जाटों की असली पहचान क्या है? चौधर, मरोड़ या फिर मसखरापन? यहाँ हम जाटों का इतिहास खंगालने के लिए नहीं जा रहे है|मुझे तो यह सवाल बड़ा मुश्किल लगता है| जैसे किसी ने पूछ लिया हो कि प्यार क्या है? अब कोई शाहरुख़ खान की तरह तो जवाब देने से रहा कि प्यार दोस्ती है| ठीक वैसे ही जाट क्या है? तो जवाब होगा चौधराहट|
लेकिन ये चौधराहट आजकल दम तोड़ रही है| पीढ़ी दर पीढ़ी जैसे-जैसे खेती की ज़मीन कम हो रही है इस चौधराहट का दायरा सिकुड़ता जा रहा है| वो अकड़, वो मरोड़ जो इस चौधराहट का हिस्सा है| आजकल किसी फैक्ट्री, किसी कंपनी के क्यूबिकल में मेल ड्राफ्ट करते हाथो से निकल रही है| इस चौधराहट को तो सोफिस्टीकेशन का कीड़ा काट चुका है| मुझे भी आइंस्टीन की तरह चौधराहट की नयी थ्योरी खोजने की सूझी है|
आखिर यह चौधराहट आती कहाँ से है| राजनीतिक पहुँच से, पैसो से, जमीन से या फिर बदमाशी से (मुज़फ्फरनगर के अनुभव के आधार पर)| जब ये सारी चीज़ें मिल जाती है तो एक दबंग मिश्रण तैयार होता है| जिसे हम चौधराहट का नाम देते है| इसमें अकड़ होती है| एक ठसक होती है जो सामने वाले को अपने से कमतर ही समझती है| बात बात पे ऐंठ जाना इस चौधराहट के सर्व सुलभ लक्षण है|
लेकिन आजकल जाटों की चौधर को किसी की नज़र लग गयी है| खेती तो कम हो ही रही थी अब राजनीति भी हाशिये पे पहुँच गयी है| देश के एकमात्र पूर्व जाट प्रधानमंत्री के पुत्र और पौत्र आजकल यूपी की राजनीति में चारो खाने चित्त है वही हरियाणा में पूर्व जाट उपप्रधानमंत्री के पुत्र और पौत्र राजनीति में मरणासन्न है|
हालत यह है कि चौधराहट का टोकरा सिर पर लेकर घूमने वाले जाट आजकल आरक्षण के लिए गिडगिडा रहे है| बड़ा सवाल यही है कि एक तरफ तो चौधराहट कायम रखने की चुनौती है| तो क्या आरक्षण जाटों की चौधराहट बचाने में कामयाब होगा? या फिर जाटों की चौधराहट इतिहास बनने वाली है? क्या जाट आरक्षण को चौधराहट बचाने की आख़िरी कोशिश की तरह देखा जाये?
इतिहास गवाह है कि बड़े आन्दोलनों में समाज की दिशा बदलने का माद्दा होता है| तो फिर क्या वक्त नहीं आ गया है कि वंशवादी जाट राजनीति से बाहर निकला जाये| जाट आरक्षण आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वालो को जाट राजनीति की कमान सौपी जाए?
एक पूरी तरह प्रो-जाट राजनीति की नीव रखी जाये| वैसे ही जैसे महारष्ट्र में मराठी मानुष की राजनीति होती है| दूसरी पार्टियों में अपने जाट नेताओं को गिडगिडाने न दिया जाये| अगर हम किंग नहीं बन सकते राजनीति में, तो फिर क्यों न किंग मेकर की भूमिका निभाने के लिए कमर कसी जाये| क्यों न जाट राष्ट्रीय पार्टियों का मोह छोड़ दे| बीजेपी-कांग्रेस का राग अलापना बंद करे| सब जाट इकट्ठे हो, एक हो, खुद की पार्टी खड़ी करें, अपने राजनीतिक स्वार्थ एक तरफ रखे, कौम की तरक्की की सोचे| मुस्लिमो के बजाय दलितों को साथ ले| दलितों के साथ मिलकर देश-प्रदेश की राजनीति को एक नयी दिशा दे?
वैसे मुझे यह हकीकत कम एक सपने जैसा ज्यादा लगता है| खुली आँखों का सपना| एक ऐसा सपना जो टूटते हुए तारे को देखकर दुआ मांगने से भी सच नहीं हो पायेगा| आप क्या सोचते है?