Vachellia nilotica

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बबूल/ कीकर

Vachellia nilotica is a species of Vachellia native to Africa, the Middle East and the Indian subcontinent.

Variants

Vachellia nilotica is a tree 5–20 m high with a dense spheric crown, stems and branches usually dark to black coloured, fissured bark, grey-pinkish slash, exuding a reddish low quality gum. The tree has thin, straight, light, grey spines in axillary pairs, usually in 3 to 12 pairs, mature trees commonly without thorns. Flowers in globulous heads 1.2–1.5 cm in diameter of a bright golden-yellow color, set up either axillary or whorly on peduncles 2–3 cm long located at the end of the branches. Pods are strongly constricted, hairy, white-grey, thick and softly tomentose.

In part of its range smallstock consume the pods and leaves, but elsewhere it is also very popular with cattle. Pods are used as a supplement to poultry rations in India. Dried pods are particularly sought out by animals on rangelands. In India branches are commonly lopped for fodder. Pods are best fed dry as a supplement, not as a green fodder.

Indigenously known as 'Babul' or 'Kikar' is a proverbial, medium sized tree and is broadly scattered in tropical and subtropical countries. It has an inspiring range of medicinal uses with potential anti-oxidant activity. This plant contributes a number of groups among which are alkaloids, volatile essential oils, phenols and phenolic glycosides, resins, oleosins, steroids, tannins and terpenes. It is a medicinal plant acknowledged to be rich in phenolics, consisting of condensed tannin and phlobatannin, gallic acid, protocatechuic acid, pyrocatechol, (+) -catechin, (-) epi-gallocatechin-7-gallate and (-) epigallocatechin-5, 7-digallate. Different parts of this plant such as the leaves, roots, seeds, bark, fruits, flowers, gum and immature pods act as anti-cancer, antimutagenic, spasmogenic, vasoconstrictor, anti-pyretic, anti-asthamatic, cytotoxic, anti-diabetic, anti-platelet agregatory, anti-plasmodial, molluscicidal, anti-fungal, inhibitory activity against Hepatitis C virus (HCV) and human immunodeficiency virus (HIV)-I and antioxidant activities, anti-bacterial, anti-hypertensive and anti-spasmodic activities, and are also engaged for the treatment of different ailments in the indigenous system of medicine. This review spotlights on the detailed phytochemical composition, medicinal uses, along with pharmacological properties of different parts of this multipurpose plant.[1]

संक्षिप्त वर्णन

बबूल या कीकर (वानस्पतिक नाम : Acacia nilotica) अकैसिया प्रजाति का एक वृक्ष है। यह अफ्रीका महाद्वीप एवं भारतीय उपमहाद्वीप का मूल वृक्ष है।

बबूल का फल

बबूल का पेड़ बहुत ही पुराना है, बबूल की छाल एवं गोंद प्रसिद्ध व्यवसायिक द्रव्य है। वास्तव में बबूल रेगिस्तानी प्रदेश का पेड़ है। इसकी पत्तियां बहुत छोटी होती है। यह कांटेदार पेड़ होता है। सम्पूर्ण भारत वर्ष में बबूल के लगाये हुए तथा जंगली पेड़ मिलते हैं। गर्मी के मौसम में इस पर पीले रंग के फूल गोलाकार गुच्छों में लगते है तथा सर्दी के मौसम में फलियां लगती हैं।

बबूल के पेड़ बड़े व घने होते हैं। ये कांटेदार होते हैं। इसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है। बबूल के पेड़ पानी के निकट तथा काली मिट्टी में अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। इनमें सफेद कांटे होते हैं जिनकी लम्बाई 1 सेमी से 3 सेमी तक होती है। इसके कांटे जोड़े के रूप में होते हैं। इसके पत्ते आंवले के पत्ते की अपेक्षा अधिक छोटे और घने होते हैं। बबूल के तने मोटे होते हैं और छाल खुरदरी होती है। इसके फूल गोल, पीले और कम सुगंध वाले होते हैं तथा फलियां सफेद रंग की 7-8 इंच लम्बी होती हैं। इसके बीज गोल धूसर वर्ण (धूल के रंग का) तथा इनकी आकृति चपटी होती है।

विभिन्न भाषाओं में नाम

संस्कृत - बबूल, बर्बर, दीर्घकंटका; हिन्दी - बबूर, बबूल, कीकर; बंगाली - बबूल गाछ; मराठी - माबुल बबूल; गुजराती - बाबूल; तेलगू - बबूर्रम, नक दुम्मा, नेला, तुम्मा; पंजाबी - ਬਾਬਲਾ (बाबला); अरबी - उम्मूछिलान; फारसी - खेरेमुधिलान; तमिल - कारुबेल, अंग्रेजी - एकेशिया ट्री (Acacia Tree); लैटिन - माइमोसा अराबिका (Mimosaceae)।

उत्तरी भारत में बबूल की हरी पतली टहनियां दातून के काम आती हैं। बबूल की दातुन दांतों को स्वच्छ और स्वस्थ रखती है। बबूल की लकड़ी का कोयला भी अच्छा होता है। हमारे यहां दो तरह के बबूल अधिकतर पाए और उगाये जाते हैं। एक देशी बबूल जो देर से होता है और दूसरा मासकीट नामक बबूल। बबूल लगा कर पानी के कटाव को रोका जा सकता है। जब रेगिस्तान अच्छी भूमि की ओर फैलने लगता है, तब बबूल के जगंल लगा कर रेगिस्तान के इस आक्रमण को रोका जा सकता है। इस प्रकार पर्यावरण को सुधारने में बबूल का अच्छा खासा उपयोग हो सकता है। बबूल की लकड़ी बहुत मजबूत होती है। उसमें घुन नहीं लगता। वह खेती के औजार बनाने के काम आती है।

बबूल के औषधीय गुण

गुण : बबूल कफ (बलगम), कुष्ठ रोग (सफेद दाग), पेट के कीड़ों-मकोड़ों और शरीर में प्रविष्ट विष का नाश करता है।

गोंद : यह गर्मी के मौसम में एकत्रित किया जाता है। इसके तने में कहीं पर भी काट देने पर जो सफेद रंग का पदार्थ निकलता है। उसे गोंद कहा जाता है।

मात्रा : इसकी मात्रा काढ़े के रूप में 50 ग्राम से 100 ग्राम तक, गोंद के रूप में 5 से 10 ग्राम तक तथा चूर्ण के रूप में 3 से 6 ग्राम तक लेनी चाहिए।

मुंह के रोग

  • बबूल की छाल, मौलश्री छाल, कचनार की छाल, पियाबांसा की जड़ तथा झरबेरी के पंचांग का काढ़ा बनाकर इसके हल्के गर्म पानी से कुल्ला करें। इससे दांत का हिलना, जीभ का फटना, गले में छाले, मुंह का सूखापन और तालु के रोग दूर हो जाते हैं।
  • बबूल, जामुन और फूली हुई फिटकरी का काढ़ा बनाकर उस काढ़े से कुल्ला करने पर मुंह के सभी रोग दूर हो जाते हैं।
  • बबूल की छाल को बारीक पीसकर पानी में उबालकर कुल्ला करने से मुंह के छाले दूर हो जाते हैं।
  • बबूल की छाल के काढ़े से 2-3 बार गरारे करने से लाभ मिलता है। गोंद के टुकड़े चूसते रहने से भी मुंह के छाले दूर हो जाते हैं।
  • बबूल की छाल को सुखाकर और पीसकर चूर्ण बना लें। मुंह के छाले पर इस चूर्ण को लगाने से कुछ दिनों में ही छाले ठीक हो जाते हैं।
  • बबूल की छाल का काढ़ा बनाकर दिन में 2 से 3 बार गरारे करें। इससे मुंह के छाले ठीक होते हैं।

दांत का दर्द

  • इस की फली के छिलके और बादाम के छिलके की राख में नमक मिलाकर मंजन करने से दांत का दर्द दूर हो जाता है।
  • इस की कोमल टहनियों की दातून करने से भी दांतों के रोग दूर होते हैं और दांत मजबूत हो जाते हैं।
  • इस की छाल, पत्ते, फूल और फलियों को बराबर मात्रा में मिलाकर बनाये गये चूर्ण से मंजन करने से दांतों के रोग दूर हो जाते हैं।
  • इस की छाल के काढ़े से कुल्ला करने से दांतों का सड़ना मिट जाता है।
  • रोजाना सुबह नीम या इस की दातुन से मंजन करने से दांत साफ, मजबूत और मसूढे़ मजबूत हो जाते हैं।
  • मसूढ़ों से खून आने व दांतों में कीड़े लग जाने पर बबूल की छाल का काढ़ा बनाकर रोजाना 2 से 3 बार कुल्ला करें। इससे कीड़े मर जाते हैं तथा मसूढ़ों से खून का आना बंद हो जाता है।

External Links

References


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