ये शीर्षक ना तो किसी विशेष आकर्षण के लिए है ना ही किसी विपरीत चिंतन विषयों का घालमेल है । यह तो सिर्फ मेरे निजी विचार हैं, सोचा कि आप लोगों के साथ बाँट लूँ । ना तो मैं वेमुला को जानता हूं, ना ही किसी नारे लगाने वाले विद्यार्थी को । पिछले १३ साल से इस विश्वविद्यालय में अध्यापन व अध्ययन का कार्य कर रहा हूं । आज ऐसे दो राहे पर अपने आप को देखता हूं । जहां JNU की छवि से अपने आप को संकोच में पाता हूं तो दूसरी ओर अपने आप को जाट के रूप में उसी धर्मसंकट में पाता हूं । मुझे लेकिन पुरजोर शब्दों में कहना है, हां मैं गर्व से कहता हूं कि मैं जाट हूं और JNU में शिक्षक होने पर गर्वित महसूस करता हूं । कुछ तो है जो दोनो का संयोग मुझे आम भीड़ से अलग करता है । यहां मैं किसी भी पक्ष की वकालत करने नहीं आया हूं । जाट और JNU दोनो ही पर्याप्त सक्षम है अपनी चुनौतियों को प्रत्युत्तर देने में । मेरा कोई संवाद नहीं है दोनो ही परिस्थितियों से । एक जाट होने के नाते मैं अपने आप को JNU में अकेला पाता हूं , और एक JNU शिक्षक होने के नाते अपने आपको जाटों मे अकेला पाता हूं । मूक चलचित्र ही तरह ही हूं । लेकिन एक चीज है जो मुझे छू गई, और मुझसे रहा ना गया । पवन कुमार जो शायद मेरे सबसे करीब था, वो मेरी तरह JNU का शिक्षक तो नहीं था परंतु JNU का विद्यार्थी जरूर था, क्योंकि NDA को स्नातक डिग्री JNU ही देता है । और साथ ही एक प्यारा मासूम बांका जाट नौजवान था । गोलियां नश्वर शरीर को ले उड़ चलीं पर सूरज की अंतगिनत अस्ताचल किरणे पवन को सलाम करने धरती पर उतरीं। कोई भी कितनी भी दुआएं करले पर पवन की भरपाई कभी ना हो सकेगी । फिर मेरा ध्यान इस ओर गया कि आखिर इसका बोध तो पवन को भी ना गया होगा कि उसकी जाति क्या है और कर्म के क्षेत्र में उसका पराक्रम ही सबसे बड़ी डिग्री थी ना कि JNU की । हम सभी अपना काम करते हुए अपनी जाति और डिग्रीयों की ओर नहीं देखते हैं, बल्कि कर्म के प्रयोजन से अपनी उर्जा के तार जोड़ते हुए उसके समापन की ओर उदात्त रहते हैं । मुझे कक्षा में जाते समय यह कभी नहीं अहसास रहता है कि मेरी जाति क्या है और क्या मैं JNU की कक्षा में हूं । मैने ५ साल गवर्नमेंट कालेज में भी पढ़ाया है । जितनी निष्ठा से वहां कक्षा में जाना हुआ, तब में और अब में किसी प्रकार का अंतर नहीं । अंतर सिर्फ अध्यापन की विषय वस्तु का ही है । २०१२ में मुझे चीन की fudan university में इंडिया चेयर पर पहला प्रोफेसर नियुक्त होने का सम्मान मिला, मैं वहां इस सम्मान को पाने वाला पहला भारतीय था । मुझे तब भी सिर्फ यही एक लगन थी कि वहां पर भारतीय दिमाग का लोहा मनवाना है । और इस लगन से पढ़ाना है कि वो याद रखें कि हिन्दुस्तान से एक शिक्षक आया था । आखिर बाज कितनी ही ऊंची उड़ान भर ले, बैठने के लिए तो पेड़ की डाल पर तो आना ही होता है । JNU मुझे वही वृक्ष डाल लगती रही है, और जब भी सफलता की उड़ान भरी तो एक बार यही सोचा कि जिस जाट पृष्ठभूमी से आया हूँ, उससे यहाँ तक आना आसान नहीं रहा । यह पेड़ नहीं रहा तो पहचान नही रहेगी, और जमीन पे बैठे बाज की तो वैसे भी कोई पहचान नहीं होती । आखिर जाट और JNU दोनो ही पहचान खोने का अहसास कितना दुखद हो सकता है, यह शायद ऐसा है जैसे हर रोज अपने अंदर के पवन कुमार को खोजने जैसी कैफियत है । जीवन में भावनाओं का सरलीकरण हो जाता है, आखिर स्मरण शक्ति के साथ भूलने की प्रवृत्ति भी इंसान को भगवान ने दी है । हर बार ही भूल जाता हूं, फिर ना जाने कहां से एक और झोंका आता है, और अंदर फिर कुछ और खोजने को मन करता है । ये दो पहचान शब्द जाट और JNU, मेरी ही नहीं उत्तर पश्चिम भारत के गांवों से आने वाले अनेक छात्रों को कचोट रही होगी, जिनके पास ना वेमुला जैसे उच्च विचार बाण हैं और ना ही लट्ठभर का दम । ये एक सभी मूक चलचित्र का पात्र हैं, जो बाज की उड़ान भरना चाहते हैं, पर हरबार उड़ने की चाह में बाज के बच्चों जैसे पेड़ से जमीन पर आकर गिर पड़ते हैं ।