Jat History Dalip Singh Ahlawat/Preamble

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जाट वीरों का इतिहास
लेखक - कैप्टन दलीप सिंह अहलावत
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भूमिका

इतिहास का महत्त्व - इतिहास समाज का दर्पण है। किसी देश अथवा जाति के उत्थान-पतन, मान-सम्मान, उन्नति-अवनति आदि की पूर्ण व्याख्या उसके इतिहास को पढ़ने से हमको भलीभांति विदित हो जाती है। जिस देश या जाति को नष्ट करना हो तो उसके साहित्य को नष्ट करने से वह शताब्दियों तक पनप नहीं सकेगी। हमारे देश भारत के सम्बन्ध में यही बात बिल्कुल सत्य सिद्ध हुई है। यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि जिस जाति का जितना ही गौरवपूर्ण इतिहास होगा वह जाति उतनी ही सजीव होगी। इसी कारण विजेता जाति पराजित जाति के इतिहास को या तो बिल्कुल नष्ट करने का प्रयत्न करती है जैसा कि भारत के मुगल, पठान शासकों ने किया था अथवा ऐसे ढंग से लिख देती है जिससे उस जाति को अपने पूर्वजों पर गौरव करने का उत्साह न रहे। इतिहास का इसी प्रकार का स्वरूप प्रायः अंग्रेज लेखकों ने भारत के सामने पेश किया।

इतिहास हमें यह बताता है कि हम कौन थे और आज क्या हो गए हैं। इससे हम कुछ सीखें और भविष्य में अपने को सुधारें। वे गलतियां जिनके कारण हमारा पतन हुआ, फिर न हों, इसका निरन्तर ध्यान रखें यही सीख हमें इतिहास से ग्रहण करनी चाहिये। इतिहास ही जातियों को उन्नति के मार्ग पर ले जाता है। लार्ड मैकाले ने क्या ही अच्छा कहा है -

“A people which takes no pride in the noble achievements on remote ancestors will never achieve anything worthy to be remembered with pride by remote descendants.” - Lord Macaulay.

अर्थात् जो जाति अपने पूर्व पुरुषों के अच्छे कार्यों का अभिमान नहीं करती वह जाति कोई ऐसे महान् कार्य नहीं कर सकती जो कि कुछ पीढ़ी बीतने पर उनकी सन्तति द्वारा गौरव या अभिमान के साथ स्मरण करने योग्य हों। इस प्रकार इतिहास सत्यता का प्रकाशक और जीवन का शिक्षक है। “History is the light of truth and the teacher of life.”

जर्मनी के महान् विद्वान् प्रोफेसर मैक्समूलर भी लिखते हैं - “A nation that forgets the glory of its past, loses the mainstay of its national character.” अर्थात् जो जाति अपने प्राचीन यश (गौरव) को भूल जाती है वह अपनी जातीयता के आधार स्तम्भ को खो बैठती है।

एक निर्जीव जाति के लिए इतिहास से बढ़कर दूसरी शक्ति जीवित करने वाली नहीं है। इतिहास में शस्त्र से भी भारी शक्ति है जिससे सूखी हड्डियों में भी रक्त की धारा बहने लग जाती है। किसी विद्वान् का कहना है कि किसी जाति अथवा देश का धन छिन जाना इतना हानिकारक नहीं है जितना कि उसके इतिहास का नष्ट हो जाना है। इतिहास का मूल्य किसी देश अथवा जाति


जाट इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-vi


को स्वतन्त्रता से भी विशेष होता है, क्योंकि इतिहास के सहारे खोई हुई शक्ति फिर से प्राप्त हो सकती है। लेकिन स्वतन्त्रता मिलने से नष्ट हुआ इतिहास पुनः प्राप्त नहीं हो सकता।

जिस प्रकार सारा भारत विदेशी ताकतों द्वारा पराजित हुआ था उसी भांति जाट जाति भी कुछ देशी-विदेशी शक्तियों द्वारा धोखे-धड़ी अथवा वीरता से जीत ली गई। एशिया एवं यूरोप में अपने वीरतापूर्ण कार्यों से तहलका मचा देने वाली जाट जाति भी छठी शताब्दी के बाद मुसलमानों और राजपूतों द्वारा जीत ली गई। सातवीं शताब्दी में चच नामक ब्राह्मण मन्त्री ने अपने जाट नरेश के साथ विश्वासघात करके उसके सिंध राज्य को छीन लिया। अन्य छोटे-मोटे पंजाब, सिंध, संयुक्त प्रान्त, गुजरात, दक्षिण भारत और कश्मीर के जाट राज्य मुसलमानों ने जीत लिए। राजस्थान और मध्य-प्रदेश के जाट राज्य नई हिन्दू सभ्यता से मण्डित राजपूतों ने हथिया लिये। यदि पंजाब, भरतपुर, और धौलपुर में जाट फिर से राजशक्ति प्राप्त न करते तो इनका सामाजिक पद आज के स्थान पर न रहता।

चूंकि जाट पराजित हो चुके थे अतः इनके वास्तविक इतिहास को अंधकार में डालने तथा दूसरा ही रूप देने की विचित्र कार्यवाहियां की गईं। जागा, चारण, और भाट जिनकी उपयोगिता उस समय में जाट भी मानने लग गये थे, उनकी बहियों (पोथियों) में जाटों को दोगला लिखाया गया। प्रत्येक ऐसे जाट गोत्र के सम्बन्ध में जो कि राजपूतों में भी मिलता है, यह लिखा गया कि अमुक गोत्र के राजपूत पुरुष ने अमुक गोत्र की जाट लड़की से शादी कर ली थी। अतः राजपूतों ने उसे अपनी बिरादरी से निकाल दिया और उसके पुत्रों से फलां-फलां जाट गोत्र प्रचलित हुए आदि-आदि। इन असत्य लेखों से स्पष्ट है कि जाट उन राजपूतों की संतान हैं जो बिरादरी से बाहर कर दिए गए थे। कहावत है कि गुलाम जाति का दिमाग भी गुलाम हो जाता है। इसी लोकोक्ति के अनुसार जाटों का एक समूह भी यह मानने लग गया कि हम राजपूतों की औलाद हैं। हालांकि यह बात बिल्कुल बेबुनियाद, प्रमाणशून्य और सफेद झूठ है। राजस्थान में तो राजपूत शासकों ने जाटों के लिए पालितया, खोथला आदि जैसे घृणित नाम भी ईजाद कर लिए। पालितया का अर्थ पाला हुआ एवं आश्रित होता है। उनका कहना है कि हमने जाट लोगों को लाकर अपने राज्य में बसाया था। सच तो यह है कि जाट तो राजस्थान में सैंकड़ों शताब्दियों से आबाद हैं जबकि राजपूत खानदानों में कोई भी शासक दसवीं शताब्दी से पहले का नहीं था। यह बात उन्हीं के द्वारा लिखित इतिहासों से प्रमाणित होती है।

वास्तविक बात तो यह है कि वे सभी राजपूत खानदान जो जाटों के गोत्रों से मिलते हैं, नवीन हिन्दू-धर्म के अनुयायी बन गए और जाटों से अलग हो गए। जस्टिस कैम्पबेल साहब ने लिखा है कि प्राचीन-काल की रीति-रिवाजों (आर्यों की) को मानने वाले जाट, नवीन हिन्दू-धर्म के रिवाजों को मानने पर राजपूत हैं। जाटों से राजपूत बने हैं न कि राजपूतों से जाट।

आदि सृष्टि से ही जाटों का इतिहास तो महान् है परन्तु इन्होंने अपना कोई इतिहास लिखा नहीं। इनकी इस गलती के लिए मि० ग्राउस साहब ने इनको काफी फटकारा है। एक विदेशी इतिहासकार के कथनानुसार जब जाटों से यह कहा जाता है कि अपनी स्मृति के लिए कोई स्तूपलेख अथवा स्मारक खड़ा करवाइये, तब उनका उत्तर होता है कि सच्चा स्मारक तो सद्‍गुण होता है। यह बात नहीं है कि जाटों को अपना इतिहास लिखना नहीं आता था किन्तु अपना इतिहास लिखने


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-vii


और स्तूपलेख एवं स्मारक खड़े करने की ओर इन्होंने कम ध्यान दिया। आदि सृष्टि से जाटों ने देश-विदेश में शासन किया है। विद्या, विज्ञान, यन्त्रशास्त्र, भवन निर्माण और कृषि आदि कार्यों में ये निपुण रहे हैं। युद्ध करने के इनके तरीकी निराले और आश्चर्यजनक रहे हैं। इनके बड़े-बड़े कारनामों के थोड़े से उदाहरण निम्न प्रकार से हैं –

  • 1. पार्वती के पूछने पर महादेव जी ने कहा - ये जट्ट महाबली, अत्यन्त वीर्यवान् एवं प्रचंड पराक्रमी हैं। सृष्टि के शुरु में समस्त क्षत्रियों में यही जाति सर्वप्रथम शासक हुई। (देव संहिता श्लोक 15-16)।
  • 2. जिन जाट वीरों के पराक्रम से एक समय सारा संसार कांप गया था, आज उनके वंशज राजपूताना और पंजाब में खेती करके गुजारा करते हैं। (कर्नल टॉड)
  • 3. जब भी जाटों में एकता हुई तब संसार की कोई भी जाति बहादुरी में इनका मुकाबला नहीं कर सकी। (हैरोडोटस)।
  • 4. जाटों को मुगलों ने परखा, पठानों ने इनकी चासनी ली, अंग्रेजों ने पैंतरे देखे और इन्होंने फ्रांस और जर्मनी की भूमि पर बहादुरी दिखाकर सिद्ध कर दिया कि जाट क्षत्रिय हैं। (ठा० देशराज)।
  • 5. जाटों से पाईर्रस (Pyrrhus) डरा, जूलियस सीजर कांप गया, सिकन्दर महान् ने घोषणा की थी कि जाटों से बचो और सम्राट जैरोम (Jerome of Spain) ने कहा था कि जाटों के आगे सींग हैं, सो इनसे दूर रहो। (10वीं शताब्दी में स्पेन के अन्तिम जाट सम्राट् अलबोरो के शब्द)।
  • 6. The great General Rommel had said that in North Africa the Jats were among the best fighters in defence. अर्थात् जनरल रोमेल ने कहा था कि उत्तरी अफ्रीका के युद्ध में जमकर लड़ने में जाट महान् लड़ाका है।
  • 7. “जाटों का इतिहास भारत का इतिहास है और इसी तरह जाट रेजीमेंट का इतिहास भारतीय सेना का इतिहास है। सदियों से ये स्वतन्त्रता प्रेम के लिए मशहूर हैं। इनकी आजादी पसन्दी और आजादी के लिए मर-मिटने की मिसालों से इतिहास भरा पड़ा है। पश्चिम में फ्रांस से लेकर पूर्व में चीन तक जाट बलवान् जय भगवान् का रणघोष गूंजता रहा है।” (बरेली जाट रेजीमेंट में डाक्टर जाकिर हुसैन का भाषण)।

जाटों की वीरता के ऐसे-ऐसे असंख्य उदाहरण इस पुस्तक में लिखे हैं। खेद है कि बहुत से इतिहासकारों ने इतनी बहादुर जाट जाति के इतिहास की वास्तविकता को छुपाकर, तोड़-मरोड़ कर लिख मारा और उन्हीं के लेखों को आज भी बहुत लोग ठीक मानते हैं। आज भी हमारे स्वतन्त्र भारत के विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में जो इतिहास पढ़ाये जाते हैं उनमें जाटों की वीरता तो क्या, इनका नाम तक भी नहीं लिखा गया है। यही कारण मुख्य है कि इस जाति के विद्यार्थियों, बुद्धिजीवियों, अध्यापकों, उच्च पदाधिकारियों तथा राजनीतिज्ञों को, कुछ को छोड़कर, अपने जातीय इतिहास की कुछ भी जानकारी नहीं है। इसी कारण मैंने यह जाट वीरों का इतिहास ग्रंथ लिखा है।

इस इतिहास को सरल हिन्दी में लिखा गया है ताकि कम पढ़े-लिखे नर-नारी भी इसे आसानी से समझ सकें। यह इतिहास केवल जाट जाति का ही नहीं किन्तु भारतवर्ष का है क्योंकि जाट


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-viii


भारतीय हैं जिन्होंने देश-विदेशों में अपनी तलवार के बल से तथा बुद्धि से शासन किया, बस्तियां बसाईं, भारत की सभ्यता, विद्या एवं धर्म दूसरे देशों में फैलाया। विदेशी आक्रमणकारियों को भारत में घुसने से रोककर स्वदेश भक्ति के प्रमाण दिए। मुसलमान आक्रमणकारियों एवं निर्दय सम्राटों से युद्ध करके हिन्दुओं की मान-मर्यादा व धर्म की रक्षा की।

जाट जाति का सम्बन्ध भारत की वर्तमान अनेक जातियों से है जो किसी कारण से अन्य जातियों में मिल गए जैसे - खाती, नाई, सुनार, जोगी, बैरागी, रोड़, लोहार, बिशनोई, चमार, सैनी-माली आदि। इन जातियों में जाटों के बहुत गोत्र पाए जाते हैं जो क्रमशः 60 से 80 प्रतिशत तक हैं। इनके अतिरिक्त जाट, गूजर, राजपूत, अहीर, मराठा क्षत्रिय आर्य एक ही श्रेणी के लोग हैं जिनके विषय में इस इतिहास में विस्तार से लिखा गया है। हरयाणा सर्वखाप पंचायत की सेना एवं जनता के समय-समय पर हुए मुसलमान बादशाहों से युद्धों में, सन् 1857 ई० में अंग्रेजों के विरुद्ध प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में और सन् 1947 ई० की स्वतन्त्रता प्राप्ति में भारत की सभी जातियों ने भाग लिया। इन सब घटनाओं का विस्तार से वर्णन इस पुस्तक में किया गया है। पाठक समझ गए होंगे कि यह इतिहास भारतवर्ष का है न कि केवल जाटों का।

मुझे भरोसा है कि सभी भारतवासी इस इतिहास को अपना समझकर पढ़ेंगे और समस्त जगत् मेरे इस प्रयत्न और सेवा को पसन्द करेगा। आशा है कि भारतवासी इसको पढ़कर अपने पूर्वजों की कीर्ति को याद रखकर उन्नति करेंगे और अपने देश की स्वतन्त्रता एवं अखंडता को स्थिर रखने में अपनी देशभक्ति का परिचय देंगे ताकि मेरा लक्षय पूरा हो जाए।


- कैप्टन दलीपसिंह अहलावत
ग्राम व डाकघर डीघल
जिला रोहतक (हरयाणा)
रविवार दिनांक 25 दिसम्बर, 1988 ई०
पौष कृष्णा 2, 1945 विक्रमी

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-ix


FORWORD

The community is agog with a new consciousness, as if inspired by the great American classic ‘The Roots’. There is anxiousness amongst the youths to know about the ancestry and the heritage.

Apart from the history of the JATS by late Professor Kanungo about six decades ago and another one by Dr. Pradhan, at the moment teaching at the Wisconsin University in America, there have been several other Hindi books on the subject. The one by Thakur Desh Raj is out of print now. So is Chaudhary Ram Lal Hala’s book. But lately, several other treatises have been published. A few have hit the market.

The Hindi series of ‘Gaurav Gatha’, a few issues of which have been published by the All India Jat Mahasabha, and substantially subsidised, has to reach the common readers.

Captain Dalip Singh Ahlawat’s efforts on the same subject, is another link in the same chain. In view of the paucity of literature on the subject, Captain Dalip Singh Ahlawat’s effort is very commendable.

I hope and trust that it will find acceptance with the reading Biradari.

I wish the book all the success.


- Capt. BHAGWAN SINGH, I.A.S. (Retd.)
(Former Indian High Commissioner)
President
All India Jat Mahasabha
Date – 24-11-88

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-x


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