Haryana e Vir Youdheya/द्वितीय अध्याय

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हरयाणे के वीर यौधेय


(प्रथम खण्ड)


लेखक


श्री भगवान् देव आचार्य





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द्वितीय अध्याय - देव युग

भारत के इतिहास में देवयुग प्रसिद्ध है । हरयाणा भारत का एक विशिष्ट भाग होने से देवयुग से विशेष सम्बन्ध रखता है । देवराज इन्द्र आदि देवों की जन्मभूमि भारत ही है । अतः स्वभावतः उन तथा उनकी सन्तान तथा सभी वैवस्त मनु आदि ऋषियों और देवताओं का यह भारत अत्यन्त प्रिय देश है । महाभारत भीष्म पर्व में अनेक श्लोक इस विषय के हैं । एक श्लोक केवल उदाहरण के लिए लिखता हूं –


अत्र ते वणयिष्यामि वर्षं भारत ! भारतम् ।

प्रियमिन्द्रस्य देवस्य मनोर्वैवस्वतस्य च ॥५॥

भारतभूमि देवभूमि कहलाती है । ये देव कौन थे ? इनका भारत तथा इसके अन्तर्गत हरयाणा आदि प्रदेशों से क्या सम्बन्ध था ? इस पर प्रकाश डाले बिना प्राचीन ऐतिहासिक पृष्टभूमि का ज्ञान नहीं होता, अतः इस पर लिखना यथोचित ही है ।


देव कौन थे ?

युगप्रवर्त्तक महर्षि दयानन्द जी सत्यार्थप्रकाश में स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश प्रकरण में लिखते हैं -

20 - देव विद्वानों को और अविद्वानों को असुर, पापियों को राक्षस, अनाचारियों को पिशाच मानता हूँ ।


वे लिखते हैं उन्हीं (उपर्युक्त) विद्वानों, माता, पिता, आचार्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और धर्मात्मा जन, पतिव्रता स्‍त्री और स्‍त्रीव्रत पति का सत्कार करना देवपूजा



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कहाती है । इसके विपरीत अदेव पूजा । इनकी मूर्त्तियों को पूज्य और इतर पाषाणादि जड़मूर्त्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूँ ।


स्वामी दयानन्द इस युग के उच्चकोटि के विद्वान्, परोपकारी महात्मा थे । वे वेदादि सत्यशास्‍त्रों और ब्रह्मा से लेकर जैमिनि मुनि पर्यन्तों के माने हुये सत्यसिद्धान्तों को मानते थे तथा उन्हीं का प्रचार करते थे । उनका कोई नवीन कल्पना वा मतमतान्तर चलाने का लेशमात्र भी अभिप्राय न था । सत्य को मानना-मनवाना और असत्य को छोड़ना-छुड़वाना उनको अभीष्ट था । वे सत्य के पुजारी थे । पक्षपात छोड़कर सत्य का मण्डन और असत्य का खण्डन करते थे । वे आप्‍त पुरुष थे । अतः आप्‍तोपदेशः शब्दः न्यायदर्शन (१।१।७) में लिखे के अनुसार उनका कहा वा लिखा प्रमाण होने से सब विचारशील व्यक्तियों को माननीय है । वे अपने ग्रन्थ सत्यप्रकाश में विद्वांसो हि देवाः शतपथ ब्राह्मण (३।७।३।१०) के वचनानुसार लिखते हैं -


जो विद्वान हैं उन्हीं को देव कहते हैं । जो सांगोपांग चार वेदों के जानने वाले हैं उनका नाम ब्रह्मा और जो उनसे न्यूंन कहे हों, उनका नाम देव अर्थात् विद्वान् है ।


वेद और देव

महर्षि दयानन्द वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है ऐसा मानते हैं और ब्रह्मा से लेकर जैमिनि पर्यन्त सभी ऋषि महर्षि इसी सिद्धान्त को मानते आये हैं । मनु जी महाराज ने इसे


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धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः धर्म का यथार्थ रूप जानने के लिए परम प्रमाण श्रुति (वेद) ही है । न हि सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं महत् सत्य से बढ़कर कोई परम धर्म नहीं और मिथ्या व्यवहार वा अनृत से बढ़कर कोई पाप नहीं । इसलिए देव शब्द का यथार्थ अर्थ क्या है, यह वेद भगवान् की शरण में जाने से ही भली प्रकार से ज्ञात होगा । वेद में देव शब्द का बहुत ही अधिक प्रयोग हुवा है । जैसे ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना के आठ मन्त्र हैं । उनमें प्रजापते न त्वदेता छठे मन्त्र को छोड़कर अन्य सात मन्त्रों में इस देव शब्द का प्रयोग हुआ है ।


देव शब्द दिवु धातु से बना है, जिसके क्रीडा (खोलना), विजिगीषा (जीतने की इच्छा), व्यवहार (आदान प्रदान), द्युति (प्रकाश), स्तुति (प्रशंसा), मोद (आनन्द) मद (अहंकार), स्वप्न (निद्रा), कान्ति (शोभा) और गति (१. ज्ञान २. गमन ३. प्राप्‍ति) आदि बारह अर्थ हैं । ये सभी अर्थ देव शब्द में निहित रहते हैं ।


१. यह संसार परमात्मा और विद्वान् दोनों के लिए एक क्रीडास्थल है । एक संसार का कर्त्ता, धर्त्ता और हर्त्ता बनकर सबको यथायोग्य कर्मों का फल देकर खेल खिला रहा है और स्वयं साक्षी बनकर सारे खेल (क्रीडा) का आनन्द ले रहा है । मूर्ख से लेकर विद्वान् तक, कीड़ी से लेकर कुञ्जर तक सभी इस संसार रूपी क्रीडास्थल में अपने खेल खेल रहे हैं । विद्वान् जो देवकोटि के हैं, वे भगवान् की आज्ञानुसार इस खेल के खिलाड़ी बनकर खूब आनन्द लेते हैं और मूर्ख इस संसार के खेल में फंसकर सदा रोते ही रहते हैं । बार-बार जन्म-मरण के चक्र में आकर दुःख


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भोगते रहते हैं ।

२. विद्वान् उस देव की सहायता से प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्‍त करते हुए अजैष्म अद्य, हमारा आज अवश्य ही विजय होगा, इस वेदोपदेश की भावना से ओत-प्रोत रहते हैं । उनकी विजिगीषा सदैव पूर्ण होती है, मूर्ख पग पग पर पराजय-विफलता का मुख देखते हैं ।

३. देव व्यवहारकुशल, मूर्ख व्यवहारशून्य होते हैं ।

४. देव ज्ञानी और दूसरों को ज्ञान देने में सदैव तत्पर रहते हैं, मूर्ख अविद्याग्रस्त होने से स्वयं घोर अंधकार में डूबे रहते हैं ।

५. देवों की सर्वत्र स्तुति होती रहती है क्योंकि वे सदैव परहित में संलग्न रहते हैं, मूर्ख (असुरों) को निन्दा का मुख देखना पड़ता है ।

६. देवों के स्वप्‍न सारे संसार को स्वर्ग बनाने के होते हैं और मूर्खों के स्वप्‍न उन्हें ही दुःख दरिद्रता के चित्रों से चित्रित कर सुख की नींद नहीं सोने देते । देव लोग शरीर और मस्तिष्क को स्वस्थ रखने के लिए उचित मात्रा में निद्रा का सेवन करते हैं परन्तु असुर सदैव निद्रा वा आलस्य में पड़े रहते हैं एवं अपने जीवन के अमूल्य क्षणों को यों ही व्यतीत कर देते हैं ।

७. देव भगवान् की आज्ञानुसार आचरण करने से सदैव मुदित (प्रसन्नचित्त) हो आनन्द में रहते हैं, असुर अपनी मूर्खता से स्वयं दुःखी एवं औरों को भी दुःखी रखते हैं ।

८. देवों में स्वात्माभिमान और मूर्खों में मिथ्याभिमान अहंकार होता है ।

९. देवों में दिव्य गुणों के कारण विशेष कान्ति (कमनीयता) होती है जिसके कारण वे सब को प्रिय (कमनीय) लगते हैं, मूर्खों से दूर रहने में ही सब का कल्याण है । उन में उनके दुर्गुणों के कारण कोई आकर्षण वा कमनीयता नहीं होती ।


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१०. देव पूर्ण विद्वान् ज्ञानी होते हैं और मूर्ख मूर्खता के कारण अविद्या अज्ञान के भंडार होते हैं ।

११. देव सदैव शुभ कर्मों के करने के लिये अग्रसर रहते हैं, सदैव शुभ कर्मों को करने के लिये पुरुषार्थ करते हैं, जुटे रहते हैं । मूर्ख प्रमादी, आलसी अथवा अधर्म पाप करने में अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझते हैं ।

१२. देव अपने जीवन में पृथिवी से लेकर परमात्मा तक का ज्ञान प्राप्‍त करते हैं और अपने जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्‍ति करके अपना जीवन सफल बनाते हैं ।

इस प्रकार दिवु धातु के १२ अर्थों को अपने अन्दर धारण करके यथा नाम तथा गुण के अनुसार अपने वाचक देव शब्द को सार्थक कर दिखलाते हैं ।

जिस प्रकार ये अर्थ विद्वानों में घटते हैं, उसी प्रकार परमात्मा में भी घटते हैं ।

निरुक्त वेद का व्याकरण है, उसमें महर्षि यास्क ने लिखा है -

देवो दानाद्वा, दीपानाद्वा, द्योतानाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा । (अ० ७ पा० ४ ख० १५)

दान देने से देव नाम पड़ता है और दान कहते हैं अपनी वस्तु को दूसरे के लिये देना । दीपन कहते हैं प्रकाशन करने को । द्योतन कहते हैं सत्योपदेश को । इनमें से दान का मुख्य दाता ईश्वर है, जिसने कि जगत् के सब पदार्थ दे रक्खे हैं । तथा विद्वान् मनुष्य भी विद्या आदि धनों (द्रव्यों)


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के देने वाले होने से देव कहलाते हैं और सब मूर्तिमान् द्रव्यों का प्रकाश करने से सूर्यादि लोकों का नाम भी देव है । तथा माता, पिता, आचार्य और अतिथि भी पालन, विद्या, और सत्यपदेशादि के करने से देव कहाते हैं । वैसे ही सूर्यादि लोकों को भी जो प्रकाशित करने वाला है वह ईश्वर ही मनुष्यों के उपासना करने योग्य इष्ट देव है, अन्य कोई नहीं । जगत् में तो तेतीस (३३) देवताओं की चर्चा रहती है, वे निम्नलिखित हैं –

तेतीस देव वा देवता

यस्य त्रयस्‍त्रिंशद् देव अंगे गात्रा विभेजिरे ।

तान् वै त्रयस्‍त्रिंशद् देवानेके ब्रह्मविदो विदुः॥

(अथर्व० का० १० प्रपा० २३ अनु० ४ म० २७)


शरीर में तेतीस देवता किस भांति काम करते हैं, इस रहस्य को प्रत्येक नहीं जान सकता, कोई विरला ही ब्रह्मवेत्ता इस के रहस्य को जानता है ।

आठ वसु - १. पृथिवी, २. द्यौ, ३. अग्नि, ४. वायु, ५. अन्तरिक्ष, ६. चन्द्रमा, ७. सूर्य, ८. नक्षत्र - इनका नाम वसु है ।

ग्यारह रुद्र - जो शरीर में दस प्राण हैं अर्थात् १. प्राण, २. अपान, ३. व्यान, ४. समान, ५. उदान, ६. नाग, ७ कूर्म, ८. कृकल, ९. देवदत्त, १०. धनञ्जय ११. ग्यारहवां जीवात्मा है । जब ये शरीर से निकलते हैं तो सम्बन्धियों को रुलाते हैं, अतः इन्हें रुद्र कहा जाता है ।

बारह आदित्य - संवत्सर के बारह मास चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद,


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आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन, आदित्य कहे जाते हैं, क्योंकि ये जगत् के समस्त पदार्थों के आयु को ग्रहण करते जाते हैं । इन्द्र (बिजली) और प्रजापति (यज्ञ) ये सब मिलकर तेतीस देवता कहे जाते हैं । ये तेतीस शक्तियां ब्रह्म के तेतीस देवों के रूप में इस जगत् के अन्दर कार्य करती हैं ।

विद्या सदुपदेश के द्वारा जो विद्वान् ज्ञानी मानव मात्र को अविद्या अन्धकार से दूर हटाकर वेद ज्ञान के विस्तृत प्रकाश में ले आते हैं ऐसे निष्काम ज्ञानियों को देव कहते हैं । उनके गुण, कर्म और स्वभाव पर वेद भगवान् बड़ा अच्छा प्रकाश डालता है ।

सदा गावः शुचयो विश्वधायसः सदा देवा अरपसः । (सा० पू० इन्द्रकाण्ड अ० ४ खं० १० मं० ६)


गौवें सदा शुद्ध पवित्र रहती हैं और अपने अमृतरूपी दुग्धादि के द्वारा सारे संसार का धारण पोषण करती हैं । इसी प्रकार देवसंज्ञक निष्काम ज्ञानी विद्वान् सदा निर्दोष और निष्पाप होते हैं । वे पवित्र ज्ञानगंगा बहाकर सारे संसार के पाप तथा दोषों को धो डालते हैं अर्थात् सबको ज्ञानामृत पिला कर निष्पाप करके इनका धारण पोषण करते हैं । जैसे हमारे सभी महर्षि महाभारत से पूर्व इसी प्रकार के थे । महर्षि पतञ्जलि अपने महाभाष्य में लिखते हैं -


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अष्टाशीतिसहस्राण्यूर्ध्वरेतसामृषीणां भभूवुस्तत्रागस्त्याष्टमैः ऋषिभिः प्रजनोऽभ्युंपगतः तत्रभवतां यदपत्यं तानि गोत्राणि, अतोऽन्ये गोत्रावयवाः । (महाभाष्य अ० ४ पा० १ सू० ७९)


ब्रह्मा से लेकर जैमिनि पर्यन्त, अर्थात् आदि सृष्टि से लेकर महाभारत काल तक ८८ हजार ऊर्ध्वरेता, अखण्ड ब्रह्मचारी ऋषि महर्षि हुये हैं । ये सभी निर्दोष, निष्पाप, निष्काम-सेवी, देवतुल्य, आप्‍त पुरुष थे । सारी आयु ब्रह्मचर्य की तपस्या करते हुये, वेद के पवित्र ज्ञान का प्रचार और प्रसार करते रहे । इन्हीं महात्माओं की कृपा से आर्यावर्त्त देश सारे संसार का गुरु रहा और इसका सम्पूर्ण भूमण्डल पर चक्रवर्त्ती राज्य रहा । उपर्युक्त ८८ हजार ऋषियों में से केवल अगस्त्य आदि ८ ही ऋषियों ने विवाह किया । इसलिये ८ ही गोत्र प्रारम्भ से थे, पीछे अनेक उपगोत्र उन्हीं की सन्तानों में चल पड़े । गृहस्थ होते हुये भी ऋषि-महर्षि बड़े संयम से रहते थे, केवल सन्तानोत्पत्ति के लिये वीर्य दान देते थे । जैसे योगिराज श्रीकृष्ण जी महाराज, विवाह होने के पश्चात् भी बारह वर्ष तक दोनों पति और पत्‍नी ब्रह्मचर्य पालन के लिये घोर तपस्या करते रहे । तत्पश्चात् प्रद्युम्न जैसे वीर पुत्र की कामना से गृहस्थ बने, गृहस्थ धर्म का पालन करने के लिये तत्पर हुये । महर्षि दयानन्द जी ने अपनी लेखनी से जिस महात्मा की प्रशंसा की है वे श्रीकृष्ण जी ही हैं । महर्षि अपने अमरग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में लिखते हैं -


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“देखो ! श्रीकृष्ण जी का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है । उनका गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आ‍प्‍त पुरुषों के सदृश है । जिसमें कोई अधर्म का आचरण श्रीकृष्ण जी ने जन्म से मरणपर्यन्त बुरा काम कुछ भी किया हो ऐसा नहीं लिखा...”


इसी प्रकार देव युग में सभी आश्रमवासी आर्य उच्च चरित्र के होते थे ।

विद्वानों के पापरहित होने का एक मुख्य कारण है, वे रात दिन प्राणिमात्र के कल्याण के लिये घोर पुरुषार्थ करते हैं । इस सत्य को वेद भगवान् ने इस प्रकार कहा है -

न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवाः ।

परिश्रम के बिना देव मित्र नहीं बनते । देवों की मित्रता प्राप्‍त करने के लिये शरीर और मस्तिष्क को घोर परिश्रम करके थकाना होता है । देवों की मित्रता का लाभ परिश्रम से थके हुये मानवों को ही प्राप्‍त होता है । देव और भगवान् की दैवी शक्तियां पुरुषार्थी व्यक्ति की मित्र और सहायक बनती हैं ।

इन्द्र इच्चरत सखा ।

विद्या धन आदि अनन्त ऐश्वर्यों का स्वामी इन्द्र परमात्मा पुरुषार्थी का ही सखा बनता है । यह भी उपर्युक्त सत्य की पुष्टि में प्रमाण है ।

देव स्वयं पुरुषार्थी होते हैं और पुरुषार्थियों के ही सखा होते हैं । ऐसा ही देवों के देव परमपिता परमात्मा का स्वभाव है, इसलिये उसी के गोद में बैठकर आनन्दामृत पान करने का सौभाग्य देवों को ही मिलता है ।


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यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त ॥

(यजु० अ. ३२ म. १०)

अर्थात् जिस सांसारिक सुख-दुःख से रहित नित्यानन्दयुक्त (धामन्) मोक्षस्वरूप धारण करने हारे परमात्मा में मोक्षरूप आनन्दामृत को प्राप्‍त होके देवसंज्ञक विद्वान् लोग स्वेच्छापूर्वक विचरते हैं, उसकी प्राप्‍ति के लिये संयम, ब्रह्मचर्यव्रत का सेवन, देव बनने के लिये करते हैं । कठोपनिषद् २।१२ में इसका इस प्रकार वर्णन है -


यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ।

जिस परमात्मा की प्राप्‍ति की इच्छा से ब्रह्मचर्य की साधना भक्त लोग करते हैं उसका नाम ओ३म् है ।

देवा अग्निं धार्यन् द्रविणोदाम् । (ऋ० १।७।३।२॥)

उस विज्ञानादि धन देने वाले को ही, ज्ञानस्वरूप होने से अग्नि कहते हैं, निष्काम ज्ञानी विद्वान् देव लोग जानते हैं, प्राप्‍त करते हैं ।

तेषामेषो ब्रह्मलोको येषां तयो ब्रह्मचर्यम् ।


ब्रह्मलोक उन्हीं का है जो ब्रह्मचर्य के पालनार्थ तपस्या करते हैं । तपस्वी ब्रह्मचारी तप करके देव बनकर प्रभु की प्राप्‍ति करते हैं । क्योंकि देवों का देव परमात्मा स्वयं ब्रह्मचारी है । इसलिये ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले देवों का वह प्रिय है और वे उसे अत्यन्त प्रिय हैं । इसलिये उनका तच्चक्षुर्देवहितम् वह सर्वद्रष्टा ज्ञानी प्रभु निष्काम ज्ञानी विद्वान् देवों का हितैषी हितसाधक है । क्योंकि प्रशिषं यस्य देवाः । यस्यच्छायामृतम् देवजन उस प्रभु की आज्ञा वा प्रशासन का पालन करते हैं । ईश्वर के अनुशासन में चलने वाले देव लोग होते हैं । ईश्वर की


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छात्रछाया वा संरक्षण को अमृततुल्य मानते हैं ।

ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत । (अथर्व० ११।५।१९)

निष्काम, ज्ञानी, देव लोग ब्रह्मचर्यरूपी तप से मृत्यु को दूर भगाते हैं । इनकी तपस्या वा साधना मुख्यरूप से ब्रह्मचर्य अर्थात् संयम का जीवन है ।


शतायुर्वै पुरुषः

सामान्यतया पुरुष की आयु सौ वर्ष की होती है किन्तु जो देव सारी आयु ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं उनकी आयु ३०० वा ४०० वर्ष की होती है । यजुर्वेद में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है –


त्र्यायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम् ।

यद्‍देवेषु त्र्यायुषम् तन्नोऽअस्तु त्र्यायुषम्॥

(त्र्यायुषम्) इस पद की चार बार आवृत्ति होने से तीन सौ वर्ष से अधिक चार सौ वर्ष पर्यन्त भी आयु का ग्रहण किया है । इसकी प्राप्‍ति के लिये परमेश्वर की प्रार्थना करके और अपना पुरुषार्थ करना उचित है । सो प्रार्थना इस प्रकार करनी चाहिये - हे जगदीश्वर ! आपकी कृपा से जैसे विद्वान् लोग विद्या, धर्म और परोपकार के अनुष्ठान से आनन्दपूर्वक तीन सौ वर्ष पर्यन्त आयु को भोगते हैं वैसे ही तीन प्रकार के ताप से शरीर, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकाररूप अन्तःकरण इन्द्रिय और प्राण आदि को सुख करने वाले विद्या विज्ञान् सहित आयु को हम लोग प्राप्‍त होकर तीन सौ वा चार सौ वर्ष पर्यन्त सुखपूर्वक भोगें । (महर्षि दयानन्दकृत यजुर्वेदभाष्य ३।६२)


हमारा प्राचीन साहित्य भी इसकी सम्पुष्टि करता है । जैसे महर्षि व्यास की आयु महाभारत के समय ३०० वर्ष से भी


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अधिक थी । मुनिवर चाणक्य ३०० वर्ष से भी अधिक आयु तक जीते रहे । ब्रह्मचारी भीष्म पितामह १७६ वर्ष की आयु में युवा योद्धा महारथियों के छक्के छुड़ाते रहे और उनका रोम रोम तीरों से बींधा हुआ था, यहां तक कि उनकी शय्या भी तीरों की बन गई थी । उसी शरशय्या पर विश्राम करते हुये अपने पुत्र पौत्रों को उपदेश देते रहे । मृत्यु बेचारी प्रतीक्षा करती रही । जब तक सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में नहीं आया तब तक मृत्यु को अपने निकट फटकने भी नहीं दिया । इसीलिये मृत्युञ्जय की उपाधि विवश होकर देवतुल्य ब्रह्मचारी भीष्म को देनी पड़ी । शरशय्या पर लेटे हुये जो उपदेश ब्रह्मचारी भीष्म ने दिया, अनुशासन पर्व उसका सारमात्र और साक्षी है । संसार के कल्याण के लिये दीर्घायु तक देव लोग अपने शरीर को धारण करते हैं ।


अयं लोकः प्रियतमो देवानाम्

देवताओं को यह देव लोक वा शरीर अत्यन्त प्रिय होता है । ये महात्मा शरीर और लोक को मिथ्या कहकर इनसे घृणा नहीं करते । ब्रह्मचर्य से दीर्घजीवी होकर शरीर का सदुपयोग करते हैं और संसार की हितसाधना में अपना सर्वस्व लगाते हैं एवं अपने मानव जन्म को सफल बनाते हैं । इसलिये -

देवास्त इन्द्र सख्याय येमिरे । (साम० ३।६६।२।३)

हे इन्द्र ! सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के स्वामिन् ! ये निष्काम ज्ञानी देव लोग तेरी मित्रता के लिये संयम करते हैं, ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं । क्योंकि भगवान् संयमी देवों का मित्र होता है ।

देवानामं यः पितरम् ॥ऋ० २।२६।३॥

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देवों निष्काम ज्ञानियों का परमात्मा पितर (पिता) पालक और रक्षक है । भगवान् का वरदहस्त सदा उनके शिर पर रहता है । इसलिये -


मम देवासो अनु केतमायन् ॥ऋ० ४-२६-२॥

देव लोग भगवान् के संकेत पर अर्थात् उसकी आज्ञा के अनुसार चलते हैं । इसलिये वे भगवान् की कृपा के पात्र होते हैं ।

देवाश्चित् ते असुयं प्रचेतसो बृहस्पते यज्ञियं भागमानशुः ॥ऋ० २।२३।२॥

उस महान् रक्षक प्रभु का यज्ञ के योग्य भाग होता है, उस जीवनोपयोगी भाग को ये देव (ज्ञानी) ही प्राप्‍त करते हैं । वास्तव में ईशप्रदत्त पदार्थों के सदुपयोग से देव लोग सुख और आनन्द का उपभोग करते हैं देवों का जीवन यज्ञमय होता है ।


यज्ञो वै श्रेषठतमं कर्म ॥शतपथ॥

यज्ञ ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है, अथवा सभी श्रेष्ठ कर्मों का नाम यज्ञ है । इस शतपथ ब्राह्मण के वचनानुसार देव लोग यज्ञ (परोपकार) के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य नहीं करते ।

देवा अन्योऽन्यस्मिन् जुह्वतश्चेरुः


ब्राह्मण ग्रन्थ में यह वर्णन मिलता है । देव लोग अपने में अपने लिये हवन नहीं करते थे, अपितु एक दूसरे में हवन करते हुये विचरते थे । वे स्वयं पहले न खाकर दूसरों को खिलाने में ही आनन्द लेते थे । परस्पर एक दूसरे की सेवा में तत्पर रहते थे । इसीलिये देव यज्ञशील होते हैं । यज्ञ में प्रत्येक आहुति के


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इदन्न मम (यह मेरा नहीं है) लगा है, यह उपर्युक्त सत्य का ही द्योतक है ।

यक्षन्ति प्रचेतसः

ज्ञानी यज्ञ करते हैं, दान देते हैं और सत्संग करते हैं तथा ईश्वर की पूजा करते हैं । एक प्राचीन कथा इसकी साक्षी है ।


एक बार प्रजापति ने देव और असुरों को परीक्षार्थ बुलाया और उनमें प्रथम असुरों को भोजन के लिये आसनों पर बैठा दिया । भोजन परोस दिया गया, किन्तु सभी असुरों के दोनों हाथों पर इस प्रकार से लकड़ी के डण्डे बाँध दिये गये कि जिस से कोहनियों में से उनके हाथ मुड़ न सकें और भोजन करने की आज्ञा दे दी । साथ ही भोजन के लिये समय भी नियत कर दिया, जिससे नियत समय के अन्दर भोजन कर लें । असुरों ने देखा, हाथ मुड़े बिना भोजन मुख में नहीं जा सकता, अतः भोजन कैसे किया जाये, इस चिन्ता में पड़ गये । सभी अपना पेट भरने के लिये चिन्तित तथा आतुर थे, अतः सभी ऊपर को मुख फाड़ कर अपने हाथों से भोजन ऊपर उछाल कर मुखों में डालने का यत्‍न करने लगे । ऊपर उछाला हुआ भोजन मुख में न पड़कर इधर-उधर भूमि पर तथा उनके शरीर के अन्य अंगों पर पड़ता था । इस प्रकार करते करते समय भी समाप्‍त हो गया तथा भोजन भी सारा खराब हो गया । साथ ही उनके वस्त्र स्थानादि भी खराब हो गये तथा वे भूखे के भूखे उठ गये ।


असुरों के पश्चात् प्रजापति ने देवों को भोजनार्थ निमन्त्रित किया तथा उनके साथ भी पूर्ववत् व्यवहार किया । देवों ने अपने स्वभावानुसार ही विचार किया और परस्पर एक दूसरे के


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मुख में भोजन डालना आरम्भ कर दिया । इस प्रकार समय से पूर्व की एक दूसरे को भोजन खिलाकर सब तृप्‍त हो गये । देवों और असुरों के गुण-कर्म-स्वभाव में यही अन्तर होता है । देव दूसरे को पहले भोजन कराकर स्वयं पीछे भोजन करता है और असुर दूसरों को भोजन कराना ही नहीं चाहता । वह तो केवल अपना पेट भरना वा अपने प्राण तर्पण करना ही मुख्य प्रयोजन समझता है । इसी कारण परोपकारी देव तथा स्वार्थी असुरों में कभी परस्पर प्रेम नहीं होता और सदैव संघर्ष ही रहता है । यह सार्वकालिक और सार्वभौम सिद्धान्त है । एक माता पिता की सन्तान में से देव और असुर दोनों ही देखने में आते हैं ।


अविचेतसो मज्जन्ति ।

अज्ञानी असुर पाप कर्म करके डूब मरते हैं । यह ऋग्वेद ९।६४।२१ का वचन है । देव ज्ञानी लोग भवसागर से तरते हैं क्योंकि उन्होंने निष्काम कर्मों के द्वारा तारने वाले प्रभु को अपना मित्र बना लिया है, तरने के अन्यान्य साधनों को संजोया है और संभाल कर रक्खा है । मूर्ख इसके विपरीत आचरण करता है । वह नौका की पेंदी में ही छिद्र कर रहा होता है, डूबने के सभी साधनों को जुटाता है, अतः आप भी डूब मरता है और साथियों को भी डुबोता है । शतपथ में लिखा है -

सत्यं वै देवा अनृतं मनुष्याः ।


देव सत्यस्वरूप होते हैं, देवों के आचरण में अनृत, असत्य, झूठ का लवलेश भी नहीं होता । उनका जीवन, व्यवहार सत्य से ओतप्रोत रहता है । देवों और मनुष्यों में यही तो भेद है कि देव सत्य के पुजारी होते हैं और मनुष्य सत्य के परित्याग से मिथ्याचरण, अधर्माचरण करते रहते हैं । सामान्य मनुष्य की


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यही धारणा होती है कि अनृत (असत्य) के बिना मेरे स्वार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती । भय, अज्ञान आदि भी उसको अनृत में प्रवृत्त करते रहते हैं । यदि मनुष्य देव बनना चाहे तो उसे वेद की इस आज्ञा का पालन करना चाहिये -

इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि (यजु० १।५)

मैं अनृत, असत्य व्यवहार का परित्याग करके सत्याचरण की प्रतिज्ञा करता हूँ । क्योंकि -

मनुष्येभ्यो देवानुपैति ॥

इस शतपथ के वचनानुसार मनुष्यों से ऊपर उठकर सत्याचरण के द्वारा देवत्व की प्राप्‍ति होती है । मानव जीवन का लक्ष्य देव जीवन है । मानव के जीवन की सफलता देव बनने में ही है । उसके लिये अनृत का त्याग और सत्य का ग्रहण अनिवार्य है । इसके बिना देवत्व संभव नहीं । मानव मात्र के लिये वेद की यही आज्ञा है -

मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् ॥ऋ. १०।५३।६॥

मननशील होकर यथार्थ में मनुष्य बनो, इसी से सन्तुष्ट न रहो, आगे बढ़ने का यत्‍न करो । स्वयं देव बनो, यदि किसी कारण ऐसा न कर सको तो यत्‍न करो कि आपका प्रतिनिधि आपकी सन्तान दिव्यगुणों को धारण करने वाली हो । परन्तु निष्काम कर्म करने वाले देवसंज्ञक ज्ञानी विद्वान बनें । प्रत्येक गृहस्थ का कर्त्तव्य है कि अपने आगे आने वाली पीढ़ी या सन्तान को देव बनाने का यत्‍न करे । देव और सामान्य विद्वानों में यह भेद होता है -

देवत्रा विप्र उदीर्यन्ति वाचम् ॥

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देवता बनने के लिए देवों की वाणी अर्थात् दिव्यभावयुक्त वाणी का व्यवहार करते हैं । इसीलिये जो ज्ञानयुक्त कर्म करने वाले विप्रसंज्ञक विद्वान् ब्राह्मण होते हैं वे देवविषयक (देवों के समान) वाणी बोलते हैं । ब्राह्मण ग्रन्थों में आता है कि यज्ञों में मानुषी वाणी न बोले, वैष्णवी वा दैवी वाणी का प्रयोग करे । इसलिये देवता लोग यज्ञ में परमात्मा की वेदवाणी का प्रयोग करते हैं । वे व्यर्थ नहीं बोलते, सारयुक्त देववाणी - वेदवाणी का उच्चारण करते हैं । देव लोग अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट नहीं रहते, केवल स्वयं यज्ञ करते रहें तथा औरों को यज्ञ करने की प्रेरणा न करें, यह दैवी स्वभाव के विरुद्ध है । इसलिये -


देवान् यज्ञेन बोधय ॥

देव लोग अपने अन्य साथी देवों को यज्ञ (परोपकार), अध्ययन आदि श्रेष्ठ कर्मों द्वारा जगा दें और सदैव जागरूक रक्खें । ऐसे देव विद्वानों का सत्संग जिन सौभाग्यशाली मनुष्यों को मिलता है उनका जीवन सफल होता है । क्योंकि -


जिष्ण्‍वेषां विश्वे भवन्तु देवाः ॥

ऐसे व्यक्तियों के जयशील चित्तों की देव लोग रक्षा करते हैं । देवों के नेतृत्व में भी सदैव तृप्‍त और प्रसन्न रहते हैं । वे जिधर भी जाते हैं, उधर विजयश्री उनके पगों को चूमती है । अच्छे व्यक्ति की सहायता तो देव करते ही हैं किन्तु वे पतितों से भी घृणा नहीं करते, उनका भी उद्धार करते हैं ।

उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुनः ।

उतागश्चक्रुषं देवा देवा जीवयथा पुनः ॥

(ऋ० १०।१३७।१)


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अर्थः - हे (देवाः) लोकोपकारक महापुरुषो ! (उत) और (अवहितं) नीचे गिरे को, हे (देवाः) पतितोद्धारक विद्वानो ! पुनः फिर से (उन्नयथा) ऊपर ले जावो, उठावो, उन्नत करो । (उत) और हे (देवाः) देवो ! (आगः चक्रुषम्) बारम्बार अपराध करने वाले को, हे (देवाः) आनन्दित करने वालो ! (पुनः) फिर से (जीवयथा) जिलाओ, जीवन दो ।


अज्ञान वा मूर्खता के कारण मानव से अनेक दोष वा अपराध होते हैं । मनुष्य का जीवन बहुत मूल्यवान् है क्योंकि वह प्राणिमात्र में श्रेष्ठ है । उन्नति के लिये सब प्राणियों से अधिक साधन इसे प्राप्‍त हैं । किन्तु जीवात्मा अल्पज्ञता तथा अहंकार के वश कितने ही अकरणीय कुकर्म कर डालता है जिस से वह पतित हो जाता है, ईश्वर तथा समाज दोनों की ही दृष्टि से गिर जाता है तो सामान्य लोग भी उससे घृणा करने लगते हैं । ऐसी अवस्था में देव लोग उस पर दया करके देवा उन्नयथा पुनः पुनः उस पतित को, गिरे हुये को उठाते हैं और दुष्ट पुरुष हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति सज्जनाः ऐसे व्यक्ति के पतन पर उपहास करते हैं, किन्तु सज्जन उसको सान्त्वना देकर उठने के लिये पुनः उत्साहित करते हैं । यह विशेष कार्य परोपकारी, विद्वान्, देव लोग करते हैं ।


जब कोई मनुष्य गिर जाता है, विद्वानों के उत्साहित करने पर भी वह बारम्बार अपराध करता है, पापाचरण में निरन्तर रत रहने लगता है । इस से उसका आत्मा मानो मर सा जाता है । ऐसे मरे हुये, आत्मसम्मानविहीन, मृतकप्राय, मानव नामधारी प्राणियों के लिये वेद देवों का कर्त्तव्य बताता


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है । देवा जीवयथा पुनः निष्काम परोपकारी विद्वान् देवजन ऐसे पतित मुर्दों को फिर जीवन देते हैं, क्योंकि किसी को गिरा देना तो सरल है, किन्तु उठाना बहुत ही कठिन कार्य है । किसी को मार देना तो कोई बड़ी बात नहीं, किन्तु जीवन दान करना अत्यन्त कठिन और वीरता का कार्य है । ऐसे कार्य को देव ही करते हैं । पुनन्तु मा देवजनाः (अ० ५।१९।१) देवजन, विद्वान् पुरुष हमें पवित्र करते हैं । अच्छे आचार वालों को उन्नत करने में कोई विशेष बात वा कठिनाई नहीं होती । कठिनाई वा विशेषता नीचे गिरे वा पतित व्यक्ति के उत्थान करने में है । जो पतित से घृणा करते हैं, वेद की दृष्टि में वे कोई विशेष महत्त्वपूर्ण व्यक्ति नहीं होते । वेद तो पतितोधारकों और मृतकों को जीवन देने वाले को देव की पदवी देता है । स्वामी दयानन्द ऐसे ही महापुरुष हुये हैं जिन्होंने पतित अमीचन्द, मुन्शीराम आदि के समान सहस्रों व्यक्तियों का अपने सदुपदेश से उद्धार किया । गुरुदत्त जैसे सहस्रों नास्तिकों को आस्तिक बनाया । प्राचीन काल में ब्रह्मा से जैमिनि पर्यन्त ऋषि महर्षि देवजन यही कार्य करते रहे हैं ।


आदि सृष्टि में ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, कार्तिकेय, गणेश, सरस्वती, लक्ष्मी आदि विद्वान् और विदुषी हमारे पूर्वज जो ऋषि महर्षि और देवी देवता हुये हैं उन सब ने अपना जीवन मानव ही नहीं, प्राणिमात्र के कल्याण के लिये न्यौच्छावर किया था, अतःएव अपनी अमर कीर्ति तथा यशःशरीर से आज भी वे अमर हैं । उनके विषम में प्रातः स्मरणीय महर्षि प्रवर दयानन्द जी महाराज


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अपनी अमरकृति सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं -

ब्रह्मा विष्णु महादेव नामक (हमारे) पूर्वज महाशय विद्वान् (थे) ......(उन्हों)ने भी परमेश्वर में ही विश्वास करके उसी की स्तुति प्रार्थना और उपासना की, उससे भिन्न की नहीं की । वैसे हम सब को करना योग्य है ।

(सत्यार्थप्रकाश प्रथम समुल्लास)

हमारे उपर्युक्त ब्रह्मादि देवगण प्राचीन काल में मानव मात्र को आस्तिक, धार्मिक और विद्वान् बनाने के लिये कृतसंकल्प थे । सामान्य विद्वानों में और देवों में क्या भेद होता है इस पर बौधायनगृह्यसूत्र (प्र० १ अ० १) में अच्छा प्रकाश डाला है । यथा -

१. उपनीतमात्रो व्रतानुचारी वेदान् किञ्चिदधीय ब्राह्मणः

अर्थात् जिसका केवल यज्ञोपवीत हुआ है, जो ब्रह्मचर्यादिव्रत का पालन करता है, तथा जिसने वेदों का कुछ भाग पढ़ा है वह ब्राह्मण है । यह प्रथम प्रकार का विद्वान् होता है ।

२. एकां शाखामधीय श्रोत्रियः ।

उपर्युक्त यज्ञोपवीतधारी ब्रह्मचारी वेद की एक शाखा पढ़ने से श्रोत्रिय कहलाता है ।

३. अंगाध्याय्यनूचानः ।

उपर्युक्त नियमपालन करने वाला अंगों सहित वेद पढ़ने से अनूचान कहाता है ।

४. कल्पाध्यायी ऋषिकल्पः ।

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कल्प सहित वेद पढने से विद्वान् की "ऋषिकल्प" संज्ञा हो जाती है ।

५. सूत्रप्रवचनाध्यायी भ्रूणः ।

सूत्र भाष्य के साथ पढ़ने से भ्रूण संज्ञा वाला विद्वान् बनता है ।

६. चतुर्वेदाद् ऋषिः ।

चारों वेदों का अध्ययन करने से ऋषि संज्ञा प्राप्‍त होती है ।

७. अत ऊर्ध्वं देवः ।


ऋषियों से भी अधिक परोपकारी, विद्वान् को देव कहते हैं । परोपकाराय सतां विभूतयः सत्य का आचरण करने वाले जिन चारों वेदों के विद्वानों का सर्वस्व प्राणिमात्र के हितार्थ व्यय होता है, वे देव कहलाते हैं । वे प्रजाहित में अपना सर्वस्व लगा देते हैं । उपर्युक्त विद्वान् कैसे बनाये जाते हैं -


मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद ।

यह शतपथब्राह्मण (१४।५।८।२) का वचन है । वस्तुतः जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात् एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य होवे, तभी मनुष्य ज्ञानवान् होता है । वह कुल धन्य है, वह सन्तान बड़ा भाग्यवान् है, जिसके माता पिता धार्मिक विद्वान् हों । जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुंचता है उतना किसी से नहीं । जैसे माता सन्तानों पर प्रेम और उनका हित चाहती है उतना कोई नहीं चाहता ।


पहले सन्तान को विद्वान् और श्रेष्ठ बनाने के लिये माता पिता तपश्चर्या किया करते थे । इस पर भी बौधायन गृह्यसूत्र (१।७) में


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प्रकाश डाला है । सामान्य विद्वान् बनाने के लिये सामान्य तपक्रिया करते थे और विशेष श्रोत्रिय आदि विद्वान् बनाने के लिये विशेष ब्रह्मचर्यादि व्रतों का सेवन करना आवश्यक था । जैसे अथ यदि कामयेत श्रोत्रियं जनयेयमिति आ-अरुन्धत्युपस्थानात् कृत्वा त्रिरात्रमक्षारलवण शिनावधश्शायिनौ ब्रह्मचारिणावासाते ॥९॥


यदि पति पत्‍नी की यह इच्छा हो कि हम श्रोत्रिय को उत्पन्न करें तो तीन दिन तक पति पत्‍नी क्षार लवण रहित भोजन करें, नीचे सोयें और ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करें और अहतानां च वाससां परिधानं सायं प्रातश्चालंकरणमिषुप्रतोदयोश्च धारणमग्निपरिचर्या च ॥१०॥ चतुर्थ्यामुपसंवेशनं च । अर्थात् शुद्ध, निर्दोष, वस्‍त्रों का परिधान, सायं प्रातः अलंकार धारण और इषु तथा भाले आदि धारण करें । अग्निहोत्र करें । चौथी रात्रि में पके पदार्थों का होम करें और गर्भाधान करें । और यदि अनूचान की इच्छा हो तो अनूचानं जनयेयमिति द्वादशरात्रमेतद् व्रतं चरेत् । अनूचान विद्वान् उत्पन्न करने वाले गृहस्थ पति पत्‍नी बारह दिन क्षार-लवण रहित भोजन, भूमिशयन और ब्रह्मचर्य का पालन करें, फिर गर्भाधान करें । यदि कामयेत भ्रूणं जनयेयमिति चतुरो मासानेतद् व्रतं चरेत् यदि यह इच्छा हो कि भ्रूण संज्ञक मेरी सन्तति हो तो पति पत्‍नी चार मास तक उपर्युक्त क्षार-लवण रहित भोजन, भूमिशयन की तपश्चर्या करते हुये ब्रह्मचर्य का पालन करें, फिर वीर्य दान देवें । यदि कामयेत देवं जनयेयमिति संवत्सरमेतद् व्रतं चरेत् । यदि देव उत्पन्न करने की कामना हो तो उपर्युक्त ब्रह्मचर्य का एक वर्ष पालन करें । तब


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होम आदि करके गर्भाधान संस्कार करें । तब देवतुल्य सन्तान की प्राप्‍ति होगी ।


इसी सिद्धान्त के अनुसार पूर्ण युवावस्था में देवी अञ्जना और पवन महात्मा का विवाह हुवा था । विवाह के पश्चात् भी उन दोनों ने २० वर्ष तक कठोर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किया, उसी के फलस्वरूप देवरत्‍न हनुमान् जैसे योद्धा का उनके गृह में जन्म हुवा ।


रामायण किष्किन्धाकाण्ड तृतीय सर्ग में हनुमान् के विषय में निम्न प्रकार से चर्चा की है –


ततः स हनुमान् वाचा श्लक्ष्णया सुमनोज्ञया ।

विनीतवदुपागम्य राघवौ प्रणिपत्य च ॥३॥

आबभाषे च तौ वीरौ यथावत् प्रशशंस च ।

सम्पूज्य विधिवद् वीरौ हनुमान् मारुतात्मजः ॥४॥

उवाच कामतो वाक्यं मृदु सत्यपराक्रमौ ।

राजर्षिदेवप्रतिमौ तापसौ संशितव्रतौ ॥५॥


हनुमान् ने तत्पश्चात् नम्रभाव से उन दोनों रघुवंशी वीरों के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके मन को अत्यन्त प्रिय लगने वाली मधुर वाणी से उनके साथ वार्तालाप आरम्भ किया । पवनपुत्र हनुमान् ने पहले तो उन दोनों वीरों की यथोचित प्रशंसा की । फिर विधिवत् उनका पूजन (आदर) करके स्वच्छन्द रूप से मधुर वाणी से कहा - वीरो ! आप दोनों सत्यपराक्रमी राजर्षियों और देवताओं के समान प्रभावशाली, तपस्वी तथा


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कठोर व्रत का पालन करने वाले जान पड़ते हैं ।


धैर्यवन्तौ सुवर्णाभौ कौ युवां चीरवाससौ ॥८॥


आप धैर्यशाली, सुवर्णसमान कान्ति वाले चीरवस्‍त्रधारी हैं, आप दोनों का क्या परिचय है ? इस प्रकार बहुत प्रशंसा करने पर बार बार पूछने पर भी राम लक्ष्मण ने कोई उत्तर नहीं दिया, तो उसने अपना परिचय इस प्रकार दिया –


प्राप्‍तोऽहं प्रेषिस्तेन सुग्रीवेण महात्मना ।

राज्ञा वानरमुख्यानां हनूमान् नाम वानरः ॥२१॥

उन्हीं वानरशिरोमणियों के राजा महात्मा सुग्रीव के भेजने से मैं यहाँ आया हूँ । मेरा नाम हनुमान् है । मैं भी वानर जाति का ही हूँ ।


युवाभ्यां सह धर्मात्मा सुग्रीवः सख्यमिच्छति ।

तस्य मां सचिवं वित्तं वानरं पवनात्मजम् ॥२२॥

धर्मात्मा सुग्रीव आप दोनों से मित्रता करना चाहते हैं । मुझे आप लोग उन्हीं का मन्त्री समझें । मैं पवन का पुत्र वानर जाति का ही हूँ । तब राम ने लक्षमण को हनुमान् से बातचीत करने के लिए कहा -

अभिभाषस्व सौमित्रे सुग्रीवसचिवं कपिम् ।

वाक्यज्ञं मधुरैर्वाक्यैः स्नेहयुक्तमरिंदम ॥२७॥

शत्रु का दमन करने वाले लक्ष्मण ! सुग्रीव सचिव कपिवर हनुमान् से जो बात के मर्म को समझने वाले हैं, तुम स्नेह पूर्वक


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मधुर वाणी से बातचीत करो ॥२७॥


यह कहकर हनुमान् की पुरुषोत्तम राम ने इस प्रकार प्रशंसा की -

नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः ।

नासामवेदविदुषः शक्यमेवं प्रभाषितुम् ॥२८॥


जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का अभ्यास नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता ।


नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम् ।

बहु व्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम् ॥२९॥


निश्चय ही इसने समूचे व्याकरण का कई बार स्वाध्याय किया है, क्योंकि बहुत भाषण करने पर भी इसके मुख से कोई अपशब्द नहीं निकला ।


न मुखे नेत्रयोर्वापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा ।

अन्येष्वपि च गात्रेषु दोषः संविदितः क्वचित् ॥३०॥


सम्भाषण के समय इसके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अंगों से भी कोई दोष प्रकट हुवा हो, ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ ।


अविस्तमसन्दिग्धम् अविलम्बितसमद्रुतम् ।

उरःस्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यमे स्वरे ॥३१॥


इतने थोड़े ही शब्दों में बड़ी स्पष्टता के साथ अपना


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अभिप्राय निवेदन किया है, उसे समझने में कहीं कोई सन्देह नहीं हुवा है । रुक रुक कर, शब्दों अथवा अक्षरों को तोड़ मरोड़ कर किसी ऐसे वाक्य का उच्चारण नहीं किया है जो सुनने में कर्ण-कटु हो । इसकी वाणी हृदय में मध्यमा रूप से स्थित है और कण्ठ से बैखरी रूप में प्रकट होती है, अतः बोलते समय इसकी आवाज न बहुत धीमी रही है न बहुत ऊंची । मध्यम स्वर में ही इसने सब बातें कहीं हैं ।


संस्कारक्रमसम्पन्नां अद्‍भुतामविलम्बिताम् ।

उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयहारिणीम् ॥३२॥


यह संस्कार और क्रम से सम्पन्न अद्‍भुत, अविलम्बित तथा हृदय को आनन्द प्रदान करने वाली कल्याणमयी वाणी का उच्चारण करता है ।


अनया चित्रया वाचा त्रिस्थानव्यञ्जनस्थया ।

कस्य नाराध्यते चित्तमुद्यतासेररेरपि ॥३३॥


हृदय, कण्ठ और मूर्धा इन तीनों स्थानों द्वारा स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त होने वाली इसकी इस विचित्र वाणी को सुनकर किस का चित्त प्रसन्न न होगा । वध करने के लिये तलवार उठाये हुए शत्रु का हृदय भी इस अद्‍भुत वाणी से बदल सकता है ।


एवंविधो यस्य दूतो न भवेत् पार्थिवस्य तु ।

सिध्यन्ति हि कथं तस्य कार्याणां गतयोऽनघ ॥३४॥


निष्पाप लक्षमण ! जिस राजा के पास इसके समान दूत


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न हों, उसके कार्यों की सिद्धि कैसे हो सकती है ।


एवं गुणगणैर्युक्ता यस्य स्युः कार्यसाधकाः ।

तस्य सिध्यन्ति सर्वेऽर्था दूतवाक्यप्रचोदिताः ॥३५॥


जिसके कार्यसाधक दूत ऐसे उत्तम गुणों से युक्त हों, उस राजा के सभी मनोरथ दूतों की बातचीत से ही सिद्ध हो जाते हैं ।


इससे सिद्ध होता है कि हनुमान् के पिता और माता ने उत्तम प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन करके वीर हनुमान् को उत्पन्न किया था । इसी कारण सांगोपांग चारों वेद पढ़कर विद्वान् बना तथा बलवान् और शक्तिशाली भी इतना बना कि सारी लंका को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला । वह सारे संसार में वज्रांगबली (बजरंगबली) के नाम से प्रसिद्ध है । हिन्दू उस देव सम विद्वान् को शक्ति का देवता मानकर आज तक पूजते हैं । उसे बन्दर कहना बहुत बड़ी मूर्खता है । वह मनुष्यों में उच्च कोटि का आदर्श विद्वान् था । मुनिवर वाल्मीकि ने उपर्युक्त श्लोकों में जिसकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है, उसको पूंछ लगा कर बन्दर (पशु) सिद्ध करना सबसे बड़ी मूर्खता है । वे वानर जाति में, जो मनुष्यों की ही जाति थी, उत्पन्न हुये थे, किन्तु पशुओं में नहीं । बन्दर कहीं चारों वेदों का विद्वान् हो सकता है ?


सामान्य बुद्धि रखने वाला मानव भी इसे स्वीकार नहीं कर सकता । “क्या हनुमानदि बन्दर थे” नाम की अपनी पुस्तक में महाविद्वान् ठाकुर अमरसिंह जी ने इस विषय पर


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अच्छा प्रकाश डाला है । देवतुल्य विद्वान् हनुमान् को पूंछ लगा कर बन्दर बना डालना पाखण्ड वा मूर्खता ही कही जा सकती है । वे भारतीय इतिहास के एक उज्जवल रत्‍न थे । इतिहास प्रसिद्ध वैराट नगर में (जो जयपुर राज्य के अन्तर्गत है) एक पर्वत के शिखर पर हनुमान् जी की एक प्रतिमा को देखने का अवसर मिला, जो बिना पूंछ की और मानवाकृति जैसी बनाई गई है । इसे गोभक्त महात्मा वीर रामचन्द्र जी ने बनवाकर लगवाया है । यह उनकी उत्तम और सत्य भावनाओं को प्रकट करने वाला चित्र है ।


मुझे प्रथम बार जब सनातनधर्मियों के मन्दिर में मनुष्य के रूप में हनुमान् जी की मूर्ति देखने का अवसर मिला तो अत्यन्त हर्ष हुवा कि भारत में सनातनधर्मियों में भी श्री पंडित रामचन्द्र वीर के समान विचारशील व्यक्ति उत्पन्न हो गये हैं जो इतिहास की इस सत्यता को भली भांति समझ गये हैं कि हनुमान् जी बन्दर (पशु) नहीं बल्कि वे महामानव थे । इस प्रकार दुराग्रह छोड़कर ऐतिहासिक सत्यता को स्वीकार करने वाले पंडित रामचन्द्र जी वीर के सामने कौन अपना शिर नहीं झुकायेगा ।


अस्तु ! हनुमान् जी भारतीय इतिहास को चार चांद लगाने वाले क्षत्रिय वीर थे जो किष्किन्धा के राजा सुग्रीव के महामन्त्री थे, यह रामायण से स्पष्ट सिद्ध होता है । वे इतने उच्चकोटि के देवता (विद्वान्) और बलवान् थे कि पौराणिक काल में शक्ति के देवता मानकर सारे भारत में पूजे जाने लगे और जय बजरंगबली का जयघोष सारे भारतवर्ष में आज भी हिन्दुओं में प्रचलित है । इसका निष्कर्ष यही है कि


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ब्रह्मचर्यव्रत पालन के फलस्वरूप माता अञ्जना और पवन पिता को हनुमान् समान सौभाग्यशाली सन्तान प्राप्‍त हुई जिसने अपने माता-पिता को भी अमर कर दिया ।


इसी प्रकार योगिराज श्रीकृष्ण जी महाराज ने विष्णु-गिरि पर्वत पर अपने समान पुत्र प्राप्‍ति के लिये घोर तपस्या की थी । महाभारत के अनुशासन पर्व के १३९वें अध्याय का १०वां श्लोक इस प्रकार है -


व्रतं चचार धर्मात्मा कृष्णो द्वादशवार्षिकम् ।

दीक्षितं चागतौ द्रष्टुमुभौ नारदपर्वतौ ॥


महादेवी रुक्मिणी से विवाह के पश्चात् महाराज योगिराज श्रीकृष्ण जी ने गृहस्थ में प्रवेश नहीं किया और विष्णुगिरि पर्वत पर उपमन्यु ऋषि के आश्रम में १२ वर्ष तक ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किया । क्षार लवण रहित भोजन और भूमि पर शयन किया । उस समय धर्मात्मा कृष्ण के दर्शन करने के लिए नारद और पर्वत दोनों ऋषि वहां पधारे । अन्य ऋषि भी इस कठोर तपस्या को देखने के लिये पहुँचे ।


कृष्णद्वैपायनश्चैव धौम्यश्च जपतां वरः ।

देवलः काश्यपश्चैव हस्तिकाश्यप एव च ॥११॥

अपरे चर्षयः सन्तो दीक्षादमसमन्विताः ।

शिष्यैरनुगताः सिद्धैर्देवकल्पैस्तपोधनैः ॥१२॥


इसके अतिरिक्त कृष्णद्वैपायन व्यास, जप करने वालों में


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श्रेष्ठ धौम्य, देवल, काश्यप, हस्तिकाश्यप तथा अन्य साधु, महर्षि जो दीक्षा और इन्द्रिय संयम (ब्रह्मचर्य) से सम्पन्न थे, अपने देव समान तपस्वी एवं सिद्ध शिष्यों के साथ महाराजा श्रीकृष्ण के दर्शन करने आये ।


तेषामतिथिसत्कारमर्चनीयं कुलोचितम् ।

देवकीतनयः प्रीतो देवकल्पमकल्पयत् ॥१३॥


देवकी के पुत्र भगवान् श्रीकृष्ण ने बड़ी प्रसन्न्ता के साथ देवताओं के समान उन महर्षियों का अतिथि सत्कार किया और अपने कुल के अनुरूप यथोचित आदर सम्मान किया ।


हरितेषु सुवर्णेषु बर्हिष्केषु नवेषु च ।

उपोपविविशुः प्रीता विष्टरेषु महर्षयः ॥१४॥


श्रीकृष्ण जी महाराज के दिये हुये हरे और सुनहरे रंग वाले कुशों के नवीन आसनों पर वे महर्षि प्रसन्नता पूर्वक विराजमान हुए । इस प्रकार ऋषियों का सत्कार किया ।


कथाश्चकुस्ततस्ते तु मधुरा धर्मसंहिताः ।

राजर्षीणां सुराणां च ये वसन्ति तपोधनाः ॥१५॥


तत्पश्चात् जो राजर्षि, देवता और तपस्वी, मुनिगण वहाँ निवास करते थे उनके सम्बन्ध में धर्मयुक्त, मधुर कथायें कहने लगे ।


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ब्रह्मचर्य का तेज

ततो नारायणं तेजो व्रतचर्येन्धनोत्थितम् ।

वक्त्रान्निःसृत्य कृष्णस्य वन्हिरद्‍भुतकर्मणः ॥१६॥


भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से ब्रह्मचर्यरूपी इन्धन से प्रज्वलित तेज अग्नि के रूप में प्रकट हो रहा था । अर्थात् उनके मुख पर अग्नि के समान देदीप्यमान ब्रह्मचर्य का अपूर्व तेज वा कान्ति जगमगा रही थी ।

ऋषियों ने पूछा आप यहां यह घोर तपस्या क्यों कर रहे हैं ? वासुदेव ने उत्तर दिया -


व्रतं चर्तुमिहायातस्त्वहं गिरिमिमं शुभम् ।

पुत्र चात्मसमं वीर्ये तपसा लब्धुमागतः ॥३३॥


मैं ब्रह्मचर्य रूपी तपस्या द्वारा अपने ही समान वीर्यवान् पुत्र पाने की इच्छा से व्रतपालन करने के लिए इस मंगलकारी पर्वत पर आया हूँ ।


व्रतचर्यापरीतस्य तपस्विव्रतसेवया ।

मम वन्हिः समुद्‍भूतो न वै व्यथितुमर्हथ ॥३२॥


मैं अपने तुल्य पुत्र की कामना से ब्रह्मचर्यव्रत पालन में बारह वर्ष से लगा हुवा हूँ । तपस्वी महात्माओं के इस ब्रह्मचर्यव्रत सेवन करने से मेरे अन्दर अग्नि के समान तेज प्रकट हुवा है । आपको उससे कोई चिन्ता वा कष्ट नहीं होना चाहिये ।


ततो ममात्मा यो देहे सोऽग्निर्भूत्वा विनिःसृतः ।

गतश्च वरदं द्रष्टुं सर्वलोकपितामहम् ॥३४॥


ब्रह्मचर्य के इस कठोर व्रतपालन से मेरा आत्मा जो इस


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शरीर में है वह अग्नि के समान प्रकाशित वा तेजस्वी हो गया और सारे संसार के पितामह अर्थात् परमपिता परमात्मा के दर्शन के लिये ब्रह्मलोक वा द्युलोक गया था अर्थात् वरदा माता की गोद में चला गया था ।


तेन चात्मानुशिष्टो मे पुत्रत्वे मुनिसत्तमाः ।

तेजसोऽर्धेन पुत्रस्ते भवितेति वृषध्वजः ॥३५॥

मुनिवरो ! उस परमपिता ने मेरे आत्मा को यह उपदेश दिया है कि आपको अपने तेज (वीर्य) के अर्धभाग से अपने समान पुत्र की प्राप्‍ति होगी । इस पवित्र व्रत के पालन के फलस्वरूप अपने अनुरूप प्रद्युम्न नाम का तेजस्वी पुत्र महारानी रुक्मिणी के गर्भ से उत्पन्न हुवा जो गुण और आकृति में अपने पिता के समान था ।


प्राचीनकाल में सन्तानोत्पत्ति के लिये सभी गृहस्थ ब्रह्मचर्यादि व्रत का पालन करते थे । विद्वान् को ही गृहस्थाश्रम में प्रवेशार्थ आज्ञा मिलती थी, ऐसी उस समय राज्यव्यवस्था थी । मनु जी महाराज की व्यवस्था इस प्रकार है -


वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वापि यथाक्रमम् ।

अविलुप्‍तब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममाविशेत् ॥मनु० ३।२॥


जब यथावत् ब्रह्मचर्य में आचार्यानुकूल वर्तकर धर्म से चारों, तीन, दो वा एक वेद को सांगोपांग पढ़के, जिसका ब्रह्मचर्य खण्डित न हुवा हो, वह पुरुष वा स्‍त्री गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे । वे आगे लिखते हैं -


गुरुणानुमतः स्नात्वा समावृत्तो यथाविधि ।

उद्वहेत द्विजो भार्यां सवर्णां लक्षणान्विताम् ॥मनु० ३।४॥


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गुरु की आज्ञा ले, स्नान कर (स्नातक होकर), विद्या समाप्‍त कर, गुरुकुल से अनुक्रमपूर्वक आकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपने वर्णानुकूल सुन्दर लक्षणयुक्त अपने गुण कर्म स्वभाव अनुसार कन्या से विवाह करे ।


इससे सिद्ध हुवा कि अखण्ड ब्रह्मचर्य और न्यून से न्यून सांगोपांग एक वेद के पढ़ने के पश्चात् स्नातक होने पर विवाह करने की आज्ञा वा अधिकार मिलता था । माता पिता और आचार्य प्रायः सभी अपनी सन्तान और शिष्यों को देव बनाने का यत्‍न करते थे । जिस प्रकार योगिराज श्रीकृष्ण जी और देवी रुक्मिणी ने वीर प्रद्युम्न को और महाराज पवन और माता अञ्जना ने वीर हनुमान् को बनाने का यत्‍न किया और सभी ऋषि महर्षि अपने शिष्यों को आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते (अथर्व० ११।५।१७) इस वेदाज्ञानुसार स्वयं ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये धार्मिक विद्वान् बनाने के लिये जीवन भर सतत यत्‍नशील रहते थे । इसलिये प्राचीन काल में इनको भी देव कहा जाता था । इसीलिये आर्यावर्त में “पञचदेव पूजा” प्राचीन परम्परा से चली आती है –


मातृदेवो भव पितृदेवो भव आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव ।

(तैत्तिरीय १।११)


उपचर्यः स्‍त्रिया साध्व्या सततं देववत्पतिः । (मनु० ५।१५४)


अर्थात् माता, पिता, आचार्य, अतिथि और पति वा पत्‍नी पूजनीय देव माने जाते थे । यही जीवित मूर्त्तिमान् देव होते हैं


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क्योंकि इनके संग से मनुष्य देह की उत्पत्ति, पालन, सत्य शिक्षा, विद्या और सत्योपदेश की प्राप्‍ति होती है । ये ही परमेश्वर को प्राप्‍त करने की सीढ़ियां हैं । इस में इतना विशेष समझ लें कि स्‍त्री के लिये पति और पुरुष के लिये पत्‍नी पूजनीय है ।


जो शिव, विष्णु, अम्बिका, गणेश और सूर्य की पत्थरादि की मूर्त्ति बनाकर पूजते हैं यह वेद विरुद्ध पाखण्ड है । यह पौराणिक युग की असत्य कल्पना है इसलिये सर्वथा त्याज्य है ।


प्राचीन काल में पितर और ऋषि महर्षि देवगण ब्रह्मचर्य पालन की यथार्थ क्रियात्मक शिक्षा देते थे । वह ब्रह्मचर्य भी तीन प्रकार का होता है - कनिष्ठ, मध्यम और उत्तम । उनमें से कनिष्ठ वह होता है जो कि चौबीस वर्ष पर्यन्त जितेन्द्रिय अर्थात् ब्रह्मचारी रहकर वेदादि विद्या और सुक्षिक्षा का ग्रहण करे और विवाह करके भी संयम से रहे, लम्पटता कभी न करे, उसके शरीर में प्राण बलवान् होकर सब गुणों के वास कराने वाले होते हैं । ऐसे ब्रह्मचारी का नाम वसु होता था अर्थात् वह बसने योग्य, जीने योग्य हो जाता था । उसकी आयु सत्तर वा अस्सी वर्ष तक होती है । इस कनिष्ठ ब्रह्मचर्य का पालन तो सब के लिये अनिवार्य था । शूद्र और वैश्य इस का सेवन करते थे ।


दूसरा मध्यम ब्रह्मचर्य है । जो मनुष्य चालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचारी रह कर वेदाभ्यास करता है उसके प्राण इन्द्रिय अन्तःकरण और आत्मा बलयुक्त होते थे और वह सब दुष्टों को रुलाने और श्रेष्ठों का पालन करने वाला सच्चा ब्रह्मचारी होता था । ऐसा रुद्र नामक ब्रह्मचारी ही सच्चा क्षत्रिय कहलाता था । उसकी आयु १५० से २०० वर्ष होती थी ।


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उत्तम ब्रह्मचर्य अड़तालीस वर्ष पर्यन्त तीसरे प्रकार का होता है । ऐसा ब्रह्मचारी सकल विद्याओं को ग्रहण करता है । उसके प्राण उसके अनुकूल होकर दीर्घजीवी होता है । अर्थात् वह इस तीसरे उत्तम प्रकार के अखण्डित ब्रह्मचर्य के सेवन करने से पूर्ण अर्थात् चार सौ वर्ष पर्यन्त आयु को भोगता है और सब प्रकार के रोगों से रहित होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्‍त होता है । ऐसे उत्तम ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला ही सच्चा ब्राह्मण होता है । वह अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करने में सदैव तत्पर होता है । संसार में कोई अशिक्षित (अनपढ़) न रहने पावे यह विद्वान् अथवा ब्राह्मण का ठेका होता है । अविद्या नाम के महाक्लेश को जो सब क्लेशों का जनक है, देवसंज्ञक विद्वान् ब्राह्मण ही नष्ट करता है ।


चतुर्वेदाद् ऋषिः जो चारों वेदों का सांगोपांग अध्ययन करने के लिए ४८ वर्ष के पवित्र, उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य पालनार्थ घोर तपस्या करता है, वह ऋषि कहलाता है । एक-एक वेद के सांगोपांग अध्ययन करने में बारह-बारह वर्ष लग जाते हैं ।


जो ४८ वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसकी आदित्य संज्ञा है । आदित्य सूर्य का नाम है । जिस प्रकार सूर्य के उदय होते ही अन्धकार दुम दबाकर भाग जाता है और सर्वत्र प्रकाश का साम्राज्य छा जाता है उसी प्रकार जहां चारों वेदों के पूर्ण विद्वान्, आदित्य ब्रह्मचारी होते हैं, वहां अविद्या के दर्शन नाममात्र को भी नहीं होते । ऐसे ही आदित्य ब्रह्मचारी ऋषि


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होते थे । और अत ऊर्ध्वं देवः देव ऋषियों से भी ऊँचे होते हैं । आयुर्वेद शास्त्र इस विषय में पुष्टि करता है -

चतस्राऽवस्थाः शरीरस्य वृद्धिर्यौवन सम्पूर्णता किञ्चित्परिहाणिश्चेति । आषोडशाद्‍वृद्धि । आपञ्चविंशतेर्यौवनम् । आचत्वारिंशतः सम्पूर्णता । ततः किञ्चित्परिहाणिश्चेति ॥


महर्षि दयानन्द जी ने सुश्रुत के सूत्रस्थान के ३५वें अध्याय का उद्धरण दिया है । अर्थ निम्न प्रकार से है -


इस शरीर की चार अवस्थायें हैं । एक वृद्धि, जो सोलहवें वर्ष से ले के पच्चीसवें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की वृद्धि (बढ़ती) होती है । दूसरी यौवन, जो पच्चीसवें वर्ष के अन्त और छब्बीसवें वर्ष के आदि में युवावस्था का आरम्भ होता है । तीसरी सम्पूर्णता, पच्चीसवें वर्ष से लेके चालीसवें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की पुष्टि होती है । चौथी किञ्चितपरिहाणि, जब सब सांगोपांग शरीरस्थ सकल धातु पुष्ट हो के पूर्णता को प्राप्‍त होते हैं । आजकल पाठ कुछ भेद से सुश्रुतसंहिता में इस प्रकार मिलता है –


वयस्तु त्रिविधं बाल्यं मध्यं वृद्धमिति । तन्नोन षोडशवर्षा बालाः । तेऽपि त्रिविधाः क्षीरपाः, क्षीरान्नादाः अन्नादा इति । तेषु संवत्सरपराः क्षीरपा द्विसंवत्सरपराः क्षीरान्नादाः, परतो अन्नादा इति । षोडशसप्‍तत्योरन्तरे मध्यं वयः । तस्य विकल्पो वृद्धिर्यौवनं सम्पूर्णता हानिरिति । तत्र आविंशतेर्वृद्धिः, आत्रिंशतो यौवनम्, आचत्वारिंशतः सर्वधात्विन्द्रियबलवीर्यसंपूर्णता, अत ऊर्ध्वमीषत्वपरिहाणिर्यावत्सप्‍ततिरिति सप्‍ततेरुर्ध्वं क्षीयमाणधात्विन्द्रियबलवीर्योत्साहमहन्यहनि


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वलिपलितखालित्यजुष्टं कासश्वासप्रभृतिभिरुपद्रवैरभिभूयमानं सर्वक्रियासु असमर्थं जीर्णागारमिव अभिवृष्टमवसीदन्तं वृद्धमाचक्षते । (सुश्रूत० सूत्रस्थान ३५-३५)


अर्थात् वयः तीन प्रकार का होता है वाल्य मध्य और वृद्ध । उनमें से सोलह वर्ष से न्यून वय वाले बालक होते हैं, उन में भी तीन भेद होते हैं - १. क्षीरप - केवल दूध पीने वाले, २. क्षीरान्नाद - दूध पीने वाले और अन्न खाने वाले, ३. अन्नाद - अन्न खाने वाले । उनमें से एक वर्ष की आयु तक क्षीरप, दो वर्ष वाले क्षीरान्नाद, इससे आगे अन्नाद होते हैं । सोलह और सत्तर वर्षों के बीच में मध्यवय होता है । उसके चार भेद हैं - वृद्धि, यौवन, सम्पूर्णता तथा हानि । उनमें बीस वर्ष तक यौवन, चालीस वर्ष तक सब धातुओं, इन्द्रियों के बल और शक्ति (वीर्य की पूर्णता) । इसके पश्चात् सत्तर वर्ष की आयु तक कुछ घटती । सत्तर वर्ष के पश्चात् वृद्ध कहाता है, उस अवस्था में धातुओं, इन्द्रियों के बल वीर्य तथा उत्साह क्षीण हो रहे होते हैं, प्रतिदिन झुर्रियां, सफेद बाल तथा गंजापन बढ़ता है, कास-श्वास-खांसी दमा आदि उपद्रवों से दबा रहता है, सभी इन्द्रियों की क्रियाओं में असमर्थ (दुबला) होता है, पुराने घर की भांति, बरस चुके बादल की भांति नष्ट हो रहा होता है । पाठभेद के होने पर भी दोनों के आशय-अभिप्राय में कोई अन्तर (भेद) नहीं है । स्मृतियों में भी इसी आशय के वचन मिलते हैं । यथा हारीतस्मृति के अ० ५ में आता है –


आषोडशाद् भवेद् बाल् आपञ्चत्रिंशं युवा नरः ।

मध्यमः सप्‍ततिर्यावत् परतो वृद्ध उच्यते ॥


पृष्ठ ८०

अर्थात् सोलह वर्ष तक बालक होता है, पैंतीस तक युवा, सत्तर तक मध्यम अवस्था, उसके पश्चात् वृद्ध कहलाता है । यहां यह समझना चाहिये कि यह वसु ब्रह्मचर्य वाले मनुष्यों की अवस्था का वर्णन प्रतीत होता है ।


रुद्र ब्रह्मचारी और आदित्य ब्रह्मचारी की युवावस्था बड़ी देर तक रहती है । जैसे बाल ब्रह्मचारी भीष्म १७६ वर्ष की आयु में महाभारत युद्ध में कौरव पक्ष मे महासेनापति थे क्योंकि वह सब से अधिक बलवान् और युद्ध विद्या में सबसे अधिक निष्णात पण्डित थे । जिसकी आयु चार सौ वर्ष की होगी वह ब्रह्मचारी तीन सौ वर्ष की आयु तक युवा रहता होगा । ऐसे ही रुद्र ब्रह्मचारी १५० वर्ष की आयु तक युवा रहता होगा । जैसे शान्तनु का भाई बाह्लिक १६० वर्ष से तो अधिक आयु का था, उसका बेटा सोमदत्त, पौत्र भूरिश्रवा और प्रपौत्र भी अर्थात् चार पीढ़ी युद्ध में सम्मिलित थी । ब्रह्मचर्य सब शक्तियों का भण्डार है । महर्षि दयानन्द जी इस विषय में लिखते हैं -


“जो अपने कुल की उत्तमता, उत्तम सन्तान, दीर्घायु, सुशील, बुद्धि, बल, पराक्रमयुक्त, विद्वान् और श्रीमान् करना चाहें वे सोलहवें वर्ष से पूर्व कन्या और २५ वर्ष से पूर्व पुत्र का विवाह कभी न करें । वैसे मध्यम विवाह का समय कन्या का २० वर्ष पर्यन्त और पुरुष का ४० (चालीसवां) वर्ष और उत्तम विवाह का समय कन्या का २४ वर्ष और पुरुष का ४८ वर्ष है । यह सब सुधारों का सुधार, सब सौभाग्यों का सौभाग्य और सब उन्नतियों की उन्नति करने वाला कर्म है ।”


उपर्युक्त नियम विवाह करने वाले पुरुष और स्‍त्रियों का


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है । जो विवाह करना ही न चाहें वे मरण पर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकते हों तो भले ही रहें । ऐसे पूर्ण विद्वान्, जितेन्द्रिय, विषयभोग की कामना से रहित, परोपकार करने की इच्छा से युक्त पुरुष हों वे ब्रह्मचर्याश्रम से ही सन्यास लेवें । क्योंकि वेदोक्त धर्म ही में आप चलना और दूसरों को समझाकर चलाना सन्यासियों का विशेष धर्म है । क्योंकि जितना अवकाश और निष्पक्ष-पातता सन्यासी को होती है उतनी गृहस्थ, ब्राह्मणादियों को नहीं हो सकती । और जब ब्राह्मण वेद विरुद्ध आचरण करें तब उनका नियन्ता सन्यासी ही होता है । जो इस प्रकार के पुरुष वा स्‍त्री हों और विद्या, धर्म वृद्धि और सब संसार का उपकार करना ही उनका प्रयोजन हो वे विवाह न करें । प्राचीनकाल में पञ्चशिख आदि पुरुष, गार्गी आदि स्‍त्रियाँ हुई थीं जो सारी आयु ब्रह्मचर्य पूर्वक तपस्या करती हुई संसार के उपकार में लगी रहीं ।


हम पहले लिख चुके हैं कि इस देश में ८८ हजार ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी ऋषि हुये हैं जिन्होंने विद्या, धर्म वृद्धि और सब संसार के उपकार में अपना सर्वस्व न्यौछावर किया है । इन्हीं देव लोगों के बसाने के कारण आर्यावर्त देवताओं का देश कहलाया और जिन नदियों दृषद्‍वती (ब्रह्मपुत्रा) और सरस्वती के कांठों पर देव लोगों ने बस्तियां बसाईं और जो आर्यावर्त्त की सीमाओं का निर्धारण करती हैं वे नदियां भी देवनदियां कहलाईं ।


पृष्ठ ८२

आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात् ।

तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त्तं विदुर्बुधाः ॥

सरस्वती दृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् ।

तं देवनिर्मितं देशमार्यावर्तं प्रचक्षते ॥

(मनु० २।२२,१७)


देवों आर्यविद्वानों द्वारा निर्मित बसाया हुआ देश आर्यावर्त्त कहलाया । इस विषय में प्रथम अध्याय में ३० पृष्ठ से ३८ पृष्ठ तक विस्तार से लिख चुके हैं ।


जिन ब्रह्मादि देवर्षियों ने प्राचीनकाल में आर्यावर्त्त देश को देवभूमि बनाया उनके विषय में हमारे देव और ऋषि अग्रिम अध्याय में पढ़ें ।


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