Chhapaniya Akal

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लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

छप्पनिया अकाल : राजस्थान का भीषणतम त्रिकाल

पढ़िए हमारे पुरखों की व्यथा-कथा।
छपनिया अकाल
छपनिया अकाल
छपनिया अकाल

राजस्थान में अनावृष्टि का मतलब घनघोर अकाल। अन्न, पानी, चारे की दुर्लभता। मानव और मवेशी --सबके जीवन पर संकट। इसका नतीज़ा भुखमरी और महामारी का भयानक दृश्य। अकाल का अन्य सांदर्भिक अर्थ दुर्भिक्ष या दुष्काल होता है। राजस्थान में सबसे भयंकर अकाल 1899 ईसवी में पड़ा। उस वर्ष विक्रम संवत 1956 होने के कारण लोक भाषा में यह 'छपनिया अकाल' के रूप में कुख्यात है।

अकाल के मुख्य कारण

मानसून की बेरूखी और बेदर्दी के चलते अवर्षा, अल्पवर्षा व खण्ड वर्षा (rains in pockets) से अकाल ने राजस्थान में जनजीवन को भारी क्षति पहुंचाई है। वस्तुतः यहाँ अकाल का मुख्य कारण अनियमित, अपर्याप्त एवं अनिश्चित वर्षा रहा है।

पश्चिमी राजस्थान का थार मरुस्थल और बीकानेर संभाग अक़्सर सूखे और अकाल की मार सहने को अभिशप्त रहा है। जटिल भौगोलिक और विषम मौसमिक परिस्थितियों वाले इस इलाके को प्रकृति ने अतिशय गर्मी, सर्दी, सूखा, बलुई मिट्टी के उबड़-खाबड़ धरातल और अकाल जैसी आपदाओं की विकटताएं दी हैं। दूर-दूर तक फैला बालू रेत का समंदर, रेत के ऊंचे-ऊंचे टीले, गर्मी में चिलचिलाती धूप, धूल भरी आंधी और गर्म हवाएं/ लू के थपेड़े। जेठ- आषाढ़ (माई-जून) के महीनों में दिन के चढ़ने के साथ सूरज का रौद्र रूप। पारा 50-52 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचना यहाँ आम बात है।

15 वीं सदी के संत कवि कबीर का एक पद है, जिसमें वे आंधी और लू से बेहाल बागड़ प्रदेश की वीरानगी और प्रकृति की सौगतों को समेटे मालवा की तुलना करते हुए ये कहते हैं:

बागड़ देस लूचन का घर है, तहाँ जिनि जाइ दाझन का डर है॥
सब जग देखौं कोई न धीरा, परत धूरि सिरि कहत अबीरा॥
न तहाँ तरवर न तहाँ पाँणी, न तहाँ सतगुर साधू बाँणी॥
न तहाँ कोकिला न तहाँ सूवा, ऊँचे चढ़ि चढ़ि हंसा मूवा॥
देश मालवा गहर गंभीर डग डग रोटी पग पग नीर॥
कहैं कबीर घरहीं मन मानाँ, गूँगै का गुड़ गूँगै जानाँ॥

राजस्थान में खेती मूलतः मॉनसून पर निर्भर है, लिहाजा लोग बादलों को बरसने की मनुहार ख़ूब करते हैं। वर्षा ऋतु में मरुधरा के बाशिंदे बादलों की बाट जिस आतुरता से जोते रहते हैं, उसका बखान चन्द्र सिंह बादली ने अपने एक दोहे में यूँ किया है:

'आस लगायां मरुधरा, देख रही दिन- रात
भागी आ तूं बादली, आई रुत बरसात।'

इतिहास की खिड़की से झांक कर देखें तो पता चलता है कि मानसून की बेरुख़ी और बेदर्दी के कारण पश्चिमी राजस्थान में अकाल बार-बार उधम मचाता रहा है। यहां अकाल को लेकर एक कहावत प्रचलित है:

'तीजो कुरियो, आठवों काल।' -- अर्थात हर तीसरे वर्ष अर्द्ध अकाल, और हर आठ वर्ष में एक बार भीषण अकाल पड़ता है। इसलिए गांवों में लोग अकाल को अणखावाणा पावणा (unwelcome guest) कहते हैं।

राजस्थान व अकाल का चोली-दामन का सा नाता रहा है। बुजुर्गों से एक दोहा सुना था:

"आठ काळ अठाईस जमाना तिरेसठ कुरु का काटा।
एक काळ तो इस्यो पड़ै के माँ स्यूं पाछा मिलै न बेटा।।"

अर्थात सौ वर्ष की अवधि में 8 अकाल, 28 जमाने (अच्छी फसल, पैदावार आदि), 63 कुरु काटे (कहीं थोड़ी, कहीं कम, कहीं बिल्कुल नहीं) पर एक अकाल तो ऐसा पड़ता है कि किसानों को पलायन (माळवा, मऊ आदि की तरफ ) करने को मजबूर होना पड़ता है और नतीजा यह होता है कि पलायन किए हुए बेटे घर वापस तक नहीं लोट पाते।

पश्चिमी राजस्थान में अकाल का मतलब सिर्फ अन्न का अभाव ही नहीं होता बल्कि यहाँ वर्षात नहीं होने का मतलब तिहरे अकाल (अर्थात अन्न, जल एवं तृण/ चारा का अभाव ) से त्रस्त होना है। अन्न, पानी, चारे का अभाव ही भीषणतम अकाल कहा जाता है।

राजस्थान में सामान्यतया अकाल कहाँ-कहाँ अपनी धौंसपट्टी जमाता रहा है, इसे इंगित करने वाला एक दोहा है। इलाके के हिसाब से इस दोहे में कुछ रूपांतर देखने को मिलता है।

"पग पुंगल धड़ कोटड़ा, बाहां बाड़मेर ।
आवत -जावत जोधपुर, ठावो जैसलमेर ।।"

अर्थात अकाल के पैर पुंगल ( बीकानेर) में और धड़ कोटड़ा में और भुजाएं बाड़मेर में स्थाई रूप से पसरी रहती हैं। जोधपुर में भी आवाजाही रहती है परन्तु जैसलमेर तो अकाल का रहवास है।

भीषणतम अकाल

छपनिया अकाल

राजस्थान में सबसे भयंकर अकाल 1899 ईसवी में पड़ा। उस वर्ष विक्रम संवत 1956 होने के कारण लोक भाषा में यह 'छप्पनिया/ छपन्ना काल' के रूप में कुख्यात है। इस अकाल से मुख्यतया राजस्थान, पंजाब, गुजरात, मध्य भारत आदि क्षेत्र प्रभावित हुए।

अनावृष्टि का ऐसा कहर बरपा कि लोग बादलों की बाट जोहते रहे पर तपती रेत को बरसात की सुकून भरी बूंदे नसीब नहीं हुईं। यह भंयकरतम त्रिकाल (अर्थात अन्न, जल एवं तृण/ चारा का अकाल) था। अंग्रेजों के गजेटियर में यह अकाल ‘द ग्रेट इंडियन फैमिन 1899’ के नाम से दर्ज है।

अनावृष्टि से खेतों की जुताई नहीं हो सकी। अन्न का उत्पादन कैसे होता? बिना बरसात के तालाब, जोहड़े, कुंडों में वर्षाजल की आवक कैसे होती? पानी का जुगाड़ करना भी एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा। खारे पानी की किल्लत झेलने वाले इलाकों में तो इस समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया। गर्मियों में जलसंकट जीवन लीलने लगा। सूखी धरती पर मवेशियों के लिए चारा भी कैसे पैदा होता? इस तरह छपनिया अकाल असल में तिहरा अकाल --अन्न, जल, चारा--था।

अकाल की मार ऐसी क्रूर थी कि आमजन के लिए जीवन की गाड़ी खींचना मुश्किल हो गया। एक-एक दिन सबके लिए भारी पड़ रहा था। रात-दिन सबकी एक ही चिंता। रोटी-पानी-चारे का जुगाड़ कहाँ से और कैसे करें? वक़्त गुज़रने के साथ घरों के चौके-चूल्हों पर इस अकाल का असर साफ नज़र आने लगा। भुखमरी के हालात बनने लगे। लोग दो जून की रोटी को तरसने लगे।

जीवटता

हमारे पुरखों की संघर्ष करने की क्षमता और उनकी जीवटता कमाल की थी। भूख-प्यास, हारी-बीमारी, प्राकृतिक विपदा का सामना हिम्मत से करते थे। पलायनवादी प्रवृत्ति से बचकर रहते थे। जानते थे कि ज़िंदगी सुख-दुःख का तानाबाना है। धूप-छांव ज़िंदगी का हिस्सा है।

हमारे पूर्वज विषम परिस्थितियों से घिरे रहे; राज-सत्ता की बेरुख़ी झेली; ज़ुल्म के खिलाफ़ आवाज़ उठाई तो राज सत्ता ने कहर बरपाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। फिर भी उन्होंने हिम्मत कभी नहीं हारी। हर तरह का अभाव झेलते-सहते पले-बढ़े थे। संकट की घड़ी से उबरने के लिए कुछ नवाचार करना और बेहाली के दिनों में भी उम्मीद का दामन थामे रखना उनके स्वभाव की खासियत थी।

छप्पनिया प अकाल के दौर में संयम को सारथी बनाकर ज़िंदगी की गाड़ी को दुर्गम रास्तों से खींचकर लाए। भूख पर नियंत्रण करना सीखा, भूख सहना सीखा। भरपेट खाना खाने की आदत त्याग दी ताकि पिछले साल का जो अनाज बचा था उससे ज्यादा दिन तक काम चलाया जा सके। पहले सिर्फ एक टाइम रोटियां खाने लगे। अन्न का अभाव सताने लगा तो एक दिन छोड़कर एक दिन खाना खाने लगे। अनाज बचाने की जुगत में रोटियां पकाने की बज़ाय कम आटा डालकर राबड़ी बनाकर उससे भूख मिटाने लगे।

जिंदा रहने की जुगत में क्या-क्या किया? ज़रूरत इंसान से बहुत कुछ अप्रत्याशित करवा देती है। पेट का सवाल था। भीषण अकाल की मार सहते लोगों ने भूख से निपटने हेतु कई नवाचार किए। शतायु के नजदीक पहुंच चुकी मेरी माँ, स्वर्गीय पिता जी और मेरे गांव मेघसर (तहसील-जिला चूरू) के बुज़ुर्गों से छपनिया अकाल के बारे में सुनी कुछ बातों को साझा कर रहा हूँ।

अन्न की किल्लत के कारण गाँवो में शुरू में तो पिछले साल के घर में संग्रहित काकड़िया-मतीरे के बीजों को भूनकर खाए और किसी तरह दिन गुजारे। क़ुदरत की खूबियों को बख़ूबी समझा। उसकी गोद को ख़ूब खंगाला। भूख से लड़ने के लिए नई नई तरकीबें खोजीं। खेत-जोहड़े में विपरीत परिस्थितियों में पनपने वाले बांठ-बौझे (वनस्पति यथा-दरख़्त, झाड़-झंखाड़, बेल आदि) की फलियों व उनके बीजों को अन्न के विकल्प के रूप में खाकर भूख को चकमा देने की कोशिश की। उस बीते जमाने में खेतों में बेर की झाड़ियों की बहुतायत होती थी। इसलिए हर साल उनकी कटाई करते समय भारी तादाद में बेर इकट्ठा कर बोरियां भरकर रख लेते थे। बेर खाकर भूख मिटाने का जतन किया। बेर की गुठलियों को भी इकट्ठा करते। फिर उन्हें कूटकर उसका चूर्ण बनाकर पानी के साथ उसकी फाकी लेकर भूख के दंश को दिलासा देते रहते। गर्मियों में खेजड़ी (Prosopis cineraria) की फलियां अर्थात सांगरी के पकने पर जो खोखे बन जाते हैं, उन्हें खाकर संतोष करने लगे।

मरता आदमी क्या नहीं करता? घर में बचा-खुचा अनाज ख़त्म होने की कगार पर पहुंचा तो रेगिस्तानी धरती का कल्प वृक्ष कहे जाने वाले पेड़ खेजड़ी की छोडे (सूखी छाल ) को कूटकर-पीसकर उसके महीन बुरादे को राबड़ी बनाते समय आटे की जगह इस्तेमाल कर या थोड़े से आटे में ज्यादा मात्रा इस बुरादे को मिलाकर उसकी रोटियां खाकर पेट को दिलासा देने को मजबूर हुए। जोहड़ों एवं खेत की चौड़ी सींव (मुंडेर) पर उगे भरूंटिया घास (कांटेदार घास ) के कांटो के एकदम बीच में जो बाजरे के दाने जैसे दाने छुपे रहते हैं, उन्हें बड़े धीरज से बीनकर इकट्ठा करते और फिर उनको उबालकर खाते। जिंदा रहने की जिद्द में उन्होंने वो सब कुछ किया जो करना संभव हो सकता था।

राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में शिक्षा की ज्योति को ग्रामोत्थान विद्यापीठ, संगरिया के ज़रिए परवान चढ़ाने वाले कर्मयोगी संत और स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी स्वामी केशवानंद खुद ने किशोरावस्था में छपनिया अकाल की त्रासदी झेली। माँ के साथ अपना गांव मंगलूणा (सीकर) छोड़कर केलनिया गाँव (जिला-हनुमानगढ़) पहले ही पहुंच गए थे। संवत 1956 (1899 ई.) में ये इलाका भी भयंकर 'छपनिया अकाल' की चपेट में था। मनुष्य और पशु भूख-प्यास व बीमारी से मरने लगे। अभाव की मार से गांव खाली होने लगा. वहां माँ भूख से मौत का निवाला बन गई। बेटा (स्वामी केशवानंद) अनाथ होकर सहारे की तलाश में इधर-उधर ठोकरें खाता हुआ फ़िरोजपुर (पंजाब) पहुंचा। कष्टों की आग में तपकर कुंदन बन कर निखरे स्वामी केशवानंद ने उस दौर के भयावह हालात का बखान ये किया है:

"अकाल की कालिमा गहराती गयी। एक-एक कर प्राणी काल-कवलित होते गए। वनस्पति का तरल द्रव्य और जीवों की रगों में बहने वाला रक्त धीरे-धीरे सूखता गया। क्षुधा शांत करने की ऐसी भगदड़ मची कि सामाजिक रिश्ते एक बीती बात हो गई। माताओं ने अपने बच्चों को छोड़ दिया और भूखे-तड़पते मृग-मरीचिका के भ्रम में जहाँ जिसे सूझा आसरा लिया। पशुओं द्वारा खाई जाने वाली ग्वार की सूखी फलियां विलास की वस्तु बन गयी। लोग वृक्षों की छाल और भरूट घास के कांटे खाने को मजबूर हुए। शासन-तंत्र नाम की कोई चीज नहीं थी। मानव शरीरों के खून का अंतिम कतरा तक हजम करने की गीदड़ दृष्टि वाले जागीरदार, शासक इस घोर अकाल की स्थिति में सहयोग की बजाय भूख से तड़पते लोगों से कोसों दूर जश्न मनाते रहते।" [1]

हमारे पूर्वज अनपढ़ थे पर वक़्त की जरूरत के हिसाब से अपने को ढालने और नवाचार करने में कतई नहीं हिचकते थे। इसकी एक और मिसाल प्रस्तुत कर रहा हूँ। छपनिया अकाल के दौरान गाय-बैलों के लिए पारंपरिक चारा अनुपलब्ध था। हमारे पूर्वजों ने इसका एक विकल्प खोजा। सीकर के वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी और पूर्व सदस्य, राजस्थान विधानसभा श्री रणमल सिंह (अभी उम्र 97 वर्ष ) के अनुसार छपनिया अकाल से पूर्व गाँवो में खेजड़ियाँ छांगने का रिवाज़ नहीं था। बस खेजड़ी की कुछ टहनियों को कुल्हाड़ी या अकूड़ा से काटकर भेड़-बकरियों को खिला देते थे। खेजड़ियों की छंगाई (lopping) कर उनके लूंग (खेजड़ी की पत्तियां) को पशुओं के चारे के रूप में खिलाने की जरूरत महसूस भी नहीं होती थी। कारण यह था कि खेतों में बाजरे की कड़बी (बाजरे के डंठल), झाड़ियों का पाला (बेर की झाड़ियों की पत्तियाँ), घासफूस आदि की बहुतायत रहती थी। इसलिए मवेशियों के चारे के रूप में इन्हें ही इस्तेमाल करते थे। बता दें कि उस दौर में बुवाई के लिए ट्रेक्टर आदि उपलब्ध नहीं थे, इसलिए खेतों में छोटे बेर की झाड़ियां बहुतायत में होती थीं। उस समय गाय ही प्रमुख पशुधन था। (शेखावाटी में) भैंस व ऊंट की संख्या बहुत सीमित थी। लोक में उस समय की एक कहावत प्रचलित थी कि “घोड़ां राज और बल्दां (बैल) खेती”। एक बात और भी है। उस समय बाजरे के पूलों की छानी भी नहीं काटी जाती थी। छपनिया अकाल में पशुओं के लिए चारे की किल्लत से निपटने के लिए हमारे पूर्वजों ने एक तरक़ीब निकाली। खेजड़ियाँ छांगकर उसका लूंग और छानी (बाजरे के डंठलों की को छोटे- छोटे टुकड़ों में काटना) मवेशियों को खिलाने का नवाचार किया। [2]

इस अकाल के बाद लोगों में आवश्यक चीजों की थोड़ी-थोड़ी बचत कर संचय करने की प्रवृत्ति पनपी ताकि आड़े (कठिन ) वक्त या अड़ी-भड़ी (संकट) में काम चलाया जा सके। अनाज, चारे-पानी को आगे के सालों के लिए सुरक्षित रखने की तरक़ीब सोची गईं और अमल में भी लाई गईं। खेतों में चारे के रूप में बागर (कड़बी का सुव्यवस्थित ढेर) व मोठ-गंवार के चारे का कीड़ा देने (चारा भंडारण ) का सिलसिला शुरू हुआ ताकि इस संचित चारे का इस्तेमाल चारे की किल्लत होने पर किया जा सके।

त्रिकाल का ताण्डव

छपनिया अकाल

त्रिकाल ने हर जगह, हर स्तर पर अपना तांडव नृत्य किया। भूख हर घर में पसरने लगी। हर तरफ़ भूख से बिलखते और तड़पते बच्चे, बूढ़े, जवान। हर ओर दिल दहलाने वाला मंज़र था। त्राहिमाम! त्राहिमाम! हर तरफ यही सुनाई देता था।

छपनिया अकाल के उस दौर में जिंदा रहने के लिए हर दिन लड़ाई लड़नी पड़ती थी। रात-दिन की भूख ने बूढ़े-बच्चे, जवान सबकी काया को एकदम कमजोर कर दिया। कितने कमजोर? इसे शब्दबद्ध करना मुश्किल। इंटरनेट से साभार प्राप्त कुछ फोटो इस पोस्ट के साथ नत्थी कर रहा हूँ, इन्हें गौर से देखिए और अकाल की मार से त्रस्त लोगों की दुर्दशा का अंदाज़ा लगाइए। A picture is worth thousand words. जो बात हज़ार शब्दों से नहीं समझाई जा सकती, वो एक तस्वीर से बख़ूबी समझाई जा सकती है।

भुखमरी का असर साफ दिखने लगा। भूख ने लोगों के तन को चूस लिया था। अत्यंत कमजोरी के कारण लोगों में उठने-बैठने के लिए भी सहारे की जरूरत होती थी। घर में सभी की हालत एक जैसी हो गई थी। कौन किसको सहारा दे? इसलिए झौपडों में जहां सोते-बैठते थे वहाँ लकड़ी का लट्ठा (wooden support) रोप लिया था ताकि उसको पकड़कर उठ-बैठ सकें।

बीतते दिनों के साथ भूखे लोग हड्डियों के ढांचे में तब्दील होने लगे। भूख की मार कैसी होती है ये कोई भूखा ही जान सकता है। बहुतेरे लोग भूख से इस लड़ाई में हारते गए। मौत के मुंह में समाते गए। कुछ लोग ऐसे भी थे जिनकी कमर में बंधी न्योली में चांदी के सिक्के थे पर उनके दूर दराज़ गाँवो में अनाज उपलब्ध नहीं था। नतीज़तन भूख के मारे दम तोड़ दिया।

दुर्भिक्ष ने जनजीवन को बुरी तरह प्रभावित किया। तंगी में कौन संगी होता? अन्न का भीषण अभाव झेल रहे जन समुदाय में चोरी-चकारी, लूट-खसोट आदि कई तरह की बुराइयां बढ़ने लगीं। भूख की आग में रिश्ते-नाते झुलस गए। यहाँ तक की कुछ मनुष्य नरभक्षी हो गए। अनाज के बदले बच्चों को बेचने के भी कुछ मामले सामने आए। उस दौर में सबसे कीमती अगर कोई चीज़ थी तो वो अन्न था। किसी ओट में छुपा कर रखी हांडियों में रखे अनाज की चोरियाँ ख़ूब होने लगीं।

एक किस्सा है। छपनिया अकाल में एक किसान ने असहनीय भूख से त्रस्त होकर खेजड़ी की सांगरी के बदले अपनी धण (पत्नी ) को किसी को सुपुर्द कर दिया। जेठ महीने में मानसून की दस्तक हुई। बादल गरजने लगे तो अपना सिर पकड़कर उसने अपने किए पर पछतावा करते हुए ये कहा:

"आधो रैग्यो ऊंखळी, आधो रैग्यो छाज
सांगर सट्टै धण गयी, अब मधरो-मधरो गाज।" [3]

अर्थात बादल अब उमड़-घुमड़ कर भले ही ख़ूब गाजते रहें। भूख को जो नुकसान पहुंचाना था, वो उसने पहुंचा दिया है।

पलायन

आज़ादी से पहले और उसके बाद के कुछ दशकों तक राजस्थानवासी अकाल की चपेट में आने पर भादवा (अगस्त-सितंबर) महीने में अपने डांगर-ढोर (मवेशियों) को लेकर पैदल ही मालवा, आगरा, मऊ की ओर चले जाते थे। वर्षा होने पर वापस लौट आते थे। मारवाड़ व बीकानेर संभाग के कुछ लोग आज़ादी से पहले सिंध की ओर भी पलायन करते थे। बता दें कि मालवा/मऊ / महू आदिवासी और किसानों के बाहुल्य वाला पश्चिमी मध्य प्रदेश का हराभरा भूभाग है. गांवों में बुजुर्गों से अब भी पलायन के बारे में एक कहावत सुनने को मिलती है, जो इस प्रकार है:

"मऊ कुण जासी?
पहली गया बे ही जासी।"

अर्थात जिन साधनहीन परिवारों के लिए अकाल में रोजी-रोटी का जुगाड़ करना यहां पर मुश्किल है, वे पहले भी यहाँ से पलायन करते रहे हैं और अब भी करेंगे। महू/ मऊ जाने का मतलब घर बार तजकर दूर प्रदेश जाना। छपनिया अकाल में भी गाँवो से कई परिवार खाने-पीने और पशुओं के लिए चारे की तलाश में दूर- दराज़ प्रदेशों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर हुए। बदक़िस्मती से मालवा भी छपनिया अकाल की चपेट में आ गया था। उस दौर में कुछ लोग वहां जाकर वहीं बस गए, जिनमें सबसे ज्यादा मारवाड़ के लोग थे। बहुत से परिवार आपस में सदा के लिए बिछुड़ गए। बेटे का माँ-बाप से बिछुड़ जाने की कई मिसालें हैं।

जनहानि

सन 1899 में लार्ड कर्ज़न की भारत में वायसराय पद पर नियुक्ति हुयी और उसी साल छपनिया अकाल पड़ा। इस अकाल में ब्रिटिश सरकार के सीधे अधीन प्रदेशों में अकाल से प्रभावित लोगों के लिए कुछ राहत शिविर खोले गए पर उनमें लगभग 25 प्रतिशत लोगों को ही सीमित राहत मिली।

छपनिया अकाल व्यापक रूप से जनसंहारक साबित हुआ। सन 1908 में भारत के इम्पीरियल गज़ेटियर में छपे एक अनुमान के अनुसार इस अकाल से अकेले ब्रिटिश भारत अर्थात सीधे अंग्रेज़ी हुक़ूमत द्वारा शासित प्रदेशों में 10 लाख लोग भुखमरी और उससे जुड़ी हुई बीमारियों से मौत के मुँह में समा गए थे। कुछ इतिहासवेत्ता मानते हैं कि ये आंकड़ा 40- 45 लाख तक पहुंच गया था। इसमें उस समय के रजवाड़ों/ रियासतों में इस अकाल की वजह से हुई जनहानि की संख्या शामिल नहीं है।

राजस्थान और गुजरात की देशी रियासतों में शासन राजाओं के हाथ में था, वहाँ पर यह अकाल बहुत ज़्यादा जनसंहारक साबित हुआ। रियासती राजाओं ने शहरों में पीड़ित प्रजा के लिए कुछ राहत कार्य शुरू किए। पर गाँवो के प्रति राजशाही की बेरुख़ी इस भयावह त्रासदी के दौरान भी पहले की तरह बनी रही। राज-काज के नाम पर जमींदारों, लंबरदारों, कुछ गांवों में चौधरियों के जरिए गाँवो से लगान वसूल करने पर ही ध्यान दिया जाता रहा। राजाओं व जमींदारों ने महलों व गढ़ों में संचय किए गए अनाज का इस्तेमाल सिर्फ हाज़रियों, हुजूरियों एवं हुंकारियों की भूख मिटाने के लिए किया। आमजन को अपने हाल पर छोड़कर रंगरेलियां मनाने में मस्त रहे।

रजवाड़े लगभग संवेदनहीन थे, क्रूर शासक थे। उनके दलाल जागीरदार व लम्बरदार इलाके के पीड़ितों की सहायता करने की बजाय अपने मद और अय्याशी में डूबे रहते थे। लालच उनकी रग-रग में रचा बसा था।

शहरों में जनहानि कम हुई क्योंकि वहाँ पर कुछ दानवीर धन्ना- सेठों ने बावड़ी-कुएं खुदवाकर, खुद के लिए हवेलियां रोटी साठे (बदले) बनवाकर भूख से त्रस्त लोगों को सीमित राहत पहुंचाई। भूखों को चणे बांटे गए ताकि उसे चबाकर भुख को दिलासा ड़ै सकें। पर ये राहत भी कुव्ह ही जगहों पर वो भी कभी-कभार। शहरों के आसपास के कुछ गाँवो में भी सेठों ने कुएं व जोहड़े खुदवाकर कुछ राहत प्रदान की। भुखमरी में रोटी साठे (बदले) मज़दूरी करने को लोग मजबूर हुए। मजदूरों को केवल दो बाजरे की रोटी तथा एक प्याज दोपहर में या फिर डेढ़ रोटी व गुड़ की एक डली (टुकड़ा ) के बदले सेठों व रजवाड़ों ने अपने लिए गढ़ व हवेलियाँ बनवाईं।

एक अनुमान के अनुसार राजस्थान की उस समय की रियासतों की जनसंख्या का 25 प्रतिशत जनता (एक अनुमान के अनुसार 10 लाख लोग) इस अकाल से मौत की ग्रास बन गई थी।

मवेशियों पर भी इस अकाल ने करारा कहर बरपाया। खेतों में वीरानगी पसरी पड़ी रही। चारे-पानी के अभाव में असंख्य मवेशियों ने दम तोड़ दिया था। भूख से तड़पते हजारों पशुओं की जान चली गई। खेतों व गांवों में हर तरफ हड्डियों के ढेर लग गए थे।

लोक साहित्य में छपनिया अकाल

लोक साहित्य में छपनिया अकाल के बारे में तत्समय के रचनाकारों ने क्या लिखा है, इसे जानने के लिए इन दिनों कई पुस्तकें खंगाली। कॉलेज में मेरे सहकर्मी रहे डॉ शक्तिदान कविया द्वारा संपादित पुस्तक 'उमरदान ग्रंथावली' ( जनकवि उमरदान की जीवनी और काव्य कृतियां ) और डॉ गजादान चारण 'शक्तिसुत' का आलेख 'डिंगल काव्यधारा में प्रगतिशील चेतना' में छपनिया अकाल पर मारवाड़ के जनकवि उमरदान की दो रचनाएं पढ़ने को मिलीं, जिन्हें यहाँ साभार उद्धरित कर रहा हूँ। छपनिया अकाल से त्रस्त मारवाड़ की जनता की बदहाली का बखान करते हुए उमरदान जी ने ये लिखा है:

"मांणस मुरधरिया माणक सूं मूंगा ।
कोड़ी- कोडी़ रा करिया श्रम सूंगा ।
डाढी मूंछाला डळियां में डुळिया ।
रळिया जायोडा़ गळियां में रूळिया ।।
आफत मोटी ने खोटी पल आई।
रोटी-रोटी ने रैय्यत रोवाई ।।"

अर्थात मरूधर के रहवासी (मारवाडी) जो मणिक और मुंगा आदि रत्नों के समान महंगे थे, वे अकाल के प्रहार से एक-एक कोडी़ की सस्ती मज़दूरी करने को मजबूर हुए। गर्वीली दाढ़ी-मूंछों वाले लोग टोकरियां उठाने लगे। महलों में पैदा हुए गलियों में भटकने को मजबूर हुए। रोटी को तरसती जनता रोने को मजबूर हुई ।

इस प्रकार प्रगतिशील धारा के जनकवि उमरदान लालस ने छपनिया-अकाल में भूख से बिलबिलाते- करहाते आमजन की व्यथा को प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त किया। पीड़ित जन की लाचारी एवं बेबसी, राजसत्ता की स्वार्थपरता और प्रजा के कष्टों के प्रति घोर अनदेखी को भी सशक्त शब्दों में उजागर किया। एक छप्पय छंद में उन्होंने पोंगापंथ, पाखण्ड और मठवाद की पोल खोलते हुए इस बात को रेखांकित किया कि ‘करसा एक कमावणा’ है, बाकी सब उसकी कमाई पर पलने वाले परजीवी हैं। किसान की कर्मठता को सर्वोपरि मानते हुए उन्होंने ये कहा -

" मारवाड़ रो माल मुफत में खावै मोडा।
सेवग जोसी सैंग, गरीबां दे नित गोडा।
दाता दे वित दान, मौज माणै मुस्टंडा।
लाखां ले धन लूट, पूतळी पूजक पंडा।
जटा कनफटा जोगटा, खाखी परधन खावणा।
मुरधर में क्रोड़ां मिनख (ज्यांमें) करसा एक कमावणा।।"

लोकगीतों में बहुसंख्यक समाज के यथार्थ की अभिव्यक्ति है। इनके रचनाकारों ने जीवन संघर्षों को भोगा था, अपार कष्टों को सहा था और भोगे हुए यथार्थ की ऊर्जा से लोकगीतों की रचना की। मेरे विचार से तो इन अधिकांश लोकगीतों के 'अज्ञात' (anonymous) रचनाकार 'हम' ('शिष्ट जन'/ नज़रों में बने रहने वाले taking centre stage) नहीं अपितु 'वे' (others / marginalized हाशिए पर धकेले) हैं। यह बात इस आधार पर कह रहा हूँ कि लोकगीतों में आमजन की आशाओं, आंकाक्षाओं, अंदेशों, आस्थाओं और झेले गए कष्टों की अभिव्यक्ति मिलती है। आमजन की ज़िंदगी की करुण कहानी और ज़िंदगी में खुशियों की सौगात--दोनों की गूँज लोकगीतों में आमजन की भाषा में अभिव्यक्त की गई है।

राजस्थान में छपनिया अकाल की विभीषिका का डर अब भी बुजुर्गों को सताता रहता है। मारवाड़ में गाया जाने वाला ये लोकगीत इसका सबूत है:

"छपनिया काल रे छपनिया काल,
फेर मत आइयो म्हारी मारवाड़ में।
आइयो जमाइड़ो धड़कियाँ जीव,
काँ ते लाऊँ शक्कर, भात, घीव, जमाइड़ो?
फेर मत आइयो म्हारी मारवाड़ में।
छपनिया काल रे छपनिया काल,
फेर मत आइयो म्हारी मारवाड़ में।।"

लोकगीतों के दरवेश देवेंद्र सत्यार्थी ने इस लोकगीत को भारत के लोकगीतों के संग्रह में खास स्थान दिया है।

एक लोकगीत और है, जिसमें डरे- सहमे लोग छपनिया अकाल से अरदास कर रहे हैं कि इन भोले-भाले लोगों के देश में फिर लौटकर मत आना:

"ओ म्हारो छप्पन्हियो काल्ड 
फेरो मत अज भोल्डी दुनियाँ में।

(O Cursed Chhapaniya famine, return no more to this innocent land. )

बाजरे री रोटी गंवार की फल्डी
मिल जाये तो वह ही भली 
म्हारो छप्पन्हियो काल्ड 
फेरो मत अज भोल्डी दुनियाँ में।"

(काल्ड =अकाल, भोल्डी =भोली, फल्डी= फलियां )

संघर्षशील और आशावादी

हमारे पूर्वजों ने साल दर साल इन अकालों की विभीषिका को बेमिसाल हौसले व बुद्धिमत्ता से झेला और संकटों के दौर से खुद और परिजनों की ज़िंदगी की नैया को बड़े जतन से खेया था। उन्हीं के सतत संघर्ष का ही सुफल है कि आज मरुस्थल आबाद है।

प्रकृति और राज के सितम दिलेरी से सहे। कदम- कदम पर संघर्ष किया। गिरते रहे, उठते रहे, आगे बढ़ते रहे। घोर आशावादी थे। मानते थे कि ये दौर एक दिन जरूर बदलेगा।

पीढ़ियों के संचित ज्ञान (conventional wisdom) ने उन्हें ये सिखाया था:

यह लड़ाई है दिए और तूफान की।
तूफान अभी है, कुछ वक्त बाद नहीं होगा।
तूफान प्रकृति का स्थाई स्वभाव नहीं होता।
जीत तो आखिर दिए की ही होनी है।

बेहाली के दौर में उम्मीद का दामन थामे रखा। जानते थे कि अंधेरा छंटेगा। सूरज निकलेगा। किसके रोके रुका है सवेरा?

हमारे पुरखों की आशावादिता का इज़हार करने वाले दो शेर पेश करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ: शायद ये शेर गुनगुनाते रहे:

'दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है
लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है' (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़)
'रात तो वक़्त की पाबंद है ढल जाएगी
देखना ये है चराग़ों का सफ़र कितना है' (वसीम बरेलवी)

'तब' और 'अब' के हालात में अंतर

छपनिया अकाल में हमारे पूर्वजों की हुई दुर्दशा से युवा पीढ़ी अनभिज्ञ है क्योंकि 'तब' और 'अब' के हालात में काफी अंतर आ चुका है। भारत में आज़ादी के पहले और बाद के लगभग दो दशकों तक खाद्यान्न का उत्पादन जनसंख्या के हिसाब से काफी कम होता था। इसलिए मई 1960 में अमेरिका और भारत के बीच चार वर्ष की अवधि के लिए पी.एल.480 ( पब्लिक ला 480 ) नामक एक समझौता हुआ, जिसके तहत भारत को अमेरिका से लाल गेहूं हासिल होता था। अमेरिका में पशुओं को खिलाए जाने वाले उस गेहूं को हमारे पूर्वज अकाल के समय खाने को मजबूर थे। जब अकाल पड़ता था तब सरकार द्वारा परमिट के ज़रिए उपलब्ध करवाया गया धान जैसे लाल जंवार, लाल गेंहू, घाट आदि को खाकर लोग भूख मिटाते थे।

सन 1966-67 में सरकार ने एक दीर्घ नीति अपनाते हुए देश में खाद्यान्न की कमी को दूर करने के लिए हरित क्रांति की शुरुआत की। इसका मुख्य उद्देश्य भारत को खाद्यान्न के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाना था। भारत में हरित क्रांति लाने और इस दिशा में विशेष योगदान देने का श्रेय एम. एस. स्वामीनाथन को जाता है। हरित क्रांति के फलस्वरूप भारतीय कृषि प्रणाली और बुवाई हेतु प्रयुक्त होने वाले बीजों की गुणवत्ता में परिवर्तन किए गए। इसके फलस्वरूप कृषि उत्पादन में काफी कम समय में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। हरित क्रांति का ही कमाल है कि भारत दुनिया के बड़े कृषि उत्पादकों के रूप में स्थापित हुआ है। आज भारत खाद्यान्न के उत्पादन के मामले में राष्ट्रीय स्तर पर आत्मनिर्भर हो गया है। साथ ही गेहूँ और चावल के मामले में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक और चावल का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है।

सन 1987 और 2000 में भी पश्चिमी राजस्थान दुर्भिक्ष का शिकार हुआ। पर देश के गोदामों में सरप्लस अनाज के भंडारण की व्यवस्था होने से अकाल प्रभावित इलाकों में अनाज की आपूर्ति संभव हो सकी। सड़क और रेल परिवहन की सुविधाओं में विस्तार होने से अनाज और चारे-पानी की एक जगह से दूसरी जगह ढुलाई में सहूलियत हुई है। काम के बदले अनाज योजना अकाल से त्रस्त लोगों के लिए जीवनदायनी साबित हुई है।

गरीब परिवारों को गेहूँ, चावल और चीनी आदि की आपूर्ति सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत देश भर में फैली 5 लाख से ऊपर दुकानों के माध्यम से भारी सब्सिडी के दाम पर की जाती है। राशन कार्ड से मिलने वाले गेंहू से गरीब परिवारों का गुजारा हो जाता है। इसके अलावा अकाल के समय सरकार द्वारा अकाल राहत कार्य भी शुरू किए जाते हैं।

बीकानेर संभाग में इंदिरा गांधी नहर का पानी पहुंचने के बाद यहाँ की विकट परिस्थितियों में काफी सुधार हुआ है। भूजल स्तर में सुधार हुआ और उसकी लवणता में कमी आई है। नतीज़तन यहाँ पिछले लगभग तीस सालों में ख़ूब पेड़-पौधे पनपने लगे हैं। आंधियों का प्रकोप कम हुआ है। इंदिरा गांधी नहर के पानी से पीने के पानी की किल्लत झेलने को अभिशप्त इलाकों को राहत मिली है।


कोविड 19 महामारी के इस दौर में सावधानी बरतें, संयम का दामन थामे रहें। 'सुरक्षा हटी, दुर्घटना घटी।' इस बीमारी के फैलाव पर अंकुश लगाने के लिए लागू किए गए लॉक डाउन से उत्पन्न संकट के दौर में हम हमारे पूर्वजों के संयम और सब्र से प्रेरणा लें।

सोशल डिस्टेंसिंग का मतलब समाज से दूर हो जाना या कट जाना नहीं है। ये वक़्त समाज से मुंह फेर लेने का नहीं बल्कि एक-दूजे से शारीरिक दूरी बनाए रखकर मन की नजदीकियां प्रगाढ़ करने का है।

वैज्ञानिक सोच को अपनाएं। खुद चेतें, और औरों को चेताएं।


✍️✍️ प्रोफेसर हनुमानाराम ईसराण

पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राज.

दिनांक: 4 अप्रैल 2020


सम्पर्क: बिजली बोर्ड ऑफिस के पास, जयपुर रोड, चूरू ( राजस्थान ) पिन 331001 ई मेल : hrisran@gmail.com मोबाइल : 9414527293

संदर्भ

  1. स्रोत: पं. बनारसीदास चतुर्वेदी (प्रधान संपादक ) , ठाकुर देशराज (संपादक): स्वामी केशवानंद अभिनंदन ग्रंथ, मार्च 1958 ई.
  2. स्रोत: 'शताब्दी पुरुष - रणबंका रणमल सिंह', द्वितीय संस्करण 2015, पृष्ठ 111-12
  3. दोहा श्री अरविंद चोटिया व श्री नौरंग वर्मा से प्राप्त