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Thread: History of Tejaji : The folk deity of Rajasthan

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  1. #1

    History of Tejaji : The folk deity of Rajasthan

    Tejaji (तेजाजी) (29.1.1074 - 28.8.1103) was a Jat folk-deity who lived in Rajasthan in India. The pages of history of Rajasthan are full of many heroic events, stories and examples where people put their life and families at risk and kept the pride and upheld moral values like loyalty, freedom and truth etc. Veer Teja was one of those famous persons in the history of Rajasthan.

    Sant Kanha Ram: is an author of a well researched book in Hindi on folk deity Tejaji titled - Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. The first edition of this book was inaugurated by Swami Sumedhanand Saraswati in 2012 on the occasion of Teja Dashmi.

    New historical findings have been revealed by Sant Kanha Ram. I have started this tread to bring in light the new historical facts.
    Last edited by lrburdak; December 20th, 2016 at 03:18 PM.
    Laxman Burdak

  2. The Following User Says Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    dndeswal (December 22nd, 2016)

  3. #2
    संत कान्हाराम की पुस्तक से उद्धरण

    लेखक - संत कान्हाराम की पुस्तक श्री वीर तेजाजी का इतिहास एवं जीवन चरित्र (शोधग्रंथ) से महत्वपूर्ण तथ्य संक्षेप में निम्नानुसार हैं :
    तेजाजी के इतिहास की खोज
    [पृष्ठ-32]: ऐसे समाज उद्धारक, तारक, गौरक्षक, सत्यवादी इस ग्रंथ के चरित्र महानायक वीर तेजाजी के इतिहास चरित्र की खोज करने हेतु जिन तथ्यों, पद्धतियों का सहारा लिया गया वे हैं –
    1. बाह्य साक्ष्य,
    2. बही भाटों की पोथियां,
    3. अंत: साक्ष्य,
    4. मुख्य आधार श्रुति परंपरा,
    5. टैली पैथी
    बाह्य साक्ष्य तथा अन्तः साक्ष्यों की खोज एवं दोनों साक्ष्यों का मिलान कर सच्चाई को परखा गया और जो निष्कर्ष निकल कर आए उसी को आधार बनाकर इस ग्रंथ का ताना बाना बुना गया। खरनाल, सुरसुरा, पनेर, अठ्यासन, त्योद को महत्वपूर्ण केंद्र माना गया। बलिदान की घटना की जानकारी शहर पनेरसुरसुरा की धरती को है। बलिदान पूर्व की अधिकतर घटनाओं की अधिक जानकारी खरनालत्योद की धरती को है।



    मंडावरिया पर्वत की तलहटी स्थित रण संग्राम स्थल के देवले


    [पृष्ठ-34]: हरिद्वार के तीर्थ पुरोहित मेघराज हंसराज की बही में लिखे तथ्यों की जानकारी हेतु 24.12.2012 को उनके वंशज नरेश कुमार गोविन्दराज से भी मिला। गोविन्दराज ने मुझे धोलिया जाटों की बही बड़े प्रेम से दिखाई, किन्तु बही की शुरूआत ही विक्रम संवत 1806 से है। इससे पहले की बही के लिए सौरों घाट जाने का परामर्श दिया।
    श्रुति परंपरा के अंतर्गत शिलालेख, देवले, तेजाजी से संबन्धित ऐतिहासिक स्थल, पुरातात्विक व भौगोलिक साक्ष्य, विभिन्न ऐतिहासिक ग्रंथ, राव भाट की पौथियों को जुटाने के साथ-साथ श्रुति-परंपरा को मुख्य आधार माना गया है।

    [पृष्ठ-37]: बींजाराम जोशी द्वारा रचे गए तेजाजी के लोकगीत के बोलों का तेजाजी के ऐतिहासिक संदर्भों तथा तथा भौगोलिक स्थलों के साथ मिलान कर परीक्षण किया गया तो आश्चर्य चकित रह गए। लोकगीत के बोलों में कई स्थलों पर रत्ती भर भी हेर-फेर नहीं पाया गया है।
    तेजाजी गणराज्य शासक व्यवस्था में कुँवर अर्थात राजकुमार के पद पर प्रतिष्ठित थे। फिर माता उन्हें वर्षा होने पर हल जोतने का क्यों कहती है? ऐतिहासिक संदर्भों की खोज से पता चला कि उस जमाने में गणतन्त्र पद्धति के शासक सर्वप्रथम वर्षा होने पर हल जोतने का दस्तूर किया करते थे तथा शासक वर्ग स्वयं के हाथ का कमाया खाता था। बुद्ध के शासक पिता का तथा राजा जनक के हल जोतने के ऐतिहासिक प्रमाण हैं।
    सूतो कांई सुख भर नींद कुँवर तेजारे । हल जोत्यो कर दे तूँ खाबड़ खेत में
    जब तेजा कहता है कि यह काम तो हाली ही कर देगा, तब माता टोकती है कि-
    हाली का बीज्या निपजै मोठ ग्वार कुँवर तेजारे। थारा तो बीज्योड़ा मोती निपजै
    इतिहास की खोज में पाया गया कि खेती करने की पद्धति तथा बीजों की खोज महाराज पृथु ने की थी। किन्तु तेजाजी ने कृषि की नई विधियों का आविष्कार किया था। इसी लिए तेजाजी को कृषि का उपकारक देवता माना जाता है।
    तेजाजी माता से मालूम करते हैं कि मोठ, ग्वार, ज्वार, बाजरी किन किन खेतों में बीजना है तब माता कहती है –
    डेहरियां में बीजो थे मोठ ग्वार कुँवर तेजारे। बाजरियो बीजो थे खाबड़ खेत मैं।
    गीत में आए बोलों की सच्चाई जानने के लिए जब मैं तेजाजी की जन्म भूमि खरनाल पहुंचा और वहाँ के निवासियों खाबड़ खेत के बारे में पूछा तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। आज भी खाबड़ खेत खरनाल में मौजूद है।

    [पृष्ठ-38]: वह गैण तालाब जहां तेजाजी के बैल पानी पीते थे वह खरनाल से पूर्व दिशा में इनाणा तथा मूण्डवा के बीच आज भी विद्यमान है।
    हरियो हरियो घास चरज्यो म्हारा बैल्यां । पानी तो पीज्यो थे गैण तालाब को
    जब तेजाजी ससुराल जाने की तैयारी करते हैं तब नागौर जिले में तेजा गायन करने वाले गायक लोग एक बोल बोलते हैं कि तेजाजी ससुराल जाने के लिए खरनाल के धुवा तालाब की पाल स्थित बड़कों की छतरी में बैठकर श्रंगार किया।
    बेहद करयो बणाव कुँवर तेजा रे। बड़कों की छतरियाँ में बांधी पागड़ी
    तेजाजी के वीरगति स्थल सुरसुरा इलाका के तेजा गायक बड़कों की छतरियाँ वाले बोल को नदी पार करने की स्थिति में बोलते हैं। मैंने जब खोज खबर की कि इस बोल का बड़कों वाला शब्द दोनों परिस्थितियों में क्यों आता है तो पता चला कि जब तेजाजी नदी पार करते हैं तब बणाव अस्त व्यस्त हो जाता है।

    [पृष्ठ-39]: अतः नदी पर करने के बाद पूर्वजों की छतरी में बैठकर तेजाजी अपनी पाग को पुनः सँवारते हैं। आश्चर्य-युक्त प्रमाण यह है कि ये दोनों छतरियाँ खरनालशहर पनेर के पास आज भी मौजूद है। शहर पनेर की छतरी इतनी पुरानी लगती है कि उनके पत्थरों पर लिखे अक्षर भी घिस गए हैं।
    तुम मेरी बार चढ़ो रे तेजा। गायां तो लेग्या रे मीणा चांग का ।।
    खूब खोज खबर करने पर अजमेर जिले के ब्यावर शहर से 10 किमी पश्चिम में करणाजी की डांग में यह चांग मिला। वहाँ के सरपंच कालू भाई काठात ने बताया कि उनके अजयसर अजमेर निवासी राव मोहनदादा की बही से भी इस बात की पुष्टि होती है कि उस जमाने में चांग में चीता वंशी मेर-मीणा रहते थे।
    लोकगाथा से पता चलता है कि तेजाजी की माता ने नाग पूजा की थी। तत्कालीन त्योद के पास वन में वह नाग की बांबी आज भी मौजूद है, अब वहाँ पर तेजाजी की देवगति स्थल समाधि धाम सुरसुरा गाँव आबाद है। बांबी नाड़ा की पाल पर थी। सुरसुरा में तेजाजी मंदिर का प्रांगण जमीन के धरातल से नीचे बने ताल के रूप में नाड़ा होने के प्रमाण आज भी विद्यमान हैं।
    Laxman Burdak

  4. #3
    तेजाजी का समकालीन इतिहास


    [पृष्ठ-43]: श्री वीर तेजाजी के इतिहास को सही माने में समझने के लिए उनकी समकालीन तथा आगे-पीछे की धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा ऐतिहासिक परिस्थितियों को समझना अति आवश्यक है। उस समय की परिस्थितियों में जाए बिना हम तेजाजी के इतिहास को सम्यकरूप से नहीं समझ सकते हैं।

    लोग जोधपुर व जोधपुर के राजदरबार एवं स्थानीय ठाकुरों के संदर्भ तथा उनकी राजनीतिक व्यवस्थाओं से जोड़कर तेजाजी के इतिहास को अनुमान के चश्मों से देखने की कोशिश करेते हैं। ठीक इसी प्रकार शहर पनेर के इतिहास को किशनगढ़ राजदरबार की व्यवस्थाओं से जोड़कर देखते हैं।

    तेजाजी के बलिदान (1103 ई.) के 356 वर्ष बाद, राव जोधा ने जोधपुर की स्थापना की थी। किशनगढ़ की स्थापना 506 वर्ष बाद (1609 ई.) हुई। तेजाजी के समय तक राजस्थान में राठौड राजवंश का उदय नहीं हुआ था।

    ईसा की 13वीं शताब्दी के मध्य (1243 ई.) नें उत्तर प्रदेश के कन्नौज से जयचंद राठोड का पौता रावसिहा ने नाडोल (पाली) क्षेत्र में आकर राठोड वंश की नींव डाली थी । राजस्थान में राठोड़ के मूल शासक रावसीहा की 8वीं पीढ़ी बाद के शासक राव जोधा ने 1459 ई. में जोधपुर की स्थापना की थी। इसके पूर्व राव जोधा के दादा राव चुंडा ने 1384-1428 ई. के बीच जोधपुर के पास प्रतिहारों की राजधानी मंडोर पर आधिपत्य जमा लिया था।

    किशनगढ़ की स्थापना राव जोधा की 6 ठवीं पीढ़ी बाद के शासक उदय सिंह के पुत्र किशनसिंह ने 1609 ई. में की थी। उन्हें यह किशनगढ़ अपने जीजा बादशाह जहांगीर द्वारा अपने भांजे खुर्रम (शाहजहां) के जन्म के उपलक्ष में उपहार स्वरूप मिला था।

    [पृष्ठ-44]:तेजाजी का ससुराल शहर पनेर एवं वीरगति धाम सुरसुरा दोनों गाँव वर्तमान व्यवस्था के अनुसार किशनगढ़ तहसील में स्थित है। किशनगढ़ अजमेर जिले की एक तहसील है, जो अजमेर से 27 किमी दूर पूर्व दिशा में राष्ट्रिय राजमार्ग 8 पर बसा है। प्रशासनिक कार्य किशनगढ़ से होता है और कृषि उत्पादन एवं मार्बल की मंडी मदनगंज के नाम से लगती है। आज ये दोनों कस्बे एकाकार होकर एक बड़े नगर का रूप ले चुके हैं। इसे मदनगंज-किशनगढ़ के नाम से पुकारा जाता है।

    तेजाजी की वीरगति स्थल समाधि धाम सुरसुरा किशनगढ़ से 16 किमी दूर उत्तर दिशा में हनुमानगढ़ मेगा हाईवे पर पड़ता है। शहर पनेर भी किशनगढ़ से 32 किमी दूर उत्तर दिशा में पड़ता है। अब यह केवल पनेर के नाम से पुकारा जाता है। पनेर मेगा हाईवे से 5 किमी उत्तर में नावां सिटी जाने वाले सड़क पर है।

    रियासत काल में कुछ वर्ष तक किशनगढ़ की राजधानी रूपनगर रहा था, जो पनेर से 7-8 किमी दक्षिण-पूर्व दिशा में पड़ता है।

    [पृष्ठ-45]: जहा पहले बबेरा नामक गाँव था तथा महाभारत काल में बहबलपुर के नाम से पुकारा जाता था। अब यह रूपनगढ तहसील बनने जा रहा है।

    तेजाजी के जमाने (1074-1103 ई.) में राव महेशजी के पुत्र राव रायमलजी मुहता के अधीन यहाँ एक गणराज्य आबाद था, जो शहर पनेर के नाम से प्रसिद्ध था। उस जमाने के गणराज्यों की केंद्रीय सत्ता नागवंश की अग्निवंशी चौहान शाखा के नरपति गोविन्ददेव तृतीय (1053 ई.) के हाथ थी। तब गोविंददेव की राजधानी अहिछत्रपुर (नागौर) से शाकंभरी (सांभर) हो चुकी थी तथा बाद में अजयपाल के समय (1108-1132 ई.) चौहनों की राजधानी अजमेर स्थानांतरित हो गई थी। रूपनगढ़ क्षेत्र के गांवों में दर्जनों शिलालेख आज भी मौजूद हैं, जिन पर लिखा है विक्रम संवत 1086 गोविंददेव

    Last edited by lrburdak; December 21st, 2016 at 08:54 AM.
    Laxman Burdak

  5. #4

    तेजाजी का समकालीन इतिहास (जारी)

    [पृष्ठ-46]: किशनगढ़ के स्थान पर पहले सेठोलाव नामक नगर बसा था। जिसके भग्नावशेष तथा सेठोलाव के भैरुजी एवं बहुत पुरानी बावड़ी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में आज भी मौजूद है। सेठोलाव गणराज्य के शासक नुवाद गोत्री जाट हुआ करते थे। ऐसा संकेत राव-भाटों की पोथियों व परम्पराओं में मिलता है। अकबर के समय यहाँ के विगत शासक जाट वंशी राव दूधाजी थे। गून्दोलाव झीलहमीर तालाब का निर्माण करवाने वाले शासक का नाम गून्दलराव था। यह शब्द अपभ्रंस होकर गून्दोलाव हो गया। हम्मीर राव ने हमीरिया तालाब का निर्माण करवाया था। सेठोजी राव ने सेठोलाव नगर की स्थापना की थी।

    पुराने शासकों की पहचान को खत्म करने के लिए राजपूत शासकों द्वारा पूर्व के गांवों के नाम बदले गए थे। राठौड़ शासक किशनसिंह ने सेठोलाव का नाम बदलकर कृष्णगढ़ रख दिया। राव जोधा ने मंडोर का नाम बदलकर जोधपुर रख दिया। बीका ने रातीघाटी का नाम बदलकर बीकानेर रखा था। रूप सिंह ने गाँव बबेरा का नाम बदलकर रूपनगर रख दिया। शेखावतों ने नेहरा जाटों की नेहरावाटी का नाम बदलकर शेखावाटी कर दिया। गून्दोलाव का नाम नहीं बादला जा सका क्योंकि यह लोगों की जबान पर चढ़ गया था।

    मुस्लिम शासन की जड़ें काफी पहले जम चुकी थी। किशनगढ़, श्रीनगर, भीनाय, केकड़ी के चौहान तथा परमार वंशीय मूल शासक स्वाभिमान के चलते अपना राज-काज गंवा चुके थे। तब दो ही विकल्प थे – मुस्लिम बनो या फिर मरो। अतः 1200 ई. से 1500 ई. के बीच बड़ी संख्या में मूल शासकों ने अपना राज-काज छोडकर जाट-गुर्जर, माली, कुम्हार, सुथार, सुनार, मेघवाल आदि जातियों में शामिल हो गए। क्योंकि वे अपने स्वाभिमान से समझौता नहीं कर सकते थे और न ही अपनी बहिन बेटियाँ मुस्लिम शासकों को दे सकते थे।

    इस सिलसिले में गुजरात से आए सोलंकियों के वंशज गुर्जर गिर नस्ल की गायें गुजरात से यहाँ लाये थे। इन सभी 36 क़ौमों की चौहान, पँवार, सोलंकी, पड़िहार, गहलोत, भाटी, दहिया, खींची, सांखला आदि नखें व गोत्र इनके क्षत्रिय होने तथा उनकी समान उत्पत्ति को प्रमाणित करती हैं। कुछ मूल निवासी राज-काज का मोह नहीं त्याग सके, व मुसलमान बन गए। उनके गोत्र तथा नख अपने हिन्दू भाईयों के समान चौहान, पँवार, सोलंकी, पड़िहार, गहलोत, भाटी, दहिया, खींची, सांखला आदि हैं।


    [पृष्ठ-47]: 1192 ई. में पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद मोहम्मद गौरी की जीत के साथ ही यहाँ मुस्लिम शासन की नींव पड़ चुकी थी। अजमेर तथा किशनगढ़ भी जाट वंशी शासकों व चौहानों के हाथ से निकालकर मुस्लिम सत्ता के अधीन हो चुके थे। यहाँ के शासक अलग-अलग जतियों में मिलकर अलग-अलग कार्य करने लगे। इसमें खास बात यह थी कि चौहान आदि शासक तथा इनकी किसान, गोपालक, मजदूर आदि शासित जातियाँ एक ही मूल वंश , नागवंश की शाखाओं से संबन्धित थी।अतः किसान आदि जतियों में शामिल होने में इन्हें कोई दिक्कत पेश नहीं आई।

    बाद में यह क्षेत्र मुगल शासक अकबर (1556 ई.) के अधिकार में आ गया था। 1572 ई. में मेवाड़ को छोड़कर पूरा राजस्थान अकबर के अधिकार में आ गया था।

    राव जोधा के 6 पीढ़ी बाद के वंशज उदय सिंह का नोवें नंबर का बेटा किशनसिंह राजनैतिक कारणों से जोधपुर छोडकर अकबर के पास चला गया। किशनसिंह की बहिन जोधाबाई जो अकबर के पुत्र सलीम को ब्याही थी, उसके पुत्र शाहजहाँ के जन्म की खुशी में किशन सिंह को श्रीनगर-सेठोलाव की जागीर उपहार में दी गई। जहां किशन सिंह ने 1609 ई. में किशनगढ़ बसाकर उसे राजधानी बनाया। बाद में किशन सिंह का जीजा सलीम जहाँगीर के नाम से दिल्ली का बादशाह बना, तब किशन सिंह ने अपने राज को 210 गांवों तक फैला दिया। पहले उसको हिंडोन का राज दिया था, किन्तु किशन सिंह ने मारवाड़ के नजदीक सेठोलाव की जगह पसंद आई। कुछ इतिहासकारों का यह लिखना सही नहीं है कि किशनसिंह ने यह क्षेत्र युद्ध में जीता था। उस समय किशनगढ़ और अजमेर बादशाह अकबर के अधीन था अतः किसी से जीतने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता।

    औरंगजेब की नजर किशनगढ़ की रूपवान राजकुमारी चारुमति पर थी। वह हर हालत में उसे पाना चाहता था। रूपमती को यह मंजूर नहीं था। किशनगढ़ जैसी छोटी रियासत औरंगजेब का सामना नहीं कर सकती थी।

    [पृष्ठ-48]:यह रास्ता निकाला गया कि चारुमति ने मेवाड़ के राणा राजसिंह (1658-1680 ई.) को पत्र लिख कर गुहार की कि मेरी इज्जत बचायें, मेरे साथ विवाह कर मुझे मेवाड़ ले चले। राणा राजसिंह ने प्रस्ताव स्वीकार किया। चारुमति तो बचगई परंतु उसकी बहिन का विवाह औरंगजेब के पुत्र मुअज्जम के साथ कर दिया गया (बक़ौल रोचक राजस्थान)
    रूपमती के पिता रूपसिंह (1658-1706 ई.) ने बाबेरा नामक गाँव को रूपनगर (रूपनगढ़) का नाम देकर किशनगढ़ की राजधानी बनाया। इस वंश के सांवत सिंह (1748-1757 ई.) प्रसिद्ध कृष्ण भक्त हुये। वह नागरीदास कहलाए। नागरीदास के मित्र निहालचंद ने प्रसिद्ध बनी-ठणी चित्र बनाया।
    इस वंश का अंतिम शासक महाराजा सुमेरसिंह था जिनकी 16.2.1971 को गोली मारकर हत्या करदी थी। गोली मारने वाला किशनगढ़ के नजदीक परासिया गाँव का भीवा नामक जाट था। स्वतन्त्रता के बाद महाराजा सुमेरसिंह के पुत्र बृजराज सिंह हुये जिनको कुछ समय तक प्रीविपर्स प्राप्त होता रहा।
    Last edited by lrburdak; December 21st, 2016 at 08:56 AM.
    Laxman Burdak

  6. #5
    तेजाजी का समकालीन इतिहास (जारी)

    जनमानस में यह आम धारणा बैठाई गई है कि कछावा और राठौड़ ही आदि से अंत तक मरुधरा (मारवाड़) के शासक रहे हैं। इस संदर्भ में मरुधरा के शासकों का कालक्रम जानना आवश्यक है जो निम्नानुसार रहा है:

    • 1. मरुतगण (वैदिककाल के शासक), जिनके नाम पर यह क्षेत्र मरुतधारा या मारवाड़ कहलाया।















    9. प्रजातांत्रिक व्यवस्था (1950 से अबतक)
    Laxman Burdak

  7. #6
    तेजाजी के पूर्वज

    [पृष्ठ-62] : रामायण काल में तेजाजी के पूर्वज मध्यभारत के खिलचीपुर के क्षेत्र में रहते थे। कहते हैं कि जब राम वनवास पर थे तब लक्ष्मण ने तेजाजी के पूर्वजों के खेत से तिल खाये थे। बाद में राजनैतिक कारणों से तेजाजी के पूर्वज खिलचीपुर छोडकर पहले गोहद आए वहाँ से धौलपुर आए थे। तेजाजी के वंश में सातवीं पीढ़ी में तथा तेजाजी से पहले 15वीं पीढ़ी में धवल पाल हुये थे। उन्हीं के नाम पर धौलिया गोत्र चला। श्वेतनाग ही धोलानाग थे। धोलपुर में भाईयों की आपसी लड़ाई के कारण धोलपुर छोडकर नागाणा के जायल क्षेत्र में आ बसे।

    [पृष्ठ-63]: तेजाजी के छठी पीढ़ी पहले के पूर्वज उदयराज का जायलों के साथ युद्ध हो गया, जिसमें उदयराज की जीत तथा जायलों की हार हुई। युद्ध से उपजे इस बैर के कारण जायल वाले आज भी तेजाजी के प्रति दुर्भावना रखते हैं। फिर वे जायल से जोधपुर-नागौर की सीमा स्थित धौली डेह (करणु) में जाकर बस गए। धौलिया गोत्र के कारण उस डेह (पानी का आश्रय) का नाम धौली डेह पड़ा। यह घटना विक्रम संवत 1021 (964 ई.) के पहले की है। विक्रम संवत 1021 (964 ई.) में उदयराज ने खरनाल पर अधिकार कर लिया और इसे अपनी राजधानी बनाया। 24 गांवों के खरनाल गणराज्य का क्षेत्रफल काफी विस्तृत था। तब खरनाल का नाम करनाल था, जो उच्चारण भेद के कारण खरनाल हो गया। उपर्युक्त मध्य भारत खिलचीपुर, गोहद, धौलपुर, नागाणा, जायल, धौली डेह, खरनाल आदि से संबन्धित सम्पूर्ण तथ्य प्राचीन इतिहास में विद्यमान होने के साथ ही डेगाना निवासी धौलिया गोत्र के बही-भाट श्री भैरूराम भाट की पौथी में भी लिखे हुये हैं।
    Laxman Burdak

  8. #7
    तेजाजी के पूर्वज और जायल

    जायल खींचियों का मूल केंद्र है। उन्होने यहाँ 1000 वर्ष तक राज किया। नाडोल के चौहान शासक आसराज (1110-1122 ई.) के पुत्र माणक राव (खींचवाल) खींची शाखा के प्रवर्तक माने जाते हैं। तेजाजी के विषय में जिस गून्दल राव एवं खाटू की सोहबदे जोहियानी की कहानी नैणसी री ख्यात के हवाले से तकरीबन 200 वर्ष बाद में पैदा हुआ था।

    [पृष्ठ-158]: जायल के रामसिंह खींची के पास उपलब्ध खींचियों की वंशावली के अनुसार उनकी पीढ़ियों का क्रम इस प्रकार है- 1. माणकराव, 2. अजयराव, 3. चन्द्र राव, 4. लाखणराव, 5. गोविंदराव, 6. रामदेव राव, 7. मानराव 8. गून्दलराव, 9. सोमेश्वर राव, 10. लाखन राव, 11. लालसिंह राव, 12. लक्ष्मी चंद राव 13. भोम चंद राव, 14. बेंण राव, 15. जोधराज

    गून्दल राव पृथ्वी राज के समकालीन थे।

    यहाँ जायल क्षेत्र में काला गोत्री जाटों के 27 खेड़ा (गाँव) थे। यह कालानाग वंश के असित नाग के वंशज थे। यह काला जयलों के नाम से भी पुकारे जाते थे। यह प्राचीन काल से यहाँ बसे हुये थे।
    तेजाजी के पूर्वज राजनैतिक कारणों से मध्य भारत (मालवा) के खिलचिपुर से आकर यहाँ जायल के थली इलाके के खारिया खाबड़ के पास बस गए थे। तेजाजी के पूर्वज भी नागवंश की श्वेतनाग शाखा के वंशज थे। मध्य भारत में इनके कुल पाँच राज्य थे- 1. खिलचिपुर, 2. राघौगढ़, 3. धरणावद, 4. गढ़किला और 5. खेरागढ़

    राजनैतिक कारणों से इन धौलियों से पहले बसे कालाओं के एक कबीले के साथ तेजाजी के पूर्वजों का झगड़ा हो गया। इसमें जीत धौलिया जाटों की हुई। किन्तु यहाँ के मूल निवासी काला (जायलों) से खटपट जारी रही। इस कारण तेजाजी के पूर्वजों ने जायल क्षेत्र छोड़ दिया और दक्षिण पश्चिम ओसियां क्षेत्र व नागौर की सीमा क्षेत्र के धोली डेह (करनू) में आ बसे। यह क्षेत्र भी इनको रास नहीं आया। अतः तेजाजी के पूर्वज उदय राज (विक्रम संवत 1021) ने खरनाल के खोजा तथा खोखर से यह इलाका छीनकर अपना गणराज्य कायम किया तथा खरनाल को अपनी राजधानी बनाया। पहले इस जगह का नाम करनाल था। यह तेजाजी के वंशजों के बही भाट भैरू राम डेगाना की बही में लिखा है।

    तेजाजी के पूर्वजों की लड़ाई में काला लोगों की बड़ी संख्या में हानि हुई थी। इस कारण इन दोनों गोत्रों में पीढ़ी दर पीढ़ी दुश्मनी कायम हो गई। इस दुश्मनी के परिणाम स्वरूप जायलों (कालों) ने तेजाजी के इतिहास को बिगाड़ने के लिए जायल के खींची से संबन्धित ऊल-जलूल कहानियाँ गढ़कर प्रचारित करा दी । जिस गून्दल राव खींची के संबंध में यह कहानी गढ़ी गई उनसे संबन्धित तथ्य तथा समय तेजाजी के समय एवं तथ्यों का ऐतिहासिक दृष्टि से ऊपर बताए अनुसार मेल नहीं बैठता है।
    बाद में 1350 ई. एवं 1450 ई. में बिड़ियासर जाटों के साथ भी कालों का युद्ध हुआ था। जिसमें कालों के 27 खेड़ा (गाँव) उजाड़ गए। यह युद्ध खियाला गाँव के पास हुआ था।

    [पृष्ठ-159]: यहाँ पर इस युद्ध में शहीद हुये बीड़ियासारों के भी देवले मौजूद हैं। कंवरसीजी के तालाब के पास कंवरसीजी बीड़ियासर का देवला मौजूद है। इस देवले पर विक्रम संवत 1350 खुदा हुआ है। अब यहाँ मंदिर बना दिया है। तेजाजी के एक पूर्वज का नाम भी कंवरसी (कामराज) था।

    लोक गाथाओं व जन मान्यताओं में तेजाजी के पिता का नाम बक्साजी बताया जाता है लेकिन तेजाजी के पूर्वजों के वंशज धौलिया जाटों की बही रखने वाले डेगाना निवासी भैरूराम भाट की पौथी से इस तथ्य की पुष्टि नहीं होती है। पौथी में तेजाजी के पिता का नाम ताहड़ देव (थिर राज) लिखा हुआ है। वहाँ तेजाजी के पूर्वजों की 21 पीढ़ी तक की वंशावली दी गई है। उस पौथी में ताहड़ देव आदि सात भाईयों के नाम भी लिखे हैं। उनमें ताहड़ देव सबसे बड़े हैं। वहाँ तेजाजी के ताऊ का बक्साजी कोई नाम नहीं है, जैसा कुछ लेखकों ने लिखा है।
    काफी खौज खबर के बाद पता चला कि तेजाजी के दादा बोहित राज जी ही बोल चाल में बक्साजी के नाम से लोकप्रिय थे। भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी बोहित जी तथा बक्सा जी मेल खाते हैं। तेजाजी के दादा बोहितराज जी ने अपने जीतेजी सर्वाधिक योग्य होने के कारण खरनाल गणराज्य के आमजन की सहमति से गणपत का पद तेजाजी के पिता ताहड़ देव को दिया था।

    तेजाजी के पिता ताहड़ देव की म्रत्यु 50-55 वर्ष की आयु में हो गई थी। इसलिए परिवार की एवं गणराज्य की ज़िम्मेदारी बोहितराज के कंधों पर आ गई थी। भाईयों में सबसे छोटे होने के बावजूद भी योग्यता के आधार पर युवराज पद का भार तेजपाल के कंधों पर डाला गया। परिवार की संरक्षक की भूमिका में होने के कारण लोक गाथाओं तथा जन मान्यताओं में तेजाजी के पिता के रूप में बोहितराज (बक्साजी) नाम प्रचलित हो गया था।
    Laxman Burdak

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