Gaurishankar Hirachand Ojha

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Author: Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल
Gaurishankar Hirachand Ojha

Rai Bahadur Pandit Gaurishankar Hirachand Ojha (1863–1947), born in Rohida village of Sirohi District, was a historian from Rajasthan. A prolific author, he wrote several books (in Hindi ) on the history of Rajasthan and other historical subjects. Subsequent historians from Rajasthan have referred to him as Guruvara Mahamahopadhyaya (e.g. Dasharatha Sharma in Early Chauhan Dynasties). Ojha regarded Kaviraj Shyamaldas as his guru and worked under him as assistant secretary of the historical department, Udaipur.

हिन्दी में परिचय

गौरीशंकर हीराचंद ओझा (जन्म- 15 सितम्बर, 1863, राजस्थान; मृत्यु- 20 अप्रैल, 1947) भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार थे। इन्हें इतिहास, पुरातत्त्व और प्राचीन लिपियों में विशेषज्ञता प्राप्त थी। वर्ष 1937 में 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' ने उन्हें 'डी.लिट' की उपाधि से सम्मानित किया था। ओझा जी आधी शताब्दी तक ज्ञान के प्रकाश स्तम्भ के रूप में खड़े थे। वे भारत के अतीत का मार्ग टटोलने में निरन्तर आलोक पाते रहे। सिरोही राज्य, सोलंकियों तथा राजपूताने के इतिहास के साथ-साथ आपने इतिहास तथा अन्य विषयक कई ग्रंथ लिखे।

जन्म तथा शिक्षा

पण्डित गौरीशंकर हीराचंद ओझा का जन्म 15 सितम्बर, 1863 ई. को में हुआ था। मेवाड़ और सिरोही राज्य की सीमा पर एक गांव है- 'रोहिड़ा'। अरावली श्रृंखला के पश्चिम में तलहटी में बसा यह गांव उस दिन धन्य हो गया जिस दिन हीराचन्द ओझा के घर पुत्ररत्न ने पदार्पण किया। वह दिन था मंगलवार भाद्रपद सुदि पंचमी संवत 1920. गौरीशंकर हीराचंद ओझा की प्रारम्भिक शिक्षा उस छोटे से गांव में ही हुई। संस्कृत का अध्ययन आपने अपने पिता के पास रहकर किया। बाद में 1877 में मात्र 14 वर्ष की आयु में उच्च शिक्षा के लिये वे मुम्बई गये, जहां 1885 में 'एलफिंस्टन हाईस्कूल' से मेट्रिक्यूलेशन की परीक्षा उत्तीर्ण की। रोगग्रस्त हो जाने के कारण वे इन्टरमीडियेट की परीक्षा न दे सके और गांव लौट आये।

इतिहास में रुचि

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रोहिड़ा आने पर गौरीशंकर हीराचंद ओझा को राजपूताने के इतिहास के बारे में जानने की इच्छा हुई। इस संदर्भ में उन्होंने कर्नल टॉड की पुस्तक का अध्ययन किया। इस ग्रंथ ने उन्हें बहुत प्रेरणा दी।

ओझाजी से पूर्व भारतीय लिपि के बारे में यह धारणा थी कि भारतीय लिपि का विकास मिश्रा, हिब्रू के मिश्रण से हुआ है और वह भी ईसा पूर्व पांचवी शताब्दी में। सन 1894 ई. में 'भारतीय प्राचीन लिपि माला' नामक पुस्तक लिखकर गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने भाषा और लिपि के क्षेत्र में क्रान्ति ला दी। उन्होंने बुइलर को पत्र लिखकर अपने तर्कों और प्रमाणों के आधार पर उनके द्वारा स्थापित विचार को निर्मूल सिद्ध किया। तब से दुनिया ने उनके सिद्धान्त को प्रतिष्ठा प्रदान की। आज यह पुस्तक संयुक्त राष्ट्र संघ के उन पुस्तकों में है, जो विश्व की निधि घोषित किये गये हैं। इस पुस्तक के माध्यम से ओझाजी ने संसार के समक्ष यह विचार रखा कि ब्राह्मी लिपि समझने के पश्चात् दूसरी लिपियों को आसानी से समझा जा सकता है, क्योंकि दूसरी लिपियों में थोड़ा बहुत अन्तर पड़ता जाता है। ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि की उत्पत्ति पर भी आपने इस पुस्तक में प्रकाश डाला है। बाद में शिलालेखों, ताम्रपत्रों, सिक्कों व दानपत्रों पर उत्कीर्ण ब्राह्मी, गुप्त, कुटिल, नागरी, शारदा, बंगला, पश्चिमी, मध्यप्रदेशी, तेलगू, कन्नड़, कलिंग, तमिल, खरोष्ठी आदि लिपियों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी है। इसके लिये ओझाजी ने विविध 45 लिपिपत्र तैयार कर अलग-अलग भाषाओं में अक्षरों का बोध कराया। उसके पश्चात भारत की लिपियों और अंकों की उत्पत्ति के बारे में उल्लेखनीय जानकारी दी।

राजस्थानी इतिहास पर शोध व संकलन

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1894 के बाद गौरीशंकर हीराचंद ओझा राजस्थान के इतिहास के मनन, पुनः शोधन व संकलन में लग गये। उनके अध्ययन की गंभीरता को पहचानते हुए विद्या विशारद जर्मन विद्वान कील हार्न ने सच ही लिखा था कि "ओझा से अधिक अपने देश के इतिहास को कौन जानता है।" सन 1902 में लॉर्ड कर्ज़न का परिचय ओझाजी से हुआ। उनकी विद्वत्ता और लगन से वे बड़े प्रभावित हुए। भारत के बारे में विशेष जानकारी के लिये उत्तर भारत का केन्द्र वे अजमेर को बनाना चाहते थे। ओझाजी से मिलकर उन्हें लगा कि पुरातात्विक कार्य के लिये यही व्यक्ति उपयुक्त है। अतः उन्होंने ओझाजी के सम्मुख भारत के पुरातत्व के उच्च पद का प्रस्ताव रखा। पर उन्होंने इस पद को अस्वीकार कर दिया, क्योंकि वे मेवाड़ में रहकर ही उसकी सेवा करना चाहते थे।

कुछ वर्ष पश्चात 1908 में लॉर्ड मिण्टो ने लॉर्ड कर्ज़न की योजना के अनुसार 'राजपूताना पुरातत्व संग्रहालय’ की स्थापना अजमेर में की। इसके पालक के रूप में गौरीशंकर हीराचंद ओझा को बुलावा गया। वे मेवाड़ नहीं छोड़ते, पर विद्वत सम्मान के प्रति महाराणा फतेहसिंह की उदासीनता के कारण सन 1908 में वे उदयपुर छोड़कर अजमेर आ गये।

रचनाएँ

गौरीशंकर हीराचंद ओझा आधी शताब्दी तक ज्ञान के प्रकाश स्तम्भ के रूप में खड़े थे। वे भारत के अतीत का मार्ग टटोलने में निरन्तर आलोक पाते रहे। सिरोही राज्य, सोलंकियों तथा राजपूताना के इतिहास के साथ-साथ आपने इतिहास तथा अन्य विषयक कई ग्रंथ लिखे, उनमें निम्नलिखित प्रमुख थे-

  • 'उदयपुर राज्य का इतिहास' - प्रथम खण्ड (1928), द्वितीय खण्ड (1932)
  • 'डूंगरपुर राज्य का इतिहास' - (1936)
  • 'बांसवाड़ा राज्य का इतिहास' - (1936)
  • 'बीकानेर राज्य का इतिहास' - प्रथम भाग (1937), द्वितीय भाग (1940)
  • 'जोधपुर राज्य का इतिहास' - प्रथम भाग (1938), दूसरा भाग (1941)
  • 'प्रतापगढ़ राज्य का इतिहास' - (1940)

इसके अतिरिक्त तीन निबन्ध संग्रह भी प्रकाशित हुए। गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने कई पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। 'मध्यकालीन भारतीय संस्कृति', 'सोलंकियों का इतिहास', 'पृथ्वीराज विजय', 'कर्मचंद वंश' तथा 'राजपूताना का इतिहास' ये ओझाजी की कुछ प्रमुख पुस्तकें थीं। वर्ष 1898 में प्रकाशित इनकी 'भारतीय प्राचीन लिपि माला' अपने विषय की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी गई थी। ओझा जी वर्ष 1908 में 'राजपूताना म्यूज़ियम' के अध्यक्ष बनाए गए और 1938 तक इस पद पर बने रहे।

'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' ने 1937 में उन्हें 'डी.लिट' की उपाधि प्रदान करके सम्मानित किया था।

निधन

गौरीशंकर हीराचंद ओझा और काशीप्रसाद जायसवाल के शिष्य जयचन्द्र विद्यालंकार ने ‘भारतीय इतिहास परिचय’ नामक संस्था खड़ी की थी। उनका उद्देश्य भारतीय दृष्टि से समस्त अध्ययन को आयोजित करना और भारत की सभी भाषाओं में उसके द्वारा ऊंचे साहित्य का विकास करना था। 1941 में ओझाजी ने जयचन्द्र विद्यालंकार को अजमेर बुलाकर कहा कि उनके शोधकार्य का भार वे उठा लें। उसके लिये राजस्थान में 'भारतीय इतिहास परिषद' की एक शाखा स्थापित कर दें। इस विचार का उत्साह से स्वागत किया गया। किन्तु इसके शीघ बाद जापान युद्ध और 1942 का 'भारत छोड़ो आन्दोलन' आ गया। इस राजनैतिक संघर्ष में जयचन्द्र जेल चले गये। 1946 में जब वे जेल से छूट कर आये, तब तक राष्ट्रीय शिक्षा और 'भारतीय इतिहास परिषद' के आदर्श के लिये उत्साह ठण्डा पड़ चुका था। गौरीशंकर हीराचंद ओझा वृद्ध हो चुके थे। 20 अप्रैल, 1947 को ओझाजी ने 84 वर्ष की आयु में अपनी जीवन लीला समाप्त की। उन्होंने इतिहास और हिन्दी के लिये अपना पूरा जीवन खपा दिया था।[1]

External Links

References


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