सिख धर्म के महान संत बाबा बुड्ढ़ा जी
-हवासिंह सांगवान, पूर्व कमांंडेंट, मो. न. 94160-56145
सिख का अर्थ है शिष्य तथा खालसा का अर्थ है खालिस(पवित्र)। इन्हीं के संयोग से सिख धर्म कहलाया जिसका उद्घोष है : राज करेगा खालसा, आकी रहा न कोय अर्थात दुनिया पर पवित्र लोग ही राज करेंगे और दुष्ट कोई नहीं रहेगा। सिख धर्म दुनिया में एक त्याग और सेवा का धर्म है और इस महान धर्म की स्थापना में बाबा बुड्ढ़ा जी का महान योगदान था।
बाबा बुड्ढ़ा जी का जन्म 6 अक्टूबर, 1506 को अमृतसर से उत्तर पूर्व में 18 किलोमीटर दूर कत्थू नांगल गांव में भाई सूघा रणधावा के जट्ट परिवार में माई गोरण की कोख से पैदा हुए जो संधू जाट परिवार से संबंध रखती थीं। बाबा बुड्ढ़ा का असली नाम बूरा था जो भाई सूघा रणधावा की एकमात्र संतान थीं।
जब गुरू नानक देव जी अपनी चतुर्थ उदासी(यात्रा)के लिए एक दिन करतारपुर में एक वृक्ष की छाया में बैठे हुए थे, तो बालक बूरा वहां नजदीक ही गाय चरा रहा था। जब उसकी नजर संत जी पर पड़ी तो वह उनके पास पहुंचा और पूछने लगा कि बाबा जी, आपको किसी चीज की जरूरत तो नहीं है, यदि कोई जरूरत है तो मैं उसे जल्दी ही पूरी कर दूंगा। इस पर गुरू जी ने कहा कि पुत्तर, मुझे किसी चीज की आवश्यकता नहीं है। तुम जाओ और अपना काम करो। अगले दिन प्रात: बूरा अपने घर से थोड़ा मक्खन लेकर आया और गुरू नानक जी की सेवा में भेंट करते हुए उनसे स्वीकार करने की प्रार्थना की। नानक जी ने उस भेंट को स्वीकार करते हुए उसका नाम पूछा। इस पर बालक बूरा ने अपना नाम बताते हुए हाथ जोडक़र गुरू नानक जी से प्रार्थना की कि वह उन्हें जीवन-मरण के चक्कर से मुक्ति दिलाएं क्योंकि कुछ दिन पहले हमारे गांव के पास पठान सिपाहियों ने कैंप लगाया और हमारी फसल को तबाह कर दिया और यह भी नहीं देखा कि वह पक्की है या कच्ची है। इसीलिए यदि कोई ऐसे दुष्ट लोगों को नियंत्रण नहीं कर सकता है तो फिर हम मौत के पंजे में फंसने से कैसे बच सकते हैं क्योंकि मृत्यु तो पठानों से भी अधिक शक्तिशाली है। ऐसा सुनकर गुरू महाराज ने बालक बूरा को छाती से लगाया और कहा कि तुम एक छोटे बच्चे होते हुए भी तुम्हारे अंदर एक बूढ़े व अनुभवी आदमी का दिमाग है। तुम बिल्कुल बूढ़ों जैसी बात कर रहे हो। उस दिन के बाद बालक बूरा का नाम भाई बुड्ढ़ा हो गया और बाद में वे बाबा बुड्ढ़ा कहलाए लेकिन वे उसी दिन से गुरू नानक जी के परम शिष्य बन गए और सिख धर्म तथा मानव जाति के सेवक।
बालक बुड्ढ़ा का विवाह 17 वर्ष की अवस्था में पंजाब के बटाला से दक्षिण में 6 किलोमीटर दूर अचल गांव में हुआ, लेकिन इनका विवाह और गृहस्थ जीवन इनकी आध्यात्मिक प्रगति में किसी प्रकार की बाधा नहीं डाल पाए। अपने महान अध्यात्मिक व सामाजिक कर्मों से बालक बुड्ढ़ा एक दिन बाबा बुड्ढ़ा हो गया और वे सिख धर्म के एक महान संत हो गए।
सिखों के पांचवें गुरू अर्जुन देव जी 18 वर्ष की अवस्था में गुरू गद्दी पर विराजमान हुए और इनके पास बल और धन की कोई कमी नहीं थी, लेकिन कई वर्षों तक इनकी कोई संतान नहीं होने पर गुरू धर्मपत्नी माता गंगादेवी जी बहुत उदास रहने लगी थीं। वहीं दूसरी ओर गुरू जी के बड़े भाई पृथ्वीचंद और उनकी पत्नी करमो नहीं चाहते थे कि उनके कोई बच्चा पैदा हो। इसलिए वे एक से बढक़र एक टोना-टोटका व षडयंत्र करते रहते थे ताकि वे गुरू गद्दी के हकदार बन सकें। एक दिन माता गंगादेवी जी ने पति गुरू अर्जुनदेव से पूछा कि क्या हमें कभी संतान सुख प्राप्त नहीं होगा? क्या हमारा वंश आगे नहीं बढ़ेगा? क्या हमें माता-पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होगा? इस पर गुरू साहब ने शांत भाव से उत्तर दिया कि वही होता है, जो किस्मत में लिखा है लेकिन फिर भी संसार में कुछ असंभव नहीं है। संत फकीरो के आशीर्वाद में बहुत शक्ति होती है। उनकी कृपा से भी किस्मत बदल जाती है। इस पर गुरू पत्नी गंगादेवी जी कहने लगीं कि आप भी तो एक बहुत बड़े संत और फकीर हैं। आप ही मुझे मां बनने का आशीर्वाद दे दीजिए। इस पर गुरू जी कहने लगे कि मैं तो एक तुच्छ प्राणी हूं। परमात्मा की आज्ञा से एक सेवक के तौर पर गुरू गद्दी पर बैठा हूूं। यदि आपने आशीर्वाद ही लेना है तो हमारे पूजनीय बुजुर्ग बाबा बुड्ढ़ा जी से ही प्राप्त करें।
ऐसा सुनकर गुरू पत्नी गंगादेवी जी ने अनेक प्रकार के भोजन तैयार किए और कुछ विश्वासपात्र सिखों के साथ नंगे पांव बाबा बुड्ढ़ा जी के दर्शन करने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने चल दीं। बाबा बुड्ढ़ा जी गंगादेवी जी को देखते ही उनकी इच्छा को ताड़ गए। उन्होंने बड़े प्रेम से उनका लाया हुआ भोजन स्वीकार किया और भोजन करने से पहले एक प्याज को मुक्का मारकर तोड़ा और उसे गंगादेवी जी को दिखाते हुए बोले कि बेटी, जिस प्रकार मैंने इस प्याज को तोड़ा है, उसी प्रकार तुर्कों के सिर तोडऩे वाला एक वीर पुत्र परमात्मा की कृपा से तुम्हारी कोख से जन्म लेगा। समय आने पर बाबा जी का आशीर्वाद फलीभूत हुआ। माता गंगादेवी जी ने एक सुंदर और स्वस्थ पुत्र को जन्म दिया, जो सिख धर्म के छठे गुरू बने तथा मीरी-पीरी के मालिक साबित हुए।
बाबा बुड्ढ़ा जी सिख धर्म की महान विभूति हुए तथा गुरू नानक जी के सबसे प्रिय व विश्वसनीय शिष्य थे। इसी कारण गुरू नानक जी ने बाबा बुड्ढ़ा को भाई लहणा को सिखों के दूसरे गुरू अंगददेव जी के तौर पर माथे पर तिलक लगाने के लिए अधिकृत किया। इसी प्रकार बाबा बुड्ढ़ा जी ने पांच सिख गुरूओं को अपने हाथ से तिलक लगाकर गुरू गद्दी पर विराजमान किया तथा इनके पौत्र गुरूदित्ता रणधावा ने सातवें, आठवें और नौवें गुरू के माथे पर तिलक लगाकर गुरू गद्दी पर आसीन किया। सिखों के दसवें गुरू गोविंद सिंह जी महाराज का तिलक रामकंवर रणधावा उर्फ गुरूबख्श सिंह ने किया था।
बाबा बुड्ढ़ा जी की देखरेख में स्वर्ण मंदिर में पवित्र सरोवर का निर्माण हुआ, उस समय बाबा बुड्ढ़ा जी वहां एक बेरी के पेड़ के नीचे बैठकर कार्यों की प्रगति की देखरेख करते थे, जो बेरी का पेड़ आज भी सरोवर के किनारे पर खड़ा है। गोविंदवाल, करतारपुर व अमृतसर में उस समय जितने भी काम हुए, वे लगभग बाबा बुड्ढ़ा जी की देखरेख में ही हुए थे। गुरू लंगर प्रथा को चलाने में बाबा बुड्ढ़ा जी का विशेष योगदान था। लंगर में जलाने के लिए जिस जंगल से लकडिय़ां मंगाई जाती थीं, उस क्षेत्र को आज भी बीड़ बाबा बुड्ढ़ा कहा जाता है, हालांकि वह स्थान आज घनी बस्तियों में बदल चुका है। बाबा बुड्ढ़ा श्री हरमिंद्र साहब के प्रथम मुख्य ग्रंथी थे। उनकी याद में रामदास गुरूद्वारा तापस्थान तथा गुरूद्वारा समाधान आदि बने हुए हैं, जहां पर उनकी 107 साल के बाद देह त्यागने पर दाह संस्कार किया गया था।
गुरूओं का महान शहीदी इतिहास तथा सिखों का महान गौरवशाली इतिहास पढक़र सिर गर्व से ऊंचा हो जाता है, वहीं इस बात का भी मलाल होता है कि समय-समय पर गुरूओं के नजदीकी रिश्तेदारों ने बार-बार गुरूओं को मारने के षड्यंंत्र रचे तथा हिंदू लोगों ने जिनके लिए गुरूओं ने अपनी शहादत दी, ने भी गुरूओं के खिलाफ षड्यंत्र रचने में कोई कमी नहीं छोड़ी, सभी गुरू खत्री जाति से संबंध रखते थे तथा लगभग सभी का वंश सोढ़ी था। छठे गुरू हरगोबिंद जी, जो मीरी और पीरी के मालिक बने, का जन्म बाबा बुड्ढ़ा जी के आशीर्वाद से हुआ था। बाबा बुड्ढ़ा जी इतना महान होते हुए भी, उनको कभी भी गुरू गद्दी के लिए अधिकृत नहीं किया गया और न ही वे कभी इसके लिए लालची थे। सत श्री अकाल।