Haryana Ke Vir Youdheya/पंचम अध्याय
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पंचम अध्याय - आर्यों के प्राचीन क्षत्रिय वंश
पाठक पहले अध्यायों में पढ़कर भली-भांति जान गये होंगे कि हमारा इतिहास आदिसृष्टि से ही प्रारम्भ होता है । पाश्चात्य विचारकों वा लेखकों की मिथ्या कल्पनानुसार कोई काल ऐसा नहीं हुआ जिसमें इतिहास का अभाव था । आदि सृष्टि से ही ऐतिहासिक परम्परा प्रचलित है । प्रागैतिहासिक काल की कल्पना करके पाश्चात्य विद्वानों ने अपनी मूर्खता वा द्वेष ही प्रकट किया है । हमारे पूर्वज भूमि पर मानवादि प्राणियों की उत्पत्ति का इतिहास भी जानते थे । अतः हमारे प्राचीन ग्रन्थों में सर्वत्र ऐतिहासिक चर्चा आदि काल से ही देखने को मिलती है । अतः प्राग् ऐतिहासिक काल शब्द ही महामिथ्या कल्पना है ।
भारतीय इतिहास का अतिप्राचीनकाल आदिकाल कहा है, जिसका वर्णन प्रथम अध्याय में हुआ है । ब्रह्मा से उत्पत्ति प्रारम्भ होती है, उसके पुत्र स्वायम्भुव मनु थे । भृगुप्रोक्त मनुस्मृति में विराट् का पुत्र मनु लिखा है, जैसे मैं पहले लिख चुका हूँ -
किन्तु स्वायम्भुव विशेषण यह सिद्ध करता है कि वे विराट् के पुत्र (स्वायम्भुव) मनु थे । प्राचीनकाल में शिष्य को भी पुत्र माना जाता था, अतः ब्रह्मा का शिष्य होने से वह दोनों का पुत्र
तथा स्वायम्भुव हो सकता है । आदि सृष्टि में उत्पन्न होने से स्वायम्भुव दोनों का शिष्य होने से दोनों का पुत्र माना गया । महर्षि यास्क ने लिखा है -
आदि सृष्टि में अवान्तर प्रलय के पश्चात् स्वयंभू ब्रह्म के पुत्र मनु ने धर्म का उपदेश दिया । मनु ने ब्रह्मा से शिक्षा पाकर भृगु, मरीचि आदि ऋषियों को वेद की शिक्षा दी । इस परम्परा वर्णन का पर्याप्त भाग मनुस्मृति में यथार्थरूप में मिलता है ।
सर्वप्रथम राजा
संसार के सर्वप्रथम राजा स्वायम्भुव मनु थे । राजा शब्द आज जिस अर्थ में रूढ़ हो गया है, उस अर्थ में मनु जी राजा नहीं थे किन्तु लोक के विधि-विधान अर्थात् न्याय-नियम के निर्माता होने से वे राजा कहलाये ।
कुछ विद्वान् स्वायम्भुव मनु के पुत्र मरीचि को प्रथम क्षत्रिय राजा मानते हैं ।
स्वायम्भुव मनु (वैराज) के दो पुत्र प्रियव्रत प्रजापति और उत्तानपाद हुये । प्रियव्रत की सन्तान ने सात द्वीपों पर राज्य किया । वायुपुराण में इसका वर्णन इस प्रकार है –
मनोः स्वायम्भुवस्यासन् दशपौत्रास्तु तत्समाः ।
यरियं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपसमन्विता ॥
(वायुपुराण अ० ३३ श्लोक ४)
स्वायम्भुव मनु के दश पौत्र (पोते) थे, जिन्होंने इस सात द्वीपों से युक्त पृथिवी पर राज्य किया ।
प्रियव्रतात् प्रजावन्तो वीरात् कन्या व्यजायत ।
कन्या सा तु महाभागा कर्दमस्य प्रजापतेः ॥
कन्ये द्वे दशपुत्राश्च सम्राट् कुक्षिश्च ते उभे ।
तयोर्वै भ्रातरः शूराः प्रजापतिसमा दश ॥
(वायुपुराण ३३ अ० ७-९)
वीर प्रियव्रत ने प्रजापति कर्दम की पुत्री प्रजावती से विवाह किया । यह कर्दम सर्वप्रथम प्रजापति था । प्रियव्रत और प्रजावती से दो कन्यायें तथा दश पुत्र उत्पन्न हुए । वे दसों भाई प्रजापति के समान ही शूरवीर थे । राजा प्रियव्रत ने समस्त वसुन्धरा को सात द्वीपों में विभक्त करके अपने सात पुत्रों को उनका अधिपति बना दिया ।
मार्कण्डेय पुराण इन्हें मनु के पुत्र मानता है । इस पुराण के कथनानुसार प्रियव्रत के पुत्र अर्थात् स्वायम्भुव के पौत्रों ने पृथिवी पर राज्य किया ।
तस्माच्च पुरुषात् पुत्रौ शतरूपा व्यजायत ।
प्रियव्रतोत्तानपादौ प्रख्यातावात्मकर्मभिः ॥
मार्क० ५० अ० १५ श्लोक)
उस स्वायम्भुव मनु से प्रियव्रत और उत्तानपाद नाम के दो पुत्र उत्पन्न हुये, जो निज शुभ कर्मों से संसार में प्रसिद्ध हुये । इन्हीं के अनेक पुत्र हुये, जिन्होंने पृथिवी पर राज्य किया ।
अग्निपुराण में भी इन्हें स्वायम्भुव मनु का पुत्र बतलाया है ।
प्रियव्रतोत्तानपादौ मनोः स्वायम्भुवात्सुतौ ।
अजीजनत् स तां कन्यां शतरूपां तपोऽन्विताम् ॥
(अग्निपुराण १८ अ० १ श्लोक)
मत्स्यपुराण का भी यही मत है । इस पुराण में स्वायम्भुव की पत्नी का नाम भी उल्लिखित है ।
स्वायम्भुवो मनुर्धीमान् तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् ।
पत्नीमेवाप रूपाढ्यां अनन्तीं नाम नामतः ॥
प्रियव्रतोत्तानपादौ मनुस्तस्यामजीजनत् ॥
(मत्स्य पुराण ४ अ० ३३-३४ श्लोक)
बुद्धिमान् स्वायम्भुव मनु ने घोर तपस्या के अनन्तर अनन्ती नाम्नी पत्नी को प्राप्त किया जिससे उन्होंने उत्तानपाद और प्रियव्रत नामक दो पुत्रों को उत्पन्न किया ।
आग्नीध्रश्च वपुष्मांश्च मेधामेधातिथिर्विभुः।
ज्योतिषमान् द्युतिमान् हव्यः सवनः सर्व एव च ॥
प्रियव्रतोऽभिषिच्यैतान् सप्त सप्तसु पार्थिवान् ।
द्वीपेषु तेषु धर्मेण द्वापांस्तांश्च निबोधत ॥
(वायुपुराण ३३ अ० ९-१० श्लोक)
महाराज प्रियव्रत की दो कन्या और दश पुत्र थे । उनके नाम ये हैं - १- आग्नीध्र २- वपुष्मान् ३- मेधा ४- मेधातिथि ५- विभु ६- ज्योतिष्मान् ७- धुतिमान् ८- हव्य ९- सवन १०- सर्व । इन दश पुत्रों को राजा प्रियव्रत ने एक एक द्वीप का अधिपति बना दिया । वे द्वीप भी वायुपुराण में वर्णित हैं ।
जम्बूद्वीपेश्वरं चक्रे आग्नीध्रन्तु महाबलम् ।
प्लक्षद्वीपेश्वरश्चापि तेन मेधातिथिः कृतः ॥
शाल्मलौ तु वपुष्मन्तं राजानमभिषिक्तवान् ।
ज्योतिष्मन्तं कुशद्वीपे राजानं कृतवान् प्रभुः ॥११-१२॥
महाराजा प्रियव्रत ने अपने ज्येष्ठपुत्र आग्नीध्र को जम्बू द्वीप का राजा बनाया, जो कि महाबली था । मेधातिथि को लक्षद्वीप का, वपुष्मान् को शाल्मलि द्वीप का और ज्योतिष्मान् को कुशद्वीप का राजा बनाया ।
द्युतिमन्तं च राजानं क्रौञ्चद्वीपे समादिशत् ।
शाकद्वीपेश्वरं चापि हव्यं चक्रे प्रियव्रतः ॥
पुष्कराधिपतिं चापि सवनं कृतवान् प्रभुः ॥१३-१४॥
राजा प्रियव्रत ने क्रौञ्चद्वीप में द्युतिमान् को, शाक द्वीप में हव्य को तथा पुष्कर द्वीप में सवन को राज्य करने का आदेश दिया ।
इस प्रकार सप्तद्वीपा वसुमती पर राजा प्रियव्रत के सात पुत्रों ने राज्य किया । ब्रह्माण्डपुराण में भी इसका वर्णन है, परन्तु वहां कुछ नामभेद व राज्यभेद अवश्य हैं ।
आग्नीध्रो मेधातिथिश्च वपुष्मांश्च तथापरः ।
ज्योतिषमान् द्युतिमान् भव्यः सवनः सप्त एव ते ॥
मेधाग्निबाहुमित्रश्च तपोयोगपरायणाः ।
जातिस्मरा महाभागा न राज्याय मनो दधुः ॥
प्रियव्रतोऽभ्यषिञ्चत् तान् सप्त सप्तसु पार्थिवान् ॥
(ब्रह्माण्ड पुराण पूर्वभाग १४-६)
१- आग्नीध्र २-मेधातिथि ३-वपुष्मान् ४- ज्योतिष्मान् ५- द्युतिमान् ६- भव्य ७- सवन ८-मेधा ९- अग्निबाहु १०- मित्र । सात पुत्रों ने तो सप्तद्वीपों का राज्य भार संभाला । छोटे तीन भाइयों की राज्य करने में प्रवृत्ति न थी, अतः वे तपस्यार्थ योगी हो गये ।
वायुपुराण के अनुसार हव्य को राजा बनाया गया और तीन पुत्र मेधा, विभु और सर्व योगी बन गये । ब्रह्माण्ड के अनुसार भव्य को राज्य मिला और मेधा, अग्निबाहु और मित्र योगी बन गये । प्रियव्रत के पुत्रों ने जिन द्वीपों पर राज्य किया, उनका श्लोकों से वर्णन कर चुके हैं । वे इस प्रकार हैं -
विद्वानों का यह मत है कि स्वायम्भुव मनु आदि नाम प्रत्येक मन्वन्तर के आदि में समान रहते हैं । चाक्षुष और वैवस्वत मन्वन्तर में भी यही नाम थे ।
इस प्रकार प्रियव्रत ने अपने ज्येष्ठपुत्र आग्नीध्र को वैवस्वत मन्वन्तर के आरम्भ में जम्बू द्वीप का राजा बनाया जैसे पहले लिखा जा चुका है । आग्नीध्र का ज्येष्ठ पुत्र नाभि था । उसके भी आठ भ्राता थे । उन नौ पुत्रों के लिये आग्नीध्र ने जम्बू द्वीप को नौ भागों में विभाजित किया । उन में से हिमारण्य दक्षिण वर्ष का राज्य नाभि को मिला । नाभि का पुत्र ऋषभ था, यह सब क्षत्रियों का पूर्वज माना जाता है । वायुपुराण के तेतीसवें
अध्याय में इसका विस्तार से वर्णन है । मैं संक्षेप से उसका दिग्दर्शन मात्र कराना चाहता हूँ ।
नाभेस्तु दक्षिणं वर्षं हिमाहवं तु पिता ददौ ।
नाभिस्त्वजनयत् पुत्रं मेरुदेव्यां महाद्युतिः ॥
ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठं सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ॥५०॥
मेरु देवी से तेजस्वी नाभि ने ऋषभ नाम का पुत्र उत्पन्न किया जो सब राजाओं में श्रेष्ठ हुआ और सब क्षत्रियों का पूर्वज कहलाया ।
ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रः शताग्रजः ।
सोऽभिषिच्याथ भरतं पुत्रं प्राव्रज्यमास्थितः ॥५१॥
ऋषभ के बहुत पुत्रों में सबसे बड़ा और वीर भरत नामक पुत्र पैदा हुआ जो सब से श्रेष्ठ था । उस ऋषभ ने भरत का राज्याभिषेक करके स्वयं संन्यास ग्रहण कर लिया ।
हिमाहवं दक्षिणं वर्षं भरताय न्यवेदयत् ।
तस्मात्तद् भारतं वर्षं तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः ॥
(वायुपुराण ३३ अ० ५२ श्लोक)
पिता ने भरत को हिमालय के दक्षिण का वर्ष (देश) दिया जो कि उसी के नाम पर भारतवर्ष नाम से विख्यात हुआ ।
इससे यही सिद्ध होता है कि भारतवर्ष इस देश का अत्यन्त प्राचीन नाम है । महाभारत भीष्मपर्व में कौरव मन्त्री श्री संजय एवं धृतराष्ट्र का संवाद आता है । धृतराष्ट्र कहते हैं -
यदिदं भारतं वर्षं यत्रेदं मूर्छितं बलम् ।
यत्रातिमात्रलुब्धोऽयं पुत्रो दुर्योधनो मम ॥
(भीष्म पर्व ९-१)
संजय ! यह जो भारतवर्ष है, जिसमें यह राजाओं की विशाल सेनायें युद्ध के लिये एकत्र हुई हैं, जहां का साम्राज्य प्राप्त करने के लिये मेरा पुत्र दुर्योधन ललचाया हुआ है, उस भारतवर्ष का तुम वर्णन करो ।
संजय कहता है –
अत्र ते कीर्तयिष्यामि वर्षं भारत ! भारतम् ।
प्रियमिन्द्रस्य देवस्य मनोर्वैवस्वतस्य च ॥
पृथोऽस्तु राजन् वैन्यस्य तथेक्ष्वाकोर्महात्मनः ।
ययातेरम्बरीषस्य मान्धातुर्नहुषस्य च ॥
तथैव मुचुकुन्दस्य शिवेरौशीनरस्य च ।
ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा ॥
कुशिकस्य च दुर्धर्ष गाधेश्चैव महात्मनः ।
सोमकस्य च दुर्धर्ष दिलीपस्य तथैव च ॥
अन्येषां च महाराज क्षत्रियाणां बलीयसाम् ।
सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारतम् ॥५-९॥
अर्थात् भारतवर्ष देवराज इन्द्र, वैवस्वत मनु, पृथु, वैन्य, महात्मा इक्ष्वाकु, ययाति, अम्बरीष, मान्धाता, नहुष, मुचुकुन्द, शिवि, औशीनर (उशीनर के सन्तान शिवि, कैकय, यौधेय आदि), ऋषभ, ऐल, नृपति नृग, कुशिक, महात्मा गाधि, सोमक, दिलीप तथा अन्य जो महाबली क्षत्रिय नरेश हुये हैं, उन सभी को भारतवर्ष बहुत प्रिय रहा है ।
इस से यह सिद्ध है कि देश-प्रेम की देन आधुनिक युग की
नहीं किन्तु आदि सृष्टि से ही देवराज इन्द्र आदि सभी हमारे पूर्वज देशभक्ति से ओत-प्रोत थे । इस से यह भी सिद्ध होता है कि आदि काल से ही भारतभूमि के निवासी हमारे पूर्वज आर्य लोग ही हैं, सृष्टि के आरम्भ से ये उपर्युक्त राजा आर्यभूमि भारत में राज्य करते आ रहे हैं । उनकी वंशावली निम्न प्रकार से है -
इसी प्रकार की वंशावली मार्कण्डेय पुराण में भी दी गई है जिसके अन्त में उपसंहार करते हुये कहा है -
एतेषां पुत्रपौत्रैस्तु सप्तद्वीपा वसुन्धरा ।
प्रियव्रतस्य पुत्रैस्तु भुक्ता स्वायम्भुवेऽन्तरे ॥
इस स्वायंभुव मन्वन्तर में राजा प्रियव्रत के पुत्र-पौत्रों ने सप्तद्वीपा वसुन्धरा का भोग किया ।
तेषां वंशप्रसूतैर्भुक्तेयं भारती धरा ।
कृतत्रेतादियुक्तानि युगारण्यान्येकसप्ततिः ॥
(वायुपुराण ३४-६२)
और इन्हीं की वंशपरम्परा में उत्पन्न उपर्युक्त व्यक्तियों ने भारती धरा पर राज्य किया । कृत (सतयुग), त्रेतादि जो कहे हैं, उन ७१ युगों तक राज्य किया ।
येऽतीतास्तैर्युगै सार्द्धं राजानस्ते तदन्वयाः ।
स्वायम्भुवेऽन्तरे पूर्वे शतशोऽथ सहस्रशः ॥ वा० ६३-९३॥
स्वायम्भुव आदि मन्वन्तरों में सहस्रों राजा हुए हैं । ऊपर उनका संक्षेप से विवरण देकर यह संकेत कर दिया है । इसी प्रकार चाक्षुष तथा वैवस्वत मन्वन्तरों में भी समझें । नामों में समानता होने पर भी युगों के भेद का ध्यान अवश्य रक्खें ।
चाक्षुष मन्वन्तर में वेनपुत्र पृथु
वायु पुराण के तरेसठवें अध्याय में वेनपुत्र पृथु का वर्णन है । यह चाक्षुष मन्वन्तर का वृत्त है ।
चाक्षुषस्यान्तरेऽतीते प्राप्ते वैवस्वते पुनः ।
वैन्येनेयं मही दुग्धा यथा ते कीर्तितं मया ॥१९॥
चाक्षुष मन्वन्तर के बीत जाने पर और वैवस्वत मन्वन्तर के प्रारम्भ में वेन ने इस पृथ्वी को भोगा । इसका वर्णन विस्तार से नीचे दिया जाता है ।
देवों की विष्णु से राजा की मांग
अथ देवाः समागम्य विष्णुमूचुः प्रजापतिम् ।
एको योऽर्हति मर्त्येभ्यः श्रैष्ठ्यं वै तं समादिश ॥
(महाभारत शान्तिपर्व ५९-८७)
तदनन्तर देवों ने प्रजापति भगवान् विष्णु से प्रार्थना की - भगवन् ! मनुष्यों में जो पुरुष सर्वश्रेष्ठ (राजा का) पद प्राप्त करने योग्य हो, उसका नाम बतायें । तब विष्णु महाराज ने अपने एक मानसपुत्र (शिष्य) विरजा को सुशिक्षित करके सौंप दिया, किन्तु वह विख्यात पुरुष इस कार्य को करने के लिए उद्यत नहीं हुवा ।
विरजास्तु महाभागः प्रभुत्वं भुवि नैच्छत ।
न्यासायेवाभवद्बुद्धिः प्रणीता तस्य पाण्डव ॥८९॥
पाण्डुपुत्र ! महाभाग विरजा ने पृथ्वी पर राजा होने की इच्छा नहीं की क्योंकि वैराग्य के कारण उसने संन्यास ले लिया ।
कीर्तिमांस्तस्य पुत्रोऽभूत्सोऽपि पञ्चातिगोऽभवत् ।
कर्दमस्तस्य तु सुतः सोऽप्यतप्यन्महत्तपः ॥९०॥
विरजा का पुत्र कीर्तिमान् था, वह भी पांचों विषयों से ऊपर उठकर मोक्षमार्ग का अवलम्बन करने लगा अर्थात्
संन्यासी बन गया । कीर्तिमान् का पुत्र कर्दम भी बड़ा भारी तपस्वी हो गया, अर्थात् विरजा, कीर्तिमान् और कर्दम प्रजापति तीनों ही राजपाट को लात मारकर संन्यासी बन गये । आज हम उन्हीं की सन्तान राज्य की कुर्सियों तथा छोटी-छोटी नौकरियों के लिए मारे-मारे फिरते हैं ।
प्रजापतेः कर्दमस्य त्वनंगो नाम वै सुतः ।
प्रजारक्षयिता साधुर्दण्डनीतिविशारदः ॥९१॥
अनंगपुत्रोऽतिबलो नीतिमानभिगम्य वै ।
प्रतिपेदे महाराज्यमथेन्द्रियवशोऽभवत् ॥९२॥
प्रजापति कर्दम के पुत्र का नाम अनंग था, जो कालक्रम से प्रजा का संरक्षण करने में समर्थ, साधु, तथा दण्डनीति विद्या में बड़ा निपुण हुवा ॥६१॥
तीन पीढ़ी तो तपस्वी हो गईं । चौथी पीढ़ी में अनंग राजा हुवा । अनंग के पुत्र का नाम अतिबल था । बह भी नीतिशास्त्र का विद्वान् था । उसने विशाल राज्य प्राप्त किया । राज्य पाकर वह इन्द्रियों का दास हो गया ॥६२॥
अतिबल का विवाह मृत्यु की कन्या सुनीथा से हुवा था । नीतिमान् होने पर भी वह विषयी हो गया । इसके पुत्र का नाम वेन था जो सुनीथा से उत्पन्न हुवा था, जैसे कहा है - सुनीथा ........ वेनमजीजनत् ॥९३॥
यह सुनीथा तीनों लोकों में प्रख्यात थी ।
तं प्रजासु विधर्माणं रागद्वेषवशानुगम् ॥
वेन रागद्वेष के वशीभूत हो प्रजाओं पर अत्याचार करने
लगा । ऋषियों ने इस वेन को मरवा डाला । विनयहीन होने से वेन का समूल नाश हुवा । इस तथ्य को मनुस्मृति अध्याय ७ में प्रकट किया गया है -
वेनो विनष्टोऽविनयान्नहुषश्चैव पार्थिव ।
सुदासो यवनश्चैव सुमुखो निमिरेव च ॥४१॥
पृथुस्तु विनयाद्राज्यं प्राप्तवान् मनुरेव च ।
कुबेरश्च धनैश्वर्यं ब्राह्मण्यं चैव गाधिजः ॥४२॥
वेन, नहुष, सुदास, यवन, सुमुख और निमि भी अविनय से नष्ट हो गये । पृथु और मनु विनय से राज्य पा गये और कुबेर ने विनय से धनादिपत्य पाया तथा गाधि के पुत्र विश्वामित्र विनय से ही ब्राह्मण हो गये ।
इसलिये राजनीति के महापंडित मुनिवर चाणक्य ने इस सत्य को निम्न प्रकार से परिपुष्ट किया है । वे कौटिलीय अर्थशास्त्रान्तर्गत सूत्रों में लिखते हैं - राज्यस्य मूलमिन्द्रियजयः, इन्द्रियजयस्य मूलं विनयः ॥
राज्य का मूल इन्द्रियजय है । ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति (अथर्व० ११-५-१७) । वेद ने इसी सत्य को - राजा ब्रह्मचर्य और तप (इन्द्रियजय) से राष्ट्र की रक्षा करता है - प्रकट किया है । और इन्द्रियजय की प्राप्ति वा ब्रह्मचर्य की साधना का मुख्य साधन विनय है जिसके त्याग से वेन आदि राजा विनष्ट हो गये और इसको धारण करने से पृथु आदि राजा उन्नति के उच्च शिखर पर आरूढ़ हो गये ।
राजा पृथु का अभिषेक
वेन का पुत्र पृथु हुवा, जिसका अभिषेक समस्त ऋषि, महर्षि और देवताओं ने मिलकर किया और राजा को कर्त्तव्यपालन का उपदेश दिया -
प्रियाप्रिये परितज्य समः सर्वेषु जन्तुषु ।
कामं क्रोधं च लोभं च मानं चोत्सृज्य दूरतः ॥
(शान्तिपर्व ५९-२०५)
प्रिय और अप्रिय का विचार छोड़कर काम, क्रोध, लोभ और मान को दूर हटाकर समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रक्खो ।
यश्च धर्मात् प्रविचलेल्लोके कश्चन मानवः ।
निग्राह्यस्ते स्वबाहुभ्यां शश्वद्धर्ममवेक्षता ॥१०५॥
लोक में जो कोई मनुष्य धर्म से विचलित हो, उसे सनातन धर्म पर दृष्टि रखते हुए अपने बाहुबल से परास्त कर दण्ड दो ।
प्रतिज्ञां चाधिरोहस्व मनसा कर्मणा गिरा ।
पालयिष्याम्यहं भौमं ब्रह्म इत्येव चास्कृत् ॥१०६॥
साथ ही यह प्रतिज्ञा करो को मैं मन, वचन और कर्म से भूतलवर्ती वेद का निरन्तर पालन करूंगा ।
ऋषियों के ऐसा कहने के उपरान्त महाराज पृथु ने प्रतिज्ञा की -
यश्चात्र धर्मो नित्योक्तो दण्डनीतिव्यपाश्रयः ।
तमशंकः करिष्यामि स्ववशो न कदाचन ॥१०७॥
वेद में दण्डनीति से सम्बन्ध रखने वाला जो नित्य धर्म बताया गया है, उसका मैं निःशंक होकर पालन करूंगा । स्वच्छन्द होकर कभी कोई कार्य सिद्ध नहीं करूंगा ।
पुरोधाश्चाभवत्तस्य शुक्रो ब्रह्ममयो निधिः ।
मन्त्रिणो बालखिल्याश्च सारस्वत्यो गणस्तथा ॥
महर्षिर्भगवान् गर्गस्तस्य सांवत्सरोऽभवत् ॥११०-१११॥
फिर शुक्राचार्य उनके पुरोहित हुए, जो वैदिक ज्ञान के भण्डार थे । बालखिल्यगण तथा सरस्वती तटवर्ती महर्षियों के समुदाय ने उनके मंत्री के कार्य को सम्भाला । महर्षि भगवान् गर्ग उनकी राजसभा के ज्योतिषी थे ।
आत्मनाष्टम् इत्येव श्रुतिरेषा परा नृषु ।
उत्पन्नौ वन्दिनौ चास्य तत्पूर्वौ सूतमागधौ ॥११२॥
मनुष्यों में यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि स्वयं राजा पृथु, भगवान् विष्णु से आठवीं पीढ़ी में थे । वह वंशावली इस प्रकार है -
उनके जन्म से पहले ही सूत और मागध नामक दो स्तुति-पाठक उत्पन्न हुए थे । वेन के पुत्र प्रतापी राजा पृथु ने उन दोनों
को प्रसन्न होकर पुरस्कार दिया । सूत को अनूप देश (सागरतटवर्ती प्रान्त) और मागध को मगध देश प्रदान किया ।
पृथु के समय तक यह पृथ्वी बहुत उंची नीची थी, उन्होंने इसको समतल बनाकर कृषि के योग्य बनाया । इनके राजतिलक पर देवराज इन्द्र भी पधारे थे । उन्होंने इनको अक्षयधन समर्पित किया था और कुबेर ने भी इनको इतना धन दिया जिससे इनके समस्त कार्य भलीभांति सिद्ध हों । इनकी विशाल सेना में घोड़े, रथ, हाथी आदि पर्याप्त संख्या में थे । सभी प्रजा स्वस्थ और सुखी थी । किसी वस्तु का दुर्भिक्ष न पड़ता था । सब प्रकार की आधि व्याधियों के कष्टों से मुक्त थे । राजा की ओर से सुरक्षा का इतना अच्छा प्रबन्ध था कि किसी प्रकार का सर्पादि हिंसक जीवों तथा चोरों का भय प्रजा को न था ।
राजा का यथार्थ स्वरूप
तेन धर्मोत्तरश्चायं कृतो लोको महात्मना ।
रंजिताश्च प्रजाः सर्वास्तेन राजेति शब्दयते ॥
(महाभारत अनुशासन पर्व ५९-१२५)
उस महात्मा ने सम्पूर्ण जगत् में धर्म की प्रधानता स्थापित कर दी थी । उन्होंने समस्त प्रजाओं को प्रसन्न (रंजित) किया था, इसलिए वे राजा कहलाये, उनका राजा नाम सार्थक था ।
सच्चे क्षत्रिय
ब्राह्मणानां क्षतत्राणात् ततः क्षत्रिय उच्यते ।
प्रथिता धर्मतश्चेयं पृथिवी बहुभिः स्मृता ॥१२६॥
ब्राह्मणादि को क्षति से बचाने के कारण वे क्षत्रिय कहे जाने लगे । उन्होंने धर्म के द्वारा इस भूमि को प्रथित (विस्तृत) किया और इसकी ख्याति बढ़ाई, इसलिए बहुसंख्य्क मनुष्यों द्वारा पृथ्वी कहलाई ।
राजा का जन्म
सुकृतस्य क्षयाच्चैव स्वर्लोकादेत्य मेदिनीम् ।
पार्थिवो जायते तात दण्डनीतिविशारदः ॥१३३॥
तात ! पुण्य का क्षय होने पर मनुष्य स्वर्गलोक से पृथ्वी पर आता और दण्डनीति विशारद राजा के रूप में जन्म लेता है ।
देवताओं के द्वारा राजा के पद पर पृथु की स्थापना की गई, तथा दैवी गुणों से वह सम्पन्न था, उसकी आज्ञा का कोई उल्लंघन नहीं करता था । यह सारा जगत् उस एक व्यक्ति राजा के वश में रहता था, इसका कारण राजा द्वारा निर्धारित दण्डनीति ही है, जिसका उपदेश विशालाक्ष शिवजी महाराज ने आदि सृष्टि में किया था ।
ततस्तां भगवान् नीतिं पूर्वं जग्राह शंकरः ।
बहुरूपो विशालाक्षः शिवः स्थाणुरुमापतिः ॥८०॥
तदनन्तर सबसे पूर्व भगवान् शंकर ने इस नीतिशास्त्र के अनुसार दण्ड के द्वारा जगत् का सन्मार्ग पर स्थापन किया जाता है, अथवा राजा इसके अनुसार प्रजावर्ग में दण्ड की स्थापना करता है । इसलिए यह विद्या दण्डनीति के नाम से विख्यात है । इसका ही तीनों लोकों में विस्तार हुआ तथा होगा ।
दण्डेन संहिता ह्येषा लोकरक्षणकारिका ।
निग्रहानुग्रहरता लोकाननुचरिष्यति ॥७७॥
दण्डविधान के साथ रहने वाली यह नीति सम्पूर्ण जगत् की रक्षा करने वाली है, यह दुष्टों को निग्रह कर अर्थात् दण्ड देकर वश में करती है और श्रेष्ठ पुरुषों के प्रति अनुग्रह करने (आदर पुरस्कार देने) में तत्पर रहकर जगत् में प्रचलित है । इस वेदोक्त दण्डनीति का ग्रहण तथा उपदेश आदि में शिवजी महाराज ने किया । उसके अनुसार आचरण करने से पृथु महाराज प्रथम राजा तथा क्षात्र धर्म का संस्थापक वा क्षत्रियों का पूर्वज कहलाया । महाभारत के अनुसार महाराजा पृथु ही सर्वप्रथम धनुष का आविष्कारक था ।
प्रसिद्ध आर्य राजा पृथु के वंश में ही विवस्वान् मनु हुये हैं, उनकी वंशावली इस प्रकार है –
दक्ष के बहुत पुत्र उत्पन्न हुये, किन्तु महर्षि नारद की मोक्षधर्म शिक्षा से वे सब विरक्त होकर चले गये । पुनः दक्ष ने कन्याओं को पुत्र मानकर अपना वंश चलाया और इस प्रकार
दक्षादिमाः प्रजाः (५-७५) आदिपर्व महाभारत में जो लिखा है, वह प्रसिद्ध ही है कि दक्ष से सारी प्रजा उत्पन्न हुई । दक्ष की अदिति कन्या का विवाह मरीच कश्यप से हुवा । उसी से विवस्वान् मन्त्रद्रष्टा का जन्म हुवा । इसी से सभी इन्द्र आदि बारह आदित्य देवों की उत्पत्ति हुई, यह हम पहले लिख चुके । इसी विवस्वान् सूर्य से मनु और यम दो पुत्र उत्पन्न हुये ।
मार्तण्डेयस्य मनुर्धीमानजायत सुतः प्रभुः ।
यमश्चापि सुतो जज्ञे ख्यातस्तस्यानुजः प्रभुः ॥
(आदिपर्व ७५।१२)
विवस्मान के पुत्र मनु बड़े बुद्धिमान् और प्रभावशाली थे । यम मनु के छोटे भ्राता थे किन्तु प्रजा को नियम में चलाने में बड़े कुशल थे ।
धर्मात्मा स मनुर्धीमान् यत्र वंशे प्रतिष्ठितः ।
मनोर्वंशो मानवानां ततोऽयं प्रथितोऽभवत् ॥७५।१३॥
बुद्धिमान् मनु बड़े धर्मात्मा थे, जिनके कारण सूर्यवंश की बड़ी प्रतिष्ठा हुई । मानवों से सम्बन्ध रखने वाला यह मनु वंश उन्हीं से विख्यात हुवा ॥१३॥
ब्रह्मक्षत्रादयस्तस्मान्मनोर्जातास्तु मानवाः ।
ततोऽभवन्महाराज ब्रह्म क्षत्रेण संगतम् ॥१४॥
उन्हीं मनु से ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सब मानव उत्पन्न हुये हैं । महाराज ! इसी से ब्राह्मणकुल और क्षत्रियकुल परस्पर सम्बन्धित हैं ।
ब्राह्मणा मानवास्तेषां सांगं वेदमधारयन् ।
वेनं धृष्णुं नरिष्यन्तं नाभागेक्ष्वाकुमेव च ॥१५॥
कारूषमथ शर्यातिं तथाचै वाष्टमीमिलाम् ।
पृषध्रं नवमं प्राहुः क्षत्रधर्मपरायणम् ॥१६॥
नाभागारिष्टदशमान् मनोः पुत्रान् प्रचक्षते ।
पञ्चाशत्तु मनोः पुत्रास्तथैवान्येऽभवन् क्षितौ ॥१७॥
मनु के पुत्र वा शिष्य जो ब्राह्मण बने उन्होंने छहों अंगों सहित वेदों को धारण किया । वेन, धृष्णु, नरिष्यन्त, नाभाग, इक्ष्वाकु, कारूप, शर्याति, आठवीं इला कन्या, नवमें क्षत्रियधर्मपरायण पृषध्र, तथा दसवें नाभागारिष्ट - इन दशों को मनु की सन्तान कहा जाता है । मनु के इस पृथ्वी पर पचास पुत्र वा शिष्य और हुये, वे परस्पर लड़कर नष्ट हो गये, यह गाथा पौराणिक ही प्रतीत होती है ।
वायुपुराण ८८-२१५ के अनुसार मनु का नाम श्राद्धदेव था । इनके नौ पुत्रों के अतिरिक्त दसवीं कन्या इला भी वंशकरी थी । इसका वंशक्रम निम्न प्रकार से चला –
इला के ऐलवंश का विस्तार
ताण्ड्य ब्राह्मण (३४-१२-६) में सौमायनो बुधः सोम प्रजापति का पुत्र बुध था, ऐसा लिखा है ।
सोमः प्रजापतिः पूर्वं कुरूणां वंशवर्द्धनः ।
सोमाद् बभूव षष्ठोऽयं ययातिर्नहुषात्मजः ॥
(महाभारत उद्योगपर्व १४९-३)
सबसे पहले प्रजापति सोम कौरव वंश की वृद्धि के आदि कारण हैं । सोम की छठी पीढ़ी में नहुषपुत्र ययाति का जन्म हुआ ।
ययाति के पांच पुत्र हुए, जिनके विषय में महाभारत में लिखा है -
तस्य पुत्रा बभूवुर्हि पञ्च राजर्षिसत्तमाः ।
तेषां यदुर्महातेजा ज्येष्ठः समभवत्प्रभुः ॥४॥
पूरुर्यवीयांश्च ततो योऽस्माकं वंशवर्धनः ।
शर्मिष्ठया सम्प्रसूतो दुहित्रा वृषपर्वणः ॥५॥
(उद्योगपर्व अ० १४९)
ययाति के पांच पुत्र हुए, जो सबके सब श्रेष्ठ राजर्षि थे । उनमें महातेजस्वी तथा शक्तिशाली पुत्र यदु थे और सबसे छोटे
पुत्र का नाम पुरु था, जिन्होंने हमारे इस वंश की वृद्धि की है । वे वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा के गर्भ से उत्पन्न हुये थे ।
यदु देवयानी के पुत्र थे और महातेजस्वी शुक्राचार्य के दौहित्र थे । वे यदुवंश के प्रवर्तक थे, वे मन्दबुद्धि और बड़े अभिमानी थे, उन्होंने समस्त क्षत्रियों का अपमान किया था । वे अपने पिता वा भाइयों का भी अपमान करते थे, इसलिए इनके पिता ययाति ने कुपित होकर इन्हें राज्य से भी वञ्चित कर दिया था । यदु के जिन भाइयों ने उनका साथ दिया था, ययाति ने उन अन्य पुत्रों को भी राज्याधिकार से वञ्चित कर दिया ।
यवीयांसं ततः पूरुं पुत्रं स्ववशर्त्तिनम् ।
राज्ये निवेशयामास विधेयं नृपसत्तमः ॥
एवं ज्येष्ठोऽप्यथोत्सिक्तो न राज्यमभिज्ञायते ।
यवीयांसोऽपि जायन्ते राज्यं वृद्धोपसेवया ॥१२-१३॥
तदनन्तर अपने अधीन रहने वाले आज्ञापालक छोटे पुत्र पुरु को नृप श्रेष्ठ ययाति ने राजगद्दी पर बिठाया । इससे यह सिद्ध है कि ज्येष्ठ पुत्र भी यदि अहंकारी हो तो उसे राज्य की प्राप्ति नहीं होती और छोटे पुत्र भी वृद्ध पुरुषों की सेवा करने से राज्य पाने के अधिकारी हो जाते हैं ।
इस प्रकार पुरु से कौरव पाण्डवों का वंश चला है । यदु से योगिराज श्रीकृष्ण जी आदि का वंश चला है । ययाति के एक पुत्र अनु से अनेक प्रसिद्ध गणराज्यों का वंश चला है ।
इस प्रकार मनु की कन्या इला, जिसका विवाह प्रजापति सोम के साथ हुआ था, उससे सोलहवीं पीढ़ी में राजा नृग का पुत्र और उशीनर का पौत्र यौधेय गणराज्य का संस्थापक यौधेय नाम का राजा हुवा । यह वंश प्रजापति सोम (चन्द्र) के कारण चन्द्रवंश कहलाया । सूर्यवंश मनु के पुत्रों से चला और चन्द्रवंश उसकी कन्या इला से चालू हुवा । इस प्रकार क्षत्रियों के दोनों प्रसिद्ध सूर्य और चन्द्रवंश मनु से ही सम्बन्ध रखते हैं । इस भांति
यौधेयों के पूर्वजों में मनु पुरूरवा, ययाति, उशीनर और नृगादि बडे़-बड़े राजा हुए हैं । इसी वंश में यौधेयों के चचा शिवि औशीनर के सुवीर, केकय और मद्रक - इन तीन पुत्रों से तीन गणराज्यों की स्थापना हुई । इसी प्रकार इनके चचेरे भाई सुव्रत के पुत्र अम्बष्ठ ने एक गणराज्य की स्थापना की । यदुवंश भी यौधेयों के वंश की एक शाखा है । इस प्रकार पुरुषोत्तम राम, योगिराज श्रीकृष्ण और कौरव तथा पाण्डव भी यौधेयों की शाखा प्रशाखाओं में आये हुए हैं ।
वैसे तो क्षत्रियों के सभी प्रसिद्ध वंश ऋषियों की ही सन्तान हैं, किन्तु वैवस्वत मनु के वंश में उत्पन्न होने से यौधेयों का बहुत ऊंचा स्थान है । सप्तद्वीपों का स्वामी चक्रवर्ती सम्राट् महामना यौधेयों का प्रपितामह (परदादा) था । इन्हीं विशिष्टताओं के कारण यौधेय वंश सहस्रों वर्षों तक भारतीय इतिहास में सूर्यवत् प्रकाशमान रहा है ।
शतियां बीत गईं, अनेक राज्य इस आर्यभूमि की रंगस्थली पर अपना अभिनय करके चले गये, किन्तु यौधेयों की संतान हरयाणावासियों में आज भी कुछ विशेषतायें शेष हैं । सरलता, सात्त्विकता इनमें कूट-कूट कर भरी है । अन्य प्रान्तों की अपेक्षा इनका आचार, विचार, आहार, व्यवहार सात्त्विक है । अल्हड़पन से युक्त वीरता और भोलेपन से मिश्रित उद्दण्डता आज भी इनके भीतर विद्यमान है । इन्हें प्रेम से वश में लाना जितना सरल है, आंखें दिखा कर दबाना उतना ही कठिन है । अपने पूर्वज आयुधजीवी यौधेयों के समान युद्ध करना (लड़ना) इनका मुख्य कार्य है । पाकिस्तान और चीन के युद्ध में इनकी वीरता की गाथा जगत् प्रसिद्ध है । इन्हीं यौधेयों की सन्तान आर्य पहलवान श्री मा० चन्दगीराम जी भारत के सभी पहलवानों को हराकर एक बार भारत केसरी और दो बात हिन्द केसरी उपाधि प्राप्त कर चुके हैं । हरयाणे के सभी पहलवानों को जीतकर आर्य पहलवान श्री रामधन हरयाणा केसरी उपाधि प्राप्त कर चुके हैं ।
यौधेयों तथा इनके पूर्वजों के विषय में पाठक अगले अध्यायों में विस्तार से पढ़ेंगे ।
विशेष धन्यवाद
कुछ इतिहासप्रेमी मेरे इष्ट मित्रों ने हरयाणा साहित्य संस्थान के तथा इतिहास के सदस्य बनाकर योगदान दिया है । ये सभी महानुभाव विशेष धन्यवाद के पात्र हैं ।
श्री चौ० श्रीचन्द जी बैंक मैनेजर रोहतक ने स्वयं तथा अपने इष्ट मित्रों से दस हजार रुपया दिलाने का वचन दिया है जिस में से ५००० रु. दे चुके हैं, शेष शीघ्र ही पूरा कर देंगे ।
इतिहास के स्थायी सदस्य
१. श्री म० दरयावसिंह जी, रोहणा, रोहतक - १०१)
२. श्री अमीलाल जी वानप्रस्थ, दहकोरा, रोहतक - १०१)
३. श्री करतारसिंह जी, दहकोरा, रोहतक - १०२)
४. श्री म० अर्जुनदेव जी, दहकोरा, रोहतक - १०१)
५. श्री वैद्य बलवन्तसिंह जी, बलियाणा, रोहतक - १००)
६. श्री हव० रणसिंह जी, पाकस्मा, रोहतक - ४००)
७. श्री जयदेव जी, सु० श्री नेकीराम जी, आसन, रोहतक - १०१)
८. श्री बनीसिंह जी, सु० जागरसिंह जी, आसन, रोहतक - १०१)
९. श्री तारीफसिंह जी, श्री रिसालसिंह जी, आसन, रोहतक - १०१)
१०. श्री नं० धीरुसिंह जी, भापड़ौदा, रोहतक - १०१)
११. श्री म० ज्ञानचन्द जी, भापड़ौदा, रोहतक - १२६)
१२. श्री नेतराम जी, भापड़ौदा, रोहतक - १०१)
१३. श्री रामकृष्ण जी, रणधीर जी सु० श्री चन्दगीराम जी, भापड़ौदा, रोहतक - १०१)
१४. श्री हुकमसिंह जी, भापड़ौदा, रोहतक - १०१)
१५. श्री केहरीसिंह जी, भापड़ौदा, रोहतक - १०१)
१६. श्री कप्तान शीषराम जी, भापड़ौदा, रोहतक - १०१)
१७. श्री म० प्यारेलाल जी आर्योपदेशक, भापड़ौदा, रोहतक - १०१)
१८. श्री राममेहर जी सु० श्री बदलेराम, भापड़ौदा, रोहतक - १०१)
१९. श्री धजाराम जी गुप्त, भापड़ौदा, रोहतक - १००)
२०. श्री दीपराम जी, शीषराम जी सु० श्री रणजीतसिंह जी, भापड़ौदा, रोहतक - १००)
२१. श्री हरद्वारीलाल जी, रतिराम जी, सु० श्री शिवसिंह जी, भापड़ौदा, रोहतक - १००)
२२. श्री भीष्मप्रताप जी शास्त्री, भापड़ौदा, रोहतक - १०१)
२३. श्री हरपतसिंह जी, रुदड़ौल, महेन्द्रगढ़ - १०१)
२४. श्री म० मामराज जी, गौरीपुर, महेन्द्रगढ़ - १०१)
२५. बहिन लक्ष्मी देवी जी, रेलवे रोड, रोहतक - १०१)
२६. श्री वैद्य कर्मवीर जी, नरेला, दिल्ली - १०१)
२७. श्री प्रो० रणसिंह जी रुहिल, जाट कालेज, रोहतक - १०१)
२८. श्री चौ० दीवानसिंह जी, पौली, जींद - १०१)
२९. श्री चौ० टेकराम जी, आसन, रोहतक - १०१)
३०. श्री रामपत जी आर्योपदेशक, दयानन्द मठ, रोहतक - १०१)
३१. जमा० धजासिंह जी, भ्राता वेदपाल जी, सुण्डाना, रोहतक - १०१)
३२. चौ० जुगलाल जी, बिधड़ान, रोहतक - १०१)
३३. हवलदार मामचन्द जी राठी, माजरी गुभाणा, रोहतक - १०१)
३४. प्रो० आलमसिंह जी, बसेड़ा, मुजफ्फर नगर (उ० प्र०) - १०१)
३५. श्री चौ० मित्रसेन जी, रोहतास इंजीनियरिंग वर्क्स, मेन रोड बडविल, क्योंझर उड़ीसा - १०१)
३६. श्री सेठ जुगलकिशोर जी बिरला, सब्जी मण्डी, दिल्ली - १००)
३७. श्री सेठ घनश्यामदास जी, ६२ ओल्ड थणुपेंठ, बंगलौर - १००)
३८. श्री स्वामी धूमकेतु जी, भाटोल, हिसार - १०१)
३९. श्री रामनारायण जी सु० चौ० नत्थूसिंह जी, कलाली, झोझू कलां महेन्द्रगढ़ - १०१)
४०. श्री सेठ बभूतमल जी दूगड़, दसाणी मार्ग, सरदार शहर, चुरू (राज०) - १०१)
४१. श्री स्वामी व्रतानन्द जी, गुरुकुल चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) - १०१)
४२. श्री डा० सत्यवीर जी, कणेहटी, महेन्द्रगढ़ - ४००)
४३. श्री सुरेन्द्रसिंह जी सु० चौ० प्रियव्रत जी - १०१)
४४. श्री जयपालसिंह सु० चौ० मेहरसिंह, आसन - १०१)
४५. श्री रामस्वरूप सु० चौ० हरकेराम, गोरड़ - १०१)
४६. श्री कर्णसिंह सु० निहालसिंह ग्राम गोरड़ - १०१)
४७. श्री चौ० श्रीचन्द सु० चौ० मौलड़सिंह, रोहट - २०२)
४८. श्री विजयसिंह नान्दल सु० चौ० सूरतसिंह, बोहर - १०१)
४९. श्री चौ० रामकुमार सु० हुकमचन्द ग्राम रतनगढ़ - १०१)
५०. श्री चौ० भीमसिंह ग्रम रिटोली - २०२)
५१. श्री लाला शामलाल जी सोनीपत - १०१)
५२. हिन्दुस्तान फाउण्ड्री - १०१)
५३. श्री चौ० लखीराम सु० हीरालाल - १०१)
५४. श्री चौ० अतरसिंह चेयरमैन - १०१)
५५. श्री चौ० प्रभुदयाल ठेकेदार ग्राम कुमासपुर - १०१)
अन्य दानियों की सूची
१. आर्यसमाज महेन्द्रगढ़ (हरयाणा) - १०१)
२. केन्द्रीय आर्य समिति, मेरठ (उ० प्र०) - १०१)
३. आर्यसमाज गण्डाला, अलवर (राज०) - १५१)
४. आर्यसमाज सिरसा, हिसार (हरयाणा) - १०१)
५. आर्यसमाज बुढ़ानाद्वार, मेरठ नगर (उ० प्र०) - १०१)
६. आर्यसमाज करोलबाग, दिल्ली - १५०)
७. आर्यसमाज बसेड़ा, मुजफ्फरनगर (उ० प्र०) - १५१)
८. आर्यसमाज तेजलहेड़ा, मुजफ्फरनगर (उ० प्र०) - १०१)
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