Jat History Thakur Deshraj/Chapter VII Part II (ii)

From Jatland Wiki
Jump to navigation Jump to search
विषय सूची पर वापस जायें (Back to Index of the book)
«« सप्तम II (i) अध्याय पर जायें
अष्टम् अध्याय पर जायें »»


जाट इतिहास
लेखक: ठाकुर देशराज
This chapter was converted into Unicode by Dayanand Deswal and Wikified by Laxman Burdak
सप्तम अध्याय भाग-दो (ii): पंजाब और जाट
जींद, नाभा, कैथल एवं अन्य राज्य

जींद राज्य

जींद राज्य का वंश-वृक्ष निम्न प्रकार है -

फूल
1. तिलोका, 2. रामा (पटियाला और भदौर वंश का पुरुषा), 3. रुघू (जीऊंदन वंश का पुरुषा), 3., 4, 5. - चनू, झन्डू और तखतमल (लोदगढ़िया वंशों के पुरुषे)

तिलोका
1. गुरुदत्ता (नाभा वंश का पुरुषा), 2. सुखचैन (मृत्यु- 1751)

सुखचैन
1. आलमसिंह (मृत्यु- 1764), 2. राजा गजपतसिंह (मृत्यु- 1789), 3. बुलाकीसिंह (जिनसे कि दयालपुरिया सरदारों का निकास हुआ)

राजा गजपतसिंह
1. मेहरासिंह (मृत्यु- 1771) - इनके यहां हरीसिंह पैदा हुए जिनका देहान्त 1781 में ही हो गया। 2. राजा बाघसिंह (मृत्यु- 1819) 3. भूपसिंह (मृत्यु- 1815)

राजा बाघसिंह
1. राजा फतेहसिंह (मृत्यु 1822) - इनके एक पुत्र संगतसिंह पैदा हुआ था, 2. प्रतापसिंह (मृत्यु 1816) 3. महताबसिंह (मृत्यु 1816)

भूपसिंह
1. करमसिंह (मृत्यु 1818), 2. बासवसिंह (मृत्यु 1830) - (वर्तमान नाभा वंश का पुरुषा)

करमसिंह
राजा सरूपसिंह (जी. सी. एस. आई.) - (मृत्यु 1864)
1. रणधीरसिंह (मृत्यु 1848), 2. राजा रघुवीरसिंह (जी. सी. एस. आई.) (मृत्यु 1887)

राजा रघुवीरसिंह
बलवीरसिंह (मृत्यु 1883)
राजा सर रणवीरसिंह1 (जी. सी. एस. आई.) (जन्म 1879)

1. यह शिजरा ग्रिफिन के समय तक का है।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-475


जींद राज्य का वंश-वृक्ष
जींद राज्य का वंश-वृक्ष

जींद स्टेट के राजवंश का पुरखा चौधरी फूल है। इसलिए पटियाला-स्टेट एवं जींद-स्टेट दोनों का पूर्व इतिहास एक ही है। चौधरी फूल के बड़े लड़के तिलोका के दो पुत्र हुए- गुरुदत्तसिंह और सुखचैन। बड़े भाई गुरुदत्तसिंह के वंशज नाभा-स्टेट और छोटे भाई सुखचैन के रियासत जींद, सरदार बड़रूखां व बाजेदपुर थे। अपने पिता के पश्चात् तिलोका को चौधरायत मिली, परन्तु वह इतना होशियार न था कि रियासत की उन्नति करता। तिलोका का दूसरा बेटा सुखचैन जिसके वंशज जींद स्टेट के राजगान थे, एक जमींदार की हैसियत से था। इसकी शादी मंडी गांव के एक जाट के यहां हुई थी। इसने अपने नाम पर एक गांव भी बसाया था, जो अपने छोटे बेटे बुलाकीसिंह को दिया था। इस तरह के बटवारे के पश्चात् वह अपने बेटे गजपतसिंह के साथ गांव फूल में रहा करता था और सन् 1751 में 75 वर्ष की उम्र में देहान्त हो गया।

सुखचैन का विशेष इतिहास नहीं मिलता। इसके तीन लड़के थे - आलमसिंह, गजपतसिंह और बुलाकीसिंह। आलमसिंह से इस स्टेट का इतिहास पूरा मिलता है।

आलमसिंह

आलमसिंह सुखचैन का बड़ा बेटा था और यह बड़ा बहादुर था। शाही फौजों


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-476


से लोहा लेने में इसका नाम मशहूर था। सन् 1763 तक उसने एक बड़ा इलाका अपने कब्जे में कर लिया था। पर कराल काल ने दूसरे ही वर्ष आलमसिंह को सदा के लिए उठा लिया। इसके तीन रानियां थीं, परन्तु सन्तान किसी से न हुई थी।

बुलाकीसिंह

सरदार बुलाकीसिंह दयालपुर का पुरखा है जो फुलकियां खानदान की मशहूर जागीर है।

राजा गजपतसिंह

राजा गजपतसिंह

राजा गजपतसिंह का जन्म सन् 1738 के करीब हुआ था। यह अत्यन्त खूबसूरत और सुडौल जवान था, अपने पिता के साथ गांव फूल में रहता था। इसने अपने पिता के साथ गुरुदत्तसिंह (गजपतसिंह के चचा व नाभा के पुरखा) से मुकाबला करने में पूरी सहायता की। यह वह समय था जबकि नाभा और जींद दोनों के आपसी झगड़े की नींव पड़ी और जिसके कारण दोनों स्टेटों को ही समय-समय पर काफी नुकसान उठाना पड़ा। इस झगड़े से उत्पन्न फूट पापिनी का ही परिणाम था कि सन् 1743 में जबकि गजपतसिंह की उम्र सिर्फ 5 साल की थी, अपनी माता के साथ शाही फौज द्वारा गिरफ्तार होकर देहली जाना पड़ा था। देहली से फौज तो सुखचैन को गिरफ्तार करने आई थी, परन्तु वह हाथ न आए। दैवयोग से इनको अधिक समय तक कैद में न रहना पड़ा।

जींद राज्य की सर्विस स्टैंप
जींद राज्य की सर्विस स्टैंप

सन् 1754 में गजपतसिंह ने आलमसिंह की विधवा से नाता किया और रियासत बालानवाली का मालिक हुआ। इससे एक लड़की पैदा हुई। इसके अलावा उसने किशनसिंह मानसिंह की लड़की से शादी की थी, जिससे चार सन्तान पैदा हुई थीं - मेहरसिंह, बाघसिंह और भूपसिंह तीन पुत्र तथा एक पुत्री राजकुंवरि जिसकी शादी सरदार महासिंह सुकरचकिया से हुई थी और जिसकी कोख से पंजाब शेर रणजीतसिंह उत्पन्न हुए।

सन् 1763 तक गजपतसिंह ने अपने राज्य की हद बहुत बढ़ा ली थी, यहां तक कि पानीपत व करनाल तक उसका हाथ पहुंच गया था। वह बड़ा राजनीतिज्ञ भी था, वह जानता था कि इतने इलाके की वह शीघ्र ही अपने प्रति प्रीति उत्पन्न न कर सकेगा, इसलिए उसने बराबर बादशाह देहली से सम्बन्ध रखा और खिराज भेजता रहा। सन् 1767 के करीब उस पर मालगुजारी का डेढ़ लाख रुपया हो गया था, इसलिए वह देहली गिरफ्तार कर लिया गया। वहां पर वह करीब 3 वर्ष तक रहा, परन्तु फिर अपने लड़के मेहरसिंह को, जब तक रुपया न दे, देहली छोड़ जींद लौट आया और वहां से 3 लाख रुपया जमा करके देहली गया। इस पर उसके और मेहरसिंह के जींद आने की सहूलियत ही नहीं हुई बल्कि उसे राजा का खिताब भी मिला एवं अब से वह खुद-मुख्तार रईस माना जाने लगा और उसने अपना सिक्का भी जारी किया। सन् 1744 में राजकुंवरि की शादी सरदार


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-477


महासिंह सुकरचकिया से हुई। इस समय में बड़रूखां रियासत जींद की राजधानी थी। वहीं पर तमाम फूल के रईस तथा और भी कई सरदार इकट्ठे हुए और शादी का समारोह बड़ी धूमधाम से समाप्त हुआ। परन्तु इस शादी में एक बड़ा भारी तनाजा भी पैदा हुआ। नाभा की हद का एक बीहड़ बड़रूखां के पास ही था, जिसमें बरातियों को अपने घोड़ों के वास्ते घास काट लेने की आज्ञा दी गई थी। लेकिन जब उन्होंने घास काटनी शुरू की तो हमीरसिंह (जो उस समय नाभा का शासक था) के हाकिम याकूबखां ने मेहमानों का कुछ भी ख्याल न करके उन पर हमला कर दिया। थोड़ी सी छेड़-छाड़ के बाद उस वक्त तो यह मामला शान्त हो गया, पर गजपतसिंह इसे भूल न सका और इसे उसने अपनी तौहीन समझी। इसका बदला लेने के लिए उसने एक निन्दनीय नीति ग्रहण की अर्थात् उसने अपना स्वास्थ्य संदेहात्मक बतलाकर मृत्यु से पहले हमीरसिंह से मिल जाने के लिए आने को कहला भेजा। हमीरसिंह को क्या पता था कि तेरे साथ यह चाल चली जा रही है! उसने याकूबखां के साथ बिना किसी अभियान के सादे ढ़ंग से ही मिलने के लिए प्रस्थान कर दिया। वहां पहुंचते ही याकूब को मार दिया गया और हमीरसिंह को कैद कर लिया। अमलोहभादसों पर जो नाभा के इलाके में हैं, चढ़ाई की, और संगरूर पर हमला किया। हमीरसिंह की रानी ने चार महीने तक अच्छी तरह सामना किया और जब स्वयं बचाव न कर सकी तो राजा साहब पटियाला से सहायता के लिए प्रार्थना की। राजा साहब से जितनी आशा थी, रानी साहिबा को हासिल न हुई अतः संगरूर जींद के कब्जे में हो ही गया। परन्तु अमलोह और भादसों वापस करने, राजा हमीरसिंह को रिहा कर देने पर गजपतसिंह को महाराजा पटियाला और कुछ सिख सरदारों ने मजबूर कर दिया।

दूसरे वर्ष ही रहीमदादखां हाकिम हांसी को सूबेदार देहली ने जींद के मुकाबले के लिए भेजा। राजा गजपतसिंह ने फुलकियां सरदारों से सहायता मांगी। राजा अमरसिंह पटियाला ने एक सेना दीवान नानूमल के सेनापतित्व में भेजी। नाभा से हमीरसिंह स्वयं कैथल के भाई-बन्दों के साथ जींद की सहायता के लिए चढ़ आया। इन सबने रहीमदादखां को मैदान में लड़ाई लड़ने के लिए आने को बाध्य किया। रहीमदादखां ने बुरी तरह से हार खाई और खुद मारा गया। इस विजय के चिह्न अब तक जींद में मौजूद हैं और रहीमदादखां की कब्र दरवाजा खास के भीतर दृष्टिगोचर होती है। इसके बाद गजपतसिंह ने पटियाला की फौज के साथ ही लालपुर जिला रोहतक पर हमला किया। इस हमले में जिला गोहाना इनके कब्जे में आया। पर जब जाब्ताखां ने जमैयत इकट्ठा कर लड़ाई के लिए कूच किया तो इन्होंने मुकाबला करना ठीक न समझा और जींद में एक मुलाकात के समय एक हिस्सा गोहाना का राजा साहब को छोड़ना पड़ा। पटियाला को भी हिसार, रोहतक और करनाल में से एक बड़ा हिस्सा छोड़ देना पड़ा।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-478


राजा गजपतसिंह और पटियाला के राजा अमरसिंह में मित्रता का व्यवहार था। जब अमरसिंह से हिम्मतसिंह ने बगावत की थी तो राजा साहब ने सहायता की थी और सन् 1780 में पटियाला और जींद की फौजों के साथ मेरठ की तरफ कूच किया, जहां पर सिखों को मिर्जा शफीबेग के साथ लड़ने पर विजय-श्री ने साथ न दिया था और गजपतसिंह भी कैद हो गया पर बाद में समझौते पर रिहा हुए। साहबसिंह के पटियाला में उसके नाम के बाद अधिकारी होने में गजपतसिंह ने बड़ी कोशिश की और सरदार महासिंह की बगावत दूर करने में अत्यन्त तत्परता से सहायता की। राजा साहब समय-समय पर पटियाला को सहायता देने से विमुख न हुए। इससे जाना जा सकता है कि पटियाले के साथ राजा साहब का दोस्ताना सम्बन्ध था।

राजा गजपतसिंह का बड़ा पुत्र सन् 1780 में मर गया।1 इसके एक बेटा हरीसिंह था जिसको गजपतसिंह ने सफेदों का इलाका दे दिया था। हरीसिंह बड़ा नशेबाज था और एक दिन नशे की हालत में ही अपने मकान की छत पर से गिर पड़ा और मर गया। यह बात सन् 1791 की है। इस वक्त इसकी उम्र 18 वर्ष की थी। हरीसिंह के एक लड़की थी जिसका नाम चन्द्रकुंवरि था। इसकी शादी फतेहसिंह के साथ जो भंगी मिसल का सरदार था, हुई थी। पति के मर जाने के बाद चन्द्रकुंवरि और उसके साथ एक दूसरी विधवा रानी रियासत की मालिक हुई। सन् 1744 में रियासत बिल्कुल उसके अधिकार में आ गई और मरने तक उसका अधिकार रहा। सन् 1850 में उसकी मृत्यु हो गई और रियासत बतौर लावारिस होने के अंग्रेजी गवर्नमेंट ने ब्रिटिश भारत में शामिल कर ली। हरीसिंह की विधवा का इलाका भी उसकी मृत्यु के पश्चात् गवर्नमेंट अंग्रेजी के अधिकार में हो गया।

सन् 1789 में राजा गजपतसिंह का भी स्वर्गवास हो गया। राजा साहब बड़े साहसी और बुद्धिमानी शासक थे। इन्होंने रियासत का इन्तजाम भी समयानुसार उचित रीति से किया था और राज्य-विस्तार करने में भी समयानुकूल कार्य करते ही रहे। शहर जींद की शोभा बढ़ाने की ओर भी आपका ध्यान था, इसीलिए आपने एक पक्का किला भी तैयार कराया था।

राजा भागसिंह

राजा गजपतसिंह के बाद जींद रियासत भागसिंह और भूपसिंह दोनों भाइयों में बंट गई। भूपसिंह को बड़रूखां का इलाका मिला और भागसिंह को इलाका


1. “पंजाब राजगान”, “दी राजाज ऑफ दी पंजाब” के तर्जुमे में इसकी मृत्यु शजका-खानदान में 1881 में लिखा है - ले०।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-479


जींद और सफेदों का। चूंकि भागसिंह बड़ा लड़का था, इसलिए अधिक प्रदेश और राजा के खिताब का वही अधिकारी हुआ। इसकी उम्र इस समय 21 वर्ष की थी।

राजा भागसिंह का इतिहास पटियाले से बहुत ताल्लुक रखता है, क्योंकि वह लड़ाइयों में शामिल हुआ था जो वहीं से सम्बन्ध रखती हैं और हुईं। बादशाह शाह आलम ने सन् 1786 में गोहाना और खरखौदा बतौर जागीर उसको दिए थे और 1794 में पटियाला से जो फौज रानी साहबकुंवरि के आधिपत्य में, अम्बाराव व लछमनराव मरहठों से राजगढ़ पर हमला करने के लिए बनाई गई थी, उसमें भी भागसिंह शामिल था। इसमें कामयाबी भी अच्छी तरह मिली थी। दूसरी साल में करनाल राजा के हाथ से निकल गया, जिसको मरहठों ने विजय करके टामसन को सौंप दिया। इसने सिखों को पीछे हटाने में बड़ा उम्दा काम किया था। जार्ज टामसन से सन् 1797 और सन् 1799 ई० में जींद और सफेदों के मुकाबले में भी भागसिंह ने अपने साथियों की सहायता से सफलता प्राप्त की। पंजाब से टामसन साहब पर हुई चढ़ाई जिसमें भागसिंह का पूरा हाथ था और वह स्वयं शामिल था, उसमें बड़ी कामयाबी मिली और टामसन ने हार खाकर हांसी से अंग्रेजी इलाके में आकर विश्राम किया।

सतलज के पास के बड़े सरदारों में भागसिंह पहला सरदार था जिसने अंग्रेजी गवर्नमेंट से सबसे प्रथम सम्बन्ध स्थापित किया था। सन् 1803 की विजय के पश्चात् ही भागसिंह ने अंग्रेजी जनरल से लिखा-पढ़ी आरम्भ कर दी थी और उन्हें विश्वास हो जाने पर अंग्रेजी कैम्प में जाकर उपस्थित हो गया। इस समय जनरल लेक ने भागसिंह को मित्र और सहायक के नाम से लिखा है और उस वक्त ही उसने इलाका गोहाना और खरखोदा राजा साहब के अधिकार में ही रहने का इजहार किया। लालसिंह कैथल वाले ने भी जो राजा साहब जींद का पक्का मित्र था, देखा कि भागसिंह ने अंग्रेजों से दोस्ताना सम्बन्ध स्थापित कर लिया है और जान गया कि वह बड़ा बुद्धिमान था, उसने पहचान लिया था कि किस दल की कामयाबी होगी। इसलिए जब सन् 1805 ई० में कर्नल ब्रन से सिख-लड़ाई में असफल रहे तो भागसिंह और लालसिंह अंग्रेजी सरकार का प्रीति-भाजन बनने के लिए प्यौन के दोस्तों के साथ अंग्रेजी-सेना में आ मिले। कुछ महीने तक ये वहां रहे और कोई विशेष मदद नहीं की। अथवा यों कहना चाहिए कि इनका इम्तिहान होता रहा। पर इसका यह अर्थ नहीं कि इनके वहां रहने से सरकार को कुछ फायदा न हुआ हो। जब आक्टरलोनी मरहठों से निपटने में लगे थे, इन्होंने ही सहारनपुर को थामे रखा था।

लार्ड लेक जब सन् 1805 में जसवन्तराव होल्कर को सब तरह से पंगु


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-480


बनाकर विवश कर देने के लिए पीछे लगा था, भागसिंह भी उनसे आ मिला था और दरिया-व्यास तक साथ गया था और यहीं से वह महाराज रणजीतसिंह के पास लाहौर को इसलिए भेजा गया था कि रणजीतसिंह को वह यह समझाए कि अंग्रेजी जनरल आ गये हैं, इसलिए जसवन्तराव की सहायता न करे। बाघसिंह को इस काम के लिए भेजा जाना यों भी उचित समझा गया था कि रणजीतसिंह उस नाते से भानजा लगता था। इसका फल भी आशानुरूप हुआ और जसवन्तराव से किसी तरह की सहायता मिलने की गुंजायश थी वह भी न रही। भागसिंह के समझाने का ही फल था कि जसवन्तराव पंजाब से चले जाने पर बाध्य हुआ। क्योंकि पंजाब में अगर कोई ऐसी शक्ति थी जो कि अंग्रेजों के दुश्मन को ठहराकर उसकी सहायता कर सके, तो वह महाराज रणजीतसिंह की ही थी और वह शक्ति ही भागसिंह के जरिये से जसवन्तराव के अनुकूल न रही। लाचार होकर होल्कर को पंजाब से खाली हाथ लौटना पड़ा। भागसिंह लार्ड लेक के साथ देहली आया और इस सहायता के बदले उन्हें परगना बुवाना जो पानीपत की तरफ है, मिला।

पटियाला, जींद, नाभा के आपसी झगड़े तथा राजा-रानी के मामले का फैसला करने को जब महाराज रणजीतसिंह पधारे थे, उस समय भागसिंह भी शामिल हुआ था और इस अवसर पर अपने भानजे रणजीतसिंह से उसे इलाका भी मिला था और पुनः सन् 1806 में उसे इलाका लुधियाना जिसमें 15370 रुपया की आमदनी के चौबीस गांव और परगना जंडियाला के चौबीस गांव और दो जगरानू के जिनकी आमदनी करीब 20000 रुपये थी और 2370 रुपये के और दो गांव कोट के मिले। दूसरे वर्ष महाराज ने तीन देहात जो गूजरसिंह रायपुर वाले से लिए गये थे और 27 देहात जो धरमसिंह के बेटे से लिए गए थे और इनकी कुल आमदनी 19255 रुपये थी, दिए।

सन् 1807 में लेफ्टीनेण्ट एफ० बायफ की मदद अपने देश की पैमायश कराने में भागसिंह ने की।

सन् 1808 में महाराज ने हरद्वार मेले और गंगा स्नान करने की इच्छा की और इसलिए उसने सरदार महासिंह लम्बा और सरदार विशनसिंह को देहली में रेजीडेंट से आज्ञा लेने के लिए भेजा। महाराज के लिए हरद्वार में निहायत उम्दा इन्तजाम किया गया था। 3000 आदमी उनकी खिदमत के लिए नियत किए गए थे। पर ठीक वक्त पर महाराज साहब को किसी से यह ज्ञात हुआ अथवा किसी ने कान भरे कि महासिंह उसको धोका दे रहे हैं और अपने समस्त रुपया को देहली में हण्डियों और अंग्रेजी नोटों में बदलवा रहे हैं और उनकी यह सूचना है कि महाराज का हरद्वार जाना किसी किस्म से हानिकर नहीं है, विश्वसनीय नहीं है। महाराज को यह राय भी दी गई कि तमाम फौज के साथ यात्रा न की


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-481


जाए, उनका यात्रा करना सन्देह से खाली नहीं है। इस बात में कोई सच्चाई न हो यह बात कहना भी मुश्किल है। दो वर्ष बाद सरदार महासिंह महाराज की बिना आज्ञा के पंजाब से बनारस चला गया।

राजा भागसिंह स्वयं मेला हरद्वार को गए और मेला के बाद लाहौर को रवाना हो गए, जहां वह महाराज रणजीतसिंह के पास ठहरे और सन् 1808 में महाराज रणजीतसिंह के सतलज पार आते वक्त साथ थे और मिस्टर मेटकाफ भी लश्कर-सिख के साथ थे। सन् 1808 के आरम्भ में राजा भागसिंह के भाई लालसिंह और राजा नाभा तथा एक दस्ता फौज पटियाला को लेकर घोंगराना किले पर हमला किया और कुछ दिन तक यह झगड़ा होते रहने के बाद रणजीतसिंह के बीच में पड़ने से इरादा छोड़ देना पड़ा। परन्तु यह काम किले के मालिक गूजरसिंह की भलाई के लिए न था। उस बेचारे के लिए तो जैसे सांपराज वैसे नागराज। महाराज रणजीतसिंह ने बिना किसी लड़ाई के फौज भेजकर किला ले लिया और करमसिंह को, जिस पर उनकी महरबानी थी, दे दिया।

कहावत सच है कि - लालच बुरी बला है। करमसिंह की इच्छा कुछ गांव जो भागसिंह के कब्जे में थे, अपने अधिकार में लेने की हुई। इस सम्बन्ध में उसने राजा साहब से भी कहा पर उन्होंने अपने मामा को दिए हुए गांव वापस कराना उचित न समझा क्योंकि वह तो लूट का माल था और रणजीतसिंह इतने संकुचित विचार का व्यक्ति न था। इसका फल यह हुआ कि भागसिंह और करमसिंह दोनों में मन-मुटाव व झगड़े की नींव पड़ी और इसके कारण बराबर तकरार होती रही। कई बार लड़ाई भी छिड़ी और कितने ही सैनिकों का खून करमसिंह के लालच के लिए बहा।

राजा भागसिंह उन सरदारों की तरह ही थे, जिन्होंने रियासत मालेर कोटला की जिससे कि महाराज रणजीतसिंह ने सन् 1808 ई० में एक लाख रुपया भेंट का तलब किया था, जमानत की थी। 27,000 रुपया केवल एकमुश्त दिया गया था और शेष के लिए पटियाला, नाभा, जींद और कैथल जामिन थे और इसके लिए मालेर कोटला से इन्होंने कई इलाके और जमालपुर ले लिया था। पीछे कई कारणों से किसी कदर महाराजा जींद व दूसरे राजगान महाराजा रणजीतसिंह से बातचीत व खतो-किवाबत से रकम देने से बरी हो गए।

रियासत मालेर कोटला के साथ रणजीतसिंह द्वारा व्यवहार से भागसिंह का हृदय कांप गया कि पता नहीं मुझसे भी कब रणजीतसिंह नाराज हो जाए तब अपना इलाका रहना कठिन ही नहीं, असम्भव है। ऐसी हालत में जबकि रणजीतसिंह से न पटे तो अंग्रेजों के सिवाय दूसरा कौन था जो उसकी मदद कर सके। इस तरह के विचारों से प्रेरित होकर भागसिंह ने अंग्रेजों से मित्रता का सम्बन्ध तो कर लिया था, पर उसे दृढ़ बनाने के लिए सचेत हुए। 21वीं नवम्बर को


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-482


रेजीडेण्ट देहली ने राजा को इस तरह लिखा कि अंग्रेजी सरकार स्पष्टतः हस्तक्षेप करने को तैयार नहीं है। परन्तु गवर्नर-जनरल ने एक पत्र द्वारा महाराजा रणजीतसिंह से यह आशा की है कि ये सतलज के पास के सरदारों के साथ किसी प्रकार की सख्ती न करेगा तथा उनका व्यवहार शिष्ट होगा। इसके उत्तर में राजा साहब ने अपने विश्वास-पात्र होने और मित्रता का व्यवहार हो जाने के साथ लिखा कि गवर्नमेण्ट की छत्र-छाया में ही उसका राज्य एवं अधिकार सुरक्षित रहेगा। इसके पश्चात् रेजीडेन्ट देहली ने आम तौर से साफ लिखा कि अंग्रेजी गवर्नमेण्ट को सिवाय इसके कि सिख-सरदारों की हुकूमत हमेशा कायम रहे और कोई ख्वाहिश नहीं है और सरदारों की नेक-नीयती और मित्रता पर पूरा विश्वास है।

भागसिंह बराबर पत्र-व्यवहार करता रहा और अपनी परिस्थिति का दिग्दर्शन हमेशा कराता रहा। राजा साहब ने रणजीतसिंह से भेंट करने के पश्चात् भी एक पत्र लिखा था जिसमें यह साफ लिखा था कि यद्यपि हम चारों सिख सरदारों की (राजा साहबसिंह, भाई लालसिंह, सरदार जसवंतसिंह और स्वयं भागसिंह) मुलाकात हुई है और नियमानुसार मित्रता प्रकट करने के अनुसार महाराजा साहब रणजीतसिंह और साहबसिंह ने पगड़ी भी बदली, परन्तु हम चारों रईस वैसे ही हैं जैसे कि पहले थे। अर्थात् अंग्रेज सरकार के हम पूर्ववत् खैरख्वाह हैं। इसके अलावा और भी कई बातें इस पत्र में सूचित की गई हैं। कुछ दिन बाद भागसिंह रेजीडेण्ट देहली से मुलाकात करने देहली की तरफ रवाना भी हुआ पर रास्ते में ही भागसिंह को जनरल अक्टरलोनी की फौज में शामिल होना आवश्यक समझा गया। अतः वे जनरल अक्टरलोनी की फौज में जा मिले।

ता० 19 फरवरी को फौज लुधियाने पहुंच गई। यह स्थान अंग्रेजों के लिए पंजाब को अधिकार में करने के लिए आवश्यक था। चूंकि यहां पर दो वर्ष से भागसिंह का अधिकार ही था, परन्तु भागसिंह अंग्रेजों से हुई अपनी मित्रता की खातिर यह स्थान देने के लिए तैयार था, बशर्ते कि उसे उसके बदले में परगना करनाल व परगना पानीपत दे दिया जाए। इस आशय का एक पत्र भी उसने लिखा और जनरल अक्टरलोनी ने इसका समर्थन भी किया। परन्तु गवर्नर जनरल ने इस प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। सरकार की ओर से इसके बदले में करनाल को न पाने के कारण भागसिंह को मानसिक कष्ट हुआ। सरकार का इरादा वहां कुछ समय के लिए ही छावनी रखने का था, पर वह आज स्थायी बन गया।

राजा भागसिंह को शराबखोरी की बुरी लत थी। इस दुर्व्यसन ने ऐसी जड़ जमा ली थी कि इसका छोड़ना दुर्लभ था। यद्यपि महाराज ने इसे छोड़ने की


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-483


कौशिश भी की परन्तु सब व्यर्थ हुई। इसका फल यही हुआ कि राजा साहब बीमार रहने लगे, उन्हें जिन्दगी दूभर मालूम पड़ने लगी और निराश होकर उन्होंने पोलिटिकल एजेण्ट को एक वसीयत भी तैयार करके दी कि छोटा कुं० प्रताप सिंह परगना और किला जींद की गद्दी का मालिक हो और बड़े लड़के फतेहसिंह को संगरूर और बसियान मिले तथा जो जागीरें सरकार से उसे समय-समय पर मिली हैं, उन पर भी फतेहसिंह का अधिकार रहे। छोटे लड़के को गद्दी का अधिकार देने का सबब यह था कि वह उससे प्रेम करते थे।

गवर्नर जनरल ने इस वसीयत को नामंजूर कर दिया और बताया कि यह कोई कायदा नहीं है कि बड़े बेटे को छोड़कर छोटे को गद्दी का अधिकारी माना जाये और न यह राजा साहब भागसिंह के खानदान के रस्म-रिवाज के मुताबिक ही है। गवर्नर की ओर से यह भी राय दी गई थी कि यह वसीयतनामा तबदील कर दिया जाये। पर राजा भागसिंह किसी तरह भी इसके लिए राजी न हुये। इस वक्त उनका होश-हवाश ठिकाने न था, इसलिए रियासत के प्रबन्ध में त्रुटियां आ जानी सम्भव ही थीं। पर सवाल यह था कि अब रियासत का इन्तजाम करे कौन? फतेहसिंह पर तो राजा साहब बेहद नाराज थे ही, वह अलग ही रहता था और प्रतापसिंह को, जिसे वह रियासत का मालिक बनाना चाहते थे, सरकार ने छोटा पुत्र होने के कारण अस्वीकार कर दिया था और इनके तीसरे पुत्र महताबसिंह नाबालिग थे।

इस वक्त महताबसिंह की माता ही एक ऐसी थी जिसके इन्तजाम से राजा साहब भी सहमत हो सकते थे और सरकार भी। इसलिए रानी शुभराय सन् 1814 ई० में सरकार की मंजूरी से रियासत की मालिक हुई। परन्तु कुं० प्रतापसिंह इस प्रबन्ध से प्रसन्न न हुए। उन्हें विश्वास हो गया कि अब तू रियासत का मालिक न रहेगा। इसलिए वह षड्यंत्र रचने लगा। यहां तक कि सन् 1814 जून में रानी ने लिखा कि “इसमें अब कोई सन्देह नहीं कि कुं प्रतापसिंह बगावत और लड़ाई के लिए तैयार है इसीलिए मेरी (रानी की) जान खतरे में है।” इसका फल यह हुआ कि प्रतापसिंह को सूचना दी गई कि “बगावत का फल यह होगा कि जो प्रबन्ध उसके लिए होने वाला है वह उससे भी वंचित रह जायेगा और इसमें सफल भी नहीं हो सकता जब कि गवर्नमेंट ने स्वयं ऐसा इरादा कर लिया है।”

प्रतापसिंह पर इसका कुछ भी प्रभाव न पड़ा और उसने 27वीं अगस्त को हमला करके रानी और उसके खास मुन्शी जैशिवराम तथा और अन्य कितने ही व्यक्तियों को मार कर जींद पर कब्जा कर लिया।

सरकार अंग्रेजी को जब यह समाचार मिला तो उससे शीघ्र ही इसके प्रबन्ध करने के लिए फौज का इन्तजाम किया। इस सम्बन्ध में सर चार्ल्स मेटकाफ


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-484


रेजीडेण्ट ने एक लम्बी घोषणा की जिसमें फतेहसिंह को रियासत का मालिक करार दिए जाने और प्रतापसिंह तथा उसके साथियों को गिरफ्तार कर देहली हाजिर करने को लिखा गया था।

कुं० प्रतापसिंह को जब यह समाचार मिला कि अंग्रेजी फौज उसकी तरफ बढ़ी आ रही है तो वह जींद को छोड़कर किला वालानवाली, जो भटिंडे की ओर जंगल में था, भाग गया। परन्तु अंग्रेजी फौज के कुछ दस्ते उधर भी जा निकले। प्रतापसिंह ने देखा कि यहां रहने में खैर नहीं है तो एक दिन के विश्राम के बाद ही वहां से कूच कर दिया और वहां पर जो मालमता था वह भी साथ ले गया और बड़ी दौड़-धूप के पश्चात् सिर्फ 40 साथियों के साथ फूलासिंह अकाली के जमात में जा मिला। फूलासिंह वह व्यक्ति था जिसने रणजीतसिंह से विरोध करके नन्दपुर माखवाल पर कब्जा कर लिया था और समय-समय पर लूटमार करके गुजर कर रहा था। इसके पास 700 सवार और तोपें थीं। प्रतापसिंह इसके पास 2 मास रहा और यहां तक कि सतलज पार करके फूलासिंह मदद करने को भी तत्पर हो गया। इधर जब फूलासिंह का सतलज पार उतरना मालूम हुआ तो रेजीडेण्ट लुधियाना ने जसवन्तसिंह राजा साहब नाभा और मालेर कोटला के सरदार को हिदायत दी कि उस पर हमला करें। पर इधर ये लोग पशोपेश में ही थे कि प्रतापसिंह कुछ सवारों के साथ किले में पहुंच गया। इधर फौज पटियाला और नाभा, मालेर कोटला आदि की फौज के सामने भला प्रतापसिंह कर ही क्या सकता था और जब कि उसका मददगार फूलासिंह भी उसके सामने न था? हारकर 27वीं जनवरी को किले वालों ने अपने आप से आत्मसमर्पण कर दिया। मगर यह आत्मसमर्पण एक चाल थी। उसने कहा कि वह अपने भले के लिए देहली स्वयं जायेगा। इधर उसके मददगार फूलासिंह पर सरदार निहालसिंह अटारी वाले ने लड़कर विजय पाई। प्रतापसिंह इस बीच लाहौर को भाग गया। परन्तु महाराज रणजीतसिंह ने भी उसे शरण न दी बल्कि उसे सरकार अंग्रेजी को सौंप दिया। सरकार ने उसे देहली में नजरबन्द कर दिया। वहीं उसका सन् 1816 में देहान्त हो गया। इलाका बवाना जो उसके लिए मुकर्रिर हुआ था, सरकार के कब्जे में हुआ। प्रतापसिंह के दो रानियां थीं पर संतान किसी से न हुई थी। प्रतापसिंह का छोटा भाई कुं० महताबसिंह भी उससे कुछ मास पहले ही 16 वर्ष की अवस्था में मर गया था।

राजा भागसिंह की सन् 1819 में मृत्यु हो गई

राजा फतेहसिंह

इधर राजा भागसिंह के नाम से ही रियासत का इन्तजाम था, पर प्रबन्ध कुं फतेहसिंह ही करते थे। अब राजा साहब के 3 पुत्रों में से सिर्फ फतेहसिंह ही रह गया था। तब कोई कारण नहीं था कि फतेहसिंह के लिए राजा साहब होने में कोई दखल होता।

राजा भागसिंह की सन् 1819 में मृत्यु हो गई। इसके तीन रानियां थीं।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-485


पहली रानी से कुंवर फतेहसिंह और दूसरी से प्रतापसिंह और तीसरी रानी से कुंवर महतावसिंह उत्पन्न हुए थे। फतेहसिंह की मां का पहले ही देहान्त हो गया था और महतावसिंह की मां का कुंवर प्रतापसिंह द्वारा कत्ल हो गया था। इस समय तक महतावसिंह और प्रतापसिंह भी संसार को छोड़ कर प्रस्थान कर चुके थे। इसलिए राजा भागसिंह के पश्चात् फतेहसिंह गद्दी के अधिकारी हुए।

राजा फतेहसिंह - राजा फतेहसिंह ने बड़ी बुद्धिमानी से रियासत का कार्य संभाला। उनके काल में विशेष उल्लेखनीय घटना नहीं हुई। राजा फतेहसिंह की तारीख 3 फरवरी 1822 को संगरूर में 30 वर्ष की अवस्था में मृत्यु हो गई। राजा साहब के दो रानियां थीं। पहली रानी से कोई सन्तान न हुई। दूसरी रानी साहिबा से कुंवर संगतसिंह पैदा हुए थे जिनकी उम्र उस समय 11 वर्ष की थी। अंग्रेजी सेना ने कोई विशेष प्रबन्ध नहीं किया, बल्कि हिदायत दी कि मामूली तौर से रियासत का प्रबन्ध होता रहे।

राजा संगतसिंह

सन् 1822 की तीसवीं जुलाई को जींद में फूल खानदान के सरदारों और कप्तान रास, डिप्टी सुपरिण्टेण्डेंट की उपस्थिति में राजा संगतसिंह गद्दी-नशीन हुए। सन् 1824 में इनका विवाह शाहबाद के रईस सरदार |रणजीतसिंह की पुत्री शोभाकुंवरि के साथ बड़ी धूम-धाम से हुआ। इस समय राजा साहब तो नाबालिग थे ही, साथ ही अंग्रेजी सरकार ने भी उदासीनता धारण कर ली। इसका फल यह हुआ कि रियासत में निहायत बद-इन्तजामी फैल गई। प्रजा में असन्तोष व्याप्त हो गया।

सन् 1826 ई० में राजा संगतसिंह महाराज रणजीतसिंह की मुलाकात के लिए गए। कई सरदारों के साथ दरबार लाहौर ने अमृतसर में भेंट की और आदर-सम्मान के साथ उन्हें लाहौर लिवा ले गए। वहां पर होली के त्यौहार पर अपने मुलाजिमों से राजा साहब को नजरें दिलवाईं। महाराजा रणजीतसिंह ने राजा साहब से अपने साथ ज्वालामुखी तीर्थ-स्थान तक चलने के लिए भी कहा। राजा साहब ने दीनानगर तक साथ जाना स्वीकार किया और वहां से महाराज रणजीतसिंह के लौटने पर वापस आए। रणजीतसिंह ने इन्हें एक जागीर भी वापस आने पर दी।

सन् 1827 में राजा साहब फिर लाहौर रणजीतसिंह से मुलाकात के लिए गए। राजा साहब और उनमें प्रेम हो गया था। इस समय सरकार अंग्रेजी को भी राजा साहब के बारे में कुछ सन्देह हुआ। क्योंकि मौजा अनियाना जो सरदार


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-486


रामसिंह के कब्जे में था1, राजा साहब ने हमला करके छीन लिया था। उसने एजेण्ट गवर्नर-जनरल अंग्रेजी से इसकी फरियाद की। राजा साहब से इसका जवाब तलब किया गया। उसने दो और गांवों के साथ महाराजा रणजीतसिंह के मजमून से उनको मिला हुआ बताया। सरकार ने इस बात पर जोर दिया कि जब कि महाराज रणजीतसिंह की मिलकियत में वे गांव ही नहीं हैं, तब राजा साहब का उस पर अधिकार जमा लेना ठीक नहीं है। आखिरकार राजा साहब ने अनिया रामसिंह को लौटा दिया। ऐसी हालत में वे दो गांव उनके पास ही रहे। राजा साहब को सन् 26-27 में रणजीतसिंह से अपने दौरे में हासिल हुई जागीरों की आमदनी करीब साढ़े पच्चीस हजार थी जो महाराजा रणजीतसिंह ने भी समय-समय पर जागीरदारों से ही छीनी थी। इस मौके पर गवर्नमेंट से मिली हुई जागीर छुड़ाना तो आवश्यक न समझा परन्तु यह एलान जरूर किया कि किसी रियासत, सल्तनत व रईसों से महज रस्म के तौर के अलावा बिना सरकार की इजाजत के सम्बन्ध स्थापित न किये जायें।

राजा साहब रियासत के खास मुकाम (राजधानी) को छोड़ करीब 60-70 मील की दूरी पर एक गांव में रहते थे। यही कारण था कि रियासत का इन्तजाम भली प्रकार न हो सकता था। सरहदी इलाकों से प्रायः रोज लूटमार का समाचार आता था। यहां रहते उन्होंने कई इन्तजाम भी किए परन्तु लाभदायक न हुए। इस बीच सरकार के लिए एक गुज्जायश और मिली। सन् 1833 में कप्तान लेफ्टीनेण्ट रालबट की आठवीं पैदल हिन्दुस्तानी रजमट पर इलाके जींद में लुटेरों ने हमला किया। इसमें कई सिपाही घायल हुए और माली नुकसान भी काफी उठाना पड़ा। राजा साहब की ओर से माली नुकसान तो पूरा कर दिया गया, पर लुटेरों को वाजिब सजा देने में कामयाबी हासिल न हुई।

इधर राजा साहब पर एक इल्जाम यह भी लग गया था कि वे रणजीतसिंह से नाजायज पत्र-व्यवहार करते हैं और उधर दशहरे के उत्सव पर रणजीतसिंह ने राजा को उत्सव में शामिल होने के लिए बुला भेजा। संगतसिंह ने उत्सव पर पहुंच शामिल होने की तैयारी भी कर दी। अतः अब सरकार को कोई सन्देह न रह गया कि राजा संगतसिंह का बार-बार लाहौर जाना षड्यंत्र से खाली नहीं है।

दैव संयोग से दूसरी नवम्बर को तो राजा साहब बड़ी अच्छी तरह शराब पीकर मजे से सोये, पर दूसरे दिन ही उन्होंने इलालत की शिकायत की और जब शनै:-शनैः हालत गिरती गई, तो साथियों ने उन्हें वापस संगरूर चलने की राय


1. संभवतः इसमें महाराजा रणजीतसिंह का बहुत कुछ हाथ था। क्योंकि रणजीतसिंह इसके लिए पहले चेष्टा कर चुका था - लेखक।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-487


दी। इसलिए वह पालकी में सवार कराके संगरूर लाये जा रहे थे और बसियान के दरवाजे से निकलने भी न पाये थे कि प्राण-पखेरू पिंजरा छोड़ उड़ गया।

राजा संगतसिंह की मृत्यु के समय उम्र केवल 23 वर्ष की थी। इन्होंने तीन विवाह किए थे, पर सन्तान किसी से न हुई थी। जैसा कि सरदारों में और रईसों में होता है, संगतसिंह में भी दुर्व्यसनों की कमी न थी। मद्यपान की बुरी आदत ने उन्हें बुरी तरह जकड़ रक्खा था। साथ ही उनके चाल-चलन भी अच्छे न थे। ऐयाशी के कारण रियासत के प्रबन्ध में भी वह विशेष ध्यान न दे सके और उनके गद्दीनशीन होने पर जो खजाना द्रव्य से भरा हुआ था, सब फूंक बैठे। चूंकि इनकी नाबालिगी में ही इनके पिता का देहान्त हो गया था, अतः राज के कर्मचारियों ने भी अपने स्वार्थ के सामने रियासत की भलाई को तरक कर दिया था। इन्हीं कारणों से न तो इस समय खजाने में द्रव्य ही था और न रियासत का उचित प्रबन्ध। सर लेपिल ग्रिफिन ने 'पंजाब राजाज' में राजनैतिक कारणों को लेकर उनके कई बार लाहौर की, कई यात्राओं को ही विशेष तौर से फिजूल खर्च (धन का अपव्यय) बताया है। पर हमारे मत से इन यात्राओं का कोई ऐसा विशेष खर्च नहीं था, जिसके कारण ही रियासत की आर्थिक हालत गिरी हो । राजा साहब ने यात्रायें अपनी रियासत बढ़ाने की मन्शा से कीं थीं, जैसा कि उन्हें रणजीतसिंह से जागीर मिलने पर हुआ था। भला यह कौन रईस नहीं चाहता कि मेरी जागीर बढ़ जाए? इस तरह संगतसिंह की इन यात्राओं के खर्च को फिजूलखर्च कहना अनौचित्यपूर्ण है। फिर उन्हें तो इसके फलस्वरूप मिली हुई जागीर में साढ़े पच्चीस हजार रुपया सालाना आमदनी भी हो रही थी। इस हालत में यात्रा-व्यय किसी रूप में खजाने में भी आ रहा था। तब सरीहन ही यह कहना ठीक नहीं कि उनका लाहौर जाने का सफर-खर्च फिजूलखर्च था और इसमें उन्होंने बहुत ज्यादा व्यय किया था।

हम ऊपर कह आये हैं कि संगतसिंह के कोई संतान न थी जो गद्दी की मालिक हो। हां, उनके खानदानी तीन शख्स जरूर थे जो उनके दादा के भाई के पोते थे जिनका नाम स्वरूपसिंह, सुखासिंह और भगवानसिंह था। सरदार बुडरुखां जो काफी समय से इस खानदान की शाख जींद से अलग हो गए थे, परन्तु कुछ समय तक उन्होंने किसी से कुछ भी कार्रवाही न की और न गवर्नमेंट ने ही कुछ ध्यान दिया। इस अरसे में माई साहबकुंवरि (साहबसिंह की माता) रियासत के काम को देखती रहीं।

जींद जैसी लम्बी-चौड़ी रियासत पर अधिक समय माई साहबकुंवरि का कौन अधिकार देख सकता था! चारों ओर से दावेदार खड़े हो गये, अजीब हालत थी। इधर पहले तो सरकार ही खालसे कर लेने के लिए तैयार बैठी थी और उधर फतेहसिंह की दूसरी विधवा आधे हक के लिए दावा पेश करती थी तो कहीं


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-488


संगतसिंह की तीनों रानियां इनका (फतेहसिंह की दोनों विधवा रानियों का) कुछ हक न बताती थीं और सिख-धर्म के अनुसार अपने पति की जायदाद के मालिक होने का इजहार करती थीं। राजा साहब नाभा ने भी अपने को रियासत का हकदार होने का दावा पेश किया। पर यह कहकर कि जींद के कायम हो जाने के पहले ही इस खानदान से अलग हो गये थे, राजा साहब के लिए इन्कार कर दिया गया। संगतसिंह की रानियों को नाबालिग करार दिया गया और कहा गया कि इतनी बड़ी रियासत को नव-उम्र विधवाओं को सौंप देना खतरे का काम होगा।

सरदारान बाजेदपुर और बुड़रूखां अर्थात् सरूपसिंह व सुखासिंह - क्योंकि यह व्यक्ति रियासत के नजदीकी खानदान के थे इसलिए इनके पूर्व इतिहास पर कुछ प्रकाश डाल लेना असंगत न होगा।

सरदार भूपसिंह जींद के राजा गजपतसिंह का तीसरा बेटा था। वह एक बहादुर व्यक्ति था परन्तु राजनैतिक चालों का उसमें अभाव था, इसी कारण उसने रियासत के प्रबन्ध के बदले उसे बढ़ाया। राजा भागसिंह को अपने पिता के पश्चात् रियासत जींद मिली और भूपसिंह को परगना तालेदपुर और बुडरूखां मिला। भूपसिंह के दो पुत्र थे - करमसिंह और बसावासिंह।

करमसिंह ने अपने पिता से ही लड़कर बडरूखां को अपने में कर लिया था, परन्तु राजा भूपसिंह ने दूसरे फूल के सरदारों की सहायता से फिर ले लिया और उसे गुजर कर लेने भर के लिए मौजा महमूदपुर दे दिया। परन्तु करमसिंह को भला कहां सब्र मिल सकता था, और उसने वाजेदपुर पर जबरदस्ती से कब्जा कर लिया। पर जब उसका यह अधिकार न टिक सका तो वह रणजीतसिंह के पास लाहौर जाकर रहने लगा और जब भूपसिंह की मृत्यु हो गई तो फुलकियां सरदारों ने मिलकर जागीर आपस में बांट दी। करमसिंह को बगावत करने की सजा में कम हैसियत का हिस्सा दिया गया और बसवासिंह को बड़ा उम्दा परगना बडरूखां दिया गया।

राजा सरूपसिंह

अपने पिता सरदार भूपसिंह की मृत्यु के पश्चात् करमसिंह अपने हिस्से इलाका बाजेदपुर में आया, जहां पर वह सन् 1818 ई० में मर गया। उसके एक बेटा सरूपसिंह था जो रियासत जींद की गद्दी का दावेदार हुआ।

क्योंकि सरूपसिंह करमसिंह का बेटा था जो कि भूपसिंह का बेटा था, इसलिए उसका दावा करना उचित था। पर सरदार सुखासिंह ने यह बताते हुए अपना हक बताया कि करमसिंह को उसके पिता ने ही जायदाद से अलग कर दिया था इसलिए वह रियासत का अधिकारी नहीं हो सकता। पर यह दलील ध्यान देने योग्य थी और बजाय उसके उल्टे सरूपसिंह का दावा कहीं मजबूत था।

इस समय रियासत जींद के तीन भाग हो सकते थे अर्थात् परगना जींद और सफेदों जो पुरानी जागीर, दूसरे सन् 1809 में हुए अहदनामे के मुताबिक


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-489


महाराज रणजीतसिंह से मिले परगना लुधियाना, वस्तीयाना वगैरा शामिल थे और तीसरे वह समय-समय पर महाराजा रणजीतसिंह द्वारा मिली जागीरें थीं। जब सरूपसिंह के दावे को गवर्नमेंट ने उचित समझा तो उसने सब भागों के हकदार होने का दावा किया।

महाराजा रणजीतसिंह से हुए सन् 1809 के अहदनामे के अनुसार जो इलाके मिले थे तथा और जो बाद में उनके द्वारा दिए गए थे, महाराजा साहब ने वापस अपनी जायदाद में मिलाने के लिए लिखा-पढ़ी शुरू की। यहां तक कि उन्होंने रियासत का हकदार भी अपने को बताया।

जींद की गद्दी के लिए इस तरह बहुत समय तक झगड़ा चलता रहा। आखिरकार यह फैसला तय पाया था कि सन् 1809 के अहदनामे के बाद दी हुई जागीर महाराजा रणजीतसिंह को वापस मिलनी चाहिए और इलाका लुधियाना सरकार अंग्रेजी के पास वापस आ जाना चाहिए और नए राजा को सिर्फ राजा गजपतसिंह के कब्जे वाले स्थान ही मिलें। यह फैसला राजा सरूपसिंह और महाराजा लाहौर एवं सरकार तीनों को ही लाभकारी था। क्योंकि राजा सरूपसिंह को तो इतने दावेदारों को हटाकर रियासत का सम्पूर्ण हिस्सा नहीं तो कुछ भाग तो मिल रहा है, इसलिए खुशी थी और रणजीतसिंह को भी एक हिस्सा जो कुछ समय से उससे अलग हो गया था, मिल रहा था। उधर सरकार को भी लुधियाना पर फिर कब्जा होने का स्पष्ट लाभ था। इसकी किसको चिन्ता थी कि एक स्टेट की सीमा घटकर संकुचित हो रही है, और जिसकी सीमा सुखचैन से लेकर अब तक के राजाओं द्वारा बढ़ी थी, पुराने नकशे पर आ रही है।

गवर्नर-जनरल के हुक्म से यह फैसला ता० 10 जनवरी सन् 1837 को लिखा गया जिसमें राजा सरूपसिंह को रियासत का अधिकारी माना गया और बताया गया कि सरूपसिंह उतने ही परगने का अधिकारी हो सकता है जितने पर उसके परदादा गजपतसिंह का कब्जा था। क्योंकि इसी बुनियाद पर वह रियासत का दाबेदार होना कायम हो सका है। इसके साथ ही उन परगनों की लिस्ट भी लिखी गई जो परगने महाराज रणजीतसिंह को वापस मिले और जिन पर सरूपसिंह का हक माना गया था और जो सरकार के अधिकार में आने हैं।

नवम्बर सन् 1837 में कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर ने जिनके पास जींद प्रबन्ध के अन्तिम निर्णय के साथ उपर्युक्त फैसला भेजा गया था, यह हुक्म दिया - वे कुल इलाके जात, जो न रणजीतसिंह की तरफ से और न गवर्नमेण्ट अंग्रेजी की तरफ से, बतौर जागीर मिली थी, बल्कि गजपतसिंह के जमाने से हासिल हुई थी, न्याय से नये राजा की मिलकियत हो सकती है। पर इसका उसके फैसले पर कोई असर न हुआ।

इस फैसले से फतेहसिंह की माताओं और रानियों में सख्त नाराजगी फैली।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-490


उन्होंने बहुत से अभियोगों के साथ कि उनके साथ अत्याचार किया जा रहा है, दरख्वास्त की, परन्तु कुछ सुनवाई न हुई।

अप्रैल सन् 1837 में सरूपसिंह को तमाम रईस फूल खानदान और अंग्रेजी एजेण्ट की उपस्थिति में गद्दी पर बैठाया गया। सरूपसिंह इतने दावेदारों के झगड़े में से एक रियासत के मालिक हुए थे, इसलिए परिणाम जाहिर था। इलाका बालानवाली जहां के निवासी बगावत करने पर प्रतापसिंह के भी साथी हुए थे और बाद में भी एक बार बागी बन गए थे, फिर बागी हो गए। इस फिसाद में एक खास व्यक्ति गुलाबसिंह था जिसके कारण बगावत ने जोर पकड़ा था। यह बालानवाली का रहने वाला था और जींद की फौज में रिसलदार था। जींद के बहुत से सिपाही बागियों से जा मिले थे। इस बगावत में कुं० प्रतापसिंह की विधवा रानी भी मदद को गई थी। परन्तु यह बगावत शीघ्र ही शान्त कर दी गई क्योंकि विद्रोहियों के हाथ में कोई खास स्थान न आया था। किला बालानवाली भी इतना मजबूत न था जो उनकी मदद कर सके। 17 मार्च को बागियों ने उस पर और थाना पर एक बार ही कब्जा कर लिया, मगर एक फौज ने, जो उनके मुकाबले के वास्ते भेजी गई थी, उन्हें प्रथम ही हरा दिया जिसमें दिलसिंह, लखासिंह और प्रतापसिंह की विधवा तो कैद हो गई और गुलाबसिंह मारा गया और देवसिंह ने जो कब्जे में होने वाला ही था कि आत्महत्या कर ली और शेष बहुत से लोगों को कैद करके तहकीकात के वास्ते अम्बाला भेज दिया गया और एक दस्ता फौज का बालानवाली में रखा गया जो शान्ति कायम होने तक वहीं रहा।

मार्च सन् 1843 में कैथल के लावारिश हो जाने पर सरकार के प्रबन्ध करने पर राजा साहब जींद को एक परगना माहलान धाबदान बमुआवजा एक हिस्सा इलाका सफेदों को दिया गया। माहलान धाबदान में 23 गांव जमा 23,042 रुपये सालाना और हिस्सा सफेदों में 38 गांव जमा 33,380 रुपया सालाना के थे। मगर खास मौजा सफेदों जींद में ही शामिल रखा गया था क्योंकि वहां पर राजा साहब का शिकारगाह था और अब तक के राजाओं की समाधि थी।

नवम्बर सन् 1845 में सरूपसिंह से 150 ऊंट फौज छावनी अम्बाला के लिए तलब किए गए। राजा साहब समय पर न दे सके। इसलिए रेजीडेण्ट मेजर ब्राडफुट ने उस पर दस हजार रुपया जुर्माना यह अपराध बताकर किया कि समय पर ऊंटों के न मिलने से फौज को बड़ी तकलीफ बरदाश्त करनी पड़ी है जिससे भारी नुकसान पहुंचा है। इसके बाद राजा साहब के आदमियों ने रसद और सामान बड़ी मुस्तैदी से समय पर दिया। उसकी फौज ने अंग्रेजी फौज के साथ काम दिया। कुछ समय बाद एक दस्ता फौज काश्मीर भी गया था, जहां राजा गुलाबसिंह से यहां के हाकिम इमामुद्दीन ने बगावत कर दी थी।

इस सहायता से प्रसन्न हो कर गवर्नर-जनरल ने दस हजार का जुर्माना माफ


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-491


कर दिया और एक जागीर जो करीब 3000 रुपया की थी, देने और उस फौज को जिसने काश्मीर में काम दिया था, दुचन्द वेतन देने का इजहार किया।

लड़ाई के बाद व्यापार की वस्तुओं का कर अर्थात् सायर, जकात महसूल रियासत जींद से हटाया गया और गवर्नमेंट अंग्रेजी ने वादा किया कि राजा और उसके वारिशों से किसी तरह का खिराज, मुआवजा व खिदमत फौज वगैरह कभी तलब न की जाएगी और राजा साहब ने सरकार को लड़ाई के वक्त में अपनी तमाम फौज से मदद देने, जंगी रास्तों की मरम्मत रखने आदि और भी जिस प्रकार की सहायता आवश्यक जान पड़े, देने की जिम्मेदारी ली। सरकार ने महसूल हटा देने के बदले में 1000 रुपया सालाना की जागीर और दी तथा दूसरे फूल खानदान सरदारों की भांति लड़ाई के पश्चात् एक सनद दी जिसमें उसकी मौरूसी रियासत बहाल रखी गई और यह वायदा किया गया कि जब तक वह सरकार का खैरख्वाह रहेगा, उसकी रक्षा की जायेगी। जब सिखों की दूसरी लड़ाई हुई, राजा स्वरूपसिंह ने सरकार को अपनी सेवाएं स्वीकार करने को लिखा। सरकार ने इसे स्वीकार न किया और महाराज को इसके लिए धन्यवाद दिया गया।

पंजाब की जब्ती के पश्चात् राजा जींद और उन खुद-मुख्तार रईसों को फांसी देने तक के अधिकार दिए गये थे। स्वरूपसिंह को यह अधिकार सन् 1857 के गदर के बाद दिया गया था। उन्होंने अपने अधिकारों का दुरुपयोग नहीं किया और स्टेट का प्रबन्ध नये तरीके से अंग्रेजी नमूने पर किया। नये ढ़ंग के प्रबन्ध से कुछ लोग रुष्ट भी हुए और लजवाना गांव के किसान जो रोहतक की सरहद पर थे, विद्रोही बन गए और जब एक तहसीलदार गांव की पैमायश के लिए उधर गया, तो कत्ल कर डाला गया।

राजा ने जब यह समाचार सुना तो मौजूदा कुल फौज लेकर बागियों की तरफ रवाना हुआ और इससे पहले कि मारकाट हो, सरकार की सलाह से एक इश्तिहार जारी किया कि उन लोगों को कुछ दण्ड न दिया जाएगा जो बगावत में शामिल हुए हैं, बशर्ते वह अपने-अपने घरों को लौट जाएं। फौज और इस इश्तिहार से बागियों पर काफी असर पड़ा और वे अपने स्थानों पर वापस लौट गये। इस तरह विद्रोहियों को आरम्भ में ही दबा दिया गया।

जब मई सन् 1857 का विद्रोह आरम्भ हुआ तो महाराज स्वरूपसिंह पटियाला राजा साहब से सहायता करने में कम न रहे और जब उनको संगरूर में देहली के विद्रोह की खबर मिली तो उन्होंने अपनी सब फौज को इकट्ठा किया और तारीख 18 को करनाल जा पहुंचे। वहां पर पहुंचकर शहर और छावनी की रक्षा का भार अपने ऊपर ले लिया। यद्यपि उसके पास के सैनिकों की संख्या 800 से अधिक न थी, परन्तु नये ढंग से कवायद वगैरह की शिक्षा में निपुण


1. “पंजाब राजाज” के उर्दू तर्जुमाकार खलीफा सैयद मुहम्मद हुसैन नोट देते हैं कि इस बगावत को दबाने में फौज पटियाला भी शामिल थी और 80 सिपाहियों के करीब घायल हुए थे और 17 मारे गये थे - “लेखक”।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-492


थी। करनाल में पहुंचने से शान्ति हो गई और शहर लुटने से बच गया। उन्होंने एक दस्ता फौज बागपत के पुल की रक्षा के लिए भेजी। यह पुल देहली से 20 मील की दूरी पर था और किश्तियों का बना हुआ था। इसकी रक्षा से ही मेरठ छावनी की फौज यमुना को पार कर सकी थी और यनार्ड साहब की फौज से मिल जाने पर शहर पानीपत में जहां विद्रोह की आग धधक चुकी थी, इन्तजाम कर सके और सबसे बड़ी जींद की फौज के लिए इज्जत की बात यह थी कि उसने अंग्रेजी फौज के आगे-आगे रवाना होकर सम्हालका और रार को छीन लिया, सड़क पर कब्जा कर लिया और फौज के वास्ते रसद जमा की।

सातवीं जून को सरूपसिंह अलीपुर में अंग्रेजी फौज में आ मिला और दूसरे ही दिन जींद की फौज ने वाह-वाही पाई। कमाण्डर-इन-चीफ ने उनकी बहादुरी से प्रसन्न होकर उन तोपों में से जो लड़ाई में उन्हें हाथ आई थीं, एक तोप राजा साहब को दी। 19वीं जून को फिर जींद की फौज ने नसीराबाद की विद्रोही सेना को, जिसने अंग्रेजी लश्कर पर हमला किया था, दबाने में मदद की और 21वीं तारीख को बागपत भेजने पर जहां का पुल तोड़ दिया गया था, तीन दिन में ही फिर तैयार कर दिया। परन्तु उसे फिर तोड़ना पड़ा, क्योंकि विद्रोहियों ने राजा पर हमला कर दिया था, इसलिए विवश हो लौटना पड़ा। इधर जब राजा को यह समाचार मिला कि उसके इलाके में हांसी, हिसार और रोहतक में विद्रोहियों की मदद की है तो वह रियासत में लौट आये और यहां से जो झगड़ा खड़ा होने वाला था, उसे बड़ी होशियारी से दूर किया। यहां पहुंचकर भी राजा ने जो फौज देहली पर चढ़ाई करने के लिए अंग्रेजों की ओर से तैयार हो रही थी, उसकी भर्ती और घोड़ों की खरीद कर मदद की और नवीं सितम्बर को वह फिर अंग्रेजी फौज से जा मिला और देहली की चढ़ाई में स्वयं शामिल हुआ।

सरकार की ओर से जिला रोहतक का प्रबन्ध राजा सरूपसिंह को सौंपा गया था और देहात के मुखियाओं, जमींदारों को हिदायत कर दी गई थी कि अपना-अपना हासिल उन्हें दे दें और रसीद भी उन्हीं से ले लें। देहली के अधिकार में आ जाने के पश्चात्, सरूपसिंह सफेदों लौट आया। उसने 25 आदमी तहसील लरसोली में काम के वास्ते छोड़े और इसी प्रकार आदमी देहली में रहने को दिए और 500 आदमियों को जनरल वान कोर्टलेण्ड के लिए हांसी को भेजा। 110 आदमी कान्हासिंह की अध्यक्षता में झझ्झर को रवाना किए और इसके सिवा 250 आदमी जींद की फौज के रोहतक में रहे और 50 गोहाना में।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-493


इन सेवाओं के बारे में कर्नल टामसन ने लिखा था कि - “अगर राजा की रसद ऐन मौके पर न पहुंचती तो बहुत दिक्कत पेश होती। यही नहीं कि राजा ने रसद के प्रबन्ध का ही कठिन काम किया हो बल्कि देहली के हमले में उन्होंने खुद शामिल होकर सहायता की।” गवर्नर-जनरल ने 5 नवम्बर 1857 के इश्तहार में लिखा था कि - “राजा साहब जींद द्वारा की गई सेवाओं के लिए गवर्नमेण्ट हृदय से कृतज्ञ है।” यह नहीं कि राजा साहब को इस तरह धन्यवाद और कृतज्ञता प्रकाश करके ही सरकार भूल गई हो, बल्कि अन्य सरदारों की भांति जागीर भी दी अर्थात् इलाका दादरी जो नवाब दादरी से जब्त किया गया था, राजा साहब को दिया गया। जिला कुलारान के 13 गांव जो संगरूर के पास ही थे और जिनकी आमदनी 13,813 रुपये थी, राजा साहब को दिए गए और उनकी देहली में की गई सहायता की याददाश्त के लिए शहजादा मिर्जा बूबकर का जब्त मकान जो 6000 रुपया के करीब की कीमत का था, राजा साहब को दिया गया। सलामी की तोपों की तायदाद ग्यारह कर दी गई और खिलअत की किश्तें भी ग्यारह से पन्द्रह कर दी गईं। इस मौके पर राजा साहब को बहादुरी का खिताब भी मिला। राजा साहब ने मौजा बडरूखां वगैरह जिनकी उन्हें बहुत ख्वाहिश थी, 1868 में 12870 रुपया आठ आना एकमुश्त देकर जींद के अधीन कर लिया और इस तरह सरदारान बडरूखां जींद के जेलदार मातहत हो गए।

मई सन् 1860 में राजा साहब को एक सनद भी दी गई थी जिसके अनुसार उन्हें कुल अख्तियार और जो इलाके उन्हें मिले थे, उनके हक, गद्दी के अख्तियारात और जो इलाका मिल्कियत से था, वह उसमें दर्ज थे । इसके सिवा एक खास सनद उन्हें और भी दी गई थी जिसके अनुसार उनकी गैर हाजिरी में उनके वारिस इसके अधिकारी माने जायें।

पटियाला और नाभा की भांति छोटे-छोटे जागीरदारों की रियासतों के अधिकार में रहने का झगड़ा जींद में भी चला था। इसी तरह राजा नाभा और जींद का जो पुराना झगड़ा चल रह था, वह भी बढ़ रहा था। इन रियासतों में “किसका रुतवा बड़ा है?” इस पर बड़ा तूल खड़ा हो रहा था। यह बहस हद दर्जे को पहुंच गई थी और उस दरबार में जो स्थान पंजोर में लार्ड डलहौजी ने किया था मि० एडमिन्स्टन, कमिश्नर रियासत ने पटियाला को प्रथम, नाभा को द्वितीय और जींद को तीसरा नम्बर दिया था। यह सही है कि राजा साहब जींद को इससे रंज हुआ। पर उस समय जींद की आमदनी भी उतनी न था जितनी कि नाभा की। परन्तु जब 1857 के विद्रोह में राजा साहब जींद की सेवायें राजा साहब नाभा से अधिक मूल्यवान समझी गईं तो उन्हें इलाका भी अधिक मिला, जिससे रियासत की आमदनी बढ़ गई और भी ऐसे ही कारण दिखलाकर सन्


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-494


1860 के दरबार में राजा साहब जींद को विशेषता दी। पर साथ ही यह भी कहा गया कि सरकार दोनों रईसों का बराबर खयाल रखती है और एक ही नजर से दोनों को देखती है। इससे राजा साहब नाभा को बहुत दुःख हुआ और इसकी दरख्वास्त सैक्रेटरी आफ स्टेट को भेजी, पर इस बीच में राजा साहब की मृत्यु हो गई। उसके बाद भी यह मामला उठाया, पर फिर कुछ हुआ नहीं।

सरूपसिंह को इधर कई दिनों से पेचिश हो गई थी और इसी से उनके कई रोग खड़े हो गए और वे 26 जनवरी सन् 1864 को स्वर्ग सिधारे। मृत्यु के समय वाह बाजेदपुर में रहते थे। यहां एक बाग में रहने के लिए बंगला बना हुआ था। उन्होंने अंग्रेजी डाक्टरों के इलाज भी करवाए पर फायदेमन्द न हुए। यह भी कहा जाता है कि एक फकीर ने तांबे का जोश किया हुआ पानी उन्हें पिला दिया जिससे वे शीघ्र ही मर गए। मृत्यु के समय इनकी अवस्था 51 वर्ष की थी।

सरूपसिंह समयानुसार अच्छे चाल-चलन का राजा था। उसने यह देख लिया था कि बिना गवर्नमेण्ट की सहायता किए अस्तित्व कायम नहीं रह सकता और जब सहायता करने को उद्यत ही हुए तो दिल से की। लेपिल ग्रिफिन लिखता है कि - जिस समय वह जिरहवख्तर पहनकर सिपाही वेश में फौज के आगे खड़ा होता था तो उसकी सानी का कोई रईस न दिखाई देता था।1 सरकार की ओर से उन्हें 'स्टार आफ इण्डिया' का तमगा मिलना भी निश्चित हुआ था पर वह अम्बाला पहुंचकर इसके हासिल करने के सौभाग्य से वंचित रह गए।

राजा रघुवीरसिंह

राजा रघुवीरसिंह - स्वरूपसिंह का पुत्र, रघुवीरसिंह बड़ा योग्य और प्रतिभाशाली था। उसकी उम्र इस समय करीब 30 वर्ष की थी और उससे रिआया भी बेहद प्रसन्न थी। ये 31 मार्च सन् 1864 को एजेण्ट सर हर्वर्ट एड्वार्डिस लेफ्टीनेण्ट गवर्नर व महाराज पटियाला, नाभा, नवाब मालेर कोटला और अन्य कई सरदारों की उपस्थिति में गद्दी पर बैठे

रघुवीरसिंह को गद्दी पर बैठे अधिक समय न हुआ था कि दादरी में विद्रोह खड़ा हो गया। बागी लोगों ने समझा था कि नया राजा इतना योग्य नहीं है कि बगावत दबा सकेगा। परन्तु इसका समाचार पाते ही रघुवीरसिंह मय फौज और तोपों के साथ 8वीं मई को पहुंच गया और 14वीं मई को चरखी पर जहां दो-डेढ़ हजार के करीब बागी इकट्ठे हो रहे थे, हमला कर दिया। राजा साहब ने मुस्तैदी से मौजा झझू, मानिकवास पर जो बागियों के हाथ में थे, दोनों पर ही कब्जा कर लिया। दोनों ओर से लड़ाई में आदमी मारे गए। विद्रोह शान्त होने पर


1. “पंजाब राजाज” के उर्दू तर्जुमाकार खलीफा सैयद मुहम्मद हुसैन ने इसे गलत बताया है।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-495


राजा साहब ने दयालुता का बर्ताव किया जिससे पहले की भांति शान्ति स्थापित हो गई।

सरकार की ओर से आपको जी० सी० एस० आई० की उपाधि मिली। इनकी दो शादियां हुई थीं। पहली शादी चौधरी जवाहरसिंह दादरी के यहां से हुई थी जिससे एक बेटा और बेटी पैदा हुए। राजकुमार बलवीरसिंह की मृत्यु सन् 1883 ई० में इनके आगे ही हो गई।

राजकुमार की मृत्यु के 4 वर्ष बाद ही अर्थात् सन् 1887 ई० में इनकी भी मृत्यु हो गई। राजा साहब संगरूर में रहते हुए भी राज्य का प्रबन्ध बड़ी अच्छी तरह से करते थे। कहा जाता है कि यह शिकार खेलने में भी बड़े निपुण थे।

राजा रनवीरसिंह

राजा रणवीरसिंह (1879-1948) का एक अज्ञात अंग्रेज महोदय के साथ सन् 1906 में लिया गया फोटो

महाराज रघुवीरसिंहजी के पश्चात् उनके पौत्र रनवीरसिंहजी गद्दी पर बैठे। इनका जन्म 1879 ई० में हुआ था और गद्दी पर बैठने के समय 8 वर्ष की अवस्था थी। इसलिए राज्य का प्रबन्ध एजेण्ट की देखरेख में कौंसिल द्वारा होता रहा। तरुण होने पर जब राज्य के अधिकार प्राप्त हुए तो आपने बड़ी उत्तमता के साथ राज्य-कार्य को संभाला। आपने प्रजा के स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए उचित प्रबन्ध किया। सरकार की ओर से आपको सर, जी० सी० आई० ई०, के० सी० एस० आई० की उपाधि मिली। आपके दो राजकुमार हुए - श्री राजवीरसिंह, श्री जगतवीरसिंह। राजवीरसिंह का 1918 ई० में और जगतवीरसिंह का 1925 ई० में जन्म हुआ । आपने प्रजा की हालत देखने के लिए कई दौरे किए। शिकार खेलने के भी बड़े प्रेमी थे। जींद राज्य के संगरूर, जींद और चरखी दादरी मुख्य शहर थे और इन्हीं में रियासत के सुप्रबन्ध के लिए चार-चार मास वर्ष भर में निवास करते रहे।

आपको पन्द्रह तोपों की सलामी दी जाती थी। राज्य का क्षेत्रफल 1259 वर्ग मील था। जनसंख्या 3,24,000 और आय लगभग तीस लाख रुपया वार्षिक थी।

नाभा स्टेट

नाभा स्टेट का झण्डा
स्टेट-नाभा का राजवंश

स्टेट-नाभा का राजवंश फूल की बड़ी शाख की सन्तान है। इसलिए फुलकियां खानदान में सबसे बड़े होने का दावा रखते हैं। चौधरी फूल के बड़े बेटे तिलोका के दो पुत्र थे जिनमें बड़े गुरुदत्ता थे और उसी की सन्तान नाभा का राजवंशज था। नाभा का वंश-वृक्ष इस प्रकार है -


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-496


चौधरी फूल (b.-d.1652)
1. तख्तमल, 2. झण्डू, 3. चुनू, 4. रुघु, 5. रामा, 6. तिलोका

तिलोका (b.-d.1687)
1. सुखचैन 2. गुरुदत्ता

गुरुदत्ता (b.-d.1744)
सूरतसिंह (b.-d.1742)
1. हमीरसिंह, 2. कपूरसिंह

हमीरसिंह(1755-d.1783 )
1. बीबी सदाकुंवरि 2. बीबी सुखाकुंवरि 3. राजा जसवन्तसिंह

राजा जसवन्तसिंह (b.1775,r.1783-d.1840)
1. राजा देवेन्द्रसिंह, 2. रणजीतसिंह

राजा देवेन्द्रसिंह (b.1822,r.1840-1846 deposed,d.1865)
1. राजा भगवानसिंह 2. राजा भरपूरसिंह (b.1840, r.1847-d.1863)

राजा भगवानसिंह(b.1842. r.1864-d.1871)
हीरासिंह (गोद आये)(b.1843, r.1871-1911)
महाराज रिपुदमनसिंह (जो अधिकार च्युत हैं) (b.1883, r. 1911-1923 deposed,d.1942)
प्रतापसिंह (जो अभी नाबालिग हैं)(b.1919,r.1923-1995)

चौधरी गुरुदत्ता

चौधरी गुरुदत्ता (b.-d.1744) का विवाह शार्दूलसिंह मामूड़ानवाला की लड़की के साथ हुआ था। इस औरत से इसके एक बेटा सूरत हुआ जिसने गांव धनौला बसाया और फिर संगरूर आबाद किया और काफी समय तक नाभा के कब्जे में ही रहा। पर राजा साहब जींद ने चालाकी से काम ले लिया। गुरुदत्ता ने बहुत से स्थान अपने पड़ौसियों से छीन लिए थे। परन्तु उसकी अपने छोटे भाई सुखचैन से पटती न थी। यहां तक कि कई बार खून-खच्चर का भी वाका हुआ। इनके इकलौते पुत्र सूरतसिंह सन् 1742 में दो


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-497


पुत्र छोड़कर मर गए और उसके दो वर्ष बाद ही वह भी सन् 1744 में इस संसार से सदा के लिए उठ गए।

चौधरी हम्मीरसिंह

गुरुदत्तसिंह की मृत्यु के पश्चात् उसका पोता चौधरी हम्मीरसिंह (1775-1783 ) उसकी जागीर का अधिकारी हुआ। उसके दूसरे भाई का नाम कपूरसिंह था। उसकी शादी सुजानकुंवर मानसिंहिया की लड़की राजकुंवरि के साथ हुई थी। कपूरसिंह के मर जाने पर इसकी विधवा से हमीरसिंह ने चादर डालकर सम्बन्ध स्थापित कर लिया था और उसके इलाके कपूरगढ़ संगरूर में पक्खू और बुडयाला पर अधिकार कर लिया था। हमीरसिंह के राजकुंवरि के पेट से ही एक पुत्र सन् 17751 में पैदा हुआ, जिसका नाम जसवन्तसिंह था। हमीरसिंह ने तीन शादी और भी की थीं। एक तो नत्थासिंह बनगरिया की लड़की के साथ, दूसरी लक्खनसिंह रोड़ीवाला की लड़की के साथ, जिससे शोभाकुंवरि और सदाकुंवरि दो लड़कियां पैदा हुईं। तीसरी शादी धन्नासिंह कुरहाना वाला की लड़की के साथ हुई थी, पर इससे भी कोई सन्तान न थी।

चौधरी हमीरसिंह बड़ा बलवान और बुद्धिमान व्यक्ति था। इसने अपने इलाके को बहुत बढ़ाया। यों कहना भी ठीक होगा कि चौधरी हमीरसिंह ही राज्य की जड़ जमाने वाला और बढ़ाने वाला था। सन् 1755 में इसने शहर नाभा की नींव डाली और चार बरस बाद ही भादसों पर अधिकार कर लिया और सरहिन्द की हुई लड़ाई में जो मुसलमान सूबेदार जीनखां से हुई थी, अन्य सिख-सरदारों के साथ हमीरसिंह भी शामिल था। विजय होने के पश्चात् परगना अमलोहा उनके हिस्से में आया और रहीमदादखां से सन् 1776 में रोड़ी को विजय कर लिया। हमीरसिंह के काल में ही टकसाल स्थापित हुई, जो खुदमुख्तार रईस होने का प्रमाण है।

चौधरी हम्मीरसिंह से ही जींद के राजा गजपतसिंह ने दगाबाजी से संगरूर छीना था और उन्हें कैद कर लिया था। उनके कैद हो जाने के बाद उनकी रानी देसो ने बड़ी बहादुरी से राजा साहब जींद का मुकाबला किया और उसके अधिकार में गया हुआ बहुत सा इलाका वापस कर लिया।

सन् 1783 में जब हमीरसिंह की मृत्यु हो गई, तब उसके पुत्र जसवन्तसिंह की उम्र केवल 8 बरस (?)2 की थी। यह बात आवश्यक थी कि नाबालिगी में रियासत के प्रबन्ध के लिए कोई योग्य व्यक्ति मुकर्रर किया जाए। अतः इस अवसर पर भी रानी देसो ही इस योग्य समझी गई और उसने बड़ी योग्यता से रियासत का प्रबन्ध किया। रानी पहले ही राज्य-कार्य संभालने का अनुभव कर चुकी थीं, इसलिए उन्हें किसी तरह की दिक्कत पेश न हुई।

सन् 1790 तक रानी ने रियासत का प्रबन्ध खूबी के साथ किया। इसी साल


1. ठाकुर देशराज ने यहां सन 1755 लिखा था जो जो टीप 2 केअनुसार 1775 किया गया है। 2. 1783-8= 1775 होता है। एक अन्य ऑन लाइन स्तोत्र Nabha (princely) state से 1775 की पुष्टि होती है। Laxman Burdak (talk) 01:48, 14 November 2012 (EST)


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-498


में रानी देसो की मृत्यु हो गई। इससे एक वर्ष पहले जींद के राजा गजपतसिंह - राजी के दुश्मन - भी स्थान जींद से मर चुके थे।

राजा जसवन्तसिंह

अपनी माता के देहान्त के पश्चात् जसवन्तसिंह (b.1775,r.1783-1840) ने रियासत का भार संभाला। रानी का प्रबन्ध ऐसा था कि कुछ दिन तक रियासत में उसी तरह शान्ति - अमन-चैन रहा। जसवन्तसिंह अन्य रईसों की भांति अंग्रेजों से मित्रता करने का अधिक इच्छुक न था। पर जब लार्ड लेक ने स्थान नमकलोटा पर अन्य रईसों से मित्रता का श्रीगणेश किया तो इसने भी समर्थन कर दिया था और जब होल्कर लाहौर जाते समय नाभा में ठहरा, तो जसवन्तसिंह ने स्पष्ट कह दिया कि “हम अंग्रेजों से मित्रता कर चुके हैं, इसलिए तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकते।” लार्ड लेक ने राजा साहब जसवन्तसिंह को विश्वास दिलाया था कि जब तक तुम गवर्नमेण्ट के शुभचिन्तक रहोगे, तुम्हारे इलाकों में कमी न की जाएगी और न किसी तरह का खिराज लिया जाएगा।

राजा रणजीतसिंह से भी जसवन्तसिंह को 26 गांव जमा 26,660) और सात गांव पागना घोंगरना में से जमा 3350) के प्राप्त हुए थे। महाराज रणजीतसिंह जिस प्रकार प्रदेशों को विजय करता, उसी तरह वह अपने दोस्तों को दे भी दिया करता था। यह बात जींद के इतिहास और नाभा के इतिहास से अच्छी तरह प्रकट हो जाती है कि इन स्टेट की सीमा और आमदनी में महाराजा रणजीतसिंह के दिए परगनों से काफी वृद्धि हुई थी। हालांकि जसवन्तसिंह का व्यवहार रणजीतसिंह से भी था और सरकार से भी। इसलिए वह दोनों तरफ से ही अनुकूल वातावरण रखने की चेष्टा करता रहा। वह अंग्रेजी सरकार की ओर से उदासीन न रहा और जब कर्नल अकृरलोनी नाभा आया तो उनकी अच्छी तरह आवभगत की।

इस वक्त राजा जसवन्तसिंह का दरजा सतलज निकट की रियासतों से तीसरे नम्बर पर था। पहला नम्बर महाराजा पटियाला का था जिनकी आय 6 लाख से अधिक थी और दूसरा नम्बर भाई साहब कैथल का, जिनकी आय सवा दो लाख रुपया थी और तीसरा दर्जा नाभा का था, जिसकी आमदनी डेढ़ लाख रुपया थी। यद्यपि कलसिया वगैरह की आमदनी भी इसी कदर थी बल्कि सिपाही इससे अधिक थे, लेकिन तीसरा दर्जा नाभा का ही माना जाता था।

रियासत के इन्तजाम और राजा साहब की बुद्धिमानी का पता सर डेविड अकृरलोनी की इस तहरीर से अच्छी तरह लगता है जो उन्होंने गवर्नमेण्ट को अपनी रिपोर्ट में लिखी थी। अर्थात्

जसवन्तसिंह उन बड़े रईसों में से हैं जो हमारे शुभ चिन्तक हैं और उनके इन्तजाम और समझ उन रईसों की निस्बत जिनसे मैं अब

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-499


तक भेंट कर चुका हूं, अत्यन्त उत्तम है। इस रईस के बहुत से प्रदेशों को मैंने देखा है, उसमें खेती बहुत होती है और इस प्रदेश की हालात देखने से ज्ञात होता है कि यह रईस अपनी प्रजा के साथ सख्ती करने वाला नहीं है और प्रजा पर नम्रता-पूर्वक शासन करता है।”

जसवन्तसिंह ने गवर्नर-जनरल से पत्र-व्यवहार करके एक सनद इस आशय की भी प्राप्त कर ली थी कि वह अपने अधिकृत प्रदेश पर बदस्तूर कायम रहेगा।

Nabha Army Logo

पटियाला के तत्कालीन राजा साहबसिंह भोले थे, इसलिए रियासत का कारबार रानी आसकौर को इस शर्त पर हवाले किया गया था कि खास मौकों पर एजेण्ट, राजा सा० जींद, कैथल व नाभा से सलाह ले लिया करें। पर कहा जाता है कि जसवन्तसिंह के हृदय में पटियाला स्टेट के लिए शुभकामना न थी और वह रियासत की अवनति का इच्छुक था। सर लेपिल ग्रिफिन ने तो पटियाले के बारे में गजपतसिंह की मंशा के बारे में यहां तक लिखा है कि “उसकी यह इच्छा थी कि रियासत पटियाला टूट जाये क्योंकि इस रियासत के टूटने से उसको यह उम्मीद थी कि मेरे हाथ भी कुछ न कुछ हिस्सा आयेगा। इस तरह मेरा इलाका रियासत से ज्यादा हो जायेगा।” यह बात कहना कि उनकी इच्छा पटियाले को एकदम नष्ट-भ्रष्ट देखने की थी, चिन्त्य है। पर हां, कई कारण ऐसे हैं जिनसे ज्ञात होता है कि वे नष्ट करना नहीं तो उन्नत होना भी नहीं चाहते थे।

पटियाला और नाभा के बीच जो मनमुटाव और तकरार थी उसके कई कारण थे अर्थात् एक तो यह कि नाभा के राजा साहब अपने को चौधरी फूल के बड़े लड़के की औलाद होने से और पटियाला के छोटे बेटे के होने से जसवन्तसिंह अपने को बड़ा समझते थे और उधर पटियाला की आय और जागीर अधिक होने से पटियाला वाले अपने को बड़ा समझते थे। इसके अलावा गांव लुधी, अलीक ऐसे मौजे थे जिनके कारण भी यह तकरार बढ़ी थी। रियासत की हदों के कायम होने में भी एक दूसरे रईस का मत न मिलता था अर्थात् कई स्थान ऐसे थे जिन पर दोनों रियासतें अपना-अपना हक बतलाती थीं।

इन हक हकूकों के झगड़ों में कई ऐसे दावे थे, जिनमें राजा साहब नाभा का दावा न्याय्य था और जब मौजा कोसलहेड़ी इलाका पटियाला, फूलाशेरी इलाका नाम के तनाजा के फैसले के लिए पंच मुकर्रर किए गए थे, राजा साहब नाभा की तरफ ही फैसला दिया था और एक दूसरा झगड़ा कसबा भदोड़ और कांगड़ गांव की सरहद का था। भदौड़ सरदार दिलीपसिंह और वीरसिंह के अधिकार में था जो पटियाला के रिश्तेदार थे और कांगड़ नाभा के इलाके में था। इस मामले में भी नाभा का पक्ष सही था।

जसवन्तसिंह के सामने पटियाले के झगड़ों की दिक्कतें ही न थीं, उसके यहां गृह-युद्ध की आग भी सुलग चुकी थी अर्थात् उनका बड़ा लड़का कुंवर रणजीतसिंह


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-500


कुछ कुचक्रियों के बहकावे में आकर सन् 1819 में ऐलानिया बागी हो गया। वह अपने विद्रोही विचार से तब हटा जबकि पोलिटिकल एजेण्ट ने रौबदाब से काम लिया। जब उसने विश्वास दिलाया कि आइन्दा ऐसा न होगा तो उसकी जब्त जागीर लौटा दी जाएगी। परन्तु पिता-पुत्रों का यह व्यवहार कुछ दिन तक ही रहा और फिर सन् 1822 में राजा साहब ने इस अपराध से कि रणजीतसिंह मेरे विरोध में षड्यंत्र रच रहा है जो गांव उसके गुजारे के लिए दिए थे, उनको जब्त कर लिया।

सन् 1824 ई० में जसवन्तसिंह ने स्पष्ट प्रकट किया कि मेरा बड़ा लड़का रणजीतसिंह मेरे मारने का षड्यंत्र कर रहा है, इसलिए इसकी सन्तान और यह मेरे राज्य के अधिकारी नहीं होंगे। इस अपराध के सम्बन्ध के कई सबूत भी पेश किए। परन्तु जब यह मुकदमा गवर्नर-जनरल के सामने पेश हुआ, तो उन्हें इसके समर्थन का कोई विशेष सबूत न मिला कि रणजीतसिंह कोई षड्यंत्र राजा साहब की मृत्यु के लिए कर रहा है। इसलिए उन्होंने आज्ञा दी कि कुंवर रणजीतसिंह पर नजरबन्दी व रोक-टोक न की जाये। इस आज्ञा से राजा साहब जसवन्तसिंह को सन्तोष न हुआ।

यह बिल्कुल सही है कि कुंवर रणजीतसिंह का चाल-चलन ठीक न था। उसका दिमाग ठिकाने न था। वह बहुत अपव्ययी था। पर उस पर राजा साहब के मारने के षड्यन्त्र का अपराध सिवाय भ्रम के कुछ न था। इसीलिए इसकी जांच करने पर यह एक मिथ्या साबित हुआ। लेकिन इसके मुकदमे के पश्चात् अधिक समय तक वह जिन्दा न रहा और 17 जून 1732 को कोपतरेड़ी में जहां सरदार गुलाबसिंह शहीद, जिसकी साली से इसका विवाह हुआ था, रहा करता था मर गया। रणजीतसिंह ने तीन शादियां की थीं। उसकी मृत्यु के पश्चात् इस आधार पर कि बाप और उसमें कई दिन से मनोमालिन्य चला आ रहा था, उसकी रानियों ने राजा साहब जसवन्तसिंह पर आरोप लगाया। इसी तरह का इलजाम, दो वर्ष पहले रणजीतसिंह पर लगाया गया था जब उसका इकलौता बेटा संतोखसिंह मर गया था, कि उसके दादा ने उसे मरवा दिया है। परन्तु ये आरोप कोई खास सबूत न रखते थे। इसलिए यह मुकदमा डिसमिस हो गया।

सन् 1827 में लधरान और सोन्ती के सरदारों ने जो रियासत नाभा की देखरेख में जागीरदार थे, एजेण्ट गवर्नर-जनरल देहली से राजा साहब नाभा के जुल्म करने की बड़ी शिकायत की और बतलाया कि हमसे अपने जेलदारों की तरह बर्ताव करता है। लधरान से 50 और सोन्ती से 70 सवार हमेशा के वास्ते तलब करता है और ऐसी आज्ञायें देता है जो हमको बिलकुल पसन्द नहीं। क्योंकि हम कोई जेलदार नहीं हैं, जो राजा साहब इस तरह का व्यवहार करें। पोलीटिकल एजेण्ट अम्बाला ने इस मुकदमे में राय दी कि “यह बात आवश्यक और न्याय की


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-501


है कि यह सिख सरदार राजा साहब नाभा की खिदमत के वास्ते बदस्तूर सवार देते रहें। परन्तु जब राजा साहब उन पर सख्ती करें तो उससे भी बचाना चाहिए...।” मगर रेजीडेण्ट देहली ने इस राय को उचित न समझा और कहा कि लधरान और सोन्ती के सिख नाभा के अधीनस्थ समझे जायें और गवर्नमेंट का इसमें हस्तक्षेप न होना चाहिए क्योंकि इससे राजा साहब के रुतवे में फरक आता है। पर यह सिख सरदार रियासत नाभा का अपने ऊपर कुछ हक न मानते थे और जिन दस्तावेजों से यह हक साबित होता था, जाली बतलाते थे।

यह सिख-सरदार पहले नाभा की मातहई में न थे, बाद में आये थे। इस समय ऐसा कोई उनके पास सबूत न था कि वे उससे बिलकुल बरी हो सकें। सन् 1836 में सर जार्ज क्लार्कलोनी ने इस मुकदमे की छानबीन कर अपनी रिपोर्ट पेश की, जिससे यह जाना गया कि यह समाचार पहले से नाभा के मातहती में तो नहीं पर सरकार के सामने स्पष्ट सबूत था कि वे राजासाहब नाभा को सिपाही देते आ रहे हैं। इसलिए ऐसा रास्ता सोचा गया कि दोनों पक्ष स्वीकार कर लें और यह न सोचें कि सरकार उनको तंग करना चाहती है। फलस्वरूप सरकार ने निर्णय लिया कि - “जब राजासाहब नाभा के यहां कुंवर उत्पन्न हो या किसी लड़के या लड़की की शादी हो अथवा किसी रईस की मृत्यु का अवसर हो या इत्तफाक से कोई लड़ाई पेश आये, उस वक्त इन सरदारों से सेनायें ली जायें और हमेशा न ली जायें।”

इधर कितने ही समय से राजा साहब बीमार रहने लगे थे और रोग बढ़ता ही गया, जिससे 22 मई, सन् 1840 को 66 वर्ष की उम्र में देहावसान हो गया। राजा जसवन्तसिंह का शासन अत्यन्त उत्तम था। प्रजा उनसे बहुत प्रसन्न रहती थी। राजासाहब के पांच रानियां थीं, जिनमें एक से रणजीतसिंह जिसका हाल पहले आ चुका है, और रानी हरकुंवरि से देवेन्द्रसिंह पैदा हुए। 18 वर्ष की आयु में वह स्टेट के अधिकारी हुए।

राजा देवेन्द्रसिंह

राजा देवेन्द्रसिंह (b.1822,r.1840-1846 deposed,d.1865) - 5 अक्टूबर सन् 1840 को देवेन्द्रसिंह गद्दी पर बैठे। इस उत्सव पर अम्बाला एजेण्ट गवर्नर भी उपस्थित थे। इस मौके पर सरकार की ओर से राजा साहब को खिलअत प्रदान की गई थी। क्योंकि देवेन्द्रसिंह रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद से ही रियासत का मालिक समझ लिया गया था, इसलिए इसका लालन-पालन बड़े चाव से हुआ था। परन्तु यह खुशामदी और चापलूसों की सुहबत से भी न बच पाया था।

यह पहले लिखा जा चुका है कि नाभा के राजा अपने को चौधरी फूल के बड़े बेटे के वंशज होने से सबसे बड़ा समझते थे और जब पटियाले के राजा को महाराज


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-502


का खिताब मिला तो यह उसका अधिकारी अपने को ही मानते थे। इसलिए पटियाला और नाभा का मनमुटाव बना रहा और जींद से भी जब राजा गजपतसिंह निःसन्तान मर गये तो एक बखेड़ा खड़ा हो गया अर्थात् राजा साहब पटियाला और नाभा भी अपना-अपना हक पेश करते थे! परन्तु पटियाला की तो सिर्फ यही इच्छा थी कि नया अधिकारी हमारी अधिक ताबेदारी किया करे और रियासत नाभा की यह इच्छा थी कि इलाका संगरूर जो राजा गजपतसिंह ने सन् 1774 में धोखे से ले लिया था, वापस मिल जाये। कहते हैं कि सरूपसिंह ने इस शर्त पर कि मेरा अधिकार हो जाने पर इलाका संगरूर दे दूंगा, एक सनद भी लिख दी। लेकिन जब सरकार ने उसका पक्ष समर्थन किया तो वह उससे मुकर गया।

राजा साहब इसका प्रत्यक्ष विरोध तो न कर सके, पर उन्होंने अपने दरबार में सरूपसिंह को जींद के राजा हो जाने पर भी उनको सरूपसिंह कहकर पुकारते और महाराजा पटियाला को भी सिर्फ राजा पटियाला कहते थे। उन्होंने अपने यहां 'आदाब' के स्थान पर 'दण्डवत्' शब्द का प्रयोग कराया। कहते हैं उनके यहां संस्कृत के पंण्डितों की भरमार रहती थी और वे नित्य सायंकाल उनके पास उपस्थित होकर, अतिशयोक्तियों से भरे संस्कृत के श्लोक सुनते थे।

लाहौर की सल्तनत से भी राजा साहब का मन फिर गया था और इसका कारण गांव का एक झगड़ा था। बात यह थी कि महाराजा रणजीतसिंह ने यह गांव एक सरदार धन्नासिंह को राजा जसवन्तसिंह से दबाव से दिलवा दिया था। चूंकि महाराजा रणजीतसिंह जिस पर प्रसन्न हो जाते, उसे जागीर देने में बिल्कुल न हिचकते थे और धन्नासिंह ने मोड़ान गांव जो नाभा स्टेट में था, के लिए प्रार्थना की थी। बस, महाराजा साहब ने राजा जसवन्तसिंह को इसकी सूचना भेज दी। राजा जसवन्तसिंह की यह इच्छा न थी कि मोड़ान धन्नासिंह को दिया जाये, पर उस समय किसी दूसरे रईस में इतनी ताकत न थी कि रणजीतसिंह का विरोध कर सके। पर जब धन्नासिंह की मृत्यु सन् 1843 में हो गई और लाहौर का रौब भी महाराजा रणजीतसिंह के मर जाने से उतना न रहा तो राजा देवेन्द्रसिंह ने उसके बेटे हुक्मसिंह को कहला भेजा कि इस गांव से अपना कब्जा उठा लो, पर हुक्मसिंह ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया। देवेन्द्रसिंह ने फिर इस सम्बन्ध में न तो उससे पूछा और न सल्तनत लाहौर से और सन् 1843 के अगस्त में एक फौज


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-503


रवाना कर दी। फौज ने पहुंचते ही अग्नि-वर्षा कर किले पर अधिकार कर लिया।

इस घटना की खबर जब लाहौर पहुंची तो लाहौर का शासक शेरसिंह अत्यन्त नाराज हुआ और इसके लिए उसने अंग्रेजी गवर्नमेण्ट को लिखा। पर सरकार इसका उत्तर दे भी न पाई थी कि शेरसिंह मारा गया। इस तरह यह मामला कुछ दिन के लिए तो शान्त हो गया, पर सन् 1844 में यह फिर उठा और दिलीपसिंह ने अंग्रेजी सरकार को एक पत्र लिखा। उसमें लिखा था कि मोड़ान पर राज्य लाहौर का हक है और राजा साहब नाभा का कोई हक नहीं है। मोड़ान पर चढ़ाई व कब्जा से राजा नाभा ने बहुत नुकसान पहुंचाया है। इसलिए उनसे जो हानि हुई है, वह दिलाई जाये और जिन शख्सों की ओर से ज्यादती हुई हैं, उन्हें उचित दण्ड दिया जाये।

अंग्रेजी सरकार ने इसकी तहकीकात की और 'बन्दरबाट' न्याय से अपने राज्य में मिला लिया। इस फैसले से महाराजा दिलीपसिंह को बहुत अफसोस हुआ और वह सरकार के इस फैसले को एक चाल समझने लगे। लाहौर के सिख सरदारों में तहलका मच गया कि सरकार ने खालसा से हुई सन्धि को भंग किया है। इस प्रकार अंग्रेजों से सरकार लाहौर के युद्ध होने की सामग्री इकट्ठी होने लगी।

जब सरकार लाहौर और अंग्रेजों की लड़ाई हुई तो महाराज किसी ओर होने के बजाय तटस्थ रहना पसन्द करते मालूम हो रहे थे। यह विषय विवादास्पद है कि वह लाहौर से गुप्तरूप से पत्र-व्यवहार करते थे क्योंकि इसका कोई प्रबल सबूत नहीं है। हां, लाहौर के एक सेनापति रामसिंह के नाभा आने से सरकार को बड़ा सन्देह हुआ पर राजा साहब नाभा का कहना था कि वह सिर्फ इसलिए मौका देखने वहां आया था कि लाहौर से अनबन हुई तो वह वहां रह सके और राजा साहब से शिष्टाचार के बतौर मुलाकात हुई थी। रामसिंह के नाभा आने से ही सरकार को सन्देह तो हो ही गया था और इसके लिए उनके वकील को सूचना भी की गई थी, पर साथ ही लड़ाई होने पर राजा साहब को जो सहायता करने के लिए हिदायतें की गईं थीं, समय पर न कर सके जिससे 13 दिसम्बर सन् 1845 को परगना ढरडू और अमलोह जब्त कर लिए गए।

इस घटना के दो दिन पश्चात् ही मेजर ब्राडफुट ने नाभा के वकील को एक पत्र लिखा जिसमें सूचना के अनुसार प्रबन्ध न करने के कारण हुई हानि की सख्त नाराजी जाहिर की गई और बताया गया कि राजा साहब को गलती सुझाने के लिए हमने आपको पहले भी सूचित किया था। अगर राजा साहब आज या कल शाम तक अंग्रेजी लश्कर में उपस्थित न हो जायेंगे तो वे सरकार अंग्रेजी के दुश्मन समझे जायेंगे। रसद के लिए जो पहले लिखा गया था, वह भी हाजिर की जाए


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-504


और वह थानेदार को जो असिस्टेंट एजेण्ट के साथ निष्ठुरता से पेश आया था, दण्ड दिया जाये। मौलवी जुहूरुलहक को उसकी जगह नियुक्त किया जाये।

राजा देवेन्द्रसिंह ने इसके उत्तर में लिखा था कि रसद का प्रबन्ध हो रहा है पर वह स्वयं उपस्थित न हुए और रसद वगैरह भी ठीक समय पर न पहुंची। अर्थात् युद्ध समाप्त होने के समय तक भी रसद न पहुंचा पायें। इस कारण से वह गवर्नर द्वारा हुए लुधियाने के दरबार में भी सम्मिलित न किए गए। राजा साहब ने अपनी सफाई में बहुत सी युक्तियां उपस्थित कीं, पर सरकार के सन्देह को दूर न कर सके।

सरकार ने निश्चय करके राजा देवेन्द्रसिंह को गद्दी से उतार दिया और उनका बड़ा बेटा जिसकी उम्र इस समय 8 वर्ष की थी, रियासत का अधिकारी माना गया एवं राज्य का चौथा हिस्सा जब्त कर लिया गया। राजकुमार की शिक्षा-दीक्षा का उचित प्रबन्ध राज्य के 3 अधिकारियों के साथ उसकी सौतेली दादी चन्दकुंवरि को सौंपा गया। राजा साहब के लिए 50,000) रुपये सालाना निश्चित हुए और तय हुआ कि वह देहली और मेरठ से दक्षिण में किसी स्थान पर शान्ति के साथ रहें।

इस निश्चय के पश्चात्राजा देवेन्द्रसिंह स्वयं मथुरा को चले आये और यहीं पर स्थायी रूप से रहने लगे। पचास हजार से उनका खर्च न चलता था, क्योंकि वह खुदमुख्तार रईस रह चुके थे, इसलिए उन्होंने कर्जा भी बहुत बढ़ा लिया था। सरकार ने उनका यहां रहना भी उचित न समझा और वे आठवीं दिसम्बर सन् 1855 को लाहौर भेजे गए। वहां वह राजा खड़गसिंह की हवेली पर ठहरे।

राजा देवेन्द्रसिंह अपने साथ हुए बर्ताव से बहुत दुखी हुए थे जिससे दिल पर हार्दिक वेदना से वह बीमार रहने लगे। सन् 1865 नवम्बर में राजा साहब ने लाहौर में सदा के लिए मानसिक कष्ट से छुटकारा पाया। राजा साहब ने 4 शादियां की थीं। रानी मानकौर से दो पुत्र उत्पन्न हुए - भरपूरसिंह और भगवानसिंह

राजा भरपूरसिंह

राजा भरपूरसिंह (b.1840, r.1847-d.1863) - राजा देवेन्द्रसिंह के अधिकार च्युत होते ही सन् 1847 जनवरी में भरपूरसिंह गद्दी पर बैठे। इनकी दादी रानी चन्दकौर बड़ी होशियार थीं। उन्हीं पर इनकी देखरेख का भार था। यह शासन-प्रबन्ध में भी सहयोग रखती थीं। तीन और सज्जन राज्य के पुराने कार्यकर्त्ता सरदार गुरुबख्शसिंह, फतेहसिंह और बहालीमल - कौंसिल के सदस्य चुने गए, जिनमें से कर्नल मेकसन ने सरदार गुरबख्शसिंह को कौंसिल का अध्यक्ष नियुक्त किया।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-505


गुरुबख्शसिंह ने अपने पद का दुरुपयोग किया। कहते हैं उसने थोड़े समय में स्वयं को धनाढ्य बना लेना चाहा और अधिकतर वह सफल भी हुआ। बड़े-बड़े पदों पर उसने अपने कुटुम्बी-सम्बन्धी नियत किए। इसका फल यह हुआ कि योग्य-अयोग्य का कोई खयाल न किया गया, जिससे प्रजा में असन्तोष फैला और गुरुबख्शसिंह की शिकायतें होने लगीं। जहां होने पर उस पर लगाये हुए दोषों का समर्थन हुआ, फलतः वह अध्यक्ष पद से पृथक् कर दिया गया और उसके स्थान पर मुन्शी साहबसिंह को नियुक्त किया गया।

सन् 1857 के गदर में भरपूरसिंह ने भी सरकार की भरपूर सहायता की। वे गदर आरम्भ होने के कुछ काल बाद स्वयं सनावलोग गए थे। वहां उन्होंने बड़ी बहादुरी का काम किया था और जब राजा साहब को लुधियाना की रक्षा का भार सौंपा गया था तो वहां भी साढ़े तीन सौ सवार और चार सौ पैदल एवं दो तोपों के साथ 6 महीने तक अधिकार किए हुए उपस्थित रहे। अगर बीच में उन्हें कहीं जाने की आवश्यकता भी हुई तो अपने भाई को अपने स्थान पर छोडकर जाते। कमाण्डर-इन-चीफ के साथ जो फौज देहली जानी निश्चित हुई थी उसके इन्कार कर देने पर नाभा की ही फौज के एक सौ सवार उनके साथ गए और उन्होंने बड़ी बहादुरी के हाथ दिखाये। राजा साहब ने इस बात की भी इच्छा की थी कि वह स्वयं देहली पहुंच जाएं, परन्तु सरकार ने नाभा की एक दस्ता फौज को ही वहां पहुंचना स्वीकार किया और राजा साहब की इच्छा के लिए उन्हें धन्यवाद दिया। नाभा की फौज ने वहां पहुंचकर भी बहुत काम दिया। राजा साहब ने भर्ती करने और रसद भेजने की सहायता पहुंचाई और ढ़ाई लाख रुपया बतौर ऋण भी दिया।

गदर के पश्चात् सरकार ने राजा साहब नाभा को अन्य राजाओं की तरह इनामात दिए। परगना झज्झर में से जिला बावल एवं कांटी जिनकी वार्षिक आय करीब एक लाख छः हजार की थी, इस शर्त पर दिए कि वह गदर वगैरा के जमाने में सरकार की सहायता करें। राजा साहब की खिलअतों की संख्या सात से पन्द्रह और तोपों की बढ़ाकर ग्यारह कर दी गई। इनके अलावा उन अधिकारों की स्वीकारी भी हुई जो जींद, पटियाला रियासतों को मिल चुके थे अर्थात् फांसी की सजा तक के अधिकार व उनके निजी मामलों में सरकार किसी तरह का हस्तक्षेप न करे। मई सन् 1860 में सरकार ने एक सनद भी दी जैसा कि जींद, पटियाला सभी को प्राप्त हुई थी, जिसके अनुसार उनके मौरूसी हक हमेशा के लिए मान लिए गए।

जनवरी सन् 1860 ई० को वाइसराय लार्ड रीडिंग ने अम्बाला में जो दरबार किया था, उसमें राजा साहब भी उपस्थित हुए। वायसराय ने राजा साहब नाभा और उनकी फौज द्वारा सेवाओं की बड़ी तारीफ की और बतलाया कि सरकार की


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-506


दृष्टि में अन्य सरदारों द्वारा हुई सहायता से आपकी सहायता किसी कदर भी कम नहीं है। आपको जो इलाका दिया गया है, उस पर आपकी सन्तान का हमेशा अधिकार रहेगा और किसी राजा की निःसन्तान मृत्यु हो जाने पर खानदान फूल में से रियासत का अधिकारी मान लिया जाएगा। सरकार की हार्दिक इच्छा है कि आपकी रियासत उन्नतिशील हो।

राजा भरपूरसिंह ने भी इसके बदले में कृतज्ञता प्रकट की और एक लिखित भाषण दिया जिसमें सरकार के प्रति अपनी मित्रता और उन्नति की मनोकामना प्रकट की थी।

राजा साहब ने 2 लाख रुपया तो गदर पर ही ऋण दिया था और इसके सिवाय सात लाख रुपया सन् 1848 में 5 रुपया सैंकड़ा सूद पर सरकार ने नाभा से लिए थे। इस तरह कुल असल रुपया 9 लाख होता था। जब महाराज देवेन्द्रसिंह को ज्ञात हुआ कि सरकार कानोड व बुडवाना नहीं रखना चाहती है तो उन्होंने उसके लिए प्रार्थना की कि 20 वर्ष के लिए कर्जे के बदले कानोड उन्हें दे दी जाए। सरकार ने इसे स्वीकार कर लिया और जो रुपया हिसाब से अधिक होता था, वह पहले ऋण के सूद में जमा समझ लेने के लिए तय कर दिया गया।

अब राजा साहब ने अपने रियासत के प्रबन्ध की तरफ बहुत ध्यान दिया। सन् 1859 ई० के आरम्भ में एजेण्ट गवर्नर ने तहकीकात की थी जिसका फल यह हुआ कि कई अहलकार निकाले गए। इसके पश्चात् राजा साहब महाराज पटियाला व कमिश्नर अम्बाला की सलाह लेते रहे।

राजा साहब भरपूरसिंह का चाल-चलन आदर्श था। अन्य रईसों की भांति वे ऐयासी से बहुत दूर रहते थे। वे बड़े बुद्धिमान् और उर्वर दिमाग के व्यक्ति थे। यही कारण था कि वह बुरे व्यक्तियों की संगति व सलाह से बचे रहे। कई राज के कार्यकर्त्ताओं की इच्छा थी कि राजा साहब पटियाला और उनमें मनोमालिन्य हो जाए जिससे वे उसका भरपूर लाभ उठा सकें। चूंकि वह समझते थे कि राजा साहब पटियाला से उन्हें उचित सलाहें मिलती हैं जिससे उनके मनसूबों का पूरा होना असम्भव है। पर राजा भरपूरसिंह यह सब समझते थे। उनके जैसे बुद्धिमान को डिगा लेना आसान न था। वे देशी भाषाओं में तो निपुण थे ही, पर समय निकाल कर 3-4 घंटे अंग्रेजी का अभ्यास किया करते थे।

जून सन् 1863 में राजा साहब सख्त बीमार हुए। उन्हें बड़े जोर से बुखार आना शुरू हुआ जो करीब 2 महीने तक उपचार करने से दूर हुआ। पर महाराज ने धार्मिक भाव से गुरुद्वारा तक जो 400 गज है, अस्वस्थता की हालत में ही पैदल यात्रा की थी और कुछ समय बाद जोर पकड़ लिया, जिससे नवीं नवम्बर को उनकी मृत्यु हो गई।

राजा भरपूरसिंह के कोई सन्तान न थी, इसलिए सरकार ने राजा साहब जींद


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-507


और पटियाला से राज्याधिकारी के सम्बन्ध में राय मांगी। दोनों रईसों ने वास्तविक राय जो हो सकती थी, भेजी। उन्होंने लिखा था कि यह बात सभी को ज्ञात है कि राजा साहब हमेशा अपने भाई कुंवर भगवानसिंह को बतौर वारिस मानते थे और उनका बड़ा आदर करते थे। उनके व्यवहार और मृत्यु के समय उनकी मौखिक वसीयत के अनुसार भी कुंवर भगवानसिंह का वारिस होना न्यायोचित है। राजा साहब ने मृत्यु के थोड़े समय पहले ही भगवानसिंह को आदेश किया था - रियासत का प्रबन्ध उत्तमता से नम्रता-पूर्वक करना और सरकार अंग्रेजी का खैरख्वाह बने रहना। रियासतों के अहलकारों से राजा साहब ने कहा था कि - जिस तरह मेरे साथ तुम लोगों ने ईमानदारी और प्रेम-पूर्ण व्यवहार किया है, मेरे भाई के साथ भी वैसे ही पेश आना।

इस आशय की राय पाकर भी सरकार ने इसे स्वीकार न किया। भरपूरसिंह अपने भाई को अपना वारिस बना गए, यह बात कहानी की तरह गढ़ी हुई कही गई।

राजा भगवानसिंह

राजा भगवानसिंह (b.1842. r.1864-d.1871) - 17 फरवरी सन् 1864 को राजा भगवानसिंह गद्दी पर बैठे। इस अवसर पर राजा साहब पटियाला, जींद, नवाब मालेर कोटला एवं और बहुत से रईस उपस्थित थे। सर एडवर्ड हरवर्टस के जनरल लार्ड जार्ज मेजर सी० वी० कमान अफसर फौज अम्बाला आदि बहुत से अंग्रेज भी सम्मिलित हुए थे। इस मौके पर सरकार की ओर से 15 खिलअत, एक घोड़ा और एक हाथी दिया गया। इस प्रकार गद्दी-नशीनी का उत्सव अत्यन्त धूम-धाम से सम्पन्न हुआ।

राजा भगवानसिंह के राज्याधिकारी होते ही उन्हें कई आफतों का सामना करना पड़ा। इधर रियासत के कार्यकर्त्ताओं में फूट पड़ गई, उधर कुछ समय बाद यह समाचार फैला कि राजा भरपूरसिंह को जहर देकर मार दिया गया। पहले तो यह बात छिपी रही पर फिर बड़े जोर से सर्वसाधारण में फैल गई।

भरपूरसिंह के जहर देकर मार देने की बात जांच होने पर बिलकुल निराधार साबित हुई। यह बात सभी लोग जानते थे कि राजा साहब कई महीनों से अस्वस्थ थे पर तो भी कुचक्रियों द्वारा गढ़ी हुई यह बात निर्मूल हुई।

सोन्ती और लढ़रान के मुकदमे की बाबत लिखा जा चुका है। सरकार ने यहां के सिख सरदारों के लिए फैसला भी कर दिया था जो करीब-करीब उन्हीं के पक्ष में था। पर यह झगड़ा राजा भगवानसिंह के जमाने में फिर खड़ा हुआ। कमिश्नर ने महाराज पटियाला और जींद की राय से यह फैसला दिया कि सोन्ती के सिखों को रियासत नाभा उसके बदले में 50,000) रुपया सालाना देती रहे। इस फैसले को सरकार ने भी मंजूर कर लिया था, परन्तु सिख सरदारों ने स्वीकार


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-508


नाभा के किले पर 8 फरवरी 1908 को हुए एक समारोह का चित्र

न किया। उन्होंने विलायत तक इसकी अपील की। आखिरकार सतलज के कमिश्नर ने इस मुकदमे की एक अंतिम रिपोर्ट पेश की और उसको गवर्नमेण्ट हिन्द ने स्वीकार किया।

राजा भगवानसिंह का भी मई सन् 1871 में देहान्त हो गया। यद्यपि आप जब गद्दी पर बैठे तो काफी झगड़े-बखेड़े थे पर आपने बुद्धिमानी-पूर्वक सबका सही सामना किया। वह नि:संतान थे, अतः बड़रूखां खानदान फूल से सरदार हीरासिंह जी 10 अगस्त सन् 1871 ई० को रियासत के अधिकारी हुए।

राजा हीरासिंह

राजा हीरासिंह (1843-1911)

राजा हीरासिंह (b.1843, r.1871-1911) - गद्दी-नशीनी का उत्सव अत्यन्त समारोह के साथ समाप्त हुआ। आपने रियासत की सभी प्रकार उन्नति की और अंग्रेजी सरकार के भी मित्र बने रहे। रियासत की इम्पीरियल सर्विस ने समय-समय पर बहुत सी सेवाएं कीं। प्रजा के लिए आपने बहुत से मकान तैयार कराए। महाराज साहब का स्टेट का प्रबन्ध बड़ा उत्तम था जिससे प्रसन्न होकर टामकेन ने लेफ्टीनेण्ट गवर्नर सूबा पंजाब को लिखा था कि “जब इलाका जींद और पटियाला में लुटेरों का आतंक था, नाभा को ऐसी वारदातों से दूर रहने का सौभाग्य हासिल था। इसका कारण राजा हीरासिंह जी० सी० एस० आई० के सुप्रबन्ध का फल है।” आपने 40 वर्ष तक राज्य किया और 25 दिसम्बर सन् 1911 ई० में आपका स्वर्गवास हो गया जिससे सरकार का एक खैरख्वाह रईस और प्रजा का शुभ-चिन्तक प्यारा राजा सदा के लिए छिन गया।

राजा साहब हीरासिंह बड़े अच्छे चाल-चलन और पवित्र विचार और दयालु शासक थे। आपके 40 वर्ष के शासन-काल में स्टेट की बहुत उन्नति हुई। औषधालय, शिक्षणालय आदि का इन्तजाम भी किया गया। सरकार की ओर से जी० सी० एस० आई०, जी० सी० आई० ई० की उपाधि मिली थी। इनके एक राजकुमार थे, जिसका जन्म 1883 ई० में हुआ था।

महाराज रिपुदमनसिंह

महाराज रिपुदमनसिंह (b.1883, r. 1911-1923 deposed,d.1942) - राजा हीरासिंह की मृत्यु के पश्चात् कुंवर रिपुदमनसिंह गद्दी पर बैठे। आपकी उम्र इस वक्त 29 वर्ष की थी। महाराज रिपुदमनसिंह के योरुप से लौटने पर अर्थात् 24 जनवरी सन् 1912 को सिंहासनारूढ़ होने का समारोह हुआ। महाराज पटियाला और इनमें आपसी मनोमालिन्य के बढ़ने और रियासत के ऋण-ग्रस्त होने के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई कि गद्दी से पृथक् हो जाना पड़ा। जिस समय आप गद्दी से अलग हुए, कुछ अखबारों ने लिखा था कि स्वाभिमान की मात्रा और न झुकने की नीति ने आज महाराज रिपुदमनसिंह जी को ऐसी परिस्थिति में डाला है। बहुत समय तक आपने यह कौशिश की कि सरकार उन्हें नाभा के प्रबन्ध करने का एक


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-509


बार अवसर दे। कुछ दिन आपने अपना नाम रिपुदमनसिंह की बजाय श्री गुरुचरणसिंह जी रख लिया। उस समय आपने दक्षिण भारत के एक किले में निवास किया।

महाराज प्रतापसिंह

महाराज प्रतापसिंह (b.1919,r.1923-1995) - महाराज रिपुदमनसिंह जी के अधिकारच्युत होने के पश्चात् उनके पुत्र प्रतापसिंह जी गद्दी पर बैठाए गए। आपका जन्म सन् 1919 ई० में हुआ था। आप बड़े होनहार थे और नाभा की प्रजा को आपसे बहुत सी आशाएं थीं। आप 13 तोपों की सलामी के अधिकारी थे।

कैथल का भाई खानदान

आरम्भिक बातें और वंश वर्णन

जिस समय सिख-धर्म के प्रवर्तक गुरुनानक (1469 – 1539) इस संसार से विदा हो गए तो उनके बाद अंगदजी गुरु हुए। अंगदजी के पश्चात् अमरदास और फिर रामदास गुरु की श्रेष्ठ पदवी से विभूषित हुए। जिस समय गुरु रामदास जी को गद्दी दी गई थी, उस समय गद्दी देते हुए अमरदासजी ने रामदासजी से एक कार्य करने के लिए कहा था। वह कार्य यह था कि तुंग, सुल्तान पिंड और गुमटाला नामक गांवों के बीच में कई कोस का एक जंगल था। उस जंगल में एक बहुत पुराना तालाब था किन्तु वह मिट्टी से भरा हुआ था। गुरुजी उसे खुदवाकर फिर से जलाशय बनाना चाहते थे। गुरु अमरदासजी रामदासजी को लेकर उस स्थान पर पहुंचे भी। चूंकि वह जगह जाटों की सम्मिलित भूमि थी, इसलिए गुरुजी ने आस-पास के मुख्य-मुख्य जाटों को बुलवाकर उस भूमि को मांगा। जाटों ने जब सुना कि गुरुजी इस स्थान पर निरन्तर पानी रखने वाला तालाब खुदवाना चाहते हैं तो उन्होंने वह जमीन गुरुजी को दे दी। जगह मिलने पर आषाढ़ संवत् 1929 (? 1629) वि० को उस स्थान पर गुरु रामदासजी के हाथ से एक नगर और सरोवर की बुनियाद डलवाई।

उस समय गुरु लोगों की कोई भारी शक्ति न थी। वे अपने उपदेशों से अपना सम्प्रदाय बढ़ाया करते थे। रामदासजी के भी आस-पास अनेक हिन्दू और विशेषतया जाट शिष्य हो गए। इन्हें जाट शिष्यों में एक भाई भगतू थे। यह बिड़ार-वंशी जाट थे। इनके पिता का नाम ओम् था। भगतूजी इतने ईश्वर-भक्त और गुरु-भक्त थे कि लोग उनके असली नाम को भूल गए और वे भगतू के नाम से ही मशहूर हो गए। रामदासजी इस चिन्ता में थे कि तालाब किस भांति खुदे। उनके पास कोई साधन न था। ओम् गुरुजी की इस चिन्ता से दुःखी हुए, किन्तु वह भी कोई वैभव सम्पन्न व्यक्ति न थे। हां, उनके पास साहस था इसलिए वह स्वयं


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-510


कैथल का किला

तालाब खोदने में लग गए। और भी कुछ मनुष्य तालाब की खुदाई करते थे किन्तु वे मजदूरी लेते थे। ओम् धार्मिक कृत्य समझकर खोदते थे। गुरु रामदासजी ओम् की भक्ति से बहुत प्रसन्न हुए और आशीर्वाद दिया कि तेरा पुत्र बड़ा प्रतापी होगा। दैवयोग से बात ऐसी ही हुई। ओम् के सुपुत्र भगतू के नाम से आज सारा पंजाब परिचित है।

गुरु रामदासजी की मृत्यु के पश्चात् गुरु अर्जुन गद्दी पर विराजे। भगतू ने सिख धर्म की और गुरुजी की बहुत सेवाएं कीं। समस्त सिख भगतू को श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। भगतू के सम्बन्ध में एक बड़ी विचित्र बात कही जाती है। गुरु हरिराम ने इनसे कहा कि तुम मेरे ही सामने शरीर छोड़ दो। भगतू ने यह बात मान ली और करतारपुर में जो कि इलाका जालन्धर में है, पृथ्वी में समा गया। कुछ काल बाद गुरु हरीराम उधर से फिर गुजरे। भगतू की समाधि के पास आकर कहने लगे कि ऐ सिख वीर भगतू! हमें दर्शन दे। भगतू गुरु की इस बात को सुनकर समाधि में से जिन्दा निकल आए। गुरुजी से वार्तालाप करने के बाद फिर समाधि में समा गए। गुरु ने आशीर्वाद दिया कि तुम्हारी संतान के लोग वैभवशाली और राजा होंगे।

भगतू का खानदान भाई के नाम से भी मशहूर है। इसका कारण यह बताया जाता है कि गुरु अर्जुन ने भगतू की भक्ति से प्रसन्न होकर भाई की उपाधि दी। भगतू के दो बेटे हुए - संतदास और गोरा

संतदास, जिसका कि दूसरा नाम जीवनसिंह भी था, की औलाद के लोग भटिण्डा की ओर चले गये और वहां जाकर उन्होंने राज्य स्थापित कर लिया।

गोरा की संतान के लोगों ने कैथल और दूनोली के परगने को अपने कब्जे में कर लिया और राजा बन बैठे।

गोरा के महासिंह, किशनसिंह, माईदास और दयालसिंह नाम के चार पुत्र हुए। जिसमें किशनसिंह, महासिंह की संतान के लोग भटिंडा की ओर चले गए और माईदास निःसन्तान मर गए।

भाई दयालसिंह के छः पुत्र हुए। उनके सुक्खासिंह, धनसिंह, गुरुदाससिंह, देसूसिंह, बुद्धासिंह और बख्तसिंह नाम रखे गये थे।

सुक्खासिंह के दो पुत्र हुए - विसावासिंह और गुरुदत्तसिंह।

उनसे छोटे भाई धनसिंह के कर्मसिंह और चड़तसिंह नामक पुत्र हुए।

लालसिंह और सुजानसिंह नाम के दो पुत्र देसूसिंह के हुए।

बुद्धासिंह के कोई संतान न थी। बख्तसिंह के दालसिंह नाम का एक ही पुत्र हुआ।

कैथल पर अधिकार देसूसिंह की संतान का था। लालसिंह उनका बड़ा पुत्र कैथल का राजा था। उसके राज्य की आमदनी चार लाख थी।

सुक्खासिंह के पुत्र विसावासिंह के पास भी बीस गांव थे।

लालसिंह के दो पुत्र हुए - उदैसिंह और प्रतापसिंह। दोनों ही निःसन्तान मर गये। लालसिंह की मृत्यु संवत् 1901 विक्रमी अर्थात् 1846 ई० में हो गई। इस समय तक महाराज रणजीतसिंह पंजाब


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-511


केसरी का स्वर्गवास हो चुका था और लाहौर की गद्दी पर नाटक हो रहा था।

उदैसिंह के पश्चात् उसकी रानी महताबकुंवरि राज्य की मालिक बनीं। वह बड़ी वीर प्रकृति की थी और अंग्रेजों से भी लड़ बैठी। अंग्रेजों की शक्ति के मुकाबले में बेचारी क्या कर सकती थी, हार निश्चित थी। सेना तितर-बितर हो गई। फिर भी आपके दिल में आशा था, अतः आप मैदान से निकल भागीं। सेना इकट्ठी करने लगी। किन्तु अंग्रेजी सेना ने आपको पकड़ लिया। उसका कैथल राज्य जब्त कर लिया गया।

उदैसिंह ने भाई विसावासिंह को गोद लिया पुत्र बना लिया था। सरकार ने उसको चौबीस हजार सालाना का इलाका दे दिया और रानी महताबकुंवरि की बीस हजार वार्षिक की पेन्शन कर दी। इसी बीस हजार में से उदैसिंह के भानजे चूहड़सिंह को भी रानी साहिबा को देना पड़ता था। पोदा नाम के गांव में आपके रहने के लिए स्थान नियुक्त हुआ। इस स्थान पर उदैसिंह जी की बनाई एक कोठी थी जिसमें पत्थर का बहुत ही अच्छा काम किया गया था। पीछे से यह स्थान अंग्रेजी इलाके में मिला लिया गया। विसावासिंह और उसके पुत्र अरनोली में रहने लगे। संगतसिंह और उनकी संतान के लोग इलाका सिद्धूवाल के अधिकारी रहे।

'सैरे पंजाब' के लेखक ने कैथल के राज-वंश की सूची इस प्रकार दी है।

कैथल राजवंश

कैथल राजवंश

भाई भगतू < जीवनासिंह और गौरासिंह, जीवनासिंह के भाई संगतसिंह, गौरासिंह के महासिंह, किशनसिंह, माईदास, दयालसिंह, महासिंह के दयालसिंह और मुहरसिंह, किशनसिंह के अमरसिंह, दयालसिंह के गुरुबख्तसिंह, इनके सुक्खासिंह, धनासिंह गुरुदाससिंह, देसूसिंह, बुद्धासिंह, बख्तासिंह, इनके दालासिंह। धनासिंह के करमसिंह और चड़तसिंह। देसूसिंह के लालासिंह और सुजानसिंह।

अमरदास (लावल्द)। उदैसिंह (लावल्द)। प्रतापसिंह (लावल्द)।

सुक्खासिंह की वंशावली → 1. बहादुरसिंह - इनके दो रानी थीं - सदाकौर, देसूरानी। 2. गुलाबसिंह (इनके दो पुत्र हुए - जसमीरसिंह, नौनिहालसिंह) 3. पंजाबसिंह 4. संगतसिंह (इनके एक पुत्र अलवानसिंह हुआ)।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-512


जाटों की कई छोटी-छोटी रियासतें : जब्तियां

कैथल की भांति जाटों की और भी कई छोटी-छोटी रियासतें अंग्रेजी सरकार द्वारा जब्त कर ली गईं। 'सैरे पंजाब' के लेखक ने उन रियासतों का उल्लेख किया है जो सन् 1845-46 ई० तक जब्त कर ली गईं। ये सारी रियासतें उन लोगों की थीं, जो महाराजा रणजीतसिंह के विरुद्ध अंग्रेज सरकार ने अपने मित्र तथा मांडलिक राज्यों को गोद लेने का अधिकार नहीं दिया था, इसलिए अधिकांश राज्य लावल्दी में जब्त किए गए। उनमें से कुछ एक जाट-राज्यों का वर्णन प्रस्तुत है।

  • (1) जिला अम्बाला में विलासपुर में जाट-राज्य था। रानी दयाकुंवरि के नि:सन्तान मरने के कारण इस राज्य को सरकार ने अपने अधिकार में कर लिया। यह घटना सन् 1819 ई० की है। कलसिया के महाराज शोभासिंह जी ने अपने अधिकार का दावा पेश किया, किन्तु सन् 1820 में उनका दावा खारिज हो गया।
  • (2) अम्बाला खास में भी रानी दयाकुंवरि का राज था। यह रानी साहिबा सरदार गुरुबख्शसिंह की रानी थीं। सरदार साहब बड़े योद्धा थे। उन्होंने अपने बाहुबल से मुसलमान हाकिमों को निकालकर इन स्थानों पर अधिकार किया था। रानी साहिबा के मरने पर सन् 1823 ई० में अंग्रेज सरकार ने अम्बाले को भी अपने राज्य में मिला लिया।
  • (3) जगाधड़ी - यह इलाका सन् 1832 ई० में रानी दयाकुंवरि के मरने पर सरकार ने जब्त कर लिया था। यह रानी सरदार भगवानसिंह की धर्मपत्नी थी। यह रियासत सब तरह से धन-धान्य से पूर्ण थी।
  • (4) मुबारिकपुर - सन् 1833 ई० में सरदार शोभासिंह की रानी रूपकुंवरि की मृत्यु के पश्चात् जब्त कर लिया गया।
  • (5) मोरंडा - यह इलाका जींद खानदान के लोगों के अधिकार में था। सन् 1834 ई० में लुधियाने के साथ ही राजा गजपतिसिंह के पश्चात् जब्त किया गया था।
  • (6) कोटरा - इन प्रदेशों के अधिकारियों ने सन् 1808-9 में अंग्रेज सरकार से अपनी रक्षा के लिए मित्रता की थी। इनके अलावा और भी अनेक छोटे-छोटे सरदार थे, जिन्होंने अंग्रेजों की शरण मांगी थी। उनमें से सन् 1845 और सन् 1846 के

नोट - सदाकुंवरि की संतान के जाट अरनोली के इलाके के मालिक बने।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-513


बाद तक जो बचे रहे, उनमें से अब भी बाकी हैं, क्योंकि इस समय के बाद सरकार ने गोद लेने का अधिकार दे दिया था।

शासन-व्यवस्था, जाट राज्यों के सिक्के

जींद राज्य के सिक्के
जींद राज्य के सिक्के

शासन व्यवस्था - इन राज्यों में शासन का ढंग आज का जैसा न था। राज्य कर भी नकद रुपयों में न लिया जाता था। उसके भी ढंग ऐसे थे जैसे कि राजस्थान के जागीरदार और ठिकानेदारों के। लगान पैदावार के हिसाब से लिया जाता था, जिसे बटाई कहते थे। बटाई का काम चौधरी के सुपुर्द रहता था। सरदार या राज के हिस्से का अन्न या तो राजधानी भेज दिया जाता था या गांव में ही रखा रहता था। राज को जब जरूरत पड़ती थी, ले लेता था। गांव में एक पटेल होता था, जो गांव के झगड़े को भी निबटाता था। अकाल के समय सरदारों की ओर से प्रजा को नाज बांट भी दिया जाता था। सरदार अपने इलाके के लोगों को विश्वास दिलाता था कि वह उनकी अन्य लुटेरों से रक्षा करेगा। इन सरदारों अथवा इलाकेदारों की कई किस्में थीं। वे सरदार, जेलदार, पत्तीदार, ताबेदार, जागीरदार और माफीदार के नाम से मशहूर थे। सरदार के अधीन एक पूरा दल रहता था, वह अपने बाहुबल से सरदारी प्राप्त करता था। जेलदार के अधीन सेना तो रहती थी, किन्तु वह एक छोटे से परगने का हाकिम समझा जाता था। पत्तीदार उसे कहते थे जो अपनी बहादुरी के बदले में किसी सरदार से उस माल अथवा भूमि का हिस्सा पाता था, जिसके प्राप्त करने में उसने सहयोग दिया है। इन्हें सरदार को आवश्यकता पड़ने पर सहायता देनी पड़ती थी। ताबेदार को किसी सरदार के साथ रहने से पहले प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी कि वह किसी दूसरे सरदार के साथ उसे छोड़कर सम्मिलित न होगा।

जाट राज्यों के सिक्के

महाराजा रणजीतसिंह के सिक्के
महाराजा रणजीतसिंह के सिक्के

पंजाब के बड़े-बड़े जाट राजाओं ने अपने यहां टकसालें स्थापित की थीं। उनके राज्य में उनके ही सिक्के चलते थे। पंजाब केसरी महाराज रणजीतसिंह जी के सिक्कों की बात तो सभी लोग जानते हैं। किताब 'सैरे पंजाब' के लेखक को कुछ सिक्के पंजाब के सिख जाटों के मिले थे। उसने लिखा है - और जब यह सरदारान सिख इस मुल्क में फैल गए, हरेक ताइफउल्मुल्क हो गया और दारुलजरब अपनी-अपनी रियासतों का बतौर खुद जारी करके रुपया सिक्का जुदागाना जारी कर दिया। चुनांचे बहुत किस्म के सिक्का रुपया इस दुआवा सतलज अथवा यमुना में हमने जारी पाये। उनकी जिस कदर तफसील मालूम हुई व कैद मरुजा कीमत हाल जैल


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-514


हैं। इन सिक्कों के अक्षर पढ़ने में नहीं आते हैं।1

कलसिया

लाहौर जिले की कसूर तहसील में मंझा ग्राम है, कलसिया उसी में से बसा हुआ है। इस वंश के प्रवर्त्तक सरदार गुरबख्शसिंह करोरासिंघिया मिसिल के एक प्रसिद्ध व्यक्ति तथा चलौदी के मशहूर सरदार बघेलसिंह के साथी सिन्धू जाट थे। होशियारपुर के गवर्नर अदीनाबेग पर धावा करके जब सन् 1760 में मांझा के सिखों ने बम्वेली को छुड़ाया था, तब यह भी उस धावे में मंझा के सिखों के साथ गए थे। बघेलसिंह के मरने के बाद उनका पुत्र जोधसिंह मिसिल का प्रधान बना। इसने अपनी चतुराई और व्यक्तिगत साहस से अम्बाला के उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया था। इसके अलावा बसी, छछरौली और चिराकू के इलाके भी तथा और प्रदेश भी जो पीछे पृथक् हो गए, इन्होंने अपने अधिकार में कर लिए थे। जोधसिंह के राज्य की सालाना आमदनी उसके यौवन-काल में पांच लाख से भी अधिक थी। फुलकियां मिसिल के प्रधान के बराबर ही यह अपना रुतबा समझते थे और बहुधा नाभा, पटियाला से युद्ध भी करते रहते थे। पटियाला के राजा साहबसिंह ने इनके द्वितीय पुत्र हरीसिंह को अपनी पुत्री का पाणिग्रहण कराके इनको अपना मित्र बना लिया। सन् 1807 में जब महाराज रणजीतसिंह ने अम्बाला के निकट नारायणगढ़ पर धावा किया था तो सरदार जोधसिंह भी महाराज के साथ युद्ध में गए। महाराज ने इनको बदाला, खेरी और शामचपल की जागीर इनाम में दी थीं। सन् 1818 के मुल्तान के घेरे में जब यह फौज के कमाण्डर थे, उसी स्थान पर इनका देहान्त हो गया। इनका अधिकारी पुत्र शोभासिंह इनके रिश्तेदार पटियाला के राजा करमसिंह की देख-रेख में कुछ वर्षों रहा था। इन्होंने पचास साल तक राज किया और इनका देहान्त गदर के बाद ही हो गया था। सन् 1857 में इन्होंने तथा इनके पुत्र लेहनासिंह ने अंग्रेज सरकार की अच्छी सेवा की थी। इन्होंने सौ आदमियों की टुकड़ी सहायता को भेजी थी जो अवध को भेजे गए थे। देहली से ऊपर जमुना में कुछ नावों को सुरक्षित रखने में भी इन्होंने सहायता की थी और दादूपुर में इसने एक पुलिस का थाना भी नियुक्त किया था और कालका, अम्बाला और फीरोजपुर की मुख्य-मुख्य सड़कों पर अंग्रेजों की रक्षा करने के लिए भी इन्होंने प्रबन्ध कर दिया था। सरदार लेहनासिंह का देहान्त सन् 1869 में हो गया। इनके बाद सरदार


1. किताब 'सैरे पंजाब' के दो भाग हैं जो उर्दू में लिखी हुई है। दूसरे भाग के लेखक मुंशी तुलसीराम सुपरिन्टेंडेण्ट बन्दोबस्त पंजाब हैं। यह किताब सन् 1872 ई० में लिखी गई थी।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-515


कलसिया राज्य की कोर्ट-फीस की स्टैंप

बिशनसिंह गद्दी पर बैठे जो नाबालिग थे। बिशनसिंह को जींद के महाराज की लड़की ब्याही थी। बिशनसिंह की मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र जगजीतसिंह के मर जाने के कारण जगजीतसिंह के छोटे भाई रणजीतसिंह गद्दी पर बैठे। जगजीतसिंह सन् 1886 में सात साल की उम्र में ही मृत्यु को प्राप्त हो गया था। रणजीतसिंह की नाबालिगी के समय में देहली के कमिश्नर की देख-रेख में रियासत के तीन अफसरों की कौंसिल द्वारा रियासत का प्रबन्ध होता था। यह रियासत सन् 1891 में विधिवत् स्थापित हुई क्योंकि भारी टैक्सों के कारण इसकी स्थिति बिगड़ गई थी और रिआया बहुत गरीब हो गई थी। रियासत के नशीली वस्तु के महकमे का प्रबन्ध 6000 रुपये सालाना पर अंग्रेज सरकार को ठेके में दे दिया गया। सन् 1906 में बालिग होने पर सरदार को पूर्ण अधिकार प्राप्त हो गए। सन् 1908 की जुलाई में सरदार रणजीतसिंह का देहान्त हो गया। इनके बाद इनके बालक पुत्र रविशेरसिंह गद्दी पर बैठे। इनकी नाबालिगी के जमाने में इनके पिता के समय ही रियासत का प्रबन्ध देहली के कमिश्नर की देख-रेख में एक कौंसिल द्वारा संचालित होता रहा है। सतलज के दोनों ओर के मुख्य-मुख्य सिख-घरानों में इस वंश के विवाह सम्बन्ध होते रहे हैं।

कलसिया के सरदार को शासन में फांसी की सजाओं के अतिरिक्त पूर्ण अधिकार प्राप्त थे। फांसी के सजा के लिए देहली के कमिश्नर की मंजूरी लेनी आवश्यक थी। सरदार जोधसिंह ने 1809 के आम प्रबन्ध को मंजूर कर लिया था जिसके अनुसार सतलज के सरदार अंग्रेज सरकार के संरक्षण में माने गये थे। सरदार शोभासिंह ने सन् 1821 में सतलज के उत्तर के कुछ प्रदेश लाहौर सरकार को, कुछ रकम देने के बोझ को हटाने के लिए, दे दिए थे। इसने दोनों ही सिख-युद्धों में पूरी सहायता दी थी और बहुत से अन्य कार्यों में भी सरकार की ओर राजभक्ति प्रदर्शित की थी। राहदारी-कर इनके समय में उठा दिया गया था और इसके एवज में रियासत को 2,851 रुपये सालाना मिलने लगा। सन् 1862 में उसके पुत्र लेहनासिंह को तथा उसके उत्तराधिकारियों के लिए असली वारिश न होने की सूरत में गोद लेने की सनद मिल गई।

पंजाब की रियासतों में कलसिया का नम्बर सोलहवां है और इसके रईस को वायसराय द्वारा स्वागत किए जाने का हक है।

सर लैपिल ग्रिफिन साहब ने कलसिया का वंश-वृक्ष निम्न प्रकार दिया है -

1. शोभासिंह, 2. हरीसिंह और करमसिंह > सरदार जोधासिंह > शोभासिंह के 1. लेहनासिंह 2. मानसिंह, हरीसिंह के देवीसिंह, इनके उमरावसिंह > राजेन्द्रसिंह। लेहनासिंह के बिशनसिंह। मानसिंह के जगजीतसिंह और लालसिंह, बिशनसिंह के जगजीतसिंह तथा रणजीतसिंह के रावशेरसिंह।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-516


विशेष - इस रियासत का क्षेत्रफल 138 वर्गमील था और जनसंख्या 67,181 थी। इसकी उगाही 190725) रु० और 121 फौजी जवान तथा 2 तोपें भी थीं।

इनके अतिरिक्त पंजाब में जाटों की अनेक छोटी-छोटी रियासतें हैं जिन्हें जागीरदार अथवा ठिकानेदार कह सकते हैं। इनमें से अधिकांश ने अपना राज्य तलवार के जोर पर ही कायम किया था, किन्तु पंजाब में अंग्रेजी राज्य कायम हो जाने पर तथा महाराज रणजीतसिंह के राज्य को अंग्रेजी सरकार द्वारा जब्त किए जाने के बाद इन रियासतों को मौजूदा रूप दे दिया गया। उसमें से कुछेक का वर्णन निम्न प्रकार है -

भगोवाला

भगोवाला खानदान कहिलान जाट गोत्र में से है। इनके पूर्वज उज्जैन के शासक थे। कहिलान खानदान का संस्थापक इसी नाम का एक जाट सरदार था और इनकी ग्यारहवीं पीढ़ी में भगो पैदा हुए। यह पंजाब में चले आए और इन्होंने जिला गुरदासपुर में बटाला के समीप भगोवाला नामक ग्राम बसाया, इसी जागीर का नाम भी भगोवाला ही पड़ गया है। सरदार मिहांसिंह के पिता रामसिंह सरदार बाघसिंह बाघ के साथी थे जिन्होंने कि इनको सन् 1795 में भूगाथ और खातब नाम के दो गांव दिए। भागसिंह की मृत्यु के पश्चात् उनके भाई सरदार बुधसिंह बाघ के साथ रामसिंह की सेवा करते रहे। सन् 1809 में रणजीतसिंह ने भाग-रियासत के एक बड़े भाग पर अधिकार कर लिया और भगोवाला के अन्य स्थानों के साथ उन्होंने इसे सरदार देसासिंह मजीठिया को जागीर में दे दिया। रामसिंह सरदार देसासिंह की फौज के साथ सन् 1809 में कांगड़ा महाराज रणजीतसिंह के पक्ष में गए। किन्तु गोरखों के साथ होने वाले प्रथम युद्ध में ही यह मारे गए। उस समय इनके पुत्र मिहांसिंह नाबालिग थे, लेकिन देसासिंह उन्हें भूला नहीं और जब वे हथियार पकड़ने योग्य हो गए तो उन्हें अपने पुत्र सरदार लेहनासिंह की संरक्षता में सैनिक-विद्या प्राप्त कराने लगे। जब यह सरदार पहाड़ी जिलों के गवर्नर बनाये गए तो मिहांसिंह के लिए मंडी, कुलू, सुकेत, कांगड़ा, विलासपुर नदौन के राज्य-कर में से 2200) वार्षिक देना स्वीकार किया गया। सन् 1825 ई० में सरदार लहनासिंह और जमादार खुशालसिंह के साथ चौकी कोटलेहड़ की चढ़ाई में ले गए। उस राज्य के साथ इनकी पुरानी मित्रता थी इस कारण उससे किले की


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-517



चाबियां दिलाने में समर्थ हुए। किला बड़ा मजबूत था, तो भी बिना खूंरेजी के वह किला इस प्रकार उनके हाथ में आ गया। जमादार खुशालसिंह ने उस राजा की इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया कि उसके गुजारे के लिए कोई जागीर दे दी जाए। सन् 1882 ई० में देसासिंह की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र ने मिहांसिंह को अपनी जागीर में रख लिया और वह पेशावर पर धावा करने के लिए गया तो इनको अमृतसर में थानेदार बनाया गया। लेहनासिंह जी ने इनकी 1650) की जागीर और बारह सौ की पेन्शन कर दी। मिहांसिंह के पुत्र गुलाबसिंह, लेहनासिंह मजीठिया के तोपखाने में तोपखाने के अफसर नियुक्त हुए। महाराज रणजीतसिंहजी की मृत्यु तक तो भगोवाला सरदार मजीठिया सरदारों के यहां केवल जीवन-निर्वाह करने वाले सरदार ही रहे, किन्तु महाराज शेरसिंह के गद्दी पर बैठते ही गुलाबसिंह फौज के कर्नल हो गए। उनकी कमांड में 11 तोपें भी दी गईं। मासिक वेतन के सिवा 2116) की जागीर भी दी। राजा हीरासिंह जिन दिनों मंत्री हुए, उस समय गुलाबसिंह फौज के जनरल थे। उस समय उनका वेतन 3458) था जिनमें से एक हजार रुपया नकद मिलते थे और बाकी के लिए खाराबाद और लुहेका दो गांव दिए गए जिनसे कि 1458) वसूल होता था। जिस समय सिख-साम्राज्य के मंत्री सरदार जवाहरसिंह हुए तो उनका वेतन तो इतना ही रहा, किन्तु कमान में तोपों की संख्या बारह सौ हो गई। जब सरदार लेहनासिंह मजीठिया दूसरे सिख-युद्ध से हट गए तो गुलाबसिंह ने भी हटना चाहा। किन्तु आज्ञा न मिली और वे गुगेरा के मजिस्ट्रेट बनाये गए जहां पर कि वह स्थायी रूप से रख दिए। कारण यह था कि मुल्तान युद्ध के समय उनकी नियुक्ति से उस नाजुक समय में सरकार को उनसे बहुत कुछ मदद मिली। सन् 1853 ई० में गुलाबसिंह, सरदार लेहनासिंह मजीठिया के साथ काशी और दूसरे तीर्थों की यात्रा को गए। दूसरे ही साल उनके साथी की मृत्यु हो जाने के कारण घर को वापस हुए। सन् 1863 में यह सरदार लेहनासिंह के पुत्र दयालसिंह के संरक्षक नियुक्त हुए। इससे पहले वे अमृतसर जिले के अन्तर्गत नौशेरा नंगल के सरदार जस्सासिंह के नाबालिग पुत्र रूरसिंह के संरक्षक थे। कुछ वर्षों के लिए वे सांसी के राजा सरदार शमशेरसिंह सिंधानवालिया के गोद लिए हुए पुत्र सरदार बख्शीशसिंह के संरक्षक रहे। थोड़े समय के लिए सिखों के गुरुद्वारे अमृतसर के मैनेजर भी रहे थे। उनके पिता की मृत्यु के बाद सरदार मिहांसिंह ऑनरेरी मजिस्ट्रेट ने सन् 1870 में खानदानी जागीर जिसकी कीमत तीन हजार रुपये थे, ले ली। फिर भी सन् 1877 ई० में सरदार गुलाबसिंह जी की सेवाओं व राजभक्ति के कारण आधी उनके लिए दे दी गई। सन् 1882 ई० में इनकी मृत्यु हो गई। उनका उत्तराधिकारी उनका पुत्र सरदार रिछपालसिंह हुआ जो सन् 1870 में नाइब तहसीलदार नियुक्त हुआ। ये 1875 में मुंसिफ हो गए। कुछ साल बाद ही इन्होंने यह पद त्याग दिया और अपनी मृत्यु


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-518


पर्यन्त भगोवाला ही में रहे। इनकी मृत्यु सन् 1908 में हुई। इनका सरदार बदनसिंह जी से रिश्ता सम्बन्ध था जो भदाना के रहने वाले थे और प्रान्तीय दरबारी थे। सरदार गोपालसिंह ने अपने भतीजे के ज्येष्ठ पुत्र गुरुबख्शसिंह को गोद ले लिया था। रिछपालसिंह के द्वितीय पुत्र पृथ्वीपालसिंह के लिए डाइरेक्ट कमीशन का वचन दे दिया गया था।

रिछपालसिंह के छोटे भाई विशनसिंह नाइब तहसीलदार नियुक्त हो गए थे किन्तु उन्होंने अस्वस्थ होने के कारण पद त्याग दिया। सन् 1904 में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी 300 एकड़ जमीन की जायदाद पर उनके तीन पुत्रों का अधिकार हुआ जिनमें छोटे पुत्र शमशेरसिंह को पुलिस में नियुक्त किए जाने को चुन लिया गया था।

सरदार रिछपालसिंह को उनकी सेवाओं के उपलक्ष में दस मुरब्बे जमीन जिला लायलपुर में दी गई और उन्होंने पटियाला रियासत में खेरी मनीया नामक गांव भी खरीद लिया। इस वंश के पास जिला गुरदासपुर के पांच गांवों में 850 एकड़ भूमि है और कांगड़ा के गाजीयां स्थान में एक छोटा चाय का बाग भी इनके अधिकार में है। उनके पास एक सम्मिलित मुआफी जिला गुरदासपुर में भगोवान में 200 एकड़ भूमि की भी है। मुआफी और जागीरों से लगभग 3676) रु० सालाना की आमद हो जाती है तथा रिछपालसिंह को 622) रु० सालाना की पेंशन भी मिलती थी। मि० ग्रिफिन ने इस खानदान का वंश-वृक्ष निम्न प्रकार दिया है -

ध्यानसिंह रामसिंह। इनके अनोखासिंह, मिहांसिंह, खजानसिंह, काहनसिंह। मिहांसिंह के गुलाबसिंह, जैसिंह, हीरासिंह। गुलाबसिंह के कृपालसिंह, रिछपालसिंह, किशनसिंह, इनके समीरसिंह तथा शमशेरसिंह। इनके हरचरनसिंह, समीरसिंह के गुरुवचनसिंह तथा परशोत्तमसिंह। रिछपालसिंह के गोपालसिंह, पृथ्वीपालसिंह तथा विक्रमाजीतसिंह और गोपालसिंह के गुरुवचनसिंह।

रांगर

इस खानदान का निकास बीकानेर (राजपूताना) से है और ये लोग गुरुदासपुर के उपजाऊ जिले में बस गये, जहां कि इन्होंने बटाला के निकट रांगल नांगल नाम का गांव बसा लिया। रांगर उस गोत का नाम है जिसमें से कि राजा जगत ने इस वंश की नींव डाली थी। नांगल संस्कृत के मंगल शब्द का अपभ्रंश है जिससे यह प्रकट होता है कि ये लोग घूमते-घामते ऐसे अच्छे स्थान पर बस गए, जहां कि इन्हें सन्तोष मिला।

बहुत बरसों के बाद रनदेव का बेटा नत्था सिख-धर्म में दीक्षित हो गया और कन्हैया मिसल में जैसिंह की कमान में सम्मिलित होकर रांगर नांगल के इर्द-गिर्द के समस्त प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया और एक किला बना लिया। उनके


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-519


बाद उनका बेटा करमसिंह उत्तराधिकारी हुआ और इन्होंने भी इस वंश की खूब उन्नति की। इन्होंने रांगर नांगल के किले को फिर से बनवाया और मजबूत किया और ये अमृतसर में रहने लग गए जहां कि इन्होंने एक कटरा बसाया जिसे कटरा करमसिंह अथवा कटरा रांगर नांगल कहते हैं। जब रणजीतसिंह शक्ति-सम्पन्न हो गए और उन्होंने लाहौर तथा अमृतसर पर अपना अधिकार कर लिया तो करमसिंह ने उनकी आधीनता स्वीकार कर ली और सदैव को महाराज के आज्ञाकारी सेवक बने रहे। हां, केवल एक मौके पर ही इन्होंने महाराज से झगड़ा किया। यह घटना इस प्रकार है कि करमसिंह महाराज रणजीतसिंह की फौज के कप्तान थे और चूंकि उस प्राचीन समय में सरदार के पास अधिक रुपया खर्च के लिए नहीं था, अतः फौजों की तनुख्वाह बाकी रह गई। इस पर करमसिंह ने फौज का पक्ष लिया और महाराज रणजीतसिंह से वेतन चुकाने के लिए कहा। महाराज ने यह खयाल करके कि कहीं बगावत न हो जाए, रानी महताव कौर के जेवर बेच कर फौज का वेतन चुका दिया। किन्तु बाद में महाराज ने करमसिंह को इस प्रकार फौज का पक्ष लेने के कारण दण्डित किया। उसके घर अमृतसर को लूट लिया और बरबाद कर दिया। किन्तु पीछे राजीनामा हो गया और करमसिंह महाराज के साथ अधिकतर युद्धों में साथ जाते रहे। पेशावर के धावा में उन्होंने बड़ी बहादुरी दिखाई जहां पर कि वे बहुत ही जख्मी हो गए थे और अपनी इस सेवा के उपलक्ष में जालन्धर-दोआब में इन्होंने एक नई जागीर प्राप्त कर ली। एक मौके पर उनके अधिकार में कई लाख रुपये की रियासत थी जो कि अधिकतर गुरुदासपुर जिले में ही अवस्थित थी। इनके बाद इनका पुत्र जमीयतसिंह अधिकारी हुआ जो कि अरसे से फौज में था और महाराज उसे उसकी वीरता के कारण प्रिय मानते थे। इनके छोटे भाई वजीरसिंह को सन् 1821 में भीमबार में एक जागीर मिली। सन् 1820 में दरबन्द-युद्ध के समय जमीयतसिंह तथा उनका भतीजा रामसिंह दोनों ही हजारा की लड़ाई में मारे गए और उनकी मृत्यु के बाद जागीरें आधी से भी कम कर दी गईं।

अर्जुनसिंह अभी तक एक बलवान सरदार बना हुआ था और जब तक रणजीतसिंह और नौनिहालसिंह जीवित रहे वह इसी प्रकार अपनी शक्ति स्थिर रख सका। फिर शेरसिंह के शासन ग्रहण करते ही उसकी जागीर पुनः कम कर दी गई और उसके लिए केवल 28000) रु० ही शेष रह गए जिनमें से 15000) तो उनको व्यक्तिगत रूप से मिलते थे और 13000) रु० तीस सवार राज्य की सेना में रखने पर ही दिए जाने की शर्त थी। अर्जुनसिंह की मां, खडगसिंह की विधवा तथा नौनिहालसिंह की माता रानी चांदकौर की चाची थीं और यही रिश्तेदारी महाराज शेरसिंह की रंजिश का कारण हुई। सतलज के धावे से पूर्व सन् 1845 में राजा लालसिंह ने अर्जुनसिंह को चार रेजीमेण्टों का कमाण्डर बना


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-520


दिया था जिनमें से एक रेजीमेण्ट पैदल सेना की थी और एक घुड़सवारों की और इस फौज के साथ ही इन्होंने सोवरांव युद्ध में भाग लिया था। सन् 1846 में इन्होंने काश्मीर-युद्ध में भाग लिया और अगस्त 1847 में ये राजा शेरसिंह अटारी वाला के साथ मुल्तान गए और उनके साथ बगावत में शरीक हो गए। उनके कुटुम्बियों ने जब यह सुना तो वे भी उनका साथ देने आगे बढ़े और दरबार-फौज की दो कम्पनियों को हरा कर जो कि उनकी रियासत पर हमला करने भेजी गईं थीं, रांगर नांगल के किले की रक्षा करने में सफल हुए। किन्तु 15 अक्टूबर को ब्रिगेडियर ह्वीलर ने इस पर चढ़ाई करके जीत लिया। लड़ाई के बाद सन्धि होने पर अर्जुनसिंह की तमाम जायदाद जब्त कर ली गई और रांगर नांगल की जागीर सरदार मंगलसिंह रामगढ़िया को दे दी गई, क्योंकि उन्होंने हरीसिंह को जीतने में पूरी सहायता दी थी जो कि लड़ाई के समय बटाला के इर्द-गिर्द हल्ला-गुल्ला मचाता रहा था।

अर्जुनसिंह को 1500) रु० की पेंशन दी गई किन्तु यह वैयक्तिक थी अतः सन् 1859 में इनकी मृत्यु हो जाने के बाद पेंशन बन्द कर दी गई। सरदार बलवन्तसिंह के द्वितीय भतीजे नाभा के राजा भगवानसिंह के सिफारिश करने पर अंग्रेज सरकार ने अर्जुनसिंह की दोनों विधवा रानियों को हर एक को 120) रु० सालाना की पेंशन देना मंजूर किया। नाभा से कुछ सहायता इस वंश को मिली थी।

अर्जुनसिंह ने दो बेटे अपने पीछे छोड़े थे जिनमें ज्येष्ठ पुत्र बलवन्तसिंह प्रान्तीय दरबारी और रांगर नांगल का जेलदार था। यह और इसका भाई सम्मिलित रूप से अमृतसर और गुरुदासपुर जिलों में लगभग 1500 एकड़ भूमि के मालिक थे। नाभा के राजा भरपूरसिंह ने इनको रोही और बूरा कलां मौजों के जागीरी स्वत्व दिए। किन्तु वर्तमान राजा ने इनको ले लिया और रोही की आमद केवल अतरसिंह के अधिकार में रहने दी। अतर का देहान्त सन् 1903 में हो गया और ये दो पोते छोड़ मरे जो अब भी नाबालिगी की सूरत में नाभा में रह रहे हैं। सरदार बलवन्तसिंह फरवरी 1908 में मृत्यु को प्राप्त हो गए और दो नाबालिग पुत्र छोड़ गए। अतः जागीर का प्रबन्ध कोर्ट आफ वार्ड्स के अधीन हो गया। इस वंश को अंग्रेज सरकार की ओर से कोई जागीर या भत्ता नहीं दिया गया।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-521


रनदेव का वंश-वृक्ष

सर लेपिल ग्रिफिन के अनुसार इस कुटुम्ब का वंश वृक्ष इस प्रकार है -

रनदेव के पुत्र नत्थासिंह। नत्थासिंह के तीन पुत्र हुए - 1. कामसिंह 2. धरमसिंह 3. चरतसिंह।

करमसिंह के दो पुत्र हुए - जमीयतसिंह और वजीरसिंह। जमीयतसिंह के एक पुत्र और एक पुत्री हुई (जिसकी शादी नाभा के राजा देवेन्द्रसिंह से हो गई) । पुत्र का नाम सरदार अर्जुनसिंह था जिसके दो पुत्र हुए (सरदार बलवन्तसिंह और अतरसिंह)।

सरदार बलवन्तसिंह के दो पुत्र हरीसिंह और नारायणसिंह हुए।

अतरसिंह का पुत्र प्रतापसिंह हुआ और उसके दो पुत्र गुरुदत्तसिंह और गुरुबचनसिंह हुए।

धरमसिंह के दो पुत्र हुए - रामसिंह और सारदूलसिंह। चरतसिंह के एक पुत्र दालसिंह हुआ।

रामसिंह का एक पुत्र सावनसिंह। सारदूलसिंह के दो पुत्र - भूतासिंह और शेरसिंह। शेरसिंह का पुत्र सन्तसिंह और सन्तसिंह का पुत्र दलीपसिंह।

फतेहगढ़

हकीकतसिंह के पिता का नाम बघेलसिंह था। यह जुल्का गांव का सिन्धू जाट था। यह कान से थोड़ी ही दूर पर है जहां कि जैसिंह कन्हैया पैदा हुए थे। जैसिंह और हकीकतसिंह दोनों ही कपूरसिंह सिंघापुरिया के यहां रहते थे। कपूर की मृत्यु के बाद दोनों स्वतंत्र शासक बन बैठे। हकीकतसिंह के अधिकार में कलानौर, बूर, दुल्बू, काहनगढ़, अदालतगढ़, पठानकोट, मतू और बहुत से गांव आ गए। इनकी कमान में संगतपुरिया सरदार तथा साहबसिंह नाबिकी, दयालसिंह और सन्तसिंह दादूपुरिया, देसासिंह मोहल, चेतसिंह बनोद, साहबसिंह तारागढ़िया और बहुत से अन्य सरदार युद्ध-क्षेत्र में जाते थे। सन् 1760 में हकीकतसिंह ने चूरीयानवाला को मिसमार कर दिया और उसके खंडहरों पर संगतपुरिया गांव तथा फतेहगढ़ किले को स्थापित किया। महतावसिंह ने जिसके अधिकार में अपने भाई की रियासत का बहुत-सा भाग था, एक मजबूत किला बनवाया जिसका नाम चित्तौरगढ़ रखा।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-522


सरदार हकीकतसिंह का सन् 1782 में देहान्त हो गया और उनका इकलौता पुत्र जैमलसिंह जो कि 11 बरस का नाबालिग था, रियासत का अधिकारी हुआ। इन्होंने न तो कन्हैया रियासत को बढ़ाया ही और न घटने ही दिया, बल्कि ज्यों का त्यों कायम रक्खा। सन् 1812 में इनका भी देहान्त हो गया और रणजीतसिंह ने इस आशा पर कि फतेहसिंह पर धन-राशि इकट्ठी होगी, किले पर अधिकार करने का विचार किया। उन्होंने विधवा से सहानुभूति प्रकट करने के बहाने रामसिंह को वहां भेजा। जैसे ही यह अफसर किले में घुसा कि इसने महाराज के नाम पर किले पर अधिकार कर लिया। तीन महीने के बाद जैमलसिंह की विधवा के एक लड़का पैदा हुआ, जिसका नाम चांदसिंह रक्खा गया। इस बच्चे के नाम पर महाराज ने 15000) रु० की कीमत का हिस्सा उस रियासत में छोड़ दिया। जैमलसिंह ने अपनी मृत्यु के कुछ ही महीने पहले अपनी इकलौती पुत्री चांदकौर का, जिसकी उम्र केवल 10 वर्ष थी, पाणिग्रहण संस्कार महाराज रणजीतसिंह के पुत्र खड़गसिंह के साथ जो कि पंजाब राज्य का भावी शासक था, कर दिया। यह विवाह संस्कार सन् 1812 की छठी फरवरी को फतेहगढ़ में बड़ी ही शान-शौकत और धूमधाम के साथ सम्पन्न हुआ था। इसमें कैथल, जींद, नाभा के सरदारों के अलावा गवर्नर-जनरल का एजेण्ट अक्टरलोनी भी सम्मिलित हुआ था। सन् 1821 की फरवरी में चांदकौर के गर्भ से नौनिहालसिंह पैदा हुए। महाराजाधिराज रणजीतसिंह की मृत्यु जून सन् 1839 में हो गई और उनके बाद खड़गसिंह गद्दी पर बैठे। खड़गसिंह कड़े मिजाज के और कम समझ के आदमी थे। अपनी धार्मिक क्रियाओं के सम्पन्न करते हुए और भूत-प्रेत में विश्वास रखते हुए भी वह बहुत से अयोग्य देवी-देवताओं की पूजा करते थे। उस समय के माने हुए किसी भी व्यक्ति के हाथों में वह कठपुतली की भांति थे। राजा ध्यानसिंह के कारण ही वह शान्ति के साथ गद्दी पर बैठ सकते थे, क्योंकि उसने लोगों के सामने यह कहा था कि महाराज रणजीतसिंहजी मरते समय यह कह गये हैं कि - “राजगद्दी का अधिकारी खड़गसिंह होगा और ध्यानसिंह उनके मन्त्री होंगे।” रणजीतसिंह के जीवन के अन्तिम बरसों में ध्यानसिंह की काफी इज्जत हो चुकी थी और यह विश्वास किय जाता था कि अब इसकी शक्ति क्षीण न होगी। अतः इसके लिए यह आवश्यक था कि गद्दी पर ऐसा राजकुंवर बैठे जो उसकी राय पर चलकर शासन करे और खुद शासन करने की कोई चेष्टा न करे। ध्यानसिंह का लक्ष्य इससे भी अधिक आकांक्षा का था। उसका ज्येष्ट पुत्र महाराज रणजीतसिंह का बड़ा प्यारा था, जिसका नाम हीरासिंह था। महाराज के सामने जब कि अन्य सभी दरबारी, दो या तीन अत्यन्त पवित्र 'भाईयों' को छोड़कर, खड़े रहने को बाध्य थे, वहां पर भी हीरासिंह के बैठने को कुर्सी मिलती थी। बिना उसके महाराज न तो सोने को जाते थे और न टहलने को ही। इस प्रकार हीरासिंह महाराज के राजकुमारों


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-523


की ही भांति पाला-पोषा गया था और खालसा-सैन्य उसको मानती भी ऐसा ही थी। अतः क्या यह माना जाता था कि किसी दिन वह पंजाब का राजा हो जाएगा और उसका बाप उसका प्रधानमंत्री होगा जो कि राज्य में वास्तविक शक्ति रखेगा, और उसका एक चचा, बहादुर राजा सुचेतसिंह फौज का कमांडर-इन-चीफ होगा तथा दूसरा गुलाबसिंह सारे पहाड़ी प्रदेश पर शासन करेगा? तब काबुल के अमीर और नैपाल राज्य से गाढ़ी मित्रता स्थापित करके जम्मू का डोगरा खानदान भारत में सबसे अधिक शक्तिशाली हो सकेगा और अपना वंश स्थापित कर सकेगा। किन्तु जैसा कि ध्यानसिंह समझे हुए थे, खड़गसिंह उसकी आज्ञा में चलने वाले न निकले। वे ध्यानसिंह से नफरत करते थे और उन्होंने सरदार चेतसिंह बजवा को अपना विश्वासपात्र बना लिया। चेतसिंह यह भली-भांति जानता था कि जब तक ध्यानसिंह जीवित है, तब तक उसकी पोजीशन सुरक्षित नहीं है। अतः उसने फ्रेंच जनरलों के साथ षड्यंत्र की बातचीत की जो कि ध्यानसिंह के जीवन के कट्टर विरोधी थे। किन्तु ध्यानसिंह अपनी चाल में हार खा जाने वाला व्यक्ति नहीं था। उसने रानी चांदकौर और नौनिहालसिंह को चेतसिंह से पृथक किए जाने की आवश्यकता का विश्वास करा दिया। क्योंकि उसने कहा कि - यदि चेतसिंह का षड्यंत्र सफल हो गया तो राज्य की सारी शक्ति चेतसिंह और फ्रांसीसियों के हाथ में चली जाएगी। अतः उसी रात को चेतसिंह के कत्ल किये जाने का पक्का विचार कर लिया गया। राजा ध्यानसिंह ने महल-रक्षकों को अपनी ओर कर लिया और तड़का होने के एक घंटे पहले कुंवर नौनिहालसिंह, गुलाबसिंह, सुचेतसिंह, अतरसिंह सिन्धानवालिया, फतेहसिंह मान तथा कुछ अन्य सरदारों के साथ भाजा दयालवाला गेट में होकर किले में घुसकर महाराज के ही महलों में चेतसिंह का कत्ल कर डाला। यह घटना 9 अक्टूबर सन् 1839 की है। इस कत्ल के बाद से ही महाराज खड़गसिंह का शासन सच्चे रूप में समाप्त ही हो गया। क्योंकि उनके पुत्र और मंत्री (ध्यानसिंह) की अनुमति पर ही आज्ञाएं मंजूर होने लगी थीं और यदि वे किसी आज्ञा की अनुमति दे देते थे तब तो वह कार्य रूप में परिणत होती थी, अन्यथा वह खारिज कर दी जाती थी। वे तो केवल दिखाने मात्र को महाराज थे। महाराज खड़गसिंह बड़ी शान-शौकत के साथ जवाहरातों से लदे हुए और प्रसिद्ध कोहनूर हीरे को धारण किए हुए मई सन् 1840 में गवर्नर जनरल के एजेण्ट मि० क्लार्क से मिले भी थे किन्तु वे पूर्णतया शक्तिहीन हो गए थे और अपने जीवन के अन्तिम चार महीनों में तो उनसे रियासत के किसी भी मामले में सलाह नहीं ली जाती थी और किले में सिवा नाम के कैदी जैसे ही रूप में रहते थे।

अब राजा ध्यानसिंह को अपनी शक्ति को कायम रखने में एक नया खतरा दिखाई दिया। वह खतरा था नौनिहालसिंह। क्योंकि ये बड़े ही साहसी और उच्चतम व्यक्ति थे। चाहे सरदार इनसे खिलाफ ही थे परन्तु फौज इनको ही


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-524


चाहती थी क्योंकि फौज आशा करती थी कि ये अपने बाबा के समान ही विजय गौरव प्राप्त करेंगे। कुंवर नौनिहाल की भी यही आकांक्षा थी। राजा ध्यानसिंह का उनके ऊपर से प्रभाव दिन-दिन क्षीण होता गया और राजा को यह भय होने लगा कि जब ये गद्दी पर बैठेंगे तो कहीं दूसरा मन्त्री न चुन लें जिसका कि हटाना चेतसिंह से भी अधिक कठिन हो जाय। 28 वर्ष की उम्र में ता० 4 नवम्बर को महाराज खड़गसिंह का देहान्त हो गया। कहा जाता है कि इनकी मृत्यु ध्यानसिंह के हुक्म से दिए गए जहर के कारण हो गई थी जिसका कि पता उसके पुत्र को भी था। मरते समय महाराज नौनिहालसिंह के पास खबर पर खबर भेजीं किन्तु नौनिहालसिंह उनके पास नहीं गये। क्योंकि ये यह चाहते थे कि पिता की मृत्यु के बाद वह स्वतंत्र रूप से रियासत के मालिक हो जाएंगे। जब महाराज की मृत्यु के समाचार शाह बालावल में शिकार खेलते हुए इनके पास पहुंचे तो ये महाराज के मरने की खुशी को छिपा भी न सके। दूसरे दिन ता० 5 नवम्बर को किले के रोशनीगेट के पीछे के मैदान में महाराज के शव का दाह-संस्कार किया गया। इनके साथ साथ ही इनकी सुन्दर रानी जो सरदार मंगलसिंह सिन्धू की बहन थी, तीन बांदियों के साथ सती हो गई। शवें पूरी तरह से भस्म भी न होने पाई थीं कि धूप की तेजी के कारण व्याकुल होकर नौनिहालसिंह रावी नदी शाखा में स्नानादि से निवृत्त होकर पैदल ही महलों की ओर चल दिए। उनके साथ में सारे दरबारी थे और वे अपने अभिन्न हृदय मित्र ऊधमसिंह के हाथ में हाथ दिए हुए थे जो कि राजा गुलाबसिंह का सबसे बड़ा बेटा था। जैसे ही किले के फाटक पर पहुंचे इन्होंने पीने को पानी मांगा। उस वक्त कोई नौकर न था और पवित्र गंगाजल की सभी बोतलें खाली थीं जो कि शव पर छिड़कने को मंगाई गईं थीं। भूत प्रेतों में विश्वास करने वाले सरदार ने धीरे से उनके कान में कहा कि यह बुरा लक्षण है। किन्तु राजकुमार हंस दिये और आगे को चले। जैसे ही कि वह दरवाजे के नीचे पहुंचे कि ईंट-चूना बड़े जोर से गिर पड़ा। यह सारा कार्य लहमे में हो गया। मियां ऊधमसिंह की गर्दन टूट गई और वह मर गये और कुंवर नौनिहालसिंह का बायां हाथ टूट गया और उनकी हंसली भी टूट गई, वह भारी सांस लेने लगे। लेकिन न वह बोल सकते थे और न हिल सकते थे। राजा ध्यानसिंह ने जो उस मौके पर ठीक उनके पीछे मौजूद थे, जिनके कि कुछ चोट भी आयी थी, एक पालकी मंगाई और राजकुमार को उसमें लिटाकर संगमरमर के बाग वाले भवन में ले गये, जहां कि रणजीतसिंह सवेरे का दरबार किया करते थे और हजारी बाग के फाटक बन्द कर दिये गये और ताले डाल दिये गये। सिवाय फकीर अजीजुद्दीन और नूरुद्दीन और भाई रामसिंह और गोविन्दराम के किसी को भी अन्दर नहीं आने दिया गया और एक घंटे के अन्दर ही राजकुमार की मृत्यु हो गई।

तो भी राजा ध्यानसिंह को कोई हानि न थी। उसने कुंवर शेरसिंह को बुलाने


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-525


के लिए जो कि लाहौर से 80 मील की दूरी पर कन्हूवान नामक स्थान में शिकार खेल रहे थे, दूत भेज दिया और रास्ते में जगह-जगह पर तेज घोड़े खड़े कराये थे, ताकि वह बहुत ही शीघ्र आ सकें। उन्होंने मुल्तान, पेशावर, मंडी और दूसरी जगहों पर यह खबर भेज दी कि कुंवर साहब को बहुत ही थोड़ी चोट आई है और उसने गवर्नर जनरल के एजेण्ट के लिए कुंवर शेरसिंह के नाम से चिट्ठी लिख दी कि मुझे बहुत ज्यादा चोट आई है, किन्तु आशा है कि ठीक हो जाऊंगा और तारीख 6 को राजा ने यह खबर फैलाने को एक सरदार अमृतसर भेजा कि कुंवर साहब बहुत कुछ अच्छे हो गये हैं। कुछ वक्त तो शव तम्बू में ही रखा रहा, किन्तु रात के समय किले में पहुंचा दिया गया और अन्दर के एक कमरे में रख दिया गया। ध्यानसिंह ने लाहौर और गोविन्दगढ़ के किले लेने के लिए तमाम तैयारियां कर लीं और ता० 7 को कुंवर शेरसिंह आ पहुंचे। अतः छिपाव की कोई आवश्यकता न थी इसलिए नौनिहालसिंह की मृत्यु का ऐलान कर दिया गया।

नौनिहालसिंह ने अपनी मृत्यु के पीछे दो हकदार गद्दी के छोड़े। इनमें से पहला महाराज रणजीतसिंह का प्रसिद्ध पुत्र कुंवर शेरसिंह था। महाराज ने भी हमेशा शेरसिंह का समर्थन किया था और एक बहुत बड़ा दल उसका अनुमोदन करने को तैयार था। उस समय उनकी अवस्था 33 साल की थी। यह खूबसूरत और शारीरिक गठन के अच्छे थे और रणक्षेत्र में एक बहादुर और फौज में प्रसिद्ध व्यक्ति थे। किन्तु आचरण के अच्छे न थे और सिख जैसी कौम पर शासन करने की योग्यता न रखते थे।

इस गद्दी के लिए दूसरा हकदार महाराज खड़गसिंह की विधवा रानी माई चांदकौर थी। जिस समय उनके पुत्र की मौत हुई उस समय वह फतहगढ़ में अपने मायके में थी। वह ता० 6 नवम्बर को लाहौर लौटीं और यहां उन्होंने देखा कि राजा ध्यानसिंह ने उनके खिलाफ कुंवर शेरसिंह के राजतिलक होने के लिए कुछ सरदारों को राजी कर लिया है। जब चांदकौर ने इस प्रकार स्थिति को अपने खिलाफ पाया, तो उन्होंने राजीनामा का उद्योग किया। उन्होंने और उनके मंत्री भाई रामसिंह ने जो पहली तदबीर सोची वह यह थी कि वे (रानी चांदकौर) ध्यानसिंह के पुत्र राजा हीरासिंह को गोद लें और उसे गद्दी पर बिठायें। दूसरी पार्टी ने इस बात का खण्डन किया और यह तदबीर पेश की कि रानी साहिबा शेरसिंह से शादी कर लें। किन्तु इन्होंने इस बात से साफ इन्कार कर दिया और यह प्रस्ताव रखा कि उन्हें सरदार अतरसिंह सिन्धानवालिया को अपना वारिश बना लेने दिया जाय। किन्तु इस प्रस्ताव का पहले प्रस्तावों से भी अधिक विरोध किया गया और तब रानी ने कहा कि उनके पुत्र नौनिहालसिंह की विधवा रानी साहिब कौर गिलवाली तीन महीने के हमले से हैं। इस ऐलान से स्थिति बिल्कुल बदल गई। अब राजा बनने का सवाल नहीं रहा, किन्तु एक रेजीडेण्ट बनने का सवाल


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-526


हो गया और यह विवाद-ग्रस्त प्रश्न हो गया कि आया रानी या कुंवर साहब इस काम में सफल होंगे।

रानी चांदकौर के पक्ष में भाई रामसिंह और गोविन्दसिंह, सरदार अतरसिंह, लहनासिंह और अजीतसिंह सिन्धानवालिया, फतहसिंह मान, जनरल गुलाबसिंह पोविन्दिया, शेख गुलाम मुहीउद्दीन, जमादार खुशहालसिंह और जनरल तेजसिंह थे। कुंवर साहब के पक्ष में सरदार फतहसिंह अहलूवालिया, धनसिंह मालवाई, श्यामसिंह अटारी वाला, जम्बू के तीन राजा, ध्यानसिंह, गुलाबसिंह, सुचेतसिंह, भाई गुरमुखसिंह, फकीर अजीजुद्दीन और फ्रैंच जनरल वेन्तूरा आदि थे। दीनानाथ और सरदार लहनासिंह मौन थे। उपर्युक्त सरदारों और उनके साथियों की पौलिसी स्थिर न थी। जम्बू के राजा चाहे उनकी पौलिसी और लक्ष्य एक ही था, किन्तु कभी एक का समर्थन करते थे कभी दूसरे का और खुशहालसिंह और तेजसिंह उसी पार्टी का समर्थन करने को तैयार हो जाते कि जिसमें उन्हें अपने लिए अधिक फायदा पहुंचने की आशा होती। कुछ सरदारों को दोनों ही से सहानुभूति थी। माई चांदकौर इतनी प्रसिद्ध न थीं जितना कि उनका प्रधान सलाहकार भाई रामसिंह था, जिसने कि नौनिहालसिंह के समय में बहुत से सरदारों की जागीरों को कम कर दिया था। जो लोग उनका समर्थन करते थे उन्हें आशा थी कि जनानी और कमजोर हुकूमत के समय में वे अपने स्वतन्त्र अधिकारों को स्थापित रख सकेंगे जो कि उन्होंने रणजीतसिंह के जीवन के समय में स्थिर रक्खे थे। सिंधानवालिया सरदार जो कि इनके सबसे अधिक पक्षपाती थे, नवम्बर के आदि में लाहौर में उपस्थित न थे। अजीतसिंह जो कि उनका प्रेमी कहा जाता था, कुल्लू और मण्डी के धावे में लगा हुआ था और अतरसिंह हरद्वार में था। अतरसिंह जल्दी ही अपने भतीजे के साथ 12 नवम्बर के लगभग लाहौर आ गया। ठीक उसी समय रानी ने एक दूसरी योजना दोनों पार्टियों के मिलाने की की थी। वह योजना यह थी कि वे शेरसिंह के ज्येष्ठ पुत्र प्रतापसिंह को गोद ले लेंगी, और इस प्रकार अपनी हुकूमत में कुंवर साहब का हाथ रहने देंगी। किन्तु दूसरी योजना के अनुसार यह योजना भी असफल रही और लाहौर में यह भावना जोर पकड़ गई कि कुंवर और रानी साहिबा की संयुक्त रीजेंसी ही विधवा रानी के बालक होने के समय तक एकता स्थापित रखने का केवल मार्ग है। रीजेंटों के कार्यों की देखभाल जातीय सरदारों की कोंसिल करती रहे।

कुछ रूप में इस प्रबन्ध का संशोधन कर दिया था और ता० 20 को यह निश्चय हो गया कि माई चांदकौर रियासत की प्रधान बनाई जायें और शेरसिंह को सरदारों की कौंसिल का प्रेसीडेंट बनाया जाये और फौज पर भी इनका कमांड हो तथा ध्यानसिंह मंत्री बनाये जायें। इस योजना के लिए हर एक आशा करता था कि यह टूट जायेगी लेकिन ध्यानसिंह ने इस हुकूमत की योजना को कायम


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-527


रखने के लिए कुछ समय मांगा और पूरी शक्ति लगा दी। किसी तरह एक हफ्ता व्यतीत हो गया। अन्त में कार्य रूप में परिणीत होने के लिए यह योजना असम्भव प्रतीत होने लगी और प्रतिदिन झगड़ा हो जाने का भय मालूम होने लगा। दोनों पार्टियों ने किले पर कब्जा कर लिया। रानी साहिबा ने तो भीतर के महलों पर और कुंवर साहब ने हजारीबाग और बाहर के भाग पर कब्जा कर लिया। कुंवर साहब कभी-कभी रियासत में किले से बाहर चले जाया करते थे और चांदकौर ने कई बार उनके बाहर चले जाने पर किले के फाटक बन्द करने का विचार किया। कार्य करने की प्रणाली भी बातरतीब न थी। सवेरे का दरबार शेरसिंह की उपस्थिति में हजारीबाग में होता था। इसके बाद मंत्री लोग शीशमहल में कॉन्फ्रेन्स करते थे और अंत में समनबुर्ज में जाकर रानी साहिबा की उपस्थिति में जाते थे।

राजा ध्यानसिंह जब चांदकौर की तरफ आ गये और राजा गुलाबसिंह इस बात को कहते थे जिनके कि लिये रानी साहिबा ने मानावार लौटा देने के लिये पक्का वायदा कर लिया था, लेकिन मंत्री ने दोनों पार्टियों को यह दिखलाने का विचार कर लिया था कि बिना उनकी सहायता के उनका स्थिर रहना संभव नहीं है। अन्त में निर्णय तारीख 17 को हो गया जिसके अनुसार शेरसिंह को 8 महीने के लिये अपने बटे प्रतापसिंह को कौंसिल का मेम्बर छोड़कर अपनी जागीर बटाला को वापस जाना पड़ा। रानी चांदकौर साहबकौर के बच्चा होने तक रीजेण्ट बना दी गईं, जबकि दूसरे प्रबन्ध किये जाने की योजना थी। इस योजना के इकरारनामे पर राजा ध्यानसिंह और गुलाबसिंह, सरदार लहनासिंह मजीठिया, अतरसिंह सिन्धानवाला, फतेहसिंह मान, मंगलसिंह सिन्धू, तेजसिंह, श्यामसिंह अटारीवाला, धनासिंह मारवई, जमादार खुशहालसिंह, भाई रामसिंह, गुरुमुखसिंह, फकीर अजीजुद्दीन, दीवान दीनानाथ और शेख गुलाम मुहीउद्दीन ने दस्तखत कर दिये। राजा ध्यानसिंह के उद्योग से दोनों पार्टियां इस कार्य में पूर्ण रूप से उपस्थित थीं और कुंवर शेरसिंह विरोध करना व्यर्थ समझ तथा राजा ध्यानसिंह की पालिसी को न समझकर, बटाला चले गये, जहां पर कि अपने सुयोग के लिये इन्तजार करते रहे।

रानी साहिबा के मंत्रियों को भी थोड़े ही समय में अपनी कमजोरी मालूम हो गई। राजा ध्यानसिंह मुश्किल से कभी-कभी दरबार में आते थे और अपना समय शिकार खेलने में गुजारते थे। इधर दिन पर दिन अशान्ति बढ़ती जाती थी। सड़कें खतरनाक हो गईं, जुर्म बहुत बढ़ गये और सीमा-प्रान्त के जिले बगावत करने की तैयारी करने लगे। अब ध्यानसिंह को सूझ पड़ा कि बिना उसके शासन-व्यवस्था नहीं चल सकती, लेकिन वह रानी साहिबा के मंत्रियों को भी यही सुझाना चाहता था। अतः वह दूसरी जनवरी 1841 को जम्बू को रवाना हो गया। अब राज्य में


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-528


शीघ्र ही बरबादी आने लगी। क्योंकि फौज ने बगावत शुरू कर दी, जनरल आज्ञाओं की अवहेलना करने लगे। अतः राजा ध्यानसिंह के जम्बू चले जाने के एक हफ्ते ही बाद रानी चांदकौर और भाई रामसिंह ने मिश्र लालसिंह, फतहसिंह मान और अन्य लोगों के हाथों शीघ्रता से यह खबर भेजी कि वह बिना देरी किये ही फौरन जम्बू से वापस आ जाएं। ता० 13 जनवरी को अजीतसिंह सिन्धानवालिया ध्यानसिंह के आने के पहले ही अपने गांव यानी राजा सांसी गांव को जाने का बहाना करके लाहौर को चल दिया। लेकिन बजाय इसके वह गवर्नर जनरल के एजेण्ट से मुलाकात करने के लिए रानी चांदकौर की खबर लेकर लुधियाना चला गया। किन्तु मुलाकात करने में असफल रहा।

तारीख 14 को शेरसिंह ने लाहौर शहर से 6 मील की दूरी पर शालीमार स्थान पर आकर ही लाहौर को अपने कब्जे में ले लिया। कुंवर साहब के कमान में फौज थी जो कि पूरी तरह से उनके पक्ष में थी। फ्रेंच जनरलों ने भी उन्हें सहायता देने का वायदा कर लिया था और उन्होंने (शेरसिंह ने) राजा ध्यानसिंह की अनुपस्थिति में अपने भाग्य की परीक्षा करने की तैयारी कर दी। उनके शालीमार आने पर जनरल गुलाबसिंह की बटालियन का एक अफसर उनकी सेवा में आया और उनसे फौज में चलने के लिये प्रार्थना करने लगा। कुंवर साहब ने निमंत्रण को स्वीकार कर लिया और बेगमपुर छावनी को कूच कर दिया, जहां पर कि उन्होंने गुलाबसिंह पोविन्दिया के साथ अपने डेरे डाल दिये और इन्हें प्रधान माना गया।

किले की फौज चुपचाप न थी। किले में रानी साहिबा के साथ गुलाबसिंह, राजा हीरासिंह, सरदार अतरसिंह सिन्धानवालिया, मंगलसिंह सिन्धू और गुलाम मुहीउद्दीन थे। शीघ्र ही फौज बुलाई गई, अमीरसिंह मान की तीन टुकड़ियों और लेहनासिंह की घुड़सवार फौज आ गई। शहर के तमाम फाटकों के ऊपर तोपें रख दी गईं। राजा सुचेतसिंह की फौजें और चरपारी-घुड़सवार फौज शाहदरा से कूच करके किले के सामने खड़ी हो गई और एक ऊंट-सवार पूरी रफ्तार के साथ राजा ध्यानसिंह के पास भेजा गया।

तारीख 15 के दरम्यान फौज का एक बड़ा हिस्सा कुंवर साहब के पास जमा हो गया और तारीख 16 को उनके पास 26000 पैदल और 8000 घुड़सवार फौज तथा 45 तोपें हो गईं थीं। इसके बाद उन्होंने बड़ी शान के साथ जनरल वेन्तूरा, कोर्ट और बहुत से सिख सरदारों के साथ लाहौर को कूच किया और बिना किसी रुकावट के टकसाली फाटक से लाहौर शहर में प्रवेश किया। बादशाही मसजिद के पास कर्नल धोंकलसिंह ने वहां की मेगजीन को उन्हें दे दिया और थोड़े समय में ही सारे शहर पर उनका कब्जा हो गया। फिर उन्होंने किले की आधीनता स्वीकार किये जाने के लिये खबर भेजी, किन्तु गुलाबसिंह ने किले की


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-529


रक्षा करने का पक्का विचार कर लिया। उसकी फौज में इस समय 3000 आदमी थे जिनमें अधिकतर राजा के पहाड़ी सैनिक थे जिनके कि ऊपर रानी चांदकौर का बहुत सा रुपया खर्च किया गया था। गुलाबसिंह ने हर एक स्थान पर घूमकर जांच की और सैनिकों को इनाम दिए जाने के वायदे करके प्रोत्साहित किया। तोपों की गोलाबारी के साथ धावा किया गया और हजारी बाग पर किले से गोलाबारी की जाने लगी। डोगरा सिपाही बड़े ही निशानेबाज थे और शेरसिंह के इतने आदमी मारे गये कि वह 17 तारीख के सवेरे हजारी बाग से हटकर बादशाही मसजिद के पास पहुंच गये।

राजा गुलाबसिंह से अधीनता स्वीकार करने के लिए फिर कहा गया। उन्होंने अपने भाई के आ पहुंचने तक सुलह करने को कहा, लेकिन यह मंजूर नहीं किया गया। इस पर उन्होंने सौगन्ध खाई कि छात्र-धर्म की हैसियत से वह अन्त तक किले की रक्षा करते रहेंगे। फिर गोलाबारी शुरू हुई और तमाम दिन होती रही। शाम को राजा ध्यानसिंह और सचेतसिंह जम्बू से आ गये और शहर के बाहर डेरे डाल दिए। सुचेतसिंह, शेरसिंह के पास गए और उनसे कहा कि ध्यानसिंह दूसरे दिन आयेंगे। ता० 18 के सुबह को राजा ध्यानसिंह और कुंवरसाहब मिले। राजा ध्यानसिंह ने शेरसिंह के चपल स्वभाव पर खेद प्रकट किया और शीघ्र ही सन्धि करने के लिए राय दी। राजा गुलाबसिंह ने यह राय प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार की और उनके भाई ने उनके मुआफिक ही शर्तें मंजूर कीं। फौजें मय हथियारों के वापस कर दी गईं। रानी चांदकौर रीजैन्सी से अलग हो गईं और जम्बू के पास कावियाली में एक बड़ी जागीर उनके लिए मंजूर की गईं। इन शर्तों के बन जाने पर राजा गुलाबसिंह ने ता० 19 को किले से बाहर कूच कर दिया और सामने मैदान में डेरे डाल दिये। सरदार अतरसिंह सिन्धानवालिया भी किले से बाहर चले गये और शाह बिलाबन में तम्बू डाल दिये। दूसरे दिन सवेरे कुंवर साहब बड़े जलूस के साथ घुड़सवार फौज का निरीक्षण करने गये और उनकी सेवाओं के लिए उन्हें धन्यवाद दिया और फिर किले को चल पड़े जहां कि वह गद्दी पर बैठे और तमाम फौज ने उन्हें सलामी दी। रानी चांदकौर उस समय समन बुर्ज में थीं और उनके पास पुजारी विक्रमसिंह थे। लाहौर शहर में अब अशान्ति खड़ी हो गई। सैनिकों ने दुश्मन और दोस्तों के घरों को एक ही तरह से लूटा। जमादार खुशहालसिंह की भी उन्होंने दुर्दशा कर दी और उनके अलावा राजा गुलाबसिंह, जनरल कोर्ट, सरदार मुहम्मद सुल्तानखां और लेहनासिंह मजीठिया पर भी धावा किया गया। लेहनासिंह मजीठिया का कैम्प लूट लिया गया और सेना ने गुलाबसिंह पर भी धावा करना चाहा, लेकिन उन्होंने फौज जमा कर ली और एक बड़ा खजाना लेकर जम्बू को प्रस्थान कर दिया। जमादार खुशहालसिंह भी उनके साथ गये। जनरल कोर्ट के डेरे पर उन्हीं के


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-530


बटालियों की तीन रेजीमेण्टों ने हमला किया, लेकिन यह जनरल वेन्तूरा के पास रक्षा के लिये भाग गया, जिसे कि अपनी और अपने मित्र की रक्षा के लिये घुड़सवार सेना से काम लेना पड़ा। फौज ने मुंशी, लिखने वालों को चारों तरफ घूमकर मार डाला। कोई भी ऐसा मनुष्य जीवित न छोड़ा गया, जिसने कि यह मंजूर कर लिया कि वह लिख सकता है या उनकी उंगलियों से यह मालूम हो गया कि वह लिख सकते हैं। उन भयानक दिनों में हर एक आदमी ने अपनी रंजिश का बदला लिया। अफसरों को उन्हीं के आदमियों ने मारा। दुकानदारों को उन्हीं के कर्जदारों ने कत्ल किया। शहर में बड़ा ही भयंकर काण्ड हुआ। बहुत दिनों के बाद फौज काबू में आ सकी और जिन अधिकारों का उन्होंने उस समय उपयोग किया उन्हें वे कभी न भूले। उस समय से वे ज्यादा से ज्यादा विप्लवकारी होते गए, यहां तक कि कोई भी राजा या मन्त्री उन्हें न रोक सका।

ता० 27 तक शेरसिंह रियासत के महाराज न बन पाए। राजतिलक उनके मस्तक पर बाबा विक्रमसिंह ने किया, जिन्होंने कि कुंवर प्रतापसिंह को युवराज पद और राजा ध्यानसिंह को मंत्री पद दिया। तमाम सरदार और रईस मौजूद थे और उन्होंने नए महाराज के प्रति भक्ति प्रदर्शित की।

राजा ध्यानसिंह और राजा गुलाबसिंह इन मौकों के समय पृथक्-पृथक् मत प्रकट करते दिखलाई दिए किन्तु यह हर प्रकार से प्रमाणित है वह हमेशा मित्र भाव से रहे। एक भाई ने शेरसिंह का पक्ष लिया और दूसरे ने रानी का। कारण, ताकि इनमें से किसी एक को सफलता मिलने पर उनकी अपनी शक्ति और धन की रक्षा हो सके। राजा ध्यानसिंह का स्वभाव ऐसा था कि उसके परम भक्त भी कभी-कभी इस संशय में पड़ जाते थे कि वास्तव में वह किस पार्टी का समर्थक है। भले ही वह हर एक जरूरत के मौके के लिए तैयार रहता था, किन्तु उसकी एक खास पॉलिसी जरूर थी। इस आशा में वह लाहौर से जम्बू चला गया कि उसकी अनुपस्थिति में कुंवर शेरसिंह गद्दी लेने की चेष्टा करेंगे। उसने अपनी सफलता ही न चाही, किन्तु लाहौर से बाहर चले जाना भी चाहा ताकि कुंवर साहब की असफलता पर उससे राजीनामा किया जा सके और रानी चांदकौर का मंत्री होते हुए उनके साथ मिल जाना अयोग्य होता। परन्तु शेरसिंह को बहुत भीरु और अपने उद्योग के उत्साह में बहुत उत्साही न पाकर ध्यानसिंह का लाहौर में न रहना उसके लिए और भी फायदामंद होता और चांदकौर की कमजोर हुकूमत के लिए भी यह अन्तिम रूप से प्रकट हो जाता कि उसकी मदद के लिए राजा साहब की सहायता जरूरी थी और उसे पूरे अधिकारों के साथ बुलाया जाता और इस तरह वह शेरसिंह को पृथक् करने में समर्थ होता, चूंकि वह उसकी व्यक्तिगत इच्छा के लिए बिल्कुल आवश्यक नहीं था। सेना का भी राजा ध्यानसिंह की तरफ रुख था जिसके कि बिना वह राज्य ही नहीं कर सकता था। लेकिन उसकी यह तदबीर


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-531


शेरसिंह ने असफल कर दी। वह ध्यानसिंह से भय करते थे, अतः उन्होंने उसकी बिना सहायता के ही शक्ति प्राप्त करने की इच्छा की, इसी कारण से उन्होंने अपनी तरफ फौज के आते ही फौरन किले पर धावा कर दिया। जम्बू में राजा ध्यानसिंह और किले में राजा गुलाबसिंह इस बात से बिल्कुल सहमत नहीं थे। दोनों ही इस बात को जानते थे कि अगर बिना उनकी सहायता के कुंवर साहब को सफलता दिलाई गई तो उनका रौब-दौब नष्ट हो जायेगा और इसी कारण गुलाबसिंह ने अपने भाई के आ पहुंचने तक के लिए सन्धि किए जाने की चेष्टा की और जब इसके लिए मना कर दिया गया तो अन्त तक किले की रक्षा करने को तैयार हो गया। वह भी खून देने के समय शेर की तरह बहादुर था और अगरचे वह हमेशा लड़ाई-झगड़े से बचता था तो भी झगड़ा हो जाने की सम्भावना पर उसके मुकाबले का कोई होशियार और बहादुर योद्धा न था और उसने यह इरादा कर लिया था कि बिना युद्ध के किले को अधीन न करूंगा। एक और भी कारण था जिसने उसे किले की रक्षा करने को विवश किया। वह यह था कि इस किले में बड़ा भारी धन था जिसके कि एक बहुत बड़े हिस्से को - रुपये और जवाहरात को - वह अपने साथ जम्बू ले गये, किन्तु गुलाबसिंह की पॉलिसी व बहादुरी एक तरफ रखते हुए ध्यानसिंह की रक्षा की गई न कि रानी चांदकौर की। यह बात इससे साफ जाहिर हो जाती है कि इसमें राजा हीरासिंह मौजूद थे और इसकी सबसे ज्यादा रक्षा करने वालों में सुल्तान मुहम्मदखां बर्कजई था जो कि राजा का परम भक्त था।

राजा गुलाबसिंह ने रानी चांदकौर और रानी साहबकौर को अपने साथ जम्बू ले जाने का विचार किया था, किन्तु शेरसिंह इस बात की आज्ञा नहीं देता था। वह हथियारों को दुश्मनों के हाथ में देना नहीं चाहता था। रानी चांदकौर को समनबुर्ज छोड़ने तथा शहर में अपने घर रहने की आज्ञा दी गई और यहां से वे फौज और सरदारों से गुप्त बातें करती रहीं। इन्होंने सरदार अजीतसिंह सिन्धानवालिया को गवर्नर-जनरल के पास अपनी वकालत को कलकत्ते भेजा। उसके दूत सारे देश में लगन के साथ काम में लगे हुए थे। अक्टूबर सन् 1841 ई० में सरदार अतरसिंह इनके निमन्त्रण पर थानेश्वर से फीरोजपुर आये जहां पर कि उन्होंने पंजाब में घुसने के एक अच्छे मौके का इन्तजार किया। इस समय रानी साहिबा के समर्थन में लगभग 12 हजार सेना और कुछ शक्तिशाली सरदार थे। चूंकि शेरसिंह फौज की आवश्यकताओं की पूर्ति करने की अयोग्यता के कारण मशहूर हो चुके थे, अतः रानी साहिबा का प्रभाव बढ़ गया और अप्रैल सन् 1832 ई० में आम तौर पर सारी फौज इन्हीं के पक्ष में हो गई।

अब महाराज शेरसिंह ने देखा कि जब तक वह जिन्दा रहेंगीं, तब तक वह सुरक्षित नहीं, अतः उन्होंने इनके नाश करने का इरादा कर लिया। राजा ध्यानसिंह


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-532


भी इसी प्रकार उनकी मृत्यु चाहते थे। यह सत्य है कि वे ऐसी पार्टी की प्रधान थी कि वह किसी ही समय भयानक समय उपस्थित कर देतीं। अब महाराज ने यह भी मालूम किया कि वे मंत्री को चाहे जितना भी नहीं चाहते हैं लेकिन बिना उनके वह शासन-व्यवस्था नहीं कर सकते। इस तरह वह रानी की मृत्यु को राजी हो गए, जिससे कि उन्होंने यह विश्वास कर लिया कि उनका छुटकारा सिंधानबालियों से हो जायेगा।

जून सन् 1842 ई० में शेरसिंह ने बहुत से सरदारों और एक बड़ी फौज के साथ वजीराबाद को कूंच किया और राजा ध्यानसिंह पीछे लाहौर में रह गए। चांदकौर के लिए फिर किले में रहने के लिए आज्ञा दी गई जो कि महासिंह के अधिकार में था। 12 जून को इनकी आज्ञा पाकर रानी चांदकौर की बांदियों ने इन्हें खाने की चीज में जहर देकर मार डालने की इच्छा की। इन्होंने उसे चखा और उसे फेंक दिया। बांदियों ने इस भय से कि उनका यह जाल खुल गया, पत्थरों से उनके ऊपर हमला किया और उनके शरीर को घायल करके मरने के लिए छोड़कर भाग गईं। शीघ्र ही राजा ध्यानसिंह ने उनके जख्मों की मरहम पट्टी कराई। एक समय फखीर नूरुद्दीन ने सोचा कि उनकी जिन्दगी बच जायेगी, किन्तु उन्हें कभी भी होश न आया और दो दिन के अन्दर मर गई। मारने वालों के ऊपर बहुत वजन का लोहा रख दिया गया और कहा जाता है कि जब उन्हें भय दिखाया गया तो उन्होंने ध्यानसिंह के सामने साफ-साफ यह कह दिया कि उन्हें कत्ल करने के लिए कहा गया था और इस काम के लिए उन्हें बड़े-बड़े इनाम दिए जाने के वायदे किये गए थे।

रानी चांदकौर के भाई चांदसिंह ने शेरसिंह के गद्दी पर बैठने के समय तक कन्हैया मिसल पर अधिकार रखा। नौनिहालसिंह ने इस मिसल की खूब उन्नति रखी क्योंकि उन्होंने फतेहगढ़ को अपना बहुत सा खजाना भेज दिया था जिसे शेरसिंह ने फरवरी सन् 1841 में ले लिया था। केसरसिंह और उसकी माता को लाहौर से ले जाया गया था और चांदकौर के समय में उन्हें छोड़ा गया जिनसे कि शेरसिंह उस समय शादी करने की इच्छा करता था। चन्दासिंह के लिए 60 हजार की जागीर दी गई थी और रानी के मरने के बाद वह 45 हजार रुपये की रहने दी गई।

इस कुटुम्ब के दुर्भाग्य का अभी अन्त न हुआ था। जब हीरासिंह शक्तिशाली हुआ तो उसने चन्दासिंह की शेष सारी जागीर जब्त कर ली और कारण यह बतलाया गया कि राजा ध्यानसिंह की मृत्यु की खबर सुनकर उन्होंने रोशनी की थी। चाहे यह बात ठीक हो या झूंठ हो, इतना अवश्य ठीक है कि राजा ध्यानसिंह की मृत्यु पर चन्दासिंह को जरूर खुशी हुई।

जब सरदार जवाहरसिंह मन्त्री हुआ तो उसने इस कुटुम्ब को तलबन्दी और


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-533


फतेहगढ़ राजवंशावली

कोटली में 3060) रु० की जागीर दे दी थी जिस पर केसरसिंह सन् 1870 ई० अपनी मृत्यु तक अधिकारी रहा। इस खानदान की जायदाद बहुत थोड़ी रह गई थी। स्वरूपसिंह के पास बटाला तहसील में फतेहगढ़ में थोड़ी सी जमीन थी, जहां पर कि इनके बुजुर्गों के बनाये हुए किले के खण्डहर अब तक खड़े हुये हैं। इनके पास अजनाला तहसील के कुछ गांवों में माफी भी है और इसके अलावा 622) रु० सालाना की नकद जागीर थी और अजनाला तहसील में संगलपुर में जहां पर कि ये रहते थे, तीन सौ बीघा जमीन के मालिक थे।

सर लैपिल ग्रिफिन ने इस खानदान का वंश-वृक्ष निम्न प्रकार दिया है -

बघेलसिंह के तीन पुत्र हुए - सरदार हकीकतसिंह, महताबसिंह और मस्मदासिंह। महताबसिंह के आगे दो पीढ़ियां थीं।

सरदार हकीकतसिंह के पुत्र जैमलसिंह थे। जैमलसिंह के पुत्र चांदसिंह थे और एक बेटी थी - बीबी चांदकौर जो महाराज खड़गसिह को ब्याही गई और उन्होंने कुंवर नौनिहालसिंह को जन्म दिया था।

चांदसिंह के दो पुत्र हुए - 1. केसरसिंह, 2. ईश्वरसिंह। केसरसिंह के पुत्र इब्दबालसिंह हुए।

ईश्वरसिंह के पुत्र थे स्वरूपसिंह, → पौत्र गुलाबसिंह, → प्रपौत्र उमरावसिंह।

भागा

भागा खानदान पहले बहुत धनी और शक्तिशाली था। इसका संस्थापक अमरसिंह जाट था, जो कि अमृतसर जिले के भाग गांव के मान जाट जमींदार का बेटा था। यह सिख धर्म में दीक्षित हो गये और कन्हैया मिसल में शामिल होकर लूटमार करने लगे। इस नये काम में उन्हें इतनी सफलता मिली कि इनके बहुत से नये साथी हो


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-534


गये जिनका सरदार कर्मसिंह नाम का एक आदमी था। इन्होंने गुरुदासपुर के एक बड़े भाग को अपने अधिकार में कर लिया जिसमें सुजानपुर, सुकलगढ़, धर्मकोट और बहरामपुर शामिल थे। इन्होंने सुकलगढ़ में एक किला बनवाया जहां पर यह अधिकतर रहा करते थे और यहीं पर सन् 1805 ई० में युद्ध में अपना जीवन व्यतीत करने के बाद मृत्यु को प्राप्त हो गये और उसका अधिकारी अपने बड़े पुत्र भागसिंह को बना गये। यह सरदार अपने पिता की भांति युद्ध-प्रिय स्वभाव के न थे और न इन्होंने अपनी रियासत बढ़ाने की चेष्टा की। सिखों में बहुत ही कम ग्रंथ-साहब के एक भी पृष्ठ का उच्चारण कर सकते थे किन्तु भागसिंह पारसी और संस्कृत के पंडित थे। वह बन्दूक ढालना भी जानते थे और एक प्रसिद्ध चित्रकार भी थे। वह केवल तीन साल ही अपने पिता के उत्तराधिकारी रहे और उनकी मृत्यु के बाद राजगद्दी के लिए झगड़ा खड़ा हो गया। अमरसिंह की बहन का बेटा देशासिंह मजीठिया हमेशा भागसिंह का गहरा मित्र रहा था और अब उसने उनके पुत्र हरीसिंह के गद्दी पर बैठने का पक्ष लिया। किन्तु बहुमत ने उनके भाई बुद्धसिंह का पक्ष लिया। अतः बुद्धसिंह ही रियासत के अधिकारी रहे। किन्तु वह बहुत दिनों तक इस पर अधिकार न रख सके। सन् 1809 में रणजीतसिंह ने कांगड़ा युद्ध के लिए इनसे सहायता मांगी। भाग सरदार यह ख्याल करता था कि हम रणजीतसिंह के बराबर ही शक्तिशाली हैं। इसलिए एक भी आदमी या रुपया देने से मना कर दिया। रणजीतसिंह ने इस पर धावा कर दिया और घमासान लड़ाई के बाद इन्हें हरा दिया और भागा राज्य को ले लिया। इसमें देशासिंह मजीठिया ने खूब दिलचस्पी ली क्योंकि उसने हरीसिंह के ऊपर विजय के कारण बुद्धासिंह को क्षमा नहीं किया था और वह दुश्मन के पास गया जहां पर कि भागा की स्थिति रखने के कारण उसका इतना मान किया गया कि इस मामले के बाद ही रणजीतसिंह ने इसे भगोवाल, सुकलगढ की भागा रियासत को जागीर में दे दिया। जिसमें से कि सुकलगढ़ सन् 1859 तक मजीठिया खानदान के अधिकार में रहा और सरदार लेहनासिंह की मृत्यु के बाद सरकार गवर्नमेण्ट ने अपने राज्य में मिला लिया। रणजीतसिंह ने बुद्धासिंह के लिए धर्मकोट भागा की जागीर दे दी जिसकी कीमत 22 हजार थी। सन् 1846 ई० में इनकी मृत्यु तक इनके अधिकार में रही। राजा लालसिंह ने इसे ले लिया। किन्तु सरदार लेहनासिंह के कहने पर बुद्धासिंह के बेटे प्रतापसिंह और उनकी तीन बेवाओं की गुजर के लिए 5 हजार की जायदाद दे दी, किन्तु अन्तिम आज्ञा की मंजूरी होने के पहले ही प्रतापसिंह की मृत्यु हो गई! उनके कोई औलाद न थी, अतः दरबार ने हरीसिंह और इस खानदान की स्त्रियों के लिए 3800) रु० मंजूर कर दिये। सन् 1852 ई० में हरीसिंह की मृत्यु हो गई। इनके पुत्रों में से ईश्वरसिंह सन् 1901 में और जीवनसिंह 1905 में मर गए! ईश्वरसिंह के दो पुत्र और


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-535


जीवनसिंह 5 पुत्र छोड़कर मरे, जिनमें से सबसे बड़ा हरनामसिंह सारे खानदान की जागीर का प्रधान बना जो बटाला के पास बुर्ज आर्ययान गांव में है जिसकी कीमत 619 रुपया है।

भागा खानदान का वंश-वृक्ष

इनके दो भाई मुसलमान हो गये और मुसलमान होने पर उनके नाम मुहम्मद इकबाल और फजलहक रखे गये, दोनों के पास धर्मकोट में जमीन थी और फजलहक के पास लायलपुर जिले में 6 मुरब्बे जमीन और भी थी। एक और भाई जिसका नाम गुरुदयालसिंह था, 25वीं केवेलरी में जमादार था और सबसे छोटा भाई बलवन्तसिंह था उसे 10) रुपया माहवार का भत्ता मिलता था, जो जागीर से दिया जाता था। सर लैपिल ग्रिफिन ने इस खानदान का वंश वृक्ष इस प्रकार दिया है -

  • अकाल
  • अकाल का पुत्र अमरसिंह
  • अमरसिंह के दो बेटे हुए - 1. भागसिंह 2. बुद्धसिंह
  • बुद्धसिंह के तीन बेटे हुए - प्रतापसिंह, गुरुमुखसिंह, काकासिंह।
  • भागसिंह का एक बेटा हरीसिंह हुआ।
  • हरीसिंह के तीन बेटे हुए - 1. भूपसिंह (उनके एक बेटा गुलाबसिंह) 2. ईश्वरसिंह 3. जीवनसिंह
  • ईश्वरसिंह के चार बेटे हुए - 1. करमसिंह 2. ऊधमसिंह 3. कृपासिंह 4. मेहरसिंह
  • जीवनसिंह के छः बेटे हुए - 1. हरनामसिंह 2. सन्तसिंह 3. फजलहक (मुसलमान हो गया) 4. गुरुदयालसिंह 5. मुहम्मद इकबाल (मुसलमान हो गया) 6. बलवन्तसिंह

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-536


खन्दा

रन्धावा खानदान का संस्थापक बीकानेर राज्य का रहने वाला था। लगभग 700 वर्ष हुए होंगे कि इससे पंजाब के इतिहास में सात वंश उत्पन्न हुए, जिनके ये नाम हैं -

1. धर्मकोट, 2. धनियानली, 3. इमिचारी, 4. दोहा, 5. दोरंगा या तलवन्दी, 6. काठूनागल और 7. खन्दा

अन्तिम 5 वंशों का ही वर्णन यहां दिया जाएगा। इनमें खन्दा सबसे प्रसिद्ध था और काठूनागल, धर्मकोट और धनियानली उस समय बहुत ही कम प्रसिद्ध थे।

रन्धाना की पांचवीं पीढ़ी पर कजल हुए। ये पंजाब में आकर बटाला के नजदीक बस गए। इन्होंने गुरुदासपुर जिले के कीमती प्रदेश पर अधिकार कर लिया, जिसमें कि नौशेरा, जफरवाल, खन्दा, शाहपुर और पड़ौसी गांव भी शामिल थे। रन्धाना खानदान की दूसरी शाखायें भी इसी समय में प्रसिद्धि को प्राप्त हुईं। खन्दा वाला खानदान कन्हैया मिसल में सम्मिलित था और सरदार जयसिंह कन्हैया की मृत्यु तक जो कि सन् 1793 में मरे, उन्होंने अपनी रियासत पर पूर्ण अधिकार रखा, जिसकी कि आमद लगभग दो लाख रुपया थी। किन्तु जयसिंह की विधवा रानी सदाकौर ने जो कि बड़ी योग्य थीं, इस खानदान के आपसी मनोमालिन्य से लाभ उठाकर नौशेरा को और हयातनगर कलां को ले लिया और इससे आगे चलकर सरदार प्रेमसिंह के समय में महाराज रणजीतसिंह ने सारी रियासत पर अधिकार कर लिया। इस खानदान के लिए 6000) रुपये की निकासी के केवल 10 ही गांव रहने दिए। प्रेमसिंह के पिता पंजाबसिंह ने लोधसिंह मजीठिया की पुत्री से विवाह किया था, जिनके पुत्र सरदार देशासिंह का महाराज रणजीतसिंह के साथ बड़ा रौब-रौब था। उन्होंने प्रेमसिंह को अपने दस सवारों के साथ अपने अधिकार में रक्खा। युवक सरदार ने महाराज रणजीतसिंह की फौज के साथ बहुत से धावों में सेवायें की थीं, जिनमें मुल्तान और पेशावर के धावे भी सम्मिलित हैं। सन 1824 की दूसरी नवम्बर को यह नदी में बह गये, जबकि यह महाराज की फौज के साथ सिन्ध नदी को पार कर रहे थे, जब वह बरसात के पानी के कारण अधिक चढ़ी हुई थी। जागीर इनके चारों बेटों में इन्हीं शर्तों पर छोड़ दी गई।

सन् 1836 में सरदार जयमलसिंह अपने भाई जवाहरसिंह के साथ महाराज रणजीतसिंह की सेवा में आ गये। इन्हें रामगढ़िया ब्रिगेड का कमाण्डर सरदार लेहनासिंह ने, इनके श्वसुर फतेसिंह चाहल की जगह पर, जो कि कुछ अरसा हुआ मर चुके थे, नियुक्त कर दिए। दोनों भाई लेहनासिंह के साथ पेशावर गये, जबकि इसने अफगानों से बदला लेने के लिए धावा किया था। क्योंकि सन् 1837 में जमरूद स्थान पर उन्होंने परास्त दे दी थी। जवाहरसिंह ने लेहनासिंह के साथ रियासत मण्डी के पहाड़ी प्रदेश में सेवा की। खन्दा सरदार पंजाब के शामिल किए


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-537


जाने तक मजीठिया सरदारों के जागीरदार रहे। जसवन्तसिंह सन् 1844 में मर गए।

सरदार जवाहरसिंह और हीरासिंह एक मां के पुत्र थे, और सरदार जयमलसिंह तथा जसवन्तसिंह दूसरी मां के थे। किन्तु इन सौतले भाइयों में पूर्णतः हार्दिक प्रेम था। सरदार लेहनासिंह ने उनके जागीर पर झगड़ा करने पर जागीर को निम्न प्रकार से बांट दिया -

जयमल के खन्दा, खन्दी, सुजानपुर, भदीपुर, शाहपुर, माली समरार और हरसियान का आधा भाग, जफरवाल और बन्दीवाल जिनकी आमद 4000) थी, दो हजार रुपया नकद भत्ता के मंजूर किए गए तथा उन्हें छः सवार तैयार रखना मंजूर किया गया।

जवाहरसिंह के लिए जफरवाल, मलियान और आधा हरसियान जिसकी कि निकासी 2600) थी तथा 1200) नकद भत्ता मंजूर हुए तथा चार सवार तैयार रखना मंजूर किया गया। लेकिन जैसे ही लेहनासिंह दूसरी बार बनारस जाने वाले थे कि जायदाद के अधिकार पर इन भाइयों के अन्दर फिर झगड़ा हो गया। यह झगड़ा खन्दा और शाहपुर के अधिकारों के ऊपर था, जो इनके पुरुषों के गांव थे। लेहनासिंह ने इसके लिए एक पंचायत नियुक्त कर दी, जिसने यह फैसला किया कि सरदार जयमलसिंह खन्दा, शाहपुर के प्रधान अधिकारी जाने जायें और सरदार जवाहरसिंह नौशेरा और झटूपटू के प्रधान अधिकारी माने जायें। लेकिन अन्तिम दो गांवों के प्रधानों ने जो कि रन्धावा वंश के थे, इस अधिकार का प्रतिवाद किया और सन् 1854 में सैटिलमेण्ट कोर्ट से इनके पक्ष में निर्णय किया गया। तब जवाहरसिंह ने आधा खन्दा और शाहपुर के लिए दावा पेश किया, किन्तु सैटिलमेण्ट आफिसर ने इनके विरुद्ध निर्णय दिया।

सरदार जवाहरसिंह ने कभी भी अंग्रेज सरकार की सेवा नहीं की। सन् 1850 ई० में ये बनारस जाकर सरदार लेहनासिंह से मिले, लेकिन शीघ्र ही पंजाब को वापस आ गए। सन् 1840 ई० में सरदार जयमलसिंह, सरदार लेहनासिंह मजीठिया के मातहत नाइब अदालती (डिप्टी जज) मुकर्रिर किये गये। जब सन् 1848 का गदर हुआ तो ये मजबूत बने रहे और अंग्रेज-सरकार का पक्ष लिया। इन्होंने मंधा के बारियों के दबाने में पूरा हिस्सा लिया। उनके घर इन्होंने जब्त कर लिए और अपनी राजभक्ति, बुद्धिमानी और साहस के द्वारा अधिकारियों से खूब प्रतिष्ठा पाई। पंजाब के किला लेने के बाद ये बटाला के तहसीलदार नियुक्त हुए और मुल्क में नये शासन का खूब ही प्रचार किया। यद्यपि वे अंग्रेजी कानूनों से परिचित न थे तो भी उन्होंने अपने कार्य को ऐसी योग्यता के साथ लिया कि वे महकमा ठगी के अतिरिक्त सहायक कमिश्नर बना दिए गए। कर्नल स्लीमन, मैजर मैकेन्ड्र और मि० ब्रैरेटन ने इनकी सेवाओं की खूब प्रशंसा की है। वे ठगों के गिरफ्तार करने में देदाव से खबरें इकट्ठा करने के लिए नियुक्त हुए थे और उनको


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-538


खन्दा राजवंशावली

सजा देते थे और इसके पश्चात् वे जेल का चार्ज लेने और दस्तकारी स्कूल के अधिकारी नियुक्त होने के योग्य समझे गये। इन्होंने सन् 1860 में अतिरिक्त सहायक कमिश्नर के पद से त्यागपत्र दे दिया। सन् 1857 ई० में इन्होंने बहुत ही अच्छी सेवा की और उसके उपलक्ष में राजभक्ति के स्वरूप 1000) रुपये की खिलअत मिली। कई वर्षों तक आनरेरी मजिस्ट्रेट रहने के पश्चात् ये सन् 1870 में मृत्यु को प्राप्त हो गये। इनकी 2200) रुपये सालाना की जागीर इनके पुत्र कृपालसिंह के अधिकार में रही। इसका इन्हें चौथाई नजराना देना पड़ता था। कृपालसिंह भी बटाला में मजिस्ट्रेट थे। ये सन् 1872 में मर गये और जागीर जब्त कर ली गई। उनकी विधवा स्त्री के जो कि सरदार गोपालसिंह मनोकी वाले की पुत्री थीं, से महेन्द्रसिंह नाम का एक पुत्र था। इस वंश के लिए दरबार की ओर से न तो कोई जागीर ही है और न कोई स्थान ही इनके लिए दरबार में है।

लैपिल ग्रिफिन ने इस खानदान का वंश-वृक्ष निम्न प्रकार दिया है -

  • दयानतराय
  • दयानतराय का बेटा लछीराम।
  • लछीराम के तीन बेटे थे - माजासिंह, गजसिंह, तेजसिंह।
  • गजसिंह के पुत्र हुए पंजाबसिंह और पंजाबसिंह के पुत्र थे सरदार प्रेमसिंह।
  • सरदार प्रेमसिंह के चार पुत्र थे - जवाहरसिंह, हीरासिंह, सरदार जयमलसिंह और जसवंतसिंह।
  • सरदार जयमलसिंह के एक पुत्र कृपालसिंह हुआ। कृपालसिंह के कोई सन्तान न थी, सो उन्होंने अमरीकसिंह को गोद ले लिया।
  • अमरीकसिंह के एक पुत्र रनजीतसिंह हुआ।

सिरानवाली

इस खानदान के पूर्वज हुसैन नाम के एक सिन्धू जाट थे, जिन्होंने लगभग सन्


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-539


1500 के गुजरानवाला जिले में हसनवाला गांव की नींव डाली थी। सिरानवाली नामक गांव स्यालकोट जिले की पसरूर नामक तहसील में है। कहा जाता है कि इस गांव को भी इन्होंने बसाया था, जहां पर इन्होंने शक्तिशाली करिया वंश को परास्त किया था और वध किए हुए व्यक्तियों के सिर काटकर उनका एक ढेर इकट्ठा कर दिया और उन पर बैठकर स्नान किया। इसी कारण से इस गांव का नाम सिरानवाली (सिरों की जगह) रखा गया। किसी प्रकार सिरानवाली गांव इस वंश के हाथों से निकल गया और इस वंश का दरगा नामक व्यक्ति जो सिक्ख हो गया था, गरीबी के कारण स्यालकोट जिले को छोड़कर जिला गुरदासपुर में चला आया, जहां पर वह जयमलसिंह फतेहगढ़िया की फौज में घुड़सवारों में भर्ती हो गया। इसका पुत्र लालसिंह इसका उत्तराधिकारी हुआ, जो अपनी योग्यता के कारण 100 घुड़सवारों का मालिक हो गया।

लालसिंह की पुत्री ईश्वरकौर की सुन्दरता स्यालकोट जिले में प्रसिद्ध थी। सन् 1815 में जब महाराज रणजीतसिंह इधर आए तो लालसिंह ने अपनी पुत्री को इनके महल में लाहौर भेज दिया। दो महीने के पश्चात् रणजीतसिंह ने उसे अपने पुत्र कुंवर खड़गसिंह के पास भेज दिया, जिन्होंने अमृतसर में चादर डालकर उससे शादी कर ली। इसके थोड़े ही दिन पश्चात् लालसिंह की तो मृत्यु हो गई, किन्तु उनके पुत्र मंगलसिंह ने इस सम्बन्ध से लाभ उठाया। जब ये पहली बात दरबार में आए तो ये केवल एक गंवार जाट किसान थे। कहा जाता है कि महाराज रणजीतसिंह ने अपने सेवकों से इनके देहाती वस्त्र बदलने को कहा और उन्हें दरबार के लायक वस्त्र पहनाने की आज्ञा दी। मंगलसिंह ने कभी पाजामा नहीं पहना था और इसी कारण से उसने पाजामे की एक ही टांग को दोनों पैरों में चढ़ाने की चेष्टा की, इस पर दरबारियों को बड़ा ही अचरज हुआ।

यद्यपि मंगलसिंह दरबारी नहीं था, किन्तु वह एक चतुर युवक था। अतः उसने शीघ्र ही दरबार में मान प्राप्त कर लिया। कुंवर खड़गसिंह ने थालूर और खीटा की जागीर इसे दे दी जिसकी कि आमदनी 5000) थी और साथ ही लाहौर जिले के चुनियान इलाके का चार्ज भी दे दिया। कुंवर साहब मंगलसिंह के इस पद की कार्य-कुशलता से ऐसे प्रसन्न हुए कि उन्होंने सन् 1820 में महाराज रणजीतसिंह की मंजूरी से मंगलसिंह को अपने फौजदारी और दीवानी सभी मामलात का मैनेजर नियुक्त कर दिया और सरदार की उपाधि के साथ 19000) की आमद की जागीर भी इसे दे। मंगलसिंह ने अपने कुटुम्ब के प्राचीन गांव सिरानवाली को भी अपने अधिकार में कर लिया जो कि अब तक सरदार श्यामसिंह अटारीवाला के कब्जे में था। कई वर्षों तक मंगलसिंह उच्च-पद पर बने रहे और जागीर को बढ़ाते रहे तथा कुंवर खड़गसिंह के साथ उनके सभी युद्धों में जाते रहे। किन्तु सन् 1834


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-540


में सरदार चेतासिंह बजुआ को मंगलसिंह के स्थान पर कुंवर साहब के सभी मामलात के प्रबन्ध के लिए नियुक्त कर दिया गया, जिसके साथ सरदार मंगलसिंह की मौसी चांदकौर ब्याही गई थी और जिसे उसने स्वयं ही खड़गसिंह से परिचित कराया था। इस अदला-बदली से मंगलसिंह को कोई हानि न हुई, क्योंकि खड़गसिंह ने पहली जागीर के अलावा और भी नई जागीर दे दी थीं और अब कुल जागीर की आमाद 261250) हो गई थी, जिसमें से कि 62750) तो व्यक्तिगत थे और शेष रुपये 780 सवार, 30 जम्बूरा और 2 तोपें रखने की शर्त पर थे।

चेतसिंह की उन्नति ही उसके नाश का कारण हुई। रणजीतसिंह के शासनकाल में वह कुंवर साहब का प्रधान प्रीति-पात्र बना रहा और उसकी शक्ति भी बहुत अधिक थी क्योंकि खड़गसिंह तो कमजोर व्यक्ति था और उनका प्रीति-पात्र उन पर चाहे जैसा प्रभाव डाल सकता था। किन्तु रणजीतसिंह की मृत्यु के पश्चात् और कुंवर खड़गसिंह के गद्दी पर बैठते ही उन सरदारों ने जिनकी कि ईर्ष्या चेतसिंह ने जाग्रत कर दी थी, इसे नष्ट करने का पक्का विचार कर लिया। राजा ध्यानसिंह और कुंवर नौनिहालसिंह षड्यंत्र के नेता थे और इन्होंने अभागे चेतसिंह को महाराज की उपस्थिति में ही महल में प्रत्यक्ष रूप से कत्ल कर दिया।

सन् 1834 में जब कि चेतसिंह शुरू में ही महाराज के पास रक्खा गया था, तब सरदार मंगलसिंह को जिला डेरागाजीखां में जंगली मजारी कौम को शान्त रखने के लिए भेजा था, किन्तु वह सीमाप्रान्त पर शान्ति स्थापित न कर सका। नवम्बर सन् 1840 में महाराज खड़गसिंह की मृत्यु हो गई और रानी ईश्वरकौर उनके साथ सती हो गई। उस समय यह निश्चय किया गया था और इसका विश्वास करने के लिए हर एक कारण भी है कि रानी ईश्वरकौर अपनी इच्छा से सती नहीं हुई थी, बल्कि उन्हें मजबूर किया गया था और यह बीभत्स कार्य राजा ध्यानसिंह का था। रानी ईश्वरकौर और रानी चांदकौर में जो कि खड़गसिंह की प्रधान रानी थीं, सदैव ही बड़ी ईर्ष्या रहती थी और इस रानी के प्रभाव ने भी रानी ईश्वरकौर को सती होने के लिए अग्रसर किया।

मंगलसिंह ने यह आशा की थी कि इस समय उसे कुछ अधिकार प्राप्त हो जायेगा। स्वर्गीय महाराज का साला होने के कारण और कई वर्षों तक सर्विस करके बहुत सा धन इकट्ठा करने के कारण, उसे कुछ विश्वास हो गया था कि कुंवर शेरसिंह से भी वह कुछ जागीर प्राप्त कर सकेगा। किन्तु राजा ध्यानसिंह सरदार चेतसिंह से पिण्ड छुड़ा कर यह नहीं चाहता था कि दूसरे व्यक्ति को यह अधिकार मिले। अतः मंगलसिंह धीरे-धीरे अवनति को प्राप्त हो गए। कुछ समय के बाद महाराज शेरसिंह ने उसकी पहली जागीर को सिवाय 37000) के जब्त कर लिया। किन्तु उसे सहीवाला और वंकलचिमी में 124500) की आमद की नई जागीर दे दी। सन् 1846 तक वह इसे अपने अधिकार में रक्खे रहा, जब कि


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-541



राजा लालसिंह ने इसे ले लिया और मंगलसिंह के लिए केवल 86000) की पुरानी जागीर रहने दी और 36000) की नई जागीर इस शर्त पर मंजूर की कि वह 120) घुड़सवार तैयार रक्खे। इसमें कमी करना एक अन्याय की बात थी, क्योंकि सरदार मंगलसिंह ने खड़गसिंह की मृत्यु के बाद किसी भी राजनैतिक मामले में भाग नहीं लिया था। किन्हीं अंशों में इसकी कमी की पूर्ति के लिए रेजीडेण्ट मेजर लारेन्स ने उसे रचना दुआव का अदालती मुकर्रिर कर दिया था। इस मुकर्रिरी से उसे संतोष न हुआ, क्योंकि वह सिपाही स्वभाव का व्यक्ति था। अतः यह कार्य उन्हें रुचिकर प्रतीत न हुआ। जब सन् 1848 में गदर शुरू हुआ, तब यह वजीराबाद में थे। उस समय इनको नावों का चार्ज दिया गया। उन्हीं के लेख के अनुसार उन्हें राजा शेरसिंह ने जिस समय कि वह बागी फौज के रास्ते को रोक रहे थे, कैद कर लिया और वे रामनगर युद्ध तक कैदी ही बने रहे। उस समय उन्हें छुटकारा मिला था और वे मैजर निकलसन के साथ में हो गये जिनकी कि कमान में इस युद्ध की समाप्ति तक रहे। सरदार मंगलसिंह को सरकार अंग्रेज सन्देह की निगाह से देखने लगी और पंजाब मिला लेने के बाद उनके लिए केवल 1200) रु० की नकद पेन्शन उनकी जिन्दगी के लिए मंजूर हुई। किन्तु यह याद रखना चाहिए कि इनके विरुद्ध राज-द्रोह कभी प्रमाणित नहीं हुआ था, बल्कि वह नाजुक समय में अंग्रेजों के साथी हो गये थे और युद्ध के अन्त तक वह रसद पहुंचाने तक अंग्रेजी फौज की दूसरी सेवाओं में लगे रहे थे। सरदार मंगलसिंह का जून सन् 1864 में देहान्त हो गया। इन्होंने अपने पीछे 4 विधवायें छोड़ीं, जिनमें से कि हर एक के लिए 200) रु० सालाना की पेंशन गवर्नमेंट से मुकर्रर हुई थी। इनके रिछपालसिंह नाम का एक ही पुत्र था जिसे कि सरदार का खिताब देकर प्रान्तीय दरबार में स्थान दिया गया और सन् 1668 तक जब तक कि वह बालिग हुआ, उसे कोर्ट ऑफ वार्ड के अधिकार में रक्खा गया। सन् 1870 में इसने सरदार कश्मीरासिंह की विधवा रानी झींदकौर की भतीजी से विवाह कर लिया। सन् 1884 में यह डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के प्रधान चुने गए। गवर्नमेण्ट की सर्विस में न होते हुए इस प्रकार की मुकर्ररी का एक भारतीय के लिए यह पहला ही मौका था। इसी साल में उनको दीवानी और फौजदारी के अधिकारों के साथ आनरेरी मजिस्ट्रेट बनाया गया, जिसमें कि ढाई सौ गांव मुकर्रिर किए गए और सिरानवाली में कचहरी बनाई गई। इस स्थान पर उन्होंने प्रसन्नता के साथ 18 साल तक काम किया और सन् 1902 में इस पद से त्याग-पत्र दे दिया, इनके स्थान पर उनका पुत्र सरदार शिवदेवसिंह मुकर्रर किया गया। सन् 1907 में शिवदेवसिंह को सरदार का खिताब तथा प्रान्तीय दरबार में खानदान का स्थान दे दिया गया।



जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-542


सिरानवाली राजवंश

सर लैपिल ग्रिफिन ने इस खानदान का वंश-वृक्ष निम्न प्रकार दिया है -

  • दरगासिंह के दो पुत्र थे - लालसिंह और तेजचन्द। इन दोनों की वंशावली इस प्रकार है।

लालसिंह की वंशावली - इनकी दो सन्तान थीं - 1. रानी ईश्वरकौर (राजा खडगसिंह के साथ विवाह हुआ) 2. मंगलसिंह। मंगलसिंह का पुत्र सरदार रिछपालसिंह और प्रपौत्र सरदार शिवदेवसिंह। शिवदेहसिंह के दो पुत्र थे - बलवन्तसिंह और रघुवन्तसिंह।

तेजचन्द की वंशावली - इनका एक पुत्र था जिसका नाम 'घसीटा' था। घसीटा के दो पुत्र हुए - हुक्मसिंह और हाकिमसिंह। फिर हुक्मसिंह के भी दो बेटे थे - गंडासिंह और देवासिंह।

वडाला

वडाला: कहा जाता है इस वंश का संस्थापक गजनी से आया था। आजकल इस वंश के लोग मंझा में बसे हुए हैं। लाहौर, अमृतसर में भी बहुत से सिन्धू गांव हैं और गुरुदासपुर में भी बहुत से हैं। गुजरानवाला में 90 गांव हैं, स्यालकोट में 50 और थोड़े से गुजरात में हैं। इससे आगे उत्तर में यह वंश नहीं पाया जाता है। जिला अमृतसर के तरन तारन परगना में आकर सिन्धू पहले बस गया। उसके मरने के कई वर्ष बाद उसका वंशज मोकल स्यालकोट चला आया, जहां पर डस्का के पास उसने एक गांव अपने नाम से बसाया। कुछ पीढ़ियों के बाद उसके वंशजों में से एक ने जिसका कि नाम गजू था, मोचल के पास ही एक दूसरा गांव बसाया, जिसका नाम उसने अपने खानदान में सबसे बड़ा होने के कारण वडाला रक्खा (पंजाबी भाषा में वडा बड़े को कहते हैं)। मुगल शासन-काल में इस वंश का दुर्गामल नामक व्यक्ति पड़ौसी गांवों का चौधरी नियुक्त हुआ। यह पद वंशानुगत था और कुछ समय के बाद इस पद का अधिकारी दुर्गामल का नाती हुआ जिसने कि सिख-धर्म स्वीकार कर लिया था। दीवानसिंह ने मरते समय तक मुगल राज्य से मित्रता रक्खी और अपनी सेवाओं के कारण उपहार-स्वरूप अपने इलाका के तीन गांवों के प्रधान-पद के अधिकार को प्राप्त किया।

इन्होंने अपने पीछे एक पुत्र छोड़ा जिसने इस वंश के इतिहास को नया रूप दे दिया। अपने पिता की मृत्यु के थोड़े ही दिन बाद, सरदार महताबसिंह ने देखा कि मुगल-वंश का सितारा लुप्त होता जा रहा है, अतः इन्होंने अपने लिये एक नया मार्ग ग्रहण करने के लिये इरादा कर लिया। इन्होंने 52 गांवों की उगाही को अपने


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-543


चार्ज में लेकर वडाला में अपनी स्थिति को शक्तिशाली करने का कार्य शुरू किया। उन्होंने शीघ्र ही मालूम किया कि वह अकेले ही इस कार्य को सम्पन्न नहीं कर सकते। अतः उन्होंने भंगी मिसल के बड़े सरदार गंडासिंह और झंडासिंह के यहां स्वयं तथा अपने साथियों को लेकर नौकरी कर ली।

उन्हें अपने गांवों की उगाही का तो अधिकार दे दिया गया, किन्तु उन्हें इसके लिए अपने मालिकों को थोड़ी सी फौजी मदद देना आवश्यक था। इसी समय में उनके तीसरे पुत्र सुलतानसिंह ने सरदार भागसिंह मलोदा के एक रिश्तेदार की पुत्री से शादी कर ली। इस रिश्तेदारी की ताकत से वह शीघ्रता से अपनी शक्ति बढ़ाने लगे। यह देखकर महासिंह उत्तेजित हो गये और उन्होंने गुजरानवाला की घरू पंचायत में बुलाया। यह 500 आदमियों को साथ में लेकर के बड़ी शान-शौकत से वहां गये। लेकिन दूसरे ही दिन उस समय की रिवाज के अनुसार वह गिरफ्तार कर लिए गए और कैद कर दिए गए। एक बड़ी फौज वडाला जीतने के लिए भेजी गई। किन्तु इनके चारों पुत्रों ने बड़ी बहादुरी से मुकाबिला किया और थोड़ा सा युद्ध होने के पश्चात् राजीनामा हो गया, जिसके कि अनुसार 125000) जुर्माना देने पर वे अपने बाप को मुक्त करा सकें। चूंकि कुल रुपया एकदम ही नहीं दिया जा सकता था, अतः सुलतानसिंह को जिसकी कि शादी भी इस उपद्रव का एक कारण थी, जमानत के लिए रक्खा गया। महासिंह की मृत्यु के बाद शेष जुर्माना अदा न करने की चेष्टा की गई, किन्तु सफलता न मिली। सुलतानसिंह को कुल जुर्माना ही वसूल हो जाने पर बरी किया गया।

इससे पहले श्यामसिंह और नधनसिंह में कुछ मनमुटाव हो गया था, और उनके पिता की मृत्यु के बाद उनकी शक्ति से दबा हुआ झगड़ा प्रत्यक्ष में शुरू हो गया। उनके पड़ौसियों ने इससे लाभ उठाया। नधनसिंह, हेतू और अहलवालियां ने वडाला रियासत को दबाना शुरू किया। उसी समय रणजीतसिंह ने इस जिले पर धावा किया और सन् 1809 में डस्का के पास नधनसिंह को परास्त किया। उन्हें वडाला और मोचल दोनों ही नधनसिंह के अधिकार में मिले थे। नधनसिंह काशमीर को भाग गया और श्यामसिंह का सबसे बड़ा पुत्र टेकसिंह भी उसके साथ चला गया और वडाला खड़गसिंह को दे दिया गया। दोनों चचा-भतीजे काशमीर के गवर्नर अतामुहम्मदखां के यहां नौकर हो गये। किन्तु पुराने खानदानी झगड़े अभी बन्द नहीं हुए थे।

जब अतामुहम्मदखां ने दोस्तमुहम्मदखां के काबुल आने के निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया और इस प्रकार काश्मीर पर अमीर का अधिपत्य मंजूर न किया तो अमीर काबुल ने सिखों की सहायता से उसे ठीक करने के लिए चढ़ाई की। सन् 1813 में इन्हें सफलता मिल गई जब कि दीवान मौहकमचन्द और फतेहखां ने अतामुहम्मदखां को काशमीर से भगा दिया था। इस पर टेकसिंह अपने


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-544


खानदान के उन लोगों के साथ जो कि इसके साथ यहां आये थे, दीवान के पास गया और उसके साथ ही लाहौर लौट आया। यहां पर उसे महाराज ने होशियारपुर जिले में 3 गावों के प्रधान पद के अधिकार दे दिये। उन्होंने अपने छोटे भाई को इस जागीर की देखभाल के लिए मुकर्रर कर दिया और स्वयं अटक में काम करने चले गये। उस समय से अपनी मृत्यु सन् 1844 तक वह लगातार खालसा की सेवा में रहे। टेकसिंह की सेवाओं के बदले में उसके चचाओं को पहली खानदानी रियासत के थोड़े से भाग पर अधिकार दे दिया गया, जहां पर कि वे स्यालकोट जिले में रणजीतसिंह का शासन स्थापित होने के थोड़े ही समय पश्चात् पहुंच गए। इनमें से न तो किसी आदमी ने ही और न उनके बच्चों ने ही लगातार के अशान्ति के समय में बागियों के साथ प्रत्यक्ष भाग लिया।

सन् 1830 में सरदार फतेहसिंह होशियारपुर में मर गए और कोई सन्तान न छोड़ गए। अतः जागीर के गांवों के प्रबन्ध के लिए किशनसिंह अधिकारी हुए। सन् 1862 में उनकी मृत्यु हो जाने पर यह जागीर अंग्रेजी सरकार ने अपने राज्य में मिला ली। किन्तु इस कुटुम्ब के पास अब भी इस जिले में कुछ जमीन है।

सरदारसिंह अपने ज्येष्ठ भ्राता के समान सिपाही थे और बाड़ा घुड़ चढ़ा में नौकर थे। किन्तु इन्हें टेकसिंह के समान ख्याति प्राप्त न हुई। यह सन् 1881 में मर गए। ज्वालासिंह और मोहनसिंह अपने बाप के पास थे और वहीं काशमीर में मोहनसिंह का देहान्त हो गया।

जनरल मिहांसिंह ने जो फौज में गवर्नर थे, ज्वालासिंह के लिए प्रबन्ध कर दिया। जब गवर्नर को उन्हीं की फौजों द्वारा कत्ल कर दिया गया तो ज्वालासिंह मुश्किल से अपनी जान बचाकर भाग पाया। जो फौज गदर को दबाने के लिए भेजी गई थी, वह उसमें शामिल हो गया और जब शान्ति स्थापित हो गई तो इन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और वडाला को लौट आया और वहां पर अपनी वंशानुगत निजी जायदाद की देखभाल करता रहा। द्वितीय सिख युद्ध के समय गदर में शामिल हो जाने के कारण उनकी यह जायदाद जब्त कर ली गई। सन् 1883 में ज्वालासिंह मर गए और 5 वर्ष का एक लड़का छोड़ गए।

मोहनसिंह को 10 साल की उम्र में ही शेरदिल रेजीमेण्ट में कमीशन मंजूर कर दिया गया। उसमें वे सन् 1855 तक नौकरी करते रहे और फिर 20) माहवारी की पेन्शन पर रिटायर हो गए। मेरठ में गदर शुरू होने पर उन्होंने अंग्रेज सरकार की सेवा की और ये सूबेदार तथा बन्दा-मिलिट्री पुलिस के वर्दी मेजर बनाए गए। गदर के समय में बहादुरी दिखाकर इन्होंने ख्याति प्राप्त की और बागियों से स्वयं युद्ध करने में दो बार बहुत ही ज्यादा घायल हो गए थे। इसके उपलक्ष में उन्हें 120) की पेन्शन और मोचल में दो कुओं का अधिकार मंजूर किया गया।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-545


साहबसिंह के मर जाने पर गवर्नमेण्ट ने उनकी जागीर के तीन चौथाई हिस्से को जब्त कर लिया, शेष एक चौथाई भाग उनके दो पुत्रों में बंट गया।

इनमें से मंगलसिंह ने सरकारी नौकरी करना तो मंजूर नहीं किया, किन्तु हमेशा जिले के अफसरों को सहायता देता रहा। सन् 1882 में इसका देहान्त हो गया। इसके दोनों पुत्र फौज में भर्ती हो गये। गोपालसिंह बारहवीं बंगाल कैवेलरी का जमादार था और सुन्दरसिंह, रिसालदार तथा अठारहवीं तिवाना लैंसर्स में वर्दी मेजर था। सरदार का दूसरा पुत्र प्रसिद्ध व्यक्ति था। जब मई सन् 1857 में गदर शुरू हुआ तो डिप्टी कमिश्नर के बुलाने पर यह 200 आदमी लेकर स्यालकोट आया और पुलिस का सूबेदार नियुक्त कर दिया गया और स्यालकोट में एक महीने तक अपने आदमियों को शिक्षा दिलाने के बाद और अधिकतर उनको देहली रवाना करने के पश्चात्, वह और रंगरूट भर्ती करने के लिये वडाला लौट आया। जब उसने 9 जौलाई के छावनी के गदर का हाल सुना तो वह अकेला ही स्यालकोट रवाना हो गया और कुछ कठिनता के साथ किले में पहुंच गया। यह लैफ्टीनेण्ट मैक-महोन के साथ भी कोचाक को गये और वहां अशान्त गांवों का निरीक्षण करने में बड़ी सहायता की। इसके एक साल बाद वह अवध मिलिट्री पुलिस में भर्ती हो गये और सन् 1861 में इसके टूट जाने पर यह पंजाब में पुलिस के इन्स्पेक्टर नियुक्त किए गये। सन् 1937 में यह अन्दमान के लिये असिस्टेण्ट सुपरेण्टेण्डेण्ट की मुकर्ररी के लिये चुने गये। सन् 1844 में वह एक अच्छी पेन्शन पर वापस आ गये और एक साल पहले वायसराय द्वारा उन्हें रायबहादुरी का खिताब भी मिला। यह प्रान्तीय दरबारी भी थे, इन्हें 220 एकड़ की खानदानी जागीर वडाला में और 280 एकड़ की लाहौर जिले में रखपैमार स्थान पर दी गई। 1200) माहवारी की पेन्शन तथा गुजरानवाला जिले में 500 एकड़ की जागीर भी मिली। सन् 1908 में इनका देहान्त हो गया।

Vadala Dynasty of Punjab.JPG

सन् 1874 में सरदार का बड़ा पुत्र ठाकुरसिंह अन्दमान में नौकरी पर नियुक्त हो गया और अपने बाप के लौट आने पर पुलिस का इन्स्पेक्टर बना दिया गया। सन् 1880 में घोड़े से गिरकर इसका देहान्त हो गया। इनके दो बेटे थे, जिनमें से बड़ा सोहनसिंह पांचवीं पंजाब कैवेलरी में रिसलदार था और अन्त में अतिरिक्त सहायक कमिश्चर तथा पंजाब सरकार का मीर मुंशी हो गया। सन् 1908 में इसका छोटा भाई तीस लैन्सर्स में रिसलदार था। रायबहादुर बघेलसिंह के पुत्र हाकिमसिंह को अठारहवीं बंगाल-कैवेलरी के लिये डाइरेक्ट कमीशन मंजूर किया गया और उसी फौज में अन्तिम अफगान-युद्ध तक काम करता रहा। बाद में वह बर्मा में पुलिस बटालियन के सूबेदार बना दिए गये और वहां से पेन्शन पर वापस आ गये। वह आनरेरी मजिस्ट्रेट और सिविल जज थे और अपने बाप की मृत्यु के बाद इस खानदान के प्रधान माने गये।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-546-547



कलास वजवा

इस वंश का संस्थापक कलास वजवा जाट था। वह गंगा का पुत्र था, जिसकी समाधि पसरुर में एक दर्शनीय स्थान है और वजवा गोत्र के हिन्दू तथा मुसलमान दोनों के लिए पूज्य है। समीपस्थ वजवा जाटों की अनेक सामाजिक रस्में इसी स्थान पर सम्पन्न होती हैं। ऐसा ज्ञात होता है कि कलास ने स्वयं इस स्थान को छोड़कर एक दूसरा गांव बसाया था जो आजकल कलाल वाला नाम से विख्यात है। अमीशाह और पत्ती नामक दो पुत्र कलास के थे।

भंगी मिसल के सरदार हरीसिंह के कोई पुत्र न था, अतः आपने दीवानसिंह को गोद ले लिया था और सन् 1760 में उसको अपने राज्य का राजा बनाकर चल बसे। इनके बाद खालसा ने धनासिंह को इनका उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। हरीसिंह के साथ, धनासिंह ने भेरा के घेरे तथा गुजरात के आसपास के युद्धों में बड़ी वीरता प्रदर्शित करके ख्याति पाई। उनके छोटे भाई मानसिंह ने तो हरीसिंह की सेवा में जीवन व्यतीत कर दिया था। फलतः भंगी मिसल द्वारा स्यालकोट को मुसलमान और राजपूतों से छीन लेने के बाद अपनी अन्य रियासतों को बांटा तो उस समय कलालवाला, पनवाला, चूहरा और महाराज के स्थान धनासिंह के हिस्से में आए थे। इनकी मृत्यु के बाद, इनके पुत्र जोधसिंह को महाराज रणजीतसिंह ने उत्तराधिकारी बना दिया। उसमें अपने पिता के समान ही वीरता के गुण थे। कुछ दिन बाद रणजीतसिंह ने उस पर हमला कर दिया। वह तीन वर्ष तक लड़ता रहा। पर अंत में पराजय स्वीकार करने के लिए विवश हुआ। उसको 10,000 रुपये की जागीर दे दी गई। वह इतने अच्छे दरबारी साबित हुए कि रणजीतसिंह ने अपने पुत्र खड़गसिंह का विवाह इनकी पुत्री खेमकौर के साथ कर दिया। साहबसिंह ने इस संबंध को रोकने का प्रयास किया था, अतः दरबार में उसकी स्थिति कमजोर हो गई। इसी वर्ष जोधसिंह का देहान्त हो गया। उसकी विधवा का सिख-दरबार में इतना प्रभाव था कि उसके बल उसकी जायदाद और जागीर का मालिक सरदार चांदसिंह बनाया गया।

सन् 1848 में चांदसिंह और उसका बड़ा भाई गुरुदत्तसिंह बड़े हो गए, अतः कलालवाला के किले में रहने लगे। अंग्रेजी फौज ने उन पर हमला किया, उनको हरा दिया, किला उड़ा दिया गया, गांव को नष्ट कर दिया। यह सत्य है कि रानी खेमखौर ने उनको बगावत के लिए उभारा था, पर अंग्रेजों ने रानी को 2400 रुपये के पेंशन दे दी। वह मृत्यु पर्यन्त सन् 1886 तक पेंशन पाती रही। गुरुदत्तसिंह और चांदसिंह को कुछ नहीं मिला। पंजाब के अंग्रेजी राज्य में मिला लेने पर गुरुदत्तसिंह चल बसे। धनसिंह की बची-खुची रियासत की देखभाल चन्दासिंह करता रहा। सन् 1867 में वह स्वर्ग सिधार गया और उसका इकलौता


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-548


पुत्र भगवानसिंह इस कुटुम्ब का प्रधान बन गया। वह हमेशा एक ग्रामीण की तरह रहता। मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व वह आनरेरी मजिस्ट्रेट बना दिया गया था। उसने अपनी बेटी महताबकौर का विवाह अटारी वाले सरदार तेजसिंह के साथ कर दिया था। वह अपने पति के साथ देश-निकाले में गई थी और बरेली में रहने लगी। दूर के भतीजे हीरासिंह तथा हाकिमसिंह उसके साथी बन गए थे।

भगवानसिंह का पुत्र सरदार रघुवीरसिंह अपने वंश का प्रधान हुआ। सन् 1898 में उसका देहान्त हो गया, तब उसका बेटा रनवीरसिंह कुटुम्ब का प्रधान बना। इस कुटुम्ब के एक व्यक्ति सन्तसिंह ने फौजी नौकरी की थी। सन् 1898 में वह स्वर्ग चला गया।

इस वंश का वंशवृक्ष इस प्रकार है -

  • कलास। इनके दो पुत्र थे - 1. अमीशाह, 2. पत्ती।
  • पत्ती के चार पीढ़ी बाद सुजान और राजा।
  • सुजान का दलची और दलची के मानसिंह तथा गुरुदत्तसिंह।
  • राजा के दीवानसिंह तथा कुंवरसिंह,
  • इसकी पांचवीं पीढ़ी में चरतसिंह तथा धनासिंह।
  • इनके महताबसिंह, जोधसिंह तथा निधानसिंह तीन पुत्र थे।
  • महताबसिंह की तीन पीढ़ी चलीं। जोधसिंह की बेटी खेमकौर थी और निधानसिंह के एक पुत्र था। *चरतसिंह के दो पुत्र थे। एक भागासिंह, दो भामरसिंह।
  • भामरसिंह के चार पुत्र हुए - 1. गुरुदत्तसिंह, 2. चांदसिंह 3. अरूरसिंह और 4. धनासिंह। *चांदसिंह के सरदार भगवानसिंह, इनके स० रघुवीरसिंह, इनके रनवीरसिंह।
  • अरूरसिंह की दो पीढ़ी चलीं। धनासिंह के हाकिमसिंह तथा सन्तसिंह दो पुत्र थे।
  • पहले का पुत्र करतारसिंह था और दूसरे का हरनामसिंह।

रूरियाला

रूरियाला गांव जिला गुजरानवाला में है। सरदार रजवन्तसिंह के एक पुरुखा चौधरी तेज ने इसकी नींव डाली थी। बहुत दिन तक यह वंश इस गांव में रहा। कुछ समय इस वंश को चौधराहट का पद भी मिला था। सन् 1759 में भगतसिंह सिख हो गया और इसने अपनी बेटी देवी का विवाह भंगी मिसल में करके रूरियाला गांव में जागीर बना ली। गूजरसिंह ने युवा सेवासिंह और देवासिंह को अपनी नौकरी में रख लिया और गुजरात जिले के गांव नौशेरा में जागीर दे दी। इनके बाद गूजरसिंह के पुत्र साहबसिंह ने यह जागीर ले ली। वह भंगी मिसल का उत्तराधिकारी भी बन गया था। रूरिवाला तथा इस जागीर के दो गांव देवासिंह के लिए छोड़ दिए गए थे। इनके पुत्र जोधसिंह ने सरदार जोधसिंह रूरियान वाला की फौज में नौकरी कर ली। यह 1825 तक उनका घुड़सवार सैनिक रहा। अमीरसिंह की मृत्यु के पश्चात् महाराज ने जागीर जब्त कर ली और फौज को शेरसिंह के कमाण्ड में कर दिया। सन् 1831 में जोधसिंह कुंवर साहब के साथ सैयद अहमद खां के विरुद्ध युद्ध में गया था। खां परास्त हुआ था


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-549


और दो सवार तैयार रखने की शर्त पर रूरियाली की जागीर 12043) रुपयों के साथ हमेशा उनके अधिकार में रही, सिर्फ एक साल के लिए ही सन् 1835 में जब्त कर ली गई थी। सन् 1848 में जिला गुजरानवाला के कोटली गांव में भी इन्हें जागीर मिल गई थी। सतलज के धावे के पश्चात् जोधसिंह अमृतसर में 3000) मय पर अपनी जागीर के अदालती बनाए गए। सन् 1849 में पंजाब के मिला लेने के पश्चात् यह उसी जगह पर अतिरिक्त सहायक कमिश्नर नियुक्त किए गए जहां पर वे सन् 1865 तक रहे और रिटायर हो गए।

सन् 1848-49 में अशांति के समय सरदार जोधसिंह राजभक्त रहे और अमृतसर शहर में शांति स्थापित रखने में पूर्ण उद्योग किया। पंजाब के अंग्रेजी राज्य में मिल जाने के समय से सन् 1862 के शुरू तक वे अमृतसर में सिखों के मन्दिर में दरबार साहिब के अधिकारी रहे। उन्हें स्वयं सिख-गुरुओं ने इस काम के लिए चुना था।

जोधसिंह का सबसे छोटा भाई सरदार मानसिंह फौज में एक प्रसिद्ध अफसर था। 25 साल की उम्र के लगभग वह राजा सुचेतसिंह की फौज में भर्ती हो गया था और पेशावर विजय प्राप्त करने के समय उसमें उपस्थित था। फिर वह राजा हीरासिंह की फौज में भर्ती हो गया। जहां पर कि वह कैवेलरी का एजूटेण्ट बना दिया गया। वह मुदकी, फीरोज शाह और सोवरांव में अंग्रेजों से लड़ा था। जब युद्ध खतम हो गया तो लाहौर में 50 घुड़सवार फौज का कमाण्डर बना दिया गया। सन् 1848 में वह अमृतसर भेज दिया गया और अपने भाई के साथ लड़ाई के समय बहुत अच्छी सेवा करता रहा। शांति हो जाने पर उसकी फौज तोड़ दी गई और वह पेन्शन पर रिटायर हो गए। किन्तु वे शान्ति से बैठने वाले पुरुष न थे अतः वह सन् 1852 में पुलिस में भर्ती हो गए और सन् 1857 तक उसी में रहे। गदर शुरू होते ही ये एक बड़ी फौज के कमाण्डर बनाकर मेजर हडसन के साथ देहली भी भेजे गए। मानसिंह ने देहली के घेरे और विजय में खूब सेवा की। ये सन् 1858 के गर्मी के मौसमों के धावे में लड़े और उनके नवाबगंज के युद्ध के साहस की सरकारी चिट्ठियों में इज्जत के साथ तारीफ की गई, जहां पर कि उन्होंने लेफ्टीनेण्ट बुलर को जो कि दुश्मनों से घिरा हुआ था, छुड़ाया। मानसिंह इस युद्ध में बहुत ही घायल हुआ और उसका घोड़ा तलवार से घायल हो गया। इस कार्य के उपलक्ष्य में उसे आर्डर ऑफ मेरिट की उपाधि मिली। सरदार साहब सन् 1877 में नौकरी से रिटायर हो गए और अमृतसर में रहने लगे। वहां पर वे सम्मान का जीवन व्यतीत करते हुए सिख-धर्म की सहायता में धन व्यय करते हुए समय व्यतीत करने लगे। सन् 1879 में आनरेरी मजिस्ट्रेट बनाये गए और उसी साल दरबार साहिब के मैनेजर नियुक्त दिए गए। उन्हें C.O.I.E. का खिताब मिला और वे प्रान्तीय दरबारी बनाये गए तथा अमृतसर की चुंगी के मेम्बर


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-550


भी बना दिए गए। उनकी आमदनी 12000) सालाना अंदाजी गई थी।

सन् 1892 में इनका देहान्त हो गया और इनकी निजी जायदाद इनके पुत्रों में बंट गई। इनका श्रेष्ठ पुत्र जवाहरसिंह इनके स्थान पर प्रान्तीय दरबारी बनाया गया तथा जिला गुजरानवाला में आनरेरी मजिस्ट्रेट और जेलदार भी बनाया गया। सन् 1907 में इनका देहान्त हो गया और उनका ज्येष्ठ पुत्र सरदार रजवंतसिंह जो कि रूरियाला का जेलदार था, इस कुटुम्ब का प्रधान हुआ और उसे प्रान्तीय दरबार में स्थान दिया गया।

गंडासिंह का बेटा करमसिंह पुलिस में नौकर था। जिला गुजरानवाला में उसकी जमीन से 150) रु० सालाना की आमदनी थी। काहनसिंह के पुत्रों में से सबसे बड़ा पुत्र हीरासिंह चौबीसवीं पंजाब इनफैण्ट्री में सूबेदार मेजर था और सरदार बहादुर की उपाधि प्राप्त करके पेन्शन पर रिटायर हो गया। लाहौर और गुजरानवाला जिलों में उसके पास जमीन थी जिससे कि लगभग 3000) रुपये सालाना की आमद हो जाती थी। सन् 1905 में इसका देहान्त हो गया। काहनसिंह का तीसरा पुत्र शेरसिंह 28वीं माउण्टेन बैटरी में सूबेदार मेजर था और सन् 1901 में उसे सरदार बहादुर की उपाधि मिल गई। सरदार हीरासिंह का ज्येष्ठ पुत्र शारदूलसिंह सैन्ट्रल इण्डिया हौर्स में दफैदार था, तथा द्वितीय पुत्र आशासिंह अपने पिता वाली रिजमेण्ट - चौबीसवीं पंजाब इन्फैन्ट्री में सूबेदार मेजर था।

अप्रैल सन् 1861 में प्रतापसिंह पुलिस में सूबेदार मुकर्रर हो गया और दलसिंह 17वीं बंगाल कैविलरी में रिसलदार था। सन् 1885 में इसका देहान्त हो गया। जयसिंह का पुत्र ज्वालासिंह 29वीं नेटिव इनफैण्ट्री में सूबेदार था। यह पेन्शन पर रिटायर हो गया और सन् 1888 में इसका देहान्त हो गया। उसके रूरियाला गांव के हिस्से की आमद 240) रु० सालाना के लगभग थी। उसका पुत्र वीरसिंह सैण्ट्रल इण्डिया हौर्स में नौकर था।

जौधसिंह का द्वितीय पुत्र हंससिंह अपने चचा मानसिंह की तरह नवीं बंगाल कैवेलरी में रिसलदार था। वह अवध, सुलतानपुर और फैजाबाद के प्रधान युद्धों में बड़ी बहादुरी से लड़ा था। सन् 1860 में इसका देहान्त हो गया।

स्वर्गीय सरदार जोधसिंह के वंशजों के अधिकार में जिला गुजरानवाला के मौजा रामगढ़ में 600) रु० की निकासी की वंशानुगत जागीर थी तथा उसी जिले के रूरियाला ग्राम में 75) रु० की निकासी की मुआफी भी थी। उनको अमृतसर की जमीन और घरों के किराये से 1700) रुपये सालाना की आमद भी हो जाती थी।

सर लैपिल ग्रिफिन ने इस खानदान का वंश-वृक्ष निम्न प्रकार बताया है।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-551


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठ-552 (साथ के चार्ट में दिये अनुसार)


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठ-553 (साथ के चार्ट में दिये अनुसार)


सप्तम् अध्याय समाप्त

नोट - इस पुस्तक में दिए गए चित्र मूल पुस्तक के भाग नहीं हैं. ये चित्र विषय को रुचिकर बनाने के लिए जाटलैंड चित्र-वीथी से लिए गए हैं.


विषय सूची पर वापस जायें (Back to Index of the book)



Back to Books on Jat History