Dundiya Khera

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Author:Laxman Burdak, IFS (Retd.)

Dundiya Khera (डूंडिया खेड़ा) (Dudiya Khera, Dudiya Kheda, Dundiya Kheda) is a village in tahsil .... of Unnao district in Uttar Pradesh. It was the capital of Bais clan descendants of Harshavardhana after his death which continued up to 1857.[1]

Jat Gotras

Location

History

According to the traditions of the community, Baiswar are a branch of Bais Rajputs of Dundiya Khera. Their ancestors were two brothers who fled Dundiya Khera to escape a Rajah, with whom they had fallen out with. They fled to Rewa in what is now Madhya Pradesh. Over time, his descendents moved into the districts of Sonbadhra and Mirzapur. A small number migrated to Varanasi District in the 19th Century. There homeland is in a hilly forested terrain, inhabited mainly by tribal communities such as the Bind and Chero.

Alexander Cunningham[2] writes that At the time of Hwen Thsang's visit, Kanoj was the capital of Raja Harsha Vardhana, the most powerful sovereign in Northern India. The Chinese pilgrim calls him a Fei-she, or Vaisya, but it seems probable that he must have mistaken the Vaisa, or Bais Rajput for the Vaisya, or Bais, which is the name of the mercantile class of the Hindus ; otherwise Harsha Vardhana's connection by marriage with the Rajput families of Malwa and Balabhi would have been quite impossible. Baiswara, the country of the Bais Rajputs, extends from the neighbourhood of Lucknow to Khara-Manikpur, and thus comprises nearly the whole of Southern Oudh. The Bais Rajputs claim descent from the famous Salivahan, whose capital is said to have been Daundia-Khera, on the north bank of the Ganges. Their close proximity to Kanoj is in favour of the sovereignty which they claim for their ancestors


[p.378]: over the whole of the Gangetic Doab, from Delhi to Allahabad. But their genealogical lists are too imperfect, and most probably also too incorrect, to enable us to identify any of their recorded ancestors with the princes of Harsha Vardhana's family.

According to Alexander Cunningham Hayamukha was one of the Buddhist places visited by Xuan Zang in 636 AD. The place was situated between Ayuto and Prayaga. Alexander Cunningham has identified Hayamukha with Daundia-khera.[3]

हर्षवर्धन (606-647 ई०)

दलीप सिंह अहलावत[4] ने डूंडिया खेड़ा का लेख किया है:

हर्षवर्धन राज्यवर्द्धन की मृत्यु के पश्चात् 606 ई० में विद्वानों के कहने पर 16 वर्ष की आयु में राजसिंहासन पर बैठा। यह बड़ा वीर योद्धा एवं साहसी था। इस समय उसके सामने सबसे बड़ी समस्या अपने बहिन राज्यश्री को मुक्त कराने तथा शशांक से अपने भाई की मृत्यु का बदला लेना था। इसके लिए वह एक विशाल सेना लेकर चल पड़ा। उसे ज्ञात हुआ कि राज्यश्री शत्रुओं के चंगुल से मुक्त होकर विन्ध्या के वनों में चली गई है। सौभाग्य से उसे राज्यश्री मिल गयी जो उस समय चिता में सती होने की तैयारी कर रही थी। हर्षवर्धन उसे घर ले आया। ग्रहवर्मन का कोई उत्तराधिकारी न होने के कारण हर्ष ने कन्नौज के राज्य को अपने राज्य में मिला लिया और इसको अपनी राजधानी बनाया।

हर्ष की विजय -

ह्यूनसांग के वृत्तान्त तथा बाण के हर्षचरित से उसके निम्नलिखित युद्धों एवं विजयों का ब्यौरा मिलता है -


1, 2. जाट इतिहास उर्दू पृ० 356 लेखक ठा० संसारसिंह।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-244


  1. बंगाल के राजा शशांक को युद्ध में हराया और उसके प्रदेश को अपने राज्य में मिला लिया।
  2. पांच प्रदेशों की विजय - 606 ई० से 612 ई० तक हर्ष ने पंजाब, कन्नौज, बंगाल, बिहार और उड़ीसा को युद्ध करके जीत लिया। इन विजयों से इसका राज्य लगभग समस्त उत्तरी भारत में विस्तृत हो गया।
  3. बल्लभी अथवा गुजरात की विजय - हर्ष के समय ध्रुवसेन द्वितीय (बालान गोत्र का जाट) बल्लभी अथवा गुजरात का राजा था। हर्ष ने उस पर आक्रमण करके उसको पराजित किया परन्तु अन्त में दोनों में मैत्री-सम्बन्ध स्थापित हो गये। हर्ष ने प्रसन्न होकर अपनी पुत्री का विवाह उससे कर दिया।
  4. पुलकेशिन द्वितीय (अहलावत जाट) से युद्ध - ह्यूनसांग लिखता है कि “हर्ष ने एक शक्तिशाली विशाल सेना सहित इस सम्राट् के विरुद्ध चढाई की परन्तु पुलकेशिन ने नर्वदा तट पर हर्ष को बुरी तरह पराजित किया। यह हर्ष के जीवन की पहली तथा अन्तिम पराजय थी। उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमा नर्वदा नदी तक ही सीमित रह गई। इस शानदार विजय से पुलकेशिन द्वितीय की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई और उसने ‘परमेश्वर’ की उपाधि धारण की। यह युद्ध 620 ई० में हुआ था।”

हर्ष ने सिंध, कश्मीर, नेपाल, कामरूप (असम) और गंजम प्रदेशों को जीत लिया था। इन विजयों के फलस्वरूप सारा उत्तरी भारत हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्वदा नदी तक तथा पूर्व में असम से लेकर पश्चिम में सिंध, पंजाब एवं बल्लभी अथवा गुजरात तक हर्ष के अधीन आ गये। उसके साम्राज्य में बंगाल, बिहार, उड़ीसा, मालवा, बल्लभी, कन्नौज, थानेश्वर और पूर्वी पंजाब के प्रदेश शामिल थे। राहुल सांकृत्यायन अपनी पुस्तक ‘वोल्गा से गंगा’ पृ० 242-43 पर लिखते हैं कि “सम्राट् हर्षवर्धन की एक महाश्वेता नामक रानी पारसीक (फारस-ईरान) के बादशाह नौशेखाँ की पोती थी और दूसरी कादम्बरी नामक रानी सौराष्ट्र की थी।”

हर्ष एक सफल विजेता ही नहीं बल्कि एक राजनीतिज्ञ भी था। उसने चीन तथा फारस से राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित कर रखे थे। हर्ष एक महान् साम्राज्य-निर्माता, महान् विद्वान् व साहित्यकार था। इसकी तुलना अशोक, समुद्रगुप्त तथा अकबर जैसे महान् शासकों से की जाती है। हर्षवर्धन की इस महत्ता का कारण केवल उसके महान् कार्य ही नहीं हैं वरन् उसका उच्च तथा श्रेष्ठ चरित्र भी है। हर्ष आरम्भ में शिव का उपासक था और बाद में बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया था। इसकी कन्नौज की सभा एवं प्रयाग की सभा बड़ी प्रसिद्ध है। हर्ष हर पांचवें वर्ष प्रयाग अथवा इलाहाबाद में एक सभा का आयोजन करता था। सन् 643 ई० में बुलाई गई सभा में ह्यूनसांग ने भी भाग लिया था। इस सभा में पांच लाख लोगों तथा 20 राजाओं ने भाग लिया। इस सभा में जैन, बौद्ध और ब्राह्मण तथा सभी सम्प्रदायों को दान दिया गया। यह सभा 75 दिन तक चलती रही। इस अवसर पर हर्ष ने पांच वर्षों में एकत्रित किया सारा धन दान में दे दिया, यहां तक कि उसके पास अपने वस्त्र भी न रहे। उसने अपनी बहिन राज्यश्री से एक पुराना वस्त्र लेकर पहना। चीनी यात्री ह्यूनसांग 15 वर्ष तक भारतवर्ष में रहा। वह 8 वर्ष हर्ष के साथ रहा। उसकी


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-245


पुस्तक सि-यू-की हर्ष के राज्यकाल को जानने का एक अमूल्य स्रोत है।

हर्षवर्धन ने विशाल हरयाणा सर्वखाप पंचायत की स्थापना की। इसके लेख प्रमाण चौ० कबूलसिंह मन्त्री सर्वखाप पंचायत गांव शोरम जि० मुजफ्फरनगर के घर में हैं। सन् 647 ई० में इस प्रतापी सम्राट हर्षवर्धन का निस्सन्तान स्वर्गवास हो गया और उसका साम्राज्य विनष्ट हो गया।

इनसे मिलने के लिये आने वाला वंगहुएंत्से के नेतृत्व में चीनी राजदूतदल मार्ग में ही था कि उत्तराधिकारी विहीन वैस साम्राज्य पर ब्राह्मण सेनापति अर्जुन ने अधिकार करने के लिए प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया किन्तु वंगहुएंत्से ने तिब्बत की सहायता से अर्जुन को बन्दी बनाकर चीन भेज दिया।

डूंडिया खेड़ा - सम्राट् हर्षवर्धन के वंशधरों की सत्ता कन्नौज से समाप्त होने के पश्चात् डूंडिया खेड़ा में स्थिर हुई। वहां प्रजातन्त्री रूप से इनकी स्थिति सन् 1857 ई० तक सुदृढ़ रही। दशवीं शताब्दी में अवध में सत्ताप्राप्त वैस लोगों ने अपने आप को राजपूत घोषित कर दिया। इन लोगों से अवध का रायबरेली जिला भरा हुआ है। जनपद के रूप में इनका वह प्रदेश वैसवाड़ा के नाम पर प्रसिद्ध है। वैस वंशियों की सुप्रसिद्ध रियासत डूंडिया खेड़ा को अंग्रेजों ने इनकी स्वातन्त्र्यप्रियता से क्रुद्ध होकर ध्वस्त करा दिया था। इसके बाद वैसवंश का महान् पुरुष सर राजा रामपालसिंह कुर्री सुदौली नरेश था।

कुर्री सुदौली के अतिरिक्त फर्रूखाबाद के 80 गांव, जि० सीतापुर, लखनऊ, बांदा, फतेहपुर, बदायूँ, बुलन्दशहर, हरदोई और मुरादाबाद के कई-कई गांव राजपूत वैसों के हैं।

पंजाब में वैसों की संख्या अवध से भी अधिक है जो कि सिक्खधर्मी हैं। श्रीमालपुर जो हर्ष के पूर्वजों का निवासस्थान है और उसके समीप 12 बड़े गांव जाटसिक्ख वैसों के हैं। जालन्धर, होशियारपुर, लुधियाना जिलों में जाटसिक्ख वैसों के कई गांव हैं।

फगवाड़ा से 7 मील दूर वैसला गांव से हरयाणा और यू० पी० के वैस जाटों का निकास माना जाता है। लुधियाना की समराला तहसील मुसकाबाद, टपरिया, गुड़गांव में दयालपुर, हिसार में खेहर, लाथल, मेरठ में बहलोलपुर, विगास, गुवांदा और बुलन्दशहर में सलेमपुर गांव वैस जाटों के हैं। यह सलेमपुर गांव सलीम (जहांगीर) की ओर से इस वंश को दिया गया था। फलतः 1857 ई० में इस गांव के वैसवंशज जाटों ने सम्राट् बहादुरशाह के समर्थन में अंग्रेजों के विरुद्ध भारी युद्ध किया। अंग्रेजों ने इस गांव की रियासत को तोपों से ध्वस्त करा दिया। बिहार के आरा जिले के विशनपुरा के वैस प्रान्तभर में प्रसिद्धि प्राप्त हैं। छपरा में भी कुछ गांव वैस राजपूतों के हैं।

Population

Notable Persons

External Links

References


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