Bateshwar Agra

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

For similar name see Bateshwar


Agra district map

Bateshwar (बटेश्वर) is a village in Bah tahsil of Agra District, on the banks of the river Yamuna, in Uttar Pradesh, India.

Variants

Location

Bateshwar is in between Agra and Etawah and is 5 km from Bah. It is an important spiritual and cultural centre for Hindus and Jains. It is known for the 101 Shiv Temple Complex. An annual religious and animal fair is also organised in the village ground area.

Origin of name

The name Bateshwar is derived from the main Bateshwarnath Temple dedicated to Lord Shiva (Bateshwarnath Mahadev). As per legends, here under a marvelous Banyan tree, called Vata (वट) in Sanskrit, lord Shiva took rest for some time under that tree which is still standing at that place, the place hence came to be known as Bateshwar.

Jat clans

History

Since ages Bateshwar remained a renowned religious centre both for Hindu and Jain communities. In the epic Mahabharata, Bateshwar is supposed to be referred as Shouripur, a city of king Surasena. It is known for 101 Shiv Temples built by Raja Badan Singh Bhadauria on a dam on the banks of Yamuna. Shaouripur, near Bateshwar, which is the birthplace of the 22nd Tirthankar of Jain faith, Lord Neminath. Each year the region hosts a cattle fair in October and November. The commercial livestock event is also of significance to Hindus, who make pilgrimage to the river Yamuna in honor of Shiva.

Bateshwar has long been celebrated for its annual fair, believed to have been a fixture since time immemorial given the significance of Shoripur/Bateshwar in Hindu texts. Although the origins of this ancient fair are religious, and of immense importance in the Hindu religious calendar, the fair is also of great commercial value, and is renowned as the 2nd largest animal fair in the country (Sonepur in Bihar being the largest).

In Jat History

  • Bat (बट) is a Jat clan found in Punjab[1]. Bat (बट) Jat clan is found in Multan, Pakistan. Bat is also a sept of Kashmiri Pandit, converted to Islam and found in the north-west submontane Districts of the Punjab. [2]. Bat is mentioned in Rajatarangini[3]. As per traditions in Rajatarangini, a king of Bat clan establishes a temple of God after his memory it used be called Bateshwar. It is a matter of research if any Bat clan king had been a ruler of this area.
  • Batesar: Batesar (बटेसर) gotra Jats are found in Rajasthan, Madhya Pradesh and Uttar Pradesh. (See - Batesar). It is a matter of research if at all they have any relation with Bateshwar.
  • Shoor people were the rulers of Bateshwar (बटेश्वर). They were so powerful that the entire country was named Shaursain (शौरसैन) after them. Shaursaini (शौरसैनी) people were at Bharatpur, whose one branch was known as Sewar/Sevar (सेवर). [4]

वटेश्वर = बटेसर, जिला आगरा

विजयेन्द्र कुमार माथुर[5] ने लेख किया है .....बटेश्वर आगरा (AS, p.829-830), उत्तर प्रदेश से 44 मील और शिकोहाबाद से 13 मील दूर यह प्राचीन क़स्बा यमुनातट पर बसा हुआ है। यह ब्रजमण्डल की चौरासी कोस की यात्रा के अंतर्गत आता है। इसका पुराना नाम शौरिपुर है। किंवदन्ती के अनुसार यहाँ पर भगवान श्री कृष्ण के पितामह राजा शूरसेन की राजधानी थी। (शौरि कृष्ण का भी नाम है)। जरासंध ने जब मथुरा पर आक्रमण किया तो यह स्थान भी नष्ट-भ्रष्ट हो गया था। बटेश्वर-महात्म्य के अनुसार महाभारत युद्ध के समय बलभद्र विरक्त होकर इस स्थान पर तीर्थ यात्रा के लिए आए थे। यह भी लोकश्रुति है कि कंस का मृत शरीर बहते हुए बटेश्वर में आकर कंस किनारा नामक स्थान पर ठहर गया था। बटेश्वर को ब्रजभाषा का मूल उदगम और केन्द्र माना जाता है। जैनों के 22वें तीर्थकर स्वामी नेमिनाथ का [p.830]: जन्म स्थल शौरिपुर ही माना जाता है। जैनमुनि गर्भकल्याणक तथा जन्म-कल्याणक का इसी स्थान पर निर्वाण हुआ था, ऐसी जैन परम्परा भी यहाँ प्रचलित है।

इतिहास: अकबर के समय में यहाँ भदौरिया राजपूत राज्य करते थे। कहा जाता है कि एक बार राजा बदनसिंह जो यहाँ के तत्कालीन शासक थे, अकबर से मिलने आए और उसे बटेश्वर आने का निमंत्रण देते समय भूल से यह कह गए कि आगरे से बटेश्वर पहुँचने में यमुना को नहीं पार करना पड़ता, जो वस्तु स्थिति के विपरीत था। घर लौटने पर उन्हें अपनी भूल मालूम हुई, क्योंकि आगरे से बिना यमुना पार किए बटेश्वर नहीं पहुँचा जा सकता था। राजा बदनसिंह बड़ी चिन्ता में पड़ गए और भय से कहीं सम्राट के सामने झुठा न बनना पड़े, उन्होंने यमुना की धारा को पूर्व से पश्चिम की ओर मुड़वा कर उसे बटेश्वर के दूसरी ओर कर दिया और इसलिए की नगर को यमुना की धारा से हानि न पहुँचे, एक मील लम्बे, अत्यन्त सुदृढ़ और पक्के घाटों का नदी तट पर निर्माण करवाया।

बटेश्वर के घाट इसी कारण प्रसिद्ध हैं कि उनकी लम्बी श्रेणी अविच्छिन्नरूप से दूर तक चली गई है। उनमें बनारस की भाँति बीच-बीच में रिक्त नहीं दिखलाई पड़ता। बटेश्वर के घाटों पर स्थित मन्दिरों की संख्या 101 है। यमुना की धारा को मोड़ देने के कारण 19 मील का चक्कर पड़ गया है। भदोरिया वंश के पतन के पश्चात् बटेश्वर में 17वीं शती में मराठों का आधिपत्य स्थापित हुआ। इस काल में संस्कृत विद्या का यहाँ पर अधिक प्रचलन था। जिसके कारण बटेश्वर को छोटी काशी भी कहा जाता है। पानीपत के तृतीय युद्ध (1761 ई.) के पश्चात्त वीरगति पाने वाले मराठों को नारूशंकर नामक सरदार ने इसी स्थान पर श्रद्धांजलि दी थी और उनकी स्मृति में एक विशाल मन्दिर भी बनवाया था, जो कि आज भी विद्यमान है।

शौरीपुर के सिद्धि क्षेत्र की खुदाई में अनेक वैष्णव और जैन मन्दिरों के ध्वंसावशेष तथा मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। यहाँ के वर्तमान शिव मन्दिर बड़े विशाल एवं भव्य हैं। एक मन्दिर में स्वर्णाभूषणों से अलंकृत पार्वती की 6 फुट ऊँची मूर्ति है, जिसकी गणना भारत की सुन्दरतम मूर्तियों में की जाती है।

बटेश्वर संस्कृत शिलालेख

इतिहासकार श्री पी.एन. ओक अपनी पुस्तक Tajmahal is a Hindu Temple Palace में 100 से भी अधिक प्रमाण एवं तर्क देकर दावा करते हैं कि ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजोमहालय है। यह तेजाजी के नाम से बनाया गया था । इसके अनुक्रमांक 30 पर बटेश्वर शिलालेख का उल्लेख है।

30. एक संस्कृत शिलालेख भी ताज के मूलतः शिव मंदिर होने का समर्थन करता है। इस शिलालेख में, जिसे कि बटेश्वर शिलालेख कहा जाता है (वर्तमान में यह शिलालेख लखनऊ अजायबघर के सबसे ऊपर मंजिल स्थित कक्ष में संरक्षित है) में संदर्भित है, “एक विशाल शुभ्र शिव मंदिर भगवान शिव को ऐसा मोहित किया कि उन्होंने वहाँ आने के बाद फिर कभी अपने मूल निवास स्थान कैलाश वापस न जाने का निश्चय कर लिया।” शाहज़हां के आदेशानुसार सन् 1155 के इस शिलालेख को ताजमहल के वाटिका से उखाड़ दिया गया| इस शिलालेख को ‘बटेश्वर शिलालेख’ नाम देकर इतिहासज्ञों और पुरातत्वविज्ञों ने बहुत बड़ी भूल की है क्योंकि कहीं भी कोई ऐसा अभिलेख नहीं है कि यह बटेश्वर में पाया गया था| वास्तविकता तो यह है कि इस शिलालेख का नाम ‘तेजोमहालय शिलालेख’ होना चाहिये क्योंकि यह ताज के वाटिका में जड़ा हुआ था और शाहज़हां के आदेश से इसे निकाल कर फेंक दिया गया था| शाहज़हां के कपट का एक सूत्र Archaeological Survey of India Reports (1874 में प्रकाशित) के पृष्ठ 216-217, खंड 4 में मिलता है जिसमें लिखा है, great square black balistic pillar which, with the base and capital of another pillar…. now in the grounds of Agra,…it is well known, once stood in the garden of Tajmahal”.

शूर: ठाकुर देशराज

ठाकुर देशराज[6] ने लिखा है ....शूर - इन्हें सौरसेनों के नाम से भी याद किया जाता है। महाभारत के बाद इनके भी दो दल हो गए थे। एक दल की राजधानी मथुरा थी। कुछ दिन बाद शौरसेनी (सिनसिनी) बना ली। इनमें से विजयदेव ने बयाना को अपनी राजधानी बनाया। इनका दूसरा समुदाय सोरों और बटेश्वर के बीच में आबाद था।

सूरसैन

ठाकुर देशराज[7] ने लिखा है कि -

खेमकरण सोगरिया शेर से लड़ते हुए

बटेश्वर के आसपास शूर लोगों का राज्य था। कुछ लोगों के मत से सिनसिनी के आसपास शूर लोग राज्य करते थे। एक समय उनका इतना प्रचंड प्रताप था कि सारे देश का नाम ही शौरसैन हो गया। समस्त यादव शौरसैनी कहलाने लगे। मध्यभारत की भाषा का नाम ही उनके नाम पर पड़ गया। आज वे संयुक्त प्रदेश और राजपूताने में सिहोरे (शूरे) सूकरे और सोगरवार कहे जाते हैं। शूरसैनी लोगों की एक शाख पहले सेवर (शिवर) भरतपुर के निकट आबाद थी। आसपास के अनेक गांवों पर उसका प्रभुत्व था। वंशावली रखने वाले भाटों ने सिनसिनवार और सौगरवारों को 10-12 पीढ़ी पर ही कर दिया है। यह गलत है। हां, वे दोनों ही यादव अथवा चन्द्रवंश संभूत हैं। सोगरवार लोगों में सुग्रीव नाम का एक बड़ा प्रसिद्ध योद्धा हुआ है। उसने वर्तमान सोगर को बसाया था। उस स्थान पर एक गढ़ बनाया थ, जो सुग्रीवगढ़ कहलाता था। सुग्रीव गढ़ ही आजकल सोगर कहलाता है जो क्रमशः सुग्रीव गढ़ से सुगढ़, सोगढ़ और सोगर हो गया है। यहां पर सुग्रीव का एक मठ है। सारे सोगरवार पहले उसके नाम पर फसल में से कुछ अन्न निकालते थे। अब भी ब्याह-शादियों में सुग्रीव के मठ पर एक रुपया अवश्य चढ़ाया जाता है। इसी वंश में खेमकरण नाम का एक प्रचंड वीर उत्पन्न हुआ था। वह महाराज सूरजमल से कुछ समय पहले उत्पन्न हुआ था। औरंगजेब की सेना के उसने रास्ते बन्द कर दिये थे। अपने मित्र रामकी चाहर के साथ मिलकर आगरा, धौलपुर और ग्वालियर तक उसने अपना आतंक जमा दिया था। मुगलों के सारे सरदार उसके भय से कांपते थे। कहा जाता है वर्तमान भरतपुर उसी के राज्य में शामिल था। दोपहर को धोंसा बजाकर भोजन करता था। आज्ञा थी कि धोंसे के बजने पर जो भी कोई भाई सहभोज में शामिल होना चाहे, हो जाये। वीर होने के सिवा खेमकरण दानी और उदार भी था। कहा जाता है कि उसके पास हथिनी बड़ी चतुर और स्वामिभक्त थी। यह प्रसिद्ध बात है कि अडींग के तत्कालीन खूटेल शासक ने उसे भोजन में विष दे दिया था। जिस समय खेमकरण भोजन पर बैठा था उसे मालूम हो गया था कि भोजन में विष है, किन्तु कांसे पर से उठना उसने पाप समझा। भोजन करते ही हथिनी पर सवार होकर अपने स्थान सुग्रीवगढ़ को चल दिया। कहा जाता है कि विष इतना तीक्षण था कि वह हथिनी पर ही टुकड़े-टुकड़े हो गया। उसके मरने पर उसकी हथिनी भी मर गई। वह बलवान इतना था कि कटार से ही एक साथ दो दिशाओं से छूटे शेरों को मार देता था। मुगल बादशाहों ने उसे फौजदार का खिताब दिया था। सोगर का ध्वंश गढ़ उसके अतीत की स्मृति दिलाता है। यह स्थान संयुक्त-प्रदेश की सीमा के निकट राजस्थान में है।

External links

References