आज़ादी के बाद प्रथम "असहयोग आंदोलन" की घड़ी!:
प्रस्तावना:
1.नया संसोधित भूमि अधिग्रहण बिल/ऑर्डिनेंस: किसानों द्वारा व्यापारिक वर्गों से "सम्पूर्ण असहयोग आंदोलन” ही नए संसोधित भूमि अधिग्रहण बिल/ऑर्डिनेंस को वापिस करवाने का सबल रास्ता है| इस संकट की घड़ी में आप किसी प्रकार के अन्य वाद जैसे कि "धर्मवाद", "जातिवाद", "वंशवाद", "अपवाद" पर ध्यान मत दो, सिर्फ "बाजारवाद" और "किसानवाद" पर ध्यान दो|
2.यूरिया के लिए किसान महिलाओं तक का, वो भी रातभर लाईन में खड़े होना पड़ना: क्या कोई व्यापारी या सरकार यह बताएगी कि अगर कल को किसान से फसल लेने के लिए, पहली तो बात मंडी की जगह उसके दरवाजे पे जाना पड़े, दूसरी बात दरवाजे पे भी ना जा के व्यापारी को कहा जाए कि जाओ थाने से गेहूं/चावल/सब्जी ले लो? क्या बता सकते हो कितने व्यापारी ख़ुशी-ख़ुशी थानों के आगे ऐसे ही लाइनें बना के अनाज/सब्जी लेने जा सकते हैं जैसे आज किसान तनाये (मजबूर) हुए हैं? क्या किसान अपराधी हैं या खेती करना इतना बड़ा अपराध हो गया है या फिर यूरिया नहीं यह कोई बम बनाने की सामग्री है, जिसकी पुलिस द्वारा जाँच-परख करके ही इसको किसानों को दिया जा रहा है?
3. कहते हैं कि आज भारतियों द्वारा शुद्ध रूप से भारतियों की सरकार है; उसमें भी गहन उतर के देखें तो हिन्दुओं द्वारा शुद्ध रूप से हिन्दुओं की सरकार है, और किसानों में 90% से ज्यादा हिन्दू किसान ही बोले जाते है| यह भावनात्मक पहलु यहां मैं इसलिए प्रयोग कर रहा हूँ, इस शब्द की दुहाई इसलिए ले रहा हूँ ताकि हर इस-उस बहाने-मौके हिन्दू की बात करने वालों (सरकारी, गैर-सरकारी, धर्माधीस, व्यापारी या कोई भी) में शायद कोई सच्चा और समर्थ हिन्दू ही उठ के किसान के इस लहू चला देने वाले दर्द को मेट (मिटा) दे| वही हिन्दू जिसकी एकता और बराबरी के नारे के जरिये सरकारें बनती भी हैं और बिगड़ती भी| आज उन्हीं हिन्दू कहे जाने वाले हिन्दुओं की औरतें रातों को पुलिस थानों में सिर्फ यूरिया खाद लेने के लिए लाइनों में लगवाई जा रही हैं; है कोई हिन्दू इस जघन्य प्रताड़ना से अपनी नारियों को मुक्ति दिलाने वाला? सरकार से बाहर ना सही, कोई सरकार के अंदर ही हो?
भूमिका: "असहयोग आंदोलन" शब्द फैशनेबल तो है ही बड़ा कारगर भी है| इसलिए इसके इतिहास, परिभाषा, महत्व और उपयोगिता पर फ़िलहाल ज्यादा ना जाते हुए, सीधा इसकी आज की किसान की समस्याओं के निबटारे हेतु कितनी सख्त जरूरत आन पड़ी है, उसपे आऊंगा| कई बंधुओं-दोस्तों-जानकारों से सुनने को मिल रहा है कि कुछ भी हो जाए वो संसोधित भूमि अधिग्रहण बिल/ऑर्डिनेंस को पास नहीं होने देंगे, फिर चाहे इसके लिए रोड जाम करने पड़ें, अथवा दिल्ली का दूध-पानी रोकना पड़े या अनंत धरने देने पड़ें| और कुछ ऐसा ही हालात हरियाणा में यूरिया खाद की किल्ल्त को ले के बने हुए हैं| सरकार से बाहर कोई राजनैतिक पार्टी, कोई सामाजिक संस्था अथवा एन. जी. ओ. सब चुप्पी साधे बैठे हैं|
इन सबके बीच मुझे एक चीज नजर आई कि किसानों की मांगों, दुखों और आवाजों को सरकार तक पहुँचाने का सबसे सकारात्मक व् असरदार जरिया सड़कों पर उत्र कर विरोध करना रहेगा अथवा असहयोग आंदोलन के रास्ते चल के समाज-सरकार को चलाने में अपनी भूमिका दिखाना होगा| गहन मंथन से जो समझ आता है वो है, "किसानों द्वारा व्यापारिक वर्गों से सम्पूर्ण असहयोग आंदोलन|
असहयोग आंदोलन ही सबसे कारगर हथियार क्यों?:
जो भाई हिंसात्मक अथवा रोड-रेल या दिल्ली जाम करने के तरीकों से इस बिल को रोकने या मुड़वाने की अथवा किसानों की यूरिया की किल्ल्त मिटाने की सोचता हो वह यह जान ले कि जो सरकार 2013 के बिल को मोड़ के आर्डिनेंस के जरिये 1894 से भी कड़ा बिल लाने का हठ कर सकती है, उसको आप लोगों पर लाठियां-डंडे बरसाने में कितनी देर लगेगी और ऐसा करने में सरकार को कितनी हिचकिचाहट होगी? अवश्य ही इस सरकार को ना ही तो विदेशी शासक कह सकते और ना ही विदेशी आक्रांता, क्योंकि भारतियों द्वारा शुद्ध रूप से भारतियों की सरकार है| लेकिन वर्तमान में किसान के जो हालत हो चले हैं अथवा होते दिख रहे हैं इतिहास में इस सरकार की तुलना अंग्रेजों और मुग़लों के काल से पहले दूसरी सदी के पुष्यमित्र सुंग और सातवीं सदी के राजा दाहिर की विचारधारा वाले लोगों से करूँ तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी|
ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इस सरकार को वही "ढाक के तीन पात, चौथा होने को ना जाने को" वाली 1300 साल पुरानी परिपाटी पकड़ने में आज़ादी के बाद महज 70 साल भी नहीं लगे (और पूर्ण रूप से सत्ता प्राप्ति के हिसाब से कहूँ तो 7 महीने भी नहीं लगे)| पुष्यमित्र सुंग तो दूसरी सदी में हुए थे, इसलिए उनसे आगे वाले राजा दाहिर (661 AD से 712 AD) के काल को ठीक 1300 साल हुए हैं, इस बीच मुग़ल भी आये और अंग्रेज भी, लेकिन जैसे इन हमारे शुद्ध भारतीयता की टैग यानी खुद वालों ने इस गुलामी के काल से कुछ नहीं सीखा| ठीक वैसे ही जैसे दाहिर और पुष्यमित्र सुंग ने कुछ विशेष लोगों को खुश रखने/करने व् अपनी रक्त-पिपासा शांत करने हेतु अपने ही लोग मारे-काटे-सताए थे, उसी मूड में भारत देश की वर्तमान सरकार दिख रही है| मुझे कहने में बिलकुल हिचक नही हो रही कि 712 ईस्वी में राजा दाहिर का काल यह सरकार फिर से लाने पर आमादा हुई खड़ी है जिसको और कुछ ना मिले तो अपनी ही प्रजा पे जुल्मों का पहाड़ तोड़, उनके शरीर से खून निकालने में मजा आता दिख रहा है| और इसका अंदाजा आप इस बात से और भी अच्छे से लगा सकते हैं कि आते ही पहले आत्महत्या को अपराध बताने वाली धारा 309 को हटाया गया है|
बुद्धजीवियों, विचारकों, संतों-महंतों से भरी इस सरकार में क्या कोई सरकार को सलाह देने वाला नहीं कि पुष्यमित्र सुंग और दाहिर के नक़्शे-कदम पर चलने से फिर से अराजकता, उत्पीड़न, गुलामी पाँव पसार लेगी, जिससे अशांति और आक्रोश पनपेगा? क्या सरकार को कोई यह आइना दिखाने वाला नहीं कि आज जिस जाति-पाति की पुरानी फूट का हवाला दे उसको हमारी सदियों पुरानी गुलामी का कारण बताते हो, उसी फूट और घृणा के बीज फिर से अंकुरित हो रहे हैं, अथवा आपके तौर-तरीके उसके अंकुरण का कारण बन रहे हैं; वही जो ऊपर कही थी कि, "वही ढाक के तीन पात, चौथा होने को न जाने को"। कहने को हर तरह की राष्ट्र की, धर्म तक की एकता और बराबरी का हवाला उठाते हो और फिर इतना बड़ा जुल्म भी करते हो कि "एक ही हांडी में दो पेट"? यानी कल को अगर प्रस्तावित अध्यादेश पास होता है तो एक वर्ग को तो इतनी छूट कि उसको दूसरे वर्ग की जमीन लेने हेतु उसकी इजाजत भी ना लेनी पड़े और उधर दूसरा वर्ग इतना लाचार बना दिया कि वो अपनी मन-मर्जी से अपनी जमीन को अपना कहने का अहसास सिर्फ इस डर से खो दे कि क्या पता कल कौन प्राइवेट स्कूल या हॉस्पिटल (सरकारी कार्यों, देश के व्यापक कार्यों के लिए तो सरकार खुद सौ बार जमीन ले परन्तु अब प्राइवेट भी; तो फिर इन प्राइवेटों और अंग्रेजों-मुग़लों वाले प्राइवेटों में फर्क क्या छोड़ा सरकार जी आपने?) तक खोलने वाला आन खड़ा हो कोर्ट का परचा हाथ में लिए| और उसका तो इस आर्डिनेंस के पास होने से इतना पक्का बंदोबस्त और बंध जायेगा कि न्यूनतम पांच साल तो कोर्टों में अपील भी नहीं डलेगी| क्या वाकई यही वो भारत था जिसमें आप जाति-पाँति मिटा "एकता और बराबरी" की बात करते आ रहे थे? क्या यह सीधा-सीधा भारतीय सविंधान के अनुसार विरुद्ध जा, उन करोड़ों लोगों के आत्मसम्मान-प्रतिष्ठा का सामूहिक बलात्कार नहीं, जिनको कि भारतीय संविधान बराबर के आत्म सम्मान और प्रतिष्ठा की बात कहता है?
खैर आगे बढ़ता हूँ, धारा 309 के हटाये जाने और "संसोधित भूमि अधिग्रहण आर्डिनेंस" से इतना तो सबको समझ आ ही जाना चाहिए कि वर्तमान सरकार को इसकी जनता कितनी प्यारी है कि जिस जान-माल की रक्षा हेतु आप सरकार को चुना गया है, उसमें कोई आत्महत्या भी कर ले तो आप सरकार को जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ेगा? तो ऐसे में किसानों के लिए सोचने की बात है कि अगर आप लोग सड़कों पर उतरे तो आप लोगों पर पुलिस के डंडे खिलवाने से भी सरकार को कोई परहेज नहीं होगा, अपितु जिनको खुश करने हेतु यह सब किया जा रहा है उनको तो किसानों को पीटते देख घी और घलेगा|
तो इन कारणों की वजह से मैं नहीं मानता कि यह सरकार धरने-प्रदर्शनों से किसी की सुनने वाली है| अपितु पहले से फसलों के कम दाम, यूरिया की कमी, महंगाई, बिजली-पानी की किल्ल्त से जूझते आप किसान लोगों पर इस तरह के धरने सिर्फ अतिरिक्त बोझ ही डालेंगे| इसलिए मेरे विचार से एक ऐसा रास्ता है जो ना सिर्फ आपका आर्थिक सहयोग भी करेगा अपितु इस सरकार को इस बिल को वापिस लेने में और यूरिया के नाम पर थानों में अपराधियों की तरह लाइन-हाजिर किये जा रहे किसानों की पीड़ा सुनाने में भी कारगर सिद्ध होगा और वह है, “किसानों द्वारा व्यापारिक वर्गों से "सम्पूर्ण असहयोग आंदोलन”|
इससे आगे के भाग में तकनीकी तौर पर 4 बातें समझने की कोशिश की जाएगी; A पहली इस आंदोलन की परिभाषा, B दूसरी यह भूमि अधिग्रहण आर्डिनेंस/बिल का संसोधित रूप वापिस करवाना जरूरी क्यों है, C तीसरी इस आंदोलन की रूपरेखा, D चौथी इस आंदोलन को सफल बनाने हेतु किसान वर्गों का यूथ क्या करे|
A इस असहयोग आंदोलन की परिभाषा: किसानों द्वारा व्यापारियों की दुकानों, फैक्टरियों से एक निर्धारित समय तक (जैसे कि एक महीने के लिए अथवा जब तक सरकार इस आर्डिनेंस को रद्द ना कर दे), कोई भी सामान खरीदने का बहिष्कार| कोई भी किसान का बेटा-बेटी इनसे ना कोई किरयाना का सामान खरीदे, ना कोई मशीनरी खरीदे, ना ज्वैलरी खरीदे और ना ही कपड़ा-लत्ता खरीदे| यह आंदोलन एक राज्य से शुरू करके पूरे देश में जितना हो सके उतना फैलाया जाए और तब तक चलाया जाए जब तक सरकार ना सिर्फ इस अध्यादेश को रद्द करे अपितु भविष्य में ऐसे दुःस्वप्न की ना सोचे| और किसानों को यूरिया लेते हुए किसी अपराधी की तरह थानों में लाइन-हाजिर ना होना पड़े|
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