Dvarasamudra

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Dvarasamudra (द्वारसमुद्र) was an ancient of town of which present name is Halebid or Halebidu, a town located in Hassan District, Karnataka, India.

Variants

History

Halebidu (which used to be called Dorasamudra or Dwarasamudra) was the regal capital of the Hoysala Empire in the 12th century. It is home to some of the best examples of Hoysala architecture. Most notable are the ornate Hoysaleshwara and Kedareshwara temples. The city got the name "Halebidu" because it was damaged and deserted into "old capital" after being ransacked and looted twice by Islamic forces of the Delhi Sultanate in the 14th-century.[1][2][3]

The town is known for its temple complexes: Hinduism - 1. Hoysaleshwara temple, 2. Kedareshwara temple

Jainism - 1. Parshvanatha Basadi, 2. Shantinatha Basadi

द्वारसमुद्र

विजयेन्द्र कुमार माथुर[4] ने लेख किया है ...द्वारसमुद्र (AS, p.460) आधुनिक हैलविड का प्राचीन नाम था। यह होयसल वंश के राजाओं की राजधानी था, जो वर्तमान कर्नाटक क्षेत्र पर शासन करते थे। इस राजधानी की स्थापना 'बिहिग' ने की थी, जो बाद में विष्णुवर्धन (लगभग 1111 से 1114 ई.) के नाम से विख्यात हुआ। यह नगर वैष्णव धर्म का एक प्रमुख केन्द्र था। विख्यात वैष्णव संत रामानुज को विष्णुवर्धन का ही संरक्षण प्राप्त था। इस राजा ने कई भव्य विष्णु मन्दिरों का निर्माण करवाया था। द्वारसमुद्र में बना विष्णु मन्दिर अपने सौंदर्य और कला के लिए बहुत विख्यात हुआ। किसी समय द्वारसमुद्र का राज्य देवगिरि तक फैला हुआ था। 1326 ई. में सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ की मुस्लिम सेना ने इस नगर को लूट-पाट करके बरबाद कर दिया।

हालेबिड़

विजयेन्द्र कुमार माथुर[5] ने लेख किया है ... हलेबिड (AS, p.1019) होयसल वंश की राजधानी द्वारसमुद्र का वर्तमान नाम हलेबिड है, जो कर्नाटक के हसन ज़िले में है। हलेबिड की ख्याति इसकी स्थापत्य की विरासत के कारण है। हलेबिड के वर्तमान मन्दिरों में होयसलेश्वर का प्राचीन मन्दिर विख्यात है।

[p.1020]: संभवत: 1140 ई. में यह मंदिर बनना प्रारंभ हुआ था. यह मन्दिर वास्तुकला का अत्यंत उल्लेखनीय नमूना है। बेलूर के मंदिर की भाँति ही इसके भित्ति पर चतुर्दिक सात लंबी पंक्तियों में अद्भुत मूर्तिकारी की गई है.मूर्तिकारी में तत्कालीन भारतीय जीवन के अनेक कलापूर्ण दृश्य जीवित हो उठे हैं।

होयसल नरेश नरसिंह प्रथम (1152-1173 ई.) के समय लोक निर्माण के मुख्य अधिकारी केतमल्ल की देख रेख में शिल्पकार केदरोज ने इस शानदार मन्दिर का नक्शा बनाया तथा निर्माण कराया। अगले सौ वर्षों तक काम होने के पश्चात 1240 ई. में भी इसका निर्माण होता रहा। अश्वारोही पुरुष, नव-यौवन का श्रृंगार कक्ष, पशु-पक्षियों तथा फूल-पौधों से सुशोभित उद्यान इत्यादि के उत्कीर्ण चित्र यहाँ के कलाकारों की अद्वितीय रचनाएँ हैं। इस प्रकार मन्दिर की बाहरी दीवारों पर उत्कीर्ण असंख्य मूर्तियों के कारण यह मन्दिर विश्व का सबसे अद्भुत स्मारक तथा मूर्तियों के रुप में प्रकट धार्मिक विचार का अद्वितीय भण्डार बन जाता है। यह दोहरा मन्दिर है। यह मन्दिर शिखर रहित है। विष्णुवर्धन पहले जैन संप्रदाय का अनुयायी था किन्तु रामानुजाचार्य के प्रभाव से 1117 ई. में उसने वैष्णव धर्म अंगीकार कर लिया.

हालेबिड़ का दूसरा मंदिर कैटभेश्वर विष्णु का है जो अब जीर्ण-शीर्ण हो गया है. यह चालुक्य वास्तु शैली में निर्मित है. इसका आधार भी ताराकार है. प्राचीन समय में इस मंदिर की गणना चालुक्य-वास्तुकला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरणों में की जाती थी. हालेबिड़ जैनों का भी विख्यात तीर्थ है. 1133 में बोप्पा ने यहां अपने पिता गंगराज की स्मृति में 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का मंदिर बनवाया था. इसमें तीर्थंकर की 14 फुट ऊंची प्रतिमा है. इस मंदिर के 14 स्तंभ कसौटी पत्थर के बने हैं. एक अन्य मंदिर में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की मूर्ति है. 1138 में हेगड़े मल्लीमाया ने बनवाया था. तृतीय जैन मंदिर 1204 ई. का है. इसमें भगवान शांतिनाथ की 14 फुट ऊंची मूर्ति प्रतिष्ठित है. कहा जाता है कि किसी समय हालेबिड़ में 700 जैन मंदिर थे.

External links

References

  1. Robert Bradnock; Roma Bradnock (2000). India Handbook. McGraw-Hill. p. 959. ISBN 978-0-658-01151-1.
  2. Catherine B. Asher (1995). India 2001: Reference Encyclopedia. South Asia. pp. 29–30. ISBN 978-0-945921-42-4.
  3. Joan-Pau Rubiés (2002). Travel and Ethnology in the Renaissance: South India Through European Eyes, 1250-1625. Cambridge University Press. pp. 13–15. ISBN 978-0-521-52613-5.
  4. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.460
  5. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.1019