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Thread: अन्नदाताओं से नीरस संवाद

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    अन्नदाताओं से नीरस संवाद

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात कार्यक्रम के बहाने रेडियो के माध्यम से देश के अन्नदाताओं से जो इकतरफा व एकपक्षीय संवाद किया, उसने साफ है कि केंद्र सरकार के लिए किसान एवं कृषि हित से कहीं ज्यादा औद्योगिक हित महत्वपूर्ण हैं। जबकि मोदी ने तूफानी चुनावी दौरों में किसानों को भरोसा जताया था कि उनकी समस्याओं का समाधान सरकार की प्राथमिकता होगी। लेकिन बीते 10 माह के कार्यकाल में सरकार के रवैये ने किसानों को निराश तो किया ही, इस रेडियो संवाद ने तो उनकी सभी उम्मीदों पर पानी फेर दिया, क्योंकि संवाद में भूमि अधिग्रहण संशोधित विधेयक पर किसानों को राजी करने की मूल-मंशा अंतनिर्हित थीं, जबकि मोदी को जरूरत थी कि वह बेमौसम बरसात और ओलावृष्टि की मार झेल रहे किसानों को राहत के आर्थिक पैकेज की घोषणा करते ?
    लोकसभा से पारित होने के बाद मुआवजा एवं भूमि अधिग्रहण,पुनर्वास तथा पुनस्र्थापन पारदर्शिताता विधेयक ;संशोधन-2013 राज्यसभा में अटक गया है। इस अडं़गे को दूर करने की दृश्टि से मोदी ने मन की बात के जरिए किसानों को बरगलाने की कोशिश की है, लेकिन अब किसान मोदी के झांसे में आने वाले नहीं हैं,क्योंकि किसानों ने मोदी की मन की बात ताड़ते हुए समझ लिया है कि मोदी के लिए औद्योगिक हित सर्वोपरि हैं। और इन हितों की पूर्ति के मद्देनजर किसान-हितों को बलि चढ़ाने के लिए वे व्याकुल हैं। शायद इसीलिए 30 मिनट के कार्यक्रम में आधे से ज्यादा समय भूमि अधिग्रहण की आवष्यकता को जताने पर खर्च किया। मोदी ने कहा, गांव में सड़क चाहिए या नहीं ? मोदी जी सड़क जरूर चाहिए, लेकिन देश में क्या काई ऐसा गांव है,जिसके लिए रास्ता ना हो ? बैलगाड़ी और ट्रेक्टर हवा में उड़कर नहीं,इन्हीं रास्तों से गांव आ-जा रहे हैं। इन्हीं पर सड़क बिछाइए, अतिरिक्त भूमि की भला क्या जरूरत है ? प्रधानमंत्री सड़क योजना के तहत इन्हीं मार्गों पर सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है। किंतु आपका तो असली मकसद किसानों को बरगलाना है, क्योंकि आपने बहुफसलीय भूमि के अधिग्रहण के बाबत विधेयक के प्रारूप में नियम जोड़ दिया है कि राजमार्गों और रेल लाइनों के दोनों किनारों पर एक-एक किलोमीटर दूरी तक भूमि का अधिग्रहण किया जाएगा। आखिर इतनी जमीन के अधिग्रहण की कुटिल मंशा के पीछे इस जमीन पर औद्योगिक घरानों को जमीन देने का राज नहीं छिपा है ? वैसे भी उद्योगपतियों बंजर और दूरांचल की जमीनें लेने की बजाय,सड़कों से जुड़ी आसान पहुंच की जमीनें हथियाने में ज्यादा रुचि होती है,क्योंकि इन जमीनों के दाम दिन दूने रात चैगुने बढ़ते हैं।
    इस बाबत एक और विरोधाभास सामने आया है। मोदी जी कह रहे हैं कि किसानों और आदिवासियों को यदि अधिग्रहण बेजा लगता है तो उन्हें अदालत में अपील का अधिकार होगा ? लेकिन यहां गौरतलब है कि जब भूस्वामी की मंजूरी के बिना भूमि हथियाने का कानूनी अधिकार कंपनियों को दे दिया जाएगा तो वे अदालत का दरवाजा किस आधार पर खटखटा पाएंगे ? जाहिर है,विधेयक दोनों सदनों से पारित हो जाता है तो पीपीपी के बहाने सीधे जमीनें काॅर्पोरेट घरानों को हस्तांतरित कर दी जाएंगी ? मोदी देश में भ्रम फैला रहे हैं कि संषोधित भूमि अधिग्रहण कानून की मंजूरी नहीं मिली तो देश का विकास थम जाएगा। बेरोजगारी खत्म नहीं होगी। सकल घरेलू उत्पाद दर गिर जाएगी। जबकि प्रधानमंत्री समेत पूरी राजग सरकार को गौर करने की जरूरत है कि आज भी देश की 60 फीसदी आबादी खेती-किसानी पर निर्भर है। इस के विपरीत औद्योगिक और तकनीकि विकास को बेबजह बढ़ावा देने के उपाय,कभी भी अकुशल और निरक्षर लोगों की आजीविका के गारंटी नहीं बन सकते। अच्छा हो मोदी खेती की जमीन उद्योगों को देने की बजाय चंबल के बीहड़ उद्योगपतियों को दे दें। इससे दो लक्ष्यों की पूर्ति एक साथ होगी,एक तो बंजर बीहड़ों का औद्योगीकरण हो जाएगा,दूसरे बीहड़ों के समतलीकरण से चंबल क्षेत्र में डकैत समस्या हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी।
    अन्नदाताओं से मोदी का यह संवाद इसलिए भी तार्किक नहीं रहा, क्योंकि मोदी ने खेती-किसानी के हितों को सतही अंदाज में रेखांकित किया। उन्होंने किसानों पर पड़ी प्राकृतिक आपदा के न तो कोई कारगर हल सुझाए और न ही बड़े पैमाने पर आर्थिक इतदाद का ऐलान किया। जबकि अवर्शा और सूखे के कारण खेतों में खड़ी खरीफ की फसलें किसानों को जलानी पड़ी थीं। और अब बेमौसम बरसात और ओलाबारी के कारण खड़ी और कटी पड़ी रबी फसलें जमीन पर बिछी पड़ी हैं। जबकि किसान खाद,बीज और कीटनाशकों के खर्च और कर्ज के बोझ से हलाकान है। इस मुक्ति के उपायों पर कुदरत ने पानी फेर दिया है। प्रकृति के इस कहर की चपेट में उत्तर प्रदेश,बिहार,हरियाणा,पंजाब,राजस्थान,गुजरात,महाराश् ट्र और मध्य प्रदेश हैं। इन राज्यों में गेहूं चना और सरसो की फसलें चैपट हो गई हैं। वहीं पष्चिम बंगाल में आलू की फसल चैपट हो जाने और उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों का 17 हजार करोड़ चीनी मिलों पर बकाया होने के कारण आलू एवं गन्ना उत्पादक किसान अत्महात्या करने में लगे हैं। इस आत्महत्या से छुटकारे की उम्मीद किसानों को मोदी की मन की बात से नहीं झलकी।
    संकट के इस भयावह दौर से गुजर रहे किसान को उबारने की दृश्टि से क्या जरूरी नहीं था कि मोदी फसलों के हुए नुकसान के निश्पक्ष आकलन और भ्रश्टाचार मुक्त मुआवजे के वितरण का भरोसा जताते ? कर्ज वसूली टालने और ब्याज माफ करने की पहल करते ? कृषि बीमा का तुरंत भुगतान कराने का सिलसिला षुरू करते ? इसके साथ ही पषु चारे की कमी से निपटने के कदम उठाते,क्योंकि इस आपदा ने चारे की फसल भी चैपट कर दी है ?
    पूर्व की केंद्र सरकारें प्राकृतिक आपदा के निश्पक्ष मूल्यांकन के लिए मंत्रियों के एक समूह की समिति बनाकर रखते थे। मोदी सरकार ने इस तरह की सभी समितियां को भंग कर दिया है,क्योंकि इस सरकार की चिंता में किसान षामील ही नहीं हैं। जबकि अन्नदाता हरेक सरकार की प्राथमिकता में होने चाहिए। 2011 की जनगणना के मुताबिक 11 करोड़ 88 लाख किसान और 14 करोड़ 43 लाख कृषि मजदूर खेती पर निर्भर हैं। इन पर आश्र्रित इनके परिवारों के सदस्यों को भी जोड़ लिया जाए तो यह संख्या 72 करोड़ के करीब बैठती है। मसलन तमाम औद्योगिक उपायों के बावजूद देश की 60 फीसदी आबादी की आजीविका आज भी खेती-किसानी पर टिकी है। बावजूद मोदी सरकार उद्योगपतियों के प्रति उदार दिखाई दे रही है। जबकि कृषि प्रधान देश में खेती-किसानी पर ज्यदा ध्यान देने की जरूरत है। जाहिर है,किसान विरोधी कानून बनाने पर जोर देकर सरकार किसान व मजदूर विरोधी छवि का निर्माण करने में लगी है। यह आत्मघाती कदम है,जिसके दुश्परिणाम केंद्र की राजग सरकार को कालांतर में राज्य विधानसभा के चुनावों में झेलने पड़ेंगे ?

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    dndeswal (March 26th, 2015), lrburdak (March 29th, 2015), prashantacmet (March 25th, 2015)

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