भाई हिंसात्मक अथवा रोड-रेल या दिल्ली जाम करने के तरीकों से इस बिल को रोकने या मुड़वाने की अथवा किसानों की यूरिया की किल्ल्त मिटाने की सोचता हो वह यह जान ले कि जो सरकार 2013 के बिल को मोड़ के आर्डिनेंस के जरिये 1894 से भी कड़ा बिल लाने का हठ कर सकती है, उसको आप लोगों पर लाठियां-डंडे बरसाने में कितनी देर लगेगी और ऐसा करने में सरकार को कितनी हिचकिचाहट होगी? अवश्य ही इस सरकार को ना ही तो विदेशी शासक कह सकते और ना ही विदेशी आक्रांता, क्योंकि भारतियों द्वारा शुद्ध रूप से भारतियों की सरकार है| लेकिन वर्तमान में किसान के जो हालत हो चले हैं अथवा होते दिख रहे हैं इतिहास में इस सरकार की तुलना अंग्रेजों और मुग़लों के काल से पहले दूसरी सदी के पुष्यमित्र सुंग और सातवीं सदी के राजा दाहिर की विचारधारा वाले लोगों से करूँ तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी|
    ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस सरकार को वही "ढाक के तीन पात, चौथा होने को ना जाने को" वाली 1300 साल पुरानी परिपाटी पकड़ने में आज़ादी के बाद महज 70 साल भी नहीं लगे (और पूर्ण रूप से सत्ता प्राप्ति के हिसाब से कहूँ तो 7 महीने भी नहीं लगे)| पुष्यमित्र सुंग तो दूसरी सदी में हुए थे, इसलिए उनसे आगे वाले राजा दाहिर (661 AD से 712 AD) के काल को ठीक 1300 साल हुए हैं, इस बीच मुग़ल भी आये और अंग्रेज भी, लेकिन जैसे इन हमारे शुद्ध भारतीयता की टैग यानी खुद वालों ने इस गुलामी के काल से कुछ नहीं सीखा| ठीक वैसे ही जैसे दाहिर और पुष्यमित्र सुंग ने कुछ विशेष लोगों को खुश रखने/करने व् अपनी रक्त-पिपासा शांत करने हेतु अपने ही लोग मारे-काटे-सताए थे, उसी मूड में भारत देश की वर्तमान सरकार दिख रही है| मुझे कहने में बिलकुल हिचक नही हो रही कि 712 ईस्वी में राजा दाहिर का काल यह सरकार फिर से लाने पर आमादा हुई खड़ी है जिसको और कुछ ना मिले तो अपनी ही प्रजा पे जुल्मों का पहाड़ तोड़, उनके शरीर से खून निकालने में मजा आता दिख रहा है| और इसका अंदाजा आप इस बात से और भी अच्छे से लगा सकते हैं कि आते ही पहले आत्महत्या को अपराध बताने वाली धारा 309 को हटाया गया है|


    बुद्धजीवियों, विचारकों, संतों-महंतों से भरी इस सरकार में क्या कोई सरकार को सलाह देने वाला नहीं कि पुष्यमित्र सुंग और दाहिर के नक़्शे-कदम पर चलने से फिर से अराजकता, उत्पीड़न, गुलामी पाँव पसार लेगी, जिससे अशांति और आक्रोश पनपेगा? क्या सरकार को कोई यह आइना दिखाने वाला नहीं कि आज जिस जाति-पाति की पुरानी फूट का हवाला दे उसको हमारी सदियों पुरानी गुलामी का कारण बताते हो, उसी फूट और घृणा के बीज फिर से अंकुरित हो रहे हैं, अथवा आपके तौर-तरीके उसके अंकुरण का कारण बन रहे हैं; वही जो ऊपर कही थी कि, "वही ढाक के तीन पात, चौथा होने को न जाने को"। कहने को हर तरह की राष्ट्र की, धर्म तक की एकता और बराबरी का हवाला उठाते हो और फिर इतना बड़ा जुल्म भी करते हो कि "एक ही हांडी में दो पेट"? यानी कल को अगर प्रस्तावित अध्यादेश पास होता है तो एक वर्ग को तो इतनी छूट कि उसको दूसरे वर्ग की जमीन लेने हेतु उसकी इजाजत भी ना लेनी पड़े और उधर दूसरा वर्ग इतना लाचार बना दिया कि वो अपनी मन-मर्जी से अपनी जमीन को अपना कहने का अहसास सिर्फ इस डर से खो दे कि क्या पता कल कौन प्राइवेट स्कूल या हॉस्पिटल (सरकारी कार्यों, देश के व्यापक कार्यों के लिए तो सरकार खुद सौ बार जमीन ले परन्तु अब प्राइवेट भी; तो फिर इन प्राइवेटों और अंग्रेजों-मुग़लों वाले प्राइवेटों में फर्क क्या छोड़ा सरकार जी आपने?) तक खोलने वाला आन खड़ा हो कोर्ट का परचा हाथ में लिए| और उसका तो इस आर्डिनेंस के पास होने से इतना पक्का बंदोबस्त और बंध जायेगा कि न्यूनतम पांच साल तो कोर्टों में अपील भी नहीं डलेगी| क्या वाकई यही वो भारत था जिसमें आप जाति-पाँति मिटा "एकता और बराबरी" की बात करते आ रहे थे? क्या यह सीधा-सीधा भारतीय सविंधान के अनुसार विरुद्ध जा, उन करोड़ों लोगों के आत्मसम्मान-प्रतिष्ठा का सामूहिक बलात्कार नहीं, जिनको कि भारतीय संविधान बराबर के आत्म सम्मान और प्रतिष्ठा की बात कहता है?


    खैर आगे बढ़ता हूँ, धारा 309 के हटाये जाने और "संसोधित भूमि अधिग्रहण आर्डिनेंस" से इतना तो सबको समझ आ ही जाना चाहिए कि वर्तमान सरकार को इसकी जनता कितनी प्यारी है कि जिस जान-माल की रक्षा हेतु आप सरकार को चुना गया है, उसमें कोई आत्महत्या भी कर ले तो आप सरकार को जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ेगा? तो ऐसे में किसानों के लिए सोचने की बात है कि अगर आप लोग सड़कों पर उतरे तो आप लोगों पर पुलिस के डंडे खिलवाने से भी सरकार को कोई परहेज नहीं होगा, अपितु जिनको खुश करने हेतु यह सब किया जा रहा है उनको तो किसानों को पीटते देख घी और घलेगा|


    तो इन कारणों की वजह से मैं नहीं मानता कि यह सरकार धरने-प्रदर्शनों से किसी की सुनने वाली है| अपितु पहले से फसलों के कम दाम, यूरिया की कमी, महंगाई, बिजली-पानी की किल्ल्त से जूझते आप किसान लोगों पर इस तरह के धरने सिर्फ अतिरिक्त बोझ ही डालेंगे| इसलिए मेरे विचार से एक ऐसा रास्ता है जो ना सिर्फ आपका आर्थिक सहयोग भी करेगा अपितु इस सरकार को इस बिल को वापिस लेने में और यूरिया के नाम पर थानों में अपराधियों की तरह लाइन-हाजिर किये जा रहे किसानों की पीड़ा सुनाने में भी कारगर सिद्ध होगा और वह है, “किसानों द्वारा व्यापारिक वर्गों से "सम्पूर्ण असहयोग आंदोलन”|


    इससे आगे के भाग में तकनीकी तौर पर 4 बातें समझने की कोशिश की जाएगी; A पहली इस आंदोलन की परिभाषा, B दूसरी यह भूमि अधिग्रहण आर्डिनेंस/बिल का संसोधित रूप वापिस करवाना जरूरी क्यों है, C तीसरी इस आंदोलन की रूपरेखा, D चौथी इस आंदोलन को सफल बनाने हेतु किसान वर्गों का यूथ क्या करे|


    A इस असहयोग आंदोलन की परिभाषा: किसानों द्वारा व्यापारियों की दुकानों, फैक्टरियों से एक निर्धारित समय तक (जैसे कि एक महीने के लिए अथवा जब तक सरकार इस आर्डिनेंस को रद्द ना कर दे), कोई भी सामान खरीदने का बहिष्कार| कोई भी किसान का बेटा-बेटी इनसे ना कोई किरयाना का सामान खरीदे, ना कोई मशीनरी खरीदे, ना ज्वैलरी खरीदे और ना ही कपड़ा-लत्ता खरीदे| यह आंदोलन एक राज्य से शुरू करके पूरे देश में जितना हो सके उतना फैलाया जाए और तब तक चलाया जाए जब तक सरकार ना सिर्फ इस अध्यादेश को रद्द करे अपितु भविष्य में ऐसे दुःस्वप्न की ना सोचे| और किसानों को यूरिया लेते हुए किसी अपराधी की तरह थानों में लाइन-हाजिर ना होना पड़े|

    continue on post 2:.....
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  3. #2
    continue from post 1......

    B यह आर्डिनेंस/बिल वापिस करवाना जरूरी क्यों?


    1.यह भारतीय संविधान की उन तमाम धाराओं जैसे कि article 300a का उलंघन है जो देश के हर नागरिक को सम्पत्ति रखने का, उसको अपने मनमुताबिक बेचने-खरीदने का हक देती हैं (सिवाय सरकारी व् देश व्यापी कार्यों हेतु सिर्फ सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण करने के, वो भी 80% किसान की सहमति से)| अरे! माता-पिता तक को औलाद के बुरे चाल-चलन के कारण अपनी सम्पत्ति किसी के भी नाम करने का अधिकार कानून देता है तो सरकार प्राइवेटों के लिए इस अधिकार को करोड़ों किसानों से कैसे छीन सकती है? यह तो संविधान की मूल भावना के खिलाफ बात होगी| इसलिए इस अध्यादेश का विरोध करना यानी अपने संविधान की रक्षा करना|


    2. हमारा संविधान consumer protection act 1986 (हर किसान भारत देश/सरकार की जमीन का consumer है) and article 21 कहता है कि देश के हर नागरिक के आत्म-सम्मान, प्रतिष्ठा और गौरव की रक्षा करना हर चुनी हुई सरकार का पहला मूल कर्तव्य होगा| और धन-सम्पत्ति-जमीन-जायदाद हर इंसान के गौरव और प्रतिष्ठा का प्रतीक होता है| एक आदमी पूरी जिंदगी लगा देता है एक एकड़ जमीन घर में जोड़ने में और अगर उसी जमीन को कोई प्राइवेट वाला कोडियों के भाव ले जायेगा तो किसान के जीवन का फिर औचित्य ही क्या बचता है? उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता कहाँ बचती है?


    3. हमारा संविधान article 14 कहता है कि देश का हर नागरिक बराबर है, तो सरकार एक को तो सम्पत्ति पर से हटा रही है और दूसरे को पहले की मर्जी के बिना उसके खुद के प्राइवेट कारोबार तक के लिए जमीन देने को कह रही है? तो इसमें संविधान की आत्मा कहाँ रही? तो इन तीन बिन्दुओं में तो था कि कैसे यह अध्यादेश हमारे संविधान की मूलधारा का खंडन करता है| और इन वजहों से सुप्रीम कोर्ट तक में अपील भी डाली जा सकती है| बाकी कोई भी वकील अथवा कानूनज्ञाता भाई-बंधू-सर इन बिन्दुओं की व्यवहारिकता पर और प्रकाश डाल सकता है|


    4.इंफ्रास्ट्रक्चर-व्यापार और खेती एक कंप्यूटर के क्रमश: हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर हैं| यानी पहले वाला हार्ड बिज़नेस और दूसरे वाला सॉफ्ट बिज़नेस| हार्ड बिज़नेस यानी कंक्रीट-लोहे वगैरह के भवनों/फैक्टरियों में छत के नीचे होने वाले इंसान की सेकेंडरी जरूरते पूरी करने वाले कारोबार, जैसे कि इंफ्रास्ट्रक्चर-व्यापार| सॉफ्ट बिज़नेस यानी अनाज-दूध-दाल-कपास-गन्ना आदि से इंसान के सॉफ्ट पेट को भरने वाले, खुले आसमान वाली खेतों की फैक्ट्री में किसान द्वारा बनाये जाने वाले प्राइमरी प्रोडक्ट्स| काम दोनों ही डेवलपमेंट का करते हैं, एक प्राइमरी डेवलपमेंट यानी पेट की डेवलपमेंट, उस दिमाग की डेवलपमेंट जो सेकेंडरी जरूरतों हेतु सोचने बारे जरूरी दिमाग और शारीरिक ताकत देता है| तो अगर बात डेवलपमेंट और तरक्की की है तो यह बिना प्राइमरी प्रोडक्ट के सम्भव ही नहीं| और फिर हमारी सरकार की परिभाषा में "शुद्ध मेक इन इंडिया" तो यही प्राइमरी यानी खेती के प्रोडक्ट्स हैं| तो सरकार के "मेक इन इंडिया" में इनकी जगह कहाँ? किसानों के इस सॉफ्ट बिज़नेस को बचाने हेतु यह किसानों की जमीनों की उनकी मर्जी के बिना अधिग्रहण क्यों और कैसे जरूरी है?


    5. प्राइवेटों को विकास के नाम पर किसी की भी जमीन हड़पने के मार्ग खुलेंगे| किसी को भी किसी से थोड़ी सी खुन्नस हुई नहीं कि जा बैठेगा किसान की जमीन पे कुंडली मार के| इससे किसान को जिंदगी का हर पल सालता रहेगा कि वह किसी की रहमत का मोहताज है, एक स्वछंद व् स्वतंत्र नागरिक नहीं| और इससे सिवाय अराजकता फैलने के समाज में कुछ भला नहीं होगा| यह इस आर्डिनेंस की बिल की सूरत लेने में सबसे बड़ा असामाजिक व् अवांछित बिखराव समाज में डलेगा, जिससे अशांति, असंतुष्टि और कुंठा के अलावा समाज को कुछ नहीं मिलेगा|


    6.Maslow Theory of Need says that after Physiological needs, a person require social safety, love and belongingness. और किसी चीज पे अपनी मर्जी और सहमति होना ही अपनापन (बिलोंगिंगनेस) कहलाता है, लेकिन अगर किसान की यह बिलोंगिंगनेस ही छिन जाएगी तो वह खाली हाड-मॉस का मुर्दा पुतला शेष रह जायेगा| उसमें कोई इच्छा नहीं होगी, प्राण नहीं होंगे, वो सिर्फ एक गुलाम की जिंदगी जीने को विवश होगा, वैसा ही गुलाम जैसे पुष्यमित्र सुंग और दाहिर ने उनके ही धर्म के लोग उनके राज में बना दिए थे| और फिर उनको उनकी करतूतों की ऐसी हाय लगी कि देश को 1000 सालों तक गुलामी झेलनी पड़ी|


    7. शहरों में बसी किसान जातियों और व्यापारिक जातियों के बच्चों में सीधे और अंदरखाते दोनों तरह के मतभेद बढ़ेंगे| भले ही किसान वर्ग का कुछ नौकरीपेशा व् शिक्षित तबका शहर में बसे हों, परन्तु पीछे गाँवों में उनकी जमीन-जायदादें भी उनकी प्रतिष्ठा-गौरव का अभिन्न अंग होती हैं| तो इस ओड्रिनान्स के बिल के रूप में आने से आगे आने वाली पीढ़ियों में द्वेष इस कद्र फ़ैल जायेगा कि व्यापारिक जातियों के बच्चे शायद ही किसानी जातियों के बच्चों को अपने बराबर का दर्ज देवें| अपितु ऐसी कहावतें और ताने भी चलन में आ जायेंगे कि एक व्यापारी जाति का बच्चा एक किसान के बच्चे को "गुलाम", "बेगार", "लाचार" तक कहने से परहेज नहीं करेगा और इससे आये दिन झगड़े होंगे, मनमुटाव होंगे, समाज में बिखराव होंगे|


    इस तरह इस आर्डिनेंस के बिल बनने की सूरत में नागरिक के सवैंधानिक अधिकारों और सामाजिक अधिकारों व् सरोकारों पर हमला होने का खतरा है, जो कि अगर वास्तव में धरातल पर आया तो आने वाले समय बहुत ही भयावह संकट समाज के एक बना रहने के मार्ग में खड़ा कर देगा| इसलिए समाज को अराजकता, असमता, विषमता और टूटने से बचाना है तो इस आर्डिनेंस के विरोध हेतु यह असहयोग आंदोलन नितांत आवश्यक हो जाता है|


    C) आंदोलन की रूपरेखा: जैसा कि ऊपर परिभाषा में बताया कि यह आंदोलन कैसा होगा, अब उसको धरातल पे उतारने हेतु चर्चा करता हूँ| इस आंदोलन के मुख्य चार चरण हो सकते हैं|


    1.शहर में जा बसे किसान वर्ग को जगाना: शहरी किसनवर्ग को यह बताना कि आप आज भले ही सरकारी, गैर-सरकारी नौकरी अथवा अच्छे जीवनस्तर व् आजीविका हेतु शहर में आन बसे हों, परन्तु गाँवों-शहरों में खेती-लायक जमीनें आपकी भी हैं| आप उस जमीन की आमदनी लेते हैं और उसको अपनी प्रतिष्ठा का भी एक अभिन्न अंग मानते हैं, इसलिए अब आपको मुड़ गाँवों की ओर देखना होगा और अपने भाइयों के साथ मिलकर इस विपदा के समाधान हेतु काम करना होगा| क्या-कैसे करना होगा वो आगे के चरण में लिख रहा हूँ|


    2. साथ ही गाँव के किसान वर्गों को बताना होगा कि आप अपने शहरी भाइयों के साथ इस असहयोग आंदोलन में पूर्ण सहयोग देवें और उनका पूर्ण सहयोग लेवें|


    3. शुरू में एक महीने की मियाद पर यह असहयोग आंदोलन किया जा सकता है| एक महीने तक ना ही तो शहर की और ना ही गाँव की कोई भी किसान औलाद किसी भी पारम्परिक व्यापारी की दुकान/शोरूम/मॉल से इस आंदोलन की परिभाषा के अनुसार किसी भी तरह का सामान ना खरीदे|


    शहरी किसान दूध-सब्जी सीधी अपने किसान भाइयों के खेतों से लावें, या उनसे ही लेवें| यहां तक कि आटा तक पिसवाने हेतु किसी पारम्परिक व्यापारी की आटा-चक्की वाले के यहां ना जावें, या तो घर पे पीस लेवें अन्यथा पीछे अपने गाँव से पिसवा लावें| गाँव वाले भी इस आंदोलन को कमाई का जरिया ना बनने देवें, यानी यह ना सोचें कि आपके ही शहरी भाई आपके पास यह सामान लेने आ रहे हैं तो उनकी कोई मजबूरी है इसलिए तुम उस मजबूरी का फायदा उठाओ और मनमाफिक दाम वसूलो| नहीं बिलकुल नहीं, इस सूरत से बचने हेतु, दोनों तरफ यह बात स्पष्ट रहे कि शहरी और ग्रामीण किसान वर्ग ऐसा सिर्फ व्यापारी और सरकार को दो बातें बताने हेतु कर रहे हैं| एक तो यह कि आप उनपे निर्भर नहीं अपितु वो आप पर निर्भर हैं| और देश के विकास हेतु सिर्फ व्यापारी ही योगदान नहीं देता आप उनसे भी बड़ा योगदान देते हैं| दूसरा जब इस आंदोलन से व्यापारियों की दुकानों पे ग्राहक ही नहीं जायेंगे, यहां तक कि उनकी रसोइयों में दूध-सब्जी तक की किल्ल्त हो जाएगी तो सम्भव है कि वो भी सरकार को यह भूमि अधिग्रहण अध्यादेश वापिस करने हेतु, आपके साथ आंदोलन में उत्र आएं| और फिर इस सबका का मिलकर सरकार पर जो प्रभाव पड़ेगा तो सरकार भागकर इस अध्यादेश को वापिस लेगी|


    4. आंदोलन की पहली मूल भावना असहयोग है, किसी से हिंसा अथवा मार पीट नहीं| दूसरी मूलभावना है किसान जातियों का वो समय-पैसा-शारीरिक ऊर्जा व् ऐसी परिस्थितयां बनने से बचाना जो कि किसानों के सड़कों पे उतर जाम लगाने अथवा दिल्ली का दूध-पानी रोकने जैसे तरीकों से आपको सरकार के गुस्से पर ला खड़ा कर सकती हों| सुनता हूँ कि यह व्यापारियों की सरकार है, तो इसको सिर्फ इसी तकनीकी व् व्यापारिक असहयोग के जरिये से ज्यादा आसानी व् कम कीमत में मनाया अथवा झुकाया जा सकता है|


    यह सिर्फ इस आंदोलन की मोटी-मोटी रूपरेखा है, कोई किसान समूह, नेता या चिंतक इस आईडिया को पसंद करे और चाहे कि इसको क्रियान्वयन रूप में जमीन पे उतारा जा सकता है तो उसके लिए इसके और अंदर के गूढ़ व् सफलता के रहस्यों को आपसे साझा करने में मुझे हार्दिक हर्ष होगा|


    D चौथी इस आंदोलन को सफल बनाने हेतु किसान वर्गों का यूथ (youth) क्या करे:



    1. तमाम किसान वर्ग का जितना भी यूथ सोशल मीडिया पर बैठा है वो इस लेख को जितना हो सके उतना साझा करे, इतना साझा करे कि किसानों के नेताओं, समूहों व् चिंतकों तक यह पहुँच जाए|


    2. जितना हो सके उतना यूथ इस आंदोलन की व्यवहारिकता पर चर्चा करे, मनन करे व् अपने मनन को साझा करे| ऐसा नहीं है कि इस रूपरेखा में खामियां नहीं हो सकती, इसलिए उन हो सकने वाली खामियों बारे आपस में इन पर चर्चा करे|


    3. अगर हम लोगों ने इसको सोशल मीडिया का भी आंदोलन बना दिया तो मेरा विश्वास है कि हमारा चर्चा हर वो स्तर व् स्टेज तक जा सकता है जिसकी कि हम शायद कल्पना भी नहीं कर सकते|


    4. इन बातों को गाँव-गाँव, शहर-शहर हर गली-मुहल्ले-चौपाल तक की चर्चाओं में पहुंचाने का कार्य आप कर सकते हैं, जहाँ कि आंदोलन की मूल बसती है|


    पता नहीं क्यों परन्तु इस लेख का अंत करते वक्त यह पंक्तियाँ अंतर्मन में कोंध रही हैं: “तैने शेर-बघेरे देखे होंगे री, हम धरती के लाल सां!”


    हरियाणा यौद्धेय उद्घोषम, मोर पताका: सुशोभम्!


    दादा नगर खेड़ाय नम:

    Author: Phool Malik


    Primary Source with references: http://www.nidanaheights.com/choupalhn-asahyog-andolan.html
    Last edited by phoolkumar; January 19th, 2015 at 07:59 AM.
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    spdeshwal (March 20th, 2015)

  5. #3
    23-24 फरवरी को दिल्ली जंतर मंतर पर भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में होने वाले प्रदर्शन व् इससे अन्ना जी के जुड़ने के मद्देनजर, इसी मुद्दे पर मेरे 1 महीने पुराने लेख को, कुछ संशोधनों के साथ फिर से आपके सन्मुख ला रहा हूँ| आपमें से जो भी इस मुद्दे से जुड़ा हुआ अथवा प्रभावित है, मुझे आशा है उसके लिए यह आर्टिकल पढ़ना बहुत उपयोगी होगा|
    आर्टिकल का टाइटल है:

    आज़ादी के बाद प्रथम "असहयोग आंदोलन" की घड़ी!

    संक्षेप: 28 दिसंबर 2014 को भारत की केंद्र सरकार द्वारा आनन-फानन में लाये गए ‘संसोधित भूमि-अधिग्रहण आर्डिनेंस’ के आगे के विकल्प और असरदार व् सार्थक कदम बारे, किसानों द्वारा व्यापारिक वर्गों से "सम्पूर्ण असहयोग आंदोलन” ही नए संसोधित भूमि अधिग्रहण बिल/ऑर्डिनेंस को वापिस करवाने का सबल रास्ता है| इस संकट की घड़ी में किसान व् किसान की युवा संतानों को किसी अन्य प्रकार के वाद जैसे कि "धर्मवाद", "जातिवाद", "वंशवाद", "अपवाद" पर ध्यान देने की बजाय, सिर्फ "बाजारवाद" और "किसानवाद" पर ध्यान देना चाहिए|
    विस्तार से पूरा आर्टिकल पढ़ने हेतु इस लिंक पर क्लिक करें:
    http://www.nidanaheights.com/choupalhn-asahyog-andolan.html
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  6. #4
    "किसानों को आज़ाद कराएं, मस्ती में हम मस्ताने"


    (लैंड-बिल 2015 यानी गुलाम किसान)


    सर पे कफ़न बाँध कैं आये, हम आज़ादी के दीवाने,
    किसानों को आज़ाद कराएं, मस्ती में हम मस्ताने|



    इंकलाब और जिंदाबाद का, मिलकेँ लगा रहे नारा,
    हे भगवान कौण दिन होगा, जब हो राज-काज म्हारा|
    जमीं हो अपणी, आसमान पर चमकै किसानों का तारा,
    मेळे लगें चिताओं पै म्हारी, हँसता रहै किसान सारा||
    मुर्दाबाद जुल्म हो थारा, यें डह ज्यांगे चौकी-थाणे|
    किसानों को आज़ाद कराएं, मस्ती में हम मस्ताने|


    सर देणे की हमें तमन्ना, देखेंगें महाघोर तेरा,
    वक्त आणे दे, गूँज उठैगा, पाप रूप का शोर तेरा|
    चेहरे पै काळस पुत री है, खुद है मन म चोर तेरा,
    चढ़-चढ़ कैं कितने गिरगे, के सदा रहगा जोर तेरा||
    रळै रेत म्ह बोर तेरा, यें शमा पै जळ ज्याँ परवाने|
    किसानों को आज़ाद कराएं, मस्ती में हम मस्ताने|


    वतन की इज्जत ऊंचीं हो हम इसकी आस करणीया हैं,
    मंडी-फंडी हुकूमत की जड़ पाडेँ, दाहूँ नाश करणीया हैं|
    किसान-कौम की आज़ादी की, हम दरखास करणीया हैं,
    जीणे से ज्यादा मरणे का, हम अभ्यास करणीया हैं|
    धरती-माँ के लाल हमें हैं, अपने फर्ज पुगाणे|

    किसानों को आज़ाद कराएं, मस्ती में हम मस्ताने|

    झूंम-झूंम कैं गाण लगे अब, नहीं हमें गुलाम करो,
    नहीं किसान झुकै कभी भी, चाहे तुम कितणा त्रास करो|
    न्यूं ही किसान चलता जावैगा, जुल्म को जालिम ख़ास करो,
    'फुल्ले-भगत' टिल्ले म जा कैं, खूब जोर से अभ्यास करो||
    फांसी द्यो या जन्म-कैद, लिए पहर केसरी अब बाणे|
    किसानों को आज़ाद कराएं, मस्ती में हम मस्ताने|


    सर पे कफ़न बाँध कैं आये, हम आज़ादी के दीवाने,
    किसानों को आज़ाद कराएं, मस्ती में हम मस्ताने|


    Author: Phool Kumar Malik


    ‪#‎jaikisaan‬ ‪#‎mannkibaat‬ ‪#‎reservation‬ ‪#‎castereservation‬ ‪#‎jatreservation‬ ‪#‎jatarkshan‬
    One who doesn't know own roots and culture, their social identity is like a letter without address and they are culturally slave to philosophies of others.

    Reunion of Haryana state of pre-1857 is the best way possible to get Jats united.

    Phool Kumar Malik - Gathwala Khap - Nidana Heights

  7. The Following 2 Users Say Thank You to phoolkumar For This Useful Post:

    hemanthooda (March 23rd, 2015), spdeshwal (March 20th, 2015)

  8. #5
    Quote Originally Posted by phoolkumar View Post
    "किसानों को आज़ाद कराएं, मस्ती में हम मस्ताने"


    (लैंड-बिल 2015 यानी गुलाम किसान)


    सर पे कफ़न बाँध कैं आये, हम आज़ादी के दीवाने,
    किसानों को आज़ाद कराएं, मस्ती में हम मस्ताने|



    इंकलाब और जिंदाबाद का, मिलकेँ लगा रहे नारा,
    हे भगवान कौण दिन होगा, जब हो राज-काज म्हारा|
    जमीं हो अपणी, आसमान पर चमकै किसानों का तारा,
    मेळे लगें चिताओं पै म्हारी, हँसता रहै किसान सारा||
    मुर्दाबाद जुल्म हो थारा, यें डह ज्यांगे चौकी-थाणे|
    किसानों को आज़ाद कराएं, मस्ती में हम मस्ताने|


    सर देणे की हमें तमन्ना, देखेंगें महाघोर तेरा,
    वक्त आणे दे, गूँज उठैगा, पाप रूप का शोर तेरा|
    चेहरे पै काळस पुत री है, खुद है मन म चोर तेरा,
    चढ़-चढ़ कैं कितने गिरगे, के सदा रहगा जोर तेरा||
    रळै रेत म्ह बोर तेरा, यें शमा पै जळ ज्याँ परवाने|
    किसानों को आज़ाद कराएं, मस्ती में हम मस्ताने|


    वतन की इज्जत ऊंचीं हो हम इसकी आस करणीया हैं,
    मंडी-फंडी हुकूमत की जड़ पाडेँ, दाहूँ नाश करणीया हैं|
    किसान-कौम की आज़ादी की, हम दरखास करणीया हैं,
    जीणे से ज्यादा मरणे का, हम अभ्यास करणीया हैं|
    धरती-माँ के लाल हमें हैं, अपने फर्ज पुगाणे|

    किसानों को आज़ाद कराएं, मस्ती में हम मस्ताने|

    झूंम-झूंम कैं गाण लगे अब, नहीं हमें गुलाम करो,
    नहीं किसान झुकै कभी भी, चाहे तुम कितणा त्रास करो|
    न्यूं ही किसान चलता जावैगा, जुल्म को जालिम ख़ास करो,
    'फुल्ले-भगत' टिल्ले म जा कैं, खूब जोर से अभ्यास करो||
    फांसी द्यो या जन्म-कैद, लिए पहर केसरी अब बाणे|
    किसानों को आज़ाद कराएं, मस्ती में हम मस्ताने|


    सर पे कफ़न बाँध कैं आये, हम आज़ादी के दीवाने,
    किसानों को आज़ाद कराएं, मस्ती में हम मस्ताने|


    Author: Phool Kumar Malik


    ‪#‎jaikisaan‬ ‪#‎mannkibaat‬ ‪#‎reservation‬ ‪#‎castereservation‬ ‪#‎jatreservation‬ ‪#‎jatarkshan‬
    Bhut khoob phool bhai! Krantikari vichar, kavita ki ladiyon mein piroye hein aap ne!

    Cheers!

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