Black Pepper

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घरेलू औषध-३
मिर्च
लेखक : स्वामी ओमानन्द सरस्वती

प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)
प्रथम संस्करण आश्विन २०३७ विक्रमी
मुद्रक - भाटिया प्रैस, गुरुनानक गली, गांधी नगर, दिल्ली-३१.

सुमित्रिया नः आप औषधयः सन्तु

हे प्रभु ! आपकी कृपा से प्राण, जल, विद्या और औषधि हमारे लिये सदा सुखदायक हों


Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल

नम्र निवेदन

पृ० १
मिर्च - आवरण पृष्ठ

साधारण मनुष्य चाहे जंगल ग्राम कस्बे अथवा बड़े नगर वा किसी भी स्थान में निवास करते हों, प्रायः सभी एक ही स्वभाव वाले हैं कि वे छोटे मोटे रोगों पर किसी वैद्य, हकीम वा डाक्टर का द्वार शीघ्र ही नहीं खटखटाते । अपने घर, खेत, आस-पास पड़ौस में सुगमता से जो भी घरेलू उपयोगी वस्तु मिल जाये, झट उसी का सेवन करते हैं । किन्तु दैनिक प्रयोग में आने वाले हल्दी, लवण, मिर्च, अदरक, धनिया, जीरा आदि वस्तुओं के यथोचित गुणों का ज्ञान न होने से अनेक रोगों की चिकित्सा इन के द्वारा भलीभांति वे नहीं कर सकते । जो वस्तु हल्दी, लवण, मिर्च, अदरक आदि हमारी रसोई में रहते हैं और जिनका हम प्रतिदिन सेवन करते हैं, उनके द्वारा अनेक रोगों की हम स्वयं चिकित्सा भी कर सकें, इसी कल्याण की भावना से घरेलू औषधि नामक ग्रन्थमाला का तीसरा पुष्प मिर्च पाठकों को भेंट किया जा रहा है।

इसमें सामान्य रूप से रोगों का निदान (पहिचान), चिकित्सा उपचार, पथ्य और अपथ्य पर प्रकाश डाला है। आशा है कि प्रेमी पाठक इससे लाभ उठायेंगे। इस पुस्तक की प्रेस कापी करने में कुमारी कृष्णा आचार्य (मातनहेल) और प्रूफ देखने व शुद्ध छापने में ब्रह्मचारी विरजानन्द दैवकरणि ने सहयोग दिया है। ये दोनों धन्यवाद के पात्र हैं।

ओमानन्द सरस्वती
१८ अगस्त १९८०

पृ० २

मिर्च

मिर्च वा मिरची सारे भारतवर्ष में मसाले के रूप में शाक भाजी में डाली जाती है। घरों में इसका दैनिक प्रयोग होता है। इसे प्रायः सभी गृहस्थ जानते हैं। यह दो प्रकार की होती है - लाल मिर्च और काली मिर्च। लाल मिर्च का प्रयोग अधिक होता है। विचारशील बुद्धिमान् लोग काली मिर्च का प्रयोग अधिक करते हैं। हम काली मिर्च के विषय में पहिले लिखते हैं क्योंकि जहां इसका मसाले के रूप में प्रयोग होता है, वहां औषध के रूप में तो प्रयोग करने के लिए वैद्यों और हकीमों की अत्यन्त प्रिय वस्तु है। धन्वन्तरीय निघण्टु में इसके विषय में इस प्रकार महर्षि जी लिखते हैं -

काली मिर्च के नाम

मरिचं पैलितं श्यामं वल्लीजं कृष्णमूषणम्।
यवनेष्टं शिरोवृत्तं कोलकं धर्मपत्तनम्।८८॥

संस्कृत भाषा में काली मिर्च के नाम मरिच, पैलित, श्याम, वल्लीज, कृष्ण, उष्णक, यवनेष्ट, शिरोवृत्त, कोलक और धर्मपत्तन आदि दस नाम महर्षि धन्वन्तरि ने लिखे हैं।

राज निघण्टु में - मरिच, वेल्लज, कृष्ण, उष्ण और धर्मपत्तन - ये काली मिर्च के पांच नाम दिये हैं।

मरिचं पलितं श्यामं कोलं वल्लीजमूषणम्।
यवनेष्टं वृत्तफलं शकांगं धर्मपत्तनम्॥१३५॥

अर्थात् मरिच, पलित, श्याम, कोल, बल्लीज, उष्ण, यवनेष्ट, वृत्तफल, शाकांग और धर्मपत्तन - काली मिर्च के ये १० नाम दिये हैं। गुणों की दृष्टि से भी कुछ नाम उल्लिखित हैं।

कटुकं च शिरोवृत्तं वीरं कफविरोधि च।
रुक्षं सर्वहितं कृष्णं सप्तभूख्य निरूपितम्॥१३६॥

पृ० ३

(कटुक) कटु रस वाली, (शिरोवृत्त) सिर के समान गोल, (वीर) वीरता गुण वाली (कफ विरोधि) कफ की नाशक (रूक्ष) रूखी खुश्क (सर्वहितं) सर्वहितकारी (कृष्ण) काली यह इन सात नामों से कही गई है।

भाषा भेद से नाम

हिन्दी में काली मिर्च, गोल मिर्च, बंगाली में मरिच, मराठी में मियें, कन्नड़ में मेणसु, गुजराती में मरि, तैलगू में मरियालु, फारसी में फिल फिल अबीयद, तमिल में मिलगु और मिलावो, अंग्रेजी में ब्लैक पेप्पर, लेटिन में पाईपर नाईगरम इत्यादि काली मिर्च के नाम हैं।

काली मिरच के गुण

मरिचं कटुकं तीक्ष्णं दीपनं कफवातजित्।
उष्णं पित्तकरं रूक्षं श्वासशूलकृमीन् हरेत्॥५९॥

अर्थात् - काली मिर्च चरपरी, तीक्ष्ण, जठराग्नि को दीप्त करने वाली, कफ और वात रोगों को नष्ट करने वाली, गर्म, पित्तकारक, रूक्ष (खुश्क), श्वास तथा कृमि रोगों को हरने वाली है।

ताजी काली मिर्च के गुण

तदार्द्रं मधुरं पाके नात्युष्णं कटुकं गुरु।
किञ्चित्तीक्ष्णगुणं श्लेष्मप्रसेकि स्यादपित्तलम्॥६०॥

पृ० ४

ताजा गीली व हरी काली मिर्च आर्द्र, पाक में मधुर, बहुत उष्ण नहीं, कटु, भारी, कुछ तीक्ष्ण गुणों वाली, कफ को निकालने वाली, किन्तु पित्तकारक नहीं होती है।

राजनिघण्टु के अनुसार इसके गुण -

मरिचं कटु तिक्तोष्णं लघुश्लेष्मविनाशनम्।
समीरकृमिहृद्रोगहरं च रुचिकारकम्॥१३७॥

काली मिर्च कटु (चरपरी), तीक्ष्ण, गर्म, हल्की और कफ नाशक है। समीर (वायु), कृमि (कीड़े) और हृदय रोगों को दूर करती है। भोजन में रुचि बढ़ाने वाली है।

सफेद मिर्च

मरीचं शुभ्रमरिचं बीजं शिग्रोस्तु शिग्रुजम्।

सफेद मिर्च के नाम मरीच, शुभ्रमरिच बीज, शिग्रुज हैं। राजनिघण्टु में श्वेत मरिच के नाम -

सितमरिचं तु सिताख्यं सितवल्लीजं च बालकं बहुलम्।
धवलं चन्द्रकमेतन्मुनिनाम् गुणाधिकम् च् वश्यकरम्॥१३८॥

सितमरिच, सित, सितवल्लीज, बालक, धवल, चन्द्रक, मुनि नाम वाली, गुणाधिक, वश्यकर और बहुल नाम सफेद मरिच के हैं।

सफेद मिर्च के गुण

नात्युष्णं नातिरूक्षं च वीर्यतो मरिचं सितम्।
पित्तकोपकरं तीक्ष्णं रुक्षं रोचनदीपनम्॥९०॥

सफेद मिर्च वीर्य में न ही अति उष्ण और न ही अति रुक्ष, रुचिकारक और पाचन शक्ति को दीप्त करती है। ये सफेद मिर्च के गुण हैं।

राजनिघण्टु में सफेद मिर्च के गुण

कटूष्णं श्वेतमरिचं विषघ्नं भूतनाशनम्।
अवृष्यं दृष्टिरोगघ्नं युक्त्या चैव रसायनम्॥१३९॥

पृ० ५

अर्थात् तीक्ष्ण उष्ण विषनाशक भूति (कृमि) नाशक अवृष्य वा नेत्रों के रोगों का नाश करती है। यदि युक्ति से व्यवहार किया जाये तो सफेद मिर्च रसायन आयुवर्द्धक सिद्ध होगी।

इन मिर्चों के अतिरिक्त लाल मिर्चें भी होती हैं जिनके विषय में आगे विस्तार से लिखेंगे।

काली मिर्च की बेल पर लगे हरे और कच्चे फल

विवरण - काली मिर्च की लतायें वा बेल होती हैं। ये वृक्षों पर चढ़ती और फैलती हैं। वैसे ये भूमि पर फैलती हैं। वृक्षों के सहारे से दीर्घ प्रतान (फैलाव) विस्तारित करती हैं। लताओं के काण्ड वा शाखाएँ ग्रंथि युक्त होती हैं। हर एक ग्रंथि से शिफा (सूत्र) निकलती और वे सूत्र वा शिफायें आश्रित वृक्ष पर लिपट जाती हैं। इसी प्रकार सभी लतायें फैलती वा बढ़ती हैं। काली मिर्च की लताओं के पत्ते चौडे पान के पत्तों के समान होते हैं जिनमें पांच सिरायें स्पष्ट दीख पड़ती हैं। पत्तों का उदर ऊपरी भाग चिकना होता है। पत्तों की पीठ कम हरी होती है।

काली मिर्च की लतायें पुरुष तथा स्त्री दोनों प्रकार की पायी जाती हैं। एक में भी कहीं-कहीं दोनों प्रकार के पुष्प अर्थात् स्त्री वर्ग और पुरुष वर्ग के पुष्प देखे जाते हैं। इनके पुष्पों में सुगन्ध न होने से पतंग व अन्य कीटों द्वारा पुष्प-पुष्प का मेल स्त्री पुरुष के साथ न होने से फल नहीं लग सकते। कूच बिहार और आसाम तथा इसके आस-पास के प्रदेश सदैव पूर्वी वायु चलने से घटना क्रम से यदि पूर्व दिशा पुरुष-पुष्प-धारिणी लता रहे तो प्रसव वायु-वहनक्रिया द्वारा सम्भव होता है। किन्तु इन बातों से अनभिज्ञ उस प्रदेश के नर-नारी ऐसा करने में यदि समर्थ होवें तो फल प्रचुर मात्रा में हो सकता है। वे इन बातों को नहीं जानते अतःएव इस प्रदेश में लता होते हुए भी फल प्रयाप्त मात्रा में नहीं पाये जाते अथवा जो फल लगते हैं वे छोटे होते हैं और कटु नहीं होते।

इनके फल गोल और झुमकेदार होते हैं। कच्ची अवस्था में हरे


पृ० ६

और बहुत चरपरे नहीं होते। पक जाने पर अत्यन्त तीक्ष्ण हो जाते हैं।

काली मिर्च के फल - दो रंगों में
भेद - काली मिर्च के भेद दो प्रकार के होते हैं। एक पूर्वी, दूसरा दक्षिणी। इन में दक्षिणी मिर्च अत्यन्त गुणदायक होती है। बहुत लोग सफेद मिर्चों को दक्षिणी कहते हैं। परन्तु वे दक्षिणी नहीं होती। पूर्वी मिर्चें ही धो देने से सफेद हो जाती हैं। दक्षिणी मिर्चें ऊपर से भरी भीतर हरियाली लिये और अधिक तीक्ष्ण होती हैं।
प्रदेश - आसाम, कूचबिहार, सिंगापुर, मलाया और दक्षिणी द्वीप समूह में काली मिर्च उत्पन्न होती है।
मात्रा - इनकी मात्रा १ रत्ती से ४ माशे तक प्रयुक्त होती है। क्वाथ में १ तोले से ४ तोले तक प्रयुक्त होती है।
विशेषता - इनका स्वाद तेज चरपरा होता है। उष्ण प्रकृति (गर्म मिजाज) वालों को हानिप्रद होती है। इनकी हानि का निवारण घी और शहद से होता है। अभाव में इनके स्थान पर पीपल का प्रयोग किया जाता है।

विशेष - आजकल इस लता जाति की वनस्पति की खेती ट्रावनकोर और मालाबार की उपजाऊ भूमि में बहुत होती है। वहाँ के निवासी इस की लता के छोटे-छोटे टुकड़े करके बड़े-बड़े वृक्षों की जड़ में लगा देते हैं। ये टुकड़े उन वृक्षों के सहारे लतायें बनकर चढ़ जाते और फैल जाते हैं। तीन वर्ष में फल लग जाते हैं। इसके फल गुच्छों के रूप में लगते हैं। ये आरम्भ में हरे, पकने पर लाल और सूखने पर काले हो जाते हैं। यही काली मिर्च कहलाती हैं।

भारतवर्ष में काली मिर्च अत्यन्त प्राचीन काल से एक लोकप्रिय और घरेलू औषधि के रूप में बरती जाती है। आयुर्वेद के प्रसिद्ध त्रिकुट (सौंठ-मिर्च-पीपल) नामक औषधि समूह का यह वस्तु भी एक अंग है। आयुर्वेद के भिन्न-भिन्न रोगों पर बनने वाले हजारों नुस्खों में इस औषधि का बड़ी श्रद्धा से उपयोग होता


पृ० ७

है। औषधि के पश्चात् द्रव्य की अपेक्षा सहायक द्रव्य के रूप में इनका अधिक उपयोग होता है। सहायक रूप में जहां यह मानव शरीर में होने वाली प्रत्येक रोग की औषधि में मिलाई जती है, वहां प्रधान रूप से यह मन्दाग्नि ज्वर, पेट का अफारा और चर्म रोगों में काम ली जाती है। चर्म रोग में इसके बाहरी उपयोग से बड़ा लाभ होता है।

यूनानी मत - यूनानी मत से काली मिर्च तीसरे दर्जे में गर्म और खुश्क होती है। इस का फल तेज, चरपरा, पेट के अफारे को दूर करने वाला, डकार लाने वाला, कामोद्दीपक और विरेचक होता है। यह दांतों की पीड़ा और प्रदाह में उपयोगी है। यकृत और पेशियों की पीड़ा में तिल्ली के रोग में, धवल रोग में, कटिवात में, जीर्ण ज्वरों में, पक्षाघात में तथा कष्टप्रद मासिक धर्म में लाभदायक है। हकीम जालीनूस का कहना है कि मिर्चों को बारीक पीसकर तैल में मिलाकर लकवे के रोगी को लेप करने से इतना अधिक लाभ होता है जितना दूसरी किसी औषध से नहीं होता। काली मिर्च को सिरके में जोश देकर कुल्ले करने से दाँतों की पीड़ा जाती रहती है।

हकीम गिलानी का कथन है कि स्वस्थ व्यक्तियों को भोजन के साथ काली मिर्च खिलाने से उनकी भूख बढ़ती है। पाचन शक्ति ठीक रहती है। जल और मधु के साथ इसको खिलाने से उनकी भूख बढ़ती है। पाचन शक्ति ठीक रहती है। जल और मधु के साथ इसको खिलाने से भी उनकी भूख बढ़ती और पाचन शक्ति ठीक रहती है।

पक्वाशय मेदे और यकृत (जिगर) की बादी (वायु) नष्ट होकर उनमें उष्णता (गर्मी) आ जाती है। खट्टी डकारें आनी बन्द हो जाती हैं।

यूनान की पुस्तक खजाइनुल अदविया के अनुसार यह काली मिर्च गर्मी को उत्पन्न करने वाली, कफ को छोड़ने वाली और पाचन शक्ति को शक्ति प्रदान करती है। भूख बढ़ाती है। श्वास, कास, प्रमेह और छाती की पीड़ा में लाभप्रद है। अगर मासिक धर्म शुद्ध होकर स्त्री


पृ० ८

इसकी बर्ती का प्रयोग करे तो गर्भ निरोधक है। इसको सिरके में पीस कर तिल्ली पर लेप करें तो सूजन बिखर कर दूर हो जाता है। इसको पीस कर आंख में लगाने से आंख की धुन्ध, जाला और नाखूना (फोला) नष्ट हो जाता है। इसके लेप से कंठमाला की सूजन बिखर जाती है। इसका क्वाथ सांप बिच्छू और अफीम के विष को दूर करता है।

पाश्चात्य मतानुसार - मिर्च में एक प्रकार का तैल २ से ८ प्रतिशत, पिपेराइडिन ५%, बलसैमिक वौलेटाइल आयल १% से २% तथा कंक्रीट आयल, गम, फैल १ प्रतिशत, प्रोटीड ७ प्रतिशत तथा अन्य द्रव्य (Ash containing organic matter).

प्रयोग (Action and uses) -

It is a local irritant causing intense burning on the skin. In medicinal doses, it stimulates the heart, the kidneys and mucous membrane of the urinary and intestinal tracts. It is eliminated in the urine and faeces. In large doses it causes abdominal pain, vomiting, irritation of the bladder, urethra and urticaria on the skin, etc.

अर्थात् मिर्च का प्रलेप तीव्र दाहकारी है। इसे मात्रा पूर्वक सेवन करने से हृदय वृक्क एवं मूत्र पथ आँतों की श्लेष्मधरा कला को उत्तेजना मिलती है। भक्षित मिर्च मूत्र और मल के साथ निकल जाती है। अतिमात्रा में सेवन करने से उदर पीड़ा, वमन, मूत्राशय एवं मूत्र स्रोतों में उत्तेजना तथा कोष्ठान्वित ज्वर उत्पन्न करता है। उदराध्मान, ग्रहणी, पाकस्थली के पेशी दौर्बल्य में इसका सेवन कराते हैं। कबाब चीनी के साथ यह सुजाक, शुक्रमेह, बवासीर आदि गुदा प्रदेश के रोगों में सेवनीय है। दंतशूल में मिर्च का प्रलेप हितकर है। गलक्षत वा क्षुद्र जिह्वा वृद्धि में मरिच के क्वाथ का कवच धारण (कुल्ला) कराना चाहिये। बिनेगार के साथ इसका प्रलेप विषकीट दंश पर कराना


पृ० ९

चाहिये। सिर दर्द में प्याज और लवण के साथ प्रलेप हितकर है। इसका तैल गठिया, अर्दित, शिरःशूल में और अर्श खूनी बवासीर में प्रयुक्त होता है। यह उपरिलिखित मत प्रसिद्ध विद्वान् आर० एन० खोरे का है।

कर्नल चोपड़ा के मतानुसार काली मिर्च उत्तेजक, पेट के अफारे को दूर करने वाली, हैजा, कब्ज, मन्दाग्नि, रक्तातिसार और पाकस्थली के अन्य रोगों में भी उपयोगी है।

हैजे में इसका प्रयोग निम्न प्रकार करते हैं - काली मिर्च २० ग्रेन, हींग २ तोला, अफीम २० ग्रेन इन सब को मिलाकर २० गोलियां बनाई जायें और एक-एक घण्टे पश्चात् एक-एक गोली रोगी को देने से लाभ होता है। इसके अतिरिक्त यह बाह्य प्रयोग में भी काम आती है। इसको घी में मिलाकर चर्म रोगों में लगाने से लाभ होता है।

डाक्टर देसाई के मतानुसार काली मिर्च की प्रधान क्रिया उत्तर गुदा पर होती है। इस कारण यह औषध बवासीर पर विशेष लाभ दिखाती है। इस रोग में इसका खाने और लगाने में दोनों प्रकार से प्रयोग किया जाता है। यह औषध मूत्रपिण्डों को भी उत्तेजित करती है। इसी कारण इसके सेवन से पेशाब बढता है। मूत्राशय और मूत्रनाली में उत्तेजना उत्पन्न होती है। इस कारण यह पुराने सुजाक में भी लाभदायक है।

डांयमाक के मतानुसार काली मिर्च के सेवन से बारी (पर्याय) से आने वाला तिजारा, चौथय्याज्वर बहुत शीघ्र हटता है। डाक्टर सा० एस० टेलर ने इसकी बहुत प्रशंसा की है। जहां कुनैन व्यर्थ सिद्ध हो चुकी थी, वहाँ काली मिर्च का सत्त्व (पेपेराइन) सफल सिद्ध हुआ है। यह ज्वर रोगी को प्रति घण्टे ३ ग्रेन की मात्रा में दिया जाता है। इसके सिवाय काली मिर्च मन्दाग्नि, सुजाक वायुगोला, वायु पीड़ा, उदर शूल, कब्ज और रक्तार्श (खूनी बवासीर) में भी बहुत लाभ पहुंचाती है।


पृ० १०

काली मिर्च हैजा वा विषूचिका रोग में सुगन्धित, उत्तेजक पदार्थ के रूप में अधिक कार्य में ली जाती है। यह ज्वर के पश्चात् होने वाली निर्बलता में लाभदायक है। अग्निमन्दता कोष्ठबद्धता में अग्नि प्रवर्द्धक के रूप में बहुत लाभदायक है। मलेरिया और जूड़ी ज्वर में भी यह लाभदायक है। अर्द्धांगवा लकवे में यह धातु परिवर्तक औषध मानी जाती है। सन्धि वात (गठिया) में यह लाभदायक है।

बाह्य प्रयोग में यह चर्मदाहक पदार्थ के रूप में प्रयोग होती है। गले की सूजन, बवासीर और अन्य चर्म रोगों में भी इसका बाह्य प्रयोग पूरा लाभदायक होता है।

ऊपर संक्षिप्त से काली मिर्च के औषध के रूप में प्रयोग लिखे हैं। यूनानी, आयुर्वैदिक और डाक्टरों की दृष्टि में जो उपयोग काली मिर्च के हो सकए हैं, उन पर थोड़ा सा प्रकाश ऊपर की पंक्तियों में डाला गया है। अब अपने तथा अपने इष्ट मित्र वैद्यों के अनुभव के आधार पर विस्तार से लिखने का यत्न करूंगा।

आयुर्वेद में काली मिर्च तथा अन्य विविध प्रकार की मिर्चों का चिकित्सा में महत्त्वपूर्ण स्थान है।

मन्दाग्नि

सभी निघण्टुओं में काली मिर्च को दीपन, पाचन, पित्तकारक और उष्ण भी लिखा है। आयुर्वेद शास्त्रों में पाचन शक्ति का नाम ही जठराग्नि है। यह चार प्रकार की होती है। (१) मन्द कमजोर हल्की, (२) तीक्ष्ण तेज, (३) (विषम) जो बराबर समान न हो, असमान। समाग्नि - समान, बराबर, एक ही अवस्था में रहने वाली। यह पाचन शक्ति वा जठराग्नि कफ के कारण मन्द, पित्त के कारण तीक्ष्ण (तेज), वायु के प्रकोप से विषम और तीनों के समान रहने से समावस्था में रहती है।

मन्दाग्नि के लक्षण -

मन्दाग्नि वाले व्यक्ति को (जिसकी पाचन शक्ति निर्बल हो उसको) बहुत थोड़ा खाया अन्न भी बड़ी कठिनाई से पचता है।


पृ० ११

उबकाई आती है, मुंह से लार गिरती है। जी घबराता है, सिर और पेट में भारीपन प्रतीत होता है।

तीक्ष्णाग्नि के लक्षण -

जिसकी तीक्ष्णाग्नि तीक्ष्ण वा तेज होती है, वह जितनी मात्रा में भोजन करता है, इसकी तीक्ष्ण पाचन शक्ति के कारण सब तुरन्त पच जाता है। दीखने को तो यह प्रत्यक्ष में बहुत अच्छा प्रतीत होता है किन्तु सीमा से अधिक होने के कारण यह भी एक रोग ही है। क्योंकि इसके कारण भस्मक रोग भी हो जाता है। सीमा से अधिक खाने पर अन्त में एक दिन मनुष्य की पाचन शक्ति बिगड़ कर अनेक प्रकार के रोग जन्म ले लेते हैं। विषमाग्नि वाले व्यक्ति को वायु की अधिकता के कारण पेट में पीड़ा, अफारा, गुड़गड़ाहट, उदर का भारीपन, दस्त आना और वायु को छोड़ते समय मल निकल जाना आदि कष्ट होते हैं।

समाग्नि वाले व्यक्ति का खाया हुआ भोजन सरलता से पच जाता है अर्थात् पचाने में कोई कष्ट नहीं होता। यह अवस्था सर्वश्रेष्ठ है। क्योंकि समाग्नि वाला व्यक्ति किसी समय भूख लगने पर भी भोजन न करे तो कोई भय नहीं। यदि तीक्ष्णाग्नि वाला भोजन न करे तो पित्त के अनेक रोग हो जाते हैं। मनुष्य के मिथ्या आहार व्यवहार से जठराग्नि दूषित होकर मानव शरीर की मशीन बिगड़ जाती है। नियमित भोजन करने से जठराग्नि सम वा बराबर रहती है। कोई रोग नहीं होता।

१. औषधि - काली मिर्च, सोंठ, पीपल, जीरा, सैंधा लवण - सबको समभाग लेकर कूट पीस छान कर दो माशे की एक मात्रा भोजन के पश्चात् देने से मन्दाग्नि दूर होकर पाचन शक्ति बढ़ती है।

२. काली मिर्च, सैंधा लवण, सौंठ, अजवायन और चित्रक छाल - सब समभाग लेकर कूट पीस कर छान लें। मात्रा ३ माशे चूर्ण गाय की छाछ से सेवन करें। इसके प्रयोग से मन्दाग्नि रोग नष्ट हो जाता है।


पृ० १२

छोटे बालक को एक मात्रा देवें।

३. काली मिर्च, सौंठ और एक वर्ष पुराना गुड़ तीनों मिलाकर सेवन करने से सर्व प्रकार की मन्दाग्नि और अजीर्ण दूर होता है। गुड़ में १/३ भाग मिलाकर खायें अर्थात् चूर्ण एक माशा, गुड़ ३ माशे मिलाकर एक मात्रा लें। इस प्रकार दो तीन मात्रायें दिन में लेवें।

४. हिङ्गवष्टक चूर्ण, महाखण्ड चूर्ण, बृहत् अग्निमुख चूर्ण, सैन्धवादि चूर्ण ये आयुर्वेद के प्रसिद्ध योग हैं जो अजीर्ण मन्दाग्नि आदि सभी उदर रोगों की अनुभूत और अचूक औषध है। इन सबमें भी काली मिर्च है। अर्थात् इनका एक अंग है।

५. काली मिर्च, पीपल बड़ा, वत्सनाभ शुद्ध, सौंठ और बड़ी हरड़ का छिलका सब समभाग लेकर कूट छानकर अत्यन्त बारीक पीस लेवें और तीन चार दिन तक नीम्बू के रस में खरल कर एक रत्ती की गोली बना छाया में सुखा लेवें। प्रातः सायं एक-एक गोली गर्म जल के साथ लेने से मन्दाग्नि और अजीर्णादि उदर रोग दूर होते हैं।

६. पारा और शुद्ध गन्धक की बढ़िया पिसी हुई कजली २ तोले, काली मिर्च १ तोला, शुद्धमणि तेलिया १ तोला। सबको बारीक पीसकर कण्टकारी छोटी के ताजे फूलों के रस में निरन्तर २१ दिन तक खरल करके एक-एक रत्ती की गोलियां बनायें। प्रातः सायं एक-एक गोली अथवा भोजन के पश्चात् ताजा जल वा उष्ण जल के साथ सेवन करें। इसके सेवन से हर प्रकार का अजीर्ण मन्दाग्नि आदि उदर रोग सर्वथा नष्ट हो जाते हैं।

७. काली मिर्च, सौंठ, पीपल, लौंग और सुहागे की खील सब समभाग लेकर अत्यन्त बारीक पीस लेवें। चित्रक वा अपामार्ग के रस में खरल करके चने के समान गोली बनायें। प्रातः सायं एक-एक


पृ० १३

गोली जल के साथ सेवन करने से मन्दाग्नि अजीर्ण दूर होकर भूख खूब लगती है।

८. काली मिर्च ३ तोले, पीपल बड़ा ३ तोले, काला नमक ३ तोले, सुहागा भुना हुआ 1½ तोला, इन सबको अत्यन्त बारीक पीस कर तीन दिन तक नीम्बू के रस में खरल करके चार रत्ती भर की गोलियां बनायें। इन गोलियों को भोजन के पश्चात् सेवन करने से मन्दाग्नि दूर होकर भूख खूब लगने लगती है।

लाल मिर्च - अत्यन्त तीक्ष्ण लाल मिर्चों के चूर्ण को चालीस दिन तक नीम्बू के रस में खरल करके दो-दो रत्ती की गोली बनायें तथा एक दो गोली पान में रखकर खाने से भूख खूब लगती है। मन्दाग्नि का रोग दूर हो जाता है। ब्रह्मचारी को यह औषधि प्रयोग में नहीं करनी चाहिये। इससे ब्रह्मचर्य में हानि होगी। प्रकरणवश ही लाल मिर्च की औषधि लिखी है कि कोई गृहस्थ रोगी वा वृद्ध पुरुष लाभ उठा सके।

अजीर्ण - अन्धाधुन्ध भोजन करने से प्रायः अजीर्ण रोग होता है। जो व्यक्ति जिह्वा (रसना) दे दास व चटोरे होते हैं, उनको अजीर्ण, अपचन बदहजमी होती है। अजीर्ण के हटने से अनेक प्रकार के रोगों से छुटकारा मिल जाता है। सभी प्रकार का अजीर्ण त्रिदोष के कुपित होने से होता है। जैसे कफ की अधिकता से आमाजीर्ण, पित्त की अधिकता से विदग्धाजीर्ण होता है और वात के दूषित होने से विष्टब्धाजीर्ण होता है। रस से दूसरी धातु रक्त न बनने से रसशेषाजीर्ण की उत्पत्ति होती है। दिन भर बकरी के समान खाते रहने से दिनपाकी अजीर्ण होता है। अथवा दिन भर में भोजन के न पचने से यह रोग होता है। किसी को स्वाभाविक रूप से होने वाला अजीर्ण प्राकृताजीर्ण कहलाता है।


पृ० १४

चिकित्सा - अजीर्ण और मन्दाग्नि दोनों रोगों की औषध प्रायः एक समान मिलती-जुलती है।

१. औषध - काली मिर्च छः माशे, सौंफ १ तोला, पीपल बड़ा ३ माशे, जीरा काला ३ माशे, सैंधा नमक ९ माशे सबको कूट छान बारीक चूर्ण बना लें। मात्रा ३ माशे दिन में तीन चार बार गर्म जल से देवें। इससे कफ से उत्पन्न आमाजीर्ण दूर होगा और इससे उत्पन्न पेट और शरीर का भारीपन, जी मचलाना, आँखों और मुख (गालों) पर आयी सूजन, खट्टी डकारें सब विकार दूर होंगे।

२. काली मिर्च, सैंधा लवण, अजवायन देशी, सूखा पोदीना, बड़ी इलायची के दाने, सब समभाग लेकर बारीक चूर्ण बनायें। मात्रा ३ माशे दिन में तीन-चार बार लेने से आम अजीर्ण नष्ट हो जायेंगे। यह अमाजीर्ण को समूल नष्ट करने की अत्यन्त श्रेष्ठ औषध है।

३. काली मिर्च ३ तोले, पीली कौड़ी की भस्म ४ तोले, सौंठ २ तोले, मीठा तेलिया शुद्ध १ तोला सब कूट पीस कर बारीक कर लें। दो तीन दिन इसे नीम्बू के रस में खरल करें। एक-एक रत्ती की गोली बनायें। मात्रा प्रातः सायं एक-एक गोली गर्म जल वा अर्क सौंफ के साथ सेवन करने से आमाजीर्ण समूल नष्ट हो जाता है।

४. काली मिर्च १ तोला, सौंठ १ तोला, पीपल बड़ा १ तोला, दाल-चीनी छः माशे, नागकेशर ९ माशे, बड़ी इलायची का दाना ३ माशे सबको कूटछानकर बारीक चूर्ण बनायें। मात्रा ३ माशे दिन में, तीन चार बार गर्म जल के साथ सेवन करने से आमाजीर्ण दूर होता है, बहुत अच्छी औषध है।

१. लेप - काली मिर्च, सौंठ, पीपल बड़ा, सैंधा नमक और असली हीरा हींग सब समभाग लेकर कूट छान लें और गर्म जल डालकर


पृ० १५

खूब बारीक पीसकर लेप के समान बनायें और दिन में दो तीन बार पक्वाशय (मेदे) पर लेप करें। आमाजीर्ण दूर हो जायेगा।

६. - पीपल बड़ा १ माशा, काली मिर्च २ माशे, छोटी इलायची के दाने ३ माशे, जीरा सफेद ४ माशे, सौंठ ५ माशे, आँवलसार गन्धक शुद्ध ९ माशे सबको बारीक पीस लें और चार दिन नीम्बू के रस में खरल करके चार-चार रत्ती की गोली बनायें। प्रातः सायं शीतल जल के साथ एक-एक गोली खायें। इसके सेवन से पित्त कुपित होने वाला विदग्धाजीर्ण दूर होता है। यह रोग की अद्वितीय औषध है। इससे प्यास की अधिकता, पसीना, छाती में जलन, खट्टी डकारें, मूर्च्छा (तन्द्रा) और मेदे में धुवां सा उठना तथा उसका गले और मस्तिष्क में जाना आदि सब रोग दूर होते हैं।

७. - शंख वटी और महाशंख वटी विदग्धाजीर्ण और सर्वप्रकार के अजीर्ण की अचूक औषध है।

योग - पारा शुद्ध २ तोले, शुद्ध गन्धक १ तोला, वत्सनाभ शुद्ध ६ तोले, काली मिर्च ९ तोले, शंख भस्म ९ तोले, सौंठ १० तोले, सज्जीक्षार १० तोले, हींग भुनी हुई १० तोले, सुहांजना की जड़ की छाल १० तोले, सैंधा नमक १० तोले, समुद्र लवण १० तोले, नौसादर १० तोले। पहले पारा गन्धक को चार-पांच घण्टे रगड़ कर कजली बनायें। फिर सभी औषध बारीक करके कजली में मिलाकर रगड़ें, फिर नीम्बू का रस डाल-डाल कर खरल करके चार-चार रत्ती की गोलियाँ बनायें। प्रातः सायं दो-दो गोलियां दिन में दो-तीन बार ताजे पानी के साथ देवें। यह सर्व प्रकार के अजीर्ण, मन्दाग्नि आदि सभी उदर रोगों के प्रसिद्ध अनुभूत औषध है।

विष्टब्धाजीर्ण - विष्टब्धाजीर्ण, जो वायु के बिगड़ने से होता है। यह मल-मूत्र के वेग को रोकने से होता है। इसमें बहुत सख्त


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कोष्ठबद्धता (कब्ज) का कष्ट सदैव बना रहता है। इसी के कारण अजीर्ण (बदहजमी) का रोग होता है। इस में उदर पीड़ा सूल, अफारा और तमाम जोड़ों की पीड़ा (दर्द), अंगों का टूटना, मल और अपान वायु का अवरोध (रुकावट) बना रहता है। ये उदर सम्बन्धी सभी विकार हिंग्वष्टक चूर्ण के प्रयोग से नष्ट हो जाते हैं।

८. - हिंग्वष्टक चूर्ण - मिर्च काली, सौंठ, पीपल बड़ा, सैंधा लवण, जीरा सफेद (आधा भुना हुआ), जीरा काला, , अजमोद और घी में भुनी हुई हींग सब को सम भाग लेकर खूब पीस छान लें। इसकी मात्रा ३ माशे से ६ माशे तक गर्म जल के साथ कई बार देवें। उदर सम्बन्धी वायु विकार सर्वथा दूर होंगे।

९. - अजीर्ण कष्टक रस - शुद्ध पारा गंधक की कजली २ तोले, काली मिर्च ३ तोले, शुद्ध वत्सनाभ एक तोला। इन सबको बारीक करके कजली में मिला लें और कण्टकारी छोटी के फलों के रस में इक्कीस दिन खरल करें। रस कम होने वा सूखने पर डालते रहें। एक-एक रत्ती की गोली बनाकर रखें। इसकी दिन भर में दो तीन गोलियाँ खाने से सर्व प्रकार का अजीर्ण समूल नष्ट हो जाता है।

१०. - काली मिर्च ४ तोले, अजवायन देसी ३ तोले, एलवा ५ तोले, सुहागा भुना हुआ १ तोला इन सबको कूटपीस कर घीगुवार (कुमारी) के रस से खरल करके एक-एक रत्ती की गोलियां बनायें और गर्म जल के साथ दो तीन गोलियां देने से विष्टब्धाजीर्ण और इसके विकार कब्ज आदि नष्ट होते हैं।

११. - काली मिर्च, राई, काला जीरा तीनों को समभाग लेकर कूट छानकर गुड़ के साथ जंगली बेर के समान गोली बनायें और एक दो गोली प्रतिदिन जल के साथ सेवन करने से भोजन पच जाता है। अजीर्ण दूर हो जाता है।


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१२. - काली मिर्च, सैंधा नमक, आक के फूल, सूंठ, पीपल बड़ा, नौशादर, त्रिफला समभाग लेवें और अत्यन्त बारीक पीस लें। चार रत्ती की गोलियां बनायें। यह सर्वोत्तम औषध सर्व प्रकार के अजीर्ण, उदर पीड़ा, शूल, संग्रहणी और हैजे को दूर करता है। अनुभूत है।

१३. - काली मिर्च, कपूर देशी, नौशादर, गेरु, खाने का सोडा और आक की जड़ की सूखी छाल सबको सम भाग लेकर कूट छान लें। इसकी मात्रा १ माशा है। यह सभी उदर रोगों को दूर भगाता है। हमारा हजारों रोगियों पर अनुभूत है।

१४. - गन्ने के कारण हुआ अजीर्ण काली मिर्च, सौंठ और पीपल के सेवन से दूर होता है।

१५. - अजीर्ण मंदाग्नि में एक वा दो माशे काली मिर्च का चूर्ण खायें और ऊपर से गर्म जल में आधा कागजी नीम्बू निचोड़ कर पीवें। इस प्रकार दिन में दो तीन बार लेवें। इस प्रकार एक सप्ताह तक लेने से पेट के अपचन, मन्दाग्नि, अजीर्णादि रोग समूल नष्ट हो जाते हैं और साथ ही उबकाई, अरुचि, पेट में तनाव, भारीपन, अपान वायु का रुकना, मुख का फीकापन आदि सब विकार दूर हो जाते हैं।

१६. - उदर रोगी को भोजन के साथ भुना जीरा, काली मिर्च डाल कर गौ के तक्र (छाछ मठ्ठे) का प्रयोग करना चाहिये।

१७. - अफारे में काली मिर्च १ माशे पाव भर जल में पका कर पीने से लाभ होता है।

१८. - मन्दाग्नि को दूर करने तथा भोजन को ठीक पचाने के लिए काली मिर्च और सैंधा नमक को पीसकर भुनी हुई अदरक के साथ भोजन के मध्य में खाने से लाभ होता है। अरुचि भी इससे दूर होती है। नीम्बू के साथ काली मिर्च और सैंधा नमक लगाकर नीम्बू के साथ चूसने से अरुचि दूर होती है।


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संग्रहणी - अतिसार अर्थात् दस्तों की बीमारी के दूर होने पर अगर रोगी अपथ्य बदपरहेजी करता है अथवा पाचन शक्ति को मन्द करने वाली भारी वस्तुओं का सेवन करता है तो रोगी की जठराग्नि निर्बल होकर संग्रहणी रोग हो जाता है। ग्रहणी शरीर के उस भाग को कहते हैं जो खाये हुये अन्न के सार भाग को ग्रहण करके और निकलने योग्य मल भाग (टट्टी) को नीचे निकाल देता है और सार भाग को शरीर में विभाजित कर देता है।

संस्कृत भाषा अथवा आयुर्वेद के ग्रन्थों में इसका नाम संग्रहणी कला रखा है। जब मनुष्य के दूषित आहार विहार से यह कला बिगड़ जाती है तो यह भोजन के सार तत्त्व को ग्रहण नहीं करती और भोजन के सार तत्त्व और मल दोनों को निकालना आरम्भ कर देती है और रोगी को खाया-पीया नहीं पचता, शरीर को नहीं लगता अर्थात् शरीर को आगे नहीं बढ़ने देता। क्योंकि ग्रहणी कला के कार्य में अन्तर आ जाने से इस रोग की उत्पत्ति होती है, इसलिए इसका नाम ग्रहणी वा संग्रहणी हो गया।

१. - चिकित्सा - मिर्च का चूर्ण एक तोला, सैंधा नमक ६ माशे, घी में भुनी हुई हींग ३ माशे सबको कूट-पीस छान कर चूर्ण बना लेवें। मात्रा ३ माशे १ पाव गाय के तक्र में मिलाकर पीवें। जिस गाय की दही में एक-चौथाई भाग जल मिला दिया हो तथा जिसको बिलोकर मक्खन निकाल लिया हो उसे तक्र कहते हैं। इसी को संग्रहणी रोग में रोगी को पिलाते हैं। यह इस रोग में अमृत है, इसी का कल्प कराते हैं। वात प्रधान ग्रहणी ऊपर लिखी औषध के सेवन से दूर होती है।

२. - कफ प्रकुपित संग्रहणी हो तो तक्र बनाने के लिए चौथे भाग से अधिक जल दही में मिलाकर बिलोकर मक्खन निकाल कर रोगी के लिए तक्र बनायें। उसमें काली मिर्च, सौंठ, पीपल बड़ा, सैंधा लवण और भुनी हुई हींग मिलाकर तक्र का सेवन करायें। जब कई मास तक तक्र का सेवन वा कल्प कराया जाता है तब कहीं यह हठी रोग जाने का नाम लेता है।


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३. - हिंग्वष्टक चूर्ण ३ माशे दिन में ३ बार देने से और ऊपर से गाय का तक्र पिलाने वा गर्म जल देने से जठराग्नि खूब तेज (तीक्ष्ण) हो जाती है और वात संग्रहणी रोग नष्ट हो जाता है।

४.' - लवण भास्कर चूर्ण - काली मिर्च, सूंठ, जीरा सफेद तीनों एक तोला, समुद्र नमक ७ तोले, सौंचल नमक ५ तोले, नौशादर २ तोले, सैंधा नमक २ तोले, धनिया, पीपल बड़ा, पीपलामूल, कृष्ण जीरा, तेज पत्र, नाग केसर, तालीस पत्र और अम्लबेत ये सब दो-दो तोले, अनार दाना ४ तोले, दालचीनी ६ माशे, इलायची ६ माशे इन सबको कूटकर बारीक चूर्ण बना लें। यह स्वादु चूर्ण है। संग्रहणी इससे दूर होती है। इसका सेवन गाय के तक्र वा गर्म पानी से करें। मात्रा ३ माशे से ६ माशे तक है। इससे उदर सम्बन्धी, अजीर्ण मन्दाग्नि संग्रहणी आदि सभी रोग वा विकार दूर होते हैं।

५. - हंस पोटली रस - शुद्ध गन्धक और पारे की कजली २ तोले, कौड़ी भस्म, काली मिर्च, सूंठ, पीपल बड़ा, सुहागा सफेद भुना हुआ, मीठा तेलिया शुद्ध सबको बारीक पीसकर कजली में मिलायें और एक दिन नीम्बू के रस में खरल करके एक-एक रत्ती की गोली बनायें। ये गोलियां संग्रहणी के लिये अमृत तुल्य अनुपम औषध है। कफ की संग्रहणी को दूर करने में विशेष गुणकारी है। इसका तक्र के साथ प्रयोग करें।

६. - इसी प्रकार बृहद् दाडिमाष्टक चूर्ण, महाकल्याण गुड़, जातिफलादि वटिका, चन्द्रकला चूर्ण आदि अनेक आयुर्वेद के प्रसिद्ध योग हैं जो संग्रहणी रोग की उत्तम औषध हैं। इन सब में काली मिर्च है। काली मिर्च दीपन और पाचन गुण वाली होने से उदर सम्बन्धी सभी रोगों को दूर करती है।

अर्श (बवासीर)

बवासीर के लक्षण - अर्श के रोगी को कब्ज, अजीर्ण आदि का कष्ट रहता है। मल वा शौच कष्ट से आता है। शौच आते समय बहुत कष्ट होता है। रक्त खून निकलता है। रक्त की मात्रा में अन्तर होता


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है। किसी को चन्द बूंदें, किसी को दो-चार तोले, और किसी को एक पाव से एक सेर तक निकल जाता है। जब रोग बहुत पुराना हो जाता है तब बैठे हुए या पेशाब करते समय रक्त निकल जाता है। वातपित्त और कफादि दोषों के अनुसार अर्श वा बवासीर अनेक प्रकार की होती है। किन्तु दो प्रकार की बवासीर अर्थात् वादी और खूनी ही प्रसिद्ध है।

रक्तार्श की चिकित्सा - खूनी बवासीर को दूर करने के लिये कुछ योग लिखता हूँ।

१. - काली मिर्च सात और जल नीम छः माशे दोनों को ठण्डाई के समान घोटकर जल मिलाकर पीने से खून का आना बन्द हो जाता है।

२. - काली मिर्च दस और जलपीपल दो तीन तोले लेकर ठण्डाई के समान घोटकर प्रातः सायं दोनों समय पीने से रक्त आना दो तीन वार में ही बन्द हो जाता है। यदि चालीस दिन इसी प्रकार पीते रहें तो खूनी बवासीर समूल नष्ट हो जाती है।

३. - जल पीपल का स्वरस १ छटांक और काली मिर्च का चूर्ण १ माशा मिलाकर प्रातः सायं दोनों समय एक मास तक पीने से खूनी बवासीर का नामो-निशान नहीं रहता। रक्त निकलता हो तो तीन चार वार के पीने से बन्द हो जाता है।

४. - केले का पानी १० तोला, काली मिर्च का चूर्ण एक माशा मिलाकर पीने से एक दो दिन में रक्त का आना (दौरा) सर्वथा बन्द हो जाता है।

५. - काली मिर्च २१, कंघी बूटी के पत्ते २१ - दोनों को जल में पीसकर ठण्डाई के समान पीने से खूनी और वादी बवासीर दोनों में ही एक-दो सप्ताह में लाभ होता है।

६. - ककरौंदा बूटी (कूकर भंगरा) के पत्तों का ५ सेर रस किसी कलई वाले बर्तन में डालें और मन्दाग्नि से पकायें। जब खूब गाढ़ा हो जाये तो इसमें काली मिर्चों का डेढ़ तोला बारीक चूर्ण मिलायें और


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जंगली बेर के समान गोलियां बनाकर छाया में सुखा लें। एक-एक गोली प्रातः सायं ताजे जल के साथ प्रयोग करने से सर्व प्रकार की बवासीर नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है।

७. - काली मिर्च, रसौंत, गेरु, एलवा, नीम के बीजों की गिरी, बकायन के फलों की गिरी, शुद्ध गूगल सब को खूब बारीक पीसकर मकोय के पत्तों के रस में तीन दिन तक खरल करें। इसके प्रयोग से सर्व प्रकार का अर्श रोग समाप्त हो जाता है।

८. - काली मिर्च ५ तोले, पीपल बड़ा ५ तोले, सौंठ ५ तोले, ढाक के पत्तों की राख २० तोले इन को कूट छान कर आठ किलो जल में मिलाकर कलई वाले पात्र में मन्दाग्नि पर चढ़ायें। इसमें दो किलो गाय का घी भी डाल देवें। मन्दाग्नि पर पकायें, जब केवल घृत ही रह जाये, उसे निकाल कर छान लें। मात्रा २ तोले घी को प्रातः सायं गाय के एक पाव दूध में मिलाकर रोगी को पिलायें। इसके प्रयोग से प्रत्येक प्रकार की बवासीर समूल नष्ट हो जाती है और मस्से भी स्वयं गिर जाते हैं।

९. - कब्ज और बवासीर - बवासीर में प्रायः कब्ज हुआ करता है। इसे दूर करने के लिये निम्न औषध का प्रयोग करें।

योग - हरड़ बड़ी (काबली) का छिलका १ छटांक, काली हरड़ १ छटांक, काली मिर्च २ तोले ले लें। पहले दोनों हरड़ों को गाय के घी में भून लेवें, फिर सब को कूट छानकर इसमें अढाई छटांक खांड मिला लें। प्रातः सायं छः माशे से एक तोले तक जल के साथ खाने से कब्ज दूर हो जाता है और बवासीर रोग भी जड़ से नष्ट हो जाता है।

१०. - मिर्चादि चूर्ण - काली मिर्च १ तोला, पीपल बड़ा २ तोले, सौंठ ३ तोले, चित्रक ४ तोले, जमीकन्द १६ तोले- सब औषधियों को बारीक कूटकर इसमें २६ तोले गुड़ मिलावें, औषध छः माशे गर्म जल के साथ प्रातः सायं प्रयोग करें। बादी बवासीर के लिये बहुत अच्छी और विचित्र औषध है।

११. - दूसरा मिर्चादि चूर्ण - मिर्च काली, पीपल बड़ा, सैंधा नमक,


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जीरा सफेद, कुठ कड़वा, बच, घी में भुनी हुयी हींग, सोंठ, बाया-बिडंग, हरड़ का छिलका, चित्रक, अजवायन प्रत्येक एक-एक तोला लें। सब को पीसकर कपड़-छान कर लें और इसमें एक वर्ष पुराना गुड़ ४८ तोले मिलावें। इसमें से ६ माशे तक गर्म जल के साथ प्रयोग करें। इसके प्रयोग से वायु और कफ की बवासीर समूल नष्ट हो जाती है।

१२. - व्यूशादि चूर्ण - काली मिर्च, सूंठ, पीपल बड़ा, चित्रक छाल, भिलावा शुद्ध, बायबिडंग, तिल, हरड़ का छिलका सबको समभाग लेकर बारीक पीस लें और सबके समान गुड़ मिलावें। मात्रा ३ माशे से छः माशे तक गर्म जल के साथ प्रयोग करें। इसके सेवन से वातार्श (बादी की बवासीर) में लाभ होता है।

१३. - रक्तार्श - काली मिर्च, कत्था सफेद, गेरु, रसौंत - सबको एक-एक छटांक लेवें और बारीक चूर्ण कर लें और तीन दिन तक कुकरौंदे (गंधीली) के रस में खरल करके तीन-तीन माशे की गोलियां बनायें। प्रातः सायं एक-एक गोली शीतल जल के साथ लेवें। अच्छी औषध है।

१४. - काली मिर्च २ माशे, जीरा १ माशा, शहद वा खाँड डेढ तोला इनको मिला लें। मात्रा २ माशे दवा जल के साथ लेने से अर्श रोग में लाभ होता है।

बादी बवासीर में कष्ट

प्रायः बादी बवासीर में बड़ा कष्ट होता है। पीड़ा के कारण बैठा नहीं जाता, चला नहीं जाता, मस्से फूल जाते हैं। कब्ज बहुत होती है। ऐसी अवस्था में दो प्याज भूबल में आधा भून लें और छिलका उतारकर कूण्डी में सोटे से रगड़ कर बारीक चटनी बना लें। इनकी टिकिया बनाकर गाय के घृत में थोड़ा भून लें। गर्म-गर्म ठकोर (सिकाई) करके पीछे मस्सों पर बाँधें, रोगी को बहुत शीघ्र लाभ होता है, अनुभूत है। रोगियों के हितार्थ लिख दी है। लाभ उठायें।

१५. - अभयारिष्ट पिलाने तथा बृहत् काशीसादि तैल मस्सों पर लगाने से बहुत लाभ होता है। लाल मिर्च खाने से बवासीर में बहुत


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हानि होती है। मूली की सब्जी अर्श रोग में अत्यन्त हितकर है। गाय की छाछ, गाय का दूध, गाय की दही और गाय का मक्खन और गोघृत सभी प्रकार के अर्श रोग में अमृत के समान है। रोगी को इनका प्रयोग अपनी प्रकृति, देश और काल देखकर प्रचुर मात्रा में करना चाहिये। ये बवासीर के रोगी के लिये अत्यन्त लाभदायक हैं अथवा यों समझिये कि ये अमृत के तुल्य हैं। बवासीर के रोगी को कोष्ठबद्धता वा कब्ज नहीं होना चाहिये। ईसबगोल की भूसी, बादाम रोगन, पञ्चगव्य घृत और अभयारिष्ट का सेवन आवश्यकतानुसार करते रहना चाहिये।

नेत्र रोग और काली मिर्च

१. काली मिर्चों को हरे भंगरे के रस में खरल करके नेत्रों पर लेप करने से आँखों की खुजली दूर होती है।

२. लेखनी चन्द्रोदयवर्ती - काली मिर्च, पीपल बड़ा, कुठ कड़वा, हरड़ का छिलका, बच, शंख की नाभि, मैनसिल शुद्ध, बहेड़े की गिरी - सबको बारीक पीसकर बकरी के दूध के साथ खरल करके जौ के समान बत्तियां बनायें। इनको पीस कर आँखों पर लगाने से रोहे, कुकुरे, फोला नाखूना, चिट्ठा और दृष्टि की न्यूनता चक्षु रोगों में लाभ होता है। अनुभूत है। उपरिलिखित औषध को बकरी के दूध के स्थान पर गोदुग्ध में भी दो, तीन दिन तक खरल करके बत्ती बनाते हैं। इसको लगाने से तीन वर्ष का फोला, रोहे और रतोंधी (रात को न दिखना) आदि रोग दूर होते हैं। यह बहुत अच्छी औषध है।

३. चन्द्रप्रभावर्त्ती - काली मिर्च, हल्दी, नीम के पत्ते, पीपल बड़ा, बायबिडंग, नागर मोथा, हरड़ का छिलका सबको सम भाग लेकर कपड़छान करके बकरी के मूत्र में दो,तीन दिन खरल करके छाया में सुखा लें और मधु में घिसकर आँखों में लगाने से धुन्ध जाला आदि रोग नष्ट होते हैं।

४. रतौंधी - काली मिर्च, कमेला, पीपल बड़ा सब सम भाग लेकर खूब बारीक पीसकर सुर्मा बनायें और आँखों में लगायें। इससे रतौंधी


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(रात को न दिखाई देने का) रोग दूर होता है।

५. काली मिर्च अपने थूक में घिस कर लगाने से रतौंधी रोग दूर होता है।

६. काली मिर्च दो, पीपल बड़ा चार, और साबुन १ माशा सबको खूब बारीक करके आँखों में लगाने से रतौंधी रोग नष्ट होता है।

७. काली मिर्च, जिन्द बदेस्तर, नकछिकनी सम भाग लेकर खूब बारीक पीसकर नसवार सुंघाने से खूब छीकें आकर मल निकलने से रतौंधी रोग दूर होता है।

८. काली मिर्च ४ माशे, चूल्हे की जली हुई मिट्टी २ माशे, फिटकड़ी भुनी हुई २ माशे, काफूर (कपूर देशी) २ रत्ती, नीम की कौंपल अढाई तोले, बकायन की कौंपल अढाई तोले - इन सबको शीशे के पात्र में डाल कर नीम के डण्डे से निरन्तर २४ घण्टे घोंटें। जब आँख में डालने योग्य सुर्मे के समान बारीक हो जाय तब शीशी में सुरक्षित रखें। नीम और बकायन की कौंपल छाया में सुखाकर डालें। यदि गीली डालें तो तब तक रगड़ें जब तक औषध सूखकर सुर्में के समान न बन जाये।

९. काली मिर्चों को कूटकर कपड़ छान कर लें और गौ की ताजी दही में घिसकर प्रातः सायं नेत्रों में डालने से रतौंधी दूर होता है।

१०. काली मिर्चों को घी में मिलाकर खाने से अनेक प्रकार के नेत्र रोग नष्ट होते हैं।

काली मिर्च वा सफेद मिर्च को भादों मास में गोघृत में मिट्टी के पात्र में भिगो देते हैं और दीपमाला तक भिगोये रखते हैं और शीतकाल में इसमें अधिक गोघृत और खाँड मिलाकर लड्डू बनाकर सारे हरयाणे में नेत्रों की दृष्टि बढ़ाने के लिए प्रायः सभी वृद्ध इनका प्रयोग करते हैं। काली मिर्च के स्थान पर सफेद मिर्च का ही प्रयोग दक्षिणी मिर्चों के नाम से करते हैं। ये दक्षिणी वा सफेद मिर्च काली मिर्च ही होती हैं जिनका छिलका उतार दिया जाता है। इनके प्रयोग से बहुत से चक्षु सम्बन्धी रोगियों को लाभ होता है।

१. नकसीर - काली मिर्च को पीसकर दही और पुराने गुड़ के


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साथ देने से नकसीर का खून बन्द हो जाता है।

२. काली मिर्च १ माशा, जल पीपल १ तोला, मिसरी दो तोले सबको ठण्डाई के समान रगड़ कर जल मिला कर पीने से नकसीर बन्द हो जाती है।

३. अतिसार - काली मिर्च १ रत्ती, हींग आधा रत्ती और अफीम पाव रत्ती - इन तीनों को मिलाकर देने से अतिसार (दस्त आना) रोग ठीक हो जाता है।

४. पागल कुत्ते का विष - काली मिर्च ५ दाने, सत्यानाशी के बीज ६ माशे इन दोनों को पीस कर तीन दिन खिलाने से पागल कुत्ते का विष दूर हो जाता है। किन्तु खटाई और तैल से वर्ष भर तक दूर रहना चाहिए।

५. दन्तपीड़ा - काली मिर्च को पोस्त के दानों के साथ उबाल कर कुल्ले करने से दांतों की पीड़ा दूर हो जाती है।

६. काली मिर्च को जल के साथ पीस कर उसका लेप करने से सूजन दूर होती है।

७. आंधाशीशी - काली मिर्च को गाय के घी में घिस कर नाक में टपकाने से आंधाशीशी (आधे शिर की पीड़ा) रोग दूर होता है।

८. हिचकी - एक मिर्च को सुई की नोक पर बींद कर उसको दीपक पर जलाऐं। जब उसमें से धुआं निकलने लगे तब उस धुएं को नाक के रास्ते से मस्तक पर चढ़ावें। इस प्रयोग से हिचकी और सिर का दर्द दूर होता है।

चर्म रोगों पर

कुष्ठादि चर्म रोगों पर मिर्च के प्रयोग निम्न प्रकार से होते हैं -

बृहत् मरीच्यादि तैल - काली मिर्च, त्रिवृत्त (निसोत), जमालगोटे की जड़, आक का दूध, गोबर का रस, देवदारु का बुरादा, हल्दी, दारू-हल्दी, जटामाँसी, कुठ कड़वा, चन्दन सफेद, इन्द्रायण की जड़, कनेर की जड़, हरताल वर्किया, मनशिला, चित्रक चाल, कलिहारी, लाख, नागरमोथा, बायविडंग, पवाड़ के बीज, सरसों, इन्द्र जौ, नीम की छाल,


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सहोंजना की छाल, थोहर, गिलोय, अमलतास, करंजवे की गिरी, कत्था, बावची, बच, मालकंगनी प्रत्येक ४-४ तोले, मीठा तैल ८ तोले, सब को जल के साथ पीस कर नुगदी बनायें। इस नुगदी से चार गुणा सरसों का तैल और तैल से चौगुणा गौमूत्र सबको इकट्ठा करके ताम्रपात्र में चढ़ायें, मन्दाग्नि पर पकायें। जब केवल तैल रह जाय तो निथार कर छान लेवें। यह तैल खुजली, दाद, चर्म-दल विचर्चिका, सिद्ध कुष्ठ सभी प्रकार के चर्म रोगों और कुष्ठ रोगों को दूर करता है। यह लगाने से लाभ करता है।

२. लघु मिर्चादि तैल - काली मिर्च, हड़ताल, मनशिल, नागरमोथा, आक का दूध, कनेर की जड़ की छाल, त्रिवृत्त, गोबर का रस, इन्द्रायण की जड़, कुठ, हल्दी, दारू हल्दी, देवदारू बुरादा, चन्दन लाल - ये सब एक-एक तोला, मीठा तेलिया ४ तोले सब गोमूत्र के साथ पीस कर नुगदी सी बनायें और इसमें १ सेर सरसों का तैल और ४ सेर गोमूत्र डाल कर नरम नरम आंच पर पकायें। जब केवल तैल ही रह जाए तो (निथार) छान कर रख लें। इसे तांबे के पात्र में पकाना चाहिये। इस तैल के लगाने से सभी प्रकार के चर्म रोग और सभी प्रकार के कुष्ठ दूर होते हैं।

३. शिरस के पत्ते २ तोले, काली मिर्च दो माशे दोनों को जल में पीस कर ठण्डाई के समान पीने से चालीस दिन में ही सर्व प्रकार के कुष्ठ दूर होते हैं।

शीतपित्त - छपाकी

१. काली मिर्च का चूर्ण ३ माशे, गोघृत दो तोले दोनों को मिला कर खाने से शीत पित्त दूर भाग जाता है।

२. काली मिर्च का चूर्ण ४ माशे, गाय का घी ६ माशे, मधु तीन तोला, तीनों को मिलाकर दिन में दो-तीन बार चटायें। रोग चला जायेगा।

३. काली मिर्च, सौंठ, पीपल बड़ा इनका बारीक चूर्ण बनायें। इसमें दुगुनी मिसरी मिला लें। ६ माशे प्रातः ६ माशे सायं जल के साथ लेने से शीत पित्त नष्ट हो जाता है।


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अर्श रोग

प्राणदा गुटिका - सोंठ १२ तोला, काली मिर्च १६ तोले, पीपल बड़ा आठ तोले, पिपलामूल १२ तोले, तालीस पत्र ४ तोले, नाग केसर २ तोले, तेजपात ७ माशे, इलायची १ तोला। सब को खूब बारीक पीस छान कर १२० तोले गुड़ में मिलायें और ६-६ माशे की गोली बनायें। भोजन के पश्चात् दोनों समय एक-एक गोली ताजे जल के साथ प्रयोग करें। इससे सब प्रकार के अर्श रोग समाप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार बृहत् स्वर्ण मोदक, अर्श कुठार रस, बृहत्कासीस आदि तैल। ये आयुर्वेदिक योग जो अर्श रोग को दूर करने के प्रसिद्ध योग हैं, इन सब में काली मिर्चें डाली जाती हैं। इस प्रकार काली मिर्च अर्श रोग में अत्यन्तोपयोगी है। संक्षेप में कुछ औषध पाठकों के लाभार्थ लिख दी गयी हैं। लाभ उठायें।

विषम ज्वर - यह ज्वर प्रायः वर्षा ऋतु में होता है। मलेरिया जूड़ी बुखार में यह काली मिर्च बहुत लाभदायक है। वात ज्वर में जब जम्भाई आती हों, देह काँपता हो, शरीर टूटता हो, मन उन्मना सा हो, शरीर में रोंगटे खड़े होते हों, पेट में पीड़ा, भारीपन और कब्ज हो तो काली मिर्च का क्वाथ अच्छा लाभ करता है।

१. क्वाथ - काली मिर्च कूट कर मोटी छलनी से छान लें और एक पाव जल में उबालें। जब चौथाई रह जाय तो शुद्ध वस्त्र में छान लें और सुहाता-सुहाता (थोड़ा गर्म) रोगी को पिलायें। इसे पिलाकर वायु से बचा कर बिस्तरे पर अच्छा वस्त्र ओढ़ा कर रोगी को लिटा देवें। प्रातः सायं सोते समय इस प्रकार दो तीन बार यह क्वाथ देवें। साधारण ज्वर होगा तो दूसरे ही दिन चला जायेगा। यदि कुछ कब्ज और वायु अधिक दूषित होने से ज्वर अधिक हो तो तीसरे या चौथे दिन ज्वर भाग जाएगा। यदि इस क्वाथ में पकाते समय तुलसी के पत्ते डाल दिये जायें तो विशेष लाभ होगा। जब पसीने आकर ज्वर उतर जाये और ९७ दरजे तक ज्वर रह जाये तो कब्ज दूर करने के लिए रोचक औषधि देवें।


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२. वायु के ज्वर में मुख का स्वाद बिगड़ कर बहुत ही बुरा हो जाता है। ऐसी अवस्था में रोगी को नींबू के टुकड़े पर काली मिर्च और लवण छिड़क कर चुसायें और कुल्ली करायें। इससे अरुचि दूर होगी और मुख का स्वाद ठीक होगा। काली मिर्च का उबाला हुआ पानी पिलायें। अथवा जल उबालने पर जो एक सेर का आधा सेर रह जाय वह रोगी को पिलायें। अरुचि को दूर करने के लिए नींबू काट कर उस पर लवण और काली मिर्च डाल कर और आग पर सेक कर चूसने से और अधिक लाभ होता है। इससे मुख का स्वाद और अरुचि का विकार ठीक हो जाता है।

विषम ज्वर

३. काली मिर्च, तुलसी के पत्ते सूखे, करंजवे की गिरी तीनों को सम भाग लेकर बारीक पीस लें। मात्रा १ माशा ताजे जल के साथ प्रतिदिन दो-तीन वार बारी के ज्वर वाले रोगी को खिलायें। दो-तीन दिन तक खाने से जाड़ा (शीत) लग कर चढ़ने वाला जवर अवश्य रुक जाता है। ज्वर का समय जब तक टल न जाय, दूध भोजनादि कुछ न लेवें।

४. काली मिर्च ४, तुलसी के पत्ते ६ माशे, पीपल बड़ा १ सब को अत्यन्त बारीक पीस कर इस में २ तोला मिसरी मिला कर आधा पाव जल मिला ठंडाई के समान पीने से तृतीयक ज्वर (तेइया) दूर हो जाता है। अत्यन्त लाभदायक अनुभूत औषध है।

५. काली मिर्च दो माशे, अफीम एक माशा, कीकर की लकड़ी का कोयला ३ माशे सब बारीक पीस कर मिला लें। रोगी की प्रकृति शक्ति आदि के अनुसार २ से ४ रत्ती तक बारी के ज्वर वाले दिन रोगी को खिलायें। निश्चय से रुक जाता है। अनुभूत है। किन्तु रोगी को बारी का समय टलने से पूर्व कुछ भी खाने को न देवें। यहां तक कि दूध भी न देवें।

६. तीन लाल मिर्चें शिला पर खूब बारीक पीस कर जल डाल कर गाढ़ा सा लेप बना कर रोगी के बांयें हाथ के अंगूठे के निकट वाली


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अंगुली पर लेप कर दें और ऊपर एक मलमल का टुकड़ा जल में भिगो कर लपेट दें, इस वस्त्र को सूखने न देवें। इस क्रिया से पहली बार ही ज्वर रुक जाता है। अधिक से अधिक यह क्रिया दो वार करनी होती है।

७. काली मिर्च दो, नौशादर ३ रत्ती खूब बारीक पीस लें और रोगी को बारी के दिन देवें, लाभदायक है।

८. काली मिर्च ६ माशे, पान के पत्ते १ तोला, धतूरे का पत्ता १ तोला सबको बारीक पीसकर एक-एक रत्ती की गोली बनायें। प्रातःकाल एक गोली, सायंकाल एक गोली गरम पानी के साथ देने से कुछ ही दिन में चौथय्या बारी का ज्वर दूर होता है।

९. काली मिर्च, हड़ताल वर्किया, चूना सफेद सब को सम भाग लेकर चार दिन तक खुश्क ही खरल करते रहें और शीशी में सुरक्षित रखें। २ रत्ती दवा मुनक्का के दाने में लपेट कर दें, ऊपर से गर्म जल पिलावें। इससे चौथय्या ज्वर दूर हो जाता है।

१०. काली मिर्च, तुलसी के सूखे पत्ते, समुद्रफल की गिरी सब सम भाग लेकर खूब बारीक पीसें। ज्वर चढ़ने से तीन घंटे पूर्व ६ रत्ती की मात्रा एक-एक घंटे के अन्तर से देवें। पहली वा दूसरी वार जवर अवश्य ही रुक जाता है।

११. काली मिर्च, करंजवे की गिरी दोनों सम भाग लेकर खूब बारीक पीस लेवें। बारी के दिन दो-दो माशे की तीन-चार मात्रायें एक-एक घंटे के अन्तर से खिलायें। बारी का ज्वर तृतीयक चतुर्थक (तेइया-चौथय्या) दूर होता है। अनुपम औषध है। यह औषध गर्भवती स्त्रियों को नहीं देनी चाहिए।

मोती ज्वर

जिस ज्वर में मोती के समान दाने निकलते हैं, और यह ज्वर चढ़ कर उतरता नहीं, हर समय चढ़े रहने के कारण इसे सन्तत ज्वर या मियादी बुखार कहते हैं। इसकी चिकित्सा बड़ी चतुराई के साथ करनी


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चाहिए क्योंकि यह कष्ट साध्य है। चिकित्सक की थोड़ी सी भूल से रोगी प्राणों से हाथ धो बैठता है।

मोती ज्वर के लक्षण

ज्वर तेज और निरन्तर रहता है। तन्द्रा, अर्ध निद्रा, मूर्छा के समान अवस्था, अचेतना, दस्तों का आना, उबकाइयाँ आना वा वमन होते रहना, प्यास अधिक लगना, जलन, नींद की कमी, मुख, गला, तालु और जिह्वा का सूखना और गले पर सरसों के समान दाने निकलना आदि मोती ज्वर (मोतीझारा) के लक्षण होते हैं। विशेष लक्षण कुछ इस प्रकार हैं। इस ज्वर के आरम्भ में प्रायः सख्त कब्ज होता है। रोगी रात को बहुत व्याकुल रहता है। भोजन में बिलकुल अरुचि रहती है, रोगी को प्यास तथा गर्मी बहुत अधिक लगती है। कभी-कभी वायु के कारण रोगी बकवास करता है, उठ-उठ कर दौड़ने लगता है। ज्वर चढ़ने के तीसरे, पांचवें, सातवें और ग्यारहवें दिन मोतियों के समान बारीक-बारीक दाने गले, कंठ, बगलों, छाती, पेट और जांघों के स्थान पर निकलते हैं। यदि चिकित्सा में भूल न हो और आरम्भ में किसी सख्त प्रकार का विरेचन न दिया हो तो ये बारीक दाने खूब निकलते हैं और ज्वर घटने लगता है और रोगी चौदहवें वा इक्कीसवें दिन ज्वर से छुटकारा पा जाता है। इस ज्वर में पसीना लाने वाली औषध देने, जुलाब देने और अन्न खिलाने से बहुत बड़ी हानि होती है।

ठीक पहिचान - जब आरम्भ में ज्वर चढ़ता है तो निश्चय से कहना सम्भव नहीं है कि इसे मोती ज्वर (मोती झारा) है या नहीं। किन्तु मेरा तथा कुछ अनुभवी वैद्यों का यह व्यक्तिगत अनुभव है कि यदि ज्वर की अवस्था में रोगी के गले (कंठ) के स्थान पर हंसली की हड्डी के निकट बीच के भाग में जो गहरा सा गढ़ा होता है उस कंठ कूप में ज्वर की तेजी और मोतीझारा की गर्मी से वहाँ की रगें अत्यन्त तेजी से गति करती हैं। उनकी गति से रगों का ऊपर की ओर उठना, उभरना, नीचे की ओर दबना बहुत शीघ्र-शीघ्र होता है। ये लक्षण केवल मोतीज्वर में


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ही पाये जाते हैं। अन्य ज्वर चाहे कितने ही तेज क्यों न हों, इस स्थान की रगों की गति इस तीव्रता से नहीं देखी गई। इससे मोतीज्वर का ठीक निश्चय हो जाता है। यह निश्चय होने पर कि मोतीज्वर है तो रोगी को अन्न देना सर्वथा बन्द कर दें। केवल १ सेर जल का पकाया हुआ आधा सेर जल रह जाये तो वह खाने-पीने को देवें। यदि भूख अधिक लगे, रोगी अधिक व्याकुल हो तो गाय का दूध उबाल कर थोड़ा-थोड़ा देवें। इसमें थोड़ा सा मीठा भी मिला सकते हैं। रोगी को अत्यन्त शुद्ध और साफ कमरे में बढ़िया सफेद बिस्तर बिछाकर लिटा दें। स्थान वायु वाला और प्रकाश युक्त होना चाहिए। यह ध्यान रखें कि वायु रोगी को सीधी और तेज न लगे। शीतकाल हो तो अंगीठी से स्थान को गर्म रक्खें। ग्रीष्म काल में स्थान को शीतल जल से धो कर ठंडा रखें। रोगी को शुद्ध श्वेत वस्त्र पहनावें। रोगी के बिस्तरे पर मोतिया, चमेली, गुलाब, चम्पा आदि सुगन्धित पुष्पों को बिछायें, मालायें पहनायें, सिरहाने पर रखें। इससे रोगी का मन प्रसन्न रहता है। रोग में भी कमी आती है अर्थात् रोग घटता है। रोगी के वस्त्र और बिस्तर दूसरे-तीसरे दिन बदल देने चाहियें। छाती की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि शीतकाल में निमोनिया होने की संभावना रहती है।

चिकित्सा

मोती ज्वर के रोगी को आरम्भ में उपवास करना चाहिए। जब मोतीझारे का निकलने का निश्चय हो जाये तो नीचे लिखे प्रयोग करें।

१. काली मिर्च ७ दाने, तुलसी के पत्ते ७, असली केसर २ रत्ती - सब को बारीक पीस कर जल के साथ ७ गोली बनायें और दिन भर में बीज सहित मुनक्का में दो तीन गोली देवें। यह औषध मोतीझारा निकलने की बहुत बढ़िया और अनुपम औषधि है।

२. मोतीझारा निकालने के लिए मृत्युञ्जय रस की एक-एक गोली दिन में दो वार बीज निकली मुनक्का में रख कर देने से बड़ा लाभ होता है। दो-तीन दिन में मोतीझारा निकल आता है।


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३. केशर कश्मीरी दो-दो चावल के बराबर दिन में एक-दो बार मुनक्का में रख कर देने से मोती दाने सरलता से निकल आते हैं।

४. मुक्ता (मोती बिना बिन्धे हुए) बिना पिसे साबित (पूर्ण) चार दाने बीज निकाली मुनक्का में रख कर रोगी को निगलवायें। मोतीझारा के लिए उत्तम औषधि है। जब मोतीझारा के दाने निकल आयें, ज्वर की तेजी समाप्त हो जाये, तब गाय के दूध का प्रयोग करायें। मोतीज्वर में अन्न खाने को भूल कर भी न दें और जुलाब (दस्त) विरेचन भूल कर भी न देवें। नहीं तो रोगी के प्राणों पर आ बनती है। यह ऊपर लिखी सावधानी सदैव बरतनी चाहिए। इसी प्रकार अनेक औषधियाँ हैं। लाभार्थ कुछ औषधियाँ लिख दी हैं, रोगी लाभ उठायें।

श्वास कास और प्रतिश्याय

ये तीनों रोग बहुत सम्बन्ध रखते हैं। प्रायः रोगी को प्रथम प्रतिश्याय होता है और फिर कास (खांसी) का नम्बर आता है और इनकी यथोचित चिकित्सा न हो तो श्वास का दौर दौरा हो जाता है। काली मिर्च वात और कफ के सभी रोगों में हितप्रद है। अब प्रतिश्याय पर काली मिर्च के प्रयोग लिखता हूँ।

१. काली मिर्च को गुड़ और दही के साथ खिलाने से पुराना जुकाम व पीनस का रोग जाता रहता है।

२. काली मिर्च ग्यारह, पीपल बड़ा ४ - इनको मोटी-मोटी कूट (यव कूट कर) लें और डेढ़ पाव जल में उबालें, जब डेढ़ छटांक जल रह जाए तो इसमें दो तोले मिसरी मिलाकर गर्म-गर्म पीकर सो जायें। इससे कफ युक्त (सर्दी का) जुकाम नजला बहुत शीघ्र दूर होगा।

३. काली मिर्च पांच, लौंग पांच, पीपल बड़ा ३ सबको जौ के समान अधकुटा कर लें और आधा सेर जल में क्वाथ कर लें। आधा पाव रहने पर छान लें। दो तोला मिसरी मिला कर गर्म-गर्म पी लें। इससे अजीर्ण से होने वाला जुकाम (कफ युक्त) नष्ट हो जाता है।

४. काली मिर्च सात, इलायची छोटी पांच (दाने या बीज), खशखश ९ माशे, बादाम की गिरी सात - सब को ठण्डाई के समान रगड़


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कर इसमें एक पाव जल मिला कर छान लें और मिसरी मिला कर प्रातः-सायं दोनों समय पीवें। इससे बहुत वेग से बहने वाला जुकाम (गर्मी पित्त का) तुरन्त दूर हो जाता है।

काली मिर्च का कल्प - जिन व्यक्तियों को सदैव नजला जुकाम बना रहता है, थोड़ी-सी ठण्डी हवा लगने पर धड़ाधड़ छींक आने लगती हैं और सदैव नाक बहता रहता है। यहां तक कि दमकशी का विकार भी तंग करता रहता है, जिसके कारण निद्रा भी नहीं आती। ऐसे रोगियों को काली मिर्च का कल्प करना चाहिए। यह प्रयोग हमारा बहुत बार का अनुभूत है। बहुत से रोगियों को इससे पूर्ण लाभ हुआ है। दिन रात तंग करने वाला जुकाम या दमकशी सर्वथा दूर हो गयी। प्रयोग इस प्रकार है -

१. काली मिर्च प्रातःकाल बिना कुछ खाए, स्नान सन्ध्यादि से निवृत्त हो कर चबा कर खायें। निगलें नहीं, ध्यान रहे, खूब चबा-चबा कर मिर्च खाने से लाभ होता है। मिर्च के चबाने के पीछे गाय का एक पाव धारोष्ण दूध अथवा गर्म करके ठण्डा किया हुआ घूंट-घूंट कर पीयें। दूसरे दिन २ काली मिर्च चबा कर खायें और ऊपर से गौदुग्ध का पान करें। यदि दूध में मीठा न डालें तो अच्छा है। यदि मीठा डाल कर दूध पीने का स्वभाव है तो थोड़ी खांड या मिश्री डाल लें। प्रतिदिन एक-एक मिर्च बढ़ाते जायें और २१ काली मिर्च तक २१ दिन में पहुंच जायें। ध्यान रहे प्रतिदिन एक मिर्च बढानी है और उन्हें खूब चबा-चबा कर खाना है। खाने से मुख जले तो बिल्कुल नहीं घबराना। दूध की मात्रा इच्छानुसार बढ़ाई जा सकती है। जितना ठीक-ठाक पच जाए उतना ही पीना चाहिए। दूध केवल गाय का ही लें, भैंस या बकरी आदि का न लें। खाली पेट प्रातःकाल ही काली मिर्च खा कर दुग्धपान करें। इस प्रकार २१ दिन २१ मिर्च खा कर एक-एक मिर्च की संख्या घटाना प्रारम्भ कर दें। अर्थात् २२वें दिन २० मिर्चें खायें। फिर प्रतिदिन एक-एक घटाते-घटाते एक मिर्च पर आ जायें। यह कार्य ४२ दिन में पूरा हो जायेगा। इस काली मिर्च और


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गौदुग्ध कल्प से रोगियों को बहुत ही लाभ पहुंचता है। प्रायः सदा रहने वाला जुकाम प्रतिश्याय और दमकशी दूर होती है। पाठक इससे लाभ उठायें।

श्वास-काल - काली मिर्च १ तोला, बहेड़े का छिलका १ तोला, कत्था सफेद ३ तोले। सब को बारीक पीस कर छान लें और बबूल (कीकर) की छाल के रस के क्वाथ में खरल करके एक-एक रत्ती की गोलियां बनायें, और ४ से ६ गोली मुंह में रख कर चूसें। इससे कफ वाली खांसी में पहले ही दिन लाभ होने लगता है।

२. मरिच्यादि वटी - काली मिर्च १ तोला, पीपल बड़ा १ तोला, यव क्षार ६ माशे, अनार का छिलका २ तोला - सब को पीस कर इस में एक साल पुराना गुड़ ८ तोला मिला कर कूट लें और दो-दो रत्ती की गोलियां बनायें। इसी प्रकार खांसी के रोग की जितनी प्रसिद्ध औषधि लवंगादि वटी, कासहर वटी, कास श्वासहर वटी, हरीतकी आदि वटी और अमृतादि वटी हैं, उन सभी में काली मिर्च डाली जाती हैं। इस प्रकार कास और श्वास रोग में काली मिर्च अमृत के तुल्य काम देती हैं। कुछ साधारण योग जिन्हें सरलता से बनाया जा सकता है, नीचे दिये जाते हैं।

पिपली आदि चूर्ण - पीपल बड़ा, काली मिर्च और अनारदाना, इन सबको खूब बारीक पीस लें। इसमें दो तोला यवक्षार और ४ तोला गुड़ मिला कर चूर्ण बना लें। मात्रा एक माशे से ३ माशे तक, गर्म जल के साथ या शहद में मिलाकर लेने से प्रत्येक प्रकार की खांसी दूर होती है।

मरिच्यादि चूर्ण - काली मिर्च १ तोला, पीपल बड़ा एक तोला, अनार का छिलका २ तोले, मिश्री आठ तोले, सब को बारीक पीस कर कपड़-छान कर लें। जब कास रोग पर कोई औषधि सफल न हो और हकीम लोग तथा डाक्टर जवाब दे दें, तो इस जादू के समान प्रभाव करने वाली औषधि का सेवन करें। यह सब प्रकार की खांसी की


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रामबाण औषधि है। इसकी मात्रा एक माशे से तीन माशे तक है। दिन में तीन-चार बार गर्म पानी या शहद के साथ मिलाकर लें।

अर्कादि वटी - आक के बिना खिले हुए फूल एक तोला, काली मिर्च एक तोला, कत्था सफेद एक तोला - सबको बारीक-बारीक पीस कर पानी के साथ आधी-आधी रत्ती की गोलियाँ बनायें। इसकी मात्रा दो-तीन गोलियाँ हैं।

चणकादि वटी - भुने हुए चनों की दाल एक तोला, काली मिर्च एक तोला, सज्जी क्षार एक तोला, सब को बारीक पीस कर अदरक के रस में खरल करके एक-एक रत्ती की गोलियां बनायें। मात्रा दिन में चार-पांच गोलियां लें। यह सब प्रकार की खांसी को दूर भगा देती है। इसी प्रकार जितने भी कास को दूर करने वाले रस हैं उनमें प्रायः सभी में काली मिर्च एक अंग के रूप में डाली जाती है। पाठकों के लाभार्थ दो-तीन प्रयोग नीचे दिये जाते हैं।

अमृत मञ्जरी रस - सिंगरफ शुद्ध, मीठा तेलिया शुद्ध, आठ काली मिर्च, सुहागा भुना हुआ और जावित्री - सब औषधियों को समभाग लेकर बारीक पीस कर नींबू के रस में खरल करके एक-एक रत्ती की गोलियाँ बनायें।

मात्रा' - प्रातः सायं एक-एक गोली गर्म जल के साथ लेने से प्रत्येक प्रकार की खांसी जाती रहती है।

कासान्तकरस - शुद्ध पारा और गन्धक की कजली २ तोले, धनियां एक तोले, शालपर्णी एक तोला, काली मिर्च ५ तोले, सब वस्तुओं को बारीक पीस कर कजली में मिला दें। यथोचित शहद मिला कर चार-चार रत्ती की गोलियां बनायें। इन गोलियों के प्रयोग से प्रत्येक प्रकार की खाँसी जाती रहती है।

रसराजवटी - शुद्ध पारे गन्धक की कजली एक तोला, मैनसिल शुद्ध ६ माशे, काली मिर्च ६ माशे, पीपल बड़ा ६ माशे - सब वस्तुओं को कपड़ छान कर के कजली मिला दें और इसे २४ घण्टे तक खरल करें। फिर उसमें पान का रस डाल कर ६ घण्टे खरल कर के एक-एक रत्ती की


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गोली बनायें। प्रातः सायं एक-एक गोली ताजे या गर्म पानी के साथ प्रयोग करने से सब प्रकार की खांसी दूर हो जाती है। खाँसी के लिए दो-चार घरेलू प्रयोग नीचे देते हैं।

१. घरेलू प्रयोग - काली मिर्च का चूर्ण जो अत्यन्त बारीक हो, ३ माशे ले लें और दो-तीन तोला गाय का घी गर्म कर के उसमें मिला कर चटायें। इससे सूखी खांसी दूर हो जाती है।

२. काली मिर्च एक माशा, सौंठ २ माशे, मधु दो तोला - इनको बारीक पीस कर मधु में अच्छी तरह मिला कर प्रातः सायं चाटने से कफ की खाँसी समूल नष्ट हो जाती है।

३. काली मिर्च एक तोला खूब बारीक पीस लें। ४ तोले गुड़ में मिला कर चार-चार रत्ती की गोलियां बनायें। इनको प्रातः सायं प्रयोग करने से प्रत्येक प्रकार की खाँसी समूल नष्ट हो जाती है।

काली खांसी

काली खांसी प्रायः छोटे बच्चों को अधिक होती है और जाने का नाम नहीं लेती। बहुत ही कष्ट देती है। डाक्टर इसे मियादी खाँसी कह कर रोगियों को टाल देते हैं क्योंकि उनके पास इसकी कोई औषधि नहीं होती।

औषधि इस प्रकार है - काली मिर्च, पीपल बड़ा और सौंठ काकड़ा सिंगी, भारंगी, हरड़ का छिलका, बहेड़े का छिलका और आँवले का छिलका, कण्टकारी छोटी, पोहकरमूल, समुद्र नमक, साँभर नमक, यवक्षार, नौसादर और लाहौरी नमक (सैंधा नमक) सब एक-एक तोला लेकर कपड़-छान कर लें। इसकी मात्रा ४ रत्ती से एक माशे तक है। दिन में दो-तीन बार गर्म जल के साथ खिलायें। इसके प्रयोग से एक ही सप्ताह के अन्दर काली खाँसी समूल नष्ट हो जाती है। एक साल के बच्चों के लिए इसकी मात्रा ४ रत्ती, ५ साल के बच्चों के लिए एक माशा और इससे बड़ी आयु वाले बच्चों के लिए डेढ़ माशा तक दी जा सकती है। यह अचूक औषधि है। प्रयोग करें और लाभ उठायें।

सामान्य रूप से काली मिर्च की मात्रा एक माशे से तीन माशे तक है।


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मधु के साथ चाटने से शीतकाल की खाँसी, कफ वाली खाँसी, श्वास और छाती की पीड़ा मिट जाती है। फेफड़ों का कफ निकल जाता है।

त्रिकुटावटी - काली मिर्च, सौंठ और पीपल तथा भुना हुआ सुहागा सम भाग लेकर पीस लें। पान का रस डाल कर तीन दिन तक खरल करके एक-एक रत्ती की गोलियां बनायें। दिन में तीन-चार गोलियां गर्म पानी या शहद के साथ ले लें। इनके प्रयोग से दमा, श्वास रोग, कफ वाली खांसी दूर हो जाती है।

२. शुद्ध आंवला सार गंधक ३ माशे, काली मिर्च ३ माशे, दोनों को बारीक पीस लें। गाय का घी एक तोला, इनको मिला कर श्वास के रोगी को चटायें। इसके प्रयोग से पन्द्रह दिन में श्वास रोग दूर हो जाता है।

३. काली मिर्च २५, आक का पत्ता एक, इनको खूब खरल करके एक-एक रत्ती की गोलियां बनायें। उनमें से ६ गोलियां गर्म जल के साथ देने से कुछ दिन में श्वास रोग दूर हो जाता है। छोटे बच्चों को एक गोली देनी चाहिए।

४. काली मिर्च और हल्दी दोनों को सम भाग लेकर बारीक पीस कर एक माशा दवा में एक माशा मिश्री और ३ माशे शहद मिला लें। कई बार प्रयोग करें। इससे श्वास के रोग दूर हो जाते हैं।

५. काली मिर्च एक तोला, अलसी भुनी हुई ३ तोले, दोनों को खूब बारीक पीस लें। ६ माशे दवा ६ तोले शहद में मिला कर चटा दें। इसके प्रयोग से श्वास रोग दूर हो जाता है।

६. काली मिर्च, एलवा, हल्दी, सज्जीक्षार सब को समभाग लें और इन सबको बारीक पीस कर अदरक के रस में जंगली बेर के समान गोलियाँ बनायें। एक गोली सायंकाल गर्म जल के साथ दें। श्वास की उत्तम औषधि है। इसी प्रकार श्वास कुठार रस, श्वास भैरव रस, फलत्रियादि वटी, श्वास घृत तथा अनेक अवलेह आदि जो आयुर्वेद के प्रसिद्ध योग हैं, इन सब में काली मिर्च डाली जाती है।


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हिचकी रोग की चिकित्सा

१. काली मिर्च, पीपल बड़ा, सौंठ, तीनों ३-३ माशे, पान की जड़ एक तोला, सबको बारीक पीस कर छान लें। इसे तीन माशे से ६ माशे तक एक तोला शहद में मिलाकर रोगी को चटायें। हिचकी की अद्वितीय औषधि है।

२. योग - हिक्कादि रस - शुद्ध पारे गंधक की कजली २ तोले, मनसिल शुद्ध एक तोला, काली मिर्च आठ तोले सब को बारीक पीस कर सुर्मे के समान बना लें। इस दवा को एक रत्ती से ४ रत्ती तक मधु में मिला कर चटायें। यह औषधि जादू के समान काम करती है। इसके प्रयोग से हिचकी बन्द हो जाती है। यह अनुपम औषधि है। यदि इसके प्रयोग से हिचकी आनी बन्द न हों तो समझ लो रोग असाध्य है। यह छोटे बच्चों के लिए आधी रत्ती से २ रत्ती तक दे सकते हैं।

प्लीहा और यकृत पर काली मिर्च

काली मिर्च, सौंठ, पीपल बड़ा, बायबिडंग, राई, चोया, (पीपलामूल), हरड़, बहेड़ा और आँवला तीनों के छिलके, अलसी, हींग घी में भुनी हुई - ये सब सम भाग लेकर कूट छान कर खूब बारीक कर लें। ३ माशे औषधि को एक माशा यव क्षार में मिला कर गर्म पानी के साथ प्रयोग करने से तिल्ली रोग को आराम आ जाता है।

२. काली मिर्च, पीपल, सौंठ और सुहाजने का छिलका इनको दो-दो माशे लेकर कूट लें और आठ तोले पानी में उबाल लें। जब दो तोले रह जाये तो एक माशा सैंधा लवण, एक माशा यवक्षार डाल कर पी लें। तिल्ली का रोग ठीक हो जाता है।

३. काली मिर्च ४ रत्ती, शंख भस्म चार रत्ती, मण्डूर भस्म एक रत्ती और नींबू का रस ६ माशे प्रतिदिन प्रयोग करने से तिल्ली और जिगर ठीक हो जाती है।

४. काली मिर्च ५ दाने, बाँझ ककोड़े की सूखी जड़ का चूर्ण ६ माशे और शहद एक तोला - इन सब को मिलाकर कुछ दिन खाने से तिल्ली ठीक हो जाती है।


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५. काली मिर्च का चूर्ण चार रत्ती, मण्डूर भस्म एक रत्ती, पीली कौड़ी की भस्म २ रत्ती - इन तीनों को मिलाकर ६ माशे शहद के साथ प्रयोग करने से यकृत के सब रोग ठीक हो जाते हैं।

६. काली मिर्च १ तोला, मण्डूर भस्म १ तोला, शंख भस्म २ तोले, काला नमक १ तोला, छोटी हरड़ घी में भुनी हुई २ तोले, सब को कूट छान लें। मात्रा - ३ माशे प्रातः सायं गोमूत्र व गर्म पानी के साथ लें। इससे यकृत के सब विकार दूर हो जाते हैं।

लाल मिर्च

पौधे पर लगे हुए लाल मिर्च के फल

भाषा भेद से नाम - संस्कृत - मिरची-फला, तीव्रशक्ति, ब्रह्म ऋचा, अजड़ा, कुमऋचा इत्यादि। हिन्दी - लाल मिरच, लंकामिर्ची। बंगाली - लंका मुरिच, लाल मिरच, लाल मिरची। गुजराती - मिरची। मराठी - मिरची, लाल मिरची। उर्दू - लाल मिरच। तमिल - मुलागे। तेलगू - गोलकोंदा, मीरापके। इंग्लिश - चिल्लीज। लेटिन - कैप्सिकम फ्रूटेसेन्स।

वर्णन

लाल मिर्च सारे भारतवर्ष में हरी हालत में तरकारी तथा अचार के लिए और सूखी हालत में मसाले के लिए उपयोग में ली जाती है। इसे सभी जानते हैं। इसलिए इसके विशेष विवेचन की आवश्यकता नहीं। इसकी तीन-चार जातियाँ होती हैं। एक जाति बहुत पतली होती है जो बहुत तेज और चरपरी होती है। दूसरी जाति उससे मोटी होती है जो जयपुर और अजमेर की तरफ पैदा होती है। यह बहुत सुर्ख होती है। परन्तु इसमें चरपरापन कुछ कम होता है। एक जाति कुछ गोलाई लिए हुए बहुत मोटी होती है। यह सिर्फ साग बनाने के काम में आती है, इसमें तेजी वा चरपरापन बिल्कुल नहीं होता।

गुण-दोष और प्रभाव - आयुर्वैदिक मत से लाल मिरची कड़वी, चरपरी, कफ निस्सारक, मस्तिष्क की शिकायतों को दूर करने वाली, स्नायविक वेदना में लाभदायक, पित्त को बढाने वाली और गुदा में जलन पैदा करने वाली होती है।

यूनानी मत - यूनानी मत से लाल मिर्च कड़वी, चरपरी, कफ


पृ० ४०

निस्सारक, मस्तिष्क की शिकायतों को दूर करने वाली, स्नायविक वेदना में लाभदायक, पित्त को बढ़ाने वाली और गुदा स्थान में जलन करने वाली होती है।

मिरची - दीपन, पाचन और आनुलोमिक होती है। बिच्छू के डंक पर इसको पानी में पीस कर लगाने से शीघ्र फायदा होता है। यहां के देसी चिकित्सक टायफस ज्वर, जलोदर, गठिया, अजीर्ण और हैजे में इसका उपयोग करते हैं। इसका बाहरी प्रयोग एक चर्मदाहक पदार्थ की तरह किया जाता है और जठराग्नि को प्रदीप्त करने के लिए इसका अन्तः प्रयोग किया जाता है।

आयुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थ आत्रेय संहिता में लाल मिरची को अग्नि-दीपक, कफ नाशक, दाहजनक और अजीर्ण, विशूचिका, दारुण व्रण, तन्द्रा, मोह, प्रलाप, स्वरभंग, अरुचि तथा कफ नाशक बतलाया है। इसके अतिरिक्त इसी ग्रंथ में इसके एक और आश्चर्यजनक गुण को बतलाया गया है। कहा गया है कि -

नरं लुप्तधरं क्षीणं सन्निपातनिपीडितम्।
नष्टेन्द्रियगणं तीक्ष्णं मृत्योराकृष्य जीवयेत्॥

अर्थात् जिसकी देखने की, सुनने की और बोलने की शक्ति नष्ट हो गई हो, जिसकी नाड़ी भी डूब गई हो। ऐसे सन्निपात के रोगी को मृत्यु के मुख में से छुड़ाकर लाल मिरची जीवनदान देती है।

लाल मिरची और हैजा - हैजे के ऊपर यह वस्तु बहुत आश्चर्यजनक प्रभाव दिखलाती है। हैजे में इसको देने का तरीका इस प्रकार है -

लाल मिरची के बीज निकाल कर उसके छिलकों को बारीक पीस कर कपड़े में छान लेना चाहिये। इस चूर्ण को शहद के साथ घोंटकर के दो-दो रत्ती की गोलियां बना कर छाया में सुखा लेना चाहिए। हैजे के रोगी को बिना किसी अनुपान के एक गोली वैसी की वैसी निगलवा देनी चाहिए। जिस रोगी का शरीर ठंडा पड़ गया हो, नाड़ी की गति डूबती जा रही हो और ठंडा पसीना चल रहा हो उसके शरीर में १० मिनट में


पृ० ४१

ठंडा पसीना बन्द हो कर गर्मी पैदा होने लगती है और नाड़ी नियमित रूप से चलने लगती है। इस रोग में हींग और कपूर के साथ भी लाल मिरची की गोली बनाकर दी जाती हैं।

हैजे से अतिरिक्त इसको सौंठ के साथ देने से उदरशूल, अजीर्ण और पेट का अफारा मिटता है। मलेरिया बुखार में इसको कुनेन या सिनकोना के साथ देने से लाभ होता है। कोचर पड़ने से अगर दाढ़ में बहुत दर्द हो रहा हो और किसी इलाज से बन्द न होता हो तो एक अच्छी पकी हुई लाल मिर्च लेकर उसके ऊपर का डंठल और भीतर के बीज निकाल कर शेष रहे हुए भाग को पानी के साथ पीस कर कपड़े में दबाकर रस निकाल लेना चाहिये। इस रस को जिस तरफ की दाढ़ दुखती हो उस तरफ के कान में दो-तीन बूंद डालने से दाढ़ का दर्द दूर हो जाता है और मिरची का रस कान में टपकाने से कुछ देर तक जलन होती है। अगर यह जलन जल्दी शान्त न हो तो थोड़ी सी शक्कर को पानी में डालकर उसकी २-३ बूंद कान में टपकाने से जलन शान्त हो जाएगी।

अगर किसी को साँप ने काट खाया हो और यह जाँच करना हो कि साँप जहरीला था वा नहीं अथवा जिस व्यक्ति पर जहर का असर हुआ होगा अथवा वह साँप विषैला होगा तो वह लाल मिरची उसको बिल्कुल चरपरी नहीं लगेगी। अगर चरपरी लगे तो समझना चाहिए कि जहर का असर नहीं हुआ। मौसम में होने वाले फोड़े-फुन्सियों पर लाल मिरची को तैल में पीस कर लगाने से वे फौरन भर जाते हैं।

लाल मिरची और प्रमेह - लाल मिरची के एक तोला बीजों में ६ तोला पानी डाल कर रात को भिगो रखना चाहिए। इस तैल की एक बूंद बतासे में लेकर दूध की लस्सी के साथ खाने से प्रमेह में बहुत लाभ होता है।

गायना में लाल मिरची का फल एक आश्चर्यजनक उत्तेजक पदार्थ


पृ० ४२

माना जाता है। इसको सिनकोना के साथ मिलाने से यह प्रथम श्रेणी का ज्वर नाशक पदार्थ हो जाता है।

शंखिया की भस्म - शुद्ध किया हुआ संखिया १ तोला लेकर उसको हरी मिरची के रस में एक दिन तक खरल करके टिकड़ी बनाकर उस टिकड़ी को छाया में सुखा लेना चाहिए। फिर कपड़मिट्टी की हुई एक हाण्डी में मिरची के पौधों को जलाकर की हुई सफेद राख आधे हिस्से तक दबा-दबा कर भर लेना चाहिए। फिर उस पर उस संखिया की टिकड़ी को रख कर उसके ऊपर भी हांडी के मुंह तक मिरची के पौधों की राख को दबा-दबा कर भर देना चाहिए। तत्पश्चात् उस हांडी को चूल्हे पर चढा कर बेर की लकड़ी की आंच देनी चाहिए। दो प्रहर (६ घंटे) तक यह आंच मंद, दो प्रहर तक मध्यम और दो प्रहर तक तीव्र रहनी चाहिए। इस छः प्रहर की आंच में संखिया की निर्धूम भस्म बन कर तैयार हो जाती है। इस भस्म को आधे चावल की मात्रा में उचित अनुपान के साथ देने से वायु, कफ और सर्दी के अनेक रोग दूर होते हैं।

उपयोग - सन्निपातिक ज्वर : लाल मिरची के बीजों का बारीक चूर्ण १० ग्रेन की मात्रा में १ औंस गर्म पानी के साथ दिन में दो-तीन वार देने से सन्निपात और मद्यपान जनित सन्निपात में आश्चर्यजनक लाभ होता है।

मिरची लाल

यह लाल मिर्ची की ही एक दूसरी जाति है।

संस्कृत - गाच मरिच। गुजराती लाल मिरच। दक्षिण - लाल मिरच। बंगाल - लाल मरिच। तामील - उस्सिमुलागें। लेटिन - कैपसिकम एनम।

गुण-दोष-प्रभाव - यूनानी मत से इस मिरची का फल कड़वा और चरपरा होता है। यह कफनिस्सारक, वेदनानाशक, खून बढ़ाने वाला


पृ० ४३

और सूजन तथा दर्द को दूर करने वाला होता है।

इस मिरची में उत्तेजक धर्म प्रधान होता है। इसका बाहरी लेप चर्मदाहक होता है। गले में होने वाले व्रण के सड़ जाने पर इसक उपयोग किया जाता है। सिंदूर ज्वर या लाल बुखार में भी यह उपयोगी होती है। साधारण गले के घाव, स्वरभंग, पित्त ज्वर, बवासीर और प्रवाहिका में भी यह लाभ पहुंचाती है।

सर्पदंश और सर्प विष की घटनाओं में इसका ताजा फल एक उत्तेजक वस्तु की तरह दिया जाता है। मेडागास्कर में इसका फल मद्यपान से पैदा हुई बेहोशी को दूर करने के लिए दिया जाता है।

मिरची गाच

Capsicum fruit.jpg

हिन्दी - गाच मिरच। गुजराती - लाल मिरची। दक्षिण - लाल मिरच। बंगाल - लंका मोरिच। अरबी - फिलफिलेहम। इंगलिश - ब्रिल्स चिल्ली। लेटिन - कैपसिकम मिनियम।

वर्णन - यह भी लाल मिरची की एक जाति होती है। यह मलाया में बहुत पैदा होती है। भारतवर्ष में भी यह कहीं-कहीं पैदा होती है।

गुण-दोष और प्रभाव - इसका फल चरपरा और उत्तेजक होता है। यह अम्लपित्त, अजीर्ण और आंतों के अन्दर सड़ाँध होने से पैदा हुए प्रवाहिका रोग और सतत (अविराम) ज्वर में पित्त से होने वाली वमन को रोकने के लिए दिया जाता है। मेडागास्कर में यह वनस्पति उत्तेजक, पाचक, मृदुविरेचक, कृमिनाशक और रक्तस्राव रोधक औषधि के रूप में बहुत उपयोग में ली जाती है।

कम्बोडिया में इस वनस्पति का उपयोग पसीना लाने वाली औषधि के रूप में अधिक होता है। कामला और यकृत की ऐसी विकृति में कि जिसके साथ सूजन भी हो, पाचन यन्त्र को उत्तेजना देने वाले पदार्थ की भांति दी जाती है।


पृ० ४४

विषूचिका वा हैजा

विषूचिका वा हैजे में वमन (कै) विरेचन (दस्त) होते हैं। यह साधारण लक्षण है, जिसको साधारण मनुष्य भी जानते हैं। किन्तु अतिसार और विषूचिका (हैजे) में क्या भेद है, यह जानना आवश्यक है। प्रायः सामान्य अतिसार (दस्तों) को हैजा समझ कर रोगी चिन्ता वा शोक के मारे मर जाता है। अतः रोगी वा चिकित्सकों को यह ध्यान रखना चाहिये कि इन दोनों में बड़ा ही अन्तर है। प्रायः बहुत वार धोखा हो जाता है। इन दोनों के दस्तों में विशेष अन्तर यह है कि विषूचिका (हैजे) के दो-तीन दस्त आने के पश्चात् जल के समान पतले हो जाते हैं और वमन में भी केवल जल ही निकलता है। साधारण दस्तों में मल (मवाद) निकलता रहता है। इसके अतिरिक्त हैजे के रोग में रोगी का मूत्र (पेशाब) निश्चय से सर्वथा बन्द होता है। इस भेद से हैजे का ठीक ज्ञान हो जाता है।

चिकित्सा

रोग के आरम्भ में दस्तों को रोकने वाली तेज औषधि नहीं देनी चाहिए, इससे ही हानि होती है। दस्त बन्द होकर पुनः बड़े जोरों से लगते हैं। जहाँ तक हो सके जल पीने को बहुत न्यून देना चाहिए। यदि रोगी प्यास के कारण बहुत व्याकुल हो तो लौंग, इलायची, पोदीना, सौंफ का क्वाथ उबाल कर छान कर ठंडा कर के पिलायें। बर्फ की डली चुसायें। गर्म पानी की बोतलें भर कर इसकी बगलों और रानों के नीचे रखें। रोगी के सेवकों को कपूर देशी और असली हींग अपने पास रखनी चाहिए और इन्हें बार-बार सूंघते रहें। अमृतधारा की दो-चार बूंदें पानी या खाँड में ले लेनी चाहिएं। घर वालों को खरबूजा, ककड़ी, आम और केला आदि फलों और कच्चे जल से बचना चाहिए। पानी उबला हुआ पीवें। घर में गूगल की धूनी तीन-चार बार देनी चाहिए। यह रोग छूत का है। यह दूसरे व्यक्तियों को लग जाता है। अतः रोगी की चिकित्सा उपचार वा सेवा बहुत सावधानी से करनी चाहिए।


पृ० ४५

गन्दे मवाद को निकालने के लिए एक गिलास गर्म पानी में १ तोला पिसा हुआ नमक डाल कर रोगी को पिला दें ताकि वमन (कै) द्वारा गन्दा मल (मवाद) निकल जाय। दस्तों को बन्द न करें। इससे अफारा होने का भय रहता है। चिकित्सार्थ औषधि नीचे लिखी जाती है।

१. मिर्चादिवटी - अत्यन्त तीक्ष्ण लाल मिर्च ५ तोले, चूना सफेद (बिना बुझा) जिसे सफेदी कहते हैं, दोनों को खूब बारीक पीस लें और नींबू के रस में इसे खरल करें। १ रत्ती से २ रत्ती तक की गोलियां बनायें। मात्रा एक-एक गोली गर्म जल या सौंफ के अर्क के साथ आध-आध घण्टे के अन्तर से देवें। जब पित्त का प्रकोप हैजे में हो तो जादू के समान प्रभावशाली और अनुपम औषध है।

२. काली मिर्च १ तोला, हींग घी में भुनी हुई १ तोला, जायफल १ तोला, नागरमोथा २ तोले, कपूर देशी १ तोला - सबको खूब बारीक पीस कर लाल मिर्च के पानी से खरल करके एक-एक रत्ती की गोली बनायें। यह अचूक तथा अत्यन्त प्रभावशाली औषधि है। इस अनुपम औषधि को आध-आध घण्टे के अन्तर से एक-एक गोली गर्म जल या सौंफ वा पोदीना के जल से देवें।

३. लाल मिर्चों का बीज १, मोम देशी दो रत्ती में मिलाकर गर्म पानी या सौंफ के अर्क के साथ निगलवा दें। इसकी दो-तीन मात्राओं से लाभ हो जाता है।

४. गाय की दही की छाछ जिसमें से मक्खन निकाल लिया गया हो इसे हैजे के रोगी को लवण, जीरा, काली मिर्च खिलाकर पिलाते रहें। भावप्रकाश में लिखा है -

हैजे की अत्यन्त बढ़ी हुई अवस्था में गाय की छाछ समान जल मिला कर पिलायें। यह इस रोग की एकमात्र ही औषधि है।

५. काली मिर्च बारह, सिरस के गीले हरे पत्ते ३ माशे जल में ठण्डाई से समान घोंट कर रोगी को पिलायें। इससे सब कष्ट दूर हो जायेगा।


पृ० ४६

६. काली मिर्च दो माशे, सौंठ दो माशे, हींग घी में भुनी हुई दो माशे, अफीम एक माशा, कपूर देशी दो माशे सबको पीस कर नींबू के रस में खरल करके मूंग के समान गोली बनायें। दिन भर में एक-एक गोली करके ६-७ गोली गर्म जल के साथ देवें। रोग दूर होगा। ऊपर वाली औषधि नींबू के रस में खरल न करके कुछ पुराना गुड़ मिला कर एक-एक रत्ती की गोली बना कर आध-आध घण्टे में गर्म जल से देने से भी पूर्ण लाभ हो जाता है।

७. लाल मिर्च दो तोले, राई ५ तोले, सैंधा नमक १ तोला खूब बारीक पीस कर नींबू के रस में खरल करके दो-दो रत्ती की गोली बनायें। ये गोलियां रोगी को आध-आध घण्टे या १५-१५ मिनट में गर्म जल या सौंफ के अर्क में देने से पूर्ण लाभ होगा।

८. लाल मिर्च दो तोला, सैंधा लवण ३ माशे को एक सेर जल में उबाल कर आधा रहने पर छान लें। इसमें से दो-दो तोले पन्द्रह-पन्द्रह मिनट में गर्म जल से देवें। अद्वितीय औषधि है, लाभ करेगी।

९. आक की जड़ का छिलका ४ तोले, आक के फूल ४ तोले, काली मिर्च ४ तोले, अकरकरहा दो तोले, काला नमक ३ तोले, लौंग दो तोले, जायफल दो तोले सब को बारीक पीस कर सुहांजने के रस में खरल करके चने के समान गोली बनायें। आध घण्टे वा पन्द्रह मिनट के पश्चात् गर्म जल से एक-एक गोली देवें। रामबाण औषधि है।

१०. काली मिर्च, हींग, सौंठ, सैंधा नमक और पीपल बड़ा सब तीन-तीन माशे लेकर बारीक पीस कर गर्म जल मिला कर रोगी के पेट पर लेप करने से हैजा और उसके विकार सब दूर हो जाते हैं।

११. काली मिर्च, अपामार्ग के पत्तों को मुख की लार (थूक) में घिस कर आंख में लगाने से हैजा नष्ट हो जाता है।

काली या जवाँ मिर्च

यह मिर्च सभी प्रकार की मिर्चों से तेज होती है। इसके पौधे हमने मुरादाबाद में प्रोफेसर सेवाराम जी के घर पर देखे थे। इसके पत्ते गहरे हरे रंग के होते हैं और तना मजबूत होता है। इस मिर्च के पौधे की लम्बाई लगभग दस फीट तक होती है, जिसे


पृ० ४७

सुन कर या पढ़ कर जल्दी विश्वास सा नहीं होता किन्तु यह सच्चाई है। फूल जामुनी रंग का होता है और तोते की चोंच की तरह नीचे को मुड़ा हुआ होता है। जैसे-जैसे उसमें फल (मिर्च) का विकास होता है उस मिर्च (फल) का रुख ऊपर को हो जाता है। जब तक यह मिर्च कच्ची रहती है इसका रंग काला रहता है और पक जाने पर इसका रंग सुर्ख (लाल) हो जाता है। सूख कर इसका आकार तिकोना हो जाता है।

यह मिर्च कितनी तेज है इसका पता लगाने के लिए मैंने इसका परीक्षण करना चाहा। अक्टूबर १९७९ में हमने आर्यसमाज गंज मुरादाबाद में वर्षा यज्ञ सम्पन्न कराया था। तब हम वहाँ चौधरी जगवीर सिंह जी के घर पर ठहरे हुए थे। मैंने उनसे हँसी में कह दिया कि यदि हमारे ड्राइवर ने उक्त मिर्च को पास कर दिया तो हम आपकी मिर्च को तेज मान लेंगे। तब उन्होंने सेवाराम जी के लड़के से वे मिर्चें जो कि आकार में जामुन जितनी लम्बी और मोटी थीं, ड्राइवर को दे दीं। उसने ठहाका मारकर कहा - वाह! क्या चीज है, एक-आध में क्या होता है? जैसे ही उसने एक मिर्च खाने के साथ खाई, वैसे ही उसने मुंह का ग्रास नाली में उलट दिया। उसकी आँखों से पानी बहने लगा और कान और गाल, लाल तथा साथ ही सुन्न हो गये। इसे देख कर स्पष्ट है कि जो हानि-लाभ लाल मिर्च के हैं, वैसे ही इसके भी जान लेने चाहियें।

मिर्चों के दोष

यहाँ काली मिर्च और लाल मिर्च आदि के गुणों का औषधि के रूप में बखान किया गया है। लाल मिर्च में विशेष रूप में कुछ भयंकर दुर्गुण हैं, जिनके कारण जो व्यक्ति उनका प्रतिदिन भोजन में मसाले के रूप में साग सब्जी में डाल कर अथवा चटनी बना कर सेवन करते हैं, वे इससे भयंकर हानि उठाते हैं। हमारे देश भारतवर्ष में लाल मिर्चों का सेवन भोजन के रूप में कोई भी नहीं करता था। जब हम दौर्भाग्य से विदेशी आक्रमणकारियों के दास बने और हमारी


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स्वतन्त्रता छिन गई, सैंकड़ों वर्ष की गुलामी के दिनों में हमने विदेशी शासकों से इनके अनेक दुर्गुण ग्रहण किए। उन्हीं से मांस भक्षण सीखा। शराब, तम्बाकू, अफीम, चरस आदि नशीली वस्तुओं का खाना-पीना भी उन्हीं से सीखा।

लाल मिर्चें, लहसुन, प्याज, शलगम, आलू, टमाटर आदि खाने भी उन्हीं से सीखे। उपरिलिखित वस्तुओं का सेवन हमने विदेशियों से ही सीखा। यह उन्हीं की देन है। प्राचीन आयुर्वेद के ग्रन्थों में इस लाल मिर्च का उल्लेख नहीं मिलता क्योंकि यह विदेश से आई हुई वस्तु है। मांसाहारी विदेशी ही इसको अपने साथ लाये। हमारी मूर्खता एवं दुर्भाग्य से यह भारतवर्ष के घर-घर में घुस गई है। लाल मिर्च अत्यन्त तीव्र, कड़वी, उत्तेजक, दाह, जलन करने वाली, फेफड़ों, आमाशय और बस्ति अर्थात् गुदा आदि मनुष्य के शरीर के अंगों के लिए अत्यन्त हानिप्रद है। अत्यन्त उत्तेजक होने से स्त्री एवं पुरुषों के ब्रह्मचर्य अर्थात् रजः और वीर्य का नाश करने वाली है। शुक्राशय में भयंकर उत्तेजना उत्पन्न करके अच्छे से अच्छे ब्रह्मचारी के पवित्र जीवन को मिट्टी में मिला देती है। इसलिए ब्रह्मचारी एवं ब्रह्मचारिणियों को, युवक और युवतियों को अथवा ब्रह्मचर्य प्रेमी गृहस्थों को कभी भूल कर भी लाल मिर्च का सेवन नहीं करना चाहिए।

भारत के बहुत प्रसिद्ध वैद्य पं० ठाकुरदत्त अमृतधारा वाले विद्यार्थियों के लिए लिखते हैं कि लाल मिर्च तो क्या काली मिर्च, गर्म मसाला, तैल की वस्तु आदि को सर्वथा छोड़ दो। जितना सादा भोजन करोगे उतने ही स्वस्थ रहोगे। इसलिए भूल कर लाल मिर्चें तो क्या, हरी मिर्चों का भी भोजन में प्रयोग नहीं करना चाहिए। इन मिर्चों का नाम यवनप्रिय है, क्योंकि विदेशी यवन मुसलमान आदि माँसाहारी लोग ही लाल मिर्चों एवं उत्तेजक पदार्थों का सेवन करते हैं। हमने उनका अन्धानुकरण करके बड़ी भारी भूल की है। इसके खाते समय मुख जलता है। पेट में जलन होती है। इनकी तीक्ष्णता के कारण आँखों


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और नाक में भी पानी आ जाता है। शौच जाते समय बस्ति अर्थात् (गुदा) में भयंकर जलन होती है। अर्थात् यह तो सब को जलाने वाली भयंकर आग है जिसे भोजन में कभी भी प्रयुक्त नहीं करना चाहिए। ये आँखों की दृष्टि के लिए अत्यन्त हानिकारक हैं। इसलिए किसी भले व्यक्ति को भूल कर भी सेवन नहीं करनी चाहिएं।


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