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Thread: History of Tejaji : The folk deity of Rajasthan

  1. #21
    बहिन के ससुराल में तेजाजी

    भाभी फिर कहती है कि पहली बार ससुराल को आने वाली अपनी दुल्हन पेमल का ‘बधावा’ यानी स्वागत करने वाली अपनी बहन राजल को तो पहले पीहर लेकर आओ। तेजाजी का ब्याह बचपन में ही पुष्कर में पनेर गाँव के मुखिया रायमल की बेटी पेमल के साथ हो चुका था। विवाह के कुछ समय बाद दोनों परिवारों में खून-खराबा हुआ था। तेजाजी को पता ही नहीं था कि बचपन में उनका विवाह हो चुका था। भाभी की तानाकशी से हकीकत सामने आई है।


    जब तेजाजी अपनी बहन राजल को लिवाने उसकी ससुराल के गाँव तबीजी के रास्ते में थे, तो एक मीणा सरदार ने उन पर हमला किया। जोरदार लड़ाई हुई। तेजाजी जीत गए। तेजाजी द्वारा गाडा गया भाला जमीन में से कोई नहीं निकाल पाया और सभी दुश्मन भाग गए. तबीजी पहुँचे और अपने बहनोई जोगाजी सियाग के घर का पता पनिहारियों से पूछा. उनके घर पधार कर उनकी अनुमति से राजल को खरनाल ले आए।
    Laxman Burdak

  2. #22
    तेजाजी का पनेर प्रस्थान

    तेजाजी अपनी माँ से ससुराल पनेर जाने की अनुमति माँगते हैं। माँ को अनहोनी दिखती है और तेजा को ससुराल जाने से मना करती है। भाभी कहती है कि पंडित से मुहूर्त निकलवालो। पंडित तेजा के घर आकर पतड़ा देख कर बताता है कि उसको सफ़ेद देवली दिखाई दे रही है जो सहादत की प्रतीक है। सावन व भादवा माह अशुभ हैं। पंडित ने तेजा को दो माह रुकने की सलाह दी। तेजा ने कहा कि तीज से पहले मुझे पनेर जाना है चाहे धन-दान ब्रह्मण को देना पड़े। वे कहते हैं कि जंगल के शेर को कहीं जाने के लिए मुहूर्त निकलवाने की जरुरत नहीं है। तेजा ने जाने का निर्णय लिया और माँ-भाभी से विदाई ली।


    अगली सुबह वे अपनी लीलण नामक घोड़ी पर सवार हुए और अपनी पत्नी पेमल को लिवाने निकल पड़े। जोग-संयोगों के मुताबिक तेजा को लकडियों से भरा गाड़ा मिला, कुंवारी कन्या रोती मिली, छाणा चुगती लुगाई ने छींक मारी, बिलाई रास्ता काट गई, कोचरी दाहिने बोली, मोर कुर्लाने लगे। ये शुभ संकेत नहीं माने जाते। परंतु तेजा अन्धविसवासी नहीं थे. तेजा बोले जंगली जीव अपनी प्रकृति के अनुसार बोलते हैं। सो चलते रहे।
    बरसात का मौसम था। कितने ही उफान खाते नदी-नाले पार किये. सांय काल होते-होते वर्षात ने जोर पकडा. रस्ते में पनेर नदी उफान पर थी. ज्यों ही उतार हुआ तेजाजी ने लीलण को नदी पार करने को कहा जो तैर कर दूसरे किनारे लग गई। तेजाजी बारह कोस अर्थात 36 किमी का चक्कर लगा कर अपनी ससुराल पनेर आ पहुँचे।
    Laxman Burdak

  3. #23
    Quote Originally Posted by lrburdak View Post
    तेजाजी का हळसौतिया

    ज्येष्ठ मास लग चुका है। ज्येष्ठ मास में ही ऋतु की प्रथम वर्षा हो चुकी है। ज्येष्ठ मास की वर्षा अत्यन्त शुभ है। गाँव के मुखिया को ‘हालोतिया’या हळसौतिया करके बुवाई की शुरुआत करनी है। उस काल में परंपरा थी की वर्षात होने पर गण या कबीले के गणपति सर्वप्रथम खेत में हल जोतने की शुरुआत करता था, तत्पश्चात किसान हल जोतते थे। गणराज्यों के काल में हलजोत्या की शुरुआत गणपति द्वारा किए जाने की व्यवस्था अति प्राचीन थी। ऐतिहासिक संदर्भों की खोज से पता चला कि उस जमाने में गणतन्त्र पद्धति के शासक सर्वप्रथम वर्षा होने पर हल जोतने का दस्तूर (हळसौतिया) स्वयं किया करते थे तथा शासक वर्ग स्वयं के हाथ का कमाया खाता था। राजा जनक के हल जोतने के ऐतिहासिक प्रमाण सर्वज्ञात हैं, क्योंकि सीता उनको हल जोतते समय उमरा (सीता) में मिली थी इसीलिए नाम सीता पड़ा ।

    मैंने कहीं पढ़ा है कि सीता शब्द का अर्थ है - हल चलाने पर जमीन पर पड़ती हुई लकीर जिसे स्थानीय भाषा में हम खूड कहते हैं। जिस दिन राजा जनक ने हल जोड़ा, उसी दिन उनके घर में एक कन्या पैदा हुई। फिर सब घर वाले कहने लगे कि यह कन्या तो बड़े शुभ अवसर पर पैदा हुई है, ऐसा लगता है जैसे यह हल जोतते समय जमीन से ही निकली है। और लाड-प्यार से सब उस कन्या को सीता (हल की लकीर) कहने लगे और उसका यही नाम पड़ गया।

    महारानी सीता का धरती से पैदा होना और धरती में ही समा जाने वाली कथायें मिथ्या और पौराणिक कहानियां प्रतीत होती हैं।
    तमसो मा ज्योतिर्गमय

  4. #24
    तेजापथ: खरनाल से पनेर


    खरनलl से सुरसुरा का मानचित्र


    संत श्री कान्हाराम लिखते हैं कि..... [पृष्ठ-224]: सारे जहां के मना करने के बावजूद - शूर न पूछे टिप्पणो, शुगन न पूछे शूर, मरणा नूं मंगल गिणै, समर चढ़े मुख नूर।।



    तेजापथ: खरनाल - पनेर


    यह वाणी बोलकर तेजाजी अपनी जन्म भूमि खरनाल से भादवा सुदी सप्तमी बुधवार विक्रम संवत 1160 तदनुसार 25 अगस्त 1103 ई. को अपनी ससुराल शहर पनेर के लिए प्रस्थान किया। वह रूट जिससे तेजा खरनाल से प्रस्थान कर पनेर पहुंचे यहाँ तेजा पथ से संबोधित किया गया है।


    तेजा पथ के गाँव : खरनाल - परारा (परासरा)- बीठवाल - सोलियाणा - मूंडवा - भदाणा - जूंजाळा - कुचेरा - लूणसरा (लुणेरा) (रतवासा) - भावला - चरड़वास - कामण - हबचर - नूंद - मिदियान - अलतवा - हरनावां - भादवा - मोकलघाटा - शहर पनेर..इन गांवो का तेजाजी से आज भी अटूट संबंध है।

    [पृष्ठ-225]:खरनाल से परारा, बीठवाल, सोलियाणा की सर जमीन को पवित्र करते हुये मूंडवा पहुंचे। वहाँ से भदाणा होते हुये जूंजाला आए। जूंजाला में तेजाजी ने कुलगुरु गुसाईंजी को प्रणाम कर शिव मंदिर में माथा टेका। फिर कुचेरा की उत्तर दिशा की भूमि को पवित्र करते हुये लूणसरा (लूणेरा) की धरती पर तेजाजी के शुभ चरण पड़े।

    [पृष्ठ-226]: तब तक संध्या हो चुकी थी। तेजाजी ने धरती माता को प्रणाम किया एक छोटे से तालाब की पाल पर संध्या उपासना की। गाँव वासियों ने तेजाजी की आवभगत की।


    खरनाल से पनेर के रास्ते में तेजाजी का विश्रामस्थल लूणसरा


    इसी तेजा पथ के अंतर्गत यह लूणसरा गांव मौजूद है।
    जन्मस्थली खरनाल से 60 किमी पूर्व में यह गांव जायल तहसिल में अवस्थित है।ससुराल जाते वक्त तेजाजी महाराज व लीलण के शुभ चरणों ने इस गांव को धन्य किया था। गांव वासियों के निवेदन पर तेजाजी महाराज ने यहां रतवासा किया था। आज भी ग्रामवासी दृढ़ मान्यता से इस बात को स्वीकारते हैं। उस समय यह गांव अभी के स्थान से दक्षिण दिशा में बसा हुआ था।
    उस जमाने में यहां डूडीछरंग जाटगौत्रों का रहवास था। मगर किन्हीं कारणों से ये दोनों गौत्रे अब इस गांव में आबाद नहीं है। फिलहाल इस गांव में सभी कृषक जातियों का निवास है। यहाँ जाट, राजपूत, ब्राह्मण, मेघवाल, रेगर, तैली, कुम्हार, लोहार, सुनार, दर्जी, रायका, गुर्जर, नाथ, गुसाईं, हरिजन, सिपाही, आदि जातियाँ निवास करती हैं। गांव में लगभग 1500 घर है।
    नगवाडिया, जाखड़, सारण गौत्र के जाट यहां निवासित है।
    ऐसी मान्यता है कि पुराना गांव नाथजी के श्राप से उजड़ गया था।



    तेजाजी मंदिर लूणसरा


    [पृष्ठ-227]: पुराने गांव के पास 140 कुएं थे जो अब जमींदोज हो गये हैं। उस जगह को अब 'सर' बोलते है। एक बार आयी बाढ से इनमें से कुछ कुएं निकले भी थे।...सन् 2003 में इस गांव में एक अनोखी घटना घटी। अकाल राहत के तहत यहां तालाब खौदा जा रहा था। जहां एक पुराना चबूतरा जमीन से निकला। वहीं पास की झाड़ी से एक नागदेवता निकला, जिसके सिर पर विचित्र रचना थी। नागदेवता ने तालाब में जाकर स्नान किया और उस चबूतरे पर आकर बैठ गया। ऐसा 2-4 दिन लगातार होता रहा। उसके बाद गांववालों ने मिलकर यहां भव्य तेजाजी मंदिर बनवाया। प्राण प्रतिष्ठा के समय रात्रि जागरण में भी बिना किसी को नुकसान पहुंचाये नाग देवता घूमते रहे। इस चमत्कारिक घटना के पश्चात तेजा दशमी को यहां भव्य मेला लगने लग गया। वह नाग देवता अभी भी कभी कभार दर्शन देते हैं।उक्त चमत्कारिक घटना तेजाजी महाराज का इस गांव से संबंध प्रगाढ़ करती है। गांव गांव का बच्चा इस ऐतिहासिक जानकारी की समझ रखता है कि ससुराल जाते वक्त तेजाजी महाराज ने गांववालों के आग्रह पर यहां रात्री-विश्राम किया था। पहले यहां छौटा सा थान हुआ करता था। बाद में गांववालों ने मिलकर भव्य मंदिर का निर्माण करवाया।
    Laxman Burdak

  5. #25
    लूणसरा से आगे प्रस्थान - प्रातः तेजाजी के दल ने उठकर दैनिक क्रिया से निवृत होकर मुंह अंधेरे लूणसरा से आगे प्रस्थान किया। रास्ते में भावला - चरड़वास - कामण - हबचर - नूंद होते हुये मिदियान पहुंचे। मिदियान में जलपान किया। लीलण को पानी पिलाया। अलतवा होते हुये हरनावां पहुंचे। वहाँ से भादवा आए और आगे शहर पनेर के लिए रवाना हुये।


    परबतसर के पश्चिम की पहाड़ियों का

    पनेर नदी पार करते हुये तेजाजी


    मोकल घाट


    नदी ने रोका रास्ताभादवा से निकलने के साथ ही घनघोर बारिस आरंभ हो गई। भादवा से पूर्व व परबतसर से पश्चिम मांडण - मालास की अरावली पर्वत श्रेणियों से नाले निकल कर मोकल घाटी में आकर नदी का रूप धारण कर लिया। इस नदी घाटी ने तेजा का रास्ता रोक लिया।
    तेजा इस नदी घाटी की दक्षिण छोर पर पानी उतरने का इंतजार करने लगे। उत्तर की तरफ करमा कूड़ी की घाटी पड़ती है। उस घाटी में नदी उफान पर थी। यह नदी परबतसर से खरिया तालाब में आकर मिलती है। लेकिन तेजाजी इस करमा कूड़ी घाटी से दक्षिण की ओर मोकल घाटी के दक्षिण छोर पर थे। उत्तर में करमा कूड़ी घाटी की तरफ मोकल घाटी की नदी उफान पर

    [पृष्ठ-228]: थी अतः किसी भी सूरत में करमा कूड़ी की घाटी की ओर नहीं जा सकते थे। दक्षिण की तरफ करीब 10 किमी तक अरावली की श्रेणियों के चक्कर लगाकर जाने पर रोहिण्डीकी घाटी पड़ती है। किन्तु उधर भी उफनते नाले बह रहे थे। अतः पर्वत चिपका हुआ लीलण के साथ तैरता-डूबता हुआ नदी पार करने लगा। वह सही सलामत नदी पर करने में सफल रहे। वर्तमान पनेर के पश्चिम में तथा तत्कालीन पनेर के दक्षिण में बड़कों की छतरी में आकर नदी तैरते हुये अस्त-व्यस्त पाग (साफा) को तेजा ने पुनः संवारा।
    Laxman Burdak

  6. #26
    तेजाजी का पनेर आगमन और पेमल से मिलन


    बड़कों की छतरी पनेर


    तेजाजी का पनेर आगमन - [पृष्ठ-229]: शाम का वक्त था। गढ़ पनेर के दरवाजे बंद हो चुके थे। कुंवर तेजाजी जब पनेर के कांकड़ पहुंचे तो एक सुन्दर सा बाग़ दिखाई दिया। बड़कों की छतरी और शहर पनेर के बीच यह रायमल जी मेहता का बाग था। तेजाजी भीगे हुए थे, रास्ते चलने के कारण थक भी गए थे। तेजाजी ने रात्री विश्राम यहीं करने का निश्चय किया, क्योंकि गढ़ पनेर के दरवाजे बंद हो चुके थे और चारों तरफ परकोटा बना था। बाग़ के दरवाजे पर माली से दरवाजा खोलने का निवेदन किया। माली ने कहा बाग़ की चाबी पेमल के पास है, मैं उनकी अनुमति बिना दरवाजा नहीं खोल सकता। कुंवर तेजा ने माली को अपना परिचय दिया, मेरा नाम तेजा, कुल जाट, गोत्र धौल्या और रायमल जी का पावणा। परिचय प्राप्ति के बाद माली ने ताला खोल दिया। रातभर तेजा ने बाग़ में विश्राम किया और लीलण ने बाग़ में घूम-घूम कर पेड़-पौधों को तोड़ डाला।

    [पृष्ठ-230]: बाग़ के माली ने पेमल को परदेशी के बारे में और घोडी द्वारा किये नुकशान के बारे में बताया। पेमल की भाभी बाग़ में आकर पूछती है कि परदेशी कौन है, कहाँ से आया है और कहाँ जायेगा। तेजा ने परिचय दिया कि वह खरनाल का जाट है और रायमल जी के घर जाना है। पेमल की भाभी माफ़ी मांगती है और बताती है कि वह उनकी छोटी सालेली है। सालेली (साले की पत्नि) ने पनेर पहुँच कर पेमल को खबर दी। पेमल अपनी भाभियों के साथ स्वयं पनघट पर पानी भरने गई क्योंकि तेजाजी पनघट के रास्ते ही पनेर में प्रवेश करेंगे।

    [पृष्ठ-231]: तेजाजी पनघट पर - कुंवर तेजाजी बाग से पनेर के लिए रवाना हुये। रास्ते में पनघट पड़ता है। पनिहारियाँ सुन्दर घोडी पर सुन्दर जवाई को देखकर हर्षित हुई। तेजा ने रायमलजी का घर का रास्ता पूछा। पनिहारिन पहले से ही तैयार थी। उन्होने तेजाजी को पानी पीने की मनुहार कर संकेत में आभाष करा दिया कि पेमल हमारे बीच में है। इन्हें आप पहचानिए। उसके बाद उन्हें रायमलजी का घर का रास्ता बता दिया।
    सूरज सामी पोलि है नणदोई म्हारो जी।
    कैल झबूके रायमलजी रै बारणै॥
    सूर्यास्त होने वाला था। तेजाजी ने पोलि में प्रवेश कर रायमल जी और साले से रामजुहार किया। उनकी सास गाएँ दूह रही थी। तेजाजी का घोड़ा उनको लेकर धड़धड़ाते हुए पिरोल में आ घुसा था । सास ने उन्हें पहचाना नहीं। वह अपनी गायों के डर जाने से उन पर इतनी क्रोधित हुई कि सीधा शाप ही दे डाला, ‘जा, तुझे काला साँप खाए!’ तेजाजी उसके शाप से इतने क्षुब्ध हुए कि बिना पेमल को साथ लिए ही लौट पड़े। तेजाजी ने कहा यह नुगरों की धरती है, यहाँ एक पल भी रहना पाप है।
    तेजाजी का पेमल से मिलन: [पृष्ठ-232]:अपने पति को वापस मुड़ते देख पेमल को झटका लगा। पेमल ने पिता और भाइयों से इशारा किया कि वे तेजाजी को रोकें। श्वसुर और साला तेजाजी को रोकते हैं पर वे मानते नहीं हैं। वे घर से बाहर निकल आते हैं।

    [पृष्ठ-233]: पेमल की सहेली थी लाछां गूजरी। वह शहर पनेर के दक्षिण पूर्व की ओर रंगबाड़ी के बास (मोहल्ला) में रहती थी। उसने पेमल को तेजाजी से मिलवाने का यत्न किया। वह ऊँटनी पर सवार हुई और रास्ते में मीणा सरदारों से लड़ती-जूझती तेजाजी तक जा पहुँची। लाछा ने लीलण की लगाम पकड़ली। उन्हें पेमल का सन्देश दिया। अगर उसे छोड़ कर गए, तो वह जहर खा कर मर जाएगी। उसके मां-बाप उसकी शादी किसी और के साथ तय कर चुके हैं। लाछां बताती है, पेमल तो मरने ही वाली थी, वही उसे तेजाजी से मिलाने का वचन दे कर रोक आई है। लाछां के समझाने पर भी तेजा पर कोई असर नहीं हुआ। पेमल अपनी माँ को खरी खोटी सुनाती है। पेमल कलपती हुई आई और लीलण के सामने खड़ी हो गई। पेमल ने कहा - आपके इंतजार में मैंने इतने वर्ष निकाले। मेरे साथ घर वालों ने कैसा वर्ताव किया यह मैं ही जानती हूँ। आज आप चले गए तो मेरा क्या होगा। मुझे भी अपने साथ ले चलो। मैं आपके चरणों में अपना जीवन न्यौछावर कर दूँगी।
    पेमल की व्यथा देखकर तेजाजी वापस मुड़ गए। आगे आगे लाछा तथा पीछे पीछे तेजाजी चलने लगे। पेमल ने राहत की सांस ली। वे लाछा की रंगबाड़ी के लिए चल पड़े।

    [पृष्ठ-234]: लाछा ने तेजाजी और साथियों को भोजन के लिए आमंत्रित किया। विश्राम के लिए तेजाजी मैड़ी में पधारे। लाछा ने तेजा के साथियों के रुकने की व्यवस्था की। नंदू गुर्जर साथियों से बातें करने लगे। सभी ने पेमल के पति को सराहा। देर रात तक औरतों ने जंवाई गीत गाए। पेमल की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था। तेजाजी पेमल से मिले। अत्यन्त रूपवती थी पेमल। दोनों बतरस में डूबे थे कि लाछां की आहट सुनाई दी।
    Laxman Burdak

  7. #27
    शहर पनेर


    पनेर शहर -











    तेजाजी मंदिर, पनेर


    संत श्री कान्हाराम[28] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-235]: शहर पनेर तेजाजी का ससुराल है। यह गाँव वर्तमान में राजस्थान के अजमेर जिले की किशनगढ़ तहसील में स्थित है। यह किशनगढ़ से 30-32 किमी उत्तर दिशा में है। तेजाजी के वीरगति स्थल सुरसुरा से 15-16 किमी उत्तर-पश्चिम दिशा में है। जिला मुख्यालय अजमेर से उत्तर पूर्व दिशा में 60 किमी दूर है। नागौर जिले के परबतसर से सिर्फ 4 किमी दक्षिण पूर्व में है।
    आज राजस्व रिकॉर्ड में सिर्फ पनेर है परंतु तेजाजी के इतिहास में यह शहर पनेर नाम से सुप्रसिद्ध था। यह गाँव तेजाजी के जन्म से बहुत पहले ही बसा हुआ था। प्राचीन समय में वर्तमान पनेर से पश्चिम दिशा में बसा हुआ था। तेजाजी के समय में यह वर्तमान पनेर से 1 किमी उत्तर में पहाड़ियों की तलहटी में बसा हुआ था। यहाँ के राख़-ठीकरे आदि इसके प्रमाण हैं।

    [पृष्ठ-236]: शहर पनेर गणतन्त्र के शासक रायमल जी मुहता, झाँझर गोत्र के जाट थे, जिनके पिता का नाम राव महेशजी था। रायमल जी मुहता तेजाजी के श्वसुर थे। तेजाजी की सास का नाम बोदल दे था, जो काला गोत्र के जाट की पुत्री थी। तेजाजी की पत्नी का नाम पेमल था। पेमल बड़ी सती सतवंती थी। बचपन में शादी हो जाने के बावजूद 29 वर्ष तक तेजाजी का इंतजार करती रही। पेमल के भाई और भाभी के नाम मालूम नहीं हैं।
    शहर पनेर से करीब 2 किमी पूर्व की ओर रंगबाड़ी के बास में पेमल की सहेली प्रसिद्ध लाछा गुजरी रहती थी।

    [पृष्ठ-237]:लाछा के पति का नाम नंदू गुर्जर था। लाछा चौहान गोत्र की गुर्जर थी। लाछा के पति नंदू तंवर गोत्र के गुर्जर थे। लाछा के पास बहुत सी गायें थी।
    तेजाजी के ससुराल पक्ष वाले झाँझर गोत्र के जाट अब इस गाँव में नहीं रहते हैं। सती पेमल के श्राप के कारण झाँझर कुनबा इस गाँव से उजड़ गया। अब रायमल जी मुहता के वंशज झांजर गोत्र के जाट भीलवाडा के आस-पास कहीं रहते हैं। झाँझर के भाट से भी मुलाकात नहीं हो सकी। झाँझर यहाँ से चले गए परंतु उनके द्वारा खुदाया गया तालाब उन्हीं की गोत्र पर झांझोलाव नाम से प्रसिद्ध है। यह तालाब आज भी मौजूद है। झांझरों के किसी पूर्वज शासक का नाम झांझो राव जी था। उन्हीं के नाम पर इस तालाब का नाम झांझोलाव प्रसिद्ध हुआ। लाव शब्द का राव अपभ्रंश है।
    वर्तमान गाँव के पश्चिम में रायमलजी की पुत्री पेमल का बाग व बावड़ी बताया जाता है। यह अब काल के गाल में समा गया है। तेजाजी का मंदिर पुराने गाँव के स्थान पर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि तेजाजी की ये मूर्तियाँ उनके श्वसुर के परिण्डे में स्थापित थी। तेजाजी के इस मंदिर के पुजारी पहले रामकरण और रामदेव कुम्हार थे, परंतु अब मेहराम जाजड़ा गोत्र के जाट इसके पुजारी हैं।

    [पृष्ठ-238]: उस जमाने में तेजाजी के श्वसुर रायमल जी मुहता यहाँ के गणपति थे। शहर पनेर उनके गणराज्य की राजधानी थी। यहाँ के निकटवृति गाँव थल, सीणगारा, रघुनाथपुरा, बाल्यास का टीबा रूपनगढ, जूणदा गांवों के शिलालेख के आधार पर स्पषट है कि यहाँ की केंद्रीय सत्ता चौहान शासक गोविन्दराज या गोविंद देव तृतीय के हाथों में थी। उस समय चौहनों की राजधानी अहिछत्रपुर (नागौर) से शाकंभरी (सांभर) स्थानांतरित हो गई थी। ग्राम थल के उत्तर-पश्चिम में स्थित शिलालेख पर विक्रम संवत 1086 (1029 ई.) व गोविन्दराज स्पष्ट पढ़ा जा सकता है। पनेर के दक्षिण पूर्व में स्थित रूपनगढ कस्बा उस समय बाबेरा नाम से प्रसिद्ध था। बाद में यह पनेर गाँव लंगाओं के अधिकार में आ गया था।
    वर्तमान पनेर शहर के पश्चिम में गुसाईंजी का बागड़ा है एवं गांवाई नाड़ी पर एक प्राचीन छतरी विद्यमान है। जिसके पत्थरों पर लिखे अक्षरों सहित पत्थर घिस गए हैं। यह वही छतरी है जिसके विषय में तेजाजी के लोकगीत में आता है कि बड़कों की छतरी में बांधी पगड़ी अर्थात जब तेजाजी ने नदी पार किया तो उनका श्रंगार पगड़ी आदि अस्त-व्यस्त हो गए थे। तेजाजी ने पुनः अपना बनाव किया था तथा इसी छत्री में अपना पैचा (पगड़ी) संवारा था।
    पनेर की दक्षिण पश्चिमी पहाड़ियाँ व उत्तर पश्चिम की पहाड़ियाँ की पश्चिमी ढलान से तथा परबतसर के पश्चिम में स्थित मांडणमालास गाँव के पहाड़ों से निकलकर नदी खेतों में फैलकर बहती है जो परबतसर के खारिया तालाब के व बंधा के पास दक्षिण से होकर चादर से निकल कर पनेर के दक्षिण से होकर पूर्व की ओर निकल जाती है। ये वही नदी घाटियां हैं जिसने तेजाजी का रास्ता रोका था। लीलण ने तिरछी दिशा में आड़ की तरह तैरते हुये नदी पार किया था तथा तेजा ने जलकुंड मांछला की तरह। यह नदी आज भी अपनी पूर्व स्थिति में मौजूद है।
    इस गाँव के इतिहास पुरुष भैरूजी देवन्दा एक प्रसिद्ध नाम है जिसे बादके शासकों द्वारा ताम्रपत्र प्रदान कर गायों को चराने के लिए गौचर भूमि प्रदान की थी।

    [पृष्ठ-239]:उस जमाने में भैरू जी देवन्दा ऐसी शख्सियत थी कि परबतसर के मेलों में जाने वाले यात्रियों को भोजन पानी की व्यवस्था तथा बैल-बछड़ों के लिए चारे की व्यवस्था स्वयं के खर्च से करते थे। भैरूजी देवन्दा के पिताजी पिथा जी ने तेजाजी के मंदिर में देवली स्थापित की थी। इसी गाँव के छीतरमल ढेल संस्कृत शिक्षा के विशेषज्ञ हैं तथा इंका शिक्षा जगत में बड़ा नाम है।
    वर्तमान पनेर गाँव में लगभग 650 घर आबाद हैं जिनमे जाट, देशवाली (पडियार, सोलंकी) कायमखनी (चौहान) लंगा, साईं , फकीर, लुहार, राजपूत, रेगर, बलाई, बावरी, कुम्हार, ब्राह्मण, वैष्णव, गाड़ोलिया लुहार, बनिया, नाई, खाती, दर्जी, हरिजन, आदि जातियाँ निवास करती हैं।
    सती पेमल के शाप के कारण ढोली, माली, गुर्जर व झाँझर गोत्र के जाट इस गाँव में नहीं फलते-फूलते हैं।
    तत्समय पनेर के निवासियों ने तेजाजी का साथ नहीं दिया था परंतु आज के सभी पनेर निवासी तेजाजी में बड़ी आस्था रखते हैं।
    Laxman Burdak

  8. #28
    गायों के लिए मीणों से तेजाजी का युद्ध


    मंडावरिया पर्वत की तलहटी स्थित रण संग्राम स्थल




    तेजाजी की मीणो पर विजय का स्थान, तोलामाल




    मंडावरिया पर्वत की तलहटी स्थित रण संग्राम स्थल के देवले




    समर दौरान झाड़ी में टिका लीलण का घुटना




    उजड़े हुए चांग गांव के चिन्ह - ठीकरे




    उजड़े हुए चांग गांव का मेर मीणा का बाड़ा


    संत श्री कान्हाराम ने लिखा है कि लाछां गुजरी की गायों का अपहरण मीणों द्वारा कर लिया गया। गायें छुड़ाने के लिए मीणों से तेजाजी का युद्ध हुआ जिसका विवरण निम्नानुसार है:

    मीणों द्वारा गायों का हरण - [पृष्ठ-240]: लाछा, पेमल, तेजाजी की सुख-दुख की बातें खत्म ही नहीं हुई थी कि अपने हरकारे का शोर सुनकर लाछा दौड़कर जाती है। हरकारे ने बताया कि बाड़े से चांग के मीणा गायें हरण कर ले गए हैं। लाछां गुजरी ने तेजाजी को बताया कि मीणा चोर उसकी गायों को चुरा कर ले गए हैं। तेजाजी ने कहा लाछा गाँव के जागीरदार रायमल जी को सूचना कर लारू, ताल, ढ़ोल बजवा। गाँव में आवाज लगवा। सबके साथ मैं भी गायों को छुड़ाकर लाता हूँ। तुम चिंता मत करो। लाछा शहर पनेर के गणपति रायमलजी मुहता के पास जाती है और फरियाद सुनाती है। रायमल जी ने बहाना बनाया। लाछा ढोली के पास जाकर ढ़ोल बजाने के लिए कहती है कि तुम बारहवाँ थाप बजाकर गाँव को सचेत करो। फिर वह गाँव के उन लोगों के पास गई जो गाँव में आवाज लगाकर सूचना देते थे। तभी उसे पता लगा कि तेरी गाय पेमल की माँ के इशारे पर चांग के मीणा ले गए हैं। चांग के मीणा के बदमाश दल का मुखिया कालिया मीणा था, जो पेमल की माँ का धरम भाई था। पेमल की माँ ने ही सबको तेरी सहायता के लिए माना किया है ।

    लाछां गुजरी की तेजाजी से गुहार - लाछा ने आकर तेजाजी को सारी हकीकत बताई। अब उनके सिवाय उसका कोई मददगार नहीं। लाछां गुजरी ने तेजाजी से कहा कि आप मेरी सहायता कर अपने क्षत्रिय धर्म की रक्षा करो अन्यथा गायों के बछडे भूखे मर जायेंगे। तेजा ने कहा राजा व भौमिया को शिकायत करो। लाछां ने कहा राजा कहीं गया हुआ है और भौमिया से दुश्मनी है। तेजाजी ने कहा कि पनेर में एक भी मर्द नहीं है जो लड़ाई के लिए चढाई करे। तुम्हारी गायें मैं लाऊंगा।
    तेजाजी फिर अपनी लीलण घोड़ी पर सवार हुए। पंचों हथियार साथ लिए। लाछा व पेमल ने कहा कि आप अकेले 350 से युद्ध कैसे कर पाएंगे। गायें गई तो गई, फिर पाल लेंगे। पेमल ने घोडी की लगाम पकड़ कर कहा कि मैं साथ चलूंगी। लड़ाई में घोड़ी थाम लूंगी। तेजा ने कहा पेमल जिद मत करो। मैं क्षत्रिय धर्म का पालक हूँ। मैं अकेला ही मीणों को हराकर गायें वापिस ले आऊंगा।

    पेमल की विनती – [पृष्ठ-241]: पेमल ने कहा कि पतिदेव आप अकेले वो 350, अंधेरी काली रात है। बिजली चमक रही है और वर्षा हो रही है। आगे जंगल और पहाड़ है। क्या होगा? पेमल अन्दर ही अन्दर कांप भी रही थी और बुदबुदाने लगी -
    डूंगर पर डांडी नहीं, मेहां अँधेरी रात
    पग-पग कालो नाग, मति सिधारो नाथ
    अर्थात पहाड़ों पर रास्ता नहीं है, वर्षात की अँधेरी रात है और पग-पग पर काला नाग दुश्मन है ऐसी स्थिति में मत जाओ।

    तेजाजी धर्म के पक्के थे सो पेमल की बात नहीं मानी और पेमल से विदाई ली। तेजाजी ने कहा पेमल तू अब अपने पिता के घर लोट जा। तेजाजी के आदेश के सामने पेमल चुप हो गई। पेमल ने कहा मैं तेजा की अर्धांगिनी इतनी कायर दिल नहीं कि अपने पति के क्षत्रिय धर्म पालन में अड़ंगा लगाऊँ।
    Laxman Burdak

  9. #29

    गायों को छुड़ाने की तैयारी

    गायों को छुड़ाने की तैयारी - [पृष्ट-242]: तेजाजी कमर में ढाल-तलवार कसते हैं। कंधे पर धनुष धारण करते हैं। पीठ पर तूणीर बांधते हैं। पेमल ने तेजाजी को भाला सौंपा। तेजाजी लीलण पर जीन, लाला ऊबटा कसते हैं। केसरिया जामा पहनते हैं। सिर पर पचरंग पाग और और उस पर कलंग लगाते हैं। लीलण की पीठ पर सवार होते हैं। लाछा तिलक लगाती है। पेमल आरती उतारती है तथा जाने की आज्ञा प्रदान करती है।

    शूर न पूछे टिप्पणो, शुगन न पूछे शूर।
    मरणा नूं मंगल गिणै, समर चढ़े मुख नूर।।
    तेजाजी का गायें छुड़ाने हेतु प्रस्थान – तेजाजी घोर अंधेरी रात में गायें छुड़ाने चल पड़ते हैं। आसमानी बिजली की चमक के सहारे गायों के खुर चिन्हों को देखते हुये मीणों का पीछा करते हैं। वर्तमान सुरसुरा नामक स्थान पर उस समय घना जंगल था। वहां बासग नाग ने एक लीला रची। बासगनाग साँप के रूप में आग की चपेट में आ जाते हैं। नाग बचने के लिए छटपटा रहे थे। तेजाजी ने भाले की नोक से बासगनाग को अग्नि से बाहर निकाल दिया। बासगनाग क्रोधित हुये और कहा कि मैं मोक्ष गति को प्राप्त करने जा रहा था

    [पृष्ठ-243]:तेजा तूने मेरी मोक्ष गति को अड़ंगा लगाया। अतः मैं तुझे डसूँगा। तेजाजी ने विश्वास दिलाया कि मैं धर्म से बंधा हूँ। संकट में पड़े प्राणी को बचाना मेरा धर्म था। पर नाग नहीं माना। तेजा ने कहा मैं धर्म के कर्म से लाछा की गायें बचाने जा रहा हूँ। गायें लाने के पश्चात् वापस आऊंगा। मेरा वचन पूरा नहीं करुँ तो समझना मैंने मेरी माँ का दूध नहीं पिया है।
    नागराज ने कहा कि तेरी शाख कौन भरेगा? तेजाजी ने कहा इस जंगल में मेरी शाख चाँद, सूरज तथा खेजड़ी का वृक्ष भरेगा। तब नागराज ने अपना असली रूप प्रकट किया। तेजा ने नागराज को प्रणाम किया और कहा कि गौमाता को छुड़ाकर जल्दी लौट रहा हूँ। नागराज ने प्रसन्न होकर तेजाजी को आशीर्वाद दिया और कहा तेजा तेरी जीत होगी।

    [पृष्ठ-244-248]: वहां से तेजाजी ने भाला, धनुष, तीर लेकर लीलण पर चढ़ कर चोरों का पीछा किया. सुरसुरा से 15-16 किमी दूर मंडावरिया की पहाडियों में मीणा दिखाई दिए। तेजाजी ने मीणों को ललकारा। तेजाजी ने बाणों से हमला किया। घनघोर लड़ाई छिड़ गई। तेजाजी मीणों के बीच पहुंचे। तेजाजी ने मुख्य शस्त्र बीजल सार भाला संभाला। भाले के एक-एक वार से सात-सात का कलेजा एक साथ छलनी होने लगा। यह अपने किस्म की अनोखी और अभूतपूर्व लड़ाई थी। एक तरफ 350 यौद्धा तो सामने केवल अकेले तेजाजी। भाले से मार-मार कर तेजा ने मीणों के छक्के छुड़ा दिये। मेर-मीणों में से बहुत संख्या में मारे गए तथा बचे लोग प्राण बचाकर भाग खड़े हुये। इस लड़ाई में तेजा के साथ केवल घोड़ी लीलण थी। लीलण ने भी अपनी टापों से मीणों के चिथड़े बिखेर दिये। कहते हैं कुछ देर में गौमाताएँ भी तेजा को पहचान गई, उन्होने भी सींगों से हमला शुरू कर दिया। मीने ढेर हो गए, कुछ भाग गए और कुछ मीणों ने आत्मसमर्पण कर दिया। तेजा का पूरा शारीर घायल हो गया और तेजा सारी गायों को लेकर पनेर पहुंचे और लाछां गूजरी को सौंप दी। लाछां गूजरी को सारी गायें दिखाई दी पर गायों के समूह के मालिक काणां केरडा नहीं दिखा। मीणा लोग उसे ले भागे थे। काणा केरडा उत्तम नागौरी नस्ल थी। काणां केरडा नहीं पाकर लाछा उदास हो गई। तेजा के लिए यह अपनी मूंछ का सवाल था। तेजाजी वापस गए।

    [पृष्ठ-248]: मंडावरीय की पहाड़ी की तलहटी के युद्ध स्थल से पनेर की दूरी 30-32 किमी पड़ती है। इतनी ही तेजा को वापस युद्ध स्थल पर जाने में हुई। अतः 50-60 किमी के अंतराल के कारण मेर-मीणा बछड़े को लेकर नरवर की घाटी से होकर वर्तमान पाली सीमांतर्गत ब्यावर से 10 किमी पश्चिम में पहाड़ियों में बसे अपने मूल गाँव चांग- चितार की ओर निकल गए। तेजा ने पद चिन्हों के द्वारा मीणों का पीछा करते हुये नरवर की घाटी में चलते हुये मीणा को लड़ने की चुनौती दी। मीणा ने बछड़े को ले जाने के लिए यहाँ एक रणनीति अपनाई। एक गुट तेजा से भीड़ गया एवं दूसरा गुट बछड़े को लेकर ईडदेव सोलंकी के भुवाल नगर के पास से होकर चांग- चितार की ओर निकल गया। नरवर की घाटी में भिड़े गुट का खात्मा कर आगे बढ़ा तो तेजा को जनता द्वारा पता चला कि मीणा मेर चांग- चितार गाँव के हैं और बछड़े को लेकर चांग के पास पहुँचने वाले होंगे। तेजा ने लीलण को तेज चलने का इसारा किया। चांग गाँव पहुँचने से पहले 1.5 किमी पहले ही तेजा ने मीणा को ललकार दिया। पहाड़ियों के बीच ऊबड़-खाबड़ स्थान एवं भयंकर जंगल में मीणा तथा तेजा के बीच फिर युद्ध छिड़ गया। मीणा का गाँव चांग नजदीक होने के कारण उनके वंश के कुछ और लोग मीणा की मदद के लिए आ गए। यहाँ पर ओर भी भयंकर लड़ाई हुई। इसमें एक-एक करके सारे मीणों के कलेजे तेजा के भाला ने छलनी कर दिये। घोड़ी की लगाम अपने दाँत से पकड़ी और एक हाथ में भाला तथा दूसरे हाथ में तलवार लेकर असंख्य मीणों को मार दिया। मीणों की भूमि में मीणों पर इस प्रकार की मार पड़ी कि वे थर्रा उठे। अपने प्राणों की भीख मांगते हुये बच कर भाग खड़े हुये। इस लड़ाई में तेजा अत्यधिक घायल हो गए। तेजा ने लीलण को इसारा किया। बछड़े को साथ लेकर तेजा उन्हीं खोजों वापस रंगबाड़ी पनेर आ गए।
    Last edited by lrburdak; January 23rd, 2017 at 10:03 PM.
    Laxman Burdak

  10. #30

    प्रथम समर भूमि चांग

    प्रथम समर भूमि चांग – नष्ट हो चुके इस चांग गाँव की भूमि तेजाजी और लाछां की गायें हरण करने वाले मेर-मीणों की समर भूमि है।

    [पृष्ट-249]: युद्ध स्थल की यह भूमि अजमेर की किशनगढ़ तहसील के गाँव मंडावरिया की पहाड़ी की उत्तर-पूर्वी तलहटी में स्थित है।
    मंडावरिया - यह मंडावरिया गाँव किशनगढ़ से से 3-4 किमी पूर्व में अजमेर-जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग-8 के उत्तरी दिशा में आबाद है। इस गाँव से सटकर पूर्व दिशा में करीब 2.5 किमी उत्तर-दक्षिण दिशा की तरफ फैली पहाड़ी है। पहाड़ी की चौड़ाई आधा किमी के लगभग है। इस पहाड़ी के पूर्व दिशा में लगभग 2.5 किमी की दूरी पर तोलामाल गाँव बसा है। उससे 2 किमी पूर्व चुंदड़ी गाँव बसा है। इस पहाड़ी की उत्तर दिशा में 2-3 किमी दूरी पर फलौदा गाँव है। तथा 6-7 किमी की दूरी पर तिलोनिया गाँव है। पहाड़ी के उत्तरी-पूर्वी छोर की तलहटी में पहाड़ी से लेकर करीब 4 किमी पूर्व तक तथा 2 किमी चौड़ाई में गायें छुड़ाने के लिए तेजाजी का मेर-मीणा लोगों के साथ मूसलाधार वर्षा तथा तूफानी काली रात में भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध के अवशेष यहाँ के चप्पे-चप्पे में विद्यमान हैं। पहाड़ी के उत्तरी-पूर्वी तलहटी के छोर के करीब 1 किमी नीचे सेवड़िया गोत्र के तेज़ूराम जाट का कुआ है जो तोलामाल गाँव की सीमा में पड़ता है। इस कुआ के इर्द-गिर्द इस युद्ध से संबन्धित हल्के लाल गुलाबी रंग के पत्थर के लड़ाई में मारे गए लोगों के देवले मौजूद है। गाँव के पुराने लोग बताते हैं कि वर्षों पहले यहाँ बहुत संख्या में मूर्तियाँ देवले थे परंतु आज की स्थिति में 3 देवले सही हालत में सुरक्षित बचे हुये हैं।



    मंडावरिया पर्वत की तलहटी स्थित रण संग्राम स्थल के देवले


    [पृष्ठ-250]: ग्रामीणों द्वारा ये देवले तोड़ दिये गए हैं जिनके कुछ अवशेष सरक्षित देवले के पास छोटे टीले में दबे पड़े हैं। बचे हुये देवलों के ऊपर देवनागरी लिपि में खुदाई की हुई है किन्तु पुराने और घिसे होने के कारण पढे नहीं जा सकते। आधे अधूरे अक्षर जो पढ़ने में आ रहे है वे इस प्रकार हैं – रण, पग, रण संग्राम ला, स, सा, बदी महिना, बा, घ, रा, 1048 अथवा 1040 जैसे अंक पढे जा सके हैं लेकिन तारतम्य नहीं बैठ पाया। हमारे खोजी दल ने उस स्थान पर तीन बार खोज की तब सेवड़िया परिवार ने बताया कि कुछ टूटी हुई मूर्तियाँ कुए की खुदाई में भी निकली हैं।


    समर दौरान झाड़ी में टिका लीलण का घुटना


    कुए से पूर्व दिशा में चूंदड़ी गाँव के पलटी में कैर की झाड़ी में एक तेजाजी का स्थान है। जिसके बारे में दृढ़ मान्यता है कि इस स्थान पर लड़ते हुये तेजाजी का घुटना टिका था जिसे संभाल कर लीलण ने वापस अपनी पीठ पर ले लिया था।
    पहाड़ी के नीचे पत्थरों का बना एक बाड़ा है जिनके अब अवशेष मात्र बचे हैं। उसे वहाँ के लोग मेर मीनों का बाड़ा कहते हैं।

    [पृष्ठ-251]: उस बाड़ा से नीचे उजड़े हुये गाँव के अवशेष रूप में मोटी-मोटी ठीकरियाँ व जमीन से राख़ निकलती है। श्रुति परंपरा के मर्मज्ञ भारमल जी चौधरी आदि का कहना है कि यही वह मीनों मेरों का चांग गाँव था जो तेजाजी की लड़ाई में नष्ट हो चुका था। इस चांग गाँव के अवशेष कुछ लंबाई चौड़ाई में फैले हैं। पहाड़ी में ऊपर की ओर मीनों का भैरू जी का स्थान है, जो अब उजड़ गया है।
    इस उजड़े हुये गाँव की तरफ से पहाड़ी पर चढ़ने पर पहाड़ी के अंदर की तरफ एक दर्रा दिखाई देता है जो इन गायों को हरण कर छिपाने के लिए काफी उपयोगी रहता था। पहाड़ी की पश्चिम दिशा में थोड़ा उत्तर दिशा की ओर बढ़कर जरूर इस दर्रे का रास्ता खुलता है लेकिन पूर्व की ओर देखने में यह दर्रा काफी बीहड़ और दिलचस्प दिखाई देता है। हमने तेजाजी के युद्ध संबंधी अवशेषों को ढूँढने के लिए इस पूरे युद्ध क्षेत्र का एवं पहाड़ी क्षेत्र का चप्पा-चप्पा ढूंढा है। यहाँ पर यह गाँव पशुधन हरण हेतु स्थाईरूप से बसा रखा था। मूल चांग गाँव पाली जिले के करणा जी की डांग में था।

    गायें छुड़ाकर पनेर प्रस्थान – [पृष्ठ-251]: झगड़ा जीतकर तेजाजी गायों को लेकर चले। गायें तेजाजी को चारों ओर से घेरकर चलने लगी। पनेर शहर पहुँच कर रंग बाड़ी बास में तेजाजी ने लाछा को एक-एक गाय संभलाई।
    गिण गिण गाय संभालो लाछा गुर्जर ए ।
    दूधड़लो पिलाओ बालक बाछड़ां॥
    गायें संभलाने के दौरान लाछा से पता चलता है कि गायों का मांझी काणा केरड़ा, जो सूरज की छाप वाला सांड बनने वाला था उसे मीणा ले गए हैं। इस सांड के बिना दुधारू और सुंदर स्वस्थ गायों की नस्ल समाप्त हो जाएगी। काणा केरड़ा न आने से तेजाजी ने इसे अपना अधूरा धर्म पालन समझा। तेजाजी के लिए नाक का सवाल भी पैदा हो गया। तेजाजी को अपनी यह जीत जीत खंडित सी लगी। तेजा ने कहा मुझे तो वैसे ही अब अपने लोक जाना है क्योंकि मेरा समय पूरा हो गया है। बासगनाग को वचन दे आया हूँ तो धर्म का काम अधूरा क्यों छोड़ूँ। केरडा को छुड़ाकर लाना ही होगा। तेजाजी ने लीलण को वापस उसी दिशा में मोड दी जिस दिशा में मीणा लोग भागे थे।
    Laxman Burdak

  11. #31

    नरवर घाटी – [पृष्ठ-253]: तेजाजी ने मीणों का पीछा किया। गायों को लेकर तेजाजी 30-32 किमी दूर पनेर तक आए। और इतनी ही दूर तक वापस आए तब तक मीणा टेढ़ी-मेढ़ी चाल चलते हुये नरवर की घाटी तक पहुँच गए थे । अब बारिस रुक चुकी थी। सुबह का समय हो गया था। वर्षा से गीली मिट्टी में गायों के पद चिन्ह के आधार पर नरवर घाटी तक तेजाजी पहुँच गए। वहाँ के प्रत्यक्ष दर्शी लोगों ने बताया कि मीणा नरवर घाटी पार करने वाले हैं। तेजाजी की घोड़ी लीलण हवा की तरह उड़ती थी। तेजाजी ने नरवर घाटी में मीणों को जा ललकारा। यहाँ मीणों ने एक चालाकी अपनाई। शेष बचे मीणों में से आधे तेजाजी से लुका-छिपी, झपट्टामार संघर्ष करने लगे तथा आधे केरडा को लेकर चांग की तरफ निकल लिए। घाटी स्थित सारे मीणों को परास्त करने के बाद तेजाजी पद चिन्हों के आधार पर आगे बढ़े।

    चांग के लीलाखुर न्हालसा में केरडा हेतु लड़ाई - मीणा केरडा को चांग के पलसे तक ले भागने में सफल हो गए। चांग गाँव से करीब 1.5 किमी उत्तर की तरफ ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी मंगरे में जिस स्थान का नाम नीलाखुर न्हालसा (लीलण के खुर का नाला, वहाँ चट्टानों पर लीलण के खुरों के चिन्ह बने हुये हैं। वहाँ झरना भी फूटता है। उस जगह को वहाँ के लोग पवित्र मानते हैं। झरने में स्त्रियाँ अपने पैर तथा कपड़े नहीं धोती है) वहाँ मीणों के साथ तेजाजी की दूसरी लड़ाई होती है। मीणों का चांग गाँव निकट होने से वे भी लड़ाई में शामिल हो जाते हैं। अब मीणों की संख्या 750 हो जाती है।
    लीलण हवा से बातें करती है। तेजाजी का बीजल सार भाला, बिजली की गति से मीणों पर वार करता है। यहाँ भी मीणों की हार होती है। मरे सो मरे बाकी सिर पर पैर रख कर भाग जाते हैं। तेजाजी के भालों की गति तथा भलकार के कारण 750 की संख्या होने के बावजूद तेजाजी के निकट नहीं फटक पाते हैं किन्तु बाणों की बोछार करके तेजाजी को अत्यधिक घायल कर देते हैं।
    Laxman Burdak

  12. #32

    द्वितीय समर भूमि चांग-चितार जिला पाली


    मीणों का मूल गाँव चांग



    नीला खुर न्हालसा (लीलण के खुर का नाल)

    द्वितीय समर भूमि चांग-चितार जिला पाली
    – [पृष्ठ-254]: यह चांग गाँव ब्यावर से 10 किमी पश्चिम में पहाड़ियों के बीच स्थित है। ब्यावर में चांग गेट का नाम इसी गाँव के नाम पर पड़ा है। यह गाँव 1500-2000 वर्ष पुराना है। गाँव के सरपंच कालूभाई काठात व सुवाभाई काठात, शकूर काठात व बीरदा भाई काठात के अनुसार सर्वप्रथम यहाँ चंगेला गुर्जर जाति रहती थी। इसलिए इस गाँव का नाम चांग पड़ा। आज से करीब 1300 वर्ष पहले मीणा जाति के लोगों ने गुर्जरों को यहाँ से मार भगाया और स्वयं यहाँ बस गए। आज से 700 वर्ष पहले यहाँ मेहरात आकार बस गए और मीणों को मार भगाया। सरपंच कालूभाई ने बताया कि अजमेर के फ़ाईसागर रोड स्थित अजयसर निवासी मोहनदादा भाट की पोथी में उक्त बातें लिखी हैं। मेरा जी के नाम से मेहरात जाति बनी। मेरा जी यानि मेरू (मेर, पहाड़ियाँ के निवासी) मेरा जी के काठाजी, गोड़ा जी दो लड़के थे। वैसे काठाजी व गोड़ा जी उनकी पदवी थी। काठाजी का मूल नाम हर राज था व गौड़ाजी का मूल नाम बलराज था। काठाजी की औलाद काठात कहलाई व गौड़ा जी की औलाद गौड़ा कहलाई। ऐतिहासिक कारणों से काठात हिन्दू व मुस्लिम दोनों में पाए जाते हैं। मूलतः ये चौहान वंशी हैं। मेर अब रावत कहलाने लगे। चौहान नाडोल से आकर इस इलाके में बस गए। पहले पूरा मगरा गुर्जरों का था। यह चांग गाँव सात राजस्व गवों की पंचायत है। पंचायत में करीब 1500 घर हैं। अकेले चांग गाँव में 200 घर आबाद हैं। 150 काठात 10 रावत 10 साईं व भाट , बनिया, सरगरा, कुम्हार, साईं, जांगिड़, मेर, मेहरात जाति के हैं।


    [पृष्ठ-255]: मेर, मेहरात जाति की मूल राजधानी दिवेर थी जो इस समय राजसमंद जिले में पड़ता है। यह मेर जाति कभी भी किसी के अधीन नहीं रही थी। यह चांग गाँव पाली के रायपुर तहसील में पड़ता है जो रायपुर से 40 किमी दूर स्थित है। चांग गाँव से उत्तर की ओर करीब 1.5 किमी पहाड़ियों के बीच तेजाजी और मीणा के बेच भिड़ंत हुई थी। ग्राम वासियों ने उस जगह का नाम नीलखुर न्हालसा बताया जिसका अर्थ है लीलण के खुर का नाला। वहाँ एक चट्टान पर लीलण के खुर के निशान हैं। ऐसा गाँव के लोग मानते हैं। इस स्थान पर पानी का झरना बहता है लोग इसको पवित्र मानती हैं और औरतें यहाँ पैर या कपड़े नहीं धोती हैं। तेजाजी भी चौहान वंशी होने के कारण यहाँ के काठात लोग तेजाजी में गहरी आस्था रखते हैं। सुवाभाई काठात तेजाजी व देवनारायन की सेवा करता है। नीलाखुर न्हालसा का स्थान हमें पड़ौसी गाँव सालकोट के बिरदा भाई काठात ने हमारे साथ जाकर दिखाया।

    [पृष्ठ-256]: काफी खोज खबर के बाद तेजाजी की मीणों के साथ हुई लड़ाई के स्थानों की भौगोलिक स्थिति के आधार पर पता चला कि तेजाजी की लड़ाई चीता वंशी मेर मीणों के साथ हुई थी।

    पृष्ठ-257]: आज से सौ वर्ष पूर्व लिखी गई रमेश चंद्र गुणार्थी की पुस्तक 'राजस्थानी जतियों की खोज' में उन्होने तेजाजी के साथ मेरों की लड़ाई बताई है। मेर मीणा एक ही हैं। “मेरवाड़ा के मेर और मीणा “ नामक पुस्तक के लेखक डॉ. प्रह्लाद मीणा दौसा के अनुसार लाछा की गायें हरण करने वाले लोग चांग के चीता वंशी मेर मीणा थे।


    डॉ. प्रह्लाद मीणा ने चीता वंशी मेर मीणा की वंशावली बताई है : पृथ्वीराज चौहान से कई पीढ़ी पहले कोई अन्य पृथ्वीराज तथा प्रतिपथ नामक दो भाई थे। पृथ्वीराज के जोधा लाखन हुये, जोधा लाखन के अनल और अनूप हुये। अनूप की उपाधि बरड़ हुई तथा अनल की उपाधि चीता थी। अनल की 11 वीं पीढ़ी में बलराज चीता हुये, उनके खेता राणा तथा बरगा राणा दो पुत्र हुये। खेता राणा के 24 पुत्र हुये। भीमा, रामा, काला, जेता, घरू, नगीय आदि।


    बलराज चीता चांग का रहने वाला था। बेराठगढ़ के शासक महेंद्र भील की पुत्री सखण दे का विवाह बलराज चीता के साथ हुआ। पुत्री ने हथलेवा में बैराठगढ़ (बदनोर) मांग लिया। अतः बलराज चीता बैराठगढ़ का शासक हो गया। बलराज चीता के पुत्र खेता राणा ने अपने पिता के जीवन काल में ही बगड़ी (पाली जिला) में राज्य स्थापित किया। इसका साक्षी बगड़ी के देवी मंदिर में लगे शिलालेख में मौजूद हैं, जिस पर विक्रम संवत 1020 (963 ई.) लिखा है। चांग भी एक रियासत थी।

    [पृष्ठ-258]:मीन, मेर, मीणा, मेव, भील सब मूल रूप से एक ही वंश से संबन्धित थे। शायद चांग के चीता मीणा अब मीणा वंश में नहीं हैं। वे अन्य वंशों में परिवर्तित हो गए। चीता, मेरात, काठात भी उस पुराने मेर वंश के वंशज हैं। इनके पूर्वज चौहान थे। मजेदार बात यह भी है कि तेजाजी, लाछा, मीणा, बालू नाग सभी नागवंशचौहान खाँप से सम्बद्ध थे।
    Laxman Burdak

  13. #33
    केरड़ा (बछड़ा) छुड़ाकर पुनः पनेर प्रस्थान

    तेजाजी युद्ध जीत कर बछड़े को लेकर नरवर की घाटी उसी रास्ते से पार करते हैं, जिस रास्ते से आए थे। परंतु आगे के रास्ते में थोड़ा बदलाव करते हुये सीधे पनेर की ओर चल पड़ते हैं। पनेर के नजदीक नुवा गाँव में बने तेजाजी के मंदिर के स्थान पर उस जमाने में एक कैर का पेड़ था। घायल तेजाजी ने कुछ देर के लिए उसी कैर के नीचे विश्राम किया था। वहाँ पर एक नुवाद गात्री जाट ग्वाले से उन्होने पानी पिया था। फिर तुरंत पनेर की ओर प्रस्थान कर गए। उस ग्वाला ने उसी कैर के नीचे तेजाजी की स्मृति में थान बना दिया था। उस स्थान के पास ही बाद में नुवा नामक ग्राम बसा। ग्राम वासियों ने थान के स्थान पर अब भव्य तेजाजी मंदिर का निर्माण करवा दिया है।


    पृष्ठ-259]: पनेर पहुँच कर केरडा लाछा को संभलाते हैं। लाछा तेजाजी के घावों पर मरहम पट्टी करना चाहती है। किन्तु तब तेजाजी लाछा को नागदेव की बाम्बी पर जाने तथा नागदेव के साथ हुये कोलवचन बाबत बताते हैं। लाछा ने तेजाजी को रोकने का अनुनय-विनय किया परंतु तेजाजी ने वचन की मर्यादा भंग न करने की कहकर नागदेव की बाम्बी चल पड़े। लाछा ने महसूस किया कि तेजाजी एक निर्मोही यौद्धा हैं।
    ओ थारो केरड़ो संभालो लाछां साली ए।
    गायां पर आंको अब सूरज साण्डड़ो।।
    Laxman Burdak

  14. #34
    लाछा व लाछा की रंगबाड़ी



    लाछा का भैरूजी


    [पृष्ठ-260]: लाछा पनेर के रंगबाड़ी बास में रहती थी। अब उस जगह का नाम रंगबाड़ी बांसड़ा है जो वर्तमान पनेर से 3 किमी पूर्व में पड़ता है। वहाँ रंगबाड़ी का कुवा पर लाछा द्वारा स्थापित रंगबाड़ी भैरूजी आज भी विद्यमान है। वहाँ खुदाई में पुराने गाँव के अवशेष मिलते हैं। लाछा चौहान गोत्र की गुर्जर थी। लाछा के पति नंदू गुर्जर क गोत्र तंवर था। नंदू गुर्जर सीधा सादा इंसान था। वहाँ की कर्ता-धर्ता लाछा ही थी। लाछा के नाम से ही सारा कार्य व्यवहार चलता था। लाछा के पास बड़ी संख्या में गायें थे और वह उस जमाने की प्रभावशाली महिला थी।

    [पृष्ठ-261]: रंगबाड़ीतेजाजी के जमाने में रंगबाड़ी शहर पनेर का एक बास था। यह स्थान वर्तमान पनेर से 2 किमी पूर्व में है। रूपनगढ़ कस्बे से 2-3 किमी उत्तर में स्थित है। इस रंगबाड़ी के स्थान से उत्तर में 3 किमी दूर जाजोता गाँव बसा है। उस समय रंगबाड़ी में लाछा अपने पति नंदू गुर्जर के साथ रहती थी। रंगबाड़ी के दक्षिण दिशा में 3 किमी दूरी पर उस समय सुरसुरा का जंगल पड़ता था। यहाँ पर एक सुंदर काबरिया पहाड़ी है। इस पहाड़ी के पूर्व में, जहां वर्तमान हनुमानगढ़ मेगा-हाईवे गुजरता है, के पास ही प्राचीन लाछा बावड़ी है। इस वन में लाछा की गायें चरने जाती थी। लाछा बावड़ी का निर्माण गायों के पानी के लिए करवाया था।

    [पृष्ठ-262]: उस समय यहाँ निर्जन वन था और यह बावड़ी पशु धन और राहगीरों के लिए पानी का एक मात्र साधन था। यह उस समय से ही लाछा बावड़ी के नाम से प्रसिद्ध हो गई थी। लाछा बावड़ी के पास भव्य छतरियाँ बनी हुई हैं। वहाँ एक शिलालेख पर खर्च का विवरण दिया है जिस पर लाछा का नाम भी लिखा है। शिलालेख लाछा कालीन नहीं लगता, वह बाद में किसी के द्वारा लगाया लगता है।
    तत्कालीन रंगबाड़ी के स्थान पर आज एक छोटा सा गाँव रंगबाड़ी बासड़ा आबाद है। यहाँ 50-60 घर हैं। यहाँ एक प्राचीन मंदिर है। इस गाँव के पास से नदी निकलती है। नदी के पूर्व दिशा में रंगबाड़ी का कुआ है तथा इस कुवे पर लाछा द्वारा प्रतिष्ठित रंगबाड़ी के भैरूजी का चबूतरा एक पेड़ों के झुरमुट में मौजूद है। लाछा की यह रंगबाड़ी (कुवा) आज तानाण के बेटे घीसा मेघवाल के अधिकार में है।
    Laxman Burdak

  15. #35
    तेजाजी की वीरगति


    तेजाजी का दाह संस्कार और पेमल का सती होना, सुरसुरा





    तेजाजी की वचन बद्धता: [पृष्ठ-263]: काबरिया पहाड़ी से 2 किमी दूर दक्षिण पूर्व दिशा में घनघोर जंगल के बीच नाड़ा की पाल पर खेजड़ी वृक्ष के नीचे बासाग नाग की बाम्बी पर पहुँच कर नागदेव का आव्हान करते हैं।

    [पृष्ठ-264]: बासग राज अपनी बाम्बी से बाहर आते हैं और बोलते हैं कि तेजा मैं तेरे वचन निभाने के प्रण से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम जीते मैं हारा। तेजाजी ने अपना भाला जमीन पर लगाया। लीलण ने एक पैर ऊपर उठाया। नाग देव ने लीलण के पैर के लपेटा लगाते हुये ऊपर आकर भाला का सहारा लिया। तेजाजी ने अपनी जीभ बाहर निकाली। नागदेव ने बिना घायल बचे एक मात्र अंग जीभ पर डस लिया।

    [पृष्ठ-265]: नाग देव ने आशीर्वाद दिया कि तेजा मैं तुझे वरदान देता हूँ कि तूँ कलियुग का कुलदेवता बनेगा। घर-घर, गाँव-गाँव तेरी देवली पूजी जावेगी, तेरा नाम लेकर तांत बांधने से काला नाग का जहर उतार जाएगा, बाला रोग (नारू) ठीक हो जाएगा, पशुओं के रोग समाप्त हो जाएंगे। तेरा नाम लेकर हल जोतने पर खूब अन्न-धन्न की वर्षा होगी। तेरे नाम की जागती जोत जलाने से गाँव में कोई रोग प्रव्श नहीं करेगा। तेरे वीरगति धाम से कोई जागती जोत लेजकर तेरा मंदिर बनाएँगे तो वहाँ तेरा वास हो जाएगा। तू कलियुग का अवतारी सच्चा देव कहलाएगा। यही मेरी अमर आशीष है।

    [पृष्ठ-263]: तेजाजी के शरीर में विष का असर हुआ। वे निढाल होकर घोड़ी से नीचे गिरने लगे। लीलण की आँखों से आँसू टपकने लगे। आज भाद्रपद शुक्ल दशमी शनिवार विक्रम संवत 1160 (तदनुसार 28 अगस्त 1103) के तीसरे प्रहर का समय था। वर्षा रुक चुकी थी। पास ही अपनी ऊंटनी चराते आसू देवासी को तेजाजी ने आवाज लगाई। आसू देवासी पास आए तो तेजाजी ने बताया – जो संकट की घड़ी में काम आता है वही अपना होता है। इस घोर जंगल में तूही आज मेरा अपना है। यह मेरा मेंमद मोलिया (साफा के साथ लगाया जाता था) शहर पनेर ले जाकर रायमल जी मुहता की पुत्री और मेरी पत्नी पेमल को दे देना। यहाँ जो तूने देखा है वह ज्यों का त्यों बता देना।

    [पृष्ठ-266]: आसू देवासी ऊंटनी पर चढ़कर पनेर की तरफ दौड़ा।


    लीलण को सम्बोधन: टप-टप आँसू बहाती लीलण को तेजाजी ने कहा – लीलण ! तूने मेरा हर सुख-दुख में साथ दिया। अब तेरा मेरा विछोह निश्चित है। मेरा एक काम ओर कर देना। मेरी जन्म भूमि खरनाल जा कर अपने नैनों की भाषा में मेरी जननी, मेरी बहिन, मेरी बस्ती को विगत हुई की सूचना दे देना।


    लाछा का पेमल के पास जाना – जब तेजाजी लाछा को बासग नाग को दिये वचन का कहकर वापस वन में चले जाते हैं, तब लाछा दौड़कर पेमल के पास जाती है। उसे सारी बात बताती है। इतनी देर में आसू देवासी भी मेंमद मोलिया लेकर आ जाता है। अपनी आँखों देखी सारी घटना बताता है। पेमल सुनकर जमीन पर गिर पड़ती है। पूरी बस्ती में सन्नाटा छा जाता है। समझदार लोगों को अपने द्वारा तेजाजी का साथ नहीं देने का मलाल खटकता है।

    [पृष्ठ-267]: अब पेमल की मूर्छा टूटी। पेमल ने रोना बंद कर दिया। अपनी माँ से सत का नारियल मांगा। पेमल की भाभी ने उसको सत का नारियल दिया। लाछा व देवासी के साथ ऊंटनी पर चढ़कर पेमल वन में नागदेव की बाम्बी की ओर चल पड़ी। पूरे जंगल तथा शहर पनेर और तेजाजी के ननिहाल त्योद में सब जगह खबर फ़ैल गई। लोग दौड़कर नागराज की बाम्बी की तरफ चल पड़े। पेमल के पहुँचने तक तेजाजी के कंठ अवरुद्ध हो चले। पेमल ने मूंह पर हाथ फेरा। चरणों में माथा टेका। तेजाजी ने बुदबुदाते हुये कहा पेमल विधाता के लिखे को टाल नहीं सकते। पेमल सबूरी कर।


    तेजाजी का दाह संस्कार – आसू देवासी के नेतृत्व में वन के ग्वालों ने चीता चिनाई। पेमल ने तेजाजी को गोद में ले सूर्य नारायण से अरदास की। अग्नि प्रज्वलित हुई। वन के पूरे ग्वाल तेजाजी की पुण्य काल की घड़ी में मौजूद थे। तब तक पनेर और त्योद से भी लोग पहुँच गए थे।

    पेमल का श्राप एवं आशीष - [पृष्ठ-268]: पेमल जब चिता पर बैठी तो लीलण घोडी को सन्देश देती है कि सत्य समाचार खरनाल जाकर सबको बतला देना। कहते हैं कि अग्नि स्वतः ही प्रज्वलित हो गई और पेमल सती हो गई।
    पेमल ने श्राप दियाशहर पनेर ने अपने जंवाई तथा मेरे सुहाग की रक्षा नहीं की। पनेर उजड़ जाएगा। माता तू वन की रोजड़ी (मादा नील गाय) होना। भूखी प्यासी भटकना। ढोली ने बारहवां थाप नहीं बजाया। माली ने फूल नहीं चढ़ाये। मेरे पीहर पक्ष झांजर गोत्रगुर्जरों ने तेजाजी का साथ नहीं दिया अतः ये चारों कुनबे पनेर में कभी नहीं पनपेंगे। मेरे पिता ने पत्नी के दबाव में तेजाजी का साथ नहीं दिया। अतः जंगल में रोझ बन कर भटकना।


    पेमल का अमर आशीषपेमल ने भाई भाभी को फलने फूलने की अमर आशीष दी। लेकिन पनेर छोडने के बाद फलेंगे फूलेंगे। पनेर स्थित झांझर गोत्र को मेरा शाप लग चुका है। लाछा को अमर आशीष दी कि तूने हर संकट में मेरा साथ दिया। तेजाजी के साथ तेरा भी अमर नाम होगा। लीलण को आशीष दी कि तूने तेजाजी का आजीवन साथ दिया। अब देव गति को प्राप्त होना। तेजाजी के साथ तेरा भी नाम अमर रहेगा। आसू देवासी सहित सभी ग्वालों को अमर आशीष दी कि फलना फूलना। तेजा का नाम लेने से ग्वालों तथा पशुओं का दुख दूर हो जाएगा। लोगों ने पूछा कि सती माता तुम्हारी पूजा कब करें तो पेमल ने बताया कि - "भादवा सुदी नवमी की रात्रि जागरण करना और दसमी को तेजाजी के धाम पर उनकी देवली को धौक लगाना, कच्चे दूध का भोग लगाना। इससे मनपसंद कार्य पूर्ण होंगे। यही मेरा अमर आशीष है "

    लीलण का खरनाल जाना: [पृष्ठ-269]: लीलण घोड़ी सतीमाता के हवाले अपने मालिक को छोड़ अंतिम दर्शन पाकर सीधी खरनाल की तरफ रवाना हुई। परबतसर के खारिया तालाब पर कुछ देर रुकी और वहां से खरनाल पहुंची। खरनाल पहुँचने का समय था भादवा सुदी ग्यारस रविवार विक्रम संवत 1160 (29 अगस्त 1103 ई.)। सीधी मानक चौक में जाकर खड़ी हुई। खरनाल गाँव में खाली पीठ पहुंची तो तेजाजी की भाभी को अनहोनी की शंका हुई। लीलण की शक्ल देख पता लग गया की तेजाजी संसार छोड़ चुके हैं।


    तेजाजी की बहिन राजल बेहोश होकर गिर पड़ी, फिर खड़ी हुई और माता-पिता, भाई-भोजाई से अनुमति लेकर माँ से सत का नारियल लिया और खरनाल के पास ही पूर्वी जोहड़ में चिता चिन्वाकर भाई की मौत पर सती हो गई। भाई के पीछे सती होने का यह अनूठा उदहारण है। राजल की सहेली कोयल बाई भी जमीन में समा गई। राजल बाई का मंदिर खरनाल में गाँव के पूर्वी जोहड़ में हैं।

    तेजाजी की प्रिय घोड़ी लीलण भी दुःख नहीं झेल सकी और अपना शरीर छोड़ दिया। लीलण घोड़ी का मंदिर आज भी खरनाल के तालाब के किनारे पर बना है।
    Laxman Burdak

  16. #36
    धोलिया शासकों की वंशावली

    संत श्री कान्हाराम ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-157]: तेजाजी के पूर्वज नागवंश की श्वेतनाग शाखा से निकली जाट शाखा से थे। श्वेतनाग ही धौलिया नाग था जिसके नाम पर तेजाजी के पूर्वजों का धौलिया गोत्र चला। इस वंश के आदि पुरुष महाबल थे जिनसे प्रारम्भ होकर तेजाजी की वंशावली निम्नानुसार है:-



    यह वंशावली डेगाना (नागौर) निवासी भैरुराम भाट की पोथी से है। भैरुराम भाट का निधन विक्रम संवत 2053 (1996 ई.) में हो गया था। उनके पुत्र माणकराव भाट का भी विक्रम संवत 2061 (2004 ई.) में असामयिक निधन हो गया। अब यह काम सांवतराम करते हैं। सांवतराम भट ने बताया कि बोहित राज के बड़े पुत्र का नाम ताहड़ देव बोलता नाम थिर राज था। ताहड़ देव तेजाजी के पिता थे।
    ताहड़देव के भाईयों के नाम नरपाल, जयसी, धूरसी, बुधराज, आसकरण व शेरसी थे। इनमें से बुधराज और आसकरण झुंझार हो गए थे। झुंझार आसकरण की देवली गाँव के उत्तर में स्थित है।
    उनकी पौथी के अनुसार तेजाजी के 6 भाई थे। भाईयों के नाम रूपजी, रणजी, गुणजी, महेशजी, नागजी, तेजाजी थे।

    संत श्री कान्हाराम[31] ने लिखा है कि....खरनाल के धौलिया गोत्र के भाट भैरूराम की पोथी में तेजाजी के भाईयों के नाम और भाभियाँ निम्नानुसार थे –

    • 1. रूपजीत (रूपजी) ... पत्नी रतनाई (रतनी) खीचड़
    • 2. रणजीत (रणजी)...पत्नी शेरां टांडी
    • 3. गुणराज (गुणजी) ....पत्नी रीतां भाम्भू
    • 4. महेशजी ...पत्नी राजां बसवाणी
    • 5. नगराज (नगजी)....पत्नी माया बटियासर

    रूपजी की पीढ़ियाँ - .... 1. दोवड़सी 2. जस्साराम 3. शेराराम 4. अरसजी 5. सुवाराम 6 मेवाराम 7. हरपालजी
    Laxman Burdak

  17. #37
    Today is Tejaji Jayanti

    आज तेजाजी जयंती है। तेजाजी का जन्म राजस्थान के नागौर जिले में खरनाल गाँव में माघ शुक्ला, चौदस वार गुरुवार संवत ग्यारह सौ तीस, तदनुसार 29 जनवरी, 1074, को धुलिया गोत्र के जाट परिवार में हुआ था।

    तेजाजी के बलिदान और समाज को योगदान के लिए हम नमन करते है।

    तेजाजी के बारे में हिन्दी में पूरी जानकारी के लिए पढ़ने - https://www.jatland.com/home/Lok_Devata_Tejaji

    For information on this topic in English see - Tejaji
    Laxman Burdak

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