Ghasi Ram Chahar

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Author:Laxman Burdak, IFS (R), Jaipur

Chaudhari Ghasi Ram

Chaudhari Ghasi Ram (Chahar) (b. 30 April,1903-d.1 October 1981) (चौधरी घासीराम), also called Ghasi Ram Kharia, was a Freedom fighter and hero of Shekhawati farmers movement.

He was born on 30 April, 1903 at village Basri in Jhunjhunu tahsil , district Jhunjhunu, Rajasthan. His father Chet Ram was Chaudhari of the thikanedars. But he was sympathetic with the farmers. The excesses of Jagirdars forced him to raise voice against them. This led to seizure of his ancestral land as well as haveli. He migrated to village Bas Ghasiram Ka. He was considered the Iron man of Jhunjhunu. He did what he said. He struggled hard for the abolition of Jagirdari system. He went to Jail several times. His style of awakening local people was unique. His efforts to develop Jat Boarding Jhunjhunu are worth mentioning. He died on 1 October 1981.

Contents

चौधरी घासीराम का जीवन परिचय

चौधरी घासीराम का जन्म झुंझुनू जिले के बासडी गाँव में संवत 1960 बैसाख की आखा तीज के दिन तदनुसार 30 अप्रेल सन 1903 में हुआ. इनकी माँ का नाम भानी और पिता का नाम चेतराम था. बासडी गाँव नवलगढ़ ठिकाने के अधीन था. घासीराम के पूर्वज भी ठिकानेदार के चौधरी थे. यही कारण है की सवासौ साल पहले भी इनके पूर्वज हवेली में रहते थे. यह हवेली अब भी कालती हवेली के नाम से मौजूद है. पूरे गाँव में यह आकर्षण का केंद्र थी. घासी राम के पिता ठिकानेदार के चौधरी थे परन्तु वे मानवीय गुणों से भरपूर थे. सभी ग्रामीण उनकी इज्जत करते थे. वे दुखी और बेसहारा किसानों की सहायता करते थे. [1]

नवलगढ़ के ठिकानेदार की क्रूरता और ग्रामीणों की बदहाली ने चौधरी को मौन नहीं रहने दिया. चौधराहट की परवाह किये बिना नवलगढ़ ठिकाने को चुनौती देने का निश्चय किया. गढ़-महलों के कारिंदों की मनमानी और लूट उन्होंने बंद करवादी. इसके लिए उन्होंने ग्रामीणों को लाम-बंद किया. ग्रामीणों को संगठित कर सलाह दी कि वे लाग-बाग़, बेगार और क्रूरता का विरोध करें. इस पर जागीरदार बौखला उठे. सन 1914 में जागीरदार के लोग दल-बल सहित चेतराम के गाँव बासडी पहुंचे. उन्होंने चेतराम को हवेली से बेदखल कर दिया. उनके खेतों पर कब्ज़ा कर लिया. घासीराम उस समय 11 वर्ष का था. जागीरदार की मनमानी का उस पर इतना प्रभाव पड़ा की वह आजीवन विद्रोही बन गया.[2]

जाट जन सेवक

ठाकुर देशराज[3] ने लिखा है ....चौधरी घासीराम जी - [पृ.389]: शेखावाटी के स्वाभिमानी और लौह पुरुष चौधरी घासीराम जी खारिया वालों को जिन्होंने की अपना स्वतंत्र बास आबाद कर लिया है और चार घर के बास में एक अद्भुत शिक्षा संस्था खड़ी कर दी है। शेखावाटी का बच्चा-बच्चा जानता है।

फौज़दार चेतराम चाहर के घर संवत 1960 (1903 ई.) में वैशाख की अक्षय तीज को आपका जन्म हुआ था। पास में कोई शिक्षा संस्था न होने के कारण आपको जो कष्ट अपने को शिक्षित बनाने में उठाने पड़े उन्हीं का अनुभव करके आपने इस शिक्षा संस्था को जन्म दिया। जो जयपुर राज्य की आदर्श और उच्च कोटि की शिक्षा संस्था बनने का शीघ्र सम्मान प्राप्त करने वाली है।

जयपुर में संवत 1977 (1920 ई.) में किसान आंदोलन शेखावाटी के गांवो में आरंभ हुआ था। उसमें आपने काम करके अपने को जनता के सम्मुख पेश किया।

जिन दिनों ब्रिटिश भारत में असहयोग आंदोलन चलना


[पृ.390]: आरंभ हो रहा था आप हिसार जाकर गिरफ्तार हुए किंतु तीसरे दिन छोड़ दिए गए।

चौधरी रामसिंह जी कवरपुरा वालों के साथ आपने वैदिक संस्कार से यज्ञोपवीत कराया। तभी से आर्य समाज से आपको प्रेम हो गया। सन 1932 में जब झुंझुनू जाट महोत्सव की तैयारियां हुई तो आपने बीकानेर तक जाकर महोत्सव के लिए धन संग्रह किया। सीकर जाट महायज्ञ को सफल बनाने भी जी आपने पूरा सहयोग किया।

शेखावाटी मैं जो किसान जागृति हुई है उसमें आपका प्रमुख हिस्सा है। आपने सत्याग्रह में जितना परिश्रम किया शायद किसी दूसरे लीडर ने नहीं किया होगा। जाट बोर्डिंग हाउस झुंझुनू को उन्नत बनाने में आप ने दिन रात एक कर दिए थे किंतु जब उसका नाम बदलकर विद्यार्थी भवन किया गया तो आपको अत्यंत दुख हुआ।

जब हीरालाल जी शास्त्री ने सरदार हरलाल सिंह पर हाथ फेरा और दिमाग चढ़ गए तब सारे शेखावाटी में अकेले चौधरी घासीराम हैं जिन्होंने सर्वप्रथम अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व का परिचय दिया।

अकेला आदमी भी कितना काम कर सकता है और अपनी सच्चाई से कितना लोकप्रिय हो सकता है इसके दो सबूत चौधरी घासी राम जी से मिलते हैं। एक तो उनका जयपुर असेंबली में चुना जाना और दूसरे बास घासीराम का उन्नत शिक्षा सदन जहां से जीवन की ज्योति चारों और को फैल रही है।

सच्चाई को महसूस कर के तमाम दबाव और लालचों को छोड़कर वे सन् 1946 में शेखावाटी में चलने वाले किसान आंदोलन में शामिल हुए और किसान के निर्माण में उन्होंने


[पृ.391]: अपने को शामिल कर दिया। कुछ महत्वकांक्षी उस से निकल गए। घबरा गए अथवा पस्त हिम्मत हो गए, किंतु वह लोग पुरुष चौधरी घासीराम जी हैं जो आज भी जयपुर किसान सभा के पैरोकार हैं।

सुनते हैं उनका शिक्षा सदन दिनोंदिन उन्नति करता जा रहा है। हालांकि पिछले षड्यंत्रकारियों ने उसमें आग लगा दी थी उसे नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। विघ्न बाधाएं साहसी पुरुषों को बल देती हैं और हीनवीर्य लोगों को धक्का देती हैं। चौधरी घासीराम जी ने उस बढ़ा से भी लाभ उठाया और फिर दूने साहस से और परिश्रम से शिक्षा सदन की प्रगति और रिद्धि दोनों को बढ़ा दिया।

स्वतंत्र विचार अटूट साहब और कार्य में दिन रात ही चिपके रहना आप की विशेषताएं हैं।

बासडी से निष्कासित

चेत राम का परिवार बासडी से निष्कासित होकर निकट के गाँव खारिया में आ गया जो मंडावा ठिकाने के अधीन था. ठिकानेदार ने उन्हें गाँव खारिया के पश्चिम में दो कि.मी दूर एक खेत बताया. यहाँ एक कुआ था. खेत में चेत राम ने झोंपड़े बनाकर आशियाना तैयार किया. लेकिन कुएं का पानी दूषित था. इससे परिवार के सदस्य बीमार रहने लगे. तब चेत राम ने वापस खरिया गाँव में डेरा डाला.

इस संघर्ष में सन 1916 में चेत राम चल बसे. परिवार का भार बड़े बेटे घासीराम पर आ गया. घासी राम की माँ साहसी एवं निडर महिला थी. उसने परिवार को संभाला. खेती का कार्य करते हुए परिवार ने संकट के दिन गुजरे. आखिर इस नवयुवक ने ठाकुर से मिलने की सोची. वह तत्कालीन ठाकुर जयसिंह के गढ़ पहुंचे और एक रूपया नजराना भेंट किया. ठाकुर ने समस्या पूछी तो घासी राम ने समस्या बताई कि मैं खेत में बसना चाहता हूँ पर वहां का पानी दूषित है आपकी सहायता चाहता हूँ. ठाकुर घासी राम से प्रभावित हुए और इस शर्त पर आर्थिक सहयोग रुपये 800 दिया कि ढाणी का नाम रामसिंहपुरा रखा जाये. ढाणी के नाम पर घासी राम को कोई एतराज नहीं था. अपने छोटे बाही शिवलाल की सहायता से कुए की मरम्मत कराई. अपने परिवार के अलावा घासी राम ने पांच अन्य परिवारों को भी साथ रखा उनमे चार हरिजन परिवार और पांचवां परिवार मौसी के बेटे हवालदार टीकूराम-धर्मपाल का था जो पटोदा से आया था. वह वहां पटोदा ठाकुर के आतंक से परेशान था. [4]


बास घासीराम ढाणी बसाई

इन छ: परिवारों ने मिलकर झोंपड़े औए ओसारे बनाये और ढाणी का नाम रामसिंहपुरा ही रखा लेकिन व्यवहार में इसे बास खारिया ही कहा जाता था जो बाद में बास घासीराम कहा जाने लगा. [5]

आर्य समाज की विचार धारा से प्रभावित

घासी राम आर्य समाज की विचार धारा से प्रभावित थे. उन्होंने अनेक रुढ़िवादी परम्पराओं को नकार दिया. स्वयं और भी बहिनों के विवाह बिना दहेज़ किये और विवाह पूर्व बान भी नहीं बिठाया. बास घासीराम, अलसीसर कसबे के निकट पड़ता है. घासी राम ने वैद्य ओंकारमल मिस्र से आयुर्वेद का कार्य सिखा और अक्षर ज्ञान प्राप्त किया. अध्ययन की प्रवृति होने से अनेक ग्रन्थ पढ़ डाले. टमकोर के उत्तर में स्थित गाँव 'मोती सिंह की ढाणी' के वैद्य जेसराज से आयुर्वेद की गहन जानकारियां ली. घासी राम अपने घर रहने लगे और वैद्य बनकर इलाज करने लगे. आयुर्वेद से अपने घर पर और आस-पास गांवों में ऊंट पर जाकर उपचार करने लगे. ईलाज का वे कोइ पैसा नहीं लेते थे. इससे इनकी लोकप्रियता बढ़ गयी. रामगढ़ और मंडावा आर्य समाज की बैठकों में जाने लगे जहाँ उनकी मुलाकात अन्य क्रांतिकारियों से हुई. 1921 में भिवानी में गाँधी जी से मिलने वाले जत्थे में घासी राम भी थे.[6]

भिवानी जाने वाले शेखावाटी के जत्थे में

शेखावाटी में किसान आन्दोलन और जनजागरण के बीज गांधीजी ने सन 1921 में बोये. सन् 1921 में गांधीजी का आगमन भिवानी हुआ. इसका समाचार सेठ देवीबक्स सर्राफ को आ चुका था. सेठ देवीबक्स सर्राफ शेखावाटी जनजागरण के अग्रदूत थे. आप शेखावाटी के वैश्यों में प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने ठिकानेदारों के विरुद्ध आवाज उठाई. देवीबक्स सर्राफ ने शेखावाटी के अग्रणी किसान नेताओं को भिवानी जाने के लिए तैयार किया. भिवानी जाने वाले शेखावाटी के जत्थे में आप भी प्रमुख व्यक्ति थे. [7]

जाट महासभा का पुष्कर में जलसा सन् 1925

सर्वप्रथम सन् 1925 में अखिल भारतीय जाट महासभा ने राजस्थान में दस्तक दी और अजमेर के निकट पुष्कर में अखिल भारतीय जाट महासभा का जलसा हुआ. इसकी अध्यक्षता भरतपुर महाराजा कृष्णसिंह ने की. इस अवसर पर जाट रियासतों के मंत्री, पंडित मदन मोहन मालवीय, पंजाब के सर छोटूरामसेठ छज्जू राम भी पुष्कर आये. इस क्षेत्र के जाटों पर इस जलसे का चमत्कारिक प्रभाव पड़ा और उन्होंने अनुभव किया कि वे दीन हीन नहीं हैं. बल्कि एक बहादुर कौम हैं, जिसने ज़माने को कई बार बदला है. भरतपुर की जाट महासभा को देखकर उनमें नई चेतना व जागृति का संचार हुआ और कुछ कर गुजरने की भावना तेज हो गयी. यह जलसा अजमेर - मेरवाडा के मास्टर भजनलाल बिजारनिया की प्रेरणा से हुआ था. शेखावाटी के हर कौने से जाट इस जलसे में भाग लेने हेतु केसरिया बाना पहनकर पहुंचे, जिनमें आप भी सम्मिलित थे. वहां से आप एक दिव्य सन्देश, एक नया जोश, और एक नई प्रेरणा लेकर लौटे. जाट राजा भरतपुर के भाषण सेभान हुआ कि उनके स्वजातीय बंधू, राजा, महाराजा, सरदार, योद्धा, उच्चपदस्थ अधिकारी और सम्मानीय लोग हैं. पुष्कर से आप दो व्रत लेकर लौटे. प्रथम- समाज सुधार, जिसके तहत कुरीतियों को मिटाना एवं शिक्षा-प्रसार करना. दूसरा व्रत - करो या मरो का था जिसके तहत किसानों की ठिकानों के विरुद्ध मुकदमेबाजी या संघर्ष में मदद करना और उनमें हकों के लिए जागृति करना था.[8]

इस अधिवेशन से लौटकर प्रमुख कार्यकर्ताओं की बैठक हुई और निम्न प्रस्ताव पारित किये गए:

  • बच्चों को किसी भी भांति शिक्षा दिलवाना
  • आर्य समाजी बनाने के लिए जनेऊ धारण करना
  • मृत्युभोज, बाल विवाह और दहेज़ प्रथा समाप्त करना
  • छूआछूत को अपराध मानना
  • पाखंड और मूर्तिपूजा का विरोध
  • महिलाओं द्वारा घूँघट और गहनों का त्याग करना
  • अन्धविश्वास और भाग्यवाद का विरोध
  • सम्मान के साथ जीने का अधिकार

उपरोक्त विषयों पर गीत बना लिए गए थे जिनके माध्यम से आमजन का आह्वान किया जाता. प्रारंभ में गीत गाने वाली टोलियों के प्रमुख थे- पंडित दत्तू राम, जीवन राम जैतपुरा, घासी राम खारिया, पृथ्वी सिंह बेधड़क आदि. बाद में मोहर सिंह जैतपुरा, सूरज मल साथी गोठडा, तेज सिंह भड़ौंन्दा, देवकरण पालोता आदि प्रभावी भजनोपदेशक रहे. उल्लेखनीय है की मोहर सिंह तो जीवन राम के पुत्र थे. बाप-बेटे दोनों मिलकर अलख जागते थे. [9]

झुंझुनूं में विशाल सम्मलेन 1932

अन्य नेताओं के साथ आपके प्रयासों से झुंझुनू के 1932 के सम्मलेन में भारी सफलता मिली. झुंझुनूं में आयोजित विशाल सम्मलेन 1932 में जो निर्णय लिए गए उनमें प्रमुख निर्णय था - झुंझुनू में विद्यार्थियों के पढ़ने और रहने के लिए छात्रावास का निर्माण. दूसरा निर्णय जाट जाति का सामाजिक दर्जा बढ़ाने सम्बंधित था. जागीरदार और पुरोहित किसान को प्रताड़ित करते थे और उनमें हीन भावना भरने के लिए छोटे नाम से पुकारते थे जैसे मालाराम को मालिया. मंच पर ऐलान किया गया कि आज से सभी अपने नाम के आगे 'सिंह' लगावेंगे. सिंह उपनाम केवल ठाकुरों की बपौती नहीं है. उसी दिन से घासी राम बने चौधरी घासी राम फौजदार. आगरा के चाहर अपना टाईटल फौजदार लगाते हैं अत: चाहर गोत्र के घासी राम को यह टाईटल दिया गया. [10]

आर्य समाज के भजनोपदेशक

मंडावा के सेठ देवीबक्स सर्राफ ने शेखावाटी अंचल में आर्य समाज की नीव डाली. रामगढ़ में आयोजित आर्य समाज सम्मलेन से लौटते हुए सरदार हरलाल सिंह और घासी राम गाँव मोजास में रात को रुके. वहां अन्य युवक भी आ गए और आगे की रणनीति पर चर्चा की. पहले उनका विचार बना कि किसानों को संगठित होकर अपने साथ हथियार रख कर जागीरदारों का मुकाबला करना चाहिए. कोई ठाकुर किसी गरीब को एक लाठी मारेगा तो हम बदले में दो मारेंगे. बाद में सेठ देवीबक्स ने समझाया कि ठाकुरों के साथ जयपुर रियासत और अंग्रेज हैं. हम हथियारों से उनका मुकाबला नहीं कर पायेंगे. हमें आन्दोलन गाँधीजी के तरीके से ही संगठित होकर करना चाहिए. यह आवश्यक है कि गाँव-गाँव जाकर किसानों को संगठित किया जावे.[11]


घासी राम आर्य समाज की विचार धारा से प्रभावित हुए. सबसे अधिक घासी राम को प्रभावित किया राजगढ़ तहसील के परसिद्ध भजनोपदेशक जीवनराम जैतपुरा ने. जीवन राम के जोशीले गीतों ने इस क्षत्र के लोगों को रोमांचित कर दिया और वे जुल्म के विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार हो गए. स्वयं घासी राम ने हारमोनियम बजाना सीख लिया. जीवन राम के बेटे मोहर सिंह जैतपुरा, सूरजमल साथी, पंडित दत्तूराम शर्मा एवं खटका नन्द (हरयाणा) के साथ घूम-घूम कर गाँवों में जागरण गीत गाने लगे. [12]


चौधरी रामसिंह कुंवरपुरा के साथ आपने वैदिक संस्कार से यज्ञोपवीत कराया तभी से आप पक्के आर्य समाजी बन गए. आर्य समाज की भजनोपदेशक प्रणाली को ग्रहण कर अनेक बार सारी शेखावाटी की पैदल यात्रा करके गाँव-गाँव में किसानों में जागृति एवं संगठन पैदा करके भावी संघर्ष के लिए तैयार किया. झुंझुनू के 1932 के सम्मलेन के लिए आप बीकानेर तक के गाँवों में गए और सम्मलेन के लिए धन संग्रह किया. सीकर के जाट महा-यज्ञ सन 1935 को सफल बनाने में भी आपका पूरा सहयोग रहा. जाट बोर्डिंग झुंझुनू को उन्नत बनाने के लिए आपने बहुत मेहनत की. तथा 2 -3 साल उसका संचालन भी किया. जब हीरा लाल शास्त्री ने सरदार हरलाल सिंह, नेतराम सिंह आदि को अपने पक्ष में कर जाट किसान सभा शेखावाटी को स्थगित करवा दिया, तब सारे शेखावाटी में अकेले चौधरी घासी राम थे जिन्होंने सर्वप्रथम अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व का परिचय दिया. सन 1946 में तमाम दवाब और लालचों के बावजूद स्वतंत्र जयपुर किसान सभा बनाने में आप सफल रहे. शेखावाटी में भूमि बंदोबस्त करवाकर लगान निश्चित करवाने में आपने खूब काम किया. आप किसान आन्दोलन के दौरान अनेक बार जेल गए. कभी लगान बंदी तो कभी भारत रक्षा कानून के अंतर्गत. आपका पूरा जीवन एक संघर्ष का जीवन है. आपने सामंती अत्याचारों, जागीरदारों की ज्यादतियों कौर क्रूरताओं का जिस दृढ़ता , सहस और निर्भिकतासे मुकाबला किया उसकी मिशाल मिलना कठिन है.[13]

प्रजामंडल एवं जाट पंचायतों में गठबंधन

सन 1938 में कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित हुआ जिसमें कहा गया कि कांग्रेस रियासती जनता से अपनी एकता की घोषणा करती है और स्वतंत्रता के उनके संघर्ष के प्रति सहानुभूति प्रकट करती है. त्रिपुरा अधिवेशन में कांग्रेस ने रियासती जनता के प्रति समर्थन की घोषणा कर दी, इससे जनता में बड़ा उत्साह और उमंग जगी. आल इण्डिया स्टेट्स पीपुल्स कांफ्रेंस की स्थानीय इकाइयों के रूप में जगह-जगह प्रजामंडल अथवा लोकपरिषदों का गठन हुआ. राजस्थान में प्रजामंडलों के संस्थापन की प्रथम कड़ी के रूप में जयपुर राज्य प्रजामंडल की स्थापना सन 1931 में हुई. (डॉ. ज्ञानप्रकाश पिलानिया: पृ. 36)

सन 1938 के प्रजामंडलों की कोई राजनीतिक गतिविधियाँ नहीं थी. इसी साल प्रजामंडल ने संवैधानिक सुधार एवं कृषि सुधर के लिए आन्दोलन चलाये. किसान सभाएं 1937 में ही जयपुर प्रजा-मण्डल में विलीन हो चुकी थी. इसी साल सेठ जमनादास बजाज और पंडित हीरालाल शास्त्री इसके सचिव बने. इसी के साथ इसके वार्षिक अधिवेशन नियमित रूप से होने लगे. प्रजामण्डल का उद्देश्य जनता के लिए प्राथमिक नागरिक अधिकार प्राप्त करना और जयपुर राज्य में समग्र विकास की प्रक्रिया शुरू करना था. अब तक प्रजा मंडल का काम शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित था. ग्रामीण क्षेत्रों में पैठ नहीं होने से प्रजा मंडल ने जाट पंचायत के साथ जागीरदार विरोधी संधि में शामिल होने पर विचार किया. उधर शेखावाटी में भी यह विचार चल रहा था कि क्या हमें किसान पंचायतों का विलय प्रजा मंडल में कर देना चाहिय. एक गुट, जिसमें चौधरी घासीराम, पंडित ताड़केश्वर शर्मा, विद्याधर कुलहरी आदि थे, का सोच था कि इससे किसानों की मांगें उपेक्षित होंगी, क्योंकि अपनी बहुविध गतिविधयों में प्रजा मंडल इस और पूरा ध्यान नहीं दे पायेगा. दूसरी और सरदार हरलाल सिंह, चौधरी नेतराम सिंह आदि इस विचार के थे कि प्रजा मंडल जैसे सशक्त संगठन में शामिल होने से किसान पंचायतों को सीमित क्षेत्र से निकाल कर विशाल क्षेत्र तक पहुँचाने का यह एक सशक्त माद्यम बन सकेगा. प्रजामंडल में शामिल होने से उनकी पहुँच सीधी जयपुर राज्य से हो जाएगी जिससे जागीरी जुल्मों का वे अधिक सक्रियता से और ताकत से मुकाबला करने में समर्थ होंगे. इस द्विविध विचारधारा के कारण शेखावाटी का राजनीतिक संघर्ष विभाजित हो गया. (डॉ. ज्ञानप्रकाश पिलानिया: पृ. 37)

चौधरी घासी राम गिरफ्तार

18 जनवरी 1939 को जयपुर सरकार ने एक क़ानून बनाया जिसके अनुसार सरकार की अनुमति के बिना कोई संस्था मान्यता प्राप्त नहीं कर सकती. सरकार ने ऐसे क़ानून और ऑर्डिनेंस बना दिए जिनके द्वारा किसी भी नागरिक को गिरफ्तार किया जा सकता था. अख़बारों में पर्चे छपाने तथा सार्वजनिक सभा और जलसों पर प्रतिबन्ध लगा दिया. ऐसे मनमाने आदेशों के विरुद्ध झुंझुनू जिले में 3 फरवरी 1939 को व्यापक आन्दोलन शुरू हो गए. [14]

जयपुर राज्य की किसान विरोधी नीति के कारण पूरे राज्य में 1 मार्च 1939 को किसान दिवस मानाने का निर्णय प्रजामंडल ने लिया. झुंझुनू में भी किसान दिवस मनाने की जोरों से तैयारी होने लगी. इस दिन शेखावाटी पंचायत के उप प्रधान सरदार हरलाल सिंह द्वारा झुंझुनू में सत्याग्रह किये जाने की घोषणा की गयी और इसकी सूचना जयपुर सरकार को भी दी गयी. पुलिस और ठिकानों में हलचल मच गयी. पुलिस ने इस दिन भारी प्रबंध किया. झुंझुनू के चारों और 2 मील तक पुलिस गस्त लगा दी. नवलगढ़ ठाकुर मदन सिंह के कामदार हेम सिंह अपने घुड़सवारों के साथ गश्त लगा रहे थे. जयपुर से भी बड़ी संख्या में पुलिस व नागाओं को झुंझनु भेजा गया. (डॉ पेमा राम, p. 171)

जयपुर राज्य की किसान विरोधी नीति के कारण पूरे राज्य में 1 मार्च 1939 को किसान दिवस मानाने का निर्णय प्रजामंडल ने लिया. झुंझुनू में भी किसान दिवस मनाने की जोरों से तैयारी होने लगी. इस दिन शेखावाटी पंचायत के उप प्रधान सरदार हरलाल सिंह द्वारा झुंझुनू में सत्याग्रह किये जाने की घोषणा की गयी और इसकी सूचना जयपुर सरकार को भी दी गयी. पुलिस और ठिकानों में हलचल मच गयी. पुलिस ने इस दिन भारी प्रबंध किया. झुंझुनू के चारों और 2 मील तक पुलिस गस्त लगा दी. नवलगढ़ ठाकुर मदन सिंह के कामदार हेम सिंह अपने घुड़सवारों के साथ गश्त लगा रहे थे. जयपुर से भी बड़ी संख्या में पुलिस व नागाओं को झुंझनु भेजा गया. (डॉ पेमा राम, p. 171)

19 मार्च 1939 को गांधीजी के आह्वान पर सत्याग्रह को वापस ले लिया. डेढ़ माह से अधिक चलनेवाले इस जन आन्दोलन में गाँवों के सभी घरों के किसानों ने भाग लिया. रणनीति ऐसी बनाई थी कि चौधरी घासी राम जैसे संगठनकर्ता भूमिगत रहें और आम जन का गाँवों में होंसला बढ़ाते रहें. गिरफ्तारियों का सिलसिला निरंतर चलता रहा. जयपुर सरकार तथा स्थानीय जागीरदार किसी भी तरीके से चौधरी घासी राम, पंडित ताड़केश्वर शर्मा और ताराचंद झारोड़ा को गिरफ्तार करना चाहती थे. [15]

आन्दोलन के पश्चात् किसान नेता या तो जेल में थे या भूमिगत थे. घासी राम इस बात से खुश नहीं थे कि प्रजामंडल किसानों को लाभ नहीं पहुंचा सका था. सन 1939 के अंत तक सभी गिरफ्तार नेता रिहा कर दिए गए थे. लेकिन जयपुर रियासत में अब भी डिफेन्स ऑफ़ इण्डिया एक्ट लागू था. द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो चूका था. अंग्रेज सरकार का ध्यान मात्र युद्ध जीतने पर था. नागरिक अधिकारों कि पूर्ण अवहेलना शुरू हो गयी. ठिकानेदारों का शोषण बढ़ गया. वे किसानों के खिलाफ झूठे मुकदमें और झूठे गवाह तैयार कर रहे थे. घासी राम अब भी भूमिगत बने हुए थे. [16]

गैर जमानती वारंट जारी- 6 जनवरी 1940 को जयपुर सरकार ने द्वितीय विश्वयुद्ध की आड़ में शांति और व्यवस्था के नाम पर 'डिफेन्स ऑफ़ इंडिया एक्ट' के अंतर्गत शेखावाटी जाट किसान पंचायत के प्रमुख कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया. ताराचंद झारोड़ा को जेल भेजा गया जहाँ इनको अनेक यातनाएं दी. इनके अलावा चौधरी इन्द्राजचौधरी लादू राम रायपुर को भी गिरफ्तार कर सजाएँ दी. पंडित ताड़केश्वर शर्मा, नेत राम सिंह तथा चौधरी घासी राम के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी कर दिए. (डॉ पेमाराम,p.180)

ताराचंद झारोड़ा छुप कर नहीं रहना चाहते थे. उन्हें 6 जनवरी 1940 को ही गिरफ्तार कर लिया गया. झुंझुनू में मुक़दमा चला और विभिन्न धाराओं के अंतर्गत तीन मुकदमों में कुल साढ़े नौ वर्ष की सजा 7 फरवरी 1940 को सुनाई गयी. [17]


उन्हें जयपुर जेल में भेज दिया. चौधरी घासी राम का पीछा पुलिस सबसे अधिक कर रही थी. रियासत का यह सोच था कि आम किसान को जागृत करने में घासी राम का सबसे अधिक योगदान रहा है. एक दिन घासी राम सूर्योदय से पूर्व अपने रिश्तेदार दौलत राम के साथ घर से निकले. मुखबीर ने उन्हें देख लिया था और पुलिस को खबर कर दी. जब घासी राम अपने निकट सहयोगी आशा राम भारू का बास पहुंचे तो पुलिस वहां पहुँच चुकी थी. घासी राम तुरंत ऊँट पर स्वर हो चूरू जिले कि तरफ दौड़ लगा दी. वे चूरू जिले के खुडी गाँव पहुंचे जो बीकानेर रियासत में आती थी. गाँव में पुलिस ने घेर लिया और जब गिरफ्तार करने कि बात आई तो तर्क दिया, 'मैं इस समय बीकानेर रियासत के गाँव में हूँ जयपुर रियासत की पुलिस को मुझे गिरफ्तार करने का अधिकार नहीं है'. बीकानेर रियासत अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखती थी. थानेदार ने जयपुर रियासत को सौंपने से मना कर दिया. पुलिस को खाली हाथ झुंझुनू आना पड़ा. [18]


एक अन्य किसी दिन घासी राम फरारी के समय रात को अपने घर सोये हुए थे. मुखबिर की सूचना पर पुलिस ने उनके घर को चारों और से घेर लिया.घासी राम ने युक्ति सोची. उन्होंने धोती के पांयचे मार लिए. सर पर चादर का बड़ासा मंडासा मार कर पानी का मटका रख लिया. एक हाथमें सुलगती थेपडी पकड़ी और किसान की तरह खेत में चल दिए. सिपाहियों ने पूछा घासी राम कहाँ है? उसने कहा मैं तो खेत जा रहा हूँ, घासी राम अन्दर सो रहा है. ऐसा कहकर बेफिक्र खेत की और चले गए. मटका और थेपडी रख कर धोरों की आड़ में गायब हो गए. पुलिस हाथ मलते रह गयी. [19]


किसान आन्दोलन पिट जाने के बावजूद घासीराम गाँव गाँव घूम कर प्रचार कर रहे थे और आश्वस्त कर रहे थे की अंतिम जीत किसानों की होगी. इस अभियान में जिले के ठेठ पूर्व में पहुँच गए. साथ में एक किसान था. योजना थी कि दिन में संवालोदा गाँव में किसी किसान के घर आराम करेंगे. सूर्य निकलने वाला था उसी समय दूर सामने पुलिस वाले खड़े दिखाई दिए. उभोने झट से ऊँट बिठाया और पीछे की सीट से उतर गए. रस्ते के निकट एक पेड़ के नीचे भैंस बैठी थी. घासीराम धोती के पांयचे मार सर पर पगड़ी रखी और भैंस टोर कर सांवलोदा की पहाड़ी की और ले गए. साथी ऊँट सवार सांवलोदा गाँव पहुँच गए. पुलिस के पूछने पर साथी किसान ने बताया कि वह घासीराम को नहीं जानता. दिनभर घासीराम पहाड़ी में छुपे रहे. रात को ऊँट पर सवार होकर दूसरे गाँव चल दिए. [20]

पुलिस अधिकारी इस बात से नाराज थे कि घासी राम गाँव वालों को भड़का रहा है परन्तु उसे गिरफ्तार नहीं किया जा सका. अंत में मार्च 1940 में तंग आकर पुलिस ने घासी राम के घर का सामान कुर्क कर दिया. खरिया गाँव के चौधरी इन्द्रा राम, भूरा राम आदि को बुलाया और मौके पर गवाह के रूप में उनके अंगूठे-दस्खत करवाए. इस सारी कार्रवाई को उनका बड़ा बेटा बीरबल देख रहा था. घासीराम के भी किसनसिंह ने विद्याधर वकील से मिलकर मुक़दमा कर दिया. लगभग डेढ़ साल बाद उन्हें सारा सामान वापस मिल गया. [21]

प्रजामंडल का दूसरा वार्षिक अधिवेशन मई 1940 के अंत में जयपुर में होना तय हो गया था. इसी बीच कोई आन्दोलन की गतिविधियाँ भी नहीं चल रही थी. तब यह तय किया गया कि फरार चल रहे किसान नेता गिरफ़्तारी दे दें. अधिवेशन से पूर्व ही मई 1940 में चौधरी घासी राम, पंडित ताड़केश्वर शर्मा और नतराम सिंह ने झुंझुनू कोर्ट में उपस्थित होकर स्वेच्छा से गिरफ़्तारी दे दी. इन तीनों को झुंझुनू की जेल में बंद कर दिया जो गढ़ में स्थित थी. [22]

यहाँ यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा की इसी दौरान घासी राम की इकलौती पुत्री मनोरमा बनस्थली विद्यापीठ में प्रवेश ले चुकी थी. घासी राम का बड़ा बेटा बीरबल उनकी गिरफ़्तारी के समय विद्यार्थी भवन झुंझुनू में रह कर पढ़ रहा था. विद्यार्थी भवन में प्राथमिक विद्यालय चल रहा था. जिसमें पन्ने सिंह देवरोड़ के पुत्र सत्यदेव बच्चों को पढ़ाते थे. [23]

कठोर सश्रम कारावास की सजा

इन किसान योद्धाओं पर छ: माह तक मुक़दमा चला और 15 नवम्बर 1940 को तीनों को सजा सुनाई गयी. प्रत्येक के लिए दो वर्ष तीन माह की कठोर सश्रम कारावास की सजा सुनाकर उन्हें जयपुर की सेन्ट्रल जेल में भेज दिया. सरकार ने उन्हें राजनैतिक कैदी न मानकर अपराधी किस्म के जयराम पेशा मुलजिमों की भांति जेल में रखा. ताराचंद झारोड़ा एवं घासी राम से खड़े-खड़े हाथ से आटे की चक्की पिसवाई जाती. इनको खूंखार मानकर 18 -18 सेर गेहूं पीसने के लिए रोज दिया जाता. [24]

काल कोठारी में - एक दिन घासी राम ने गुस्से में आकर चक्की के ऊपर वाले पाट को उठाकर नीचे वाले पाट पर पटक दिया. ऊपर वाले पाट के दो टुकड़े हो गए. तब घासी राम को 6 माह तक काल कोठारी में रखने का हुक्म दिया. घासी राम ने अपनी जेल डायरी में लिखा है कि काल कोठरी सचमुच काले रंग में पुती हुई कोठरी थी. उसमें रोशनदान अवश्य था जिससे रोशनी नहीं आती तो समझा जाता कि रात हो गयी. स्नान भी कोठरी के अन्दर ही करना पड़ता था. नीचे एक कच्चा पाखाना बना हुआ था जिसकी बदबू कोठरी में फैली हुई थी. कोठरी का दरवाजा हमेशा बंद रहता. [25]

पैरों में भारी बेड़ियाँ - एक चट्टान की तरह अडिग घासी राम ने 6 माह की यातना को सहन किया. ये सब यातनाएं और अपमान सहन करने के बावजूद भी उनमे न केवल जिजीविषा प्रखर थी बल्कि सीखने की भी उत्कंठ इच्छा बनी हुई थी. जेल में एक मौलवी से उनका परिचय हुआ. मौलवी साहब से वे उर्दू पढने लगे. जेल प्रशासन को इसका पता लगा तो मौलवी साहब को अलग कोठरी में बंद कर दिया. घासी राम को आत्म ग्लानी हुई कि उनकी वजह से मौलवी को सजा मिली है. उन्होंने आमरण अनशन प्रारंभ कर दिया. जब जेलर ने धमकाया तो घासी राम ने कहा - आपने मेरे गुरु को बिना कोई कारण कोठरी में बंद कर दिया है. यह सजा तो मुझे होनी चाहिए थी. जेल प्रशासन ने ऐसा ही किया. मौलवी को बाहर निकाल दिया और घासी राम के पैरों में भारी बेड़ियाँ दाल दी. बेड़ियों के बीच में दो फीट का मोटा सरिया लगा हुआ था. ये बेड़ियाँ तीन महीने तक पहननी पडी. [26]

ब्रिटिश सम्राट की लम्बी आयु के लिए प्रार्थना - जेल में यह नियम था की प्रत्येक सप्ताह में एक दिन तत्कालीन ब्रिटिश सम्राट की लम्बी आयु के लिए प्रार्थना की जाती थी. इस में सभी कैदी अनिवार्य रूप से सम्मिलित होते थे. और ईश्वर से दुआ मांगते. उस दिन जब घासी राम को प्रथम बार इस प्रार्थना में सम्मिलित होने के लिए कहा गया तो उन्होंने इनकार कर दिया. उन्होंने सफाई दी, 'हम एक दिन के लिए भी अंग्रेजों का शासन नहीं चाहते. फिर उनके सम्राट के लिए प्रार्थना कैसे?' [27]

जेल से रिहा

8 अगस्त 1942 को गांधीजी के आह्वान पर देशव्यापी 'भारत छोडो आन्दोलन' प्रारंभ हुआ. लेकिन राजस्थान में प्रजामंडल इस आन्दोलन से दूर रही. हीरा लाल शास्त्री ने आन्दोलन न करने का आश्वासन दे दिया था. साथ ही किसानों को खुश करने के लिए मिर्जा इस्माईल को राजी कर लिया कि जेल में बंद किसानों को छोड़ दिया जाये. समझौते के अनुसार चौधरी घासी राम, पंडित ताड़केश्वर शर्मा और ताराचंद झारोड़ा को 15 अगस्त 1942 को जेल से रिहा कर दिया. ये तीनों किसान योद्धा जयपुर से रेलगाड़ी द्वारा झुंझुनू पहुंचे. रेलवे स्टेशन से जाट बोर्डिंग हाऊस तक इन सेनानियों के सम्मान में स्वागत द्वार बनाये गए थे. किसानों के हित में इन तीनों ने सबसे अधिक जेल काटी थी और यातनाएं सही थी. बोर्डिंग हाऊस के सामने युवक और विद्यार्थी रास्ते के दोनों और खड़े हो गए तथा लाठियों का तोरण द्वार बनाकर उसके नीचे से इन लाड़ले नेताओं को निकालकर भावभीना सम्मान प्रकट किया. ब्रिटिश सत्ता, जयपुर रियासत और जागीरदारों के विरुद्ध गगन-भेदी नारे लगाकर पूरे कसबे को गूंजा दिया. [28]

बास घासीराम में स्कूल प्रारंभ

सन 1943 में घासी राम ने आसपास के गाँवों के प्रमुख किसानों की एक बैठक अपने गाँव में बुलाई. बैठक में तय किया गया कि बास घासीराम में एक प्राथमिक स्कूल की स्थापना की जावे. इसमें लड़के-लड़कियों के पढने की व्यवस्था की जाये. तब ग्रामीणों ने मिलकर कच्ची ईंटों की तिबारी तैयार की. आपसी सहयोग से उसपर छान डाली. स्कूल के लिए घासी राम ने अपने खेत में से चार बीघा कच्ची जमीन मुफ्त स्कूल के लिए प्रदान की. स्कूल तैयार हो गयी तब निकटवर्ती गाँव हरिपुरा के गुगन सिंह लमोरिया को प्रथम शिक्षक नियुक्त किया. इनका वेतन जन सहयोग से चुकाया जाने लगा. इस प्रकार एक जुलाई सन 1943 से बास घासी राम में जनसहयोग से प्रथम स्कूल प्रारंभ हुआ. [29]

मलसीसर में किसान सम्मलेन 1945

नोट - यह सेक्शन राजेन्द्र कसवा की पुस्तक मेरा गाँव मेरा देश (वाया शेखावाटी), प्रकाशक: कल्पना पब्लिकेशन, जयपुर, फोन: 0141 -2317611, संस्करण: 2012, ISBN 978-81-89681-21-0, p. 189-192 से साभार लिया गया है.

21 नवम्बर 1945 को प्रजामंडल ने जयपुर स्टेट से बातें करने के लिए एक उपसमिति का गठन किया. इसके संयोजक विद्याधर कुलहरी बनाये गए. दो सदस्य थे - सरदार हरलाल सिंह और नरोत्तम जोशी. पंडित ताड़केश्वर उपसमिति के मंत्री एवं सत्यदेव सिंह देवरोड़ आफिस इंचार्ज बनाये गए. इस उपसमिति ने जयपुर दरबार से बातचीत की परन्तु उनके कान पर जूं नहीं रेंगी. तब सरदार हरलाल सिंह, चौधरी घासी राम, नेतराम सिंह आदि ने गाँवों में तूफानी दौरे शुरू किये. किसानों को सावधान किया कि खतौनियों में दर्ज लगान से अधिक लगान बिलकुल न दें. (राजेन्द्र कसवा, p. 189)


ठिकाने दारों द्वारा प्रतिदिन किसानों को परेशान किया जाने लगा. 19 दिसंबर 1945 को चौधरी घासीराम ने झुंझनु जिले के मलसीसर गाँव में किसानों का विशाल जलसा आयोजित किया. पंडित हीरा लाल शास्त्री ने इस सम्मलेन कि अध्यक्षता की. झुंझुनू, सीकर एवं चूरू जिले से करीब दस हजार किसान इस सम्मलेन में उपस्थित हुए. प्रसिद्ध भजनोपदेशक पृथ्वी सिंह बेधड़क, जीवन राम, मोहर सिंह, देवकरण पालोता, सूरजमल साथी आदि ने ऐसे गीत प्रस्तुत किये कि जानलेवा जाड़े के बावजूद किसान आधीरात तक डटे रहे. मलसीसर अति पिछड़े क्षेत्र में आता है. यहाँ के निवासियों ने प्रथम बार इतना बड़ा सम्मलेन देखा. (राजेन्द्र कसवा, p. 190)


मलसीसर का ठाकुर असभ्य और क्रूर समझा जाता था. वह अन्य ठाकुरों से दुगुना लगान वसूल करता था. किसानों में वह फूट पैदा कर अपना स्वार्थ पूरा करता था.उसी मलसीसर में, ठीक गढ़ के सामने, चौधरी घासी राम ने किसानों का जलसा कर ठाकुर को सीधी चुनौती दी थी.(राजेन्द्र कसवा, p. 190)

पंडित हीरालाल शास्त्री को दिन के बारह बजे ही सम्मलेन स्थल पर पहुँचाना चाहिए था. परन्तु वे विलम्ब से पहुंचे. जाड़े का मौसम था. घासी राम की योजना थी कि चार बजे तक सम्मलेन समाप्त हो जायेगा. इससे किसान रात होने से पूर्व ही अपने अपने घरों में चले जायेंगे. दूर के किसानों के ठहराने की व्यवस्था थी. जिस समय चूरू जिले के गाँव दूधवा खारा के किसान नेता हनुमान सिंह बुडानिया मंच से भाषण कर रहे थे, ठाकुर के कारिंदे हथियारों से लैस होकर गढ़ के बाहर आ गए. सभा में कानाफूसी होने लगी. हनुमान सिंह को समझते देर नहीं लगी. उन्होंने अपनी आवाज ऊँची करते हुए कहा, 'किसानो, तुम, क्यों चिंता करते हो? तुम लोग तो जमीन पर बैठे हो. मैं मंच पर खड़ा हूँ. ठाकुर की पहली गोली मुझे ही लगेगी. लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि अब इन बंदूकों में जान नहीं है.' (राजेन्द्र कसवा, p. 190)

ठाकुर के कारिंदे आगे नहीं बढे. तभी हीरालाल शास्त्री का काफिला आ पहुंचा. उनके साथ कुम्भा राम आर्य, सरदार हरलाल सिंह और नरोत्तम जोशी आदि थे. किसान बहुत समय से बैठे उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे. आते ही कुम्भा राम आर्य ने भाषण शुरू किया. कुम्भाराम आर्य ने कहा, 'किसानों, इन जागीरदारों से डरने की जरुरत नहीं है. परिवर्तन का शंख बज चुका है. ठाकुरों की तलवारों में जंग लग चुकी है. बंदूकों में पानी भर गया है. मैं ठाकुरों को चेतावनी देता हूँ कि वे अब समय की आवाज सुनें. अब किसानों को जानवर नहीं अन्नदाता समझें. तुम स्वयं को अन्नदाता समझना छोड़ दो. अब तुम्हारे पाप का घड़ा भर चुका है.' (राजेन्द्र कसवा, p. 191)

सम्मलेन स्थल पर उस दिन किसानों में चर्चा हुई कि नरोत्तम जोशी जान बूझकर शास्त्री और हरलाल सिंह को विलम्ब से लाये. इसका कारण बताया जाता है कि जोशी चौधरी घासी राम से उनकी अधिक लोकप्रियता के कारण ईर्ष्या करते थे और सम्मलेन को असफल बनाना चाहते थे. बार-बार किसानों का मुद्दा उठाना जोशी को अच्छा नहीं लगता था. सम्मलेन के संयोजक चौधरी घासीराम ही थे. जोशी की यह सोच बताई जाती है कि लेट होने से रात को किसान सर्दी में भूखे रहेंगे और घासी राम पर क्रुद्ध होंगे. यह ईर्ष्या संगठन के लिए खतरनाक थी. (राजेन्द्र कसवा, p. 191)

सम्मलेन समाप्त होने के बाद पंडित नरोत्तम जोशी ने चौधरी घासी राम को एक और लेकर कहा, 'तुमने इतनी भीड़ इकट्ठी करली, अब ये लोग तुम्हें भूखे पेट गलियां देते जायेंगे. इनके खाने की कोई व्यवस्था हो नहीं सकती.' चौधरी घासीराम इनके विलम्ब से आने पर पहले ही नाराज थे. झुंझलाकर बोले, 'तुम अपनी करलो. मेरा नाम घासीराम है. एक भी ऊँट या किसान यहाँ से भूखा नहीं जायेगा.' (राजेन्द्र कसवा, p. 191)

बड़े सभी नेता मलसीसर से खिसक लिए. घासीराम ने हाड़तोड़ शर्दी में कड़क आवाज में कहा, 'सभी किसान खाना खाकर जायेंगे. ऊंटों के लिए चारे की व्यवस्था है.'

आस-पास के गाँवों के किसान चले गए. लेकिन फिर भी बहुत बड़ी संख्या में मौजूद किसानों को मीठे चावल पकाकर खिलाये गए और ऊंटों के लिए चारे की व्यवस्था की. निकटतम गाँवों के लोगों ने चारे और लकड़ी का ढेर लगा दिया. गुड़ और चावल बाजार से मंगाए गए. ऐसी व्यवस्था चौधरी घासी राम ही कर सकते थे. सम्मलेन की सफलता के पीछे चौधरी घासीराम की कर्मठता और नेतृत्व क्षमता थी. उन्होंने किसानों का एक मजबूत संगठन खड़ा कर लिया. गाँवों में वे एक मसीहा समझे जाते थे. (राजेन्द्र कसवा, p. 192)

किसान सभा का पुनर्गठन: 16 जून 1946

प्रथम गुट के लोग जिसमें चौधरी घासी राम, विद्याधर कुलहरी आदि प्रमुख थे, किसान सभा में बने रहे जबकि दूसरे लोग प्रजा मण्डल से जुड़कर आजादी के संघर्ष की मूल धारा में चले गए. इन परिस्थियों में 16 जून 1946 को किसान सभा का पुनर्गठन किया गया. इस समय शेखावाटी के कुछ प्रमुख किसान नेताओं ने प्रजामंडल से अपने संबंधों का विच्छेद कर लिया. ये थे चौधरी घासी राम, पंडित ताड़केश्वर शर्मा, विद्याधर कुलहरी और तारा सिंह झारोड़. विद्याधर कुलहरी को झुंझुनू जिला किसान सभा का अध्यक्ष बनाया गया. इस विभाजन से शेखावाटी किसान आन्दोलन की गति कम हो गयी. आगे चलकर जयपुर राज्य से प्रजामंडल के कारण उनका संघर्ष शुरू हुआ. इस समय वे कई मोर्चों पर एक साथ लड़ रहे थे. प्रथम मोर्चा ठिकानेदारों के विरुद्ध, दूसरा उनके हिमायती जयपुर राज के विरुद्ध तथा तीसरा अपने ही उन भाईयों के विरुद्ध जो ठिकानों के अंध भक्त बने हुए थे. इस समय शेखावाटी के विविध क्षेत्रों में किसान सम्मलेन आयोजित कर किसानों की समस्याओं पर विचार-विमर्श किया जाता था. ऐसे सम्मेलनों कि अध्यक्षता या सभापतित्व सरदार हरलाल सिंह किया करते थे. (डॉ. ज्ञानप्रकाश पिलानिया: पृ. 37-38)

गंगानगर किसान आन्दोलन में

मई-जून 1954 में गंगानगर में किसानों पर टेक्स लगाने के विरुद्ध आन्दोलन चला था. घासी राम चौधरी ने गंगानगर के इस आन्दोलन में भाग लिया. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 31 दिन कि जेल हुई.[30]

जन-जागरण से समाज सुधार

घासी राम जन-जागरण के दौर में बिलकुल परिपक्व बन कर उभरे. जो दूसरों से कहते , उसे पहले अपने परिवार पर लागू करते. धूम्रपान और मद्यपान ही निषेध नहीं किया बल्कि अनावश्यक परम्पराएँ भी सबसे पहले बंद की. मृत्युभोज ही बंद नहीं किया बल्कि इस अवसर पर किया जानेवाला मुंडन, एवं गंगाजी जाने की परंपरा भी बंद करदी. विवाह में दहेज़ लेना-देना दोनों वर्जित कर दिए. यहाँ तक कि बान बैठाना भी रूढ़िग्रस्त माना गया. घासी राम ने पाखंडों, भाग्यवाद, कुरीतियों और सैंकड़ों कथित देवी-देवताओं का पर्दाफास किया. सांप्रदायिक और जातीय संकीर्णता पर चोट की. विभिन्न सेठों द्वारा गाँवों में सैंकड़ों स्कूलें खोली गईं थी, उनमे अपने बच्चों को पढ़ाने की प्रेरणा दी. यह सब करने के लिए घासी राम हारमोनियम लेकर अपनी टोली के साथ गाँव-गाँव जाते. वे रात को गाँवों में गीतों का कार्यक्रम देते जिसमें सभी स्त्री-पुरुष भाग लेते. घासी राम महिलाओं को समझाने के लिए अलग से गीत प्रस्तुत करते. ग्रामीणों को रोचक तरीके से सन्देश समझाने का प्रयास करते. उस समय लादूसर, गांगियासर, नेशल, धमाणा, ददरेवा आदि में वार्षिक मेले भरते जहाँ हजारों लोग एकत्रित होते थे. ऐसे अवसरों पर घासी राम अपनी मंडली लेकर पहुंचाते और लोगों को जन-जागरण का सन्देश गीतों के माध्यम से देते. मूर्तिपूजा का विरोध करने तथा देवताओं का उपहास उड़ाने के लिए घासी राम को विरोध सहन करना पड़ा. जागीरदार और सवर्ण लोग इसे हवा देते थे. उनके द्वारा पुराणों और धार्मिक ग्रंथों का हवाला देकर जनता को डराया जाता था. स्वर्ग-नरक का भय दिखाया जाता था और ऐसे धार्मिक बंधन बना दिए थे कि जिनका निराकरण ब्राह्मणों को दान देकर ही हो सकता था. हजारों वर्षों से अन्धविश्वास और रूढ़ियों में जकड़े समाज को घासी राम ने जगाने का अथक प्रयास किया. [31]

चौधरी घासी राम का पारिवारिक जीवन

सन 1916 में चौधरी घासीराम के पिता चेत राम चल बसे. परिवार का भार बड़े बेटे घासीराम पर आ गया. घासी राम की माँ साहसी एवं निडर महिला थी. उसने परिवार को संभाला. कुछ वर्षों पश्चात् जब घासी राम बालिग हो गया तब खारिया की रोही में एक ढाणी बसाई , जिसे अब बास घासीराम के नाम से जाना जाता है. घासी राम का विवाह मालीगांव की समाकौर के साथ हुआ. [32]

घासी राम की पत्नी समाकौर अपने माँ-बाप की इकलौती संतान थी. समाकौर की शादी के बाद उनके पिता नौरंग राम का शीघ्र ही देहांत हो गया. तब घासी राम की सास चतरी देवी अपने भाई रामधन पूनिया के पास पीहर मूंदी ताल में स्थाई रूप से रहने लगी जो चूरू जिले में पड़ता है. [33]

घासी राम के तीन छोटे भाई थे: शिव लाल, किसना राम और नारायण राम. चार ही बहने थी. आठ संतानों की माँ भानी एक साहसिक महिला थी जिसने ठिकानेदारों का अत्याचार और पति का संघर्ष देखा था. वह एक व्यवहार कुशल महिला थी जो सबको साथ लेकर चलती थी. घासी राम की माँ मेहमानबाजी के लिए चर्चित थी. खाने के वक्त कोई भी भी अपरिचित राहगीर ढाणी में आ जाता तो खाना खिलाये बिना नहीं जाने देती थी. दबंग महिला भी थी जिस कारण घासी राम बाहर के सामाजिक कार्यों में रूचि ले पाते थे. [34]

चौधरी घासीराम के दो पुत्र बीरबल सिंह और जयदेव सिंह तथा पुत्री मनोरमा पैदा हुए. पुत्री मनोरमा को बनस्थली विद्यापीठ से शिक्षा दिलाई. बीरबल सिंह के पुत्र विजय कुमार (मो: 09461104738) शिक्षक रहे और सेवानिवृत हो गए हैं. विजय कुमार के पुत्र मनीष चाहर हैं जो झुंझुनू डाईट में इतिहास के लेक्चरार हैं.

देहांत

चौधरी घासीराम की मूर्ती

सन 1981 के जुलाई माह में चौधरी घासीराम को प्रोस्टेट ग्लैंड की बीमारी हो गयी. पेशाब बंद हो गया. उनका ईलाज राजधानी क्लिनिक में भर्ती कर किया गया. राजधानी क्लिनिक में झुंझुनू जिले के कैरू गाँव के डॉ हर सिंह अपनी सेवाएँ देते थे. उन्होंने उनका निशुल्क ईलाज किया. ईलाज सम्बन्धी सारा खर्चा मजदूर यूनियन के नेता मोहन पुनमिया ने उठाया. डॉ हरी सिंह ने आपरेशन किया परन्तु वे होश में नहीं आये और 1 अक्टूबर 1982 को उनका देहांत हो गया.[35]

सम्मान

घासीराम ऐसे पहले और अंतिम नेता थे जिनकी करनी और कथनी में कभी अंतर नहीं रहा. चौधरी घासी राम के देहांत का समाचार 1 अक्टूबर शाम को आकाशवाणी से प्रसारित हो गया तथा समाचार पत्रों में प्रमुखता से दिया गया. इस मसीहा का अंतिम संस्कार दिनांक 2 अक्टूबर 1981 को करीब दस हजार लोगों की उपस्थिति में गाँव बास घासीराम में किया गया. उनके ज्येष्ठ पुत्र बीरबल सिंह ने मुखाग्नि दी. उनकी यादगार में दोनों बेटों और पोतों ने छोटे बेटे जयदेव के हिस्से की डेढ़ बीघा जमीन पर सड़क किनारे मूर्ती स्थापित की. इसमें सारा व्यय उनके परिवार द्वारा ही किया गया. उनकी मानसिकता के मुताबिक मूर्ती के अनावरण हेतु किसी विशिष्ट व्यक्ति को नहीं बुलाया गया बल्कि उनकी पुत्री मनोरमा ने 1 जनवरी 1988 को मूर्ती का अनावरण किया.[36]

चित्र गैलरी

सन्दर्भ

  1. राजेन्द्र कसवा: मेरा गाँव मेरा देश (वाया शेखावाटी), प्रकाशक: कल्पना पब्लिकेशन, जयपुर, फोन: 0141 -2317611, संस्करण: 2012, ISBN 978-81-89681-21-0, P. 75
  2. राजेन्द्र कसवा: मेरा गाँव मेरा देश (वाया शेखावाटी), प्रकाशक: कल्पना पब्लिकेशन, जयपुर, फोन: 0141 -2317611, संस्करण: 2012, ISBN 978-81-89681-21-0, P. 76
  3. Thakur Deshraj:Jat Jan Sewak, 1949, p.389-391
  4. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p. 16
  5. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p. 17
  6. राजेन्द्र कसवा: मेरा गाँव मेरा देश (वाया शेखावाटी), प्रकाशक: कल्पना पब्लिकेशन, जयपुर, फोन: 0141 -2317611, संस्करण: 2012, ISBN 978-81-89681-21-0, P. 77
  7. राजेन्द्र कसवा: मेरा गाँव मेरा देश (वाया शेखावाटी), जयपुर, 2012, ISBN 978-81-89681-21-0, P. 70
  8. डॉ. ज्ञानप्रकाश पिलानिया: राजस्थान स्वर्ण जयंती प्रकाशन समिति जयपुर के लिए राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी जयपुर द्वारा प्रकाशित 'राजस्थान में स्वतंत्रता संग्राम के अमर पुरोधा - सरदार हरलाल सिंह' , 2001 , पृ. 20-21
  9. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p. 26
  10. राजेन्द्र कसवा: मेरा गाँव मेरा देश (वाया शेखावाटी), प्रकाशक: कल्पना पब्लिकेशन, जयपुर, फोन: 0141 -2317611, संस्करण: 2012, ISBN 978-81-89681-21-0, P. 114
  11. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p. 22
  12. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p. 22
  13. डॉ पेमाराम: शेखावाटी किसान आन्दोलन का इतिहास, 1990, p.83-84
  14. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.52
  15. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.53
  16. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.53
  17. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.57
  18. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.58
  19. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.58
  20. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.58
  21. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.59
  22. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.59
  23. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.60
  24. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.62
  25. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.63
  26. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.64
  27. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.65
  28. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.66
  29. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.95
  30. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.89
  31. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p. 28-29
  32. राजेन्द्र कसवा: मेरा गाँव मेरा देश (वाया शेखावाटी), प्रकाशक: कल्पना पब्लिकेशन, जयपुर, फोन: 0141 -2317611, संस्करण: 2012, ISBN 978-81-89681-21-0, P. 76
  33. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p. 19
  34. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p. 17
  35. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p. 238
  36. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p. 240

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