Aandolanjivi Banam Sattajivi

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लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

आंदोलनजीवी बनाम सत्ताजीवी

आंदोलनजीवी बनाम सत्ताजीवी

इतिहास इस बात को साबित करता है कि सत्ताजीवी माने परजीवी था, है और रहेगा। ये छलजीवी थे, हैं, रहेंगे। झूठजीवी थे, हैं, रहेंगे। मुखबिर थे, हैं, रहेंगे। माफीवीर थे, हैं, रहेंगे। चंदाजीवी थे, हैं, रहेंगे। डफलीजीवी थे, हैं, रहेंगे। पहले मुगलों व अंग्रेजों के चमचे थे। अब कॉरपोरेट्स के चमचे हैं और रहेंगे। दूसरी तरफ ज़मीरजीवी थे, हैं और हर ज़माने में रहेंगे। जागरूकजीवी थे, हैं, रहेंगे। अन्याय और झूठ के विरूद्ध आवाज़ बुलंद करने वाले थे, हैं, रहेंगे। जनजीवी माने स्वतंत्रजीवी था, है, रहेगा।

सत्ताजीवों को समझना चाहिए

सत्ताजीवों को समझना चाहिए कि कीलबंदी, किलेबंदी, दीवारबंदी, तारबंदी, बाड़बंदी, घेराबंदी, पानीबंदी, भोजनबंदी, इंटरनेटबंदी, लाइटबंदी कर किसान आंदोलन का दमन करने के कुत्सित प्रयास अंततः दुराव पैदा करने वाले ही साबित होंगे। स्व घोषित संस्कारी सत्ता का असली चेहरा दुनिया के सामने है। दीवारें अलगाव का भाव पैदा करती हैं। वैसे धर्म, सम्प्रदाय, जाति आदि की दीवारें मानव निर्मित ही तो हैं। आदमी को आदमी से जुदा करने का सुनियोजित छल। स्वतंत्र भारत की सत्ता का इतना डरजीवी होने का दुनिया के सामने इज़हार करना ठीक नहीं होता!! 13 तरह के लेयर की घेराबंदी करना सामाजिक एकता को तीन तेरह करने जैसा ही है। सामाजिक समरसता में जहर घोलने जैसा क़दम है। इतिहास इसका गवाह है। इस घेराबंदी से दिल नहीं जीते जा सकते। हाँ, लोगों के दिलों में दरारें जरूर डाली जा सकती हैं। प्रेम और संवाद से ही दिल जीते जाते हैं।

दो विपरीत धुर्वी सोच की मिसाल सत्ता और किसान वर्ग ने पेश की है। सत्ता राह में कांटे बो रही है। उससे उलट यह देखकर अच्छा लगा कि गांधी जी के इस देश में किसान उसी राह पर फूल सजा रहे हैं क्योंकि वे कबीर की इस सीख में विश्वास करते हैं -

जो तोकु कांटा बोवे, ताहि बोय तू फूल।
तोकू फूल के फूल हैं, बाकू है त्रिशूल।।

अर्थात जो व्यक्ति आपके लिए कांटे बोता है, आप उसके लिए फूल बोइये, आपके आस-पास फूल ही फूल खिलेंगे जबकि वह व्यक्ति काँटों में घिर जाएगा।

सत्ता अपना चरित्र जीवन नष्ट करने के कांटों की बुवाई करके कर रही है। किसान जन जीवन के संरक्षण के लिए अन्न और फूलों की बुवाई कर सृजन कर रहे हैं। एक तरफ़ विध्वंस का नज़ारा है तो दूसरी तरफ सृजन का। विध्वंस तो कोई भी कर सकता है। सृजन करना बड़ी बात होती है। सृजन करना हर किसी के बूते की बात नहीं होती। हाँ, एक बात कहना तो भूल ही गया। नफ़रतजीवी, हरामजीवी, दंगाजीवी, षडयंत्रजीवी, विनाशजीवी, जुमलाजीवी, भाषणजी, नौटंकीजीवी, आत्मस्तुतिजीवी, प्रचारजीवी, बहुरूपजजीवी, गोदीजीवी, कॉरपोरेटजीवी, स्वार्थजीवी, अंधभक्तजीवी, भीखजीवी, खाऊजीवी, सेल्सजीवी बनना आसान। बड़ा मुश्किल है चिन्तनजीवी, चेतनाजीवी, संवेदनजीवी, शालीनताजीवी, वचनजीवी, परहितजीवी, आत्मसम्मानजीवी, सृजनजीवी, तर्कजीवी, कमाऊजीवी बनना।

आन्दोलनजीवी बनाम खुदगर्जजीवी

जिसका ज़मीर जिंदा है, जो संवेदनशील है, जो प्रीत करना जानता है, जिसका दिल किसी के साथ और कहीं पर भी हो रहे अन्याय व ज़ुल्म से आंदोलित हो उठता है, ऐसे आन्दोलनजीवियों पर देश को गर्व होना चाहिए। हम शुक्रगुजार हैं ऐसे आन्दोलनजीवियों के प्रति जिनकी बुलंद आवाज़ और जिनके मार्गदर्शन की बदौलत दमितों और पीड़ितों ने अपने हक़ की लड़ाई लड़ी है और जीती हैं। खुदगर्जजीवी और डफ़लीजीवी ऐसे कहां कर पाते हैं? ज़मीर जिनका बिक चुका, ज़मीर जिनका मर चुका, उनसे किसी को क्या उम्मीद हो सकती है।

आन्दोलनजीवी ही किसी आंदोलन को दिशा व दृष्टि देते हैं। अमेरिका के प्रसिद्ध आन्दोलनजीवी (ऐक्टिविस्ट) एवं अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकारों के संघर्ष के प्रमुख नेता मार्टिन लूथर किंग जूनियर, जिन्हें अमेरिका का गांधी भी कहा जाता है, उनका एक प्रसिद्ध उद्धरण है--

'किसी भी जगह हो रहा अन्याय हर स्थान पर न्याय के लिए खतरा है।' "Injustice anywhere is a threat to justice everywhere." ( Martin Luther King Jr )

इस उद्धरण का मर्म सिर्फ़ आन्दोलनजीवी ( एक्टिविस्ट ) ही समझ सकते हैं। चुपजीवी व तटस्थजीवी ( पेसिविस्ट ) होठों को सीलकर सिर्फ ताली-थाली-टाली ही बजा सकते हैं।

राजनैतिक विरोधियों, सत्ता से सवाल करने वालों और सत्ता की नीयत में खोट उजागर करने वालों पर जब देशद्रोह का ठप्पा लगा दिया जाए, तब हमें याद आती है विश्व की सर्वाधिक चर्चित कवितामय उक्ति जो हिटलर की तानाशाही के दौर में जर्मन धर्मशास्त्री Martin Niemöller (मार्टिन निमोलर) ने कही थी। पंक्तियाँ ये हैं--

पहले वे समाजवादियों/कम्युनिस्टों के लिए आए

और मैं कुछ नहीं बोला

क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था

फिर वे आए ट्रेड यूनियन वालों के लिए

और मैं कुछ नहीं बोला

क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था

फिर वे यहूदियों के लिए आए

और मैं कुछ नहीं बोला

क्योंकि मैं यहूदी नहीं था

फिर वे मेरे लिए आए

और तब तक कोई नहीं बचा था

जो मेरे लिए बोलता

First they came for the socialists, and I did not speak out—because I was not a socialist.

Then they came for the trade unionists, and I did not speak out— because I was not a trade unionist.

Then they came for the Jews, and I did not speak out—because I was not a Jew.

Then they came for me—and there was no one left to speak for me.

यह कहना सरासर गलत है कि किसी इलाके विशेष और किसी वर्ग विशेष के आंदोलन में उसी इलाके और उसी वर्ग के आंदोलनकारी/ आन्दोलनजीवी होने चाहिएं। वर्तमान संदर्भ में बात करें तो किसानों के आंदोलन में किसान वर्ग के अलावा दूसरे तबक़े के जिंदादिल लोग क्यों नहीं होने चाहिएं। किसानों आंदोलनों के इतिहास पढ़ लीजिए। उनमें जागृति का शंखनाद और उनके आंदोलनों की अगुवाई बाहरी और जिंदा ज़मीर वाले उस इलाक़े के बाहर के लोग थे। वे डरे नहीं, झुके नहीं। बिना आन्दोलनजीवियों के कोई आंदोलन मुकाम हासिल नहीं कर सकता। आंदोलनकारियों को आन्दोलनजीवियों से दूर रहने की सलाह वैसी ही है जैसे कोई यह सलाह दे कि पांव में चुभे कांटे को हाथ की पहुंच से दूर रखें और इस स्थानीय मामले में बाहरी कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। क्यों नहीं होना चाहिए? हक़ीक़त है कि 'स्थानीय' पांव पर बिना 'बाहरी' हाथ के हस्तक्षेप के कांटा निकाला जाना संभव नहीं होता। सारे शरीर का भार ढोने वाले पांव की हिफ़ाज़त के लिए क्या हाथों का इतना फ़र्ज़ नहीं बनता कि पांव में चुभे या किसी की कारस्तानी से चुभाए गए कांटे को निकालने व पांव को सहलाने में तत्परता दिखाए?

दुनिया का इतिहास साक्षी है

दुनिया का इतिहास साक्षी है कि जिंदा ज़मीर के आन्दोलनजीवियों के जुटने से कोई आंदोलन जन-आंदोलन की शक्ल अख्तियार करता है। राजस्थान में स्वतंत्रतापूर्व के बिजोलिया किसान आंदोलन व शेखावाटी किसान आंदोलन या कोई अन्य आंदोलन --उनका इतिहास पढ़ लीजिए। इन सब आंदोलनों में बाहर के जिंदादिल, ज़मीरजीवी आन्दोलनजीवियों का जब स्थानीय लोगों से संपर्क हुआ तो जन जागृति फैली और उनके मार्गदर्शन की बदौलत ही ये आंदोलन जन-आंदोलन बने और सफल सिद्ध हुए। अन्याय को देखकर आंदोलित वे ही होते हैं जिनका ज़मीर जिंदा होता है और जिनमें खुदगर्जी की आरामगाह को त्यागने का जज़्बा होता है। ज़ुनूनी होते हैं ऐसे लोग। मानवजाति के धरोहर रहे हैं ऐसे लोग।

बिजोलिया किसान आंदोलन में उत्तरप्रदेश से आए विजयसिंह पथिक का अतुलनीय योगदान रहा है। शेखावाटी किसान आंदोलन को परवान चढ़ाने में तत्कालीन भरतपुर राज्य के ठाकुर देशराज, मास्टर रतनसिंह, संयुक्त पंजाब के मिनिस्टर चौधरी छोटूराम, अजमेर के रामनारायण चौधरी और शेखावाटी के पं. ताड़केश्वर शर्मा, पं खेमराज आदि का अतुलनीय योगदान रहा है।

जागते रहो सोने वालो। गोरख पाण्डेय की दो सुसंगत कविताएं पढ़ लीजिए।

1. तटस्थ के प्रति

चैन की बाँसुरी बजाइये आप
शहर जलता है और गाइये आप
हैं तटस्थ या कि आप नीरो हैं
असली सूरत ज़रा दिखाइये आप

2. उनका डर

वे डरते हैं
किस चीज़ से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद ?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और ग़रीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे ।

सुना है कि आज #promiseday है। आओ आज वादा करें कि अन्याय और अन्यायी का चुप रहकर साथ नहीं देंगे। सत्ता से सवाल करते रहेंगे। डरेंगे नहीं, सत्ता के झूठ का पर्दाफ़ाश करते रहेंगे। रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियां याद रखिए -

'समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध 
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।'

Prof. H. R. Isran, Retired Principal, College Education, Raj.

February 11, 2021

संदर्भ