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Thread: जाट बिरादरी चौराहे पर

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    जाट बिरादरी चौराहे पर

    लापरवाही की कीमत जाट समाज भुगत रहा है। जिंदगी के हर मोड़ पर लाजमी चौकसी न रहे तो आज की मारामारी में इंसान, घर-परिवार, गांव या समाज उलझ कर रह ही जाता है। खेत में हर कदम पर बरती जाने वाली चौकसी का कायल किसान लापरवाही में मार खाता है। लापरवाही के साथ, दूसरी बिरादरियों की तरह जाटों में भी सन् 1857-58 के बाद पनपे राज के एक पिछलग्गू तबके में गरूर और दूसरों को हीन समझने की बीमारी ने एक स्वस्थ समाज को अन्दर से चाट लिया है, जिस लोभ से ये मुगल काल में भी बचे रहे थे। लापरवाही के साथ साथ अन्दर के इन पराये रोगाणुओं ने अब इन्हें वे दिन दिखा दिये जिसकी उम्मीद नहीं थी।
    चलते चलते अब जाट बिरादरी चैराहे पर खड़ी है। यह स्वयं जाट बिरादरी के लोगों को तय करना है कि आगे कौन दिशा में राह पकड़नी है; सिसकती बेचैन मौत या समृद्ध, चैन की जिंदगी। सन् 1857 में सत्ताधारियों ने इसे दोराहे से धकेल कर अपनी मर्जी के एक खास रास्ते पर ला कर खड़ा कर दिया था जिससे उसकी कठिनाइयां गहरी होती चली गयीं और अहसास भी नहीं हुआ कि यहां के खतरे क्या हैं। शासकों का हित तो सधा किन्तु किसान समुदाय की ताकत क्षीण होती चली गयी। शासक लुटेरे थे, हाथ में हथियार थे, 1857 की बगावत को दबा चुके थे। बाद में सन् 1947 से नये शासकों का हित भी यहां की इस जुझारू किसान प्रजाति को हांकने से ही पूरा होता था। उसे पूंजी लागत की खेती का गुलाम बना डाला जिससे उनकी मेहनत का अधिकतर फल सरमायेदारों के पास पहुंचता आ रहा है और जीवन में नित कलह, गैरबराबरी, दमन व बेचैनी भर गयी।
    परिणाम स्वरूप, बीते सत्तर साल में इस बिरादरी का अपना ताना-बाना बिखर कर अन्दर से टूट गया हैः घर- परिवार व गांव, उसका भाईवारा एवं उसकी तहजीब को मिटाने की साजिशें एक मुकाम पर पहुंच गयी हैं। खेती-किसानी तबाही के कगार पर है। जो हो, अब वह दोराहे से ऐसे चौराहे पर आ पहुंची है जो इसका भविष्य तय करने वाला है। इस चौराहे से एक गलत कदम का परिणाम उसकी हस्ती को मिटाने का काम कर सकता है। सोच लें, सम्भल कर दिशा तय करना स्वयं उसका अपना काम होगा। हालात का सही से जायजा ले लें।
    बीते दो साल के घटनाक्रम पर क्रमवार ध्यान दिया जाये तो पता चलता है कि केन्द्र व हरयाणा में एकछत्र सत्ता पर कब्जा हो जाने के बाद से मनुवादी आर.एस.एस ने अपनी दूरगामी योजना पर काम आरम्भ कर दिया है। उसने अपने दोस्त, दुश्मन छांट लिए हैं। एक एक करके इन्हें पद्दलित करने की रणनीति है। फिलहाल उत्तर भारत में किसानों की एक कर्मठ जाट बिरादरी उसके निशाने पर चढ़ गयी है जो राजधानी क्षेत्र में खास दखल रखती है। अन्य किसान बिरादरियों के साथ क्षेत्र की कृषिभूमि पर इसका वर्चस्व है जिस पर कारपोरेट पूंजी, खासकर गुजराती पूंजी की निगाह गड़ी हुई हैं कि कैसे किसानों को बेदखल किया जाये। आर.एस.एस को खासकर इस बिरादरी का सभ्याचार और उसकी जुझारू विरासत पसंद नहीं है। जाट किसान को वह अपने रास्ते का रोड़ा समझने लगा है। सन् 2014 के लोक सभा चुनाव के दौरान ही ऐसी आशंका खड़ी हो गयी थी। भोले किसान समझ नहीं पाये थे कि उनका किस किस्म के खतरे से वास्ता पड़ गया है! याद रहे, किसान की औकात उसकी जमीन से बनती/बिगडती है। धरती को छींन कर किसान की औकात को खोखला करने पर काम आरम्भ हुआ है। पानी डालकर चूहे को अपने बिल से भगाने की तरह काम चालू है, उसके मूल पेशे को छुड़वाने की साज़िश है। चक्रान्त का पहला भाग यह है जिसे समझने की आवश्यकता है। फिर उसकी विरासत, उसका सभ्याचार निशाने पर हैः इसे पलट कर जाट किसान को कर्मकाण्डी बनाने पर ध्यान है।
    उत्तर भारत में किसान जमात, खासकर जाट, कभी मनुवाद के पैरोकार नहीं रहे, तब भी नहीं जब बौद्धों के कत्ल-ए-आम के बाद सनातन पंथियों का यहां वर्चस्व हो गया था। यह हम नहीं कह रहे हैं, इतिहास कहता है। संविधान सभा में हरयाणा क्षेत्र से एक सदस्य ने अन्तरिम संसद में 22 सितम्बर, 1951 को हिंदू कोड बिल पर बहस में भाग लेते हुए शासकों को दो टूक बता दिया था कि देश में ऐसे समय जब ब्रह्ममनिक (मनुवादी) कायदे कानूनों ने सारे समाज के रहने-सहने और रीति रिवाजों को अपने पंजे में बांध रखा था, पंजाब की जाट जाति ने, जिस जाति से मैं और सरदार बलदेव सिंह ताल्लुक रखते हैं, उस जाट जाति ने आज तक उस ब्रह्मनिक रूल के सामने सिर नहीं झुकाया जिसे इस बिल की मार्फत पिछले दरवाजे से हम पर थौंपना चाहते हैं।
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    स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान अपनी स्थापना के बाद से ही आर.एस.एस ने ब्रिटिश शासन की छत्रछाया में देश के मुसलमानों को निशाने पर लेकर अपनी राजनीति आरम्भ की थी। सन् 1857 के बाद यह हिंदू-मुसलमान का बंटवारा ब्रिटिश शासन को जिंदा रखने की नीति थी। बाद में, इस मनुवादी जमात ने सन् 1947 में ब्रिटिश शासन की समाप्ति पर ईसाइ समुदाय को भी निशाने पर लिया। ब्रिटिश शासनकाल में इन्हें नहीं छूआ! एक समय पंजाब में सिखों को निशाने पर चढाया। इस कड़ी में अब, जाट बिरादरी की रीढ़ को तोड़ने पर वह लग गयी है। उसकी धरती और खेती-किसानी आर.एस.एस व उसकी राजनीतिक जमात, भाजपा के निशाने पर आ गयी है। ये लोग चाहते हैं कि खेती का काम अब अडानी, अम्बानी, टाटा करें और किसान शहरों का सस्ता मजदूर बने।
    आर.एस.एस ने हरयाणा क्षेत्र के जाटों में पहली बार सन् 1947 की मारकाट के दौरान अपनी जगह बनानी आरम्भ की थी। देश के बंटवारे के बाद यहां के मुसलमानों को सबक सिखाने में आर.एस.एस ने मुस्लिम विरोध की आंधी खड़ी करके अनेक जाटों को अपने जाल में फंसाया था। तब भी, हरयाणा में उसकी पैंठ नहीं बन सकी थी। अब एकछत्र राज की ताकत पर वह यहां के ग्रामीण क्षेत्र को जीतने के अभियान पर है। पहली कड़ी में यहां की पंचायती राज संस्थाओं के लिए चुनाव प्रक्रिया में तबदीली करके घुसपैंठ की तैयारी हुई थी। उसकी निगाह उनके स्कूलों में लिपी-पुती गांव की युवा पीढी को अपने हक में गांठने पर जमी हुई थी।
    जाट बिरादरी के कुछ पेशेवर किस्म के नेतागण ने चालू ढर्रे पर मान लिया कि चुनाव में भाजपा की मदद करके कीमत लेना आसान होगा। वे थोक में भाजपा के पटकेधारी बन गये। सत्ता की राजनीति से यह मौकापरस्ती उन्होंने सीखी थी। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर उठे बवाल के बीच में इसी लकीर पर चलकर ये नेता समझ बैठे थे कि उठे बवंडर में आरक्षण पर प्रधानमन्त्री का आश्वासन बड़ी उपलब्धि मिल गयी है। वे जश्न के मूड में थे। सौदेबाजी की राजनीति को वे काबलियत मान बैठे थे। फरवरी माह में उठे आरक्षण आन्दोलन के समय हालात का आदतन गलत आंकलन ले लिया गया जिसे आर.एस.एस व भाजपा ने बड़ी चालाकी से अपहरण करके अपना खूनी खेल खेला और हिंसा का दोष जाट बिरादरी के खाते में डाल दिया। यह जमात इस खेल की महारत रखती हैं जबकि वह राज में है और प्रचार की उस्ताद है, सम्भवत इन नेतागण को यह याद नहीं रहा! चोट खाई, बदनामी भी ली।
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    स्वतन्त्र देश के कमेरे वर्ग की परेशानी है कि मेहनत के बावजूद अभाव में जीता है। उसके किसान की परेशानी है कि कमरतोड़ मेहनत के बवाजूद भारी पक्षपात का शिकार है; ऊंची लागत और न्यूनतम बिक्री दाम वाले दो पाटों में उसे सत्ताधारियों ने सत्तर साल से पीस कर रख दिया है तो बचाव के रास्ते पर पत्थर रख दिये हुए हैं। सन् 1858 के बाद जिस तरह अंग्रेजों ने किया था कि किसान को आज्ञाकारी नौकर बना कर उसकी आजाद फितरत को तबाह करके जी हजूरी सिखा दी, उसी तरह सन् 1947 के बाद इन नये शासकों ने देहात के स्वाभिमानी व आजादी पसंद किसान एवं उसके स्वावलम्बी दस्कारों, सहयोगियों को लुटेरे धंधों अथवा नौकरी चाकरी के जी हजूरी वाले पेशों में फंसा लिया है जिससे उसकी मौलिक संस्कृति को कायदे से तोड़ दिया जाए। दूसरी ओर, मानसिक क्लेश में फंसे इन लोगों को धर्म/कर्मकाण्ड में लपेटने पर तेजी से काम हुआ है। सन् 1991 में शिला पूजन से आरम्भ करके कावड तक इन्हें ला छोड़ा है। उन्हे घ्ंटी बजा कर मानसिक शांति की तलाश में रहने वाले जीव बनाया जा रहा है; पंडित के पतरे पर विश्वासी घर चलाने वाले जीव!
    देख सकते हैं कि अब हरयाणा का किसान आर्थिक नाकेबंदी के साथ ही सामाजिक-सांस्कृतिक घेराबंदी के निशाने पर आ गया है। सबसे बड़ी बात है कि देश के कमेरों को बिना मेहनत धनवान होने के तिलस्मी जाल में फंसा लिया है। जिस मण्डी-बैंक की रचना उसे हर घड़ी चूसने हेतु हुई थी, उसी का मुरीद बना दिया है। वह स्वावलम्बी खेती की जगह पूंजी की ताकत पर खेती करने लगा है, अन्ततः जो उसकी मौत का पैगाम है।
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    इतिहास की यह सीख याद रखनी चाहिए कि मनुष्य की संस्कृति, सभ्याचार उसके काम से बनते/ बिगडते हं। जिसे गांव का सभ्याचार कहा जाता है, वह भाईचारा, मिलनसारी, आपसदारी, सहभागिता उस किसानी की देन है, जिसपर चलते हुए यहां का देहात इतने लम्बे समय तक जिंदा रह सका। यह वही खाप क्षेत्र है जिसे तानाकशी स्वरूप अब कुछ चालबाज जाटलैण्ड कह कर पुकारते हैं, जहां एक दिन बराबरी एवं सहनशीलता के सिद्धान्त पर बेहतरीन स्वःव्यस्था वाली गणतान्त्रिक प्रणाली विकसित हुई थी, जहां भाईचारा उसकी नसों में बसता था और जहां स्थाई नेतृत्व की गैरबराबरी वाली अवधारणा कभी नहीं पनप सकी थी, जैसा पराया ऐब अब है।
    बीते सत्तर सालों में इन गुणों में जिस तरह की पराई संस्कृति वाला घुण लग सका इसका कारण वे पेशे हैं जिनका चलन सन् 1858 के बाद अंग्रेजो ने आरम्भ किया था, जिन्हें अब अमीर बनने के लिए गांववासियों ने अपना लिया और शहरियों के बिछाये जाल में स्वयं जा फंसे हैं। घर के हर कोणे या छेद से इन रोगाणुओं को बीन बीन कर बटौडों की आग के हवाले करने से ही वह संस्कृति बच सकेगी, जिसपर जाट बिरादरी नाज करती आ रही है। याद रहे शहरियों को, उसकी पहरेदार जमात आर.एस.एस व भाजपा को न भाईचारा पसंद है, न खाप व्यवस्था। उनका भाईचारा कहीं बनता है तो निजी स्वार्थ तक सीमित हो कर रहता है।
    गांव का भाईचारा सहभागिता का है जहां दुख-दर्द साझे का है। मीडिया अब इन शहरियों, पूंजीधारकों का गुलाम है, सो प्रचार के इन उस्ताद लोगों से हर कदम पर खबरदार रहना ही विकल्प है। ग्रामीणों के लिए आदतन चौकस रहना ही बचाव का मार्ग बचता है। पेशा चुनते समय भी चैकसी चाहिए।
    याद रखें कि सरकारें अब बिना अपवाद कारपोरेट पूंजी का औजार बन चुकी हैं, उनपर निर्भरता कोरी मूर्खता का निमन्त्रण है। बाजार (मण्डी) व बैकों से दूरी बना कर स्वावलम्बी बनें, तब कहीं खेती-किसानी व उसकी संस्कृति व सभ्याचार के फिर से पनपने की राह खुलेगी, तभी अपना गांव बचेगा, वरना सरकारों ने उन्हें सरमायेदारों के हित की खातिर मौत के मुंह में पहले ही डाल दिया हुआ है। लीपापोती बहुत हो चुकी है। जाट बिरादरी का संकट तभी मिटेगा। गांव की अन्य बिरादरियों के बीच भाईचारे की नींव तभी पक्की होगी, जब आपस में मालिक-मजदूर वाले पूंजी के रिश्तों की जगह सहभागीदार का रिश्ता लौट आयेगा। ग्रामीण भारत की जिंदगी, उसकी आबरू का प्रमुख सवाल इसी तरह का है। इसके लिए गांव के अपने सचेत मित्र आगे आयें। पूंजी के फंदे को काट कर खेती-किसानी को अपने विकास की धुरी बनाने पर बेसांस जुट जायें।

  2. The Following User Says Thank You to deswaldeswal For This Useful Post:

    neel6318 (September 3rd, 2017)

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