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Thread: ताकि आमदनी कमाने की चारों धाराओं में बैले&

  1. #1

    ताकि आमदनी कमाने की चारों धाराओं में बैले&

    ताकि आमदनी कमाने की चारों धाराओं में बैलेंस बना रहे:

    1) क्यों व्यापार और धर्मदार का कार्य आदरमान से देखा जाता है?
    2) क्यों व्यापार और धर्मदार की बुनियादों को हिलाना इतना आसान नहीं होता?
    3) क्यों किसान अपने कार्य का सम्मान कायम नहीं रख पाता?
    4) क्यों किसान धर्म-व्यापार और मजदूर (दिहाड़ी/नौकरी/बंधुआ) की भांति अपनी मेहनत का न्यूनतम सुरक्षित नहीं रख पाता?
    5) क्यों किसान की मेहनत बीच चौराहे लावारिस पड़ी किसी वस्तु की भांति होती है?


    जब से यह दुनिया बनी है तब से इस जगत में धन कमाने की 4 मुख्य धाराएं रही हैं, एक धर्म, दो व्यापार, तीन खेती और चौथा मजदूरी (दिहाड़ी/नौकरी/बंधुआ)। ऊपर उठाये सवालों के जवाब समझने के लिए जरूरी है कि इनके कुछ पहलुओं को समझें:


    1) धर्म-व्यापार-मजदूरी तीनों अपनी मेहनत खुद तय करते आये हैं सिवाय मजदूरी की एक प्रकार बंधुआ को छोड़ के| आधुनिक काल में बंधुआ तो कम होती जा रही है परन्तु भारतीय खेती में इसका अभी कोई अंत नजर नहीं आता|
    2) धर्म-व्यापार-मजदूरी, खेती के परजीवी हैं| इनकी आमदन मुद्रा में चाहे कितनी भी हो अंत में उसका प्रथम और मुख्या हिस्सा होता खेती से कपड़ा और अन्न (रॉ और प्रोसेस्ड मटेरियल दोनों) खरीदने हेतु ही है|
    3) इंसान की मूलभूत सुविधाओं रोटी-कपडा और मकान में से धर्म-व्यापार-मजदूरी सिर्फ मकान बिना किसान की मदद के बना सकते हैं जबकि रोटी-कपड़ा के लिए इनको किसान का मुंह ताकना ही पड़ता है| हालाँकि किसान मकान भी बिना इनकी मदद के बना सकता है|
    4) इन आमदनी कमाने की चारों धाराओं की सर्विसों में धर्म ही एक इकलौती ऐसी सर्विस है जो बिना गारंटी एवं वारंटी के होती है| अन्यथा व्यापारी का प्रोडक्ट हो तो वो आपको रिटर्न की गारंटी देता है, किसान का प्रोडक्ट 'अन्न' आपको पेट की भूख शांत होने की गारंटी देता है, मजदूरी की मजदूरी आपके पैसे के ऐवज के काम की गारंटी देती है|

    मतलब कुल मिला के देखा जाये तो व्यवहारिकता और उपयोगिता के हिसाब से किसान का कार्यक्षेत्र और महत्व इन बाकी तीनों से सर्वोत्तम और पवित्र है| तो फिर ऐसा क्या है जिसकी वजह से भारतीय किसान इन बाकी तीनों में और खुद में भी:

    1) अपने कार्य के प्रति सार्वजनिक व् सार्वभौमिक सम्मान नहीं बना पाता या इनके बीच हासिल नहीं कर पाता?
    2) समाज के लिए इतना महत्वरूपर्ण किरदार और फर्ज अदा करने पर भी इनके स्तर तक का अपना गुणगान नहीं करा पाता या करवा पाता?
    3) इतना महत्वरूपर्ण किरदार और फर्ज अदा करने पर भी लाचार, असहाय और बेबस रह जाता है?
    4) अपने उत्पाद के प्रति इनकी तरह रक्षात्मक रवैया नहीं बना पाता?


    धर्म वाला धर्म के साथ-साथ धर्मस्थल का भी मालिक होता है, व्यापार वाला व्यापार के साथ व्यापार-स्थल का भी मालिक होता है, खेती वाला खेत के साथ-साथ खेती का भी मालिक होता है परन्तु हकीकत में है नहीं क्योंकि उसका भाव कोई और निर्धारित करता है| हालाँकि मजदूर सिर्फ दिहाड़ी का हकदारी होता है|


    सुना है फ़्रांसिसी क्रांति में औद्योगिक क्रांति के साथ-साथ किसानी के इन पहलुओं को लेकर भी क्रन्तिकारी लड़ाई हुई थी| एक जमाना था जब फ्रांस में धर्म और व्यापार मिलकर किसान को ठीक इसी तरह खाए जा रहे थे जैसे आज भारत में खा रहे हैं| परन्तु जब इनकी लूट-खसोट और मनमानी की इंतहा हो गई थी तो फ्रांस का किसान उठ खड़ा हुआ था और ऐसा उठ खड़ा हुआ था कि धर्म को तो हमेशा के लिए चर्चों के अंदर तक सिमित रहने का समझौता तो धर्म के साथ किया ही किया और व्यापार को भी यह समझा दिया गया कि अगर हमारे उत्पाद और मेहनत का जायज दाम हमें नहीं मिला तो तुम्हारी गतिविधियों पर ताले जड़ दिए जायेंगे|


    और इसीलिए आज फ्रांस विश्व में जितना धर्म-व्यापार और मजदूरी को लेकर संवेदनशील जाना जाता है उतना ही संवेदनशील कृषि और इसके कृषकों को लेकर जाना जाता है| यहां किसान इतने ताकतवर हैं कि जरूरत पड़े तो व्यापारियों के बड़े-से-बड़े शॉपिंग मॉल में भी जानवर बाँधने से नहीं कतराते| और ना ही सरकार किसान के इस गुस्से पर कोई कार्यवाही करती अपितु जब-जब फ़्रांसिसी किसान की तरफ से ऐसा गुस्सा आता है तो वो समझ जाती है कि किसान का बेस मूल्य रिसेट करने का टाइम और इशारा आ गया है|


    अब भारत को भी एक फ़्रांसिसी क्रांति की दरकार आन पड़ी है| धर्म इतना दम्भी हो चुका है कि वो इस तरह जताने लगा है कि जैसे देश का पेट भी किसान नहीं वो ही भर रहा हो| व्यापार इतना घमंडी होता जा रहा है कि किसान को उसकी मेहनत की लागत तक नहीं छोड़ना चाहता, खेती में फायदा होना शब्द तो जैसे गायब ही हो चला है| निसंदेह किसान को यह समझना होगा कि:


    1) माँ नौ महीने बच्चे को पेट में पाल के, एक दम से पेट से निकाल के ही समाज को नहीं सौंप दिया करती, वो उसको बड़ा करने में भी वक्त और मेहनत लगाती है| ऐसे ही किसान समझें इस बात को कि उनका खेत उनके लिए माँ का पेट है और उस खेत से पक के निकलने वाली उपज उनका नवजात शिशु और नवजात शिशु को मंडी को तुरंत ही नहीं सौंपा जाया करता| पहले आपस में बैठ के अपने उत्पाद की लागत और मजदूरी खुद धरो, उसपे अपना बचत का मार्जिन धरो और फिर इनको दो| ऐसा करते हुए किसान को घबराना नहीं चाहिए, क्योंकि परजीवी आप नहीं, धर्म-व्यापार और मजदूर हैं| कितना ही माथा पटक लेवें हार फिर के आवेंगे आपके ही पास| इसलिए इस पहलु को ले के किसान को संजीदा होना होगा|
    2) पंडित फेरे करवाता है तो 500-1000 न्यूनतम लेता है, झाड़-फूंक-पूछा वाला 100 से 1000 तक की पत्ती आपसे पहले रखवा लेता है, मंदिर में कम रूपये चढ़ाओ और पुजारी की नजर पड़ जाए तो मुंह सिकोड़ने लगता है, कई मंदिरों में तो न्यूनतम 100-200 से नीचे दिया तो पर्ची भी नहीं मिलती यानी वो आपके दान से खुश नहीं हुए| इनके द्वारा आपको दी गई भाषा में दान परन्तु इनकी खुद की भाषा में वो इनका सर्विस चार्ज होता है|
    3) व्यापारी का तो सीधा सा सटीक फार्मूला है, 'कॉस्ट ऑफ़ प्रोडक्शन + प्रॉफिट मार्जिन = विक्रय मूल्य
    4) मजदूर की दिहाड़ी, नौकर की नौकरी का न्यूनतम निर्धारित करने के लिए भी विभिन्न मजदूर संगठन तो रहते ही रहते हैं, जहां यह नहीं हैं वहाँ भी यह लोग अपनी न्यूनतम दिहाड़ी पहले सुनिश्चित करते हैं उसके बाद काम पर जाते हैं|
    5) तो दिखती सी बात है धर्म हो, व्यापार हो या मजदूर, जब यह तीनों अपनी मेहनत की दिहाड़ी के न्यूनतम को ले के इतने संजीदा और सचेत हैं तो फिर किसान क्यों यह हक अपने पास नहीं रखता? इस पहलु पर आज के भारतीय किसान को कालजयी आंदोलन छेड़ना होगा|
    6) मंदिर में आप पुजारी से हर वक्त नहीं मिल सकते, व्यापारी से आप हर वक्त तो क्या कई बार अपॉइंटमेंट ले के भी नहीं मिल सकते, मजदूर/नौकर से भी आपको अपॉइंटमेंट लेनी होती है, परन्तु यह तीनों ही जब चाहें किसान को डिस्टर्ब कर सकते हैं? यह क्या तुक हुआ? निसंदेह फ्रांस की तरह इनको भी चर्चों के अंदर तक सिमित करना होगा, गलियों-घरों में वक्त-बेवक्त किसान की प्राइवेसी डिस्टर्ब करने के इनके हठ को लगाम लगानी होगी| यानि इतना प्रोफेशनलिज्म एटीच्यूड किसान को भी लाना होगा|
    7) धर्माधीस का बेटा/बेटी धर्म छोड़ के व्यापार में घुसता है तो कभी धर्म की बुराई ना तो वो खुद करता, ना उसके माँ-बाप करते| व्यापारी का बेटा/बेटी जब मजदूर या नौकर बने तो वो भी कभी व्यापार की बुराई नहीं करते, ना वो बच्चा करता| तो फिर जब किसान के बच्चे को अपना कार्यक्षेत्र बदलना होता है तो किसान क्यों उसको किसानी के सिर्फ दुःख दिखा के ही प्रेरित करता है कि यहां बहुत दुःख हैं, यह कार्य बड़ा तुच्छ है इसलिए इसको छोड़ के नौकरी पे चढ़ो या व्यापार करो| किसान को अपने बच्चों को अपना पुश्तैनी कार्यक्षेत्र छोड़ने के ऐसे प्रेरणास्त्रोत देने होंगे जिससे कि किसानी का स्वाभिमान भी उनमें कायम रहे और वो कार्यक्षेत्र भी बदल लेवें| यह इतना गंभीर और बड़ा कारण है कि गाँवों से शहरों को गए किसानों के 90% बच्चे वापिस मुड़कर गाँव और अपनी जड़ों की तरफ देखते ही नहीं हैं| कार्यक्षेत्र बदलते या बदलवाते वक्त उनमें अपने पुश्तैनी कार्य के स्वाभिमान को छोड़ा हो तो मुड़ेंगे ना?
    8) और यह लोग नहीं मुड़ रहे इसीलिए किसानी सभ्यता, संस्कृति और हेरिटेज पीढ़ी-दर-पीढ़ी दम तोड़ता जाता है| और यह स्थाई ना रहे, इसी से धर्म और व्यापार का अँधा-मनचाहा और यहां तक अवैध रोजगार चलता है| इसलिए इन चीजों को ले के किसान संजीदा हो, वर्ना आप सभ्यता बनाते जायेंगे, धर्म और व्यापार उसको मिटाते जायेंगे और जायेंगे और जायेंगे और आपपे हावी बने रहेंगे|


    इस लेख के अंत के सार में लिखने को कोई एक लाइन नहीं बन रही, बस जो बन रहा है वो यह ऊपर लिखा एक-दूसरे से गुंथा पहलुओं का झुरमुट| किसी भी सिरे से पकड़ लो, इसको संभालने पर चलोगे तो बाकी अपने आप सम्भलते जावेंगे और दरकिनार करोगे तो बाकी के भी दरकिनार हो बिखर जावेंगे| और इसी बिखराव को समेटने हेतु लाजिमी है कि किसान भी धर्म, व्यापारी और मजदूर की तरह प्रोफेशनल हो और फ़्रांसिसी क्रांति जैसी एक लड़ाई को तैयार हो, ताकि इन आमदनी कमाने की चारों धाराओं में बैलेंस बना रहे|


    जय यौद्धेय! - फूल मलिक
    Last edited by phoolkumar; November 17th, 2015 at 05:57 AM.
    One who doesn't know own roots and culture, their social identity is like a letter without address and they are culturally slave to philosophies of others.

    Reunion of Haryana state of pre-1857 is the best way possible to get Jats united.

    Phool Kumar Malik - Gathwala Khap - Nidana Heights

  2. The Following User Says Thank You to phoolkumar For This Useful Post:

    op1955 (November 17th, 2015)

  3. #2
    Farming is also a business. Business profits work on demand, supply and markets dynamics. So it is important for farmers to devise a way to move from traditional ways of doing business. As land holdings are shrinking, it is very important to understand what is feasible with limited resources. Too much dependency on limited land will not benefit farmers, therefore farmers need to change their business style to cope with the change in circumstances around. Western countries use to have Agriculture related economies but when they reached to a saturation point, they started to change business model. Many people came out of Agriculture and started working on agriculture related business and eventually moved to other industries. Farmers will need to move slowly towards agriculture related sectors, and also towards industrial sector. Current model is not sustainable. Government will also need enable the infrastructure in order to move people from direct farming to farm related sector and towards other industries. Otherwise without changing current business model, it is hard to improve farmer conditions.

  4. The Following User Says Thank You to amitbudhwar For This Useful Post:

    vijay (November 17th, 2015)

  5. #3
    Quote Originally Posted by amitbudhwar View Post
    Farming is also a business.
    Primary product of Agri is not business due to its nature of tasks, yes its secondary product FMCG Sector is business. Aapke ke logic se aise dekha jayega to fir chaaron ko hi business stream kaha jayega as money is involved in all 4 lanes.
    One who doesn't know own roots and culture, their social identity is like a letter without address and they are culturally slave to philosophies of others.

    Reunion of Haryana state of pre-1857 is the best way possible to get Jats united.

    Phool Kumar Malik - Gathwala Khap - Nidana Heights

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