स्वामी ओमानन्द सरस्वती का जीवन-चरित/प्रस्तावना

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स्वामी ओमानन्द सरस्वती

(आचार्य भगवानदेव)

(1910-2003) का


जीवन चरित


लेखक
डॉ० योगानन्द
(यह जीवनी सन् 1983 ई० में लिखी गई थी)


प्रस्तावना



प्रो० शेरसिंह और स्वामी ओमानन्द जी


राष्‍ट्रपिता महात्मा गांधी ने 50 वर्ष पूर्व कहा था कि आवेश में आकर जान दे देना सरल है, परन्तु सब कठिनाइयों विरोधों और आलोचनाओं के बीहड़ जंगलों को पार करते हुए रचनात्मक कार्य द्वारा जनमानस की सेवा करना अति कठिन है । स्वामी ओमानन्द जी (आचार्य भगवानदेव जी) ने कठोरतम साधना करते हुए अपना सारा जीवन भारत के जनमानस की सेवा के लिये समर्पित किया । अपनी सारी सम्पत्ति ही नहीं, सारा जीवन ही समाज को दान कर दिया । 'तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः" के महान् वैदिक उपदेश को अंगीकार करते हुए अपने शरीर के लिये समाज से थोड़े से थोड़ा लिया । नंगे पैर चलना, कोपीन, कटिवस्त्र और चादर के सिवाय कोई कपड़ा न धारण करना, नमक और मीठा तक त्याग कर अस्वाद व्रत का पालन करना, इस प्रकार का जीवन जिया है स्वामी ओमानन्द जी ने ।


अपने जीवन में इन्होंने मांगा, बहुत मांगा, परन्तु अपने लिये नहीं, परमार्थ के लिये । शिक्षा संस्थायें चलाईं, आज भी चला रहे हैं, हजारों लाखों में औषधियां बांटी, आज भी बांट रहे हैं, साहित्य छापा और वितरित किया, आज भी कर रहे हैं, और अनेक गतिविधियों में लगे रहे, आज भी लगे हुए हैं । धन इन्हीं कार्यों के लिये जनता से लिया, अपने लिये नहीं, इन्हीं कार्यों के लिये जो अपने पास था वह भी दे दिया । ऐसे फकीर किसी से डरें क्यों, झुकें क्यों ? जहाँ जो अनुचित दिखाई दिया, उसके विरुद्ध संघर्ष करने से कभी टले नहीं और अपना शाहनशाहाना अन्दाज रक्खा । क्यों न रक्खें ? कबीर ने ठीक ही तो कहा था -


चाह गई चिन्ता मिटी मनवा बेपरवाह ।

जिसको कछु न चाहिये सो ही शाहनशाह ॥


देश की आजादी की लड़ाई चल रही थी, उसमें कूद पड़े, जेल काटी, निजाम हैदराबाद के अत्याचारों के विरुद्ध आर्यसमाज ने ललकार दी, तो उसमें जत्था लेकर पहुंचे, हिन्दी आन्दोलन हुआ तो उसके संचालन का भार ओढ़ लिया, गोरक्षा का अभियान चला और सत्याग्रह हुआ, तो हजारों सत्याग्रही उसमें झोंक दिये, स्वयं साथ गये । हरयाणा प्रदेश के निर्माण और बाद में उसके अधिकारों का प्रश्न खड़ा हुआ तो उसके लिये मैदान में उतर आये, और जो कहा वह कर दिखाया ।


स्वामी जी ने अपना कार्यक्षेत्र हरयाणा को चुना । उनका जन्म दिल्ली की देहात में हुआ, परन्तु प्रशासनिक दृष्टि से न सही, सांस्कृतिक दृष्टि से वह हरयाणा का अभिन्न अंग है । गुरुकुल झज्जर बालकों के लिये और कन्या गुरुकुल नरेला, बालिकाओं के लिये चलाने का भार आज तक यही संभाले हुए हैं । इन शिक्षा संस्थाओं के द्वारा, उनका उद्देश्य ऐसे नवयुवक और नवयुवतियां तैयार करना था जो जीवन भर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए समाज और राष्ट्र की सेवा करें । उनके शिष्य अनेक शिक्षा संस्थायें संभाले हुए हैं और उनमें ऐसे भी हैं जो हरयाणा से दूर वनों में रहकर जनजातियों की सेवा में लगे हैं ।


हरयाणा प्रदेश की सरकार ने तो पिछले 16 वर्षों में कोई पुरातत्त्व संग्रहालय नहीं बनाया, यह 'गौरव' शायद उसी को प्राप्‍त हो । इस कमी को स्वामी जी ने पूरा किया । देश से नहीं, विदेशों से भी (जहां वे भारत सरकार द्वारा पुरातत्त्व संबन्धी गोष्ठियों और सम्मेलनों में भेजे गये, बहुत सी जगह स्वयं भी गये) करोड़ों रुपये की सामग्री एकत्रित करके उन्होंने गुरुकुल झज्जर में और कुछ समय हुआ कन्या गुरुकुल नरेला में भी पुरातत्त्व संग्रहालय बनाये । ये संग्रहालय चाहे सालारजंग द्वारा संरक्षित तथा एकत्रित सामग्री के आधार पर बने हैदराबाद में सालार जंग म्यूजियम की तुलना में छोटे लगें, परन्तु समूचे भारत में किसी भी दूसरे व्यक्ति ने अपने परिश्रम से, स्वयं साधन जुटाकर इतने साज सामान से भरपूर संग्रहालय का निर्माण नहीं किया है । भारत सरकार ने इसके महत्त्व को समझकर, थोड़ा ही सही, अनुदान दिया है, विशेष परियोजनाओं और साहित्य के लिये भी सहायता दी है, परन्तु हरयाणा सरकार की ओर से सहायता न के बराबर है ।


हरयाणा प्रदेश का यह दुर्भाग्य रहा है कि इस क्षेत्र में जनसेवा की भावना का विकास ही नहीं हुआ, जनसेवक के और उसके काम के समुचित आदर की भावना कैसे पनपती । हरयाणा के सार्वजनिक जीवन में अंग्रेजों के शासनकाल से ही 'दाव मार' नीति को पनपने का अवसर मिलता रहा, और यह रोग इतना बढ़ने दिया गया कि आज 'हरयाणा' सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार का पर्यायवाची बनकर रह गया है ।


गुजरात प्रदेश ने अनेक महापुरुषों को जन्म दिया और वहां रचनात्मक कार्यक्रमों में लगे जनसेवकों को समुचित आदर मिलता रहा है । बम्बई प्रदेश के पुनर्गठन के फलस्वरूप जब गुजरात प्रदेश का निर्माण किया गया तो उस प्रदेश के जन्मोत्सव का उद्‍घाटन गुजरात प्रदेश के एक तपस्वी सन्त रविशंकर महाराज के करकमलों से हुआ । श्रद्धेय रविशंकर महाराज से मैं पहली बार 1954 में ग्राम सणोसरा (गुजरात) में मिला । उसके बाद भी दो तीन बार मिला । उनके सुपुत्र, जिन्होंने गुरुकुल कांगड़ी से आयुर्वेदालंकार की परीक्षा पास की थी, उनसे भी मिला । रविशंकर महाराज अपने आपको स्वामी श्रद्धानन्द का भक्त और महर्षि दयानन्द का अनुयायी मानते हैं । वे वास्तव में एक महान् सन्त और स्वभाव से फकीर हैं । स्वामी ओमानन्द जी भी उसी कोटि के साधु और सचमुच के फकीर हैं । पिछले चालीस वर्षों से मेरा उनके साथ निकट का सम्बन्ध रहा है, उसी के आधार पर मैं अधिकारपूर्वक यह कह रहा हूं । वैसे उनका जीवन एक खुली किताब है, उसे लाखों लोगों ने देखा और पढ़ा है । उनका सारा जीवन ही परोपकार में लगा है, इसीलिये शायद उन्होंने महर्षि दयानन्द द्वारा स्थापित "परोपकारिणी सभा" का अध्यक्ष बनना स्वीकार कर लिया । वे आर्यसमाज के लिये पूर्ण रूप से समर्पित हैं परन्तु उन्होंने सब सदस्यों के बार बार आग्रह करने पर भी, कभी भी सभाओं में कोई पद स्वीकार नहीं किया । वे भारत के सर्वसाधारण में रमे रहना चाहते हैं । अनेक वर्षों तक तो वे ग्राम ग्राम में पैदल ही घूमते रहे, जब से जीप गाड़ी ली है, वह भी सदा पुस्तकों से और सहयोगियों से लदी ही रहती है ।


हरयाणा के लोगों ने उनको आदर भी दिया, परन्तु जितना देना चाहिये था, उसका तो आधा तिहाई भी नहीं दिया । दूसरे किसी प्रदेश के किसी व्यक्ति ने इतनी निःस्वार्थ सेवा अपने प्रदेश की जनता की की होती, तो बात ही अलग होती । कभी-कभी तो अपने प्रदेश के लोगों को जब जनहित के विरुद्ध काम करने वालों पर आदर लुटाते हुए देखते हैं तो अकबर इलाहाबादी का शेर बरबस निकल पड़ता है -


कद्रदानों की तबीयत का अजब रंग है आज ।

बुलबुलों की यह हसरत के उल्लू न हुए ॥


हरयाणा प्रदेश के कुछ लोगों ने और विशेषकर नवयुवकों ने भारत भर में बसे हुए कद्रदानों के सहयोग और आशीर्वाद से स्वामी जी के अभिनन्दन का काम, चाहे देर से ही सही, अपने हाथों में लिया है । इस ग्रन्थ के सम्पादन, मुद्रण तथा धन संग्रह में श्री वेदव्रत शास्‍त्री, श्री राजवीर शास्‍त्री, श्री सुदर्शनदेव आचार्य, श्री ब्र० विरजानन्द, श्री चन्द्रपालसिंह राणा, श्री रणवीरसिंह शास्‍त्री, श्री प्रिंसिपल होशियारसिंह, श्री वेदपाल वर्मा, श्री वैद्य कर्मवीर, श्री देवदत्त भारती, श्री सत्यवीर शास्‍त्री आदि ने विशेष पुरुषार्थ किया है । क्या ही अच्छा होता अगर हरयाणा की सभी स्वैच्छिक सार्वजनिक संस्थायें तथा सभी गणमान्य सरकारी और गैर सरकारी नेता एवं कार्यकर्त्ता अपने महान् जनसेवक का अभिनन्दन मिलकर करते ।


- प्रो० शेरसिंह

संरक्षक

स्वामी ओमानन्द अभिनन्दन समिति

10 मई 1983



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Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल


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