हम लोग अक्सर धर्म आधारित राजनीति को कोसते हुए नही थकते| लेकिन क्या वाकई में ऐसा है? अगर धर्म समाज को दो टुकड़ो में बाँटता है तो वही दूसरी तरफ जातियाँ तो समाज को सैकड़ो टुकड़ो में बाँट देती है| इस हिसाब से देखा जाए तो जातिगत राजनीति तो धर्म आधारित राजनीति से भी बुरी है| पर लोग धर्म आधारित राजनीति पर ज़्यादा हाय तौबा मचाते है क्योंकि इसमे निशाने पर ज़्यादातर एक समुदाय विशेष होता है| यही अल्पसंख्यक वर्ग कुछ पार्टियो के लिए बड़ा आसान सा वोट बैंक है| इसलिए सांप्रदायिकता का हौव्वा खड़ा करके कुछ तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टिया बड़ी चालाकी से एक समुदाय विशेष के वोट हथिया लेती है|
इसके बाद बहुसंख्यको को जाति के आधार पर बाँटा जाता है| बात जाति की हो तो हर पार्टी चुप्पी साध लेती है| अगर धर्म के नाम पर समाज को बाँटना ग़लत है तो जाति के आधार पर बाँटना भी उतना ही ग़लत है|
क्या कभी ऐसा दिन आएगा जब चुनाव राष्ट्रवाद के आधार पर लड़े जाएँगे? क्या राजनीतिक पार्टिया हमें चुनावो के वक्त हमारा धर्म और जाति याद दिलाना बंद कर सकती है| असल मुद्दे तो कही खो जाते है|
बिहार के चुनाव परिणाम बताते है कि जाति और धर्म का घालमेल लालू जैसे नेताओ को भी पब्लिक का हीरो बना देता है| एक तरफ मुस्लिमो को बीजेपी का डर दिखाया गया वही दूसरी तरफ पिछड़ी जातियो को आरक्षण ख़त्म होने का| क्या वाकई यह आदर्श स्थिति है क्यो नही किसी ने बात की कैसे बिहार का विकास होगा|
इस देश का दुर्भाग्य है कि बीजेपी जैसी पार्टिया भी हिन्दुओ को जाति के दायरे से बाहर निकालने के लिए धर्म के नाम पर उद्वेलित करती है|
शायद इस देश के हिन्दुओ को जातियो के नाम पर लड़ने से फ़ुर्सत नही है| ऊपर से धर्मनिरपेक्षता का कीड़ा अलग से ज़ोर मारता है| ऐसे में धर्म नाम की अफ़ीम ही हिन्दुओ को एक कर पाती है| तभी वो जाति से ऊपर उठकर वोट करता है जोकि बीजेपी के लिए ज़्यादा आसान विकल्प है|