Haryana Ke Vir Youdheya/चतुर्थ अध्याय

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हरयाणे के वीर यौधेय


(प्रथम खण्ड)


लेखक


श्री भगवान् देव आचार्य




पृष्ठ १०९

चतुर्थ अध्याय - त्रिदेव

परमात्मा के असंख्य नाम हैं । क्योंकि परमेश्वर के अनन्त गुण, कर्म, स्वभाव हैं वैसे ही उसके अनन्त नाम भी हैं । आदि सृष्टि में ब्रह्मादि ऋषियों के नाम परमेश्वर के नामों का अनुकरण करके ही रखे गए हैं ।


इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् ।

एकं सद्‍ विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिस्वानमाहुः ॥

(ऋ० १६४-४६)


जो एक अद्वितीय सत्य ब्रह्म है । विप्र (विद्वान्) लोग उस एक का ही बहुत नामों से उच्चारण करते हैं । इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, दिव्य, सुपर्ण, गरुत्मान्, यम मातरिश्व आदि नामों से उसी परम दिव्य परमात्मा का ग्रहण किया जाता है । उपर्युक्त नाम अनेक ऋषि और अन्य वस्तुओं के भी ब्रह्मादि ऋषियों ने वेद को देख कर सृष्टि के आरम्भ में रखे थे ।


ब्रह्मा स शिवः सेन्द्रः सोऽक्षरः परमः स्वराट् ।

स एव विष्णुः स प्राणः स कालो‍ऽग्नि स चन्द्रमाः ॥


इसमें कुछ पाठभेद भी मिलता है -

स ब्रह्मा स विष्णुः स रुद्रस्स शिवस्सोऽक्षरस्स परमः स्वराट् ।

स इन्द्रस्स कालाग्निस्स चन्द्रमा ॥ कैवल्य उपनिषद् ॥


पाठभेद होने पर भी अर्थ में समानता है ।


पृष्ठ ११०

सब जगत् के बनाने से ब्रह्मा, सर्वव्यापक होने से विष्णु, दुष्टों को दण्ड देकर रुलाने से रुद्र, सबका कल्याण करने वाला होने से शिव, सर्वत्र व्याप्‍त ज्ञानदाता अविनाशी होने से अक्षर, स्वयं प्रकाशस्वरूप होने से अग्नि, प्रलय में काल और सबका काल होने से काल, वायु के समान बलवान् होने से वायु वा मातरिश्वा, सूर्य के समान प्रकाशस्वरूप ज्ञान का दाता होने से सूर्य, रवि, आदित्य नाम हैं । ऐश्वर्यशाली होने से इन्द्र, सबको आनन्द देने वाला होने से चन्द्रमा है । जो सब स्थानों पर प्राप्‍त है और जो सब कुछ जानता है, इससे उस परमेश्वर का नाम “अंगिरा” है ।


परमेश्वर के नामों का अनुकरण करके अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, रुद्र, महेश, हर, इन्द्र आदि नाम ऋषियों तथा अन्य पदार्थों के ब्रह्मादि ऋषियों ने सृष्टि के प्रारम्भ में रखे । इस विषय में मनु जी महाराज का यह श्लोक प्रमाण है -


सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् ।

वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे ॥१-२१॥


ब्रह्मा ने सब शरीरधारी जीवों के नाम तथा अन्य पदार्थों के गुण, कर्म, स्वभाव नामों सहित वेद के अनुसार ही सृष्टि के प्रारम्भ में रखे और प्रसिद्ध किये और उनके निवासार्थ पृथक् पृथक् अधिष्ठान भी निर्मित किये ।


त्रिदेव


ब्रह्मा, विष्णु और महेश (शिव) ये तीनों नाम भी उपरिलिखित


पृष्ठ १११

लेखानुसार परमात्मा के नामों को देखकर हमारे इन पूर्वज देवर्षियों के रखे गये । इन महापुरुषों ने अपने नामों “यथा नाम तथा गुणः” के अनुसार ही अपने गुण, कर्म, स्वभाव को बनाकर वैसा ही आचरण किया । इसलिये एक अरब छियानवें करोड़ वर्षों से भी अधिक काल व्यतीत होने पर भी ये तीनों महापुरुष आर्य जाति में आबालवृद्ध वनिता आज तक इतने आदर से स्मरण किये जाते हैं, जैसे ये इसी युग में हम सबके सम्मुख ही हुए हों और उनके किये उपकारों को हम अब भी प्रत्यक्ष देख रहे हों । देवों की यही तो विशिष्टता होती है कि वे अपने पवित्र सेवा कार्यों के कारण अमर हो जाते हैं ।


अब इन तीनों दिव्य, ऐतिहासिक पुरुषों की चर्चा इतिहास के आधार पर की जाती है ।

देवत्वं सात्त्विका यान्ति मनुष्यत्वं च राजसाः ।

तिर्यक्त्वं तामसा नित्यमित्येषा त्रिविधा गतिः ॥

(मनु० १२-४०)


अर्थात् जो मनुष्य सात्त्विक हैं वे देव अर्थात् विद्वान्, जो रजोगुणी होते हैं वे मध्यम मनुष्य और तमोगुणी नीचगति को प्राप्‍त होते हैं ।


आदि सृष्टि में देवयुग में सहस्रों ऋषि मुनि और देवी देवता हुए हैं, किन्तु ब्रह्मा, विष्णु और महेश - ये तीन देवता अति प्रसिद्ध हैं । हरयाणे के सामान्य लोग पांच देवता मानते हैं ।


सदा भवानी दाहिने गोरीपुत्र गणेश ।

पांच देव रक्षा करें ब्रह्मा, विष्णु, महेश ॥


पृष्ठ ११२

इनमें भव (महेश) की राणी भवानी (पार्वती वा गौरी) और गौरी के पुत्र गणेश, दो और देवताओं की गणना करके पांच की संख्या पूरी करते हैं । हरयाणे का शिव परिवार से विशेष स्नेह वा सम्बन्ध है, इसके कारण ये इसके अतिरिक्त छठा देवता स्वामी कार्तिकेय (शिव के द्वितीय पुत्र) को मानते हैं । आर्य संस्कृति के उपर्युक्त तीन वा पांच-छः देवताओं की विशेष मान्यता क्यों है, इस पर थोड़ा प्रकाश डालना उचित है ।

ब्रह्मा आदि देवों के विषय में इससे पूर्व के अध्याय में कुछ प्रकाश डाला जा चुका है, यहां थोड़ा विशेष लिखना आवश्यक है ।


सर्वश्रेष्ठ विद्वान ब्रह्मा

निरुक्तकार यास्क ने लिखा है ब्रह्मा सर्वविद्यः । सर्व वेदितुमर्हति । ब्रह्मा परिवृढः श्रुततः ।


अर्थात् ब्रह्मा सब विद्याओं का जानने वाला होता है । वह यज्ञ तथा सभी विद्याओं के जानने में समर्थ होता है । ज्ञान से बढ़ा हुआ होने से ही वह ब्रह्मा (वृहत्) कहलाता है ।


वेदों का ज्ञाता ब्रह्मा


वेद सब सत्यविद्याओं के ज्ञान का नाम है । ईश्वरप्रदत्त वेद ज्ञान की शिक्षा अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषियों के द्वारा आदि सृष्टि में ब्रह्मा को मिली । इसलिये श्वेताश्वतर उपनिषद् (६-१८) में लिखा है -


पृष्ठ ११३

महर्षि सूर्य

सूर्यात् सामवेदः (शतपथ) । आदि सृष्टि में ईश्वर के द्वारा इन्हीं के हृदय में सामवेद का ज्ञान प्रकट हुआ । इन से ब्रह्मा ने ग्रहण किया ।


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पृष्ठ ११४


यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै ।


परमेश्वर ने ब्रह्मा को सृष्टि के आदि में उत्पन्न करके चारों ऋषियों के द्वारा चारों वेदों का ज्ञान दिया । और ब्रह्मा ने यह वेदज्ञान अन्य ऋषियों को दिया । इसलिये ब्रह्मणे नमः उपनिषदों के अन्त में मिलता है, आदि गुरु ब्रह्मा को नमस्कार लिखते हैं । मुण्डकोपनिषद् में प्रमाण दिया है -


ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव विश्वस्य कर्त्ता भुवनस्य गोप्‍ता ।

स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह ॥


ब्रह्मा जी सब देवों में पहले जन्म लेने से तथा सबसे विद्वान् होने से प्रथम माने जाते हैं । उन्हीं के पीछे अन्य मानवों ने जन्म लिया, उन सब प्राणियों तथा पदार्थों के नामकरण आदि इन्होंने ही किये । इसलिये ये विश्व के कर्ता कहलाये । सब संस्था आदि के निर्माण के कारण ये ही सब भुवनों के रक्षक कहलाये । और सब विद्याओं में श्रेष्ठ ब्रह्मविद्या का प्रवचन अपने ज्येष्ठपुत्र अथर्वा के लिए किया । ब्रह्मा का हिरण्यगर्भ एक नाम था । हिरण्यगर्भ के बनाये हुए योगशास्‍त्र के दो श्लोक विष्णुपुराण २-१३ में मिलते हैं, जिनका भावार्थ यह है - योगी कभी अपनी साधना का अहंकार नहीं करता, वह मान को हानिकारक और अपमान को हितकर समझता है, इसलिए वह लोकैषणा से सदा दूर रहता है ।



पृष्ठ ११५

आयुर्वेद के प्रवक्ता ब्रह्मा

चरकसंहिता चिकित्सा स्थान १-४ में आयुर्वेदविद्या की परम्परा इस प्रकार दी है । ब्रह्मा ने आयुर्वेद की विद्या दक्ष प्रजापति को दी, दक्ष ने अश्विनीकुमारों को और अश्विनीकुमारों से इस विद्या को इन्द्र ने प्राप्‍त किया । सुश्रुत में भी ब्रह्मा को आयुर्वेद का प्रथम प्रवक्ता बताया है । ब्रह्मा ने हस्त्यायुर्वेद नाम का भी एक ग्रन्थ बनाया था ।


धनुर्वेद का आदिप्रवक्ता


महाभारत में लिखा है -


अर्जुनस्तु महाराज ब्राह्ममस्‍त्रमुदैरयत् ।

सर्वास्‍त्रप्रतिघातार्थं विहितं पद्मयोनिना ॥


सब अस्‍त्रों के प्रतिघात के लिये ब्रह्मा जी ने ब्रह्मास्‍त्र का निर्माण किया । अर्जुन ने भी इस परम्परागत विद्या को ग्रहण किया था ।


ब्रह्मास्‍त्र का निर्माता


ब्राह्मेणास्‍त्रेण संयोज्य ब्रह्मदण्डनिभं शरम् । (वा० रा० यु० का० २२।२५)


ब्रह्मास्‍त्र के निर्माता और शिक्षक स्वयं ब्रह्मा जी महाराज थे ।


पुष्पक विमान के आदि निर्माता

वाल्मीकीय रामायण उत्तरकाण्ड के पन्द्रहवें सर्ग में लिखा है -


पृष्ठ ११६

देवोपवाह्यमक्षय्यं सदा दृष्टिमनःसुखम् ॥४०॥

बहवाश्चर्यं भक्तिचित्रं ब्रह्मणा परिनिर्मितम् ।

निर्मितं सर्वकामैस्तु मनोहरमनुत्तमम् ॥४१॥

न तु शीतं न चोष्णं च सर्वर्त्तुसुखदं शुभम् ॥


ब्रह्मा (विश्वकर्मा) द्वारा निर्मित विमान देवताओं का वाहन न टूटने फूटने वाला, देखने में सदा सुन्दर और चित्त को प्रसन्न करने वाला था । उसके भीतर अनेक प्रकार के आश्चर्यजनक चित्र थे । उसकी दीवारों पर नाना प्रकार के बेल बूटे बने हुये थे, जिससे उसकी विचित्र शोभा हो रही थी । सब प्रकार की अभीष्ट वस्तुओं से सम्पन्न मनोहर और परम उत्तम था । न अधिक ठंडा न अधिक गर्म, किन्तु सभी ऋतुओं में सुखदायक और मंगलकारी था ।

काञ्चनस्तम्भसंवीतं वैदूर्यमणितोरणम् ॥३८॥

मुक्ताजालप्रतिच्छन्नं सर्वकालफलद्रुमम् ।

मनोजवं कामगमं कामरूपं विहंगमम् ॥३९॥

मणिकाञ्चनसोपानं तप्‍तकाञ्चनवेदिकम् ॥४०॥


उस विमान के खम्भे तथा फाटक स्वर्ण और वैदूर्यमणि के बने हुये थे । वह सब ओर से मोतियों की जाली से ढ़का हुआ था । उसके भीतर ऐसे वृक्ष लगे हुये थे जो सभी ऋतुओं में फल देने वाले थे । उसका वेग मन के समान तीव्र था । यात्रियों की इच्छानुसार सब स्थानों पर जा सकता था । तथा चालक की इच्छानुसार छोटा बड़ा रूप भी धारण कर लेता था । उस आकाशचारी विमान में मणि और स्वर्ण की सी सीढ़ियां तथा तपाये हुए सोने की वेदियां बनी हुईं थीं ।


पृष्ठ ११७


लिपि निर्माता ब्रह्मा

अपने अन्तर्गत भावों को किसी दूरस्थ व्यक्ति के आगे प्रकट करने तथा ज्ञान को सुदीर्घ काल तक सुरक्षित रखने के लिये लिखने की आवश्यकता हुवा करती है । यह लिखावट लिपि कहाती है । सृष्टि के आरम्भ में सबसे पहले लिपि के आविष्कर्ता ब्रह्मा जी ही थे । इसी कारण उस लिपि का नाम ब्राह्मी लिपि प्रसिद्ध हुवा । सर्ग के आदि से लेकर आज से पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व तक यही लिपि प्रयोग में लाई जाती रही है । वेद भी इसी लिपि में लिपिबद्ध हुये । प्राचीन शिलालेख इसी लिपि में मिलते हैं । इसी प्रकार व्याकरण, ज्योतिषशास्‍त्र, गणितशास्‍त्र, अश्वशास्‍त्र, नाट्यशास्‍त्र, इतिहास (पुराण), मीमांसा आदि का प्रणयन भी सब विषयों के विद्वान् ब्रह्मा ने ही किया था ।


ब्रह्मा के चतुर्मुख

जो मूर्त्तियां ब्रह्मा की प्रस्तर वा मिट्टी की पुरानी, पुराने खण्डहरों से खुदाई से मिलती हैं और आजकल भी जो मन्दिरों तथा बाजारों में उनके चित्र मिलते हैं, वे चतुर्मुख (चार मुखों वाले) मिलते हैं । जो सृष्टि नियम के विरुद्ध होने से असम्भव है ।


सभी महापुरुषों के साथ कुछ कुछ विचित्र चमत्कारिक बातों को जोड़ देना यह पौराणिक युग की मिथ्या कल्पना है । कुछ इसको अलंकारिक रूप कहकर यह व्याख्या करते हैं कि अग्नि आदि चारों ऋषियों से ब्रह्मा ने नियम पूर्वक चारों वेदों का अध्ययन किया था और चतुर्वेदाद्‍ऋषि चारों वेदों का ज्ञान होने से ऋषि संज्ञा की प्राप्‍ति होती है । इसी कारण चारों


पृष्ठ ११८


वेदों के ज्ञाता होने से ब्रह्मा के चार शिरों की कल्पना कर चार शिर वाली मूर्ति की रचना पौराणिकों ने कर डाली जिससे भ्रम ही फैला, लाभ कुछ नहीं हुआ । ऐसी एक मूर्ति का चित्र इस पुस्तक में ८६ पृष्ठ पर दिया है, जो रोहतक जिले के अन्तर्गत सोनीपत तहसील में सतकुम्भा (सप्‍तकुम्भा) नामक प्राचीन दुर्ग से मिली है, यह भी पौराणिक काल से तीर्थ स्थान माना जाता है ।


अब द्वितीय देव विष्णु का वर्णन महाभारत आदि ग्रन्थों के अनुसार करता हूँ ।


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पृष्ठ ११९

विष्णु

अदिति के बारह पुत्र आदित्य वा देव माने जाते हैं । महाभारत आदि पर्व में लिखा है -


एकादशस्तथा त्वष्टा द्वादशो विष्णुरुच्यते ।

जघन्यजस्तु सर्वेषामादित्यानां गुणाधिकः ॥

(महा० आदि० ६५-१६)

विष्णु देवों में बारहवां है । सब आदित्यों में कनिष्ठ होता हुआ भी गुणों में सबसे अधिक है ।


वायु पुराण भी इसकी पुष्टि करता है -

ततस्त्वष्टा ततो विष्णुरजघन्यो जघन्यजः ॥६६॥


जन्म वा आयु में सबसे छोटा होने पर भी विष्णु छोटा नहीं माना गया । वायु पुराण में पुरुषश्रेष्ठ विष्णु को सब देवों का राजा लिखा है - आदित्यानां पुनर्विष्णुः ॥७०।५॥ अर्थात् बारह आदित्यों में से विष्णु को राज्य दिया गया । यह बारह देवों का कुल ही देवकुल वा सुरकुल नाम से प्रसिद्ध है । देवों का राजा होने से विष्णु सुरकुलेश कहलाया । यही विकृत होकर हरकुलीस बन गया जो यूनानियों का प्रसिद्ध देवता है तथा जिसका चित्र यूनानियों के बहुत मुद्राओं (सिक्कों) पर मिलता है । यवन लोग भी हरकुलीस (Hercules) के बारह भ्राता मानते हैं और हरकुलीस को सबसे कनिष्ठ (छोटा) मानते हैं ।


हमारे साहित्य में विष्णु को महासेनापति, राजा आदि माना गया है । इसके भी सहस्र नाम विष्णुसहस्रनाम पुस्तक


पृष्ठ १२०

में लिखे हैं । ये नाम महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय १४९ से लिये गये हैं । राम कृष्ण आदि विष्णु के अठारह अवतार माने जाते हैं । सर्वव्यापक परमात्मा को एकदेशी होकर जन्म मरण के चक्कर में आने की कोई आवश्यकता नहीं । सर्वशक्तिमान् होने से वह अपने सब कार्य सृष्ट्युत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने में सर्वथा समर्थ है । रावणादि राक्षसों को मारने के लिये उसके अवतार धारण करने की वार्ता कहना उसका हास्य (मजाक उड़ाना) करना ही है । वह ईश्वर अकायमव्रणम् है, वह कभी शरीर (काया) धारण नहीं करता । ऐसा यजुर्वेद ४०-८ में स्पष्ट उल्लेख है । अतः विष्णु, राम, कृष्ण आदि सब हमारे पूर्वज आर्यजाति के महापुरुष थे, राजर्षि थे, देव थे ।


इसी प्रकार विष्णु जी महाराज १-सुरेश, देवों के स्वामी, २-धन्वी, धनुर्धारी या धनुष धारण करने वाले, ३-विक्रमी शूरवीर, ४-दुराधर्ष, किसी से भी न हारने वाले, ५-कवि, पुरुषार्थी, ६-वेदवित्, वेदों के विद्वान, ७-महातपः, महातपस्वी धर्मात्मा, ८-लोकाध्यक्ष, समस्त लोकों (प्रजाओं) के अध्यक्ष अधिपति वा राजा, ९-सुराध्यक्ष, १०-धर्माध्यक्ष, ११-सहिष्णु, सहनशील, १२-जेता, स्वभाव से युद्धों में विजय प्राप्‍त करने वाला, १३-वैद्य, आयुर्वेद शास्‍त्र के ज्ञाता चिकित्सक, १४-सदायोगी, सदैव योगाभ्यास करने वाले, १५-वीरहा, असुरादि शत्रुओं के वीरों का संहार करने वाले, १६-शास्ता, सब पर शासन करने वाले, १७-पुरु, सबको विद्या देने वाले विद्वान्, १८-सुरारिहा, देवों के शत्रुओं का हनन करने वाले, १९-वाचस्पतिः, सब विद्याओं के स्वामी भण्डार, २०-अग्रणी, नेता, २१-ग्रामणी, जनसमुदाय के नेता,


पृष्ठ १२१

२२-धरणीधर, धरती माता को धारण करने वाले राजा, २३-श्रुतिसागर, वेदरूपी ज्ञान के सागर, २४-सुभुजः, सुन्दर सुदृढ़ भुजाओं वाले क्षत्रिय, २५, महेन्द्रः, इन्द्र से भी महान्, २६-वाग्मी, वेदव्याख्याता, २७-आदिदेवः, आदि सृष्टि में होने वाले देव, २८-सुव्रतः, श्रेष्ठ ब्रह्मचर्यादि व्रतों का पालन करने वाले २९-सुमुखः, सुन्दर मुख वाले प्रसन्न्वदन ३०-वीरबाहु, पराक्रमी वीर, ३१-गोपतिः, गौवों के पालक वा रक्षक, ३२-अमृतपः, अमृत पीने वाले तथा पिलाने वाले ३३-महर्षि, वेदों के ज्ञाता ३४-मेदिनीपतिः, राजा, ३५-सामगः, सामवेद का गान करने वाले, ३६-भिषक्, परम वैद्य, ३७-श्रीनिघिः, सब प्रकार के धनैश्वर्य के आधार, ३८-वीरः, ३९-शौरिः, शूर कुल में उत्पन्न, ४०-महातेजा महातेजस्वी, ४१-रणप्रियः, धर्म युद्ध प्रेमी, ४२-शान्तः, साधारण अवस्था में शान्त रहने वाले, ४३-शूरसेनः, शूरवीरों की सेना से युक्त, ४४-चतुर्वेदवित्, चारों वेदों के ज्ञाता ४५-महाकर्मा, महान् कर्मयोगी ४६-गदाधरः, गदा को धारण करने वाले, ४७-सर्वप्रहरणायुधः, सर्व प्रकार के शस्‍त्रास्‍त्रों को धारण करने वाले योद्धा, ४८-यज्ञपतिः, यज्ञ के रक्षक, ४९-भीमपराक्रमः, भीषण पराक्रम करने वाले योद्धा ५०-दक्षः, सब विद्या तथा कलाओं में निष्णात् पण्डित ५१-सात्त्विकः, सत्त्व गुण प्रधान देवता ५२-हुतभुक् यज्ञशेष खाने वाले ५३-धनुर्धरः, सदैव धनुष धारण करने वाले ५४-धनुर्वेदः, धनुर्विद्या के ज्ञाता ५५-रक्षणः, सब की रक्षा करने वाले सच्चे वीर क्षत्रिय राजा और ५६-विद्वत्तमः, विद्वानों में परम विद्वान् आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध थे ।


इनका ध्वज गरुडपक्षी के चित्र से युक्त था, इसलिये इनका


पृष्ठ १२२

एक प्रसिद्ध नाम ५७-गरुड़ध्वज था, ५८-वायुवाहनः वायु में विमान द्वारा गमन करने वाले महारथी थे । सब का कल्याण करने वाले ५८-स्वस्तिकृत् थे ।


उनके विमान का नाम गरुड़ था तथा उस पर गरुड़ध्वज अंकित रहता था । ब्रह्मा, विष्णु, महेश सभी विमानों के द्वारा आकाशमार्ग से यात्रा करते थे । सारे राष्ट्र की व्यवस्थार्थ शीघ्र गमनागमन के लिये विमानादि का निर्माण आदि सृष्टि में ही हो गया था । क्योंकि ब्रह्मा आदि विद्वान् सभी विद्याओं के भंडार थे । इसलिये इन देवों की कृपा से आदि सृष्टि में ही कलाकौशल उन्नति के शिखर पर पहुंच चुका था ।


हमारे पूर्वज मूर्ख तथा जंगली नहीं थे । जैसे ईर्षालु विद्वेषी इतिहासकारों ने विकासवाद का पाखण्ड कर उन्हें असभ्य दिखाने का यत्‍न किया है । प्रागैतिहासिक काल, प्रस्तरयुग, धातुयुग, सिन्धु सभ्यता आदि अनेक कपोल कल्पनायें विदेशी इतिहासकारों की मनघड़न्त हैं जो शनैः शनैः मिथ्या सिद्ध हो रही हैं ।

तृतीय देव महेश जो महेश, शिव, हर आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध है, उसका वर्णन प्राचीय ग्रन्थों में इस प्रकार है ।


महेश (शिव)

महर्षि व्यास ने महाभारत में मुनिवर उपमन्यु के द्वारा शिवस्‍तोत्र का स्तुवन कराया है । वे कहते हैं -


नास्ति शर्वसमो देवो नास्ति शर्वसमा गतिः ।

नास्ति शर्वसमो दाने नास्ति शर्वसमो रणे ॥

(अनुशासन पर्व १५ अ० श्लोक ११)


पृष्ठ १२३

उपमन्यु मुनि बोले - महादेव के समान देवता नहीं है, न महादेव के समान गति (ज्ञान-गमन-प्राप्‍ति) है, दान विषय में महादेव के समान कोई नहीं है और न कोई पुरुष संग्राम में ही महादेव के समान योद्धा है । शर्व महादेव वा महेश का ही एक नाम है

देवर्षि ब्रह्मा शिव जी महाराज के रहस्यपूर्ण पवित्रवृत्त को जानते थे । महाभारत अनुशासनपर्व के १७वें अध्याय में लिखा है –


एतद् रहस्यं परमं ब्रह्मणो हृदि संस्थितम् ।

ब्रह्मा प्रोवाच शक्राय शक्रः प्रोवाच मृत्यवे ॥१७५॥


महर्षि ब्रह्मा ने इस महादेव स्‍तोत्र का जो उनके हृदय में एक रहस्य के रूप में अच्छी प्रकार से स्थित था, लोकोपकारार्थ अपने शिष्य शक्र देवराज इन्द्र के लिये प्रवचन किया और शक्र .......चार्य मृत्यु को बताया ।


मृत्युः प्रोवाच रुद्रेभ्यो रुद्रेभ्यस्तण्डिमागमत् ।

महता तपसा प्राप्‍तस्तण्डिना ब्रह्मसद्मनि ॥१७६॥

तण्डिः प्रोवाच शुक्राय गौतमाय च भार्गवः ।

वैवस्वताय मनवे गौतमः प्राह माधव ॥१७७॥

नारायणाय साध्याय समाधिष्ठाय धीमते ।

यमाय प्राह भगवान् साध्यो नारायणोऽच्युतः ॥१७८॥

नाचिकेताय भगवानाह वैवस्वतो यमः ।

मार्कण्डेयाय वार्ष्णेय नाचिकेतोऽभ्यभाषत ॥१७९॥


पृष्ठ १२४

मार्कण्डेयान्मया प्राप्‍तो नियमेन जनार्दन ।

तवाप्यहममित्रघ्न स्तवं दद्यां ह्यविश्रुतम् ॥१८०॥


मृत्यु ने रुद्रगणों के लिये वर्णित किया, रुद्रगणों में यह स्‍तोत्र तण्डि को प्राप्‍त हुआ । तण्डि ने ब्रह्म स्थान में महती तपस्या के द्वारा इसे पाया ॥१७६॥


हे माधव ! तण्डि ने शुक्र और गौतम को इसका ज्ञान दिया । गौतम ने वैवस्वत मनु के निकट इसका वर्णन किया और मनु महाराज ने नारायण नामक बुद्धिमान् प्रियपात्र साध्य को इस स्‍तोत्र का उपदेश किया, अच्युत साध्य नारायण ने यम से कहा, सूर्य्यपुत्र भगवान् यम ने नचिकेता से कहा । हे वृष्णिवंशप्रसूत ! नचिकेता ने मार्कण्डेय मुनि के लिये वर्णन किया । हे जनार्दन ! यह स्तोत्र नियम पूर्वक मुझे मार्कण्डेय ऋषि के समीप से प्राप्‍त हुवा है । हे शत्रुनाशन ! मैं तुम्हें यह अविश्रुत स्तोत्र प्रदान करूंगा । (१७७-१८०) ।


शिवस्तोत्र के ज्ञाताओं तथा प्रचारकों की परम्परा का देवर्षि ब्रह्मा से लेकर योगिराज श्रीकृष्ण तक महाभारत में उल्लेख किया है । यह स्तोत्र तण्डि के नाक से अधिक प्रसिद्ध है, अतः तण्डिकृत कहलाता है ।


महाभारत में शिवजी के १००८ नामों का उल्लेख मिलता है, जो उनके गुण, कर्म, स्वभाव और इतिहास पर प्रकाश डालते हैं । महाभारत अनुशासन पर्व १७वें अध्याय के ३१वें श्लोक से १८२ श्लोक तक इनका वर्णन है । विस्तारभय से श्लोकों का परित्याग कर मैं केवल विशेष नामों का ही उल्लेख करता हूँ ।


पृष्ठ १२५


१. स्थाणु - कूटस्थ - नित्य है । इसी नाम के कारण प्राचीन प्रसिद्ध नगर स्थाण्वीश्वर (थानेसर) जो कुरुक्षेत्र के पास विद्यमान है, प्रसिद्ध हुवा, और सम्भव है इसे शिवजी महाराज ने बसाया हो और वे स्वयं भी यहां निवास करते थे, क्योंकि (२) कुरुकर्ता (३) कुरुवासी (४) कुरुभूत ये नाम भी शिवजी के ही हैं । कुरुक्षेत्र वा कुरुजांगलादि के निर्माता होने से कुरुकर्त्ता, इस प्रदेश में निवास करने के कारण कुरुवासी और इस प्रदेश को सर्वथा उन्नत करने के कारण इसी में रम गये, इसमें एकरूप होने से कुरुभूत नाम से प्रसिद्ध हुए । यह स्थाण्वीश्वर कुरुप्रदेश वा कुरुक्षेत्र का मुख्यनगर हरयाणे के सम्राट् महाराज हर्षवर्द्धन तक इस प्रदेश की राजधानी रहा । इस नगर का नाम आज तक स्थाण्वीश्वर शिव के स्थाणु नाम के कारण वा समान कूटस्थ सा ही रहा है । (५) महादेव जी सभी विद्याओं के द्वारा सबके कष्टों को हरते थे, इस गुण के कारण वे (६) हर नाम से सारे विश्व में विख्यात हुए ।


वैदिक नाम हरयाणा

जब ब्रह्मा जी ने वेद के आधार पर गुण, कर्म, स्वभावानुसार सभी अधिष्ठानों के नाम रक्खे उसी समय हरयाणा प्रान्त का नाम भी वेद के अनुसार ही रक्खा गया, जिसका आधार निम्नलिखित मन्त्र है -


ऋज्रमुक्षण्यायने रजतं हरयाणे ।

रथं युक्तमसनाम सुषामणि ॥ऋग्वेद ८।२५।२२॥

अभिप्राय यह है कि जिस प्रदेश में समतल होने के कारण


पृष्ठ १२६

आवागमन सुगमता से हो सके, वाहन (सवारी) तथा अन्य कृषि आदि कार्यों के लिए बैल आदि पशु जहां बहुतायत से उपलब्ध हो सकते हों । जो भूभाग निरुपद्रव और शान्तियुक्त हो उसका नाम हरयाणः हो सकता है । इस मन्त्र के अनुसार ब्रह्मा जी को इस प्रदेश में उपर्युक्त सभी गुण दिखलाई दिये अतः इसका नाम हरयाणः रक्खा गया, जिसकी प्रसिद्धि शिवजी महाराज के लोकप्रिय गुणों के कारण शीघ्र ही समस्त भूमण्डल पर हो गई, जिसे आप वर्तमान में हरयाणा नाम से स्मरण करते हैं, यह उस प्राचीन हरयाणः प्रदेश का ही एक अंग है ।


शिवजी महाराज के हर नाम के अनुसार उन्हीं के समान अपने ज्ञान आदि गुणों के द्वारा सारे संसार का कष्ट हरने के कारण भी प्रसिद्ध हो गया । सारा भारत हर हर महादेव की गूंज से घोषित हो उठा और यह नाद आर्यजाति का युद्धघोष बन गया । देवर्षि ब्रह्मा से लेकर महर्षि व्यास पर्यन्त इसी देवभूमि ब्रह्मर्षि देश हरयाणे में यज्ञ-याग करते आये हैं । इन्होंने अपने गुरुकुल और आश्रमों का निर्माण यहीं पर किया और इस पवित्र कुरुभूमि में ज्ञान-यज्ञ की ऐसी ज्योति प्रज्वलित की कि जिसने सारे संसार को वेदज्ञान की ज्योति से प्रकाशित कर दिया । मनु जी महाराज को भी विवश हो इस सत्य की पुष्टि निम्नलिखित श्लोक बनाकर करनी पड़ी -


एतद्‍देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥


यहां इस ब्रह्मर्षि देश हरयाणे की पवित्र भूमि में बने देवों, ऋषियों और आचार्यों के आश्रमों तथा गुरुकुलों में सारे भूमंडल


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के लोग वेदज्ञानविहित चरित्र की शिक्षा लेते थे । फिर महादेव के समान देवता विद्वान् कुरुभूमि के निर्माता इस कुरुभूमि हरयाणे के स्वयं निवासी बनकर अपने विद्या के अगाध सरोवर में संसार के दुःखी लोगों का स्नान कराके, उनको पवित्र बना, उनके कष्टों को हरकर अपने हर नाम को क्यों नहीं सार्थक करते? अवश्य करते । वे तो इससे भी आगे बढ़े ।अपने महाराणी पार्वती (गौरी), गौरीपुत्र गणेश और कार्त्तिकेय को इस कुरुभूमि के निर्माण में लगा दिया, सारे परिवार ने इसे अपने घर बना लिया । कार्त्तिकेय ने हरद्वार के निकट अपने वाहन (ध्वज) के नाम पर मयूरपुर नामक नगर बसाया, जो कनखल में अब भी मायापुर के नाम से प्रसिद्ध है, जिसके अवशेष अब खण्डहर के रूप में विद्यमान हैं । रोहतक को अपनी छावनी बना कर देव सेनापति ब्रह्मचारी स्कन्द ने महर्षि व्यास से महाभारत में इस इतिहास के तथ्य को कार्त्तिकेयस्य दयितं (भवनम्) रोहितकम् इस रूप में लिखवा दिया । अर्थात् कार्त्तिकेय का प्रियनगर और भवन (निवास स्थान) रोहतक था । आज तक प्रचलित महादेव पार्वती की सहस्रों कथायें यही सिद्ध करती हैं कि महेश का सारा परिवार इसी ब्रह्मर्षि देश में बहुत वर्ष तक निवास करता रहा और इसके निर्माण में अपना सर्वस्व लगाकर कुरुभूत हो गया ।


इसी कुरुभूमि हरयाणा में सभी शुभ कार्यों के आरम्भ में प्रचलित विध्ननिवारक विनायक गणेश की पौराणिक पूजा, देवी (पार्वती) और शिवजी के उत्सव वा वार्षिक तथा षाण्मासिक मेले, शिवालयों के रूप में प्रत्येक ग्राम नगर के ऊंची शिखर वाले बने मन्दिर, ये सभी इस सत्य इतिहास के प्रत्यक्ष


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प्रमाण और साक्षी हैं कि हर और उसका परिवार हरयाणे के कुरुभूत वा हरयाणाभूत हो गया था । इसी कारण हरयाणे ने भी अपने कुरुजांगल, कुरुभूमि, ब्रह्मर्षिदेश आदि अनेक प्रसिद्ध नाम भुला से दिये । हर के प्रेम में यह प्रदेश इतना मत्त वा पागल हो गया कि हर हर महादेव का घोष लगाते-लगाते केवल हरयाणे नाम का ही स्मरण रक्खा । यह प्रदेश हर का अनन्यभक्त वा श्रद्धालु आज तक है ।


७- शिवः, ८-दीनसाधकः, ९-सर्वाश्यः, १०- सर्वशुभंकरः आदि नाम प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में हैं । वह दीन-दुःखियों के दुःखों को दूर करने वाला, सबका कल्याणकारी, एकमात्र आधार सहारा था । मनुष्यों का ही नहीं, गौ नन्दी बैल सांड आदि सभी पशुओं का पालक और रक्षक था । इसीलिए ११-पशुपति, १२-गोपालि, १३-गोपति, १४-नन्दीश्वर, १५-नन्दीवर्धन, १६-गोवृषेश्वर आदि नामों से प्रसिद्ध हुआ । यही नहीं, गावो विश्वस्य मातरः गौ सारे संसार की माता है, वे इस रहस्य को भली-भांति जानते थे अतः अपने विशाल ध्वज का चिह्न गो-जाति के प्रतीक नन्दी सांड को बनाया और १७-महाकेतु, १८-वृषकेतु, १९-वृषभध्वज, २०-गोवृषोत्तमवाहन आदि नामों से भी वे आज तक विख्यात रहे ।


पुष्ट्यै गोपालम् व्यक्ति देश, समाज वा राष्ट्र को सर्वप्रकार से पुष्ट करने के लिए गोपालक होना अनिवार्य है, वेद की इस आज्ञा के अनुसार वे गोपालक और गोपति बने । गौ, वा वृष को अपने ध्वज का चिह्न बनाकर सदा के लिये गोमाता को ही


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नहीं, सारे गोवंश को ही प्राणिमात्र में श्रेष्ठ और सबका पूज्य बना दिया । गौ सब गुणों की खान है । गोमाता में सब दिव्य गुणों (देवताओं) का वास है, इस बात को वे देवों के देव २१-महादेव भली भांति जानते थे । इसीलिये वे देवों के ही नहीं, असुरों के भी नेता बने, क्योंकि गोमाता तो देव, असुर, मनुष्य, पिशाच, राक्षस सभी को अपना अमृतरूपी दूध, दही, घी आदि प्रदान करती है । इसीलिये देव असुर सभी के शिवजी महाराज प्रिय और श्रद्धा के पात्र थे । अतःएव महर्षि व्यास ने इन्हें इन नामों से स्मरण किया है -


२२- देवासुरविनिर्माता २३- देवासुरपरायणः ॥१४४॥

२४- देवासुरगुरुः २५- देवो २६-देवासुरनमस्कृतः ।

२७- देवासुरमहामात्रो २८- देवासुरगणाश्रयः ॥१४५॥

२९- देवासुरगणाध्यक्षो ३०- देवासुरगणाग्रणीः ॥

३१- देवातिदेवो ३२-देवर्षिः ३३- देवासुरवरप्रदः ॥१४६॥

३४- देवासुरेश्वरो ३५-विश्वो ३६- देवासुरमहेश्वरः ।

३७- सर्वदेवमयो ३८- अचिन्त्यो ३९- देवात्मा ४०- आत्मसम्भवः ॥१४७॥


उपरिलिखित नामों से सिद्ध होता है कि वे देव और असुर दोनों के ही गुरु, महामात्र (परामर्शदाता) प्रिय, आश्रयदाता स्वामी, कल्याण चाहने वाले अग्रणी नेता थे । देव और असुर दोनों के गणों के निर्माण करने वाले थे । वे दोनों के ही पूज्य थे । सब देवासुर उनको आदरपूर्वक नमस्कार करते थे । वे उनको अपना अध्यक्ष और महेश्वर मानते थे, देवों के देव होने से महादेव कहलाते थे । उनकी शक्ति और गुण इतने थे कि वे देवों के


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तो आत्मा ही थे । उनकी शक्ति आदि अचिन्त्य (विचार में न आने वाली) थी । वे स्वयम्भू अमैथुनी सृष्टि में हुए थे अथवा अपने कार्यों के लिए उन्हें किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं थी । सभी के स्वामी होने से वे महेश्वर अथवा देवराज इन्द्र के भी स्वामी कहे जाते थे । वे इन्द्र से भी महान् थे । प्रारम्भ में सभी देवासुर उनके ही अधीन थे । क्योंकि वे ४१- ब्रह्मचारी, ४२- जितेन्द्रिय, ४३- ऊर्ध्ववेता, ४४- तपस्वी, ४५- महातपः, ४६-योगी, ४७- सिद्धयोगी, ४८-मुनि, ४९-महात्मा, ५०-महर्षि थे । इसीलिए ५१-महायशस्वी होकर महादेव और महेश्वर की पदवी को प्राप्‍त हुए ।


चारों वेदों का सांगोपांग श्रद्धापूर्वक ५२-व्रताधिप बन कर अध्ययन किया । इस प्रकार ५३- महापण्डित विद्वान् बनकर लोककल्याण किया और पवित्र स्वभाव के कारण ५४-शीलधारी कहलाये । अतः देवासुर सब ही उनको अपना ५५-देवासुरपति मानने पर विवश हुए ।


वे आदर्श सन्तानोत्पत्ति के लिए ही गृहस्थ में प्रविष्ट हुए, इसीलिए गृहस्थ होते हुए भी ब्रह्मचारी ऊर्ध्वरेता नाम से विख्यात हुए । और अपने अनुरूप महायोद्धा गणेश और देवसेनापति कार्तिकेय के समान गुणी सन्तान के पिता बने । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में देवासुर सबने मिलकर उनको अपना अध्यक्ष चयन किया था इसीलिये देवासुरेश्वर, ५६-देवेन्द्र, देवात्मा, देवासुरगणाध्यक्ष आदि नामों से सुशोभित हुए ।


प्रारम्भ में त्रिविष्टप् में सभी देवासुरों की सृष्टि उत्पन्न हुई थी और देवताओं का राज्य आरम्भ से महाभारत के बहुत


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पीछे तक वहां पर रहा । देव मिलकर देवराज इन्द्र का चुनाव करते थे और सभी ने मिलकर उसे स्वर्ग (सभी सुखों से युक्त) सुखदायी बना रखा था, इसीलिए त्रिविष्टप्, मोक्षद्वार, प्रजाद्वार और स्वर्गद्वार इन नामों से यह स्थान प्रसिद्ध हुआ और उस समय में देवराज इन्द्र स्वयं महादेव जी थे । इस कारण उनके नाम ५७-स्वर्गद्वार, ५८- प्रजाद्वार, ५९-मोक्षद्वार, ६०-त्रिविष्टप् पड़ गये । क्योंकि शिवजी महाराज देवेन्द्र प्रजा के लिए त्रिविष्टप् स्वर्ग और मोक्षप्राप्‍ति का द्वार बन गए थे । अतः उपरिलिखित नाम भी उनके साथ जुड़ गये । देवासुर प्रजा उन पर इतनी मुग्घ वा प्रसन्न थी कि उनको अपना ६१- पिता, ६२- माता, ६३-पितामह सब कुछ मानती थी ।


वे ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी होने के कारण सर्वप्रकार के रोगों से रहित ६४- निरामय जीवनपर्यन्त पूर्ण स्वस्थ रहे । क्योंकि वे आयुर्वेद विद्या के भी बहुत अच्छे विद्वान् ६५-वैद्य थे । सारी प्रजा को स्वस्थ रहने के उपाय बताते थे । आवश्यकता पड़ने पर रोगों की चिकित्सा भी करते थे । अतः कुशल चिकित्सक होने से ६६-धनवन्तरि नाम से विभूषित थे ।


स्थावर संखिया, कुचलादि और जंगम सर्प, बिच्छू आदि विषों की चिकित्सा में निष्णात थे अतः हालाहल विष का पान, भयंकर विषधर सर्पों का उनके गले वा हाथों पर लिपटे रहना यही सिद्ध करते हैं कि इन्हें विषों से किसी प्रकार का भय नहीं था, इसी कारण ६७-सर्पचीरनिवासन सर्प को वस्‍त्र के समान धारण करने वाले थे । अन्यत्र नागमौञ्जी, नागकुण्डलकुण्डली, नागयज्ञोपवीती, नागचर्मोत्तरच्छद, सर्पकण्ठाग्राधिष्ठित,


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सर्पकण्ठोपहार आदि नामों से शिव को स्मरण किया है । वे अन्य सभी रोगों के चिकित्सक थे ।


उनका अपना स्वस्थ, सुदृढ़, सुन्दर, सुडौल शरीर था । इसीलिए ६८-महाकाय, ६९-महाहनुः, ७०-महारूप, ७१-विशालाक्ष, ७२-महानेत्र, ७३-महावक्षा, ७४-महोरस्कः, ७५-महामूर्धा, ७६-महाहस्त, ७७-महापाद और ७८-लम्बन आदि नामों से विभूषित किया है ।


उनका शरीर ही केवल आदर्श वा दर्शनीय नहीं था । वे क्षत्रियोचित सभी गुणों से युक्त थे । इसलिए ७९-बलवीर, ८०-देवसिंह, ८१-महाबल, ८२-गजहा, ८३-दैत्यहा, ८४-सुबल, ८५-विजय और ८६-पुरन्दर (शत्रु के पुरों दुर्गों को उजाड़ने वाला) आदि नाम क्षात्रप्रधान स्वभाव के सूचक हैं । महादेव जी के ८७-रुद्र, ८८-तिग्मतेज, ८९-तिग्मन्यु, ९०-रौद्ररूप, ९१-सिंहशार्दूलरूप, ९२-सिंहनाद, ९३-शत्रुविनाशन आदि नाम एक सच्चे वीर क्षत्रिय गुण-कर्म और स्वभाव वाले नाम हैं ।


इसीलिए वे ९४-महारथः, ९५-महासेनः, ९६-चमूस्तम्भनः, ९७-सेनापति आदि विशेषणों और पदों से सुशोभित हुए । वे सभी अस्त्रों-शस्त्रों के विद्या में सिद्धहस्त थे अर्थात् धनुर्वेद के प्रकाण्ड विद्वान् थे । इसीलिए महाभारत में निम्नलिखित नाम तथा गुणों की चर्चा की है - ९८-कमण्डलुधरो, ९९-धन्वी, १००-बाणहस्तः, १०१-कपालवान्, १०२-अशनी, १०३-शतघ्नी, १०४-खड्गी, १०५-पट्टिशी, १०६-चायुधी महान् ।


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जहां वे महात्मा के रूप में कमडलुधारी थे वहां वे धनुष-बाण, अशनी, शतघ्नी, खड्ग, पट्टिश (परशु) आदि अस्त्र शस्त्रों को धारण करने वाले महान् योद्धा भी थे । बहुत प्रकार के अस्त्र शस्त्रों के प्रयोग करने में निपुण होने से महान् आयुधी कहलाते थे । १०७-शूलधर त्रिशूलधारी नाम भी अन्यत्र (महाभारत में) दिया हुवा है । इनका एक नाम वज्रहस्त भी मिलता है । अस्त्र शस्त्र ही इनके आभूषण थे ।


एक शूरवीर क्षत्रिय के सभी गुणों से वे अन्वित थे । इसीलिये राजाओं के राजा १०८-राजराजः १०९-प्रजापति ११०-अमरेश १११-लोकपाल ११२-लोकधाता ११३-गणकर्त्ता और ११४-गणपति आदि नाम अपने समय में राज्य के सबसे प्रमुख प्रधानाधिकारी होने के सूचक हैं । आदि सृष्टि में गणराज्य वा पंचायतराज्य के वे ही प्रथम निर्माता वा संस्थापक थे । इसीलिये महाभारत में ११५-गणाध्यक्ष और ११६-परिषत्-प्रिय - ये नाम भी शिवजी के आये हुये हैं । अपने युग में सब से अधिक योग्य होने से गणाध्यक्ष और महासेनापति चुने गये थे ।

इनके प्रिय शस्त्र पिनाक धनुष, त्रिशूल, परशु आदि के चित्र इनको मानने वाले गण यौधेयादि ने अपनी मुद्राओं पर भी अंकित किये हैं ।


ये युद्धक्षेत्र में अनेक प्रकार के वाद्यों (बाजों) को बजवाते थे । स्वयं भी वाद्यविद्या और संगीतविद्या में निपुण थे । इसीलिये इनके नाम ११७-वेणवी, ११८-पणवी, ११९-ताली, १२०-खली, १२१-कालकंटक आदि महाभारत में आये हैं । बांसुरी, ताल, ढोल, डमरू आदि वाद्य बजवाते थे और


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धनधान्य से इनका कोष परिपूर्ण रहने से खली वैश्रवण (कुबेर) इन के नाम पड़े । काल मृत्यु की माया को आच्छादन करने वाले (ढकने वाले) थे । काल को भी वश में कर रक्खा था ।


वे ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रम में शिखा रखने से १२२-शिखी, वानप्रस्थ में जटा रखने से १२३-जटी, और सन्यास में भद्र (मुण्डन) करवाने से १२४-मुण्डी कहलाये । वे आरम्भ में कैलाश पर्वत पर रहते थे अथवा ग्रीष्मकाल में उनकी बसती कैलाश पर्वत पर रहती थी । अन्य ऋतुओं में स्थाण्वीश्वर आदि स्थानों में उनका निवास रहता था । इसीलिए वे १२५-कैलाश-गिरिवासी कहलाते थे । महर्षि दयानन्द ने भी पूना के व्याख्यानों में इसकी पुष्टि की थी । यथा - “फिर दूसरे हिमाच्छादित भयंकर ऊंचे प्रदेश में महादेव वास करने लगा, उसे कैलाश कहते थे ।” (उपदेशमंजरी, व्याख्यान ८)


कैलाश पर्वत, कुरुप्रदेश आदि की शासन व्यवस्था करने के लिए शिवजी महाराज भ्रमण करते रहते थे, शीघ्रता से आने जाने के लिए वे वायुयान का प्रयोग किया करते थे, जिसका आकार बाहर से नन्दी (वृषभ) के समान था । उस विमान पर वृषभ के चित्र से युक्त ध्वज (झण्डा) लहराता रहता था । वाल्मीकीय रामायण में लिखा है -


ततो वृषभमास्थाय पार्वत्या सहितः शिवः ।

वायुमार्गेण गच्छन् वै शुश्राव रुदितस्वनम् ॥२७॥

अमरं चैव तं कृत्वा महादेवोऽक्षरोऽव्ययः ॥२९॥

पुरमाकाशगं प्रादात् पार्वत्याः प्रियकाम्यया ॥३०॥

(रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग ४)


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$ वृषभाकार वायुयान पर शिवजी महाराज पार्वती के साथ बैठकर वायुमार्ग (आकाश) से जा रहे थे कि उन्हें एक राक्षस बालक का आर्तनाद सुनाई दिया । माता पार्वती को उस पर दया आ गई और विमान रुकवाकर उस बालक की सुरक्षा का प्रबन्ध कर दिया और बड़ा होने पर उस राक्षस जाति के बालक को एक नगराकारी (नगर के आकार वाला) आकाशचारी विमान पुरस्कृत किया ।


शिवजी का विमान कभी बादलों के ऊपर तो कभी बादलों को चीरता हुवा सदा भ्रमण करता रहता था, इसी कारण शिव के १२६-वायुवाहन, १२७-महामेघवासी, १२८-खचर १२९-खेचर (आकाश में विचरने वाला) इत्यादि अनेक पर्यायवाची नाम पड़ गये थे । इस प्रकार वे लम्बी-लम्बी यात्राओं तथा आवश्यक कार्य की शीघ्र सिद्धि के लिये सदा ही वायुयान (विमान) से गमनागमन करते थे । इसी बात को महर्षि दयानन्द जी ने पूना के व्याख्यानों में कहा है कि जब आर्यावर्त की संख्या अधिक हुई तो उसे न्यून करने के लिये आर्य लोग (शिव आदि) अपने साथ मूर्ख → (अगला पृष्ठ देखें)

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$ यहां लुप्‍तोपमा है । अर्थ होगा - वृषभाकारमिव यानमास्थाय, वृषभमास्थाय, बिना इव और वत् निर्देश के भी इनका अर्थ गम्यमान हो जाता है । जैसे गाङ्कुटादिभ्योऽञ्णिन्ङित् (अष्टाध्यायी १-२-१) के भाष्य पर पतञ्जलि मुनि लिखते हैं - ङित् को ङिद्‍वत् पढ़ना चाहिये, इसका निराकरण करते हुये वे कहते हैं - अन्तरेणापि वतिमतिदेशो गम्यते वतिमतिदेशो गम्यते तद्यथा "एष ब्रह्मदत्तः" अब्रह्मदत्तं ब्रह्मदत्त इत्याह । ते मन्याहे - ब्रह्मदत्तवदयं भवतीति । एवमिहाप्यङितं ङिदित्याह, ङिद्‍वदिति गम्यते । अकितं किदित्याह किद्‍वदिति गम्यते । इसी प्रकार यहां भी केवल "वृषभम्" इस पद से "वृषभमिव" और "वृषभवत्" ऐसा अर्थ निकलता है ।

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शूद्र अनार्य लोगों को लेकर विमान उड़ाते फिरते, जहां सुन्दर प्रदेश देखते, झट वहीं पर बस जाते थे । इससे भी यही सिद्ध होता है कि शिवादि सदा विमानों से ही आया जाया करते थे ।

देवयुग में वर्णाश्रम धर्म

ब्रह्मा से लेकर जैमिनि पर्यन्त हमारे देवर्षि व्यक्ति और समाज की उन्नति के लिए जिस वर्णाश्रम धर्म को मानते चले आये हैं, उसकी देवयुग के प्रारम्भ में क्या व्यवस्था थी, पाठकों के ज्ञानार्थ इस पर प्रकाश डालना उचित है ।

वर्णाश्रमधर्म ही आर्यों की संस्कृति के प्राण है, इसीलिए देवर्षि महर्षि दयानन्द जी ने भी इस पर अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश [1] में बड़ा बल दिया है । वे पांचवें समुल्लास में लिखते हैं “विद्या पढ़ने, सुशिक्षा लेने और बलवान् होने आदि के लिए ब्रह्मचर्य, सब प्रकार के उत्तम व्यवहार सिद्ध करने के अर्थ गृहस्थ, विचार ध्यान और विज्ञान बढ़ाने, तपश्चर्या करने के लिए वानप्रस्थ और वेदादि सत्यशास्‍त्रों के प्रचार, धर्म व्यवहार का ग्रहण और दुष्ट व्यवहार के त्याग, सत्योपदेश और सबको निःसन्देह करने आदि के लिए सन्यासाश्रम है ।” क्योंकि वे ही धर्मात्मा जन सन्यासी और महात्मा हैं जो स्वयं धर्म में चलकर सब संसार को चलाते हैं जिस से आप और सब संसार को इस लोक अर्थात् वर्तमान जन्म में परलोक अर्थात् दूसरे जन्म में स्वर्ग अर्थात् सुख का भोग करते कराते हैं ।


इसी वर्णाश्रम धर्म का उपदेश महेश्वर शिवजी महाराज ने उमा (पार्वती) के कहने पर नारद आदि ऋषियों को दिया था ।


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महाभारत अनुशासन पर्व में उसका विस्तार से वर्णन दिया है । उसका थोडा सा दिग्दर्शन कराता हूँ ।

उमोवाच

भगवन् देवदेवेश नमस्ते वृषभध्वज ।

श्रोतुमिच्छाम्यहं देव धर्ममाश्रमिणां विभो ॥

(अ० १४१, श्‍लो० ६०)


पार्वती बोली - भगवन् ! देवदेवेश्वर ! वृषभध्वज ! देव ! आपको नमस्ते (नमस्कार) है । प्रभो ! अब मैं आश्रमवालों का धर्म सुनना चाहती हूँ ।


श्रीमहेश्वर उवाच

तथाश्रमगतं धर्मं श्रणु देवि समाहिता ।

आश्रमाणां तु यो धर्मः क्रियते ब्रह्मवादिभिः ॥


श्री महेश्वर जी ने कहा - देवि ! एकाग्रचित्त होकर आश्रमधर्म का वर्णन सुनो । ब्रह्मवादी मुनियों ने आश्रमों का जो धर्म निश्चित किया है, वही यहां बताया जाता है ।


ब्रह्मचर्य आश्रमियों का धर्म


यह आश्रम शेष तीनों आश्रमों का मूल है । इसके सुधरने से सभी आश्रम सुधर जाते हैं और इसके बिगड़ने से सब बिगड़ जाते हैं । इसके विषय में शिवजी महाराज कहते हैं -

रहस्यश्रवणं धर्मो वेदव्रतनिषेवणम् ।

अग्निकार्यं तथा धर्मो गुरुकार्यप्रसाधनम् ॥३५॥


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भैक्षचर्या परो धर्मो नित्ययज्ञोपवीतिता ।

नित्यं स्वाध्यायिता धर्मो ब्रह्मचर्याश्रमस्तथा ॥३६॥

धर्म का रहस्य सुनना, वेदोक्त व्रतों का पालन करना होम और गुरुसेवा करना यह ब्रह्मचर्य आश्रमवासियों का धर्म है । ब्रह्मचारी के लिए भैक्षचर्या (गांवों में से भिक्षा मांगकर लाना और उसे गुरु को समर्पित करना) परमधर्म है । नित्य यज्ञोपवीत धारण किये रहना, प्रतिदिन वेद का स्वाध्याय करना और ब्रह्मचर्याश्रम के नियमों के पालने में लगे रहना, ब्रह्मचारी का प्रधान धर्म है ।


गृहस्थ धर्म


गृहस्थः प्रवरस्तेषां गार्हस्थं धर्ममाश्रितः ।

पञ्चयज्ञक्रियाः शौचं दारतुष्टिरतन्द्रिता ॥

ऋतुकालाभिगमनं दानयज्ञतपांसि च ।

अविप्रवासस्तस्येष्टः स्वाध्यायश्चाग्निपूर्वकम् ॥


गार्हस्थ्य धर्म पर प्रतिष्ठित गृहस्थ आश्रम श्रेष्ठ है । पञ्चमहायज्ञों का करना, बाहर भीतर की पवित्रता, अपनी ही स्‍त्री से सन्तुष्ट रहना, आलस्य त्याग, ऋतुकाल में केवल सन्तान के लिए पत्‍नी को वीर्य दान देना, दान, यज्ञ और कष्ट सहते हुए भी धर्माचरण करना, तपस्या में लगे रहना, पति-पत्‍नी का साथ रहना, एकाकी बहुत काल तक अन्य प्रदेश में पत्‍नी से दूर न रहना और अग्निहोत्र पूर्वक वेदशास्‍त्रों का स्वाध्याय - ये गृहस्थाश्रम के अभीष्ट धर्म हैं ।


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गृहस्थ का विशेष धर्म


श्रीमहेश्वर उवाच

अहिंसासत्यवचनं सर्वभूतानुकम्पनम् ।

शमो दानं यथाशक्ति गार्हस्थ्यो धर्म उत्तमः ॥

(अनुशासन पर्व १४१-२५)


देवि ! किसी भी जीव की हिंसा न करना, सत्य बोलना, सब प्राणियों पर दया करना, मन और इन्द्रियों को वश में रखना तथा अपने शक्ति के अनुसार दान देना गृहस्थ का उत्तम धर्म है ।

परदारेष्वसंसर्गो न्यासस्‍त्रीपरिरक्षणम् ।

अदत्तादानविरसो मधुमांसस्य वर्जनम् ॥२६॥

परस्‍त्री से संसर्ग न रखना, धरोहर और स्‍त्री की रक्षा करना, बिना दिये वा पूछे किसी की वस्तु न लेना, मांस मदिरा का सेवन कभी न करना - ये गृहस्थ तथा सामान्यतया अन्य सब का भी धर्म है ।


वानप्रस्थ धर्म


जो घर का वास त्यागकर वन में ही निवास और वन में उत्पन्न आहार पर निर्वाह करे, उस (वानप्रस्थ) का विशेष धर्म यह है -

भूमिशय्या जटाश्मश्रुचर्मवल्कलधारणम् ।

अग्निहोत्रं त्रिषवणं तस्य नित्यं विधीयते ।।


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पृथ्वी पर सोना, जटा और दाढी मूंछें रखना, मृगचर्म वा वृक्षों के वल्कलवस्त्र धारण करना, प्रतिदिन अग्निहोत्र करना, त्रिकाल स्नान का विधान है ।

ब्रह्मचर्यं क्षमा शौचं तस्य धर्मः सनातनः ।

एवं च विगते प्राणे देवलोके महीयते ॥


ब्रह्मचर्य, क्षमा और शौचादि उसका सनातन धर्म है । ऐसा करने वाला वानप्रस्थ मृत्यु के पश्चात् देवलोक को प्राप्‍त होता है ।


यतिधर्म


यतिधर्मास्तथा देवि गृहांस्त्यक्त्वा यतस्ततः ।

अकिञ्चन्यमनारम्भः सर्वतः शौचमार्जवम् ॥


हे देवि ! यति संन्यासी का धर्म इस प्रकार है । संन्यासी गृह त्यागकर अन्यों के कल्याणार्थ उपदेश देता हुआ इधर उधर विचरता रहे । वह अपने पास किसी वस्तु का संग्रह न करे, लोभी न हो । व्यर्थ के कार्यों में न फंसे । सब ओर से पवित्रता और सरलता को वह अपने भीतर स्थान दे । और –


सर्वत्र भैक्षचर्या च सर्वत्रैव विवासनम् ।

सदा ध्यानपरत्वं च दोषशुद्धिः क्षमा दया ॥

तत्त्वानुगतबुद्धित्वं तस्य धर्मविधिर्भवेत् ॥


सर्वत्र भिक्षा से जीवन यापन करे । किसी स्थान में मोह करके न रहे । अपना घर न बनावे । सदा ध्यान में तत्पर रहना, दोषों से शुद्ध रहना, सब पर क्षमा और दया का भाव


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रखते हुए कल्याणार्थ उपदेश देना । अर्थात् कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर लगाना और बुद्धि को सदैव शुभकार्यों के चिन्तन में लगाये रहना । ये सब संन्यासी के धर्म हैं । ऐसे अतिथि की सेवा करना सब का कर्त्तव्य है ।

तस्य पूजा यथाशक्त्या सौम्यचित्तः प्रयोजयेत् ।

चित्तमूलो भवेद्‍धर्मो धर्ममूलं भवेद्यशः ॥

अतः कोमलचित्त होकर श्रद्धापूर्वक ऐसे संन्यासी अतिथि की यथाशक्ति सेवा करनी चाहिए । क्योंकि चित्त की शुद्धि धर्म का मूल है और यश का मूल धर्म है ।


दान की महिमा


श्रेयो दानं च भोगश्च धनं प्राप्य यशस्विनि ।

दानेन हि महाभागा भवन्ति मनुजाधिपाः ॥


हे यशस्विनि ! धन पाकर उसका दान और भोग करना भी श्रेष्ठ है, परन्तु दान करने से मनुष्य महान् शौभाग्यशाली नरेश होते हैं ।


नास्ति भूमौ दानसमं नास्ति दानसमो निधिः ।

नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातक परम् ॥


इस भूमि पर दान के समान कोई दूसरी वस्तु नहीं है । दान के समान कोई निधि नहीं है । सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और असत्य से बढ़कर कोई पातक (गिराने वाला) पापकर्म नहीं है ।


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वर्णधर्म


विप्राः कृता भूमिदेवा लोकानां धारणे कृताः ।

ते कैश्चिन्नावमन्तव्या ब्राह्मणाहितमिच्छुभिः ॥


ब्राह्मणों को इस भूमि का देवता बनाया है । वे सब लोकों की प्रजा की रक्षार्थ उत्पन्न किये हैं । अतः अपना हित चाहने वाले किसी भी मनुष्य को ब्राह्मणों का अपमान नहीं करना चाहिये । जो अविद्या के नाश और विद्या की वृद्धि के द्वारा संसार को सुखी बनाते हैं, उन ब्राह्मणों का सदैव सर्वत्र आदर सत्कार होना चाहिये ।


ब्राह्मण का कर्त्तव्य

स्वाध्यायो यजनं दानं तस्य धर्म इति स्थितिः ।

कर्माण्यध्यापनं चैव याजनं च प्रतिग्रहः ॥

सत्यं शांतिस्तपः शौचं तस्य धर्मः सनातनः ॥


वेदों का स्वाध्याय, पठन-पठन, यज्ञ करना-कराना, दान देना और लेना शास्‍त्रविहित ब्राह्मण का धर्म है । वेदों का पढ़ना, यजमान का यज्ञ कराना और दान लेना ये ब्राह्मण की जीविकार्थ साधनभूत कर्म हैं । सत्याचरण करना, मन को वश में रखना, शुद्ध आचार का पालन करना, यह ब्राह्मण का सार्वकालिक सनातन धर्म है ।

विक्रयो रसधान्यानां ब्राह्मणस्य विगर्हितः । रस और धान्य (अनाज) का विक्रय करना ब्राह्मण के लिये निन्दित है ।


पृष्ठ १४३

तप एव सदा धर्मो ब्राह्मणस्य न संशयः ।

स तु धर्मार्थमुत्पन्नः पूर्वं धात्रा तपोबलात् ॥


सदा तप करना ही ब्राह्मण का धर्म है, इसमें संशय नहीं है । विधाता ने पूर्वकाल में धर्म का अनुष्ठान करने के लिये ही अपने तपोबल से ब्राह्मण को उत्पन्न किया था ।


न्यायतस्ते महाभागे ! सवंशः समुदीरितः ।

भूमिदेवा महाभागाः सदा लोके द्विजातयः ॥३०॥


महाभागे ! मैंने तुम्हारे निकट सब प्रकार से धर्म का निर्णय किया है । महाभाग ब्राह्मण अपने परोपकारी जीवन के कारण इस लोक में सदा भूमिदेव माने गये हैं ।


क्षत्रिय का आचार वा धर्म

क्षत्रियस्य स्मृतो धर्मः प्रजापालनमादितः ।

निर्दिष्टफलभोक्ता हि राजा धर्मेण युज्यते ॥

(अनुशासन पर्व १४१-४७)


क्षत्रियों का सर्वप्रथम धर्म प्रजा का पालन करना है । प्रजा की आय के छठे वा दसवें भाग का उपभोग करने वाला राजा धर्म का फल प्राप्‍त करता है ।


क्षत्रियास्तु ततो देवि द्विजानां पालने स्मृताः ।

यदि न क्षत्रियो लोके जगत्स्यादधरोत्तरम् ॥

रक्षणात् क्षत्रियैरेव जगद् भवति शाश्वतम् ॥


देवि ! क्षत्रिय सब द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के पालन में तत्पर रहते हैं । यदि संसार में क्षत्रिय न होता तो


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इस जगत् में भारी विप्लव (गड़बड़) हो जाता । क्षत्रियों द्वारा रक्षा होने से यह जगत् सदैव सुरक्षित टिका रहता है ।


तस्य राज्ञः परो धर्मो दमः स्वाध्याय एव च ।

अग्निहोत्रपरिस्पन्दो दानाध्ययनमेव च ॥४९॥

राजा का परम धर्म है इन्द्रिय संयम, ब्रह्मचर्यपालन, वेद का स्वाध्याय, अग्निहोत्र कर्म दान और अध्ययन ।


सम्यग्दण्डे स्थितिर्धर्मो धर्मो वेदक्रतुक्रियाः ।

व्यवहारस्थितिधर्मः सत्यवाक्यरतिस्तथा ॥५१॥


अपराध के अनुसार उचित दण्ड देना, वैदिक यज्ञादि धर्म कार्यों का अनुष्ठान, व्यवहार में न्याय की रक्षा करना और सत्यभाषण में अनुरक्त होना सभी कर्म राजा वा क्षत्रिय के धर्म ही हैं ।


महर्षि देव दयानन्द ने इस विषय में बहुत अच्छा लिखा है - “इसलिए ब्राह्मण भी अपना कल्याण चाहें तो क्षत्रियादि को वेदादि सत्यशास्त्र का अभ्यास अधिक प्रयत्‍न से करावें । क्योंकि क्षत्रियादि ही विद्या, धर्म, राज्य और लक्ष्मी की वृद्धि करने हारे हैं, वे कभी भिक्षावृत्ति नहीं करते, इसलिए वे विद्या व्यवहार में पक्षपाती भी नहीं हो सकते । और जब सब वर्णों में विद्या सुशिक्षा होती है तब कोई भी पाखण्डरूप अधर्मयुक्त मिथ्या व्यवहार को नहीं चला सकते, इससे क्या सिद्ध हुआ कि क्षत्रियादि को नियम में चलाने वाले ब्राह्मण और संन्यासी तथा ब्राह्मण और संन्यासी को सुनियम में चलाने वाले क्षत्रियादि होते हैं ।”


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इसलिए सब वर्णों के स्‍त्री पुरुषों में विद्या और धर्म का प्रचार अवश्य होना चाहिए ।


क्षत्रिय को मोक्षप्राप्‍ति


आर्त्तहस्तप्रदो राजा प्रेत्य चेह महीयते ।

गोब्राह्मणार्थे विक्रान्तः संग्रामे निधनं गतः ॥५२॥

अश्वमेधजितांल्लोकानाप्नोति त्रिदिवालये ॥५३॥


जो राजा वा क्षत्रिय दुःखी मनुष्यों को हाथ का सहारा देता है, सहायता करता है, वह इस लोक और परलोक में भी सम्मानित होता है । गौवों और ब्राह्मणों को संकट से बचाने के लिए जो पराक्रम दिखाकर संग्राम में परलोक गमन करता है, वह स्वर्ग में वा परलोक में अश्वमेध यज्ञों द्वारा जीते हुए लोकों पर अधिकार स्थिर कर लेता है ।


वैश्य का धर्म

तथैव देवि वैश्याश्च लोकयात्राहिताः स्मृताः ।

अन्य तानुपजीवन्ति प्रत्यक्षफलदा हि ते ॥

यदि न स्युस्तथा वैश्या न भवेयुस्तथा परे ॥

देवि पार्वति! इसी प्रकार वैश्य भी लोगों की जीवनयात्रा के निर्वाह में सहायक माने गये हैं । दूसरे वर्णों के लोग उन्हीं के सहारे जीवननिर्वाह करते हैं क्योंकि वे प्रत्यक्ष फल देने वाले हैं । यदि वैश्य न हों तो दूसरे वर्ण के लोग भी न रहें ।


वैश्यस्य सततं धर्मः पाशुपाल्यं कृषिस्तथा ।

अग्निहोत्रपरिस्पन्दो दानाध्ययनमेव च ॥५४॥


पृष्ठ १४६

वाणिज्यं सत्पथस्थानमातिथ्यं प्रशमो दमः ।

विप्राणां स्वागतं त्यागो वैश्यधर्मः सनातनः ॥५५॥


पशुओं का पालन, खेती, व्यापार, अग्निहोत्र कर्म, दान, अध्ययन, सन्मार्ग का आश्रय लेकर सदाचार का पालन, अतिथिसत्कार, शम, दम, ब्राह्मणों का स्वागत और त्याग - ये सब वैश्यों के सनातन धर्म हैं ।


महर्षि दयानन्द जी खेती करने वाले किसान के विषय में बहुत अच्छा लिखते हैं -

“यह बात ठीक है कि राजाओं के राजा किसान आदि परिश्रम करने वाले हैं और राजा प्रजा का रक्षक है । जो प्रजा न हो तो राजा किसका और राजा न हो तो प्रजा किसकी कहावे ?”

इस प्रकार राजा और प्रजा एक दूसरे पर आश्रित रहते हैं । दोनों ही अपने कर्त्तव्यकर्म का पालन करें, तभी राष्ट्र का कल्याण वा उन्नति हो सकती है ।


शूद्र का धर्म

सर्वातिथ्यं त्रिवर्गस्य यथाशक्ति यथार्हतः ।

शूद्रधर्मः परो नित्यं शुश्रूषा च द्विजातिषु ॥५७॥

स शूद्रः संशिततपाः सत्यवादी जितेन्द्रियः ।

शुश्रूषुरतिथिं प्राप्‍तः तपः संचिनुते महत् ॥५८॥


शूद्र का धर्म है कि यथाशक्ति यथायोग्य त्रिवर्ग (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) का आतिथ्य सत्कार और सेवा करनी चाहिए । जो शूद्र सत्यवादी, जितेन्द्रिय और घर पर आये हुये अतिथि की सेवा करने वाला है वह महान् तप का संचय कर लेता है ।



पृष्ठ १४७

तथैव शूद्रा विहिताः सर्वधर्मप्रसाधकाः ।

शूद्राश्च यदि ते न स्युः कर्मकर्ता न विद्यते ॥

इसी प्रकार शूद्र भी सम्पूर्ण धर्मों के साधक बताये गए हैं । यदि शूद्र न हों तो सेवा का कार्य करने वाला कोई नहीं है । पहले के जो तीन वर्ण हैं वे शूद्रमूलक हैं अर्थात् इनका मूल शूद्र ही है ।


महर्षि दयानन्द जी सत्यार्थप्रकाश [2] के चतुर्थ समुल्लास में लिखते हैं -

शूद्र को सेवा का अधिकार इसलिए है कि वह विद्यारहित मूर्ख होने से विज्ञान संबन्धी कुछ भी नहीं कर सकता, किन्तु शरीर के सब काम कर सकता है ।


इस प्रकार वर्णाश्रम धर्म पर बहुत विस्तार से शिवजी महाराज का उपदेश महाभारत में दिया हुवा है । हम पहले लिख चुके हैं कि वे सभी विद्याओं के धुरन्धर विद्वान्, देवों के महासेनापति, सब प्रकार के धनैश्वर्य के स्वामी, सबका दुःख हरने वाले, कल्याणकारी, लोकपाल और गणराज्य के आदि-संस्थापक थे । इसीलिये महादेव, महेश्वर, महासेनापति, गणपति, गणकर्त्ता, शिव और हर नाम से अधिक प्रसिद्ध हुये । हरयाणे के लोग इन्हीं नामों से अद्यावधि उनका स्मरण करते हैं । हर नाम उनको सब से प्यारा लगा, इसीलिये हर हर महादेव का युद्धघोष हरयाणे में ही नहीं, सारे भारत में प्रचलित हो गया, जो आज तक भी है ।


हरयाणा नाम इस प्रांत का वैदिक नाम था, किन्तु अपने इस पूर्वज शिवजी महाराज के हर नाम ने सोने पर सुहागे का काम दिया । हरयाणे के पूर्वज यौधेयों ने भी अपनी मुद्रांक पर महेश्वर नाम अंकित किया और शिवजी के प्रिय शस्‍त्र



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त्रिशूल तथा परशु का भी चित्र अंकित कर डाला । यह मुद्रा हमें यौधेयों के प्राचीन दुर्ग सुनेत से प्राप्‍त हुई है । इस पर ब्राह्मी लिपि में महेश्वर लिखा हुआ है । यह मोहर ईसा से पूर्व की है । इससे शिवजी के प्रति हमारे पूर्वजों की श्रद्धा प्रकट होती है ।

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(ऊपर) यौधेयों की मुद्रांक का यथार्थ चित्र है जिस पर परशु और त्रिशूल अंकित हैं और शिव का महेश्वर नाम ब्राह्मी लिपि में लिखा है ।


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यौधेय गण की मुद्रांक राजधानी रोहतक से प्राप्‍त


इस दूसरी मुद्रांक (मोहर) पर शिव जी महाराज का प्रिय → (अगला पृष्ठ देखें)


पृष्ठ १४९

हरयाणा जाति का सुन्दर कुकुद्‍मान् नन्दी (सांड) है, जो इस बात की पुष्टि करता है कि महासेनापति शिवजी महाराज का एक प्राचीन दुर्ग रोहतक भी था, जिसका एक नाम वीरद्वार था तथा शिवजी के पुत्र देवसेनापति कार्तिकेय का प्रिय नगर और भवन कार्तिकेयस्य दयितं (भवनम्) रोहितकम् रोहतक था । इस पर नन्दी के चित्र पर ब्राह्मी लिपि में लेख है - महासेनापतयस्य वीरद्वारे । यह ईसा से पूर्वकाल का ही प्रतीत होता है ।

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पृष्ठ १५०

शिवजी महाराज तथा उनके परिवार को हरयाणे के रोहतक आदि नगर ऐसे ही प्रिय थे जैसे कैलाश पर्वत और काशी प्रिय थी । हरयाणे के आर्योपदेशक दादा पण्डित बस्तीराम जी ने भी कहा है -


काशी तीन लोक से न्यारी थी ।

काशी शिवजी को प्यारी थी ।


हरयाणे के पौराणिक भाई शिव की स्तुति अब भी भजनों द्वारा इस प्रकार किया करते हैं –


कर के मध्य कमण्डल, चक्र त्रिशूल विधर्ता,

जुगकर्त्ता जुगहर्त्ता दुःखहर्त्ता सुखकर्त्ता ।

ओम् जय शिव ओंकारा ॥

सत् चित् आनन्दसरूपा, त्रिभुवन के राजा ।

चारों वेद विचारत, शंकर वेद विचारत ।

ओढ़त म्रुगछाला, गुरु अनहद का बाजा ॥ओम०॥


हरयाणे के जंगम जोगी प्रत्येक ग्राम में घूम-घूमकर शिव-पार्वती का विवाह प्रतिवर्ष झूम-झूमकर जनता को गाकर सुनाते हैं, जिससे शिव पार्वती के प्रति उनकी अटूट भक्ति सिद्ध होती है ।


देशोऽस्ति हरयाणाख्यः पृथिव्यां स्वर्गसन्निभः ।


मुस्लिम काल में भी हरयाणा प्रदेश स्वर्ग के समान था, पुनः देवयुग में तो इसकी सम्पन्नता का अनुमान आप स्वयं कर सकते हैं ।

इस प्रकार स्वर्ग समान हरयाणा शिवजी महाराज को अत्यन्त प्रिय था तथा हरयाणेवालों को भी शिवजी महाराज और उनका परिवार सदा ही अत्यन्त प्रिय रहा है ।


आगामी अध्याय में आप देवों की सन्तान आर्यों के प्राचीन क्षत्रियवंशों के विषय में पढ़ेंगे ।


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