Brahmapura

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Author:Laxman Burdak, IFS (Retd.)

Brahmapura (ब्रह्मपुर) was site Visited by Xuanzang in 636 AD. Alexander Cunningham[1] has identified it with Lakhanpur or Vairat-pattan on the Ramganga river, about 80 miles in a direct line from Madawar.

Variants

Origin of name

History

Visit by Xuanzang in 636 AD

Alexander Cunningham[2] writes that On leaving Madawar, Hwen Thsang travelled north-ward for 300 li, or 50 miles, to Po-lo-ki-mo-pu-lo, which M. Julien correctly renders as Brahmapura. Another reading gives Po-lo-ki-mo-lo,[3] in which the syllable pu, is omitted, perhaps by mistake. The northern bearing is certainly erroneous, as it would have carried the pilgrim across the Ganges and back again into Srughna. We must therefore read north-east, in which direction lie the districts of Garhwal and Kumaon that once formed the famous kingdom of the Katyuri dynasty. That this is the country intended by the pilgrim is proved by the fact that it produced copper, which must refer to the well-known copper mines of Dhanpur and Pokhri in Garhwal, which have been worked from a very early date. Now the ancient capital of the Katyuri Rajas was at Lakhanpur or Vairat-pattan on the Ramganga river, about 80 miles in a direct line from Madawar. If we might take the measurement


[p.356]: from Kotdwara, at the foot of the hills on the north-east frontier of Madawar, the distance would agree with the 50 miles recorded by Hwen Thsang. It occurs to me, however, as a much more probable explanation of the discrepancy in the recorded bearing and distance that they must properly refer to Govisana, the next place visited by Hwen Thsang, from which Bairat lies exactly 50 miles due north.

According to the history of the country, Vairat-pattan or Lakhanpur was the ancient capital, as the Sombansi dynasty of Kumaon and the Surajbansi dynasty of Garhwal date only from the Samvat years 742 and 745, which, even if referred to the era of Vikramaditya, are posterior to the time of Hwen Thsang. I think, therefore, that Brahmapura must be only another name for Vairat-pattan, as every other capital in these provinces is of much later date. Srinagar on the Alakananda river was founded so late as S. 1415, or A.D. 1358, by Ajaya Pala of Garhwal, and is besides nearly as far from Madawar as Vairat-pattan ; while Chandpur, the earlier capital of Garhwal, is still more distant, and dates only from S. 1216 or A.D. 1159. The climate is said to be slightly cold, and this also agrees with the position of Bairat, which is only 3339 feet above the sea.

Hwen Thsang describes the kingdom of Brahmapura as 4000 li, or 667 miles, in circuit.[4] It must, therefore, have included the whole of the hill-country between the Alakananda and Karnali rivers, which is now known as British Garhwal and Kumaon, as the latter district, before the conquests of the Gorkhas, extended to the Karnali river. The boundary of this tract measured on the map is between 500 and


[p.357]: 600 miles, or very nearly equal to the estimate of the Chinese pilgrim.

लौहित्य

लौहित्य ([[AS], p.825): विजयेन्द्र कुमार माथुर[5] ने लेख किया है .....लौहित्य ब्रह्मपुत्र नदी का प्राचीन नाम है। 'कालिकापुराण' के निम्न श्लोंको में 'ब्रह्मपुत्र' या 'लोहित्य' के साथ संबद्ध पौराणिक कथा का निर्देश है- 'जातसंप्रत्ययः सोऽथ तीर्थमासाद्य तं वरम्, वीथिं परशूना कृत्वा ब्रह्मपुत्रमवाहयत्। ब्रह्मकुंडात्सुतः सोऽथ कासारे लोहिताह्वये, कैलासोपत्यकायां तुत्यापतत् ब्राह्मण: सुतः। तस्य नाम विधिश्चक्रे स्वयं लोहितगंगकम् लौहित्यात्सरसो जातो लौहित्याख्यस्ततोऽभवत्। स कामरूपमखिलं पीठमाप्लाव्य वारिणा गोपयंतीर्थाणि दक्षिणं याति सागरम।'

उपरोक्त उद्धरण से ज्ञात होता है कि पौराणिक अनुश्रृति के अनुसार 'ब्रह्मकुंड' या 'लौहित्यसर'[=मानसरोवर] से उत्पन्न होने के कारण ही इस नदी को 'ब्रह्मपुत्र' और 'लौहित्य' नामों से अभिहित किया जाता था। कैलास पर्वत की उपत्यका से निकल कर कामरूप में बहती हुई यह नदी 'दक्षिण सागर' (बंगाल की खाड़ी) में गिरती है। इसे इस उद्धरण में लोहितगंगा भी कहा गया है। इस नाम का महाभारत में भी उल्लेख है।

'ब्रह्मकुंड' या 'ब्रह्मसर' मानसरोवर का ही अभिधान है। [टि. भौगोलिक तथ्य के अनुसार ब्रह्मपुत्र तिब्बत के दक्षिण-पश्चिम भाग की 'कुवी गांगरी' नामक हिमनदी से निस्सृत हुई है। प्रायः सात सौ मील तक यह नदी तिब्बत के पठार पर ही बहती है, जिसमें 100 मील तक इसका मार्ग हिमालय श्रेणी के समानांतर है। तिब्बती भाषा में इस नदी को 'लिहांग' और 'त्सांगपो' (पवित्र करने वाली) कहते हैं। इस प्रदेश में इसकी सहायक नदियां है- 'एकात्सांगयो', 'क्यीचू' (ल्हासा इसी के तट पर है),

[p.826]: 'श्यांगचू' और 'ग्यामदा'। सदिया के निकट ब्रह्मपुत्र असम में प्रवेश करती है, जहां यह गंगा में मिलती है। वहां इसे यमुना कहते हैं। इसके आगे यह 'पद्मा' नाम से प्रसिद्ध है और समुद्र में गिरने के स्थान पर इस 'मेघना' कहते हैं। वर्तमान काल में ब्रह्मपुत्र के उदगम तक पहुंचने का श्रेय कैप्टन किंगडम वार्ड नामक यात्री को दिया जाता है। इन्होंने नदी के उद्गम क्षेत्र की यात्रा 1924 ई. में की थी।]


'महाभारत' में भीम की पूर्व दिशा की दिग्विजय यात्रा के संबंध में सुह्म देश के आगे लौहित्य तक पहुंचने का उल्लेख है- 'सुह्यानामधिपं चैव ये च सागरवासिन:, सर्वान् म्लेच्छगणांश्चैव विजिग्ये भरतर्षभः, एवं बहुविधान देशान् विजित्य पवनात्मजः वसुतेभ्य उपादाय लौहित्यगमद्बली।'महाभारत, सभापर्व 30, 25, 26.

महाकवि कालिदास ने 'रघुवंश'[4, 81] में रघु की दिग्विजय यात्रा के संबंध में प्राग्ज्योतिषपुर (=गोहाटी, असम) के राजा के, रघु के लौहित्य को पार कर लेने पर भयभीत होने का वर्णन किया है- 'चकम्पे तीर्णलौहित्येतस्मिन् प्राग्ज्योतिषेश्वर: तद्गजालानतां प्राप्तैः सहकालागुरुद्रुभैः।'

उपरोक्त श्लोक में लौहित्य नदी के तटवर्ती प्रदेश में कालागुरु के वृक्षों का वर्णन कालिदास ने किया है, जो बहुत समीचीन है। कभी-कभी इस नदी की उत्तरी धारा को, जो उत्तर असम में प्रवाहित है, लौहित्य और दक्षिणी धारा को, जो पूर्व बंगाल (पाकिस्तान) में बहती है, 'ब्रह्मपुत्र' कहा जाता था। बह्मपुत्र का अर्थ 'ब्रह्मसर' से और लौहित्य का अर्थ 'लोहितसर' से निकलने वाली नदी है। शायद नदी के अरुणाभ जल के कारण भी इसे लौहित्य कहा जाता था। लौहित्य नदी के तटवर्ती प्रदेश को भी लौहित्य नाम से अभिहित किया जाता था। उपर्युक्त महाभारत, सभापर्व [30, 26] में लौहित्य, नदी के प्रदेश का भी नाम हो सकता है।


पांडुवाला

विजयेन्द्र कुमार माथुर[6] ने लेख किया है ... पांडुवाला (AS, p.539) हरिद्वार से प्राय 10 मील पूर्व और मुंढाल से 6 मील पर यहां एक प्राचीन नगर के खंडार हैं. कनिंघम ने पुरातत्व विभाग की ओर से 1891 ई. की रिपोर्ट में इस स्थान को ब्रह्मपुर राज्य की राजधानी माना है जहां चीनी यात्री युवानच्वांग, 630 ई. के लगभग आया था.


डबराल[7] ने लिखा कि ब्रह्मपुर का बाड़ाहाट या श्रीनगर होने में सबसे बड़ा विपक्षी तर्क है कि इन नगरों के पास कोई नाग मंदिर नहीं हैं जिसकी पहचान अनंतनाग अवतार वीरणेश्वर से की जाय। केदारखंड पुराण अनुसार (123 /10) पांडुवाला सोत निकट अनंत नाग अवतार लक्ष्मण ने तपस्या की थी व महाभारत आदि पर्व (75/6) अनुसार कनखल नरेश दक्ष पत्नी का नाम वीरिणी था। डबराल ने लिखा कि इस नाम से संबंध जोड़ा जा सकता है। इतिहासकार डबराल को पांडुवाला सोत की खुदाई से कुछ पात्र मिले थे जो पुरात्व विभाग ने चौथी सदी के निर्धारित किये। याने चौथी सदी में पांडुवाला सोत में वस्ति थी। अतः माना जा सकता है कि युवानच्वांग यात्रा समय पांडुवाला सोत में वस्ती थी। तर्क अनुसार पांडुवाला सोत वास्तव में चंडीघाट से गोविषाण मार्ग पर भी सही बैठता भी है। पांडुवाला सोत हरिद्वार-कोटद्वार मार्ग पर लालढांग के निकट है.

मुंढाल

विजयेन्द्र कुमार माथुर[8] ने लेख किया है ...मुंढाल (AS, p.749), जिला सहारनपुर, उ.प्र. में हरिद्वार से 6 मील पूर्व में स्थित है. इसका वर्णन जनरल कनिंघम ने 1866 ई. में किया था. उस समय यहां एक देवालय था जो 20 फुट चौड़े चबूतरे पर अवस्थित था. इसके चतुर्दिक एक परिखा थी. चारों कोनों पर परिखा की समाप्ति शीर्षों के रूप में होती थी. दक्षिण में कलशवाहिनी की मूर्ति थी. पश्चिम में सिंह और उत्तर में मेष की मूर्तियां थीं. पूर्व का कोना खंडित अवस्था में था. देवालय के पास जंगल में अनेक शिलाएँ बिखरी हुई थी जो कभी स्तंभों के खंड सिरदल आदि रही होंगी. अब इस देवालय के स्थान पर वन विभाग का विश्रामगृह है जो उसी के पत्थरों से निर्मित है. इसमें मंदिर की कई मूर्तियां रखी हैं. इस स्थान से 4 मील पूर्व की ओर एक प्राचीन नगर के अवशेष हैं जिसका वर्तमान नाम पांडुवाला है. कनिंघम ने इस स्थान को ब्रहमपुर राज्य की राजधानी माना है जहां चीनी यात्री युवानच्वांग आया था. ( देखें पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट 1891)

References