रंग दे बसंती। अभिनव चौधरी। गिरता हुआ मिग बायसन। ज़मीन पर बिखरें टुकड़े। पंचतत्व में विलीन होता हुआ एक पाइलट। एक और कहानी। फेल होते सिस्टम की। कुछ याद आया? एक मूवी। बाग़ी स्टूडेंट। सिस्टम से लड़ते हुए। मरते हुए।
ये उड़ते ताबूत है। यही कोई तक़रीबन चालीस साल पुराने। सरकारें आयी और गयी। योजनाए बनती रही। तीस साल में जाकर एक तेजस तैयार हुआ। उसका भी पता नही कब तक ढंग से उड़ेगा। सुखोई आये, मिराज आये, अब तो रॉफेल भी आ गए। लेकिन मिग-21 से मुहब्बत कम नही हुई हुक्मरानो की।

ट्रेनिंग देने के नाम पर कब तक जान ली जाएगी मिग प्लेन से। सरकारें तो ज़िम्मेदार है ही पर वो drdo, hal में काम करने वाले सरकारी दामाद भी उतने ही ज़िम्मेदार है जो तीस साल में एक ढंग का प्लेन भी ना बना सके। वो सरकारी बाबुओं वाले बहाने नही चाहिए। कि फंड नही मिला। बहुत करप्शन है डिफ़ेन्स डील में। कि सरकार खुद ही नही चाहती मिग को रिप्लेस करना। उन्हें कमीशन चाहिए| रहने दो भाई। उसी सिस्टम से कलाम साहब भी निकले थे। मिसाइलें बनी ना। करने वाला चाहिए। लेकिन जब जज़्बा मुल्क़ की बेहतरी ना होकर खुद के बैंक भरने का हो, तो यही होता है। वो पाइलट आसमाँ से गिरते रहे। इनके घरों की मंज़िले ऊँची होती रही। याद रखना तुम्हारे आशियानो की बुनियाद उन पाइलटों के ताबूतों पर रखी है। कल अगर भरभरा कर गिर जाए तो फिर से सरकारी सिस्टम को मत कोसना।