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Thread: History of Tejaji : The folk deity of Rajasthan

  1. #1

    History of Tejaji : The folk deity of Rajasthan

    Tejaji (तेजाजी) (29.1.1074 - 28.8.1103) was a Jat folk-deity who lived in Rajasthan in India. The pages of history of Rajasthan are full of many heroic events, stories and examples where people put their life and families at risk and kept the pride and upheld moral values like loyalty, freedom and truth etc. Veer Teja was one of those famous persons in the history of Rajasthan.

    Sant Kanha Ram: is an author of a well researched book in Hindi on folk deity Tejaji titled - Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. The first edition of this book was inaugurated by Swami Sumedhanand Saraswati in 2012 on the occasion of Teja Dashmi.

    New historical findings have been revealed by Sant Kanha Ram. I have started this tread to bring in light the new historical facts.
    Last edited by lrburdak; December 20th, 2016 at 03:18 PM.
    Laxman Burdak

  2. The Following User Says Thank You to lrburdak For This Useful Post:

    dndeswal (December 22nd, 2016)

  3. #2
    संत कान्हाराम की पुस्तक से उद्धरण

    लेखक - संत कान्हाराम की पुस्तक श्री वीर तेजाजी का इतिहास एवं जीवन चरित्र (शोधग्रंथ) से महत्वपूर्ण तथ्य संक्षेप में निम्नानुसार हैं :
    तेजाजी के इतिहास की खोज
    [पृष्ठ-32]: ऐसे समाज उद्धारक, तारक, गौरक्षक, सत्यवादी इस ग्रंथ के चरित्र महानायक वीर तेजाजी के इतिहास चरित्र की खोज करने हेतु जिन तथ्यों, पद्धतियों का सहारा लिया गया वे हैं –
    1. बाह्य साक्ष्य,
    2. बही भाटों की पोथियां,
    3. अंत: साक्ष्य,
    4. मुख्य आधार श्रुति परंपरा,
    5. टैली पैथी
    बाह्य साक्ष्य तथा अन्तः साक्ष्यों की खोज एवं दोनों साक्ष्यों का मिलान कर सच्चाई को परखा गया और जो निष्कर्ष निकल कर आए उसी को आधार बनाकर इस ग्रंथ का ताना बाना बुना गया। खरनाल, सुरसुरा, पनेर, अठ्यासन, त्योद को महत्वपूर्ण केंद्र माना गया। बलिदान की घटना की जानकारी शहर पनेरसुरसुरा की धरती को है। बलिदान पूर्व की अधिकतर घटनाओं की अधिक जानकारी खरनालत्योद की धरती को है।



    मंडावरिया पर्वत की तलहटी स्थित रण संग्राम स्थल के देवले


    [पृष्ठ-34]: हरिद्वार के तीर्थ पुरोहित मेघराज हंसराज की बही में लिखे तथ्यों की जानकारी हेतु 24.12.2012 को उनके वंशज नरेश कुमार गोविन्दराज से भी मिला। गोविन्दराज ने मुझे धोलिया जाटों की बही बड़े प्रेम से दिखाई, किन्तु बही की शुरूआत ही विक्रम संवत 1806 से है। इससे पहले की बही के लिए सौरों घाट जाने का परामर्श दिया।
    श्रुति परंपरा के अंतर्गत शिलालेख, देवले, तेजाजी से संबन्धित ऐतिहासिक स्थल, पुरातात्विक व भौगोलिक साक्ष्य, विभिन्न ऐतिहासिक ग्रंथ, राव भाट की पौथियों को जुटाने के साथ-साथ श्रुति-परंपरा को मुख्य आधार माना गया है।

    [पृष्ठ-37]: बींजाराम जोशी द्वारा रचे गए तेजाजी के लोकगीत के बोलों का तेजाजी के ऐतिहासिक संदर्भों तथा तथा भौगोलिक स्थलों के साथ मिलान कर परीक्षण किया गया तो आश्चर्य चकित रह गए। लोकगीत के बोलों में कई स्थलों पर रत्ती भर भी हेर-फेर नहीं पाया गया है।
    तेजाजी गणराज्य शासक व्यवस्था में कुँवर अर्थात राजकुमार के पद पर प्रतिष्ठित थे। फिर माता उन्हें वर्षा होने पर हल जोतने का क्यों कहती है? ऐतिहासिक संदर्भों की खोज से पता चला कि उस जमाने में गणतन्त्र पद्धति के शासक सर्वप्रथम वर्षा होने पर हल जोतने का दस्तूर किया करते थे तथा शासक वर्ग स्वयं के हाथ का कमाया खाता था। बुद्ध के शासक पिता का तथा राजा जनक के हल जोतने के ऐतिहासिक प्रमाण हैं।
    सूतो कांई सुख भर नींद कुँवर तेजारे । हल जोत्यो कर दे तूँ खाबड़ खेत में
    जब तेजा कहता है कि यह काम तो हाली ही कर देगा, तब माता टोकती है कि-
    हाली का बीज्या निपजै मोठ ग्वार कुँवर तेजारे। थारा तो बीज्योड़ा मोती निपजै
    इतिहास की खोज में पाया गया कि खेती करने की पद्धति तथा बीजों की खोज महाराज पृथु ने की थी। किन्तु तेजाजी ने कृषि की नई विधियों का आविष्कार किया था। इसी लिए तेजाजी को कृषि का उपकारक देवता माना जाता है।
    तेजाजी माता से मालूम करते हैं कि मोठ, ग्वार, ज्वार, बाजरी किन किन खेतों में बीजना है तब माता कहती है –
    डेहरियां में बीजो थे मोठ ग्वार कुँवर तेजारे। बाजरियो बीजो थे खाबड़ खेत मैं।
    गीत में आए बोलों की सच्चाई जानने के लिए जब मैं तेजाजी की जन्म भूमि खरनाल पहुंचा और वहाँ के निवासियों खाबड़ खेत के बारे में पूछा तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। आज भी खाबड़ खेत खरनाल में मौजूद है।

    [पृष्ठ-38]: वह गैण तालाब जहां तेजाजी के बैल पानी पीते थे वह खरनाल से पूर्व दिशा में इनाणा तथा मूण्डवा के बीच आज भी विद्यमान है।
    हरियो हरियो घास चरज्यो म्हारा बैल्यां । पानी तो पीज्यो थे गैण तालाब को
    जब तेजाजी ससुराल जाने की तैयारी करते हैं तब नागौर जिले में तेजा गायन करने वाले गायक लोग एक बोल बोलते हैं कि तेजाजी ससुराल जाने के लिए खरनाल के धुवा तालाब की पाल स्थित बड़कों की छतरी में बैठकर श्रंगार किया।
    बेहद करयो बणाव कुँवर तेजा रे। बड़कों की छतरियाँ में बांधी पागड़ी
    तेजाजी के वीरगति स्थल सुरसुरा इलाका के तेजा गायक बड़कों की छतरियाँ वाले बोल को नदी पार करने की स्थिति में बोलते हैं। मैंने जब खोज खबर की कि इस बोल का बड़कों वाला शब्द दोनों परिस्थितियों में क्यों आता है तो पता चला कि जब तेजाजी नदी पार करते हैं तब बणाव अस्त व्यस्त हो जाता है।

    [पृष्ठ-39]: अतः नदी पर करने के बाद पूर्वजों की छतरी में बैठकर तेजाजी अपनी पाग को पुनः सँवारते हैं। आश्चर्य-युक्त प्रमाण यह है कि ये दोनों छतरियाँ खरनालशहर पनेर के पास आज भी मौजूद है। शहर पनेर की छतरी इतनी पुरानी लगती है कि उनके पत्थरों पर लिखे अक्षर भी घिस गए हैं।
    तुम मेरी बार चढ़ो रे तेजा। गायां तो लेग्या रे मीणा चांग का ।।
    खूब खोज खबर करने पर अजमेर जिले के ब्यावर शहर से 10 किमी पश्चिम में करणाजी की डांग में यह चांग मिला। वहाँ के सरपंच कालू भाई काठात ने बताया कि उनके अजयसर अजमेर निवासी राव मोहनदादा की बही से भी इस बात की पुष्टि होती है कि उस जमाने में चांग में चीता वंशी मेर-मीणा रहते थे।
    लोकगाथा से पता चलता है कि तेजाजी की माता ने नाग पूजा की थी। तत्कालीन त्योद के पास वन में वह नाग की बांबी आज भी मौजूद है, अब वहाँ पर तेजाजी की देवगति स्थल समाधि धाम सुरसुरा गाँव आबाद है। बांबी नाड़ा की पाल पर थी। सुरसुरा में तेजाजी मंदिर का प्रांगण जमीन के धरातल से नीचे बने ताल के रूप में नाड़ा होने के प्रमाण आज भी विद्यमान हैं।
    Laxman Burdak

  4. #3
    तेजाजी का समकालीन इतिहास


    [पृष्ठ-43]: श्री वीर तेजाजी के इतिहास को सही माने में समझने के लिए उनकी समकालीन तथा आगे-पीछे की धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा ऐतिहासिक परिस्थितियों को समझना अति आवश्यक है। उस समय की परिस्थितियों में जाए बिना हम तेजाजी के इतिहास को सम्यकरूप से नहीं समझ सकते हैं।

    लोग जोधपुर व जोधपुर के राजदरबार एवं स्थानीय ठाकुरों के संदर्भ तथा उनकी राजनीतिक व्यवस्थाओं से जोड़कर तेजाजी के इतिहास को अनुमान के चश्मों से देखने की कोशिश करेते हैं। ठीक इसी प्रकार शहर पनेर के इतिहास को किशनगढ़ राजदरबार की व्यवस्थाओं से जोड़कर देखते हैं।

    तेजाजी के बलिदान (1103 ई.) के 356 वर्ष बाद, राव जोधा ने जोधपुर की स्थापना की थी। किशनगढ़ की स्थापना 506 वर्ष बाद (1609 ई.) हुई। तेजाजी के समय तक राजस्थान में राठौड राजवंश का उदय नहीं हुआ था।

    ईसा की 13वीं शताब्दी के मध्य (1243 ई.) नें उत्तर प्रदेश के कन्नौज से जयचंद राठोड का पौता रावसिहा ने नाडोल (पाली) क्षेत्र में आकर राठोड वंश की नींव डाली थी । राजस्थान में राठोड़ के मूल शासक रावसीहा की 8वीं पीढ़ी बाद के शासक राव जोधा ने 1459 ई. में जोधपुर की स्थापना की थी। इसके पूर्व राव जोधा के दादा राव चुंडा ने 1384-1428 ई. के बीच जोधपुर के पास प्रतिहारों की राजधानी मंडोर पर आधिपत्य जमा लिया था।

    किशनगढ़ की स्थापना राव जोधा की 6 ठवीं पीढ़ी बाद के शासक उदय सिंह के पुत्र किशनसिंह ने 1609 ई. में की थी। उन्हें यह किशनगढ़ अपने जीजा बादशाह जहांगीर द्वारा अपने भांजे खुर्रम (शाहजहां) के जन्म के उपलक्ष में उपहार स्वरूप मिला था।

    [पृष्ठ-44]:तेजाजी का ससुराल शहर पनेर एवं वीरगति धाम सुरसुरा दोनों गाँव वर्तमान व्यवस्था के अनुसार किशनगढ़ तहसील में स्थित है। किशनगढ़ अजमेर जिले की एक तहसील है, जो अजमेर से 27 किमी दूर पूर्व दिशा में राष्ट्रिय राजमार्ग 8 पर बसा है। प्रशासनिक कार्य किशनगढ़ से होता है और कृषि उत्पादन एवं मार्बल की मंडी मदनगंज के नाम से लगती है। आज ये दोनों कस्बे एकाकार होकर एक बड़े नगर का रूप ले चुके हैं। इसे मदनगंज-किशनगढ़ के नाम से पुकारा जाता है।

    तेजाजी की वीरगति स्थल समाधि धाम सुरसुरा किशनगढ़ से 16 किमी दूर उत्तर दिशा में हनुमानगढ़ मेगा हाईवे पर पड़ता है। शहर पनेर भी किशनगढ़ से 32 किमी दूर उत्तर दिशा में पड़ता है। अब यह केवल पनेर के नाम से पुकारा जाता है। पनेर मेगा हाईवे से 5 किमी उत्तर में नावां सिटी जाने वाले सड़क पर है।

    रियासत काल में कुछ वर्ष तक किशनगढ़ की राजधानी रूपनगर रहा था, जो पनेर से 7-8 किमी दक्षिण-पूर्व दिशा में पड़ता है।

    [पृष्ठ-45]: जहा पहले बबेरा नामक गाँव था तथा महाभारत काल में बहबलपुर के नाम से पुकारा जाता था। अब यह रूपनगढ तहसील बनने जा रहा है।

    तेजाजी के जमाने (1074-1103 ई.) में राव महेशजी के पुत्र राव रायमलजी मुहता के अधीन यहाँ एक गणराज्य आबाद था, जो शहर पनेर के नाम से प्रसिद्ध था। उस जमाने के गणराज्यों की केंद्रीय सत्ता नागवंश की अग्निवंशी चौहान शाखा के नरपति गोविन्ददेव तृतीय (1053 ई.) के हाथ थी। तब गोविंददेव की राजधानी अहिछत्रपुर (नागौर) से शाकंभरी (सांभर) हो चुकी थी तथा बाद में अजयपाल के समय (1108-1132 ई.) चौहनों की राजधानी अजमेर स्थानांतरित हो गई थी। रूपनगढ़ क्षेत्र के गांवों में दर्जनों शिलालेख आज भी मौजूद हैं, जिन पर लिखा है विक्रम संवत 1086 गोविंददेव

    Last edited by lrburdak; December 21st, 2016 at 08:54 AM.
    Laxman Burdak

  5. #4

    तेजाजी का समकालीन इतिहास (जारी)

    [पृष्ठ-46]: किशनगढ़ के स्थान पर पहले सेठोलाव नामक नगर बसा था। जिसके भग्नावशेष तथा सेठोलाव के भैरुजी एवं बहुत पुरानी बावड़ी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में आज भी मौजूद है। सेठोलाव गणराज्य के शासक नुवाद गोत्री जाट हुआ करते थे। ऐसा संकेत राव-भाटों की पोथियों व परम्पराओं में मिलता है। अकबर के समय यहाँ के विगत शासक जाट वंशी राव दूधाजी थे। गून्दोलाव झीलहमीर तालाब का निर्माण करवाने वाले शासक का नाम गून्दलराव था। यह शब्द अपभ्रंस होकर गून्दोलाव हो गया। हम्मीर राव ने हमीरिया तालाब का निर्माण करवाया था। सेठोजी राव ने सेठोलाव नगर की स्थापना की थी।

    पुराने शासकों की पहचान को खत्म करने के लिए राजपूत शासकों द्वारा पूर्व के गांवों के नाम बदले गए थे। राठौड़ शासक किशनसिंह ने सेठोलाव का नाम बदलकर कृष्णगढ़ रख दिया। राव जोधा ने मंडोर का नाम बदलकर जोधपुर रख दिया। बीका ने रातीघाटी का नाम बदलकर बीकानेर रखा था। रूप सिंह ने गाँव बबेरा का नाम बदलकर रूपनगर रख दिया। शेखावतों ने नेहरा जाटों की नेहरावाटी का नाम बदलकर शेखावाटी कर दिया। गून्दोलाव का नाम नहीं बादला जा सका क्योंकि यह लोगों की जबान पर चढ़ गया था।

    मुस्लिम शासन की जड़ें काफी पहले जम चुकी थी। किशनगढ़, श्रीनगर, भीनाय, केकड़ी के चौहान तथा परमार वंशीय मूल शासक स्वाभिमान के चलते अपना राज-काज गंवा चुके थे। तब दो ही विकल्प थे – मुस्लिम बनो या फिर मरो। अतः 1200 ई. से 1500 ई. के बीच बड़ी संख्या में मूल शासकों ने अपना राज-काज छोडकर जाट-गुर्जर, माली, कुम्हार, सुथार, सुनार, मेघवाल आदि जातियों में शामिल हो गए। क्योंकि वे अपने स्वाभिमान से समझौता नहीं कर सकते थे और न ही अपनी बहिन बेटियाँ मुस्लिम शासकों को दे सकते थे।

    इस सिलसिले में गुजरात से आए सोलंकियों के वंशज गुर्जर गिर नस्ल की गायें गुजरात से यहाँ लाये थे। इन सभी 36 क़ौमों की चौहान, पँवार, सोलंकी, पड़िहार, गहलोत, भाटी, दहिया, खींची, सांखला आदि नखें व गोत्र इनके क्षत्रिय होने तथा उनकी समान उत्पत्ति को प्रमाणित करती हैं। कुछ मूल निवासी राज-काज का मोह नहीं त्याग सके, व मुसलमान बन गए। उनके गोत्र तथा नख अपने हिन्दू भाईयों के समान चौहान, पँवार, सोलंकी, पड़िहार, गहलोत, भाटी, दहिया, खींची, सांखला आदि हैं।


    [पृष्ठ-47]: 1192 ई. में पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद मोहम्मद गौरी की जीत के साथ ही यहाँ मुस्लिम शासन की नींव पड़ चुकी थी। अजमेर तथा किशनगढ़ भी जाट वंशी शासकों व चौहानों के हाथ से निकालकर मुस्लिम सत्ता के अधीन हो चुके थे। यहाँ के शासक अलग-अलग जतियों में मिलकर अलग-अलग कार्य करने लगे। इसमें खास बात यह थी कि चौहान आदि शासक तथा इनकी किसान, गोपालक, मजदूर आदि शासित जातियाँ एक ही मूल वंश , नागवंश की शाखाओं से संबन्धित थी।अतः किसान आदि जतियों में शामिल होने में इन्हें कोई दिक्कत पेश नहीं आई।

    बाद में यह क्षेत्र मुगल शासक अकबर (1556 ई.) के अधिकार में आ गया था। 1572 ई. में मेवाड़ को छोड़कर पूरा राजस्थान अकबर के अधिकार में आ गया था।

    राव जोधा के 6 पीढ़ी बाद के वंशज उदय सिंह का नोवें नंबर का बेटा किशनसिंह राजनैतिक कारणों से जोधपुर छोडकर अकबर के पास चला गया। किशनसिंह की बहिन जोधाबाई जो अकबर के पुत्र सलीम को ब्याही थी, उसके पुत्र शाहजहाँ के जन्म की खुशी में किशन सिंह को श्रीनगर-सेठोलाव की जागीर उपहार में दी गई। जहां किशन सिंह ने 1609 ई. में किशनगढ़ बसाकर उसे राजधानी बनाया। बाद में किशन सिंह का जीजा सलीम जहाँगीर के नाम से दिल्ली का बादशाह बना, तब किशन सिंह ने अपने राज को 210 गांवों तक फैला दिया। पहले उसको हिंडोन का राज दिया था, किन्तु किशन सिंह ने मारवाड़ के नजदीक सेठोलाव की जगह पसंद आई। कुछ इतिहासकारों का यह लिखना सही नहीं है कि किशनसिंह ने यह क्षेत्र युद्ध में जीता था। उस समय किशनगढ़ और अजमेर बादशाह अकबर के अधीन था अतः किसी से जीतने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता।

    औरंगजेब की नजर किशनगढ़ की रूपवान राजकुमारी चारुमति पर थी। वह हर हालत में उसे पाना चाहता था। रूपमती को यह मंजूर नहीं था। किशनगढ़ जैसी छोटी रियासत औरंगजेब का सामना नहीं कर सकती थी।

    [पृष्ठ-48]:यह रास्ता निकाला गया कि चारुमति ने मेवाड़ के राणा राजसिंह (1658-1680 ई.) को पत्र लिख कर गुहार की कि मेरी इज्जत बचायें, मेरे साथ विवाह कर मुझे मेवाड़ ले चले। राणा राजसिंह ने प्रस्ताव स्वीकार किया। चारुमति तो बचगई परंतु उसकी बहिन का विवाह औरंगजेब के पुत्र मुअज्जम के साथ कर दिया गया (बक़ौल रोचक राजस्थान)
    रूपमती के पिता रूपसिंह (1658-1706 ई.) ने बाबेरा नामक गाँव को रूपनगर (रूपनगढ़) का नाम देकर किशनगढ़ की राजधानी बनाया। इस वंश के सांवत सिंह (1748-1757 ई.) प्रसिद्ध कृष्ण भक्त हुये। वह नागरीदास कहलाए। नागरीदास के मित्र निहालचंद ने प्रसिद्ध बनी-ठणी चित्र बनाया।
    इस वंश का अंतिम शासक महाराजा सुमेरसिंह था जिनकी 16.2.1971 को गोली मारकर हत्या करदी थी। गोली मारने वाला किशनगढ़ के नजदीक परासिया गाँव का भीवा नामक जाट था। स्वतन्त्रता के बाद महाराजा सुमेरसिंह के पुत्र बृजराज सिंह हुये जिनको कुछ समय तक प्रीविपर्स प्राप्त होता रहा।
    Last edited by lrburdak; December 21st, 2016 at 08:56 AM.
    Laxman Burdak

  6. #5
    तेजाजी का समकालीन इतिहास (जारी)

    जनमानस में यह आम धारणा बैठाई गई है कि कछावा और राठौड़ ही आदि से अंत तक मरुधरा (मारवाड़) के शासक रहे हैं। इस संदर्भ में मरुधरा के शासकों का कालक्रम जानना आवश्यक है जो निम्नानुसार रहा है:

    • 1. मरुतगण (वैदिककाल के शासक), जिनके नाम पर यह क्षेत्र मरुतधारा या मारवाड़ कहलाया।















    9. प्रजातांत्रिक व्यवस्था (1950 से अबतक)
    Laxman Burdak

  7. #6
    तेजाजी के पूर्वज

    [पृष्ठ-62] : रामायण काल में तेजाजी के पूर्वज मध्यभारत के खिलचीपुर के क्षेत्र में रहते थे। कहते हैं कि जब राम वनवास पर थे तब लक्ष्मण ने तेजाजी के पूर्वजों के खेत से तिल खाये थे। बाद में राजनैतिक कारणों से तेजाजी के पूर्वज खिलचीपुर छोडकर पहले गोहद आए वहाँ से धौलपुर आए थे। तेजाजी के वंश में सातवीं पीढ़ी में तथा तेजाजी से पहले 15वीं पीढ़ी में धवल पाल हुये थे। उन्हीं के नाम पर धौलिया गोत्र चला। श्वेतनाग ही धोलानाग थे। धोलपुर में भाईयों की आपसी लड़ाई के कारण धोलपुर छोडकर नागाणा के जायल क्षेत्र में आ बसे।

    [पृष्ठ-63]: तेजाजी के छठी पीढ़ी पहले के पूर्वज उदयराज का जायलों के साथ युद्ध हो गया, जिसमें उदयराज की जीत तथा जायलों की हार हुई। युद्ध से उपजे इस बैर के कारण जायल वाले आज भी तेजाजी के प्रति दुर्भावना रखते हैं। फिर वे जायल से जोधपुर-नागौर की सीमा स्थित धौली डेह (करणु) में जाकर बस गए। धौलिया गोत्र के कारण उस डेह (पानी का आश्रय) का नाम धौली डेह पड़ा। यह घटना विक्रम संवत 1021 (964 ई.) के पहले की है। विक्रम संवत 1021 (964 ई.) में उदयराज ने खरनाल पर अधिकार कर लिया और इसे अपनी राजधानी बनाया। 24 गांवों के खरनाल गणराज्य का क्षेत्रफल काफी विस्तृत था। तब खरनाल का नाम करनाल था, जो उच्चारण भेद के कारण खरनाल हो गया। उपर्युक्त मध्य भारत खिलचीपुर, गोहद, धौलपुर, नागाणा, जायल, धौली डेह, खरनाल आदि से संबन्धित सम्पूर्ण तथ्य प्राचीन इतिहास में विद्यमान होने के साथ ही डेगाना निवासी धौलिया गोत्र के बही-भाट श्री भैरूराम भाट की पौथी में भी लिखे हुये हैं।
    Laxman Burdak

  8. #7
    तेजाजी के पूर्वज और जायल

    जायल खींचियों का मूल केंद्र है। उन्होने यहाँ 1000 वर्ष तक राज किया। नाडोल के चौहान शासक आसराज (1110-1122 ई.) के पुत्र माणक राव (खींचवाल) खींची शाखा के प्रवर्तक माने जाते हैं। तेजाजी के विषय में जिस गून्दल राव एवं खाटू की सोहबदे जोहियानी की कहानी नैणसी री ख्यात के हवाले से तकरीबन 200 वर्ष बाद में पैदा हुआ था।

    [पृष्ठ-158]: जायल के रामसिंह खींची के पास उपलब्ध खींचियों की वंशावली के अनुसार उनकी पीढ़ियों का क्रम इस प्रकार है- 1. माणकराव, 2. अजयराव, 3. चन्द्र राव, 4. लाखणराव, 5. गोविंदराव, 6. रामदेव राव, 7. मानराव 8. गून्दलराव, 9. सोमेश्वर राव, 10. लाखन राव, 11. लालसिंह राव, 12. लक्ष्मी चंद राव 13. भोम चंद राव, 14. बेंण राव, 15. जोधराज

    गून्दल राव पृथ्वी राज के समकालीन थे।

    यहाँ जायल क्षेत्र में काला गोत्री जाटों के 27 खेड़ा (गाँव) थे। यह कालानाग वंश के असित नाग के वंशज थे। यह काला जयलों के नाम से भी पुकारे जाते थे। यह प्राचीन काल से यहाँ बसे हुये थे।
    तेजाजी के पूर्वज राजनैतिक कारणों से मध्य भारत (मालवा) के खिलचिपुर से आकर यहाँ जायल के थली इलाके के खारिया खाबड़ के पास बस गए थे। तेजाजी के पूर्वज भी नागवंश की श्वेतनाग शाखा के वंशज थे। मध्य भारत में इनके कुल पाँच राज्य थे- 1. खिलचिपुर, 2. राघौगढ़, 3. धरणावद, 4. गढ़किला और 5. खेरागढ़

    राजनैतिक कारणों से इन धौलियों से पहले बसे कालाओं के एक कबीले के साथ तेजाजी के पूर्वजों का झगड़ा हो गया। इसमें जीत धौलिया जाटों की हुई। किन्तु यहाँ के मूल निवासी काला (जायलों) से खटपट जारी रही। इस कारण तेजाजी के पूर्वजों ने जायल क्षेत्र छोड़ दिया और दक्षिण पश्चिम ओसियां क्षेत्र व नागौर की सीमा क्षेत्र के धोली डेह (करनू) में आ बसे। यह क्षेत्र भी इनको रास नहीं आया। अतः तेजाजी के पूर्वज उदय राज (विक्रम संवत 1021) ने खरनाल के खोजा तथा खोखर से यह इलाका छीनकर अपना गणराज्य कायम किया तथा खरनाल को अपनी राजधानी बनाया। पहले इस जगह का नाम करनाल था। यह तेजाजी के वंशजों के बही भाट भैरू राम डेगाना की बही में लिखा है।

    तेजाजी के पूर्वजों की लड़ाई में काला लोगों की बड़ी संख्या में हानि हुई थी। इस कारण इन दोनों गोत्रों में पीढ़ी दर पीढ़ी दुश्मनी कायम हो गई। इस दुश्मनी के परिणाम स्वरूप जायलों (कालों) ने तेजाजी के इतिहास को बिगाड़ने के लिए जायल के खींची से संबन्धित ऊल-जलूल कहानियाँ गढ़कर प्रचारित करा दी । जिस गून्दल राव खींची के संबंध में यह कहानी गढ़ी गई उनसे संबन्धित तथ्य तथा समय तेजाजी के समय एवं तथ्यों का ऐतिहासिक दृष्टि से ऊपर बताए अनुसार मेल नहीं बैठता है।
    बाद में 1350 ई. एवं 1450 ई. में बिड़ियासर जाटों के साथ भी कालों का युद्ध हुआ था। जिसमें कालों के 27 खेड़ा (गाँव) उजाड़ गए। यह युद्ध खियाला गाँव के पास हुआ था।

    [पृष्ठ-159]: यहाँ पर इस युद्ध में शहीद हुये बीड़ियासारों के भी देवले मौजूद हैं। कंवरसीजी के तालाब के पास कंवरसीजी बीड़ियासर का देवला मौजूद है। इस देवले पर विक्रम संवत 1350 खुदा हुआ है। अब यहाँ मंदिर बना दिया है। तेजाजी के एक पूर्वज का नाम भी कंवरसी (कामराज) था।

    लोक गाथाओं व जन मान्यताओं में तेजाजी के पिता का नाम बक्साजी बताया जाता है लेकिन तेजाजी के पूर्वजों के वंशज धौलिया जाटों की बही रखने वाले डेगाना निवासी भैरूराम भाट की पौथी से इस तथ्य की पुष्टि नहीं होती है। पौथी में तेजाजी के पिता का नाम ताहड़ देव (थिर राज) लिखा हुआ है। वहाँ तेजाजी के पूर्वजों की 21 पीढ़ी तक की वंशावली दी गई है। उस पौथी में ताहड़ देव आदि सात भाईयों के नाम भी लिखे हैं। उनमें ताहड़ देव सबसे बड़े हैं। वहाँ तेजाजी के ताऊ का बक्साजी कोई नाम नहीं है, जैसा कुछ लेखकों ने लिखा है।
    काफी खौज खबर के बाद पता चला कि तेजाजी के दादा बोहित राज जी ही बोल चाल में बक्साजी के नाम से लोकप्रिय थे। भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी बोहित जी तथा बक्सा जी मेल खाते हैं। तेजाजी के दादा बोहितराज जी ने अपने जीतेजी सर्वाधिक योग्य होने के कारण खरनाल गणराज्य के आमजन की सहमति से गणपत का पद तेजाजी के पिता ताहड़ देव को दिया था।

    तेजाजी के पिता ताहड़ देव की म्रत्यु 50-55 वर्ष की आयु में हो गई थी। इसलिए परिवार की एवं गणराज्य की ज़िम्मेदारी बोहितराज के कंधों पर आ गई थी। भाईयों में सबसे छोटे होने के बावजूद भी योग्यता के आधार पर युवराज पद का भार तेजपाल के कंधों पर डाला गया। परिवार की संरक्षक की भूमिका में होने के कारण लोक गाथाओं तथा जन मान्यताओं में तेजाजी के पिता के रूप में बोहितराज (बक्साजी) नाम प्रचलित हो गया था।
    Laxman Burdak

  9. #8
    तेजाजी के पूर्वज (जारी)

    इन्दरगढ़ के धूलिया शासक: जाट इतिहासकर रामसरूप जून[1] ने करनाल जिले की इंद्री तहसील में इन्दरगढ़ के धूलिया शासन का उल्लेख किया है। इस परिवार के बद्रसेन नाम के एक शासक झज्जर जिले में बादली के अधिपति थे तथा वे पृथ्वीराज चौहान के एक अधिकारी थे। चौहानों से पहले भादरा, अजमेर और इन्दरगढ़ में गोर जाटों का शासन था। बद्रसेन के परिवार में बोदली नामक महिला के नाम से यह गाँव बादली कहलाया। गाँव बादली में संत सारंगदेव की समाधि है जिसकी पूजा की जाती है।




    धौली का शांति स्तूप


    पूर्वी भारत में धवलदेव का राज्य: तेजाजी के पूर्वज नागवंश की श्वेतनाग शाखा से निकली जाट शाखा से थे। श्वेतनाग ही धौलिया नाग था जिसके नाम पर तेजाजी के पूर्वजों का धौलिया गोत्र चला। इस वंश के आदि पुरुष महाबल थे जिनसे प्रारम्भ होकर तेजाजी की वंशावली में 21 वीं पीढ़ी में तेजाजी पैदा हुये। यदि एक पीढ़ी की उम्र 30 वर्ष मानी जावे तो महाबल का समय करीब 500 ई. के आसपास बैठता है। यह गुप्त साम्राज्य (320 - 540 ई.) के अंत के निकट का समय है। गुप्त साम्राज्य भारत में स्वर्णयुग माना गया है। गुप्त साम्राज्य के शासकों को इतिहासकारों यथा के पी जायसवाल[2][3], भीम सिंह दहिया[4], हुकुम सिंह पँवार[5], तेजराम शर्मा[6], बी जी गोखले[7] दलीप सिंह अहलावत[8] आदि द्वारा जाट वंश का माना गया है। तेजाजी के धौल्या वंश के आदि पुरुष महाबल संभवतः गुप्त साम्राज्य के अधीन उड़ीसा में कलिंग के आस-पास किसी भू-भाग के अधिपति थे। अशोक महान के काल में उस भू-भाग में अनेक जाटवंशी राजाओं के शासक होने के प्रमाण हैं। धौल्या वंश के वहाँ शासक होने का प्रमाण दया नदी के किनारे धोली पहाड़ी के रूप में है। धोली पहाड़ी भूबनेश्वर से 8 किमी दूर है और वहाँ पर एक बड़ा बौद्ध स्तूप बना हुआ है। इसी के पास अशोक के शिलालेख लगे हैं जहां कलिंग युद्ध हुआ था। उड़ीसा में महानदी के किनारे कटक से 37 किमी दूर शिव का धवलेश्वर[13] नाम का एक बड़ा मंदिर है।

    डॉ नवल वियोगी [9] के अनुसार धवलदेव के शासन के अवशेष धलभूमगढ़ (पश्चिम बंगाल/झारखंड) और खड़गपुर (पश्चिम बंगाल) में देखे जा सकते हैं। धलभूमगढ़ वस्तुतः धवल या धौल्या लोगों की भूमि के रूप में प्रयोग किया गया है। वहाँ की परंपरा के अनुसार स्थानीय राजा जगन्नाथदेव से धोलपुर (राजस्थान) के राजा द्वारा कब्जा कर लिया गया था।

    References

    1. Ram Swarup Joon: History of the Jats/Chapter V, p.87

    2. An Imperial History Of India/Gauda and Magadha Provincial History, p.53

    3. JRAS, 1901, P. 99; 1905, P. 814; ABORI XX P. 50; JBORS, xix, P. 113-116; vol xxi, P. 77 and vol xxi, P. 275

    4. Jats the Ancient Rulers (A clan study)/The Empire of the Dharan Jats, Misnamed Guptas,pp. 177-188

    5.Hukum Singh Panwar (Pauria): The Jats:Their Origin, Antiquity and Migrations, pp.137-138

    6. Tej Ram Sharma:Personal and geographical names in the Gupta inscriptions, pp. 16-17

    7. B.G. Gokhale, Samudragupta, Life and Times, pp. 25-26.

    8. जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, pp.492-494

    9. Dhawaleshwar Temple, Orissa Tourist Places

    10.
    Dr Naval Viyogi: Nagas – The Ancient Rulers of India, p. 158
    Laxman Burdak

  10. #9
    तेजाजी का जन्म


    नागदेव के वरदान से तेजाजी की प्राप्ति हुई


    तेजाजी का जन्म राजस्थान के नागौर जिले में खरनाल गाँव में माघ शुक्ला, चौदस वार गुरुवार संवत ग्यारह सौ तीस, तदनुसार 29 जनवरी, 1074, को धुलिया गोत्र के जाट परिवार में हुआ था। उनके पिता चौधरी ताहरजी (थिरराज) राजस्थान के नागौर जिले के खरनाल गाँव के मुखिया थे। तेजाजी के नाना का नाम दुलन सोढी (ज्याणी) था। उनकी माता का नाम रामकुंवरी था। तेजाजी का ननिहाल त्यौद गाँव (किशनगढ़) में था।

    संत श्री कान्हाराम[1] ने तेजाजी के जन्म का विवरण ऐतिहासिक प्रमाणों सहित विस्तार से निम्नानुसार लिखा है:

    [पृष्ठ-160]: खरनाल परगना के जाट शासक (गणपति) बोहितराज के पुत्र ताहड़देव का विवाह त्योद (त्रयोद) के गणपति करसण जी (कृष्णजी) के पुत्र राव दुल्हण जी (दूलहा जी) सोढी (ज़्याणी) की पुत्री रामकुंवरी के साथ विक्रम संवत 1104 में समपन्न हुआ। त्योद ग्राम अजमेर जिले के किशनगढ़ परगने में इससे 22 किमी उत्तर दिशा में स्थित है और किशनगढ़ अजमेर स 27 किमी पूर्व में राष्ट्रीय राजमार्ग-8 पर स्थित है।

    विवाह के 12 वर्ष तक रामकुँवरी के कोई संतान नहीं हुई। अतः अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिए ताहड़ जी के नहीं चाहते हुये भी रामकुँवरी ने अपने पति का दूसरा विवाह कर दिया। यह दूसरा विवाह कोयलापाटन (अठ्यासान) निवासी अखोजी (ईन्टोजी) के पौत्र व जेठोजी के पुत्र करणो जी फिड़ौदा की पुत्री रामीदेवी के साथ विक्रम संवत 1116 में सम्पन्न करवा दिया। इस विवाह का उल्लेख बालू राम आदि फिड़ौदों के हरसोलाव निवासी बही-भाट जगदीश पुत्र सुखदेव भाट की पोथी में है।

    द्वितीय पत्नी रामी के गर्भ से ताहड़ जी के रूपजीत (रूपजी) , रणजीत (रणजी), महेशजी, नगजीत ( नगजी) पाँच पुत्र उत्पन्न हुये।

    राम कुँवरी को 12 वर्ष तक कोई संतान नही होने से अपने पीहर पक्ष के गुरु मंगलनाथ जी के निर्देशन में उन्होने नागदेव की पूजा-उपासना आरंभ की। 12 वर्ष की आराधना के बाद उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति तेजाजी के रूप में हुई एक पुत्री राजल भी प्राप्त हुई। यह नाग-बांबी आज भी तत्कालीन त्योद-पनेर के कांकड़ में मौजूद है। अब उस स्थान पर तेजाजी की देवगति धाम सुरसुरा ग्राम आबाद है। उस समय वहाँ घनघोर जंगल था। सुरसुरा में तेजाजी का मंदिर बना हुआ है जिसमें तेजाजी की स्वप्रकट मूर्ति प्रतिष्ठित है। उसके सटाकर वह बांबी मौजूद है।

    माता राम कुँवरी द्वारा नाग पूजा- [पृष्ठ-166]: ताहड़ देव का दूसरा विवाह हो गया । दूसरी पत्नी से पुत्र रत्न की प्राप्ति भी हो गई। किन्तु रामकुँवरी को महसूस हुआ कि उसकी हैसियत दोयम दर्जे की हो गई है। दो वर्ष 1116-1118 विक्रम संवत रामकुँवरी इस मनः स्थिति से गुजरी। रामकुँवरी ने पति ताहड़ देव से परामर्श किया और पति की आज्ञा से विक्रम संवत 1118 को अपने पीहर त्योद चली आई। त्योद में अपने माता-पिता के कुलगुरु संत मंगलनाथ की धुणी पर जाकर प्रार्थना की और अपना दुख बताया।

    [पृष्ठ-167]: कुल गुरु ने रामकुँवरी को विधि विधान से नागदेव की पूजा-आराधना के निर्देश दिये। रामकुँवरी ने त्योद के दक्षिण में स्थित जंगल में नाड़े की पालपर खेजड़ी वृक्ष के नीचे नागदेव की बांबी पर पूजा-आराधना 12 वर्ष तक की। कहते हैं कि विक्रम संवत 1129 अक्षय तृतीया को नागदेव ने दर्शन देकर पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया।

    [पृष्ठ-168]: तपस्या पूर्ण होने पर कुलगुरु मंगलनाथ की आज्ञा से रामकुँवरी अपने भाई हेमूजी के साथ ससुराल खरनाल पहुंची।

    [पृष्ठ-170]: नागदेव का वरदान फला और विक्रम संवत 1130 की माघ सुदी चौदस गुरुवार तदनुसार 29 जनवरी 1074 ई. को खरनाल गणतन्त्र में ताहड़ देव जी के घर में शेषावतार लक्ष्मण ने तेजाजी के रूप में जन्म लिया। इस तिथि की पुष्टि भैरू भाट डेगाना की बही से होती है।

    [पृष्ठ-171]: कहते हैं कि बालक के जन्म लेते ही महलों में प्रकाश फ़ैल गया। बालक के चेहरे पर प्रखर तेज दमक रहा था। दमकते चेहरे को देखकर पिता ताहड़ देव के मुख से सहसा निकला कि यह तो तेजा है। अतः जन्म के साथ ही तेजा का नामकरण हो गया। जोशी को बुलाकर नामकरण करवाया तो उसने भी नामकरण किया तेजा।

    तेजाजी के जन्म के बारे में जन मानस के बीच प्रचलित एक राजस्थानी कविता के आधार पर मनसुख रणवा का मत है-
    जाट वीर धौलिया वंश गांव खरनाल के मांय।
    आज दिन सुभस भंसे बस्ती फूलां छाय।।
    शुभ दिन चौदस वार गुरु, शुक्ल माघ पहचान।
    सहस्र एक सौ तीस में, परकटे तेजा महान ॥

    अर्थात - अवतारी तेजाजी का जन्म विक्रम संवत 1130 में माघ शुक्ल चतुर्दशी, बृहस्पतिवर को नागौर परगना के खरनाल गाँव में धौलिया जाट सरदार के घर हुआ.

    तेजा जब पैदा हुए तब उनके चेहरे पर विलक्षण तेज था जिसके कारण इनका नाम रखा गया तेजा। उनके जन्म के समय तेजा की माता को एक आवाज सुनाई दी - "कुंवर तेजा ईश्वर का अवतार है, तुम्हारे साथ अधिक समय तक नहीं रहेगा। "

    तेजाजी के पूर्वजों की जायल के काला जाटों की पीढ़ी दर पीढ़ी शत्रुता चली आ रही थी। जायल के सरदार बालू नाग ने अपने ज्योतिषी को बुलाकर बालक का भविष्य पूछा तो बताया गया कि बालक बड़ा होनहार एवं अपरबली होगा। अन्याय, अत्याचार के खिलाफ एवं धर्म संस्थापन के पक्ष में मर मिटने वाला होगा। अपने दुश्मनों के लिए यमदूत साबित होगा। गौधन व सज्जनों के लिए देवदूत साबित होगा।

    ज्योतिषियों द्वारा ऐसी भविष्यवाणी सुन खरनाल गणराज्य के दुश्मन जायलों (काला जाटों) ने भयभीत होकर जनता में अनेक तरह की अफवाहें फैलाई यथा बालक मूल नक्षत्र में पैदा हुआ है, अगर बालक को रखा गया तो धौलिया वंश का नाश हो जाएगा, खरनाल गणराज्य में अकाल पड़ेगा, जनता बर्बाद हो जाएगी आदि आदि। जनता इन अफवाहों से दुखी होकर अनिष्ट की आशंकाओं से भयभीत होने लगी।

    [पृष्ठ-172]: जनता ने अनिष्ट की आशंका से अन्न-जल त्याग दिया तथा शिव की आराधना करने लगी। तेजाजी के माता-पिता शंकर भगवान के उपासक थे। उन्होने भी अन्न-जल त्याग दिया और शिव की आराधना में लग गए। कहते हैं कि इस तपस्या से खुश होकर शिव-पार्वती ने तपस्यारत तेजा के माता-पिता को दर्शन दिये तथा कहा कि आपका यह पुत्र शेषावतार लक्ष्मण का अवतार है। यह गौरक्षा कर भूमि का भार उतारने आया है। आप निश्चिंत रहें किसी प्रकार की आशंका न करें। यह बालक तेरी तथा तेरे गणराज्य की कीर्ति को संसार में अमर करेगा। दिव्य-शक्ति की पहचान यह है कि इसके मुख-मण्डल का तेज झेला नहीं जाता। शंकर भगवान के वरदान से ही तेजाजी की प्राप्ति हुई है। तेजा के प्राणों पर आया संकट इस तरह शिव कृपा से टल गया। इस कारण कलयुग में तेजाजी को शिव का अवतार माना गया है।
    Laxman Burdak

  11. #10

    तेजाजी की घोड़ी लीलण का जन्म

    लीलण का जन्म: [पृष्ठ-173]: लक्खी बंजारा लाखा बालद ला कर अपना माल खरनाल के रास्ते सिंध प्रदेश ले जा रहा था। लाखा के पास शुभ लक्षणों से युक्त सफ़ेद रंग की दिव्य घोड़ी थी। उस घोड़ी के गर्भ में अग्नि की अधिष्ठात्री शक्ति लीलण के रूप में पल रही थी। जब लाखा अपना बलद लेकर खरनाल से गुजर रहा था तभी विक्रम संवत 1131 (1074 ई.) की आखा तीज के दिन दोपहर सवा 12 बजे लीलण का जन्म हुआ। लीलण के जन्म लेते ही उसकी मां स्वर्ग सिधार गई। लाखा ताहड़ जी से परिचित था। ताहड़ जी ने उस घोड़ी की बछिया को रख लिया। उसे गाय का दूध पिलाकर बड़ा किया।
    Laxman Burdak

  12. #11
    तेजाजी महाराज की जन्मस्थली खरनाल


    [पृष्ठ-174]:वीर तेजाजी महाराज की जन्मस्थली गांव खरनाल है। इसे खुरनालखड़नाल भी कहा जाता है। यह गांव नागौर से दक्षिण-पश्चिम दिशा में 16 किमी दूर जौधपुर रोड़ पर बसा है। नागौर जिले का यह गांव देशभर के किसानों का काशी-मथुरा, मक्का-मदीना है। खरनाल की भूमि में कृषि गौ अमृत न्याय व मानवता की इबारतें सत्यवादी वीर व तपधारी जति तेजा द्वारा लिखी गई।
    [पृष्ठ-175]:खरनाल गांव के मध्य में वीर तेजाजी महाराज का तीमंजिला भव्य मंदिर बना हुआ है। जिसका जिर्णोद्धार वि.सं. 1943 (1886) को हुआ था। मंदिर पर लिखे शिलालेख पर जिर्णोद्धार कराने वालों की सूचि के अलावा एक दोहा भी लिखा है-
    "खिजमत हतौ खिजमत, शजमत दिन चार।चाहै जन्म बिगार दै, चाहै जन्म सुधार।।"

    [पृष्ठ-176]:खरनाल के पूर्व में 1 किमी की दूरी पर तालाब की पाल पर बहन राजल बाई का 'बूंगरी माता' के नाम से मंदिर बना हुआ है। जो कि भातृ प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण है। तेजाजी की बहन राजल के मंदिर में भक्तगण शरीर पर उभरे हुये मस्से दूर करने के लिए लोग बुहारी (झाड़ू) चढ़ाते हैं। बुहारी को स्थानीय भाषा में बूंगरी कहा जाता है। अतः बूंगरी चढ़ाने की प्रथा के कारण बूंगरी माता के नाम से पुकारते हैं।

    [पृष्ठ-177]:खरनाल कभी एक गणराज्य हुआ करता था। जिसके भू-पति वीर तेजाजी के वंशज हुआ करते थे। वे एक गढी में रहा करते थे। खरनाल तेजाजी मंदिर के बगल में उस गढी के भग्नावशेष आज भी देखे जा सकते हैं। वर्तमान में खरनाल ग्राम पंचायत के रूप में विद्यमान है।

    यहां लगभग 600 घर है। इस गांव में धौलिया गौत्री जाटों के लगभग 200 घर है। धौलियों के अलावा यहां इनाणा, खुड़खुड़िया, बडगावा, काला, जाखड़, जाजड़ा, आदि जाट गौत्रों का निवास है। साथ ही सुनार, नाई, खाती, ब्राह्मण, स्वामी, कुम्हार, नायक, मेघवाल, लुहार, हरिजन, ढोली आदि जतियों के लोग निवास करते हैं।

    जाटों के अलावा यहां समस्त किसान जातियों व दलित जातियों का निवास है। जो एकमत तेजाजी को अपना ईष्टदेव मानते हैं। राजपूतों का इस गांव में एक भी घर नहीं है।

    यहां की वर्तमान सरपंच चिमराणी निवासी मनीषा ईनाणियां है। धोलिया जाटों के भाट भैरूराम डेगाना के अनुसार वीर तेजाजी महाराज के षडदादा श्री उदयराज जी ने खौजा-खौखरों से खुरनाल/करनाल को जीतकर वर्तमान खरनाल बसाया था। खरनाल 24 गांवो का गणराज्य था। जिसके भूपति/गणपति उदयराज से लेकर ताहड़जी धौलिया तक हुए।

    [पृष्ठ-178]:खरनाल के दक्षिण में धुवा तालाब है, जो कि धवलराय जी धौलिया (द्वितीय) द्वारा खुदवाया गया। यह तालाब वर्ष भर गांव की प्यास बुझाता है। तालाब की उत्तरी पाल पर एक भव्य छतरी बनाई हुई है जो कि कोई समाधी जैसी प्रतीत होती है। छतरी के ऊपर अंदर की साइड के पत्थर पर शिलालेख खुदा है। इस पर वि.सं. 1022 (965 ई.) व 1111 (1054 ई.) लिखा हुआ है। यह 'बड़कों की छतरी' कहलाती है। यह निर्माण कला की दृष्टि से अत्यंत प्राचीन लगती है। बताया जाता है कि यह तेजाजी के पूर्वजों ने बनाई थी। इसी तालाब के एक छौर पर तेजल सखी लीलण का भव्य समाधी मंदिर बना हुआ है।
    खरनाल के कांकड़ में खुदे तालाब नाड़ियां सबको धोलियों के नाम पर आज भी पुकारा जाता है। धुवा तालाब (धवल राज) हमलाई नाड़ी (हेमाजी) जहां उनका चबूतरा बना हुआ है। चंचलाई - चेना राम, खतलाई - खेताराम,

    [पृष्ठ-179]:नयो नाड़ा - नंदा बाबा, पानी वाला- पन्ना बाबा, अमराई - अमरारम, भरोण्डा-भींवाराम, पीथड़ी- पीथाराम, देहड़िया- डूँगाराम द्वारा खुदाए पुकारे जाते हैं। ये धूलाजी शायद वे नहीं थे जिनके नाम पर धौल्या गोत्र चला, बल्कि बाद की पीढ़ियों में कोई और धूलाजी हुये थे। क्योंकि संवत की दृष्टि से प्राचीन धवलराज का तालमेल नहीं बैठता है। भाट की पौथी कहती है कि खरनाल को उदयराज ने आबाद किया जबकि धवलपाल इनसे 9 पीढ़ी पहले हो गए थे।
    Laxman Burdak

  13. #12

    खरनाल में अन्य संरचनाएं :


    खरनाल में नवनिर्मित गजानंद जी (2009) व महादेव जी (2000) के मंदिर है।

    ठाकुर जी का मंदिर: इसके अलावा बेहद प्राचीन ठाकुर जी का मंदिर बना हुआ है। खरनाल के कांकड़ में खुदे समस्त तालाबों के नाम वीरतेजाजी महाराज के पूर्वजों पर ही है।
    मेला मैदान खरनाल: खरनाल गांव के बाहर की तरफ जौधपुर हाईवे पर लगभग 7-8 बीघा में मैला मैदान स्थित है। इसी मैदान में सड़क से 50 मीटर की दूरी पर "सत्यवादी वीर तेजाजी महाराज" की 6-7 टन वजनी भव्य व विशाल लीलण असवारी प्रतीमा लगी हुई है। जिसका निर्माण स्व.रतनाराम जी धौलिया की चिरस्मृती में उनकी धर्मपत्नी कंवरीदेवी व सुपुत्रों द्वारा 2001 में करवाया गया। मैला मैदान में एक मंच बना हुआ है जहां पर तेजादशमी को विशाल धर्मसभा होती है।जिसमें देशभर के लाखों किसान जुटते हैं।


    अभी वर्तमान में "अखिल भारतीय वीर तेजाजी महाराज जन्मस्थली संस्थान, खरनाल' द्वारा 2-3 बीघा जमीन और खरीदी गई है। जहां वीर तेजाजी महाराज का भव्य व आलिशान मंदिर बनाया जाना प्रस्तावित है।"अखिल भारतीय वीर तेजाजी महाराज जन्मस्थली संस्थान, खरनाल' के चुनाव हाल ही में सम्पन्न हुए हैं।इसके वर्तमान अध्यक्ष 'श्री सुखाराम जी खुड़खुड़िया' है तथा पूर्व अध्यक्ष 'श्री अर्जुनराम जी महरिया' थे।


    वीर तेजाजी मंदिर, खरनाल: वीर तेजाजी महाराज मुख्य मंदिर के सेवक "श्री मनोहर दास जी महाराज" है। वीर तेजाजी मंदिर, खरनाल के गादिपती पर वर्तमीन में श्री दरियाव जी धौलिया आसीन है। जिनमें तेजाजी का भाव आता है। इनके अलावा औमप्रकाश जी धौलिया भी तेजाजी महाराज के 'घुड़ला' है। मंदिर के गर्भ गृह में वीर तेजाजी महाराज, लीलण सखी व गौमाता के बेहद सुंदर स्वर्ण लेपित धातुमूर्तियां विराजमान है। जिनकी सुबह शाम पूजा अर्चना होती है।


    वैसे तो वर्षपर्यंत तेजाभक्त दर्शनार्थ खरनाल आते है मगर सावण भादवा माह में खरनाल धाम तेजाभक्तों से अटा रहता है। यहां तिल रखने की भी जगह नही मिलती। गांव गांव से डीजे पर नृत्य करते वीर तेजाजी महाराज के संघ मेले में चार चांद लगा देते है। बरसात की रिमझिम में तेजाभक्तों के जयकारे एक अलग ही माहौल बना देते है। भादवा शुक्ल नवमी की रात 'माता सती पेमल'को समर्पित होती है। उनके आशीष व अंतिम वाणी के आदेशानुसार नवमी की रात जगाई जाती है। अर्थात् नवमी को रातभर तेजाभक्त रात्री जागरण करते है। खरनाल गांव में रात्री जागरण का कार्यक्रम बेहद भव्य होता है। पहले वीर तेजल महाराज की पूजा अर्चना तत्पश्चात तेजा मंदिर दालान में विभिन्न गांवो से पधारे 'तेजागायकों' द्वारा रातभर टेरैं दी जाती है। झिरमीर बरसात के तेजागायन का लुत्फ उठाना एक अलग ही आनंद से सराबोर कर देता है।भादवा सुदी दशम को मुख्य मेले का आयोजन होता है। जिसमें देश प्रदेश से तेजाभक्त दर्शनार्थ उपस्थित होते है। दर्शनौं का यह क्रम रात तक चलता रहता है। शाम को मेला मैदान में धर्मसभा का आयोजन किया जाता है जिसमें सर्वसमाज के गणामान्य व्यक्ति अपना उद्धबोधन देते है।वीर तेजा दशमी को पूरे नागौर जिले के सरकारी प्रतिष्ठानों में जिला कलक्टर द्वारा राजकीय अवकाश घोषित किया जाता है। इस गांव के कण कण में देवात्मा वीर तेजाजी महाराज का सत व अमर आशीषें मौजूद है।....इस भाग के लेखक: बलवीर घिंटाला तेजाभक्त, मकराना नागौर+91-9024980515
    Laxman Burdak

  14. #13
    तेजाजी के ननिहाल

    संत श्री कान्हारामने लिखा है कि.... [पृष्ठ-160]: तेजाजी के ननिहाल दो जगह थे – त्योद (किशनगढ़, अजमेर) और अठ्यासन (नागौर)


    तेजाजी के पिता ताहड़देव जी धौलिया का पहला विवाह त्योद किशनगढ़ के दुल्हण जी सोढ़ीज्याणी जाट की पुत्री रामकुंवरी के साथ वि.स. 1104 (=1047 AD) में सम्पन्न हुआ। विवाह के 12 वर्ष पश्चात भी जब खरनाल गणराज्य के उत्तराधिकारी के रूप में किसी राजकुमार का जन्म नहीं हुआ तो राजमाता रामकुँवरी ने ताहड़ जी को दूसरे विवाह की अनुमति दी और स्वयं अपने पीहर त्योद जाकर शिव और नागदेवता की पूजा अर्चना में रत हो गई।


    तेजाजी के प्रथम ननिहाल त्योद में ज्याणी जाटों के मात्र 3 घर ही हैं। इनके पूर्वज मंगरी गाँव में बस गए हैं।
    विवाह के 12 वर्ष तक रामकुँवरी के कोई संतान नहीं हुई। अतः अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिए ताहड़ जी के नहीं चाहते हुये भी रामकुँवरी ने अपने पति का दूसरा विवाह कर दिया। तेजाजी के पिता ताहड़ जी धौलिया का दूसरा विवाह कोयलापाटन (आठ्यासन) निवासी अखोजी (ईंटोजी) के पौत्र व जेठोजी के पुत्र करणोजी की पुत्री रामीदेवी के साथ वि.स. 1116 (=1059 AD) में सम्पन्न हुआ। इस विवाह का उल्लेख फरड़ोदों के हरसोलाव निवासी भाट जगदीश की पोथी में है। रामी देवी के कोख से तेजाजी के पाँच बड़े भाई उत्पन्न हुये – रूपजी, रणजी, गुण जी, महेशजी और नगजी। सभी भाईयों ने छोटे होते हुये भी तेजाजी को राज्य का उत्तराधिकारी स्वीकार किया यह भ्रातृ प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण है।


    राम कुँवरी को 12 वर्ष तक कोई संतान नही होने से अपने पीहर पक्ष के गुरु मंगलनाथ जी के निर्देशन में उन्होने नागदेव की पूजा-उपासना आरंभ की। 12 वर्ष की आराधना के बाद उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति तेजाजी के रूप में हुई एक पुत्री राजल भी प्राप्त हुई। यह नाग-बांबी आज भी तत्कालीन त्योद-पनेर के कांकड़ में मौजूद है। अब उस स्थान पर तेजाजी की देवगति धाम सुरसुरा ग्राम आबाद है। उस समय वहाँ घनघोर जंगल था। सुरसुरा में तेजाजी का मंदिर बना हुआ है जिसमें तेजाजी की स्वप्रकट मूर्ति प्रतिष्ठित है। उसके सटाकर वह बांबी मौजूद है।

    [पृषह-161]: इस बाम्बी के पास सटाकर तेजाजी के वीरगति पाने के बाद आसुदेवासी के नेतृत्व में ग्वालों ने तेजाजी का दाह संस्कार किया था। यहीं पर उनकी पत्नी पेमल सती हो गई थी। पेमल की अरदास पर सूर्यदेव की किरण से अग्नि उत्पन्न हो गई थी। इसी स्थान पर तेजाजी की समाधि पर भव्य मंदिर बना हुआ है। यहाँ नागदेव की बाँबी भी मौजूद है। त्योद के निवासी अपने भांजे तेजाजी की मान मर्यादा को निभाने के लिए आज तक यहाँ वीरगति स्थल समाधि धाम सुरसुरा में आते हैं। भादवा सुदी तेजा दशमी के दिन त्योद के वासिंदे गाजा बाजा के साथ तेजाजी का लोकगीत गाते हुये सुरसुरा में तेजाजी के समाधि धाम वीरगति स्थल पर खोपरा व मोलिया लाकर चढ़ाते हैं। यह परंपरा तब से अब तक अनवरत रूप से बदस्तूर जारी है।

    [पृषह-162]:जगदीश भाट हरसोलाव की पौठी में इसका साक्षी विद्यमान है कि तेजाजी की ननिहाल अठ्यासन गाँव के फिडोदा गोत्री जाट के घर थी। भैरू भाट की पोथी में केवल एक ही नाम राम कुँवरी लिखा हुआ है। जबकि जगदीश भाट की पोथी में अथयासन वाली पोथी में अठ्यासन वाली पत्नी का नाम भी रामी लिखा है।
    ताहड़ देव की प्रथम पत्नी त्योद निवासी ज्याणी गोत्र के जाट करसण जी के पुत्र राव दूल्हन जी सोढ़ी की पुत्री थी। यह सोढ़ी शब्द दूल्हन जी की खाँप या उपगोत्र अथवा नख से संबन्धित है। अब यहाँ ज्याणी गोत्री जाटों के सिर्फ तीन घर आबाद हैं। यहाँ से 20-25 किमी दूर आबाद मंगरी गाँव में ज्याणी रहते हैं।
    Laxman Burdak

  15. #14
    त्योद - यह ग्राम तेजाजी का ननिहाल है। त्योद ग्राम तेजाजी के समाधि धाम सुरसुरा से 5-6 किमी उत्तर दिशा में है। त्योद निवासी ज्याणी गोत्र के जाट करसण जी के पुत्र राव दूल्हन जी सोढ़ी की पुत्री राम कुँवरी का विवाह खरनाल निवासी बोहित जी (बक्साजी) के पुत्र ताहड़ देव (थिर राज) के साथ विक्रम संवत 1104 में हुआ था।

    [पृष्ठ-163]: विवाह के समय ताहड़ देव एवं राम कुँवरी दोनों जवान थे। ये सोढ़ी गोत्री जाट पांचाल प्रदेश से आए थे। यह ज्याणी भी सोढियों से निकले हैं। तब सोढ़ी यहाँ के गणपति थे। केंद्रीय सत्ता चौहानों की थी। यहाँ पर तेजाजी का प्राचीन मंदिर ज्याणी गोत्र के जाटों द्वारा बनवाया गया है। अब यहाँ पुराने मंदिर के स्थान पर नए भव्य मंदिर का निर्माण करवाया जा रहा है। यहाँ पर जाट, गुर्जर, बनिया, रेगर, मेघवाल, राजपूत, वैष्णव , ब्राह्मण, हरिजन, जांगिड़ , ढाढ़ी , बागरिया, गोस्वामी, कुम्हार आदि जतियों के लोग निवास करते हैं।


    किशनगढ़ तहसील के ग्राम दादिया निवासी लादूराम बड़वा (राव) पहले त्योद आते थे तथा तेजाजी का ननिहाल ज्याणी गोत्र में होने की वार्ता सुनाया करते थे। पहले इस गाँव को ज्याणी गोत्र के जाटों ने बसाया था। अब अधिकांस ज्याणी गोत्र के लोग मँगरी गाँव में चले गए हैं।

    [पृष्ठ-164]: तेजाजी के जमाने से काफी पहले ज्यानियों द्वारा बसाया गया था। पुराना गाँव वर्तमान गाँव से उत्तर दिशा में था। इसके अवशेष राख़, मिट्टी आदि अभी भी मिलते हैं। वर्तमान गाँव की छड़ी ज्याणी जाटों की रोपी हुई है।


    तेजाजी का दूसरा ननिहाल अठ्यासन





    अठ्यासन - तेजाजी के द्वितीय ननिहाल अठ्यासन में फरडोद जाटों के 3 ही घर हैं। इनके पूर्वजों ने फरड़ोद गोत्र से ही नया गाँव फरड़ोद बसाकर वहीं बस गए। अठ्यासन का प्राचीन नाम कोयलापाटन था। यह गाँव 2 से 3 हजार साल पुराना बताया जाता है। ऐतिहासिक कारणों से यह गाँव उजड़ गया। गाँव के पास खाती की ढ़ाणी में 8 साधू महात्माओं के धुणे थे। आठ आसनों के चलते गाँव का यह नाम आठ्यासन पड़ा। इस गाँव के मूल निवासी फरड़ोद गोत्र के जाट थे। इन्हीं फरड़ोद गोत्र के जाटों से मेघवालों की कटारिया गोत्र का उद्भव हुआ। आज भी इन दोनों के भाट एक ही हैं। बाद में फरड़ोद जाट गोत्र के लोगों ने गाँव छोड़ दिया और नया गाँव फिड़ौदा/फरड़ोद बसाकर वहाँ रहने लगे। अब यहाँ जाटों के फिड़ौदा/फरड़ोदा गोत्र के 3 परिवार ही हैं। इनके अलावा झिंझागटेला (घिटाला) गोत्री जाट यहाँ निवास करते हैं। ये तथ्य फरड़ोद गोत्र के जाटों के भाट जगदीश की पोथी में दर्ज हैं। वर्तमान में इस गाँव में छोटा सा मगर भव्य तेजाजी का मंदिर है। इसके पुजारी हरीराम झिंझा हैं। मुख्य मंदिर के पीछे एक छोटा सा प्राचीन (मान्यता अनुसार तेजाजी काल का) मंदिर है जिसमें तेजाजी और बहिन राजल की देवली हैं। यह इस गाँव की प्राचीनता तथा तेजाजीके ननिहाल की जीवटता को प्रदर्शित करता है।


    फिड़ौदा गोत्री जाटों के भाट जगदीश भाट निवासी हरसोलाव की पोथी के अनुसार तेजाजी का ननिहाल फिड़ौदा गोत्री जाटों के घर था। जाट 81, माली 125, मेघवल 55, भाट 5, ब्राह्मण 250 कुल 277 घर थे। जगदीश भाट निवासी हरसोलाव की पोथी के अनुसार अखोजी के पौत्र तथा जेठोजी के पुत्र करणो जी की पुत्री रामी का विवाह विक्रम संवत 1116 में बोहित जी के पुत्र ताहड़ जी धौलिया खरनाल के साथ हुआ था।
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  16. #15
    तेजाजी की बहिन राजल का जन्म

    संत श्री कान्हाराम[17] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-183]: तेजाजी के जन्म के तीन वर्ष बाद ताहड़ जी की बड़ी पत्नी रामकुँवरी की कोख से विक्रम संवत 1133 में एक कन्या का जन्म हुआ जिसका नाम रखा गया राजलदे (राजलक्ष्मी) । बोलचाल में उसे राजल कहा जाता था। वह तेजाजी के बलिदान के बाद लगभग 26 वर्ष की आयु में विक्रम संवत 1160 के भादवा सुदी एकादश को धरती की गोद में समा गई।


    खरनाल के एक किमी पूर्व में एक तालाब की पाल पर इनका मंदिर बना हुआ है। जन मान्यता के अनुसार जहां मंदिर बना है उसी स्थान पर एक साथी ग्वला द्वारा तेजाजी के बलिदान का समाचार सुन वह धरती की गोद में समा गई थी। लोगों की मान्यता , आस्था है कि मंदिर में लगी प्रतिमा भूमि से स्वतः प्रकट हुई थी।
    तेजाजी ने जब ससुराल के लिए विदाई ली, उससे पहले अपनी बहन राजल को ससुराल से लेकर आए थे। राजल का ससुराल अजमेर के पास तबीजी गाँव में था। वहाँ के राव रायपाल जी के पुत्र जोराजी (जोगजी) सिहाग से राजल का विवाह हुयाथा। राजल के एक पुत्र भी था।


    कुछ लोगों की मान्यता के अनुसार तेजाजी के एक और भोंगरी या बुंगरी अथवा बागल बाई के नाम से एक छोटी बहिन थी। लेकिन धौलिया वंशी खरनाल के जाटों के डेगाना निवासी भैरू राम भाट की पौथी में छोटी बहन का उल्लेख नहीं है। वहाँ तेजाजी के राजल नाम की छोटी बहन बताई गई है।


    जमीन में समाने के बाद तेजाजी की बहिन का जो मंदिर बना हुआ है वह बुंगरी माता का मंदिर कहलाता है। शायद इसी बुंगरी नाम की गफलत के कारण बुंगरी नामक छोटी बहन और होने की भ्रांति हुई।

    [पृष्ठ- 184]: काफी खोज करने के बाद पता चला कि शरीर पर उबरने वाले मस्सों को मिटाने के लिए आमजन इस मंदिर में बुहारी (झाड़ू) चढ़ाते हैं। झाड़ू को स्थानीय भाषा में बुंगरी कहा जाता है। बुंगरी चढ़ाने से इनका नाम बुंगरी माता प्रसिद्ध हो गया है। बुंगरी माता का मंदिर तथा तालाब (जोहड़) बड़ा रमणीय है। इस तालाब की मिट्टी की पट्टी आँखों पर बांधने से आँखों की समस्त बीमारियाँ मिट जाती हैं।


    पास ही बुंगरी माता (राजल दे) की सहेली जो तेजाजी को माँ जाया भाई जैसा मानती थी उसकी भी समाधि मौजूद है। कहते हैं कि वह सहेली भी राजल के साथ धरती में समा गई थी। यह सहेली कौन थी इसका ठीक-ठीक पता नहीं है। कुछ लोग उसे नायक जाति की तो कुछ लोग मेघवाल जाति की कन्या बताते हैं।
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  17. #16
    तेजाजी का पेमल के साथ विवाह

    पेमल का जन्म: संत श्री कान्हाराम ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-173]: तेजा के जन्म के तीन माह बाद विक्रम संवत 1131 (1074 ई.) की बुद्ध पूर्णिमा (पीपल पूनम) के दिन पनेर गणराज्य के गणपति रायमल जी मुहता (मेहता) के घर एक कन्या ने जन्म लिया। पूर्णिमा के प अक्षर को लेकर कन्या का नाम रखा गया पद्मा। परंतु बोलचाल की भाषा में पेमल दे नाम प्रसिद्ध हुआ।


    संत श्री कान्हाराम[19] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-179]: तेजाजी के जन्म के बाद माता रामकुँवरी ने पतिदेव से कहा कि पुत्र प्राप्ति की मनोकामना पूर्ण हुई है, इसलिए पुष्कर स्नान और नागदेव की मांबी पर धोक देने के लिए चलना चाहिए। इसलिए देवप्रबोधिनी एकादशी के एक दिन पहले विक्रम संवत 1131 की कार्तिक शुक्ल दशमी को प्रातः तेजा को लेकर ताहड़ जी सपत्नीक पुष्कर यात्रा को निकल पड़े। साथ में इष्ट मित्र और तेजा के काका आसकरण जी भी थे। पुष्कर में स्नान करने के बाद बूढ़े पुष्कर के नाग घाट पर तेजा को लिटाकर मंगल कामना की और विधिवत पूजा अर्चना कर मुक्त हस्त से दान दक्षिणा दी।


    पनेर के गणपति रायमल जी मुहता भी उसी समय पुष्कर स्नान के लिए आए हुये थे। उनके घर में भी पेमल के रूप में पुत्री धन की प्राप्ति हुई थी। शहर पनेर और खरनाल के दोनों गणपतियों के परिवारों ने एकादशी से पूर्णिमा तक साथ-साथ स्नान, ध्यान, देवदर्शन और दान आदि किए। इस दौरान दोनों का परिचय घनिष्ठता में बदल गया।
    तब तेजा 9 माह के थे और पेमल 6 माह की थी। तेजा के काका आसकरण और पेमल के पिता रायलल जी मुहता ने आपसी घनिष्ठता को रिसते में बदलने का प्रस्ताव रखा तो ताहड़ जी ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

    [पृष्ठ-180]: दोनों पक्षों ने निर्णय किया कि पुष्कर पूर्णिमा जैसा शुभ मुहूर्त दुर्लभ है। वैदिक मंत्रोचार के साथ पुष्कर के प्रकांड पंडितों ने बूढ़े पुष्कर के नाग घाट पर पीले-पोतड़ों में तेजा व पेमल का विवाह सम्पन्न किया। उस समय बाल-विवाह की सामाजिक स्वीकृति थी।


    इस विवाह की स्वीकृति के लिए दोनों पक्षों के मामाओं को भी बुलाया गया था। तेजा के मामा पास के त्योद के गणपति करसण जी के पौत्र व दूलहन जी सोढ़ी (ज्यानी) के पुत्र हेमूजी सोढ़ी सही समय पर पुष्कर पहुँच गए थे। लेकिन पेमल के मामा खाजू काला को जायल से पुष्कर पहुँचने में काफी देर हो गई थी। वह फेरे लेने के समय पहुंचा, क्योंकि फेरों का मुहूर्त विक्रम संवत 1131 की पुष्कर पूर्णिमा को गोधुली वेला निश्चित था। फेरे होने के बाद पेमल के मामा खाजू काला को पता चला कि उनकी भांजी का विवाह उनके दुश्मन पक्ष के गणपति ताहड़ देव के पुत्र तेजा के साथ सम्पन्न हुआ है। काला और धौलिया गणतंत्रों के बीच काफी पीढ़ियों से दुश्मनी चली आ रही थी।

    [पृष्ठ-181]: पेमल के मामा की हत्यापेमल के मामा को यह संबंध गले नहीं उतरा। अतः वह पुष्कर घाट पर ही ताहड़ देव को भला बुरा कहने लगा। विवाद बढ़ गया और टकराव की स्थिति बन गई। ताहड़ जी ने तलवार उठाकर पेमल के मामा की हत्या कर दी। ताहड़ जी और रायमल मुहता बड़े समझदार गणपति थे। दोनों बड़े दुखी हुये परंतु पेमल के मामा की अति को समझते हुये घटना को विस्मृत करना उचित समझा। लेकिन पेमल की माँ ने इस घटना को दिल से लगा लिया। उसने पुष्कर घाट पर ही प्रतिज्ञ की कि वह खून का बदला खून से लेगी। दोनों वंश अपने-अपने गणतंत्र को प्रस्थान कर गए परंतु इस घटना के कारण काला और धौलिया परिवारों में दुश्मनी की खाई और गहरी हो गई।


    अब आगे और कोई अनहोनी होने के भय से नागदेव की बांबी पर धोक लगाए बिना ही दोनों गणतंत्रों के गणपति अपने-अपने गंतव्यों की तरफ चल पड़े। राम कुँवरी ने कहा कि ईश्वर की कृपा रही तो फिर कभी नागदेव की बांबी ढोकने आएंगे। समय का तकाजा है कि तुरंत हमें खरनाल पहुंचना चाहिए।
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  18. #17
    ताहड़ देव की हत्या

    कालिया बालिया का आतंक: संत श्री कान्हाराम ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-182]: तेजाजी की सास बोदल दे का प्रतिशोध सातवें आसमान पर था। उन्हें पता था की उनके पीहर पक्ष की काला गोत्र का बालिया नाग बदमशों के गुट का सरदार था। उधर चांग के मीनों के एक बदमाश गुट का सरदार था कालिया मिणा। ये दोनों बदमाश दल असामाजिक गतिविधियों में लिप्त थे। कालिया-बालिया की आपस में दोस्ती थी। बोदल दे बदले की आग में बालिया नाग से जा मिली। बलिया नाग ने उसे कालिया मीणा से मिलाया। आगामी रक्षा बंधन पर बालिया नाग की सलाह पर कालिया मीणा को उन्होने राखी बांध भाई बनाया। उन्होने कालिया मीणा के सामने अपने भाई की मौत का दुखड़ा रोया। कालिया मीणा ने ताहड़ दे से बदला लेने का वचन दिया।


    कालिया-बालिया ने कई बार अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु कोशिश की, पर सफलता नहीं मिली। उन्होने कभी गायें चोरी की, कभी खेतों में आग लगाई। वे खरनाल को परेशान करने लगे।


    नाग वंश के आसित नाग शाखा के काला गोत्री जाटों के एक छोटे से बदमाश गुट का सरदार था बालिया नाग। उधर चांग के मीनों का का एक छोटे से बदमाश दल का सरदार था कालिया मीणा। यह दल भी नागवंश से ही संबन्धित था। नाग वंश की मेर शाखा जो अजमेर से मेवाड़ तक फैली हुई है। उसकी एक शाखा से संबन्धित था कालिया मीणा। कालिया मीणा के दल ने भी पूरे मेरवाड़ा क्षेत्र में चोरियों, डकेतियों, लूटपाट द्वारा आतंक फैला रखा था।

    [पृष्ठ-183]: पूर्व में आमेर पश्चिम में पाली तक इनको चुनौती देने वाला नहीं था। यह दल परबतसरसांभर तक लूटमार पर जाया करता था। इसी कालिया मीणा के दल ने सांभर-परबतसर के बीच स्थित शहर पनेर से लाछा की गायें चुराई थी। कालिया दल का मूल बसेरा वर्तमान ब्यावर के पश्चिम में करणा जी की डांग की पहाड़ियों में स्थित बीहड़ों में था।

    ताहड़ देव की हत्या: संत श्री कान्हाराम[21] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ- 185]:कुँवर तेजपाल की आयु लगभग 9-10 होने तक सब ठीक-ठाक चलता रहा। कालिया-बलिया की कुटिलताएं जारी थी परंतु खरनाल सावधान था। विक्रम संवत 1139 के आस-पास आसोज माह में गणराज्य की फसल को देखने की लालसा में गणपति ताहड़ देव घोड़े पर सवार होकर अकेले दिन के तीसरे पहर खेतों की ओर निकले थे।

    [पृष्ठ- 186]: खेतों में लहलहाती फसल को देखकर वे बहुर खुश थे। कालिया-बालिया के दल उस समय फसलों में छुपकर घात लगाए बैठे थे। दुश्मनों ने अचानक हमला कर ताहड़ देव की हत्या कर दी। खरनाल से ताहड़ देव के भाई आसकरण सहायता लेकर पहुंचे और दुश्मनों का पीछा किया। दुश्मन अधिक संख्या में थे। इस युद्ध में तेजाजी के चाचा आसकरण भी शहीद हो गए।
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  19. #18
    तेजाजी की शिक्षा-दीक्षा ननिहाल त्योद में

    संत श्री कान्हाराम ने लिखा है कि.... [पृष्ठ- 184]: तेजाजी के जन्म के आस-पास का समय महा अंधकार का काल था। पश्चिम से लगातार हमले हो रहे थे। रोज-रोज के आक्रमणों से तत्कालीन क्षत्रिय कमजोर पड़ रहे थे। गणतन्त्र के शासकों के पास कोई संगठित सेना नहीं थी। आवश्यकता होने पर केंद्रीय सत्ता के साथ मदद में खड़े होते थे। राजतंत्रीय शासक अपनी शक्ति को आपसी लड़ाई में नष्ट कर रहे थे। भारतीय समाज पर धर्म परिवर्तन का दवाब था। क्षत्रिय वंशों के लोग किसान, ग्वाला, मजदूर आदि जतियों में सम्मिलित हो रहे थे। काला और धौलिया जाटों में दुश्मनी भी विकट स्थिति निर्मित कर रही थी।


    ऐसी विषम परिस्थितियों में तेजा की शिक्षा-दीक्षा विधिवत शुभारंभ में काफी बाधाएँ थी। तेजा के बचपन में विवाह के साथ ससुराल पक्ष से बैर पड़ा हुआ था। तेजाजी के पिता ताहड़ देव की जल्दी मृत्यु हो गई थी।

    [पृष्ठ- 185]: गणतन्त्र के शासक वर्ग से सम्बद्ध होने तथा उनके नाना व माता का उच्च संस्कारित होने से तेजा की औपचारिक शिक्षा–दीक्षा की व्यवस्था ननिहाल पक्ष के कुलगुरु मंगलनाथ की देखरेख में की गई। अस्त्र-संचालन की विद्या उनके दादा बक्साजी एवं नाना दूल्हण जी द्वारा दी गई। धनुष-बाण, ढाल-तलवार, व भाला संचालन में तेजा का उस जमाने में कोई सानी नहीं था। इसका प्रमाण मीनों के साथ युद्ध संचालन में मिलता है। 350 यौद्धा एक तरफ थे और तेजा एक तरफ परंतु सभी 350 को पछड़ कर जीत हासिल की थी।


    तेजाजी ननिहाल त्योद में: संत श्री कान्हाराम ने लिखा है कि.... [पृष्ठ- 186]: अचानक घात लगा कर ताहड़ देव की हत्या से तेजाजी की माताजी रामकुँवरी अंदर तक हिल गई। कालिया-बालिया की दुश्मनी तो मुख्यरूप से ताहड़ जी से थी, जो चुकता हो गई थी। परंतु राम कुँवरी को डर सताने लगा कि कहीं तेजा के साथ कोई अनहोनी न हो जाए। जैसे-तैसे 6 माह निकालने के बाद विक्रम संवत 1140 बैसाख में माता राम कुँवरी तेजा को अपने साथ लेकर पीहर त्योद आ गई। तेजा अपनी घोड़ी लीलण को भी साथ ले आए।


    अब तेजा अपने नाना-मामा के संरक्षण में रहने लगे। नाना दुल्हन जी सोढ़ी और मामा हेमूजी सोढ़ी (ज्यानी) के संरक्षण में अस्त्र-शस्त्र संचालन, घुड़सवारी, तीर-तलवार-ढाल व भाला संचालन की शिक्षा प्राप्त कर इन विद्याओं में पारंगत हुये। ननिहाल पक्ष के कुलगुरु संत मंगलनाथ से भूगोल, गणित, पर्यावरण और अध्यात्म विद्या सीखी।

    [पृष्ठ-194]: तेजा ने दो वर्ष तक अपने ननिहाल में नाना के गौमाताओं को भी चराया। तेजाजी की आयु अब 16 साल हो चुकी थी। तेजाजी ने अब तक दुनियादारी को काफी समझ लिया था। उनको अब बोध हुआ कि खरनाल चलना चाहिए। माता राम कुँवरी ने नाना और मामा से चर्चा की और निर्णय हुआ कि तेजाजी को माता के साथ खरनाल लौटना चाहिए।

    गणराज्य की दुखी जनता ने गणपति का भार बूढ़े बक्साजी के कंधों पर डाला। बक्साजी ने सम्पूर्ण परिस्थितियों को समझ कर गणपति पद संभाला और तेजपाल के संरक्षक की भूमिका निभाई।
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  20. #19
    युवराज तेजाजी और उनका व्यक्तित्व

    संत श्री कान्हाराम ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-194,195, 196, 205]: तेजाजी ने नाना , मामा और कुलगुरु से आशिर्वाद प्राप्त किया। बासगदेव की बांबी पर माथा टेका। त्योद गणराज्य के लोगों ने तेजा को उदासमन से विदाई दी। मामा हेमराज और माता के रथ में सवार हुये। तेजा अपनी घोड़ी लीलण पर सवार हुये। विक्रम संवत 1146 जेठ माह में तेजा वापस खरनाल लौटे। तेजाजी के खरनाल पहुँचने पर दादा बोहित जी ने गाजा-बाजा से माता रामकुँवरी और तेजा का भव्य स्वागत किया। तेजा ने बोहित राज जी के साथ जाकर कुलगुरु जुंजाला के गुसाईंजी को प्रणाम किया और आशीर्वाद लिया। भगवान शिव के मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना की। खरनाल गणराज्य के 24 गांवों में तेजाजी के आगमन की खबर फैली तो खुशी की लहर फ़ेल गई। लोगों को कानों-कान खबर पहुंची कि तेजजाजी बहुत बड़े गुणवान और होनहार हो गए हैं।

    तेजाजी अब गणराज्य चलाने में दादा बोहितराज की सहायता करने लगे। खरनाल में तेजाजी को नए साथी मिल गए। इनमें से समान विचारवालों में से मुख्य थे – पांचू मेघवाल, खेता कुम्हार और जेतराज जाट


    तेजाजी गौमाता को बहुत मानते थे। गौमाता के लिए हमेशा प्राणों की बाजी लगाने को भी तैयार रहते थे। अपने हतियार ढाल, तलवार, भाला, तीर कमान, तूणीर हरपाल साथ रखते थे। उनको कालाओं के बालू नाग की दुश्मनी का ज्ञान था, चांग के कालिया मीना दल से भी दुश्मनी थी।

    [पृष्ठ-207]: तेजाजी महान कृषि वैज्ञानिक थे। इसलिए उन्हें कृषि उपकारक देवता माना जाता है। तेजाजी की सम्पूर्ण कृषि विधि प्राकृतिक पद्धति तथा गौ विज्ञान पर आधारित थी। वे खेती बाड़ी से संबन्धित हर तथ्य की जानकारी रखते थे। खेती में लगने वाले कीट-पतंगों को भगाने के लिए उनके द्वारा अहिंसात्मक अद्भुत विधिया बताई गई थी।


    पांचू मेघवाल का मंदिर में प्रवेश – तेजाजी प्रतिदिन की भांति शिवलिंग पर जल चढ़ा रहे थे तभी एक दुखदाई घटना घटी। पांचू नामक अबोध बच्चा ठाकुरजी के मंदिर में चला गया। पुजारी को जब पता लगा कि यह बच्चा मेघवाल जाति का है तो वे अपना आपा खो बैठे और आग-बबूला होकर बच्चे को लाट से मारने लगे। मंदिर में देव-दर्शन को गई जनता यह तमाशा देख रही थी।

    [पृष्ठ-208]: उसी समय तेजाजी धुवा तलब की पाल पर बनी अपने पूर्वजों की छतरी में स्थापित शिवलिंग पर जल चढ़कर आ रहे थे। पुजारी के लात-घूसों से टूटी आफत से तेजाजी ने पांचू को बचाया। बच्चे को छाती से लगाकर तेजाजी ने संबल प्रदा किया और नहीं डरने के लिए उसे आश्वस्त किया। इस पर पुजारी ने कहा कि यह बच्चा छोटी जाति का है। मंदिर में प्रवेश कर इसने अपराध किया है। पुजारी को तेजाजी ने समझाया कि छोटी जाति की सबरी भीलनी के जूठे बेर भी तो आपके ठाकुर जी ने स्वयं खाये थे। यहाँ तो केवल ठाकुर जी की प्रतिमा मात्र है। पुजारी ने कहा कि मूर्ति की प्राण प्रतष्ठा की गई है, इसमें ठाकुर जी का प्रवेश हो गया है। तेजाजी ने प्रतिप्रश्न किया कि यदि ऐसा ही होता तो प्राण-प्रतिष्ठा वाले मंत्रों से आपके मारे हुये पिताजी को जिंदा क्यों नहीं कर लेते ? पुजारी निरुत्तर हो गए। तेजाजी ने बताया कि ठाकुर जी का निवास अकेली प्रतिमा में ही नहीं है बल्कि प्रत्येक प्राणी में है। बालक तो वैसे ही परमात्मा का स्वरूप होता है।
    तेजाजी ने कहा पुजारी जी आपने राम को पढ़ा है, राम को समझा नहीं। राम केवल पढ़ने तथा पूजा करने की चीज नहीं है। उनके चरित्र को समझकर जीवन में उतारने की चीज है। पुजारी ने इस पर तेजाजी को चुनौती दी कि आप इतने ही ज्ञानी और रामभक्त हो तो मेरे द्वारा बंद किए मंदिर के किवाड़ खोलकर ठाकुर जी को बाहर बुलालो।

    [पृष्ठ-210]: श्रुति परंपरा कहती है कि तेजाजी की सच्ची प्रार्थना स्वीकार हुई, मंदिर के पट खुले और देव प्रतिमा बाहर आई। तेजा ने, पांचू ने, प्रजाजन ने देव प्रतिमा को प्रणाम किया। पुजारी ने अपने किए कृत्य पर परमात्मा से क्षमा मांगी। तेजाजी की जय-जय कार होने लगी। तब से पांचू तेजाजी को सखा ही नहीं भगवान मानने लगा, जबकि पांचू तेजाजी से उम्र में बहुत छोटा था। पांचू का विस्वास लौट आया और तब से वह तेजाजी के साथ ही रहने लगा।


    तेजाजी का व्यक्तित्व:
    तेजा का चेहरा युवा होने पर तेज से दमकने लगा। उनकी आँखों में एक निर्मल और पवित्र चमक थी। उनके होठ गुलाब की पंखुड़ी की तरह, नासिका सुवा के चोंच जैसी, गाल लाल, बाल काले, चौड़ी छाती, शंख सी गर्दन, वृषभ से स्कन्ध, बलिष्ठ भुजाएँ, कसी हुई कमर, हाथी की सूंड सी जंघाएँ, गठीली पिंडलियाँ, उभारयुक्त चरण, कमर में लटकती तलवार-ढाल और भाला! यह था तेजाजी का व्यक्तित्व। माला व भाला दोनों में निपुणता, अध्यात्म में गहरी रुचि, भक्तिभाव व गायों की सुरक्षा में गहरी रुचि। न्याय में विक्रमादित्य के समान थे। जड़ी-बूटियों से मनुष्यों और पशुओं के इलाज की उनको महारत हासिल थी।
    तेजाजी खरनाल गणराज्य के युवराज थे अतः खरनाल की हर समस्या का समाधान तेजाजी के जिम्मे था। गणराज्य की राज-काज में हाथ बटाने के साथ-साथ पशुधन एवं कृषि कार्य तथा इसके उन्नति की ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर थी। समस्त सामाजिक सरोकारों में तेजाजी को हिस्सेदारी लेनी पड़ती थी। तेजाजी के कार्यक्षेत्र का अत्यंत विस्तार हो चुका था। सामाजिक समता का कार्य तेजाजी बहुत ही निष्पक्षता से करते थे। अस्त्र-शस्त्र संचालन में पारंगत होने के कारण गणराज्य के शत्रु भी उनका लौहा मानते थे। गणराज्य में उन्नति तथा शांति स्थापना उनकी प्राथमिकता थी। तेजाजी की बहादुरी और समझदारी के डंके बजने लगे थे।
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  21. #20
    तेजाजी का हळसौतिया

    ज्येष्ठ मास लग चुका है। ज्येष्ठ मास में ही ऋतु की प्रथम वर्षा हो चुकी है। ज्येष्ठ मास की वर्षा अत्यन्त शुभ है। गाँव के मुखिया को ‘हालोतिया’या हळसौतिया करके बुवाई की शुरुआत करनी है। उस काल में परंपरा थी की वर्षात होने पर गण या कबीले के गणपति सर्वप्रथम खेत में हल जोतने की शुरुआत करता था, तत्पश्चात किसान हल जोतते थे। गणराज्यों के काल में हलजोत्या की शुरुआत गणपति द्वारा किए जाने की व्यवस्था अति प्राचीन थी। ऐतिहासिक संदर्भों की खोज से पता चला कि उस जमाने में गणतन्त्र पद्धति के शासक सर्वप्रथम वर्षा होने पर हल जोतने का दस्तूर (हळसौतिया) स्वयं किया करते थे तथा शासक वर्ग स्वयं के हाथ का कमाया खाता था। राजा जनक के हल जोतने के ऐतिहासिक प्रमाण सर्वज्ञात हैं, क्योंकि सीता उनको हल जोतते समय उमरा (सीता) में मिली थी इसीलिए नाम सीता पड़ा । बुद्ध के शासक पिता शुद्धोदन के पास काफी जमीन थी। शुद्धोदन तथा बुद्ध स्वयं हल जोता करते थे। बोद्ध काल में यह परंपरा वप्रमंगल उत्सव कहलाता था जिसके अंतर्गत धान बोने के प्रथम दिन हर शाक्य अपने हाथ से हल जोता करते थे।(आनंद श्रीकृष्ण:भगवान बुद्ध, समृद्ध भारत प्रकाशन, मुंबई, अक्टूबर 2005, ISBN 80-88340-02-2, p. 2-3 )

    मुखिया ताहड़ देव की पत्नी अपने छोटे पुत्र को, जिसका नाम तेजा है, खेतों में जाकर हळसौतिया का शगुन करने के लिए कहती है।

    गाज्यौ-गाज्यौ जेठ'र आषाढ़ कँवर तेजा रे ।
    लगतो ही गाज्यौ रे सावण-भादवो ।।
    सूतो कांई सुख भर नींद कुँवर तेजारे ।
    हल जोत्यो कर दे तूँ खाबड़ खेत में ॥

    जब तेजा कहता है कि यह काम तो हाली ही कर देगा, तब माता टोकती है कि-
    हाली का बीज्या निपजै मोठ ग्वार कुँवर तेजारे,
    थारा तो बीज्योड़ा मोती निपजै॥

    माता समझाती है कि कहां रास, पिराणी, हल, हाल, जूड़ा, नेगड़-गांगाड़ा पड़ा है। तेजाजी माता से मालूम करते हैं कि मोठ, ग्वार, ज्वार, बाजरी किन किन खेतों में बीजना है तब माता कहती है –

    डेहरियां में बीजो थे मोठ ग्वार कुँवर तेजारे,
    बाजरियो बीजो थे खाबड़ खेत मैं।

    माता का वचन मानकर तेजा पहर के तड़के उठते हैं। हल, बैल, बीजणा, पिराणी आदि लेकर खेत जाते हैं और स्यावड़ माता का नाम लेकर बाजरा बीजना शुरू किया। दोपहर तक 12 बीघा की पूरी आवड़ी बीज डाली। तेजा को जोरों की भूख लग आई है। उसकी भाभी उसके लिए ‘छाक’ यानी भोजन लेकर आएगी। मगर कब? कितनी देर लगाएगी? सचमुच, भाभी बड़ी देर लगाने के बाद ‘छाक’ लेकर पहुँची है। तेजा का गुस्सा सातवें आसमान पर है। वह भाभी को खरी-खोटी सुनाने लगा है। तेजाजी ने कहा कि बैल रात से ही भूके हैं मैंने भी कुछ नहीं खाया है, भाभी इतनी देर कैसे लगादी। भाभी भी भाभी है। तेजाजी के गुस्से को झेल नहीं पाई और काम से भी पीड़ित थी सो पलट कर जवाब देती है,
    एक मन पीसना पीसने के पश्चात उसकी रोटियां बनाई, घोड़ी की खातिर दाना डाला, फिर बैलों के लिए चारा लाई और तेजाजी के लिए छाक लाई परन्तु छोटे बच्चे को झूले में रोता छोड़ कर आई, फिर भी तेजा को गुस्सा आये तो तुम्हारी जोरू जो पीहर में बैठी है, कुछ शर्म-लाज है, तो लिवा क्यों नहीं लाते?

    तेजा को भाभी की बात तीर-सी लगती है। वह रास पिराणी फैंकते हैं और ससुराल जाने की कसम खाते हैं। वह तत्क्षण अपनी पत्नी पेमल को लिवाने अपनी ससुराल जाने को तैयार होता है और अगली सुबह ससुराल जाने की कसम खा बैठे-
    ऐ सम्हाळो थारी रास पुराणी भाभी म्हारा ओ
    अब म्हे तो प्रभात जास्यां सासरे
    हरिया-हरिया थे घास चरल्यो बैलां म्हारा ओ
    पाणिड़ो पीवो थे गैण तळाव रो।

    संत श्री कान्हाराम ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-215]: कुछ लोगों का मानना है कि तेजाजी को अपनी शादी के बारे में पता नहीं था। धौलिया तथा काला वंशों में दुश्मनी जगजाहिर थी। तेजाजी के पिता ताहड़ देव की मृत्यु भी इसी दुश्मनी का परिणाम था। यह सभव नहीं लगता कि 29 वर्ष के राजकुमार तेजाजी को इसका पता न हो। लाछा गुजरी के पति नंदू गुर्जर से पता चला कि पेमल आपकी राह देख रही है और उन्होने अपनी माँ से साफ बता दिया है कि धौलिया को ब्याही हुई पेमल अन्यत्र शादी नहीं करेगी तो तेजा अपने कर्तव्य पालन के लिए बैचैन हो गए। भाभी के बोल ने आग में घी का काम किया, यही जनमानस में ज्यादा प्रचलित रहा जो लोकगीतों में परिलक्षित होता है।

    तेजाजी को ताना देने वाली भाभी कौन थी यह जानने के लिए काफी खोज-खबर की गई। पुराने जानकार लोगों का कहना है कि तेजाजी के इस भाई का नाम बलराम था तथा भाभी का नाम केलां था। खरनाल के धौलिया गोत्र के भाट भैरूराम की पोथी से इसकी पुष्टि नहीं होती है। भाट की पोथी में तेजाजी के भाईयों के नाम और भाभियाँ निम्नानुसार थे –

    • 1. रूपजीत (रूपजी) ... पत्नी रतनाई (रतनी) खीचड़
    • 2. रणजीत (रणजी)...पत्नी शेरां टांडी
    • 3. गुण राज ....पत्नी रीतां भाम्भू
    • 4. महेशजी ...पत्नी राजां बसवाणी
    • 5. नागराज (नागजी)....पत्नी माया बटियासर


    [पृष्ठ-216]: रूपजी की पीढ़ियाँ - .... 1 दोवड़सी 2 जससाराम 3 शेरा राम 4 अरसजी 5 सुवाराम 6 मेवा राम 7 हरपालजी

    गैण तालाब - गैण तालाब खरनाल के बाछुंड्याखाबड़ खेत से पूर्व दिशा में नागौर-अजमेर मुख्य सड़क से सटाकर पश्चिम में मूंडवा और इनाण गाँव के बीच में पड़ता है। जो खरनाल खाबड़ खेत से 12-15 किमी की दूरी पर स्थित है। इस तालाब के उत्तर पश्चिम कोण पर नरसिंह जी का मंदिर बना है। मंदिर में राधा-कृष्ण की मूर्तियाँ स्थापित हैं। तेजाजी के समय गैण तालाब प्रसिद्ध था। तेजाजी की गायें यहाँ पानी पिया करती थी। तेजाजी के पूर्वजों की यहाँ 12 कोश की आवड़ी (खेत) थी। आज भी यह गैण तालाब सुरक्शित है।


    तेजा खेत से सीधे घर आते हैं और माँ से पूछते हैं कि मेरी शादी कहाँ और किसके साथ हुई। माँ को खरनाल और पनेर की दुश्मनी याद आई और बताती है कि शादी के कुछ ही समय बाद तुम्हारे पिता और पेमल के मामा में कहासुनी हो गयी और तलवार चल गई जिसमें पेमल के मामा की मौत हो गयी। माँ बताती है कि तेजा तुम्हारा ससुराल गढ़ पनेर में रायमलजी के घर है और पत्नी का नाम पेमल है। सगाई दादा बक्साजी ने पीला-पोतडा़ में ही करदी थी।

    तेजा ससुराल जाने से पहले विदाई देने के लिये भाभी से पूछते हैं। भाभी कहती है - "देवरजी आप दुश्मनी धरती पर मत जाओ। आपका विवाह मेरी छोटी बहिन से करवा दूंगी। " तेजाजी ने दूसरे विवाह से इनकार कर दिया।
    Last edited by lrburdak; January 11th, 2017 at 10:29 PM.
    Laxman Burdak

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