Akhir Jit Hamari/भाग 1 - अद्‍भुत यात्री

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आखिर जीत हमारी
(वीर रस का एक ऐतिहासिक उपन्यास)
लेखक
रामजीदास पुरी
(उर्फ सय्याह सुनामी)
Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल

भाग 1 - अद्‍भुत यात्री

पुजारी चौंक कर उठ बैठा । उसका हृदय जोर-जोर से धड़क रहा था । किसी अज्ञात भय की आशंका से वह काँप उठा ।

"हे ईश्वर ।"


संयम रखते हुए भी भय से एक चीख उसके मुंह से निकल ही गई जिसे सुनकर पास की चारपाइयों पर पड़े तीनों यात्री चौंककर उठ बैठे ।

"क्या बात है, पुजारी महाराज?"

पुजारी बोला, "सम्भवतः मैं कोई भयानक स्वप्न देखकर उठ बैठा हूँ । क्या आप लोगों को कोई कोलाहल सुनाई देता है ?"

"कोलाहल ? कैसा ?"

"जैसे कहीं बहुत दूर से लोग आर्तनाद कर रहे हों ।"


उस अँधेरी कोठरी में एकदम सन्नाटा छा गया और सब लोग कहीं दूर से आने वाले शब्द को सुनने का प्रयत्‍न करने लगे जो न जाने बाहर आंगन में, मैदान में, अथवा वन में कहीं था ।

"मुझे तो किसी प्रकार का शब्द सुनाई नहीं देता," उनमें से एक ने कहा, "सिवाय आंगन में खड़े पीपल के वृक्ष की पत्तियों की सनसनाहट के ।"


"ओह ! यह कोलाहल, तुम्हें क्या सुनाई नहीं दे रहा ?"

"हां ! हां ! अब तो कुछ सुनाई पड़ रहा है ।"

"ओह मेरे राम ! इस आर्तनाद का क्या अर्थ ?"


पुजारी ने उठकर अग्निकुंड में दबी आग को प्रज्वलित करने के लिए सूखे हुए फूँस की मुट्ठी डाली और कोठरी में पड़े दीपक को जलाया । इतने में तीनों यात्रियों ने खूंटियों पर लटकाये अपने शस्त्र उतार लिए । पुजारी ने एक को कोठरी का द्वार खोलते देखकर कहा, "कहां जा रहे हो ? न जाने बाहर कौन सी विपत्ति सहसा टपक पड़े ।"


वही यात्री बोला "सोते हुए मर जाने की अपेक्षा लड़कर जान देना हजार गुणा अच्छा है । हम वास्तविकता को जानना चाहते हैं । जिस काम का बीड़ा हमने उठाया है उसमें तो चौबीस घण्टे विपत्ति की आशंका लगी रहती है, जाने कब सिर धड़ की बाजी लगानी पड़े । यद्यपि हमें प्राणों के प्रति कोई ममत्व नहीं परन्तु फिर भी हम जीवित रहना चाहते हैं ।"


शिव मन्दिर का अंधकार में डूबा आंगन काले पानी की ऐसी झील समान दिखाई देता था, जिसमें कोई तरंग न उठ रही हो । पश्चिम दिशा में खड़े पीपल के वृक्ष के उस पार क्षितिज पर हल्की-हल्की लाली दिखाई दे रही थी ठीक ऐसे जैसे टहनियों की ओट में मंगल ग्रह चमक रहा हो ।

पुजारी और वे यात्री एक क्षण तक द्वार के बाहर चुपचाप खड़े रहे । हवा का एक तेज झोंका पीपल की पत्तियों को झंझोड़ता हुआ निकल गया । इतने में दूर गहन अन्धकार की भित्ति को फाड़ता हुआ चीत्कार और रुदन का शब्द वायुमण्डल को कँपाता हुआ सुनाई दिया जिस से पुजारी की नींद टूटी थी ।

"हे मेरे भगवान ! पुजारी भय से सिहर कर बोला, इस शोर में कितनी व्यथा और विवशता का आभास होता है । इसे सुनकर नाड़ियों का रक्त जमता सा अनुभव हो रहा है मानो घोर नर्क में पड़ी आत्माएँ कष्ट से रुदन कर रहीं हों ?"


"सामने छत पर चढ़ने की सीढ़ी किधर है ?"


"इस ओर," गहन अन्धकार में पुजारी ने अपना हाथ एक ओर हिला दिया और फिर स्वयं तीनों यात्रियों का मार्गदर्शन कराता हुआ कोठरी की उत्तरी पंक्ति की छत पर चढ़ने वाली सीढ़ियों की ओर चल दिया । वे सब बड़ी सावधानी से तेज कदम बढ़ाते हुए आंगन को पार कर सीढ़ियों से छत पर चढ़ गए ।

सामने दो मील दूर आम और कीकर के वृक्षों के झुंड और रेत के टीलों के बीच एक गांव जल रहा था । ऊँची-ऊँची अग्निशिखायें और धुएं के बादल जलती हुई झोंपड़ियों से उठकर चारों ओर फैल रहे थे । वह शोर उन लोगों का था जो उस आग से घिरे हुए थे, अथवा उसे बुझाने का प्रयत्‍न कर रहे थे ।

पुजारी बड़बड़ाया, "अरे ! यह तो हरिपुर जल रहा है इस शान्त वातावरण में जहां कोई आंधी या झक्कड़ दिखाई नहीं देता । यह आग कैसे लगी ?"


यात्रियों में से एक बोला, "आजकल एक ही तो उल्का है जो हँसती खेलती बस्तियों, झूमती हुई खेतियों को जलाकर राख कर देती है । वह है निरीह जनता पर बर्बर हूणों का अमानुषिक अत्याचार ।"


आग की लपटों की चमक और धुएं के बादलों में घिरी कितनी ही परछाइयां नाचती दिखाई देतीं । सारे वायुमंडल में रुदन और चीत्कार के शब्द गूँज रहे थे ।


पुजारी बोला, "समझ में नहीं आता हरिपुर वालों ने इन हूणों का ऐसा क्या अपराध किया है जिसके दण्डस्वरूप इन्होंने इनके घर-बार जला दिये हैं । अपराध ! इसमें इन ग्रामीणों का क्या अपराध ? हूण सैनिकों की टुकड़ियां इधर-उधर लूट मचाती फिरती हैं और भोली जनता तथा अबलाओं का अपमान करती फिरती हैं । वे प्रत्येक ग्राम में अपने भोजन के लिए बछड़े और आनंद के लिए स्त्रियां मांगते हैं । यदि गांव वालों ने विनाश और मृत्यु के डर से उनकी कामना पूरी कर दी तब तो ठीक, अन्यथा वे जबरदस्ती उनकी स्त्रियों और सम्पत्ति का अपहरण करते हैं, उनके घरों को आग लगाकर भस्म कर देते हैं और जो जान बचाकर भागने का प्रयत्‍न करता है उसे अपने पैने तीरों की मार से यमलोक में पहुंचा देते हैं ।"


पुजारी ने एक ठंडी सांस ली ।

यात्रियों में से एक अपने साथी से बोला, "परन्तु धूमकेतु, हमें इस अत्याचार के विरुद्ध कुछ न कुछ अवश्य करना चाहिए ।"


"हम निःसन्देह कुछ न कुछ करेंगे । बहुत कुछ करेंगे । परन्तु इसके लिए हमें समय की प्रतीक्षा करनी होगी ।"


"परन्तु मेरा तात्पर्य इस समय कुछ न कुछ करने से है ।"

"पागल हो गए हो क्या महाबाहु !"


"जो तुम्हारे मन में आए कह लो, परन्तु मैं यह कभी सहन नहीं कर सकता कि विदेशी लुटेरों की एक टुकड़ी हमारे गांवों को रोंदती फिरे और हम खड़े देखते रहें ।"


"ठीक है मेरे भाई, देश और जाति के लिए इतनी उग्र तड़प स्तुत्य है; परन्तु किसी बड़ी शक्ति से टक्कर लेने के लिए हमें अपने आपको शक्तिशाली बनाना होगा, हमारे हृदयों में भी वही चिंगारी सुलग रही है परन्तु हमें समय की प्रतीक्षा करनी होगी । अवसर आने से पूर्व पग उठाना बुद्धिमत्ता नहीं ।"


महाबाहु ने खून का घूंट पीकर आवेश में कहा, "कृपा करके मुझे नीचे ले चलो अन्यथा मैं क्रोध के वशीभूत होकर छत से कूद पड़ूंगा और इन बर्बर हूणों पर टूट पड़ूंगा, चाहे उन्हीं के हाथों मारा जाकर इसी आग में ही क्यों न जल जाऊँ ।"


इससे क्या लाभ होगा ? जहां सौ ग्रामवासी मारे गए हैं वहां तुम एक ही गिनती बढ़ाओगे । तनिक समय और धैर्य से काम लो महाबाहु ! बहुत शीघ्र ही इन अत्याचारियों से गिन-गिनकर बदले लेंगे । चलो नीचे चलें ।"


परन्तु महाबाहु की उत्तेजना समाप्‍त नहीं हो रही थी । जब वह अपने साथियों के साथ सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था उस समय उसकी मुट्ठियां कसी हुईं थीं, उसकी आकृति में कठोरता दिखाई देती थी और आवेश से अपने दांत भींच रहा था ।

पुजारी भारी मन से चल रहा था । उसके पैरों की आवाज सुनकर वृक्षों की टहनियों पर बसेरा करने वाले पक्षी ने पंख फड़फड़ाए । अज्ञात भय की आशंका से उसके रोंगटे खड़े हो गए । तभी किसी ने द्वार खटखटकाया । पुजारी की टांगें कांपने लगीं । वह चलते-चलते रुक गया । धूमकेतु ने महाबाहु से कहा, "लीजिये, आप हूणों पर आक्रमण करने जाना चाहते थे न ? वह स्वयं ही आ पहुंचे हैं ।"


पुजारी बड़बड़ाया, "अथवा हमारा काल हूणों के रूप में आ पहुंचा है ।"


महाबाहु के ऊपर इन शब्दों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, वह ओजस्वी वाणी में बोला, "मृत्यु अथवा हूण कोई भी आए हम अपनी खड्गों से उसका स्वागत करेंगे ।"


द्वार पर थपथपाहट फिर सुनाई दी ।


तीसरा यात्री बोला, "सम्भवतया वह हूण न होकर उनके अत्याचार से बचकर आया कोई हिन्दू हो और यहां आश्रम की खोज में चला आया हो ?"


"क्या द्वार खोल दूँ ?" महाबाहु ने पूछा ।

एक क्षण सोचकर धूमकेतु ने उत्तर दिया - "हां, खोल दो ।"


"अरे बाबा" पुजारी रोकता हुआ बोला, "मैं ऐसे दुखियों को आश्रय देने में असमर्थ हूँ जिनके आगमन से मेरा और मन्दिर का अनिष्ट हो ।"


परन्तु महाबाहु पुजारी की बात पर ध्यान न देता हुआ मन्दिर के बड़े फाटक को खोलकर चल पड़ा । धूमकेतु पुजारी महाराज को ढांढस देता हुआ बोला, "महाराज, आज रात को कोई संकट हमारे शरीरों पर से गुजरकर ही आप तक पहुंच सकता है और हमारे जीते-जी कोई आपकी ओर आंख उठाकर भी नहीं देख सकता ।"


"संकट चाहे तुम्हारे शवों पर होकर आए अथवा हड्डियों पर से, वह आएगा अवश्यमेव ।" भय से घबराया हुआ पुजारी अपना धैर्य और साहस खोकर बोला ।

मन्दिर के फाटक पर पहुंचकर महाबाहु ने अपनी खड्ग म्यान से बाहर निकाल ली और किवाड़ खोल दिए ।


"कौन है ?"

"दो यात्री हैं महाराज, यहां आश्रय की खोज में आए हैं ।"

"इतनी रात गए ?"


"हां महाराज, पिछले गांव में ठहरने को कोई उचित स्थान नहीं मिला और अगले गांव की दूरी ज्ञात नहीं थी और फिर दुर्भाग्य से हम रास्ता भूल गए, जिससे इतना विलम्ब हुआ और अब देखा तो गांव जल रहा था ।"


"अन्दर आ जाओ ।"


महाबाहु ने दोनों को अन्दर बुलाकर फाटक बन्द कर दिया और उन्हें साथ लेकर पुजारी की कोठरी की ओर चल पड़ा जिसका द्वार जलते हुए दीपक के प्रकाश में ऐसी सफेद चादर के समान दिखाई देता था जिस पर अभी कोई धब्बा न लगा हो ।

प्रकाश की लम्बी रेखाएं जो पुजारी की कोठरी से निकलकर आंगन में फैल रहीं थीं उनकी रोशनी में उन यात्रियों ने अजातबाहु शक्तिशाली रौद्र आकृति वाले महाबाहु को देखा तो वे चिन्ता में पड़ गए और जब वैसी ही दो अन्य आकृतियों को पुजारी के कमरे में देखा तो उनका दिल ही बैठने लगा । वे सोचने लगे आश्रय का स्थान ढूंढते-ढूंढते वे किसी मुसीबत में तो नहीं फंस गए ?


महाबाहु के दोनों साथियों ने आने वाले आगन्तुकों की आकृति को ध्यानपूर्वक देखा । धूमकेतु बोला, "घबराओ मत भाइयो, हम शत्रु नहीं हैं, आप लोग निर्भय होकर यहां रह सकते हैं । परन्तु आप कौन हैं ?"


दोनों आगन्तुकों ने अपनी सामान की गठरियां चारपाइयों पर रख दीं और कहा, "हम ईरान के व्यापारी हैं और हीरे-जवाहरात का व्यापार करते हैं, यह हमारे पास इन हीरों के छोटे-छोटे नमूने हैं जिन्हें हम हीरों के बड़े-बड़े व्यापारियों को और राजदरबारों में दिखाते फिरते हैं । जहां जितनी मांग होती है उसे लिखकर अपने देश को भेज देते हैं । वहां से थोक माल हमारे काफिले वाले लाकर पहुंचा देते हैं और हम यहां उसकी कीमत वसूल कर लेते हैं । देवताओं की मूर्तियों के लिए ईरानी कलाकारों द्वारा बनाई हीरों की आँख सर्वोत्कृष्ट होती हैं ।"


धूमकेतु और महाबाहु का तीसरा साथी जिसकी पैनी दृष्टि अब तक ईरानियों पर गड़ी हुई थी, रहस्यमय ढ़ंग से बोला, "परन्तु खेद है कि तुम्हारे इन शिल्पियों ने अपने देश के देवताओं के लिए आँखें तैयार कीं थी । वह बहुत ही घटिया सिद्ध हुई क्योंकि तुम्हारे दूरदर्शी देवता न देख सके कि देश पर आक्रमण करने वाली हूण सेना कहां से आ रही है । लोगों के एक वर्ग का अधिक धनवान हो जाना तथा दूसरे वर्ग का सूखी रोटी के लिए तरसना किस क्रान्ति का श्रीगणेश कर रहा है ?"


दोनों ईरानी इस प्रकार चौंक उठे जैसे किसी ने उन पर सामने से वार किया हो । उनकी व्यापारिक दृष्टि सहसा चौकन्नी हो गई ।

पैनी दृष्टि से घूरते हुए भारतीय ने एक ईरानी से पूछा, "क्या आपका नाम शापूर है ?"


ईरानी ने स्वीकृति सूचक सिर हिलाया ।


"आप तीनों आज से छः वर्ष पूर्व तक्षशिला विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र का अध्ययन करते थे ।"


"हां ! निःसन्देह ।"

"और आपका नाम बहराम है ?"

"जी हां ।"


"क्या आप नीशापुर के अग्नि मन्दिर के प्रमुख पुजारी के लड़के नहीं हैं ? आप ही तो तक्षशिला में सांख्य पढ़ने आये थे । परन्तु एक अप्रत्याशित दुर्घटना के कारण जिसका वर्णन करना उचित नहीं, शिक्षा पूरी किए बिना ही ईरान गए थे ।"


विस्मय और घबराहट से उनके माथे पर पसीने की बूँदें उभर आईं । बहराम ने अपनी आवाज को संयत रखने के लिए हल्की सी खंकार लगाई और कहा, "जिन दिनों हम तक्षशिला में पढ़ते थे आप भी वहीं अध्ययन करते होंगे अन्यथा आप भला हमें कैसे पहचान सकते थे । परन्तु जब तक हमें ज्ञात है, उन दिनों ऐसी कोई विद्या नहीं पढ़ाई जाती थी जिसको सीखकर अपरिचित होते हुए भी वर्षों के देखे व्यक्ति को प्रथम दृष्टि में ही पहचान लिया जाय ।"


हिन्दू ने अपनी आंखें उसके चेहरे से हटाकर साधारण स्वर में कहा, "मेरे मित्र, तुमने मुझे पहचानने का प्रयत्‍न ही नहीं किया है । यदि तुम थोड़ा ध्यान देते तो अपने आपको हीरों के व्यापारी के छद्म रूप में प्रकट करने का प्रयत्‍न न करते । भला यह कैसे सम्भव हो सकता है कि ईरान के प्रमुख पुजारी बख्त आफ्रीद का पौत्र और मन्त्री जरमेहर का पुत्र इन दिनों में जबकि अत्याचारी हूणों ने ईरान के राज्य की नीवों तक को हिला दिया हो, मजदकियों के विद्रोह ने राज्य के शासन का पासा पलट दिया हो तथा रोम के ईसाइयों की खड्ग सिर पर लटक रही हो, अपने देश को आपत्ति के भंवर में छोड़कर एक साधारण हीरों का व्यापारी अपने आपको प्रदर्शित करता फिरे ?"


दोनों ईरानी एक बार फिर चौंक पड़े । शापूर कथन की सत्यता पर आश्चर्य प्रकट करता हुआ बोला, "मेरा अनुमान था कि हिन्दू की आंखें केवल बाह्य आकृति का अध्ययन करके ही रह जायेंगी परन्तु यह तो हृदय के आन्तरिक भावों को पढ़ने में भी प्रवीण हैं । अहरमुजद की सौगन्ध ! हिन्दुस्तान से बाहर इतनी पैनी दृष्टि अन्यत्र दुर्लभ है ।"


चापलूसी मिश्रित प्रशंसा के बाद भी जब भारतीय आकृति से किसी प्रकार का भाव न प्रकट हुआ हो, थोड़ा चुप रहकर पुनः बोला, "राजनीति का कोई बहुमूल्य हीरा अथवा नीलम लेने को हम तैयार हैं बशर्ते कि हम उसका मूल्य चुकाने में समर्थ हों अन्यथा हम किसी ऐसे नीतिज्ञ अथवा राज्य का पता तुम्हें बतायेंगे जो उचित मूल्य पर तुम से वह पदार्थ खरीद सके । हिन्दुस्तान तथा ईरान की स्थिति समान है क्योंकि बर्बर हूणों के अत्याचार से दोनों को आपस में एक दूसरे पर विश्वास करना चाहिए । अपने रहस्य एक दूसरे के पास सुरक्षित समझने चाहिएं ।"


महाबाहु अपने तीसरे साथी की ओर आश्चर्य भरी दृष्टि से देख रहा था । शापूर ने बहराम की ओर देखा, वह उत्तर में कुछ ही कहने वाला था कि पुजारी ने छाती तक कम्बल खींचा और दूसरी तरफ करवट बदलते हुए कहा, "जब तुम लोग वार्तालाप बन्द करो, दीपक बुझा देना क्योंकि तेल व्यर्थ जल रहा है और जाने से पूर्व मुझे जगा देना क्योंकि तुम लोगों ने कहा था कि तुम दिन निकलने से पूर्व ही चले जाओगे ।"


हिन्दू ने पुजारी की बात की ओर ध्यान न देते हुए ईरानियों से पूछा, "मेरा अनुमान सत्य है न ?"


"हाँ"

"आप हम पर विश्वास करते हैं न ? यद्यपि हमारा आप से कोई परिचय नहीं, फिर भी आप हमें शुभ-चिन्तक दिखाई देते हैं ।"


"क्या मैं इसका एक अभिप्राय समझूँ कि आपको हमारे पथ-प्रदर्शन की आवश्यकता है ?"

"हां, मैं समझता हूं कि एक दूसरे की सहायता के बिना हम सफल नहीं हो सकेंगे ।"


"बहुत अच्छा, आप यह बताएं कि रात की दौड़-धूप और दिन के आराम को, हमारी भांति आप भी महत्वपूर्ण समझते हैं अथवा नहीं ?"


"पहले तो नहीं, परन्तु अवश्य इसको स्वीकार करते हैं, वास्तव में शत्रुओं के साथ संघर्ष करते हुए बहुत सी बातों की शिक्षा हमने प्राप्‍त की है ।"


"महाराज !" हिन्दू ने पुजारी को आवाज दी और पुजारी जिसकी पलकें नींद से भारी हो रहीं थीं, चौंककर बोला, "क्यों, क्या हुआ ?"


"हम सब जा रहे हैं ।"

"अरे भाई, अभी तो डेढ़ पहर रात अवशेष है । इतने सवेरे भी क्या कोई प्रस्थान किया करता है ?"


"हां महाराज ! महत्वपूर्ण कार्यों के लिए समय नहीं देखा जाता । यह लीजिए पांच रजत मुद्राएं, हमारी ओर से भगवान शंकर की मूर्ति को भेंट चढ़ा दीजिएगा । यदि प्रभात वेला तक हमारे ठहरने का कार्यक्रम होता तो हम अवश्यमेव आरती में सम्मिलित होते ।"


चांदी की मुद्राओं को देखकर पुजारी की तन्द्रित आंखों में चमक पैदा हो गई, वह बड़े सहानुभूतिपूर्ण वचन बोला, "यदि आप लोग आध घड़ी ठहर सकते तो मैं आपके भोजन का प्रबन्ध कर देता ।"


धूमकेतु बोला, "नहीं महाराज, इसकी कोई आवश्यकता नहीं और फिर मार्ग के लिए तो खाद्य सामग्री हमारे पास है, जब भूख लगेगी खा लेंगे । आपने हमारे लिए जो कष्ट किया है उसके लिए धन्यवाद ।"


"शिव ! शिव ! इसमें धन्यवाद की कौन सी बात है, पुजारी जो यात्रियों को मंदिर के द्वार तक पहुँचाने आया था, फाटक खोलता हुआ बोला, "प्राणी मात्र की सेवा करना तो प्रत्येक का कर्त्तव्य है ।"


यात्रियों ने एक क्षण तक द्वार पर खड़े होकर बाहर दूर तक दृष्टि दौड़ाई । फिर पुजारी को अभिवादन कर वे अपने मार्ग पर चल पड़े । पुजारी खड़ा-खड़ा अंधकार में अदृश्य होते हुए यात्रियों को देखता रहा, जिनके पृष्ठ भागों पर धूँ धूँ कर जलते हुए हरिपुर की अग्निशिखाओं का प्रकाश पड़ रहा था ।


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