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dndeswal
बंद होने के बाद हजार के नोट का आखिरी खत
नमस्ते|
मैं एक हजार का नोट हूं। वही नोट जिससे आप सब छुटकारा पाना चाह रहे हैं। जिसके पर्स में मैं हूं वो ऐसे देखते हैं मानो घर में लाश रख छोड़ी हो। मौका मिलते ही कहीं फेंक आयेंगे। मुझे बुरा नहीं लग रहा है क्योंकि अब आदत सी हो गई है। मैंने हमेशा यही झेला है - पहले दिन से। लोगों ने मुझे कभी नहीं स्वीकारा, मेरे साथ हमेशा सौतेला व्यवहार हुआ है। मेरी कभी वो इज्जत नहीं रही जो किसी और नोट की होती है। मेरे साथ जो हुआ, अति हुआ। कोई कभी मुझे अपने पास नहीं रखना चाहता था। सब चाहते थे छुटकारा मिले। हर कोई मेरा खुल्ला करा लेना चाहता था। या जो रखता था वो दबाकर-छुपाकर रखता था। बटुए में किसी कोने में, मोड़कर जहां पता भी न लगे। मुझे गद्दों में भरकर रखा गया। मेरा दिल दहलता था, रोता था। क्या इसी दिन के लिए मैं नोट बना था? मुझसे अच्छे हाल तो पांच सौ के नोट के थे।
मुझे रखा गया कि मैं इमरजेंसी में काम आऊं। सब चाहते थे, मुझे खर्च न करना पड़े। मैं कभी famous रहा ही नहीं। आम लोगों ने कभी अपना माना ही नहीं। मुझे हमेशा बड़े लोगों के हाथों की चीज माना गया। मुझे बुरे लोगों ने इस्तेमाल किया, बुरे कामों में मेरा इस्तेमाल हुआ। मैं दहेज में इस्तेमाल हुआ, अस्पताल में इस्तेमाल हुआ, घूस देने में इस्तेमाल हुआ, फीस देने में इस्तेमाल हुआ। लेकिन कभी किसी ने मुझे भीख में नहीं दिया, कभी बर्थडे के लिफाफे में नहीं डाला। कभी मंदिर में नहीं चढाया। और तो और, कभी बच्चों के हाथ में विदाई के तौर पर भी नहीं दिया। मेरा रचनात्मक इस्तेमाल क्यों नहीं हुआ? कभी कवि सम्मेलन के बाद कवियों वाले लिफाफे में नहीं डाला गया। वैसे यह इतनी बुरी बात भी नहीं थी, मुझसे ज्यादा हालत उन कवियों की खराब रहती थी।
500 के नोट को इज्जत मिली, मुझे नहीं। अब का ही हाल देख लीजिये। 500 का नोट वापिस आ गया, बस मुझे ही बंद किया जा रहा है। मैं भी नोट ही था, चाहता था शादियों में लुटाया जाऊं, दांत में दबकर नाच में शामिल होऊं। मेरी भी माला बने, दिल टूटे तो लोग मुझ पर भी 'वो बेवफा है' लिखें। लेकिन नहीं, लोग मुझ पर कलाकारी तक नहीं करते थे। उन्हें लगता था कहीं मैं नहीं चला तो। मुझे तो बच्चों के हाथ में खेलने तक को नहीं देते थे, कहीं मैं फट गया तो? उस दस के नोट को बच्चा जब मुंह में डालने लगता था तब लगता था ठीक भी हुआ।
कलाकारी से याद आया, मुझे तो साहित्य में भी स्थान नहीं मिला। मिला तो कैसे, आप जानोगे तो पता लग जाएगा मेरी शिकायत बेजा नहीं है। 'नोट हजारों के, खुल्ला छुट्टा कराने आई'। मतलब चमेली जो छुपके अकेली आई है। वो तक मुझे नहीं रखना चाहती। वो खुल्ला लेने आई है। वो पौव्वा चढाकर आ सकती है, उसमें कुछ गलत नहीं, फिर मुझ में ही क्या गलत था? हजार नहीं चलता था, नहीं चला। राजनीति ही ले लो, वहां केजरीवाल चल जाते हैं, हजारे नहीं। मुझे लगता है मेरे नाम में ही दोष है।
लेकिन अब मैं खुश हूं। अब मुझे आजादी मिलने लगी है, अब मैं भी खुली हवा में सांस लूंगा। लेकिन मुझे डर लगता है, अपने लिए नहीं। मेरी यात्रा का तो चलो, अंत है। मुझे दो हजार के नोट के लिए डर लगता है, कहीं वो भी गलत हाथों में न फंस जाए। वो तो और बड़ा है। आम लोगों ने उसे भी न स्वीकारा तो? 'हजार' तो उसमें भी आता है। कहीं उसकी तकलीफ मुझ से भी ज्यादा न हो। पर अब क्या करना, क्या सोचना। चलता हूँ। अलविदा!!