Father F.X. Wendel

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Author of this article is Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल
Wendel's Memoirs.jpg

Father Francois Xavier Wendel (François Xavier Wendel) (1732-1803), was a French missionary who was actually engaged by the British for spying in northern India in the guise of a religious preacher, had stayed in areas near Bharatpur for more than a year. He wrote some features in French (English title : “Wendel’s Memoirs on the Origin, Growth and Present State of Jat Power in Hindustan – 1768”). Although not all the findings of Wendel are true (due to his poor knowledge of Indian society), nevertheless, his papers highlight some important facts. Dr. Vir Singh has translated some of Wendel's articles in Hindi and has published it in the book “HINDUSTAN MEIN JAT SATTA (हिन्दुस्तान में जाट सत्ता) which was published by Surajmal Sansthan, Janakpuri, New Delhi, in 2001.

Wendel's observatgions about Badan Singh

Sir Jadunath Sarkar writes -

The Jat policy followed by Jai Singh's wise statesmanship after the decisive victory of 1722 is finely described by Father F.X. Wendel, a Belgian Jesuit of Agra, who supplied a history of the Jats, the result of his inquiries at Bharatpur, to his patrons, the English Government in Calcutta. It is preserved in a French manuscript of the Indian Office Library, London. This highly capable observer writes:

First of all, Badan Singh followed the path of suppleness in getting into the good graces of Sawai Jai Singh and securing him as a protector. His manners were so humble and submissive and his conduct so obliging, that Jai Singh was quite won over and began to take a special delight in favouring this man, whom he had raised from the dust and whose greatness, he felt, would shed reflected lustre on his patron. Jai Singh bestowed on Badan the tika, the nishan, the kettledrum, the five-colouredflag, and the title of Braj-raj (or lord of the holy land of Mathura), so as to give him authority among the Jats at home and to entitle him to greater respect abroad. But Badan Singh very astutely abstained from assuming the title of Rajah, and throughout life represented himself publicly as a mere Thakur or baron of the Rajah of Jaipur. He did homage solely to the Rajah of Jaipur, acknowledging himself as that Rajah's vassal and attending his Dasahara darbar every year till old age curtailed his movements. Outside Jaipur he built a mansion, a garden and other houses for himself at a village assigned to him by Sawai Jai Singh and named Badanpura.[1]

Wendel's short write up on Maharaja Surajmal

Reproduced below are a few paragraphs from the “HINDUSTAN MEIN JAT SATTA (हिन्दुस्तान में जाट सत्ता), on the happenings just before the Third Battle of Panipat, depicting the greatness and farsightedness of Maharaja Surajmal.

Source of Jat History

From History of the Jats:Dr Kanungo/Bibliography, p.215

3. Memoires de l' origine, acroissement, et etat present de puissance des Jats dans l' Indostan. (Orme MSS. O.V., 216 No. 2, pp. 86 + 86; a second copy in India XV. No. 11, pp. 150).

Mr. S.C. Hill ascribes its authorship to Father Francois Xavier Wendel, who lived in India from 1751 till his death in 1803, and resided for several years at Agra. He is frequently referred to in the Calendar of Persian Correspondence (of the English E.I.Co.) He was in high favour with the Bengal Government and sincerely devoted to the English interests.6 We find him acting as the agent of the English at Lucknow after the flight of Mir Qasim from Bengal.

We do not know what made the Reverend Father repair to the Jat country, accept service under Jawahar Singh as his political adviser, and stay at Deeg till the death of that Raja. The fact that he went there shortly after the flight of Samru to the Court of Jawahar Singh leads us to suspect that he was in the pay of English and that his real object was to keep the Bengal Government informed of any hostile designs of the powerful and ambitious Jat Raja,who held the balance of power in Northern India between the Abdali and the Maratha.

The Father set about collecting information about Jat history, administration and manners at Deeg, and wrote this long account, which is of priceless value as regards the fullness and authenticity of its information on most points. My


6. See esp. his letter from Lucknow, 12 Nov. 1763 in Pers. Corr. i. 263.


[p. 216]: chapters on Suraj Mal and Jawahar Singh owe their detail and freshness to this French manuscript.

The most astonishing assertion which he makes,- apparently on hearsay, - is that Suraj Mal was not at all the son of Badan Singh. He has also cast some doubt on the birth of Jawahar Singh, which was probably based on a mischievous rumour started by the malicious Jat nobles who wanted to set the eldest prince aside from the throne of Bharatpur.

सदाशिव भाऊ का अभियान

(Page 151 to 154) सदाशिव भाऊ का अभियान (1760)

उसी समय दक्षिण से प्रख्यात भाऊजी के सेनापतित्व में आ रही मराठों की विशाल सेना निकट आ पहुंची और शाह को स्वयं अपने बचाव की चिन्ता पड़ गई । उसे जाटों की ओर ध्यान देने की अधिक फुरसत ही न रही; उसे तब मराठों का डर था, जो आक्रमण के लिए दृढ़संकल्प से भरे आ रहे थे और वस्तुतः जिनके पास इतनी सैन्यशक्ति थी कि यदि सारा काम ठीक ढंग से किया जाता, तो शाह को हराने के लिए यथेष्ठ थी । बड़े उपयुक्त समय पर मराठों के इस आगमन से जाटों का संकट कुछ समय के लिए टल गया, परन्तु वह समाप्त नहीं हुआ, जैसा कि हम शीघ्र ही देखेंगे । जब से मराठों ने हिन्दुस्तान (उत्तर भारत) में पांव रखा था, तब से वे कभी भी न तो इतनी बड़ी संख्या में आए थे और न इतने शक्तिशाली रहे थे जितने कि अब आ रहे थे । भाऊ अपनी बहुत शक्तिशाली सेना का नेतृत्व इस संकल्प के साथ करने आया था कि वह अब्दालियों को न केवल इस देश से, जिस पर उन्होंने चढ़ाई की है, अपितु स्वयं उनके अपने देश से भी खदेड़कर बाहर कर देगा । यह भी दिखाई पड़ता है कि यद्यपि उसका यह सैनिक अभियान जनकोजी और दत्ताजी पटेल की पराजय का बदला लेने के लिए हुआ था, परन्तु उसके इरादे इसके अतिरिक्त कुछ और भी थे । क्योंकि शाह दुर्रानी ने सब बड़े मुसलमान सरदारों का संगठित हो जाने के लिए आह्वान किया था, इसलिए भाऊ ने खुले तौर पर उन्हें धमकी दी कि पठानों का काम तमाम करने के बाद वह उनमें से भी किसी को माफ नहीं करेगा । पठानों की पराजय को तो वह सुनिश्चित ही मानता था । सूरजमल को जितना भय अब्दालियों से था, उससे कुछ कम जोखिम मराठों से नहीं था । इसलिए संभव था कि वह इस संशय में पड़ जाता कि वह किस पक्ष का साथ दे और इस प्रकार की संकटपूर्ण स्थिति को किस प्रकार पार करे । परन्तु भाऊ ने इसका अवसर ही नहीं दिया ।

साथ देने के लिए भाऊ का सूरजमल को निमंत्रण

ज्यों ही उसकी सेना जाट-राज्य क्षेत्र की सीमा पर पहुंची, त्यों ही उसने दो टूक शब्दों में सूरजमल को संदेश भेजा कि वह मराठों के पक्ष में सम्मिलित होने की घोषणा में विलम्ब न करे और अपनी सारी सेना साथ लेकर तत्काल आगे आए और इस आयोजित सैनिक अभियान में उसके साथ चले । उसके सम्मुख दुविधा में पड़े रहने या मुंहतोड़ उत्तर देने का भी कोई उपाय नहीं था । भाऊ बहुत अभिमानी था और साथ ही शक्तिशाली भी, इसलिए उसका सम्मान किए बिना भी गुजारा नहीं था । इसके अतिरिक्त, इतनी विशाल सेना यदि जाटों के राज्य क्षेत्र के बीच में होकर गुजरने ही लगती, तो केवल उतने से ही इतनी भारी और अपूरणीय क्षति हो जाती कि उससे बचाव के लिए जाटों को विवश होकर कुछ प्रयत्न करना ही पड़ता ।

सूरजमल भाऊ के साथ दिल्ली तक गया (जुलाई 1760)

इसलिए सूरजमल ने भाऊ के साथ चल पड़ने में तनिक भी आनाकानी नहीं की । उसने कूच करती हुई सेना के लिए प्रचुर मात्रा में रसद दी और अपनी 6000 से 7000 तक सेना लेकर स्वयं उसके साथ दिल्ली तक गया । इससे कुछ ही समय पहले शाह दिल्ली को छोड़कर पीछे हट गया था और वहां से चालीस कोस दूर पानीपत पहुंचकर मराठों के आगमन की प्रतीक्षा में था, जो तेजी से उसका पीछा करते आ रहे थे । यह काम मराठों ने सूरजमल के बुद्दिमत्तापूर्ण परामर्श के प्रतिकूल किया । उसने भाऊ को सलाह दी थी कि वह युद्ध के लिए दिल्ली को अपना आधार केन्द्र (जहां सेना की आवश्यक सामग्री तथा अन्य सुविधायें रहती हैं) बनाए और शक्तिशाली शत्रु द्वारा रक्षित देहाती क्षेत्र में बहुत अधिक आगे बढ़ने का दुःसाहस करके इस आधार केन्द्र से अधिक दूर न जाए । इस रीति से सेना को उसकी आवश्यकता की सब वस्तुएं उसके पीछे स्थित जाट-देश से प्राप्त होती रह सकेंगी और यदि कभी आवश्यकता पड़ ही जाए, तो दिल्ली एक निकटस्थ विश्रामस्थल का काम भी दे सकती है । परन्तु मराठा सरदार को अपने सैन्य बल पर इतना अधिक विश्वास था कि वह इस जाट की बुद्धिमत्तापूर्ण सलाह को मान नहीं सकता था । उधर सूरजमल को मालूम था कि ये जो मराठे अब दक्षिण से आए हैं, वे उनसे संख्या में भले ही अधिक हों, परन्तु अधिक वीर नहीं हैं, जो पिछले वर्ष आए थे और जानकोजी के नेतृत्व में पठानों से पराजित हुए थे ।

उसे अनुभव से यह भी पता था कि इस प्रकार के दुर्भाग्य का सामान्यतया इस देश में जहां अब्दाली का अत्यधिक प्रताप है, सैनिकों पर कैसा प्रभाव पड़ता है । उसे भाऊ के उपक्रम के सफल होने की कोई विशेष आशा नहीं थी और उसे यह भय था कि वह उस उपक्रम में भाग लेकर किसी कष्टप्रद झंझट में न फंस जाए, इसलिए उसने समय रहते इससे अलग हो जाने का यत्न किया । यदि वह भाऊ के साथ आया ही न होता, तब बात और थी, किन्तु अब पीछे की ओर कदम उठाना उसकी अपेक्षा अधिक कठिन था । भाऊ जाटों को लौटने देने के लिए कभी सहमत न होता; न वह सूरजमल को ही वापस जाने देता; और सूरजमल के इस चर्चा को छेड़ते ही वह तत्क्षण उसे कैद कर लेता ।

सूरजमल ने भाऊ का साथ छोड़ा (4 अगस्त 1760)

जाट सरदार ने निश्चय कर लिया कि वह स्वयं अपने लोगों और देश को त्यागने से पहले मराठों को त्याग देना पसन्द करेगा । शनैः-शनैः अपने अधिकांश सैनिकों को इस प्रकार चलता किया कि भाऊ को इसका पता ही न चला; उसके बाद वह स्वयं भी एक रात भाग निकला और इससे पहले कि मराठे उसे रोक या पकड़ पाने का समय या अवसर पा सकें, वह डीग जा पहुंचा । भाऊ क्रोध से कांपने लगा और उसने प्रण किया कि ज्यों ही उसे फुरसत मिलेगी, त्यों ही वह जाटों का ऐसा विनाश करके रहेगा कि केवल उनकी याद ही बाकी रह जाएगी ।

पानीपत में मराठों की पराजय (14 जनवरी 1761)

चाहे उसने कितना ही क्रोध क्यों न जताया हो और कितनी ही धमकियां क्यों न दीं हों, परन्तु हर कोई जानता है कि स्वयं उसका लगभग वैसा ही अन्त हुआ, जैसा कि सूरजमल को ही आभास हो गया था । पानीपत की प्रसिद्ध लड़ाई के बाद 100,000 से अधिक मराठा भगोड़े सैनिकों में से केवल मुट्ठी-भर ही पठानों से बचकर निकल पाए । उन्हें जाटों के प्रदेश में से होकर भागना पड़ा और वहां उन्हें यथेष्ट दया और सहायता प्राप्त हुई, जबकि यदि सूरजमल चाहता तो उनमें से एक भी बचकर दक्षिण तक नहीं जा सकता था ।

सूरजमल की निपुणता

शायद कोई कहे कि उसके सभी उद्यमों में इस जाट के सौभाग्य का अत्यधिक हाथ रहा और ऐसा भी प्रतीत होता हो कि भाग्य उस पर असाधारण रूप से प्रसन्न था । इस बात से मैं अंशतः सहमत हूं, फिर भी इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि उसमें विकट से विकट परिस्थितियों में भी धैर्य बनाए रखने की क्षमता थी, और एक तरह की बुद्धिमत्ता भी । किस प्रकार की, मैं नहीं जानता । यद्यपि उसने शासन की कला की शिक्षा नहीं पाई थी, फिर भी इसमें वह अपने समय के बड़े-से-बड़े व्यक्तियों के बराबर था; और मैं तो यहां तक कहने का साहस करूंगा कि वह उनमें अधिकांश से बढ़कर ही था । उस काल में, जब हिन्दुस्तान के नवाब तथा अन्य शक्तिशाली मुसलमान अब्दाली के विशाल सैनिक अभियानों में अपने खर्च पर स्वयं अपने ही देश को लूटने और उजाड़ने के लिए सम्मिलित होने को बाध्य हुए थे, और उन्हें उसके पराक्रमों को सफल बनाने के लिए धन देना पड़ता था, तब भी सूरजमल अपने प्रदेश में ऐसे प्रबल शत्रुओं की आक्रामक योजनाओं से अपने राज्यक्षेत्र की रक्षा करने में समर्थ रहा था । वह उन सब अशान्तियों के बीच में रहकर भी, जिनमें उसके सभी पड़ौसी कुछ कम या अधिक फंसे थे, शान्ति का आनन्द लेता था । जिस समय अन्य लोग गिर रहे थे, उस समय वह अपनी शक्ति बढ़ा रहा था । संक्षेप में वह उस समय उन्नति कर रहा था जिस समय साम्राज्य सर्वसामान्य अवनति की ओर जा रहा था । जिस प्रकार वह भाऊ और मराठों को अहमदशाह और उसके पठानों के विरुद्ध लड़ने के लिए ले गया, जिस प्रकार वह उनमें से एक को साधनों के बिना ही जीत सका और उसके बाद दूसरे के द्वारा पीछा किया जाने से बचा रहा, वह भी इतने कम जोखिम और कम खर्च पर, यह काम जितनी निपुणता से सूरजमल कर सका, उतनी निपुणता से कर सकने वाला सारे इन्दुस्तान में मुझे और कोई दिखाई नहीं देता । कौन यह नहीं सोच सकता था कि मराठों की इतनी बड़ी पराजय के तुरन्त बाद अहमदशाह, जो विजयी था और इसकी बाद अजेय माना जाने लगा था, जाटों पर आधिपत्य नहीं जमा लेता, कम से कम इसीलिए कि सूरजमल को वह धनराशि देने के लिए विवश किया जाए, जो उसे पांच-छः वर्ष पहले ही देनी थी ? फिर भी, इस बार भी वह इस विकट परिस्थिति से बच ही निकला, यद्यपि इसमें अब्दाली की असाधारण उदासीनता ही कारण रही । सौभाग्यवश जीती गई उस लड़ाई के बाद थकान उतारने के लिए शाह दिल्ली में व्यर्थ की मंत्रणाओं, उत्सवों और विवाहों द्वारा अपना मनोरंजन करने में व्यस्त हो गया । उसने कुछ किया नहीं और लड़ाई के लिए उपयुक्त ऋतु यूं ही गुजर गई । उसी समय सिक्खों ने लाहौर के पास लूटमार शुरू कर दी, इसलिए आगे और किन्हीं साहसिक अभियानों का विचार किए बिना ही उसे एक बार फिर हिन्दुस्तान छोड़कर लौटकर जाना पड़ा । यह सब ऐसे ढ़ंग से हुआ कि सूरजमल को शाह के कारण आगे के लिए मराठों से मुक्ति मिल गई और शाह की वापसी के कारण स्वयं शाह से उसका भय दिनोंदिन कम होता गया और उसने अपनी शक्ति को और उन्नत करने के लिए एक योजना बनाई, क्योंकि अब उसका एक शत्रु कम हो गया था, जिसके छल-कपट से उसे डरना पड़ता था, या जो उसे नीचा दिखा सकता था ।

वे कारण, जिनसे अब्दाली जाटों को अछूता छोड़ देने को विवश हुआ

यह जानने की इच्छा होनी स्वाभाविक है कि ठीक-ठाक वे कारण क्या थे जिनसे अब्दाली को सूरजमल और जाटों को इस सीमा तक अछूता छोड़ देना पड़ा, अर्थात् दो बार उन्हें होश में लाने की स्थिति में होते हुए और उसके इतना निकट पहुंच कर भी उसने इसके लिए और भी प्रभावी प्रयत्न क्यों नहीं किया ? इसलिए और भी, क्योंकि उसे बता दिया गया था कि यह अकेला पराक्रम ही उसके अभियानों में हुए सब कष्टों की भरपाई के लिए यथेष्ट रहेगा, और इसे पूर्णता तक पहुंचाना उसके बस में था । इस विषय पर विचार करते हुए इस तथ्य पर ध्यान देना उचित होगा कि हिन्दुस्तान को विजय करने के विषय में आज भी वही बात सत्य है, जो अब से कई शताब्दियों पहले सत्य थी । जब सर्वप्रथम पठानों ने इसे अपने अधीन करके अपने प्रभाव में लाने की इच्छा करना शुरु किया था; अर्थात् देश का विपुल विस्तार और उनके देश से इसकी अत्यधिक दूरी, जिसके कारण उनके लिए यह गुंजाइश नहीं थी कि वे इस देश पर अधिकार कर लें और साथ ही अपने देश पर भी कब्जा बनाए रखें ।[2]

External Links

References

  1. A History of Jaipur By Jadunath Sarkar (Page 172) Published by Orient Longman Ltd., 1/24, Asaf Ali Road, New Delhi-110 002. (Reprinted in 1994) - ISBN 81 250 0333 9
  2. हिंदुस्तान में जाट सत्ता (”Hindustan Mein Jat sattā”) Wendel’s Memoirs on Jats, 2001. Edited by Dr Vir Singh (Page 151-154)

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