जनेऊ क्रांति!
1920 के बाद राजस्थान, पुर्वांचल राज्यों में जनेऊ क्रांति का दौर शुरू हुआ। हालांकि, संयुक्त पंजाब और यूपी में जनेऊ क्रांति की नींव 1880 के दशक में रख दी गई थी। असल में यह क्रांति आर्य समाजियों द्वारा शुरू की गई थी। आर्य समाज में भी दो ग्रुप थे, एक ग्रुप खुद को हिन्दू ही मानता था और आर्य समाज उसका एक पंथ, जबकि दूसरा ग्रुप खुद को हिन्दू नहीं मानता था और जनगणना में भी उसने खुद का धर्म आर्य ही लिखवाया। इस दूसरे ग्रुप का प्रभाव देहात में था, इसलिए देहात में जनेऊ क्रांति शुरू हुई। इस क्रांति का असर ये हुआ कि लोगों ने दूसरे धर्मों, जैसे कि सिख या इस्लाम की तरफ भी जाना शुरू किया। बिहार की ही एक डबगर (Dabgar) जाति, कसारवानी नानकशाहियों के साथ संपर्क के कारण वे नानकशाही बनने लगे।
इस जनेऊ क्रांति ने हिन्दू/सनातन धर्म की जड़े हिला दी, तो सनातन धर्मी ब्राह्मण पुजारियों ने इन जनेऊ क्रांतिकारियों को सनातन धर्म में ही जनेऊ का ऑप्शन दिया, कि आपको कहीं भी जाने की जरूरत नहीं है, आप सनातन धर्म में रहकर भी जनेऊ पहन सकते हैं। पर इसमें भी फर्क रखा गया, जहां हिन्दू उंच जाति के लोग पाँच गांठ वाला जनेऊ पहनते थे, इन्हें तीन गांठ वाला जनेऊ पहनने का अधिकार दिया गया और बहुत से लोग इसी में ही संतुष्ट भी हो गए। संयुक्त पंजाब में जनेऊ वाले मामले में क्रांति थोड़ी अलग हुई थी।
यह क्रांति सिर्फ जनेऊ धारण करने तक ही सीमित नहीं रही, इसके बाद बहुत सी जातियों ने अपने वर्ण में भी बदलाव करना शुरू किया। जनेऊ क्रांति से वे इतने उत्साहित हो रखे थे कि एक जनगणना में वे अपना वर्ण कुछ लिखवाते तो उससे अगली में कुछ और।
( Census of India, 1931, Vol-VII, Bihar & Orissa, Part-I, page-268,269)
:- जब मैं यह सब पढ़ता हूँ तो सोचता हूँ कि अगर अंग्रेज़ हुकूमत ना आई होती तो इस क्रांति का क्या होता? क्या यह जागृति आ पाती? मेरे ख्याल से यह सब शिक्षा के प्रसार का ही असर था। क्योंकि यह बदलाव 1881 के बाद बहुत तेजी से हुआ था।
-राकेश सिंह सांगवान
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