Jat History Thakur Deshraj/Chapter XII

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जाट इतिहास
लेखक: ठाकुर देशराज
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द्वादश अध्याय : देहली प्रान्त के जाट-राज्य

देहली प्रान्त के जाट-राज्य

देहली आज से पांच हजार वर्ष पूर्व इन्द्रप्रस्थ के नाम से प्रसिद्ध थी। उससे भी पहले यह हस्तिनापुर-राज्य के अन्तर्गत थी। महाराज युधिष्ठिर के वंशजों ने इस पर कई पीढ़ी तक राज्य किय। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में उन सब राजाओं का वर्णन है जिन्होंने इन्द्रप्रस्थ में राज किया। ‘राजतरंगिणी’ के लेखक और ‘हरप्रिया’ के संपादक ने भी वह सूची अपनी पुस्तकों में दी थी। उसके देखने से पता चलता है कि इन्द्रप्रस्थ पर चौहानों से पहले कई राज-वंशों का राज रहा है।

जीवनसिंह (481 BC-455 BC)

उस सूची में जीवन नामक राजा का नाम भी आता है जो कि वीरमहा का वंशज था। ‘वाकआत पंच हजार रिसाला’ के लेखक ने जीवन को जीवन-जाट के नाम से संबोधित किया है।1 जिस समय भारत में जीवन जाट राज्य करता था, उसी समय उक्त रिसाला के लेखानुसार हजरत मूसा अपने धर्म का प्रचार कर रहे थे। युधिष्ठिर से 2619 वर्ष पीछे जीवन का राज्य देहली में होना बताया है। रिसाले में जीवन के समय का तूफानी सन् का वर्णन किया है। यह समय ईसा से 481 वर्ष पहले जाकर बैठता है। अर्थात् ईसा से 481 वर्ष पूर्व महाराज जीवनसिंह देहली के राज सिंहासन पर बैठे थे। उन्होंने 26 वर्ष तक राज्य किया था। उनके राज्य-काल का सन् रिसाले 2619 से तूफानी सत् तक दिया हुआ है। उनका राजवंश इस प्रकार है-


1. 'वाकआत पंज हजार रिसाला' अनेक फारसी किताबों के अधर पर लिखी गयी थी

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-716


राजा वीरमहा
महाबल अथवा स्वरूपबल
वीरसेन
सिंहदमन या महीपाल
कांलिक या सिंहराज
जीतमल या तेजपाल
कालदहन या कामसेन
शत्रुमर्दन
जीवन
वीरभुजंग या हरिराम
वीरसेन (द्वितीय)
उदयभट या आदित्यकेतु

रिसाले के अनुसार इनका वर्णन इस प्रकार मिलता है - महाबल (800 BC-744 BC) ईसवी सन् से लगभग 800 वर्ष पूर्व हुए थे। इनके समय में भारत के उज्जैन नगर में बुद्ध नाम का राजा शासक था। फारस में बहमनशाह राज्य करता था। महाबल के पश्चात् सर्वदत्त या स्वरूपदत्त दिल्ली के सिंहासन पर बैठने का समय ईसा से 744 वर्ष पूर्व का है। इन्हीं दिनों खता में लादकून के यहां तामीसांग का जन्म हुआ था। इनके पश्चात् ईसा से 708 वर्ष पूर्व ईरान के प्रथम दाराशाह के समय में महाराज वीरसेन गद्दी पर बैठे। खता में जिन दिनों पैगम्बर लिंक (इंक) बालक्रीड़ा कर रहे थे, उन्हीं दिनों भारत में दिल्ली की गद्दी पर महाराज महीपाल बैठे। वह इतने बहादुर थे कि उन्हें सिंहदमन के नाम से पुकारा जाता था। उनका सिंहासन पर बैठने का समय ईसवी पूर्व 668 है। इनके समय में ईरान में कस्ताप नाम के बादशाह का राज-समारोह मनाया गया था। इनकी मृत्यु के पश्चात् कलिंक या सिंहराज नाम के महाराज दिल्लीश्वर बने। यह घटना ईसवी पूर्व 624 की है। ईसवी सन् से 595 वर्ष पूर्व जबकि खता में आदकन फोरी नामक अवतार का जन्म हुआ था राजा जीतमल गद्दी पर बैठे। ‘हरिप्रिया’ के संपादक ने इन्हें तेजपाल नाम से याद किया है किन्तु हमारे मत से उसके पढ़ने में भूल हुई है। यदि उसने फारसी पुस्तकों से अनुवाद किया होगा तो जीतमल को ही तेजपाल पढ़ लिया होगा। जीतमल के पश्चात् कालदहन कामसैन राजा हुए। इनके राजगद्दी पर बैठने का समय ईसा से 515 वर्ष पहले का है। हमारा अनुमान है कि ब्रह्मपुर तक इसका राज्य था और ब्रह्मपुर इसी के नाम पर काम्यवन (कामां) कहलाया। यह स्थान दिल्ली से 60 मील पूर्व-दक्षिण में है। 506 ई. पूर्व में कामसेन के पश्चात् शत्रुमर्दन नाम के महाराज देहली के शासक हुए और शत्रुमर्दन से 28 वर्ष बाद ईसवी पूर्व 478 से महाराजा जीवन दिल्ली से अधिराज हुए। इनके समय में हजरत मूसा यूरोप में अपने धर्म का प्रचार कर रहे थे। एक पार्सी दल भी भारत में आया था, जिसने घूम-घूम कर भारत की परिस्थिति का अध्ययन किया था। डेरिस (दारा) को हम लोग खूब जानते ही हैं, उसी के बाप की महान् इच्छा थी कि भारत पर आक्रमण किया जाए। किन्तु वह इच्छा दारा के समय में पूरी हुई और सिन्ध के एक बड़े भाग पर ईरानियों का अधिकार हो गया, किन्तु वह अधिकार स्थिर न रहा। जीवन महाराज के पश्चात् ईसवी पूर्व 372 तक वीर-भुजंग उर्फ हरिराव, वीरसेन और उदयभट उर्फ आदित्यकेतु नाम के तीन जाट राजाओं का राज्य रहा। आदित्यकेतु से उनके ही एक सरदार धन्धर या धनीश्वर ने धोखे से राज्य छीन लिया।


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इस तरह से इस वंश का राज्य लगभग 450 वर्ष तक दिल्ली में रहा। इनके बाद जोगी, कायस्थ, पहाड़ी और वैरागी लोगों का राज्य हुआ। बीच में विक्रमादित्य का भी रहा। अन्त में तोमर लोगों का राज्य हुआ। तोमरों से चौहानों और फिर मुसलमानों का हुआ। जीवन और उसके वंशज पांडव-वंशी ही थे। युधिष्ठिर से 27 पीढ़ी राज करने के बाद दूसरे लोगों के हाथ राज चला गया और फिर समय पाते ही उन्हीं के वंशजों ने कब्जा कर लिया।

‘वाकआत पंज हजार’ रिसाला में ईरान, अरब, मिश्र, खता, चीन, तिब्बत, आदि कई प्रदेशों के वर्णन तूफानी सन्, विक्रम संबत् और ईसवी सन् में दिए हुए हैं। यह पुस्तक मुंशी राधेलाल जी नाम के सज्जन ने फारसी इतिहासों के आधार पर सन् 1898 ई. में प्रकाशित की थी जो कि अब अप्राप्य है।1

जाटवान

यह रोहतक के जाटों का एक प्रसिद्ध नेता था। शहाबुद्दीन गौरी ने जिस समय पृथ्वीराज को जीत लिया और दिल्ली में अपने एक सेनापति को, जो कि उसका गुलाम था, विजित देश के शासन के लिए छोड़ गया, जो जाट भाइयों ने विद्रोह खड़ा कर दिया, क्योंकि वे पृथ्वीराज के समय में भी एक तरह से स्वतन्त्र से थे। अपने देश के वे स्वयं ही शासक थे, पृथ्वीराज को नाममात्र का राजा मानते थे। उन्होंने देखा कि कुतुबुद्दीन जहां उनकी स्वतन्त्रता को नष्ट करेगा, वहां विधर्मी भी हैं। अतः इकट्ठे होकर मुसलमानों के सेनापति को हांसी में घेर लिया। वे उसे मार भगाकर अपने स्वतन्त्र राज की राजधानी हांसी को बनाना चाहते थे। इस खबर को सुनकर कुतुबुद्दीन घबरा गया और उसने रातों-रात सफर करके अपने सेनापति की हांसी में पहुंचकर सहायता की। जाटों की सेना के अध्यक्ष जाटवान ने दोनों दलों को ललकारा ‘तुमुल मसीर’ के लेखक ने लिखा है कि दोनों ओर से घमसान युद्ध हुआ। पृथ्वी खून से रंग गई। बड़े जोर के हमले होते थे। जाट थोड़े थे, फिर भी वे खूब लड़े। कुतुबुद्दीन स्वयं चकरा गया, उसे उपाय न सूझता था। जाटवान ने उसे पास आकर नीचे उतर लड़ने को ललकारा, किन्तु कुतुबुद्दीन इस बात पर राजी नहीं हुआ। जाटवान ने अपने चुने हुए बीस साथियों के साथ शत्रुओं के गोल में घुसकर उन्हें तितर-बितर करने की चेष्टा की। कहा जाता है, जीत मुसलमानों की रही, किन्तु उनकी हानि इतनी हुई कि वह रोहतक के जाटों को दमन करने के लिए जल्दी ही सिर न उठा सके।


1. हमने यह पुस्तक ठाकुर नारायण सिंह जी, गोकुलपुरा आगरा के पास देखी थी

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-718


बल्लभगढ़ राजवंश

बल्लभगढ़ का किला

यह तेवतिया गोत्र के जाटों का राज्य था। देहली गजेटियर से जो इनका हाल मिलता है वह संक्षेप मे इस तरह से है - बल्लबगढ़ से उत्तर की ओर 3 मील के फासले पर सीही नाम का एक ग्राम है। 1705 ई. के लगभग सरदार गोपाल सिंह नाम का एक जाट वीर यहां आकर बसा। औरंगजेब उस समय मर चुका था। उसके पीछे के मुगल-शासक ऐश, आराम और पारस्परिक कलह में नष्ट हो रहे थे। गोपालसिंह ने अपने साथियों के साथ राज्य-स्थापना की भावना से प्रेरित होकर देहली और मथुरा के बीच के प्रदेश में लूटमार आरम्भ कर दी। थोड़े ही समय में बहुत साधन और शक्ति एकत्रित कर ली। उस समय बल्लभगढ़ से 8 मील पूर्व की ओर ‘लागोन’ नाम के गांव में गूजर बड़ा जोर पकड़ रहे थे। इसने उनसे मित्रता कर ली। आस-पास के गांव की चौधरायत एक राजपूत के पास थी। गूजरों की सहायता से उस राजपूत पर चढ़ाई करके गोपालसिंह ने उसे मार डाला और उसके प्रदेश पर अधिकार कर लिया।

फरीदाबाद में उस समय मुगलों की ओर से मुर्तिजा खां ऑफिसर था। उसे चाहिए तो यह था कि गोपालसिंह को दण्ड देता, क्योंकि उसने मुगलों के राजपूत चौधरी को मारकर राज-द्रोही होने का परिचय दिया था। किन्तु उसने भयभीत होकर गोपालसिंह से संधि कर ली और उसे फरीदाबाद के परगने का चौधरी बना दिया। कुल लगान में से एक आना फी रुपये के हिसाब से कटौती का हक भी उसे दे दिया। यह घटना 1710 ई.की है। गोपालसिंह मुगलों की कमजोरी से खूब लाभ उठाना चाहता था। इसलिए सेना की भर्ती और धन भी संग्रह शीघ्रता-पूर्वक करने लगा। किन्तु उसका इरादा पूरा होने से पहले ही मृत्यु हो गई। उसके बाद चरनदास चौधरी बना। यह भी महत्वाकांक्षी था। उसने जब आसपास के जिलों में बादशाही हुकूमत को कमजोर होते देखा तो मालगुजारी देना बन्द कर दिया। मुगलों की ओर से चरनदास के खिलाफ सेना भेजी गई। चूंकि चरनदास की अभी इतनी शक्ति नहीं थी कि वह मुगल सेना का सामना कर सके, इसलिए चरनदास मुगलों द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया।

चरनदास के पुत्र बलराम ने जब देखा कि युद्ध द्वारा अपने पिता को छुड़ा लेना कठिन है तो उसने एक चाल चली। वह यह कि मालगुजारी का रुपया देने का वायदा करके अपने बाप चरनदास को मुगल-सैनिकों के पहरे में बल्लभगढ़ में बुलवा दिया। रुपयों की दो थैलियां उनमें दो-एक में तो रुपये, बाकी सब में पैसे भर दिए। चरनदास छोड़ दिया गया और मुगल-सैनिक थैलियां लेकर के प्रस्थान कर गए।

पिता और पुत्र दोनों ने उस समय यही उचित समझा कि बल्लबगढ़ को


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छोड़कर भरतपुर के महाराज सूरजमल की शरण में चले जाएं। बाद में शाह अहमदशाह के गद्दी पर बैठने के समय तक यानी सन् 1747 ई. तक इन विद्रोहियों से लिखत-पढ़त लगातार जारी रखी, परन्तु हर समय बहानेबाजी से टाल दिया गया। वजीर की क्रोधाग्नि धधकाने और उससे जाटों का सर्वनाश करने की प्रतिज्ञा कराने के लिए यह पर्याप्त था। अतएव सन् 1749 में अमीरुल उमरा के साथ-साथ ही वह उनके विरुद्ध मैदान में आया और फरीदाबाद को अपने काबू में कर लिया। सूरजमल जिसका कि हौंसला, हाल ही में मुगल-सेना के ऊपर जिसका कि सेनापति शहनशाह (साम्राज्य) का कमाण्डर-इन-चीफ स्वयं था, विजय पाने से बहुत कुछ बढ़ गया था, इस क्षे़त्र में वजीर को शान्ति से राज्य कर लेने देने वाला नहीं था। उसने सब तरह से ही जाटों की सहायता करने की तैयारी की। डीग और कुम्हेर के किलों को सुरक्षित करके वजीर के विरुद्ध कूच बोल दिया। भाग्य ने सूरजमल की सहायता की। वजीर अपने सूबे अवध के आसपास ही में रुहेलों के भयंकर विद्रोह का समाचार पाकर जाटों के साथ झगड़ा न करने का फैसला करके ही देहली को वापस चला गया। उसने इन अफगानों से युद्ध किया और उपद्रव को शान्त करने के पश्चात् अपने नाइब नवलराम को उनसे निकाले हुए जिलों का चार्ज देकर जाटों के खिलाफ कार्यवाही को फिर से अपने हाथ में लिया और उनके विरुद्ध एक सेना भेजी। जाटों के युद्ध के लिए तैयारी हो जाने पर वह जुलाई सन् 1750 में बरसात में उनका मुकाबला करने के लिए बढ़ा चला आया। परन्तु इस समय सहतदखां बंगश द्वारा नवलराम के हराए और मारे जाने के समाचार ने उसे सूरजमल के साथ अपना झगड़ा निबटा लेने के लिए बाध्य किया।

मराठा वकील के बीच में पड़ने से सन्धि हुई। बलराम मराठा मन्त्री के साथ-साथ वजीर के सामने गया, जिसने कि उसे क्षमा प्रदान कर उसकी गैर-कानूनी रीति से कब्जा की हुई भूमि आदि को उसी के अधिकार में बने रहने की गुप-चुप आज्ञाएं दीं। राजा सूरजमल को 6 भागों की और उसके बख्शी को एक भाग की खिलअत दी गई।

बलराम को सन् 1753 ई. की 29 नवम्बर को आकवितमहमूद ने इसलिए मरवा डाला कि बलराम ने उसके बाप मुर्तिजाखां को कत्ल किया था। बलराम के मारे जाने के बाद में महाराज सूरजमल ने उनके लड़के विशनसिंह को किशनसिंह का किलेदार और नाजिम बनाया। वे सन् 1774 तक बल्लभगढ़ के कर्ता-धर्ता रहे। उनके बाद हीरासिंह बल्लभगढ़ का मालिक हुआ।

कैथल व उनके सजातीय बन्धुओं के साथ बल्लभगढ़ के राजाओं ने वैवाहिक सम्बन्ध करने के लिए एक सभा भी कराई थी, क्योंकि मांझ के जाट मलोई जाटों को अपने से हेटा समझते थे।


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बल्लबगढ़ के राजाओं का खिताब राजा का था। अंग्रेजी-राज्य के समय में इनका सूर्यास्त हो गया।

कुछ प्रसिद्ध खानदान

आज की अपेक्षा देहली प्रान्त बड़ा था। उसी समय की विस्तृत सीमा के अनुसार हम देहली के कुछ प्रसिद्ध और ऐतिहासिक जाट-वंशों का यहां परिचय देते हैं। गठवाला जाट इस प्रान्त में और यू.पी. में भी पाए जाते हैं। इनकी अहोलनियां भी एक शाखा है। सेनापति बांगर और दो-आब तथा जमुना के सामने इनकी बस्तियां हैं। मलिक या मालिक इनकी उपाधि है जो कि उनको उस समय मिली थी, जबकि वे अफगानिस्तान में रहते थे। गजनी के आसपास इनका जनतंत्र था। इस्लामी आक्रमण के समय इन्होंने उस देश को छोड़ दिया था।3 बागरी जाट आरम्भ में मालवा के प्रदेश बांगर में रहते थे। पृथ्वीराज के साथ बागरीराय नाम का इनका एक प्रसिद्ध योद्धा रहा था। उसी के साथ ये जबकि पृथ्वीराज देहली आया, आये थे। बागरीराय के पास अपने ही सजातीय भाइयों की एक अलग सेना थी। ब्राह्मणों में भी बागरी गोत्र पाया जाता है। सांगवान देहली-प्रान्त के जाटों की एक मुख्य जाति है। यह दादरी के पच्छिम दिशा में फैली हुई है।

दहिया जाटों का मुख्य स्थान सोनीपत में भटगांव के निकट है। आरम्भ में मेरठ-देहली के पास मवाना में रहते थे। ये पूर्ण शक्तिशाली थे, किन्तु गठवालों के बढ़े हुए प्रताप से जलकर एक बार इन्होंने मन्दहार राजपूतों की सहायता की थी। इस संघर्ष में थापानोलिया के जगलान और रोहतक के लतमार जाट दहिया लोगों के और हूदा तथा अन्य सभी जाट गठवालों के साथ मिल गए. इस तरह इन दोनों शक्तिशाली वंशों ने अपनी पारंपरिक लड़ाई में शक्ति को नष्ट कर दिया और शक्ति के बल पर जो स्वतंत्रता कायम कर रखी थी, उसे खो दिया.

दहाये जाट आरंभ में भारत से कास्पियन सागर के किनारे चले गए थे. यूनानी लेखक स्ट्राबो ने उनके वैभव का वर्णन किया है. ये युधिष्ठिर के साथियों


1. गठवाल जाटों के सम्बन्ध में डब्ल्यू क्रूक इस भांति लिखते हैं- इनका मुख्य स्थान गोहाना में धेर का ओलाना था. पडौसी राजपूतों के साथ इनके निरंतर युद्ध होते रहे. उसमें यह पूर्ण सफल रहे. इस लिए अन्य जाटों ने इनको प्रधान मान लिया. दिल्ली के बादशाह ने मंदहार राजपूतों को दबाने के लिए इनको सहायतार्थ बुलाया था. विजयी होने पर इन्हें मालिक की उपाधि दी थी. एक बार धोखे से मंदहारों ने उन्हें धोखा कर बारूद से उड़ा दिया. बचे हुए लोग हांसी के पास देपाल चले गए और देपाल को अपनी राजधानी बनाया.

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-721


में से थे जो यौधेय कहलाते थे. यौधेय से ढे और दहाये नाम भाषा के हेर-फेर से पड़ गए. ढे लोगों के सामान ही हेले भी थे. ये जाटों के दो बड़े दल कहे जाते थे.

देहली प्रदेश में सहरावत जाट एक समय इतने प्रसिद्ध थे कि उनके सरदार ने पृथ्वीराज के युद्ध में जाने पर देहली के आसपास कब्ज़ा कर लिया था.

इनके सिवा देहली के आसपास और भी कई जाट-राज्य-वंशों ने छोटे-मोटे राजा के रूप में शासन किया था. जिनका कि इतिहास अभी अस्पष्ट तथा अप्राप्त है.

देहली प्रान्त की सन 1911 की जन-गणना के अनुसार जाटों की संख्या 114698 थी. इस समय करीब सवा लाख की है. यहाँ के जाटों के सम्बन्ध में इम्पीरियल गजेटियर यों लिखता है- ?

गजेटियर के कथन से हमारा मत प्रमाणित हो जाता है की यहाँ अनेक जाट-वंश ऐसे हैं जिनका सम्बन्ध शासन से रहा है.


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-722



नोट - इस पुस्तक में दिए गए चित्र मूल पुस्तक के भाग नहीं हैं. ये चित्र विषय को रुचिकर बनाने के लिए जाटलैंड चित्र-वीथी से लिए गए हैं.


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