Bhumi Adhigrahan Kanun ke Saath Khilwad

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लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

भूमि अधिग्रहण कानून के साथ खिलवाड़

किसान के लिए जमीन लाइफ लाइन रही है। पीढ़ियों के खून-पसीने से उसने खेत-खलिहान पर हक हासिल किया है। जानलेवा थपेड़े सहने के बावज़ूद किसान के स्वाभिमान को क़ायम रखने में उसकी जमीन ने अहम भूमिका निभाई है। किसान को उत्पादनकर्ता की बजाय चाकर-दास की श्रेणी में धकेलने की एक सुविचारित साजिश अब परवान पर है। कैसे? यह समझने के लिए इस आलेख को गौर से पढ़िए।

किसानों की जमीन हड़पने के प्रयास

कॉरपोरेट घरानों की गोदी सरकार अपने आकाओं अर्थात उद्योगपतियों का वरद हस्त प्राप्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ती है। भूमि अधिग्रहण कानून का सहारा लेकर किसानों की जमीन को कॉरपोरेट घरानों के लिए हड़पने में सरकार हर स्तर पर सक्रिय हो जाती है। धर्म-सम्प्रदाय- जाति-क्षेत्र के संकीर्ण दायरों से बाहर निकलकर अगर किसान वक्त रहते नहीं चेते तो निकट भविष्य में प्राइवेट सेक्टर को हर जगह पांव पसारने में सहूलियत देने के लिए सरकार भूमि अधिग्रहण का चाबुक चलाकर किसानों को जमीन से बेदखल कर देगी।

जमीन चाहे रेतीली हो या पहाड़ी या उपजाऊ-- उसके गर्भ में छुपे खनिजों व अन्य संसाधनों को लूटना कॉरपोरेट घरानों का असली मक़सद है। ये सब औद्योगिक विकास की सुरीली राग सुनाकर किया जा रहा है और इसकी गति अब त्वरित हो चली है। भूमि अधिग्रहण के जुड़े ज्वलंत मुद्दों की समुचित समझ के लिए ये बातें जाननी जरूरी हैं:

  1. भूमि अधिग्रहण क्या है?
  2. भूमि अधिग्रहण कानून 2013 
  3. वर्तमान सरकार द्वारा दिसम्बर 2014, मई 2015 में लागू किए गए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश व संसद में पेश संशोधन बिल।
  4. भूमि अधिग्रहण कानून और उसमें वर्तमान सरकार द्वारा पेश संशोधन बिल का तुलनात्मक अध्ययन
  5. सुप्रीम कोर्ट के 6 मार्च 2020 के फैसले की बारीकियां एवं उसके दूरगामी परिणाम।

आपस में जुड़े उक्त पांच मुद्दों को सिलसिलेवार समझ लीजिए।

भूमि अधिग्रहण क्या है?

भूमि अधिग्रहण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति की निजी भूमि का अनिवार्य रूप से अधिग्रहण कर लिया जाता है। यह भूमि खरीदने की प्रक्रिया से अलग होता है, जिसमें इच्छुक विक्रेता और इच्छुक खरीदार आपसी रूप से स्वीकार्य शर्तों पर अनुबंध करते हैं। 

अधिग्रहण में भूमि मालिक के पास भूमि छोड़ने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं होता, और उसे जबरन अपनी भूमि छोड़नी पड़ती है। इसलिए, अधिग्रहण की प्रक्रिया निजी भूमि के मालिक के संपत्ति अधिकार रद्द कर देती है। ऐसा तभी न्यायसंगत होता है जब किसी व्यक्ति के भू-स्वामित्व अधिकारों को रद्द करने से जनता को बहुत बड़ा फायदा होता हो। 

भारत में, भूमि अधिग्रहण समवर्ती ( concurrent कन्करन्ट) विषय है, जिसके ऊपर केंद्र व राज्य का नियंत्रण होता है। भूमि अधिग्रहण का निर्धारण मुख्य रूप से भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवजा पाने का अधिकार और पारदर्शिता अधिनियम 2013 (2013 एक्ट) को ध्यान में रख कर किया जाता रहा है।  

राज्य भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 (संक्षेप में भूमि अधिग्रहण कानून, 2013) को मोदी सरकार ने सत्ता संभालते ही कमजोर करना शुरू कर दिया। 2013 के कानून में इस सरकार ने कॉरपोरेट्स के हित में कई संशोधन कर डाले हैं।

भूमि अधिग्रहण 2013 एक्ट में अंधाधुंध भूमि अधिग्रहण पर लगाम कसने के लिए 'सार्वजनिक उद्देश्य' की परिभाषा को सीमित किया गया था अर्थात उन परियोजनाओं का दायरा सीमित किया गया जिनके लिए भूमि अधिग्रहण किया जा सकता है।  इसके तहत सार्वजनिक- निजी- भागीदारी(PPP) या किसी निजी कंपनी की परियोजना के लिए भूमि मालिकों की सहमति की ज़रुरत थी।  मुआवज़ा बाज़ार की मौजूदा दरों का दो से चार गुणा तय किया गया था और प्रभावित व्यक्तियों के पुनर्वास और पुनर्स्थापन के लिए न्यूनतम मानदंड तय किए गए थे। एक्ट में परियोजना के संभावित फ़ायदों और सामाजिक लागतों के बीच तुलना करने के लिए सामाजिक प्रभाव आकलन ( सोशल इम्पैक्ट असेसमेंट SIA) करवाना जरूरी किया गया।

दिसंबर 2014 में वर्तमान सरकार ने 2013 एक्ट में संशोधन करते हुए एक अध्यादेश (ऑर्डिनेंन्स) लागू किया। अध्यादेश को संशोधित रूप में अप्रैल 2015 में और दोबारा मई 2015 में लागू किया गया। अप्रैल अध्यादेश के स्थान पर भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवजा पाने का अधिकार और पारदर्शिता (द्वितीय संशोधन) बिल, 2015 को लोक सभा में पेश कर भारी विरोध के बावज़ूद पास भी करवा लिया गया था। परन्तु राज्यसभा में भारी विरोध के कारण विस्तृत जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति के पास विचारार्थ भेजा गया था।   

भूमि अधिग्रहण कानून 2013

अंग्रेजों के शासनकाल में बने भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 के स्थान पर डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून 2013 बनाया। इस कानून में किसानों के हितसाधक चार महत्वपूर्ण प्रावधान किए -  (1) जबरन भूमि के अधिग्रहण पर रोक लगाना,  (2) पीपीपी योजनाओं के लिए सरकार की अनुमति और प्रभावित होने वाले तबके पर पड़ने वाले प्रभावों का आकलन कर प्रभावित तबके को पुनर्वास का लाभ देने की अनिवार्यता,  (3) खाद्यान्न संकट से देश को बचाए रखने के लिए बहुफसली और सिंचित भूमि के अधिग्रहण पर रोक लगाना और  (4) किसानों की जमीन का जरूरत से पहले अधिग्रहण पर रोक लगाने के लिए अवार्ड हो जाने वाली जमीन का अनिवार्य रूप से पांच वर्ष की अवधि में मुआवजा वितरण करना और भौतिक कब्जा लेना जरूरी है अन्यथा जमीन का अधिग्रहण स्वतः ही रद्द हो जाएगा।

यही नहीं इस अवधि में अधिग्रहित जमीन को तीसरे पक्ष को बेचने पर होने वाले लाभ का बंटवारा कर चालीस फीसदी हिस्सा प्रभावित तबके को देने वाले कुछ अच्छे प्रावधान शामिल हैं। इस तरह का लाभ विशेष तौर पर अंग्रेजों के शासन में बने भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 के तहत उन प्रभावितों को भी मिलेगा जिनकी जमीन का अधिग्रहण पांच वर्ष या इससे अधिक अवधि पूर्व किया जा चुका है और प्रभावित जमीन पर भौतिक रूप से कब्जा किसानों के पास है या अधिग्रहित जमीन का मुआवजा किसानों को नहीं दिया गया है।

भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में केवल राष्ट्रीय सुरक्षा, प्राकृतिक आपदा या संसद द्वारा मान्य अन्य किसी आपात स्थिति में ही अर्जेंसी क्लॉज के माध्यम से जमीन अधिग्रहित की जा सकती है। 

अगर पांचवी या छठी अनुसूची वाले क्षेत्रों में इस तरह का अधिग्रहण होता है तो ग्रामसभा अथवा स्वायत्त परिषद की स्वीकृति जरूरी है। ये कानून कई फसलों वाली सिंचित जमीन का अधिग्रहण भी रोकता है। यह प्रावधान भी किया गया था कि विशेष परिस्थितियों में जमीन लेने पर सरकार को उतनी ही जमीन विकसित करके देनी होगी।

भूमि अधिग्रहण संशोधन बिल 2014 व 2015

मोदी सरकार ने सत्तासीन होते ही कॉरपोरेट घरानों व कुछ निजी संस्थाओं को उपकृत करने के मक़सद से भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में शामिल किसान-हितों की रक्षा करने वाले प्रावधानों को औद्योगिक विकास में बाधक मानते हुए भूमि के अधिग्रहण करने की प्रक्रिया को जटिल बनाने का दोषी करार दे दिया और उन्हें बदलने की त्वरित कार्यवाही शुरू कर दी।

दिसंबर 2014 में मोदी सरकार ने एक अध्यादेश लागू किया और उसके ज़रिए यूपीए सरकार के भूमि अधिग्रहण कानून में किसानों के हित के प्रावधानों को कमजोर कर दिया। कॉरपोरेट घरानों के हितों को सर्वोपरि मानते हुए उनके हितसाधक बदलाव कर कानून को कमज़ोर कर दिया। वस्तुतः भूमि अधिग्रहण अध्यादेश दिसम्बर 2014, मई 2015 एवं बाद में संसद में पेश संशोधन बिल में चालाकी से भूमि अधिग्रहण कानून 2013 के किसान-मजदूर हितरक्षक खास प्रावधानों को खत्म कर दिया। विवरण ये है।

भूमि अधिग्रहण से समाज पर असर वाले प्रावधान को ख़त्म किया गया: सोशल इंपैक्ट असेसमेंट ( SIA ) की मदद से ये बात सामने आ सकती थी कि भूमि अधिग्रहित किए जाने से वहां के समाज पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। क्योंकि भूमि अधिग्रहण का असर सिर्फ बड़े किसानों या जमीन मालिकों पर ही नहीं होता, छोटे किसान और मजदूर भी वहां होते हैं, जो वर्षों से उस जमीन पर काम कर रहे होते हैं। यदि जमीन ले गई तो वे क्या करेंगे, कहां रहेंगे? 

लोगों की रज़ामंदी हासिल करने से छुटकारा: 2013 के क़ानून में एक प्रावधान रखा गया था जिसमें लोगों से सहमति लेना जरूरी था। सरकार और निजी कंपनियों के साझा प्रोजेक्ट में प्रभावित जमीन मालिकों में से 80 फीसदी की सहमति जरूरी थी। सरकारी परियोजनाओं के लिए ये 70 प्रतिशत था। दिसम्बर 2014 के नए बिल में इसे ख़त्म कर दिया गया है। रक्षा, ग्रामीण बिजली, ग़रीबों के लिए घर और औद्योगिक कॉरीडोर जैसी परियोजनाओं में 80 फीसदी लोगों के सहमिति की आवश्यकता नहीं होगी।

नहीं बढ़ा मुआवज़ा - मुवावजे पर चली कैंची: भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में ग्रामीण इलाकों में भूमि अधिग्रहण पर चार गुना और शहरी इलाकों में दोगुना मुआवजा देने का प्रावधान था। इसे घटाकर नवम्बर 2017 में सरकार ने दो गुना कर दिया गया है। 

बिल में सामाज पर पड़ने वाले असर के प्रावधान को खत्म करके सरकार ने मुआवजे की सीमा सिर्फ उन्हीं लोगों तक सीमित कर दी है, जिनके नाम जमीन है जबकि पुराने कानून 2013 में ऐसे सभी लोगों को मुआवजा देने का प्रावधान था, जो उस जमीन पर निर्भर हैं। 

जमीन बंजर हो या उपजाऊ फर्क नहीं पड़ेगा: वर्तमान सरकार ने जिन पांच सेक्टरों को प्राथमिकता की सूची में डाला है, उनके लिए जमीन अधिग्रहण करते वक्त यह नहीं देखा जाएगा कि वह जमीन बंजर है या उपजाऊ। अब बिना कोई पूछताछ के उसे सरकार अधिग्रहित कर लेगी।

बता दें कि ब्रिटिश साम्राज्य काल के भूमि अधिग्रहण कानूनों में सार्वजनिक और निजी उद्देश्यों के लिए किए जाने वाले अधिग्रहण में अंतर किया गया था और इनके तरीकों में भी भेद था। लेकिन वर्तमान सरकार द्वारा लाए गए नए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश में सार्वजनिक और निजी उद्देश्य के बंधन और अंतर को हटा दिया गया है जिसके चलते शासन के जरिए कॉरपोरेट घरानों व फेक संस्थाओं का गठन कर बहुत ही कम दामों पर भूमि अधिग्रहीत की जा सकेगी।

भूमि अधिग्रहण कानून और उसमें वर्तमान सरकार द्वारा पेश संशोधन बिल का तुलनात्मक अध्ययन

2013 एक्ट के प्रावधानों की तुलना में 2015 बिल में प्रस्तावित मुख्य बदलाव

सहमति

भूमि अधिग्रहण एक्ट, 2013

  • सरकारी परियोजनाओं के लिए किसी सहमति की ज़रुरत नहीं है।
  • सार्वजनिक-निजी भागीदारी वाली परियोजनाओं के लिए 70% भूमि मालिकों की सहमति की ज़रुरत।
  • निजी परियोजनाओं के लिए 80% भूमि मालिकों की सहमति की ज़रुरत।

भूमि अधिग्रहण (द्वितीय संशोधन) बिल, 2015

  • पाँच प्रकार की परियोजनाओं को सहमति लेने की ज़रुरत से बाहर रखा गया है: (i) रक्षा, (ii) ग्रामीण मूलभूत सुविधाएं, (iii) सस्ते आवास, (iv) सरकार/सरकारी उपक्रमों द्वारा स्थापित औद्योगिक गलियारे, गलियारे के सड़क/रेलवे के दोनों ओर एक किलोमीटर तक, और (v) मूलभूत सुविधाएं जिनमें वे PPP शामिल हैं जहां सरकार भूमि की मालिक हो।

सामाजिक प्रभाव आकलन (SIA)

भूमि अधिग्रहण एक्ट, 2013

सभी परियोजनाओं के लिए SIA अनिवार्य है सिवाय: (i) तत्कालिकता (अरजेंसी) या (ii) सिंचाई परियोजनाएं जहां पर्यावरण के प्रभाव के आकलन की ज़रुरत होती है।

भूमि अधिग्रहण (द्वितीय संशोधन) बिल, 2015

· सरकार उक्त पाँच प्रकार की परियोजनाओं को SIA से छूट देती है।

सिंचित एक से अधिक फसल वाली भूमि

भूमि अधिग्रहण एक्ट, 2013

  सिंचित एक से अधिक फसल वाली सिंचित भूमि का अधिग्रहण राज्य सरकार द्वारा निर्धारित तय सीमा से आगे नहीं किया जा सकता है। 

भूमि अधिग्रहण (द्वितीय संशोधन) बिल, 2015 ·  सरकार उक्त पाँच प्रकार की परियोजनाओं को इस प्रावधान से छूट दे सकती है।

सरकार स्तर पर अपराध निवारण प्रक्रिया

भूमि अधिग्रहण एक्ट, 2013

·  यदि किसी सरकारी विभाग द्वारा कोई अपराध होता हो, उस विभाग के प्रमुख को दोषी माना जाएगा जब तक वह यह नहीं सिद्ध करता कि उसने अपराध होने से रोकने के लिए पूरा प्रयास किया।

भूमि अधिग्रहण (द्वितीय संशोधन) बिल, 2015

 इस बिल में उक्त प्रावधान को हटा दिया गया है।  बिल में एक प्रावधान यह जोड़ा गया कि किसी सरकारी कर्मचारी पर मुकदमा चलाने से पहले सरकार की पूर्व अनुमति की ज़रुरत होगी।

गैर-उपयोगी भूमि की वापसी

भूमि अधिग्रहण एक्ट, 2013

यदि एक्ट के तहत अधिग्रहित भूमि मालिकाना हक लेने की तिथि से पाँच वर्ष के लिए गैर-उपयोगी रहती हो, उसे असली मालिकों या लैंड बैंक को वापस कर दिया जाना चाहिए।

भूमि अधिग्रहण (द्वितीय संशोधन) बिल, 2015

वह अवधि जिसके बाद गैर-उपयोगी भूमि को वापस किया जाना होगा वह (i) पाँच वर्ष, या (ii) परियोजना की स्थापना के समय निर्धारित अवधि के बाद की होगी।

निजी 'कंपनी' से निजी 'संस्था' में बदलाव

भूमि अधिग्रहण एक्ट, 2013

कंपनीज़ एक्ट, 1956 में या सोसाइटीज़ रजिस्ट्रेशन एक्ट, 1860 के तहत परिभाषित निजी कंपनी के जैसी।

भूमि अधिग्रहण (द्वितीय संशोधन) बिल, 2015

'निजी कंपनी' शब्द बदल कर 'निजी संस्था' हो गया है जिसे सरकारी संस्था के सिवाय किसी अन्य संस्था के रूप में परिभाषित किया गया है, और जिसमें, निजी स्वामित्व, भागीदारी, कंपनी, निगम, गैर-लाभकारी आदि शामिल हैं।  

स्पष्ट है कि भूमि अधिग्रहण बिल- 2015 में किए गए सभी संशोधन किसान-हितों पर कुठाराघात हैं।

भूमि अधिग्रहण (द्वितीय संशोधन) बिल, 2015 में निजी कंपनी के स्थान पर निजी संस्था/ Private entities शब्द शामिल किया गया है। निजी संस्था के अंतर्गत कोई संपत्ति भागीदारी, कंपनी, कोई निकाय या निगम, अलाभकारी संगठन ( non-profit organization ) या कोई अन्य संस्था जो किसी अन्य कानून के अधीन हो, शामिल हो सकते हैं। इसमें निजी हितसाधक प्राइवेट हॉस्पिटल और प्राइवेट शिक्षण आदि सब संस्थाएं भी शामिल हैं।

पुनर्वास और पुनर्स्थापना पर निर्णय

भूमि अधिग्रहण एक्ट, 2013

प्रभावित परिवार के एक सदस्य को रोज़गार देना शामिल है।

भूमि अधिग्रहण (द्वितीय संशोधन) बिल, 2015

स्पष्ट करता है कि इसमें 'खेती मजदूर के प्रभावित परिवार के एक सदस्य को रोज़गार' देना शामिल किया जाना चाहिए।

प्रमुख मुद्दे व विश्लेषण

2013 एक्ट के तहत, भूमि का अधिग्रहण केवल उन्हीं परियोजनाओं के लिए किया जा सकता है जिनका कोई "सार्वजनिक उद्देश्य" हो, जिन्हें एक्ट में परिभाषित किया गया है। यह निर्धारित करने के लिए कि ऐसी परियोजनाओं के संभावित लाभ सामाजिक लागतों से अधिक हैं। सामाजिक प्रभाव आकलन (SIA) की ज़रुरत होगी। यदि अधिग्रहण की जाने वाली भूमि एक से अधिक फसल वाली भूमि है, तब ऐसी अधिग्रहित भूमि का कुल क्षेत्रफल राज्य सरकार द्वारा तय सीमा से कम होना चाहिए।  इसके अलावा, सार्वजनिक- निजी- परियोजनाओं (PPP) और निजी कंपनियों के लिए अधिग्रहित किसी भूमि के लिए क्रमशः 70% और 80% भूमि मालिकों की सहमति की ज़रुरत होगी।

भूमि अधिग्रहण (द्वितीय संशोधन) बिल, 2015 के तहत सरकारी परियोजनाओं की पाँच श्रेणियों में निम्न जरूरतों से छूट है: (i) SIA, (ii) एक से अधिक फसल वाली भूमि के अधिग्रहण पर प्रतिबंध, और (iii) PPPs और निजी परियोजनाओं के लिए सहमति। परियोजनाओं की पाँच श्रेणियाँ इस प्रकार से हैं: (i) रक्षा, (ii) ग्रामीण मूलभूत सुविधाएं, (iii) सस्ते आवास, (iv) औद्योगिक गलियारे, और (v) मूलभूत सुविधाएं जिनमें PPP शामिल हैं जहां सरकार भूमि की मालिक हो।

सहमति प्रावधान

2013 एक्ट के तहत PPP परियोजनाओं के मामले में 70% भूमि मालिकों की और निजी संस्थाओं के मामले में 80% भूमि मालिकों की सहमति की ज़रुरत है। सरकारी परियोजनाओं के लिए किसी सहमति की ज़रुरत नहीं है। 

भूमि अधिग्रहण (द्वितीय संशोधन) बिल, 2015 के तहत पाँच प्रकार की परियोजनाओं के लिए भूमि मालिकों की सहमति प्राप्त करने की ज़रुरत नहीं है।

2013 एक्ट के तहत, यदि सरकारी विभाग से कोई अपराध होता है तो उस विभाग के प्रमुख को दोषी माना जाएगा जब तक वह यह नहीं दिखाता कि उसने अपराध होने से रोकने के लिए पूरा प्रयास किया। यह कंपनी के निदेशकों और फर्म के पार्टनरों के प्रावधानों के अनुरूप है।

भूमि अधिग्रहण (द्वितीय संशोधन) बिल, 2015 में इस प्रावधान को हटा दिया गया है। इसलिए विभाग प्रमुख, विभाग द्वारा किए गए अपराध के लिए अपने आप ही जवाबदेह नहीं माना जाएगा। 

इसके अलावा इस बिल में एक नया प्रावधान जोड़ा गया है जो बताता है कि यदि कोई सरकारी कर्मचारी 2013 एक्ट के तहत अपराध करता है, तब उसके ऊपर मुकदमा चलाने से पहले सरकार की पूर्व अनुमति की ज़रुरत होगी।

भूमि अधिग्रहण (द्वितीय संशोधन) बिल में किसान हितैषी प्रावधानों को समाप्त कर दिया गया है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश 2014, 15 अवैधानिक और गैर-कानूनी तरीके से उद्योगपतियों, व्यापारियों, कारोबारी समूहों और कॉलोनाइजरों को लाभ पहुंचाने वाला है। विदित हो कि पहले विपक्ष के दबाव के चलते भूमि अधिग्रहण अध्यादेश में सरकार ने नौ संशोधन किए और उसे लोकसभा से पारित करवा लिया। हालांकि सरकार ने विपक्ष के संशोधन के 52 सुझावों के स्थान पर केवल 9 को ही तरजीह दी थी। इसके साथ ही सामाजिक प्रभाव का आकलन करने और सत्तर फीसदी किसानों की सहमति जैसे सुझावों को नहीं माना है।     

सुप्रीम कोर्ट का ताज़ा फैसला

जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुआई वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने 6 मार्च 2020 को भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 की धारा 24 की व्याख्या करते हुए एक फैसला दिया है। फैसले में यह कहा है:

  1. भू-मालिकों को सरकार के मुआवजा ऑफर करते ही मुआवजे की प्रक्रिया पूरी हो जाती है।
  2. मुआवजे की रकम भूस्वामियों के खाते में या कोर्ट में जमा कराना जरूरी नहीं।
  3. जो भूस्वामी मुआवजा लेने से इनकार कर देते हैं वे मुआवजा न मिलने के आधार पर जमीन का अधिग्रहण निरस्त करने की मांग नहीं कर सकते। 
  4. मुआवजे की रकम कोर्ट में जमा न करने से भूमि अधिग्रहण समाप्त नहीं माना जा सकता।' 

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना है कि अगर अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद सरकार ने अपनी तरफ से मुआवजे का ऐलान कर दिया है और उसे सरकारी कोष में जमा करा दिया गया है, तो यह जरूरी नहीं होगा की उसे कोर्ट में जमा कराया जाए। 

एक पुराने फैसले ( 2017 का ) में सुप्रीम कोर्ट ने ही इस बात का प्रावधान किया गया था कि, अगर किसान मुआवजा नहीं ले रहा है तो सरकार को उसे कोर्ट में जमा करवाना चाहिए वरना अधिग्रहण की प्रक्रिया पूरी नहीं मानी जाएगी। अब 6 मार्च 2020 के फैसले में संविधान पीठ ने कहा है कि अगर सरकार ने मुआवजे के लिए स्वीकृत राशि अपने कोष में जमा करा रखी है तो फिर भूमि मालिक की तरफ से वहां से पैसा नहीं उठाना सरकार की गलती नहीं मानी जाएगी।

सुप्रीम कोर्ट के नवीनतम फैसले की पृष्ठभूमि 

कई किसान संगठनों और व्यक्तियों ने भूमि अधिग्रहण क़ानून के प्रावधानों को चुनौती देने संबंधी मामले की सुनवाई में जस्टिस अरुण मिश्रा के शामिल होने पर आपत्ति जताई थी। उनकी दलील थी कि जस्टिस मिश्रा  ने फरवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट की तरफ से सुनाए गए फैसले में पहले ही अपनी राय रख चुके थे।

सुप्रीम कोर्ट ने 23 अक्टूबर 2019 को कहा कि जस्टिस अरुण मिश्रा भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों को चुनौती देने संबंधी मामले की संविधान पीठ में सुनवाई से अलग नहीं होंगे। खुद जस्टिस अरुण मिश्रा ने कहा, ‘मैं मामले की सुनवाई से अलग नहीं हट रहा हूं।” 

जस्टिस मिश्रा पिछले साल फरवरी में वो फैसला सुनाने वाली पीठ के सदस्य थे जिसने कहा था कि सरकारी एजेन्सियों द्वारा किया गया भूमि अधिग्रहण का मामला अदालत में लंबित होने की वजह से भू स्वामी द्वारा मुआवजे की राशि स्वीकार करने में पांच साल तक का विलंब होने के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता।

इससे पहले, 2014 में एक अन्य पीठ ने अपने फैसले में कहा था कि मुआवजा स्वीकार करने में विलंब के आधार पर भूमि अधिग्रहण रद्द किया जा सकता है। दो अलग-अलग पीठ के भूमि अधिग्रहण से संबंधित दो अलग-अलग फैसलों के सही होने के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट ने वृहद पीठ गठित की जिसकी अगुवाई भी जस्टिस अरुण मिश्रा ने की। 

दूरगामी परिणाम

भूमि अधिग्रहण एक्ट 2013 में मौजूदा सरकार द्वारा किए गए संशोधन एवं सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले का असर व्यापक होगा। अब सरकार आसानी से किसानों की जमीन का अधिग्रहण कर सकेगी, वहीं किसानों की आफत बढ़ जाएगी। भूमि अधिग्रहण कानून 2013 का सेक्शन 24 (2) जो अब तक किसानों के लिए जमीन अधिग्रहण से मुक्त कराने का बड़ा हथियार बना हुआ था, वह भी नए संशोधन से कुछ खास असर नहीं छोड़ सकेगा। अब पटवारी की रोजनामचे अर्थात रिवन्यू रिकार्ड की एक रिपोर्ट से ही अधिग्रहण की गई जमीन पर कब्जा माना जाएगा। 

क्या है सेक्शन 24 (2) ?

मौजूदा सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में किए गए संशोधन से पहले सेक्शन 24(2) के तहत किसान की अधिग्रहित जमीन मुक्त मानी जाती थी यदि उस भूमि को अधिग्रहित करने की नोटिफिकेशन एक जनवरी 2014 से पांच साल पहले हुई हो तथा किसान ने अपनी अधिग्रहित भूमि का मुआवजा न उठाया हो और भूमि का कब्जा सरकार को न दिया हो। 

अब यह बनाया नियम 

सवा सौ साल पुराने अंग्रेजों द्वारा बनाए गए भूमि अधिग्रहण एक्ट के स्थान पर वर्ष 2013 में नया भूमि अधिग्रहण कानून बनाया था, जिसमें किसानों को कुछ राहत मिली थी। परंतु अब मौजूदा सरकार ने इसमें ऐसे संशोधन कर दिए हैं, जिसके परिणामस्वरूप अब किसान सेक्शन 24 (2) के तहत भी अपनी जमीन को सहज अधिग्रहण मुक्त नहीं करा सकेंगे।

अब भूमि अधिग्रहण एक्ट में किए गए संशोधन के बाद सेक्शन 24(2) का प्रभाव निरस्त कर दिया गया है। जमीन पर असल कब्जा किसका है, इससे छेड़खानी होगी। पटवारी जो सरकार के अधीन काम करता है, वह यदि अपने रोजनामचे की रिपोर्ट में यह दर्शा देता है कि जमीन पर कब्जा सरकार का है तो फिर वही मान्य होगा। आखिर पटवारी सरकार के अधीन काम करता है। इसका परिणाम यह होगा कि किसान सहज अपनी जमीन कोर्ट से भी रिलीज नहीं करवा सकेगा। 

सुप्रीम कोर्ट के नवीनतम फैसले से कॉरपोरेट घरानों व उनकी गोदी सरकार को अपनी मंशा पूरी करने का कानूनी अधिकार हासिल हो गया है।

किसानों की कमर तोड़ने की सोची- समझी साजिश को अंजाम देने का रास्ता खुल गया है। किसानों को कॉरपोरेट घरानों का चाकर/ मजदूर बनाने की दिशा में उठाया गया यह बहुत बड़ा कदम है। किसान से मालिक का दर्जा छीनकर नौकर बनाने का षड्यंत्र है। सत्ता और कॉरपोरेट घरानों से प्रसाद प्राप्त करने की जुगत में हमारे नेताओं ने मुंह पर ताला लगा रखा है।

वर्तमान सत्ता ने 2014 -15 में भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करते हुए अध्यादेश लाने एवं तत्सम्बन्धी बिल संसद में पेश किया था। तमाम विरोध के बावजूद लोकसभा से इसे पारित भी करवा लिया था। पर देश भर में विरोध की आवाज़ बुलंद होने एवं संसद के ऊपरी सदन राज्य सभा में इस बिल को पास करवाने के लिए जरूरी बहुमत नहीं जुटाने के कारण इसे  संयुक्त संसदीय समिति के पास विचारार्थ भेजना पड़ा था।

कॉरपोरेट घरानों व फर्जी निजी कंपनियों व संस्थाओं को किसानों की जमीन कौड़ियों के भाव लुटाने के लिए अब सरकार को सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का सहारा मिल गया है। सरकार ने इस मसले की कोर्ट में सुनवाई के दौरान किसानों के हित की रक्षा करने में कोई रुचि नहीं दिखाई। इसका नतीज़ा हमारे सामने है।

पूंजीवादी व्यवस्था से पोषित सरकार चाहे कोई-सी भी रही हो-- सबने कमोबेश औद्योगिक जगत को खुश रखने का वादा बखूबी निभाया है। इसका कारण भी है। पार्टियों को चुनावों में उद्योग जगत ही चंदे के रूप में ख़ूब धन लुटाता है। इसी के बल पर जल-जंगल-जमीन की लूट मचाने का लाइसेंस उन्हें ससम्मान हासिल हो जाता है। 

मसलन.... राजस्थान में औद्योगिक विकास का राग अलाप कर 'रीको' के नाम से शहर-कस्बों के बाहरी क्षेत्रों में किसानों की जमीन अधिग्रहित की गई। चतुर लोगों ने बैंकों से ऋण लेकर उस उद्योग स्थापित करने के लिए बड़े- बड़े भूखंड हासिल कर लिए। अधिकांश लोगों की मंशा उधोग लगाने की थी भी नहीं। कुछ अरसे बाद उन भूखंडों को आवासीय भूखंडों में तब्दील करवाकर ख़ूब चांदी कूट ली। बैंकों से मिलीभगत कर उस लोन को एन पी ए करवा लिया। सत्ता और पैसा सुर- ताल मिलाकर ख़ूब खेल रचाते रहे हैं। ऐसा ही कुछ हश्र धूमधड़ाके के साथ शुरू की गई 'स्टैंड अप इंडिया', 'स्टार्ट अप इंडिया' आदि योजनाओं का हो रहा है। बैंकों में जमा आमजन की गाढ़ी कमाई पर उद्योगपति उद्योग लगाने नाम पर लोन लेकर डाका डाल रहे हैं। फिर उस लोन की एन.पी.ए. में तब्दील करवा रहे हैं या फिर विदेशों में ऐशोआराम फरमा रहे हैं।

सत्ताधारी दल के नेताओं, विरोधी दल के नेताओ एवं सत्ता-स्तुति में लीन लोगों को आम किसान के जीवन से जुड़े इस मसले को लेकर सरकार पर दबाब बनाना चाहिए। जिस तरह अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले का राजनेताओं समेत हर स्तर पर व्यापक विरोध हुआ तो सरकार को झुकना पड़ा और फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में रिव्यु पिटीशन दाखिल करनी पड़ी। भूमि अधिग्रहण कानून और आए हाल ही के फैसले के मामले में भी वैसा ही कदम उठाने के लिए सरकार का मजबूर किया जाना जरूरी है।

प्रोफेसर हनुमाना राम ईसराण
पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राज.
दिनांक 14 मार्च, 2020

संदर्भ