Jat Itihas (Utpatti Aur Gaurav Khand)/Dvitiya Parichhed

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जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खंड), 1937, लेखक: ठाकुर देशराज

द्वितीय परिच्छेद

नस्ल और मातृ-भूमि

जाट कौन हैं?

[पृ.8]:जाट कौन हैं? उनकी उत्पत्ति कैसे हुई? इन प्रश्नों का जवाब देने से पहले हम इस बात पर विचार कर लेना चाहते हैं कि (अ) वे संसार की उन 5 नस्लों में से किस नस्ल से हैं जो (1) आर्यन (2) मंगोलियन (3) मलायायन (4) हब्शियन (5) अमेरिकन अथवा रंग के हिसाब से गोरी, पीली, बादामी, काली, और लाल कहलाती हैं। (ब) उनकी जन्म भूमि ईरान, भारत और तातार आदि किन देशों में से है? इन बातों पर विचार करने के कारण हैं, वे कारण कई देशी और विदेशी इतिहासकारों की जाटों की नस्ल और जन्म भूमि संबंधी बयानात में की गई भूलों से पैदा हुए हैं। कुछ इतिहासकारों ने जाटों के संबंध में पूरी जानकारी न रखने के कारण उन्हें हूण, सीथियन आदि जातियों के साथ स्टाक (नस्ल) का और भारत से कहीं बाहर का आदि निवासी साबित करने का दुस्साहस किया है। ऐसे लोगों में मि. स्मिथ और उनके अनुयाइयों का पहला नंबर है। स्मिथ महोदय का कहना है कि विजेता हूणों में से जिनके पास राजशक्ति आ गई वह राजपूत और जो खेती-क्यारी करने लग गए वे जाट और गुर्जर हैं।" हम कहते हैं कि मिस्टर स्मिथ की यह धारणा जहां निर्मूल है वह बगैर अधिक छानबीन किए


[पृ.9]:जल्दबाजी में बनाई हुई है। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध इतिहासकार श्री सी.वी. वैद्य ने 'हिस्ट्री ऑफ मिडिवल हिंदू इंडिया' में स्मिथ जैसे ख्याल के लोगों के विचारों की काफी आलोचना की है। पहले हम उन्हीं के उद्धरण अपने कथन की पुष्टि में पेश करते हैं:-

“Lastly we have to speak about the Jats. Their ethnological characteristics, also we have already seen, are clearly Aryans. They are fair tall high nosed and long headed. Does their history contradicts of their being Aryans ? It may be stated at once that the Jats have very little history of their own till we come to quite recent times when the present Jat kingdoms both Hindus and Sikhs in the U.P. and the Punjab were founded. But the Jats have the oldest mention of the three. They are mentioned in the Mahabharat as Jartas in the Karna Parva. The next mention we have of them is in the sentence अजय जर्टो हुणान in the grammer of Chandra of the fifth century. And this shows that the Jats were the enemies of Huns and not their friends. The Jats opposed and defeated Huns : they must, therefore, have been the inhabitants of the Punjab and not invaders or intruders along with the Huns. Does the above sentence indicate that the Yashodharma Of Mandsor inscription who decisively defeated the Huns was a Jat? He may have been so, as Jats have been known to have


[पृ.10]:migrated into the country of the Malvas or Central India as in to Sindh. But this is not material to our inquiry. The sentence amply shows that the Jats were not invaders along with the Huns but were their opponents...... "

"अन्त में हम जाटों के सम्बन्ध में कुछ लिखना चाहते हैं कि उनके मानव-तत्व-अनुसंधान के लक्षण जैसा कि हम देख ही चुके हैं साफ तौर से आर्य हैं। वे सुन्दर, लम्बे और बड़े नाक वाले हैं। क्या उनके इतिहासकार उन्हें अनार्य बताते हैं? यह एकदम कहा जा सकता है कि जाटों का अपना कोई भी इतिहास उस समय से पहले का नहीं है जबकि वर्तमान हिन्दू, सिख जाटों के राज्य यू.पी. और पंजाब में कायम हुए। जाट, गूजर और मराठा इन तीनों में जाटों का वर्णन सबसे पुराना है। महाभारत के कर्ण-पर्व में इनका वर्णन जर्तिका नाम से मिलता है। उनका दूसरा वर्णन हमको अजय जर्टो हूणान् वाक्य में मिलता है, जो कि पांचवीं सदी के चन्द्र के व्याकरण में है और यह प्रकट करता है कि जाट हूणों के सम्बन्धी नहीं, किन्तु शत्रु थे । जाटों ने हूणों का सामना किया और उनको परास्त किया । अतः वे पंजाब के निवासी ही होंगे और आक्रमणकारी और घुसपैठिये नहीं । क्या उपर्युक्त वाक्य यह साबित करता है कि मन्दसौर के शिलालेख वाला यशोधर्मन जिसने कि लगातार हूणों को परास्त किया था जाट था? वह जाट था, क्योंकि यह मालूम हो चुका है कि जाट मालवा-मध्यभारत में सिन्ध की भांति पहुंच चुके थे । परन्तु यह विषय हमारे


[पृ.11]:प्रसंग से बाहर है । यह वाक्य यह तो प्रकट करता है कि जाट आक्रामक हूणों के साथी नहीं, किन्तु उनके विरोधी थे।"

जाट विशुद्ध आर्य हैं

श्री सी. वी. वैद्य के इस कथन का और भी सैंकड़ों इतिहासकारों ने समर्थन किया है। उनमें से कुछके हवाले यहां पर देना हम उचित समझते हैं। 'कारनामा राजपूत' के लेखक श्री नजमुल गनी रामपुरी ने लिखा है:-

"जाट कौम की रवायतों से उसे उसका मसकन मगरब दरियाये सिंध पाया जाता है और यादवों में से इनका निकास साबित होता है। ....इस कौम को कृष्ण से पैदा होने का गुमान रफ़ै होता है।"

इसी भांति श्री सुखसंपत्तिराय जी भंडारी ने 'भारत के देशी राज्य' में लिखा है:- ".... जाट आर्य वंश के हैं और और प्राचीन काल में भारत में उनकी बस्ती होने के ऐतिहासिक उल्लेख मिलते हैं। यह भी पता चलता है कि उस समय ये (अन्य) क्षत्रियों की तरह उच्चवंशीय माने जाते थे। किंतु सामाजिक मामलों में ये अधिक उदार होने के कारण ये (पिछले जमाने के) ब्राह्मणों की आंखों में खटकने लगे और उन्होंने इन का जातीय पद नीचे गिराने का यत्न किया।"

इनके अलावा अनेक अरब इतिहासकारों ने इसी बात को कहा है कि जाट भारत के आर्यों में से हैं। यही क्यों वे तो सारे भारत के ही जाटों के देश के नाम से पुकारते हैं। इलियट साहब ने अपनी 'हिस्ट्री ऑफ इंडिया' में अरब इतिहास के हवाले से इसी बात को दोहराया है। डॉक्टर ट्रंप, बीम्स, सर रिजले, सर जेम्स पियर्सन, भाई परमानंद, जदुनाथ सरकार,


[पृ.12]: प्रोफेसर इंद्र, स्वर्गीय राजा लक्ष्मणसिंह आदि सुप्रसिद्ध विद्वानों ने एक स्वर से इस बात को स्वीकार किया है कि जाट नस्ल से आर्य हैं।

ऊपर के उदाहरणों से यह भली-भांति सिद्ध हो जाता है कि जाट न हूणों की संतान हैं और न शक-सीथियनों की, किंतु वे विशुद्ध आर्य हैं। यदि इससे भी गहरी छानबीन की जाए तो पता चलता है कि बेचारे हूण और शकों के आक्रमणों का जब तक नाम निशान तक न था जाट उस समय भी भारत में आबाद थे। पाणिनी ने जोकि इससे लगभग 2100 वर्ष पहले हुआ है* उसके व्याकरण (धातु पाठ) में जट शब्द आता है जिसके कि माने संघ (फेडरेशन) के होते हैं। पंजाब में जाट की अपेक्षा जट अथवा जट्ट शब्द का ही प्रयोग होता है।

इसके अलावा ""वाक़आत पंचहजारी रिसाला" जो कि अनेक फारसी तवारीखों के आधार पर लिखा गया था, के लेखक ने उसमें देहली के शासकों में वीरमहा के वंशज जीवनलोक


* पाणिनी तक्षशिला के आसपास का रहने वाला था। वह युधिष्ठिर लगभग 900 वर्ष पीछे हुआ है। उदासी साधु के 'श्रोत मुनि चरितामृत' में पाणिनी को पदम मुनि का शिष्य कहा है। और पदम मुनि को व्यास जी की इकीसवीं पीढ़ी में युधिष्ठिर से 800 वर्ष पीछे पैदा हुआ है। इस तरह पाणिनी ईशा से लगभग 2100 वर्ष पहिले साबित होते हैं। किंतु आधुनिक इतिहासकार उन्हें ईशा से 900 वर्ष से पहले नहीं ले जाते। इसलिए हमने भी जाट इतिहास में '900 वर्ष पहले' शब्द का ही प्रयोग किया था।


[पृ.13]: को जीवनजाट करके लिखा है। यह वीरमहा युधिष्ठिर से 2271 वर्ष 2 मास 27 दिन बाद दिल्ली के तख्त पर वीरसालसेन को मारकर बैठा था।* अर्थात् वीरमहा ईसा से लगभग 800 वर्ष पूर्व देहली पर राज्य करता था। जीवन वीरमहा की 13वीं पीढी में उससे लगभग 266 वर्ष पीछे राज्याधिकारी हुआ है। इस तरह जीवन का समय भी ईस्वी सन् से लगभग 550 वर्ष पूर्व बैठता है। और शक-हूणों के आक्रमण ईशा की तीसरी एवं चौथी शताब्दी से आरंभ होते हैं। ऐसे प्रबल प्रमाणों के देखते हुए यही कहना पड़ता है कि जाटों को हूण आदि विदेशी लोगों से निकालने की बात बिना ? गहरी छानबीन किए हुए धारणा बनाने में जल्दबाजी कर के भयंकर भूल की है।

यह तो हुई जाटों के आर्य होने के पक्ष में ऐतिहासिक साक्षियां। अब थोड़े से प्रमाण हम उन खोजों के आधार पर ओर देना चाहते हैं जो मनुष्य के चेहरे-मुहरे अर्थात शरीर रचना को देख कर की जाती है। इस विद्या के धुरंधर अंग्रेज पंडितों ने जाटों के संबंध में जो राय कायम की है वह इस प्रकार है:-

Ethnographic investigations show that the Indo-Aryan type described in the the Hindu epic - a tall, fair complexioned, long headed race, with narrow prominent noses, broad shoulders, long arms, thin-waists


* देखो सत्यार्थ प्रकाश एकादश समुलास


[पृ.14]:like a lion and thin legs like a deer is how (as it was in the earliest times) most confined to Kashmere, the Punjab and Rajputana and represented by the Khattris, Jats and Rajputs. - The History of Aryan rule in India by E.B. Havell. (page-32)

अर्थात - मानव-तत्व-विज्ञान की खोज बतलाती है कि भारतीय आर्य जाति जिसको कि हिन्दू-वीर-ग्रन्थों में लम्बे कद, सुन्दर चेहरा, पतली लम्बी नाक, चौडे़ कन्धे, लम्बी भुजाएं, शेर की-सी कमर और हिरण की-सी पतली टांगों वाली जाति बतलाया है, (जैसी कि यह प्राचीन समय में थी) आधुनिक समय में पंजाब, राजपूताना और काश्मीर में खत्री, जाट और राजपूत जातियों के नाम से पुकारी जाती हैं ।

आगे के पेज में यही महाशय लिखते हैं कि -

The Indo-Aryan type, occupying the Punjab, Rajputana and Kashmere and having its characteristic members the Rajputs, Khatris and Jats. This type approaches most closely to that ascribed to the traditional Aryan colonists of India. The stature is mostly tall, complexion fair, eyes dark, hair on face plentiful, head long, nose narrow and prominent, but not especially long. (Page 33)

अर्थात - भारतीय आर्य जाति जिसके कि वंशधर आज राजपूत, खत्री और जाट हैं, पंजाब राजपूताना और काश्मीर में बसी हुई है। यह जाति उस प्राचीन आर्य जाति से बहुत अधिक मिलती-जुलती है जो भारत में आकर बसी थी। इसकी शारीरिक बनावट, अधिकतर लम्बी,


[पृ.15]: सुन्दर चेहरा, काली आंखे, चेहरे पर पर्याप्त बाल, लम्बा सिर और उंची पतली नाक जो अधिक लम्बी नहीं होती है। (p.33) और भी -

We are concerned merely with one fact that there exists in the Punjab and Rajputana at the present day, a definite physical type represented by the Jats and Rajputs which is marked by a relatively long head, a straight finely cut nose, a long symmetrically narrow face, a well-developed forehead, regular features, and a high facial angle. The stature is high and the general build of the figure is well proportioned, being relatively massive in the Jats and relatively slender in the Rajputs.

अर्थात् यह बात नितान्त सत्य है कि पंजाब और राजपूताना में जो जाट और राजपूत जातियां बसती हैं, वे अपने लम्बे सिर, सीधी सुन्दर नाक, लम्बे और पतले चेहरे, अच्छे उंचे मस्तिष्क, क्रमबद्ध गठन और उंचे घुटने होने के कारण पहचानी जाती हैं। उनका कद लम्बा होता है। उनका साधारण शरीर गठन क्रमबद्ध सुन्दर होता है। हां जाटों का कुछ मोटेपन पर तो राजपूतों का कुछ पतलेपन पर होता है।

सन् 1901 की जनगणना की रिपोर्ट सफा 500 पर सर एच. रिजले साहब ने स्पष्ट स्वीकार किया है कि जाट शारीरिक बनावट के अनुसार आर्य हैं । मि. नैस्फील्ड साहब ने यहां तक जोर देकर लिखा है -


[पृ.16]:If appearance goes for anything the Jats could not but be Aryans.

‘‘यदि सूरत-शक्ल कुछ समझे जाने वाली चीज है तो जाट सिवाय आर्यों के कुछ और हो नहीं सकते।’’

भाषा विज्ञान के अनुसार जातियों को पहचानने की जो तरकीब है, उसके अनुसार भी जाट आर्य हैं। इस प्रमाण में मिस्टर सर हेनरी एम. इलियट के. सी.बी. ‘‘डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ दी रेसेज ऑफ दी नार्थ-वेस्टर्न प्राविंसेज ऑफ इण्डिया’’ में लिखते हैं कि -

I have long ago convinced myself, from my journeys from Peshawar to Karachi that the Jat-folk is not more separated from the rest of the community than can be accounted for by various circumstances. The argument derived from language is strongly in favour of the pure Aryan origin of the Jats. If they were Scythian conquerors, where has their scythian language gone ? How come it that they now speak, and have for centuries, spoken an Aryan language, a dialect of Hindi? In Peshawar, the Dera Jat and across the Suleman range in Kachchh-Gondwana this language is known by the name of Hindki or Jat speech. The theory of the Aryan origin of Jats, if it is to be overthrown at all, must have stronger arguments directed against it than any that have yet been adduced. Physical type


[पृ.17]: and language are considerations which are not to be set aside by mere verbal resemblance especially when the words on which reliance is placed come to us mingled beyond recognition by Greeks or Chinese.*

"बहुत समय हुआ मैंने कराची से पेशावर तक यात्रा करके स्वयम् अनुभव कर लिया है कि जाट लोग कुछ खास परिस्थितियों के सिवाय अन्य शेष जातियों से अधिक पृथक् नहीं हैं। भाषा से जो कारण निकाला गया है वह जाटों के शुद्ध आर्य वंश में होने के जोरदार पक्ष में हैं। यदि वे सीथियन विजेता थे तो उनकी सीथियन भाषा कहां चली गई? और ऐसा कैसे हो सकता है कि वे अब आर्य भाषा को जो कि हिन्दी की एक शाखा है बोलते हैं, तथा शताब्दियों से बोलते चले आये हैं! पेशावर में डेरा जाट और सुलेमान पर्वत माला के पार कच्छ गोंडवाना में यह भाषा हिन्दकी या जटकी भाषा के नाम से प्रसिद्ध है। जाटों के आर्य वंश में होने के सिद्धान्त को यदि कतई एक ओर फेंक देना है तो इसके विरूद्ध बहुत ही जोरदार प्रमाण देने होंगे जैसे कि अब तक कहीं नहीं दिये गये हैं। शारीरिक गठन और भाषा ऐसी चीज हैं जो कि केवल क्रियात्मक समानता के आधार पर एक तरफ नहीं


* Memoirs on the History , Folk-lore and distribution of the races of the North Western Provinces of India : Being an amplified edition of the original Supplemental Glossary of India terms ...by Sir Henery M. Elliot K.E.B


[पृ.18]:रखे जा सकते, खासकर जबकि ये शब्द जिन पर कि समानता अवलम्बित है हमारे सामने आते हैं तो वे यूनानी या चीनियों से भिन्न पाये जाते हैं।"

आर्य परम्पराएँ

उपर दी हुई पहचान ऐसी हैं, जिन पर देशी-विदेशी - दोनों भांति के इतिहासकार और मानव-तत्व अनुसंधानकर्ता विश्वास करते हैं। इन पहचानों के अलावा धार्मिक भावनाओं और रस्म-रिवाजों की भी एक पहचान है जिससे प्रत्येक जाति का पता चल जाता है कि आया वह किस नस्ल और देश की है? इस पहचान (सिद्धान्त) के अनुसार भी जाट आर्य नस्ल से हैं, यह बात पूर्णतया सिद्ध है ।

आर्य सभ्यता प्रारम्भिक काल में गंगा-यमुना के दोआबे में ही यौवन को प्राप्त हुई थी। इस नाते से गंगा-यमुना से उन्हें स्वाभाविक प्रेम तथा उनके प्रति श्रद्धा होनी चाहिए। जाटों में गंगा-यमुना की भक्ति और श्रद्धा इतनी कूट-कूटकर भरी हुई है कि वे गंगा-यमुना के किनारे (स्नान) करना अपना अहोभाग्य समझते हैं। आज उनमें से कुछ लोग गंगा-यमुना से सैकड़ों और हजारों मील की दूसरी पर बसे हुए हैं। किन्तु मरने वालों की अस्थियां गंगा-यमुना मे ही फेंकते हैं। वे शपथ भी गंगा-यमुना और गऊ माता की खाते हैं।

प्राचीन (वैदिक) आर्यो में पृथ्वी के लिये बड़ी भक्ति थी। वेदों में पृथ्वी की प्रशंसा और स्तुति में एक अलग पृथ्वी सूक्त है। जाट युवक कबड्डी खेलते समय धरती माता पूजूं तोय - हाथ पांव बल दीजे मोय कहकर अपनी भक्ति प्रकट करते हैं।

मरने से पूर्व कुशा (डाभ) पर लेटना प्राचीन ऋषि-मुनियों की प्रथा की रूढ़ि उनके यहां अब तक चली आती है। प्राचीन त्यौहार और उत्सव पर उनके घरों में अग्निहोत्र (जिसे अपभ्रंश रूप में वह अब वैश्वान्दर - बलि वैश्व - कहते हैं) होता है। बहुत संभव है कि वह मौजूदा कृत्रिम हिन्दू-धर्म की कुछेक रिवाजों को नहीं मानते हैं। किन्तु वैदिक कालीन आर्यो की ऐसी कोई प्रथा नहीं जो अब तक जाटों में किसी-न-किसी रूप में न चली आती हो।

वैदिक आर्यों के आठ प्रकार के विवाह उनमें अब तक होते हैं। भीष्म-पितामह ने पांडु के विवाह के लिये मद्रनरेश के सामने प्रस्ताव रखा था। वर्तमान हिन्दू रिवाजों के अनुसार लड़के का बाप लड़की के बाप के सामने ऐसा प्रस्ताव नहीं रखता है। किन्तु अजमेर मेरवाड़े के जाटों में यह प्रथा अब तक प्रचलित है।

जाट-बालक बजाने के लिये बांसुरी-अलगोजा पसन्द करता है जो कि उसके बहुत पुराने पुरूष श्रीकृष्ण का खास बाजा है। जाट-बालक को जब तक कि वह युवा नहीं होता, कछनी पसन्द होती है।

जाट गृहस्थ अतिथि-सत्कार को अपना पैतृक रिवाज बतलाता है। जहां के जाटों का मस्तिष्क वर्तमान हिन्दू रिवाजों का गुलाम नहीं बना, वहां की जाट-स्त्रियां पर्दे को वहशीपन समझती हैं। वह अपने हाथों से अपने पति और पारिवारिक जनों को भोजन खिलाती हैं।

जाट दास-प्रथा को बुरा मानते हैं। उनके यहां कुछेक लोकोक्तियां ऐसी चली आती हैं जो कि इन्हें वैदिक आर्यों के


[पृ.20]: उत्तराधिकारी होने में तनिक भी सन्देह नहीं रहने देतीं। बाप का बदला लेने वाले पुत्र को प्रकट्यो सुत जन्मेदा (जन्मेजय) की लोकोक्ति से और उद्दण्ड पुत्र को बब्राहन (बब्रहन) नाम से पुकारते हैं।

उन्हें रसिक रागों की अपेक्षा तत्व ज्ञान और भक्ति तथा वीर रस के राग अधिक पसन्द होते हैं । अपनी ओर से वे किसी से झगड़ा-बखेड़ा करने के आदी नहीं हैं।

धार्मिक भावनायें और रस्म रिवाज उन्हें वैदिक आर्यों का सच्चा उत्तराधिकारी सिद्ध करती हैं। यह निर्विवाद सही बात है कि, जाट विशुद्ध आर्य हैं।

जाटों के आर्य होने में भ्रम क्यों?

फिर इतिहासकारों में कुछ एक लोगों को यह भ्रम क्यों हुआ कि जाट शक तथा हूणों में से हैं? हमारी समझ में इस भ्रम के निम्न कारण हैं-

1. जाटों का अन्य हिन्दुओं की अपेक्षा सामाजिक रीति-रिवाजों से बहुत कुछ स्वतंत्र होना,

2. उनके अन्दर छूआछूत और भेद-भाव के सिद्धान्तों की शिथिलता,

3. समकक्ष क्षत्रिय जातियों के रस्म-रिवाज में विदेशी जातियों के रस्म-रिवाज का सामंजस्य,

4. उनके नाम से मिलती-जुलती जातियों का विदेश में अस्तित्व,

5. चचनामा जैसे कुछ इतिहासों में जाटों पर ब्राह्मणों तथा उनके पिट्ठुओं द्वारा किये गये अत्याचार के उदाहरण मिलना,

6. भाट, चारण आदि की वंशावलियों में जाटों को व्रात्य लिखा हुआ होना,

7. उनके प्रामाणिक इतिहास की कमी,

8. एकतंत्र शासन की अपेक्षा गणतंत्र


[पृ.21]:

शासन की प्रणाली पर चलने के कारण साम्राज्य भावना का न होना।

संभव है इन कारणों के सिवाय भी एक-दो कोई और कारण हों। किन्तु वे भी इन्हीं से मिलते-जुलते होंगे। किसी विदेशी विद्वान् को इतने कारण सहज ही में भ्रम में डाल सकते हैं और वह जो नतीजा निकालेगा उलटा ही होगा क्योंकि उसकी निगाह में वास्तविक परिस्थितियां तो सहज में आ नहीं सकतीं, जैसे -

विदेशी इतिहासकारों की वास्तविक परिस्थितियां से अनभिज्ञता

1. विदेशी विद्वान् इतिहासकारों ने जब देखा कि हिन्दू-धर्म पुनर्विवाह का निषेध करता है और जाटों में यह रिवाज प्रचलित है, तब सहज में ही उनके मस्तिष्क में यह भाव पैदा हुआ - हो न हो यह उन लोगों में से हैं जो तातार या हूण आदि कहलाते हैं। यदि ऐसे विद्वानों को वैदिक रस्म-रिवाजों और जाटों की रस्म-रिवाजों की समानता का ख्याल आ जाता तो उन्हें गलत रास्ते पर न जाना पड़ता।

2. हिन्दू-धर्म के अनुसार ‘आठ पुर्विया नौ चूल्हे’ की भोजन-व्यवस्था और दूसरी ओर जाटों का नाई, गड़रिया, लोधे, अहीर, गूजर, माली, राजपूत आदि सब के घर और हाथ का बना भोजन खा लेना एक-दूसरे के विपरीत देखा, तब उन्होंने यह अनुमान लगा लिया कि ‘जाट बहुत पीछे के भारत में आए हुए हैं जो कि शनैः शनैः हिन्दू-धर्म में लिप्त हो रहे हैं।’ यह उन विद्वानों का बिना परिश्रम का ख्याल था। निश्चय ही उन्हें आर्य-सभ्यता का ज्ञान होता तो समझ लेते कि जाट प्राचीन आर्य-धर्म के पालक हैं। उन पर कृत्रिम हिन्दू-धर्म का प्रभाव बहुत कम पड़ा है।

3. बकरे, भैंसे आदि के


[पृ.22]:

बलिदान, दुर्गा और सूर्य की पूजा के रिवाजों के आधार पर विदेशी इतिहास लेखकों ने राजपूतों और उनके साथियों को ऐसे ही रस्म-रिवाज वाली विदेशी जातियों का वंशज अनुमान कर लिया। चूंकि अनेक जाटों के वे ही गोत्र हैं जो राजपूतों के हैं, वैसे भी राजपूत और जाटों में कुछेक रिवाजों को छोड़कर समानता है, बस इसी आधार पर उन्होंने राजपूतों के साथ ही जाटों को भी वही लिख दिया, जो राजपूतों के लिए लिखा है। गूजर और जाट दो समुदाय ऐसे हैं जिनके रस्म-रिवाज में 19-20 का अन्तर है, गूजरों में दो-एक गोत्र ऐसे हैं जो विदेशी जातियों के नाम पर हैं, जैसे हूण। गूजरों को विदेशी मानने के लिए इतनी सी सामग्री मिल जाना, उनके लिए काफी था और अब गूजर विदेशी हैं तो उनके साथी जो कि उनसे थोड़े ही श्रेष्ठ हैं क्यों न विदेशी होंगे ! सामंत अधिक दान-दक्षिणा में समर्थ थे, अतः उनको दक्षिणा भोगी पुरोहित ने ऊंचा बताया और लोकतंत्र में आस्था वाले जाटों को जो दान-दक्षिणा विरोधी थे, नीच।

यदि इसी बात को विदेशी इतिहासकार इस तरह समझ लेते कि हूण गूजरों की खानि में जज्व (मिल) हो गए तो सहज ही उनका भ्रम मिट सकता था। राजपूतों के अग्नि-कुल वाली कथा ने भी राजपूत, जाट, गूजरों को विदेशी और अनार्य होने के लिए काफी भ्रम फैलाया। विदेशी इतिहासकार समझते हैं कि भारत से बाहर के लोगों को शुद्ध करके आर्य (क्षत्रिय) राजपूत बनाया गया था। वास्तव में बात यह है कि बौद्ध-क्षत्रियों के मुकाबले के उन्हीं में से अथवा भारत के ही कुछ निम्न दल के लोगों को हिन्दू-धर्म में (बौद्ध धर्म से) दीक्षित किया था।

4. समानवाची देशी-विदेशी नामों ने भी ऐसे


[पृ.23]:

इतिहासकारों को खूब धोखे में डाला है । यूरोप के गाथ, गेटि, जेटी, चीन के यूची, यूती ऐसे नाम हैं जो जाट शब्द से मिलते हैं। इस शब्द-समानता के मिलते ही फौरन ही उन्होंने जाटों को मंगोलियन और सीथियनों के उत्तराधिकारी अथवा विदेशों से भारत में आया हुआ लिख दिया । यदि वे संस्कृत-साहित्य अथवा पाली-साहित्य और पारसी, अरबी तथा चीनी इतिहासों को परिश्रम के साथ पढ़ने और कुछ खोज करने की चेष्टा करते तो उन्हें मालूम हो जाता कि यदि यूरोप और चीन में कहीं भी जाटों के भाई-बन्धु (गेटे, गाथ, यूची आदि) पाए जाते हैं तो वे भारत से गए हुए हैं न कि उन स्थानों से आकर भारत में बसे हैं। कर्नल टाड ने स्कन्धनाभ में जाटों की बस्तियों का वर्णन किया है, किन्तु जिस समय स्कन्धनाभ में उनके प्रवेश का वर्णन आता है उससे कई शताब्दी पहले भारत में उनका अस्तित्व पाया जाता है। जाट भारत से बाहर गए थे, ईसा से कई सौ वर्ष पहले गए और कई सौ वर्ष पीछे तक जाते रहे, इसका विस्तृत वर्णन आगे के पृष्ठों में करेंगे। यंहा इतना ही लिखना काफी है जैसा कि श्री चिन्तामणि विनायन वैद्य मानते हैं कि - न किसी विदेशी इतिहास में ऐसा वर्णन है कि जाट अमुक देश से भारत में गए और न जाटों की दन्तकथाओं में । पं. इन्द्र विद्या वाचस्पति ‘मुगल साम्राज्य का क्षय और उसके कारण’ नामक इतिहास पुस्तक में यही बात लिखते हैं कि - जब से जाटों का वर्णन मिलता है वे भारतीय ही हैं और यदि भारत के


[पृ.24]:

बाहर कहीं भी उनके निशान मिलते हैं तो वे भी भारत से ही गये हुए हैं।

5. सिन्ध में ब्राह्मण नरेश चच ने जाटों के साथ जो व्यवहार किया था तथा उन्हें सामाजिक स्थिति से गिराने के लिए जो नियम बनाये थे, उससे भी एकाध लेखक को जाटों के आर्यों के सिवाय अन्य कुछ होने का भ्रम हुआ है, किन्तु यह तो बात अधिक न थी। साम्प्रदायिक अन्तर भाई-भाई को शत्रु बना देता है। जाट नवीन हिन्दू-धर्म के बन्धन से मुक्त रहना चाहते थे। वह कुछ सीमा तक बौद्ध-धर्म के कायल थे। यही कारण था कि चच और उसके उत्तराधिकारियों ने उनके साथ कठोरता की। विजेता जाति पराजित जाति पर अत्याचार सदैव करती आई है। यदि धार्मिक मतभेद हो तो यह अत्याचार और भी बढ़े हुए होते हैं। लेकिन यह याद रखने की बात है कि धर्म या मजहब (नेशन) को नहीं बदल सकते हैं।

6. राजपूताने में वंशावली रखने वाली कौम को व्यास या जागा कहते हैं; चारण भी यही काम करते हैं। उनकी बहियों में अनेक जाट गीतों के लिये लिखा हुआ है कि अमुक राजपूत ने जाटिनी से शादी कर ली अतः वह जाट हो गए। ऐसे व्यास या भाट यू.पी., पंजाब सभी जगह हैं। उनसे किसी भी जाट गोत्र की उत्पत्ति का हाल पूछिये, ऐसी ही वाहियात और निर्मूल कथा का हवाला देते हैं। ऐसे ही लोगों के कथन के आधार पर पटियाला, फरीदकोट और भरतपुर जैसी स्टेटों के इतिहास में उनके राजवंश के हवाले तक लिखे जा चुके हैं। यह भी एक


[पृ.25]:

आधार था जिससे विदेशी और उनका आंख मूंदकर अनुसरण करने वाले देशी इतिहासकार इस नतीजे पर पहुंच गये कि जाट क्षत्रिय-कौम के अलावा बाहर की कोई लड़ाकू कौम हैं, जिन्होंने समय पाकर भारत पर आक्रमण करके स्थान प्राप्त कर लिया है। हालांकि वे ऐसे व्यासों-भाटों की वंशावलियों और बहियों को विश्वास योग्य और प्रामाणिक मानने में हिचकते रहे, किन्तु जाटों के विपक्ष में तो कलम चला ही गये। हम कहते हैं और चैलेंज-पूर्वक कहते हैं कि भाटों और व्यासों की बहियों में जाटों को राजपूतों में से होने की जो कथा लिखी हुई है, वह सफेद झूठ है। किन्तु जस्टिस केम्पवेल का तो यह कहना है -

It may be possible that the Rajputs are Jats who have advanced further into Hindustan, have there Intermingled with Hindu races, have become more high and Strict Hindus and achieved earlier power and glory. But that the Jats are Rajputs who have receded from a higher Hindu position, is a theory for which there is not the least support and which is contradicted by every feature in the present position of the now rapidly progressive Jats.

अर्थात् - यह संभव हो सकता है कि राजपूत जाट हैं जो कि भारत में आगे बढ़ आये हैं और वहां हिन्दू-जातियों से परस्पर मिल गए हैं तथा ऊंचे और कट्टर हिन्दू हो गए हैं। उन्होंने अपने प्राचीन बल-वैभव को प्राप्त कर लिया है। लेकिन यह कि जाट राजपूत हैं और ऊंचे दर्जे से घट गए हैं, यह एक ऐसा सिद्धान्त है जिसके लिए बिल्कुल सबूत (पक्ष) नहीं है और जो आज वर्तमान उन्नतिशील जाटों के बाहरी वर्तमान आचरण से स्पष्ट तौर से प्रकट होता है।


[पृ.26]:

7. प्रमाणिक इतिहास की कमी ने जाटों को उनके स्थान से गिराने में बहुत सहायता दी है। मथुरा मेमायर्स के लेखक मि. ग्राउस ने जाटों को अपना इतिहास न लिखने पर काफी फटकार बताई है। वास्तव में उनकी कोई इतिहास-पुस्तक न पाकर दूसरे लोगों से जैसा उन्होंने सुना या, जैसा उन्हें बताया गया, वे लिखने को विवश हुए। फिर भी उन्होंने जाटों के लिए इतिहास लिखने का रास्ता साफ कर दिया है। यह सिद्ध करना कुछ भी कठिन नहीं है कि जाट ‘इंडो आर्यन’ हैं जिन्हें कि किसी-किसी इतिहासकार व गजेटियर के संपादक ने ‘इंडोसीथियन’ लिख दिया है चूकि वे जाटों के भारतीय इतिहास से अनभिज्ञ थे।

8. यद्यपि जाटों में कुछ एक व्यक्ति या समूह ऐसे थे, जिन्होंने एकतंत्र या साम्राज्य शाही को पसन्द किया और ऐसे शासन भी स्थापित किए किन्तु पूरा समुदाय गणतंत्र (प्रजातंत्रशाही) का मानने वाला था। यही क्यों, वे एकतंत्र शासन के पक्ष में विचार रखने वालों के विपक्षी भी बन जाते थे। इनमें से कोई कोई समुदाय तो बिल्कुल अराजकतावाद थे। वे न वंशानुगत राजा चाहते थे न ही सरदार प्राणि के काइल होना चाहते थे। अराजकतावाद के विरूद्ध भारत में सदैव संघर्ष रहा है। शतपथ ब्राह्मण और महाभारत में अराजकतावाद के विरूद्ध खूब चर्चा की गई है। कारण यह था कि अराजक लोगों में न किसी धर्म का प्रचार हो सकता था और न किसी जाति का दूसरी जाति पर प्रभुत्व स्थापित।


[पृ.27]:

इसीलिए ब्राह्मण-वर्ग सदैव अराजकतावाद के विरूद्ध रहा है। उसने यादव और तक्षक आदि जातियों को इसीलिए अनार्य और शूद्र करार दे दिया। प्रजातंत्र और एकतंत्र भी भिन्न हैं। नया हिन्दू-धर्म भी प्रजातंत्र के नितान्त विरूद्ध था, क्योंकि एकतंत्र में उन्हें धर्म-प्रचार के लिए सुविधा रहती थी। एक राजा के धर्म बदलते ही सारी प्रजा धर्म बदल लेती थी किन्तु गणतंत्र में अनेक सरदारों को शीघ्र धर्म-परिर्वतन करा देना कठिन था। नवीन हिन्दू-धर्म ने प्रजातंत्र को इसलिए भी बुरा समझा कि बौद्ध-धर्म के संघों का संगठन गणतंत्र प्रणाली के अनुसार ही हुआ था। ब्राह्मण, धर्म के मामले में एक पुजारी या आचार्य को सर्वाधिकारी होने के पक्षपाती थे। बौद्ध-संघों में सब बातें वोट द्वारा तय होती थीं। ब्राह्मण ने अथवा नवीन हिन्दू धर्म ने आखिरकार गणतंत्री जाति-समूहों को राजतंत्री समूहों से पतित करार दे ही दिया। इस घरेलू संघर्ष का आधार भी जल्दबाज इतिहासकारों के लिए जाटों को इंडो-सीथियन बनाने के लिए काफी हुआ। पर ऐसे लेखक 10 प्रतिशत थे। 90 प्रतिशत लेखकों ने मुक्त-कंठ से जाटों को प्राचीन आर्यों के विशुद्ध वंशज बताया है। सिद्धांत है कि सच्चाई छिपाने से छिपती नहीं है। लाल गूदड़ों में भी पहचाने जा सकते हैं और जादू सर पर चढ़कर बोलता है। जाटों ने इस बात के विरूद्ध न तो आवाज उठाई कि कोई उनके विरूद्ध क्या प्रचार करता है न प्रतिवाद किया। फिर भी निष्पक्ष और मनन-शील विद्वानों, अन्वेषकों और इतिहासकारों को यह स्पष्ट तौर से मानना पड़ा कि जाट आर्य हैं और प्राचीन आर्यों के वह वास्तविक उत्तराधिकारी हैं


द्वितीय परिच्छेद समाप्त

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