Kadipur Delhi

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Note - Please click → Kadipur for details of similarly named villages at other places.

Kadi Pur (कादीपुर) (also spelt as Kadipur) is a village in north Delhi. The nearby village is Nangli Poona.

Origin

Jat gotras

Adaption ceremony on 10.01.1915 at Kadipur

Tek Chand Kadipur (Jatrana) Jaildar and his younger brother Bhim Singh Kadipur (Jatrana) on 10.01.1915 at Kadipur Delhi

This photograph was taken infront of the Havelis of Tek Chand Kadipur (Jatrana) Jaildar and his younger brother Bhim Singh Kadipur (Jatrana) on 10.01.1915 at the adaption ceremony of Maha Singh by Ch. Tek Chand at village Kadipur Delhi. The leader of ceremony was Pt Brahmanand. This ceremony was attended by about 200 people mainly the elite prominent Jats including - Rai Bahadur Ch Lal Chand of Bhalot, Ch. Baldev Singh, first Headmaster of Jat School Rohtak, Ch. Sheria Singh, Ch Molar Singh, Ch Rajmal (all from Bohar, Khusal Bakhetewale etc. Ch Tek Chand gave Rs 5100/- to Gurukul Kangri and Rs. 100/- to Jat School Rohtak.


Source - Jat Kshatriya Culture

कादीपुर का इतिहास

देहली जिले की भूमि बंदोबस्त रिपोर्ट,1880 के अनुसार जटराणा गोत्रीय कादीपुर गाँव देहली (शाहजहांबाद) के नो मील उत्तर में यमुना नदी के पश्चिमी छोर की तलहटी में बसा हुआ आखिरी जाट गाँव है। इसके बाद यमुना के किनारे त्यागी जाति के गांव बसे हुए हैं। सन 1803 में लॉर्ड लेक की सेना ने दौलतराव सिंधिया को पटपड़ गंज की लड़ाई में हरा कर देहली व आसपास के क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। हमारे पूर्वजों का पुशतेनी गाँव खेड़ा कलां है। हमारे गुहांड में आठ गाँव जट राणा व आठ गाँव मान गोत्र के हैं। कुछ समय बाद प्रशास्निक फेर बदल में हरयाणा इलाका उत्तर पश्चिमी प्रांत में मिला दिया गया जिसका मुख्यालय आगरा था। 1857 के विद्रोह् को कुचलने के बाद दन्ड स्वरूप हरयाणा क्षेत्र उत्तर पश्चिमी प्रांत से काट कर पंजाब के साथ मिला दिया गया और सन 1912 तक हमारा गाँव पंजाब के देहली जिले का गांव था। सन 1912 में देहली जिला पंजाब से काट कर अलग देहली प्रांत बना दिया गया। आजकल हमारा गाँव कादीपुर देहली राजधानी क्षेत्र में है।

स्रोत: वीरेंद्र सिंह राणा

आर्यवीर चौधरी भीमसिंह रईस (कादीपुर)

हरयाणा क्षेत्र में आर्यसमाज के शुरुआती दौर के अग्रणीय महानुभाव हरयाणे के आर्यवीर चौधरी भीमसिंह रईस (कादीपुर)

लेखक :- श्री आचार्य भगवानदेव जी (कालांतर में श्री ओमानन्द जी), अधिष्ठ्दाता, गुरुकुल झज्जर, हरियाणा व संपादक "सुधारक" पत्रिका

स्रोत :- "सुधारक" (10 अगस्त 1969)

गुरुकुल झज्जर की मासिक पत्रिका

प्रस्तुति :- वीरेंद्र सिंह राणा

पैतृकसंस्कारों के कारण मुझे आर्य सिद्धान्तों के प्रति स्नेह और श्रद्धा हो गई थी। वैसे तो मैं दशम श्रेणी में ईसाइयों के सेन्स्टीफन हाई स्कूल में पढ़ता था, किन्तु अनेक मित्रों और अध्यापकों की प्रेरणा से आर्य समाज के सत्सङ्गों, वार्षिक उत्सवों और शास्त्रार्थों में मैं दिल्ली में जाता रहता था, उन्हीं दिनों हरयाणे के प्रसिद्ध आर्य भजनोपदेशक स्वामी भीष्म जी हमारे गांव में आर्यसमाज का प्रचार करने के लिये पधारे , उनके विचार से खासा गांव (नरेला) ही प्रभावित हुआ, मुझे भी स्वामी जी महाराज से आर्य समाज की सेवा करने की प्रेरणा मिली। हमारे गांव में पन्द्रह - सोलह वर्ष पूर्व आर्य समाज की स्थापना हो चुकी थी, किन्तु उसके कार्य में कुछ शिथिलता आई हुई थी। मैं और मेरे मित्र जुट गये और हमने आर्यसमाज का पुन: सङ्गठन किया। मेरे साथियों ने मुझे मन्त्री बना दिया और उसी वर्ष आर्यसमाज का द्वितीय वार्षिकोत्सव हुआ, बहुत यत्न करने पर भी स्वामी भीष्म जी महाराज उस पर नहीं पधार सके। उन दिनों उनका आश्रम गाजियाबाद में हिण्डन नदी तट पर करहेड़ा ग्राम में था। मैं अपने आर्यसमाज के उत्सव पर पधारने के लिये उनके आश्रम पर गया, किन्हीं कारण से वे नहीं पधारे किन्तु उनका एक शिष्य ज्ञानेन्द्र उस उत्सव पर आया, उसका अच्छा प्रभाव पड़ा, उत्सव सफल हो पाया। गंगाशरणजी तथा पं. रामचन्द्र पुरोहित (देहलवी) आर्यसमाज चावड़ी बाजार भी उत्सव में पधारे थे, जिस व्यक्ति विशेष ने मुझे प्रभावित किया और जिनकी चर्चा के विषय का ही यह लेख है वे थे - चौ० भीमसिंह जी रईस, कादीपुर। वे ही हमारे इस वार्षिकोत्सव के प्रधान बने। उनके दो सुपुत्र (बलबीर सिंहरघुबीर सिंह) भी उनके साथ आये थे, जो उस समय विद्यार्थी थे, उनमें से एक ने ईश्वर कहाँ रहता है और क्या करता है इस विषय पर बहुत ही प्रभावशाली व्याख्यान दिया। इसके कारण मेरी चौ.भीमसिंह के प्रति और अधिक श्रद्धा हुई। मुझ पर उनका यह प्रभाव पड़ा कि वे स्वयं भी आये हैं और अपनी सन्तान को आर्य बनाने का यत्न कर रहे हैं, उन्होंने भी उत्सव में व्याख्यान दिया था। वे अच्छे प्रभावशाली वक्ता थे। शरीर में बड़े लम्बे और तगड़े थे, उस समय के रईसों वाली उनकी वेषभूषा थी, उनके वस्त्र साफ सुथरे थे, सिर पर सफेद गोल साफा और पैरों में पाजामा था, कमीज के ऊपर में अंग्रेजी ढंग का कोट था, बाहर जाने की उनकी यही पोशाक थी। वे अपनी घोड़ी पर चढ़कर ही वहां पधारे थे, हरयाणे की इस लोकोक्ति " जाट बढ़े जब घोड़ी लावे " के अनुसार हरयाणे के जाटों का उस समय यह स्वभाव था कि जब वे सम्पन्न होते थे तो घोड़ी या घोड़ा अपने घर पर रखते थे। चौ० भीमसिंह जी धनधान्य से सम्पन्न घर के स्वामी थे, कई पीढ़ी से वे रईस चले आ रहे थे। कादीपुर ग्राम तथा उसके आस - पास की भूमि के वे ही स्वामी थे - अथवा - यों कहिये वे बहुत बड़े धनपति रईस जमीदार थे। उनके एक भाई टेकचन्द जी थे। जिस समय प्रारम्भ में हरयाणे में आर्यसमाज का प्रचार हुआ तो कुछ सम्पन्न जाट क्षत्रिय परिवारों के आठ- सात ही युवक आर्य समाजी बने थे, उन्हीं में से उस समय के एक युवक भीमसिंह जी (दिल्ली राज्य) कादीपुर थे।

वह आर्यसमाजियों के लिये बड़ा विकट समय था, उस समय जो आर्यसमाजी बनता था तो आर्यसमाज के उपदेशक जनेऊ देकर अर्थात् यज्ञोपवीत संस्कार के द्वारा उसको आर्य समाज में प्रविष्ट करते थे। जनेऊ लेने वाला भी अपने आप को आर्यसमाजी समझने लगता था और श्रद्धापूर्वक आर्य समाज के लिये तन-मन-धन सर्वस्व लुटाने के लिये प्रतिक्षण तैयार रहता था। आर्यसमाज के विरोधी उस समय के आर्यसमाजियों का बड़ा विरोध करते थे तथा उन्हें तंग करते थे। इसलिए यज्ञोपवीत लेने के पीछे चौ० भीमसिंह और उनके साथियों को बहुत समय तक भयंकर संघर्ष और कष्टों का सामना करना पड़ा। उनके कुछ प्रसिद्ध आर्यसमाजी साथी चौ० गंगाराम जी (गढ़ी कुण्डल) जि० रोहतक व चौधरी चरण सिंह जी के ससुर, चौ० हरिसिंह जी (फिरोजपुर बाङ्गर), चौ० रामनारायण जी (भगाण जि० रोहतक व चौधरी लहरी सिंह के पिता जी), और चौ० मातुराम जी ( सांघी जि० रोहतक व चौधरी भूपेंद्र सिंह हुड्डा के दादा जी) इत्यादि थे।

इन युवकों के यज्ञोपवीत लेने से हरयाणे के पौराणिकों में एक हलचल मची हुई थी। उनका खाना पीना और सोना हराम हो गया था। उन पौराणिक ब्राह्मणों को जाटों का जनेऊ लेना बड़ा अखरता था। पौराणिक ब्राह्मणों का जाटों पर भी उस समय बहुत अधिक प्रभाव था। वे सभी इनको अपने गुरु और पुरोहित मानते थे, इनको दादा कहकर सदैव झुककर अभिवादन करते थे। जन्म मृत्यु विवाह इत्यादि पर इन ब्राह्मणों को मुहमांगा दान और दक्षिणा देना अपना सौभाग्य समझते थे। सदैव अपने से ऊंचा आसन देते थे और चारपाई पर सिरहाने बिठाते थे। ब्राह्मण के छोटे बालक को भी दादा कहते थे, दादा शब्द उस समय गुरु का पर्यायवाची माना जाता था। " ब्रह्म वाक्यं प्रमाणम् " के अनुसार ब्राह्मणों की आज्ञा को नत मस्तक होकर श्रद्धापूर्वक मानते थे। विवाह आदि शुभ अवसरों पर ब्राह्मणों को बिना भोजन कराये कोई भोजन नहीं कर सकता था। कोई भी कार्य अपने कुलपुरोहित ब्राह्मण की आज्ञा लिए बिना जाट क्या कोई भी हिन्दू नहीं कर सकता था। अपनी किसी रिस्तेदारी में जाने के लिए भी प्रत्येक हिन्दू को ब्राह्मणों से पूछना पड़ता था। खेती बोना - काटना इत्यादि के लिए भी दिन और मुहूर्त ब्राह्मणों से पूछने पड़ते अर्थात् उस समय का सारा हिन्दू जगत् पौराणिकों के रुढ़ियों और पौराणिक पाखण्ड जाल में पूर्ण रूप से कसा हुआ था। ऐसे युग में ब्राह्मणों की आज्ञा के विरुद्ध इन उपरोक्त जाट युवकों का जनेऊ लेना बहुत ही दुःसाहस माना गया था, क्योंकि उस समय का ब्राह्मण ब्राह्मणों के अतिरिक्त सभी को शूद्र मानता था, फिर जिन जाटों को वे शूद्र और वर्णसंकर मानते थे उनका जनेऊ ग्रहण करना कैसे सह्य हो सकता था। उस समय पौराणिक ब्राह्मणों का एक नेता कूड़े (कुटस्थ महाराज) नाम का एक जटाजूट ब्रह्मचारी था। राम नाम की छपी हुई चद्दर ओढ़े उसने सारे हरयाणे में इन युवकों के जनेऊ उतरवाने के लिये हलचल मचा दी, अनेक स्थानों पर जाटों की पंचायतें करवाई और इस बात के लिये पंचायत को तैयार किया कि इन आठ-सात युवकों के जनेऊ पंचायत के द्वारा उतरवाये जायें। कूड़े ब्रह्मचारी उस समय बहुत प्रभावशाली व्यक्ति था, सारा हरयाणा ही इसे अपना गुरु मानता था। यह ब्रह्मचारी जयराम का शिष्य था, ब्रह्मचारी जयराम ने महर्षि दयानन्द के व्याख्यानों से रेवाड़ी में प्रभावित होकर बेरी और भिवानी में दूसरे और तीसरे नम्बर को गौशाला खुलवा दी थी क्योंकि पहली गोशाला तो रेवाड़ी में महर्षिदयानन्द की आज्ञानुसार एवं राजा युधिष्ठिर ने खोली थी।

इस प्रसिद्ध कूड़े ब्रह्मचारी ने दहियाखाप के प्रसिद्ध खाण्डे (गाँव) में जाटों की सभी खापों की बहुत बड़ी पंचायत की। इसका केवल मात्र एक उद्देश्य था कि जाटों की बड़ी पंचायतों के द्वारा भीमसिंह और गंगाराम आदि युवकों के जनेऊ पंचायत में ही उतरवाये जायें। इन युवकों के लिये बड़ी भारी समस्या थी। इन युवकों ने आर्य समाज के सत्यसिद्धान्तों से प्रभावित होकर ही जनेऊ धारण किये थे, वे अपना सिर कटवा सकते थे किन्तु जनेऊ नहीं उतार सकते थे किन्तु उस समय पंचायत की आज्ञा आदेश का टालना असंभव सा था,बड़ी भारी विवशता थी, सांप के मुंह में छछुन्दर फसी हुई थी। ये युवक अपनी घोड़ी पर चढ़े चढ़े 10-15 दिन पंचायत के सभी चौधरियों के पास घूमते रहे और समझाने का यत्न किया, जाट भी क्षत्रिय हैं, इनका जनेऊ लेने का अधिकार है, हमारा इसमें कुछ दोष नहीं कि हमने जनेऊ धारण किया क्योंकि बहुत से ब्राह्मण विद्वान् ऐसे हैं जो जाटों को क्षत्रिय और उनका जनेऊ लेने और वेद पढ़ने का अधिकार मानते हैं और कुछ पौराणिक रूढ़ीवादी ब्राह्मण जाटों को शूद्र मानते हैं और इनको जनेऊ लेने तथा पढ़ने का अधिकार नहीं मानते। इन दोनों प्रकार के ब्राह्मणों को आपस में बातचीत करालें - शास्त्रार्थ करवालें। जिसकी बात सच्ची हो, जो शास्त्रार्थ में जीत जाये उसके निर्णय के अनुसार हम आचरण करने को तैयार हैं। खाण्डे में होने वाली पंचायत में यह निर्णय करवाना चाहिये। उस समय के कुछ माने हुए प्रसिद्ध जाट पंचों की बुद्धि में यह बात समझ में आ गई। खाण्डे में कूड़े ब्रह्मचारी द्वारा आयोजित पौराणिक मेला और जाटों की बड़ी पंचायत थी जो उधर आर्य समाजियों ने सिसाने (गाँव) में अपने अपने उपदेशकों को बुलाकर शास्त्रार्थ की तैयारी में जुट गये। पौराणिकों ने पं. शिवकुमार को काशी से बुला रखा था। इधर आर्यसमाजी भी भाग दौड़ कर रहे थे। उन्होंने भी दादा बस्तीराम, पं० शम्भूदत्त (मुरथल)आदि हरयाणे के उपदेशकों को प्रचारार्थ बुलाया था। शास्त्रार्थ के लिये पं० गणपति शर्मा (राजपुताना) को चुपके से बुला लिया। इसका ज्ञान किसी को भी नहीं था। यदि पौराणिको को यह पता लग जाता कि आर्य समाजियों ने पं० गणपति शर्मा को बुला रखा है तो वे शास्त्रार्थ करने को तैयार न होते।

इस ओर आर्यसमाजियों ने पं० गणपति शर्मा को बुलाकर सात दिन तक सिसाने में रखा और किसी को पता तक नहीं लगने दिया कि पं० गणपति जी पधारे हुए हैं। पंडित जी शौच स्नानादि के लिये अन्धेरे में ही जाते थे और उनके सिसाने में आने का किसी को ज्ञान नहीं था। पौराणिक प० शिवकुमार 700) अगाऊ दक्षिणा देकर काशी से बुलाये गये थे, किन्तु वे शास्त्रार्थ से बचना चाहते थे। वे अपनी निर्बलता को भली भांति जानते थे। उन्होंने इससे बचने के लिये यह शर्त रक्खी - यह प्रतिबन्ध लगाया कि मैं केवल अपने समान विद्वान् से ही शास्त्रार्थ कर सकता हूं। आर्यसमाजियों के आग्रह करने पर वे कहने लगे कि मेरे समान विद्वान तो स्वामी दयानन्द थे, वे आजायें तो मैं उनसे ही शास्त्रार्थ कर सकता हूँ। लोगों ने कहा जो इस जगत् में नहीं तो वे कैसे स्वामी दयानन्द को बुला सकते हैं, आप शास्त्रार्थ से डरते हैं, टालना चाहते हैं नहीं तो किसी जीवित विद्वान् को बुलाने को कहते। पं० शिवकुमार जी ने समझा कि ये तुरन्त कहां से विद्वान् को बुला सकेंगे। समय व दिन (23 दिसम्बर 1906) निश्चित हो चुका था, विद्वान् की बात थी। झट पं. शिवकुमार जी ने पं० गणपति शर्मा का नाम ले दिया कि मैं उनसे भी शास्त्रार्थ कर सकता हूँ, वे भी मेरे समान विद्वान् हैं, वे यह समझते थे कि रातों - रात कहां से पं० गणपति शर्मा को बुलायेंगे। किन्तु आर्य समाजियों ने पहले से ही प्रबन्ध कर रक्खा था और अगले दिन पं. गणपति शर्मा को शास्त्रार्थ के लिए आर्यसमाज के प्रतिनिधि रूप में खड़ा कर दिया। पं० शिवकुमार के पगों के नीचे से भूमि निकल गईं। वे टालमटोल करने लगे। उधर पौराणिक शिविर में खलबली मच गई, आर्यसमाजियों ने सर्वत्र प्रचार कर दिया कि पौराणिकों को कोई ब्राह्मण विद्वान् भी नहीं मिला, इसलिये कुम्हार (पं० शिव कुमार) को काशी से बुलाया है। पं० शिवकुमार ने शास्त्रार्थ करने से निषेध (इनकार) दिया। पौराणिकों के बहुत बल देने पर यह कह दिया कि यदि मुझे बहुत अधिक विवश करोगे तो मैं अपनी शास्त्रार्थ मैं पराजय (हार) स्वीकार कर लूंगा। और भरी पञ्चायत में यह कह दूंगा कि जाटों को भी जनेऊ लेने का अधिकार है और आर्यसमाजी विद्वानों का यह पक्ष सत्य है। प० शिवकुमार बहुत दुखी हो गये उन्होंने 700) रुपये दक्षिणा के फैक दिये और कहा- मैं जाता हूं , मैं शास्त्रार्थ नहीं करूंगा।

पौराणिकों में शास्त्रार्थ फिर कौन करता, पं० शिवकुमार तैयार नहीं हुये। एक प्रकार से बिना शास्त्रार्थ किये ही पौराणिक हार गये। इसका आर्य समाज के प्रचारार्थ बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ा। किन्तु पौराणिकों की दूसरी चाल सफल हो गई ब्रह्मचारी कूड़े ने जाटों को पंचायत में यह प्रस्ताव पारित (पास) करा दिया कि इन सात-आठ भीमसिंह आदि युवकों को जनेऊ उतार देना चाहिये, यदि ये जनेऊ नहीं उतारें तो जाति से बाहर और हुक्का-पानी बन्द कर देना चाहिये, यदि इस पर भी जनेऊ न उतारें तो " रोटी-बेटी " का सम्बन्ध बन्द हो जाये। यह निर्णय बड़ा सख्त था। युवक घोर विपत्ति में फंसे थे। कूड़े ब्रह्मचारी ने प्रस्ताव बड़े नाटकीय ढंग से रखकर पारित (पास) करवा लिया। वह सारी पञ्चायत के आगे कहने लगा “ सब खापों के चौधरियों और सरदारो ! यह जनेऊ हम ब्राह्मणों का मांगने खाने का चिह्न (निशानी) है। जाट सदा कमाकर खाते हैं, अब आपके ये आठ-सात लड़के जनेऊ लेकर क्या मांगा खाया करेंगे ? यह बात जाट सरदारों को समझ में आ गई और उन्होंने सर्वसम्मति से जनेऊ उतारने का प्रस्ताव पारित कर दिया। यदि जनेऊ न उतारें तो जाति बहिष्कार का दण्ड दिया जाये। जब यह प्रस्ताव पारित हुआ तो कुछ जाट चौधरी जो माने हुए वृद्ध पंचायती थे। आज्ञा लेकर पञ्चायत में खड़े हो गये और इस प्रकार ब्रह्मचारी कूड़ेराम से प्रश्न पूछने लगे हमारे ये सात आठ युवक जनेऊ लेने से ऐसे पापी व पतित कैसे हो गये कि इनको जाति से बाहर करने का दण्ड दे दिया। जाटों में तो जाति से बाहर करने का दण्ड बड़े बड़े पाप करने पर नहीं दिया जाता। एक वृद्ध पंच (चौधरी शंकर, बिधलान गाँव) कहने लगा " जाटों ने चोरियां की , डाके डाले , भंगी से लेकर ब्राह्मणी तक अपने घर में रखली। यहाँ तक मुसलमानो तक अपनी स्त्रियां बनाई, फिर भी यह पतित नहीं हुये, न इनका हुक्का पानी बन्द किया, न रोटी-बेटी का व्यवहार बन्द किया गया, न कभी जाति से बाहर डाला गया। यह जनेऊ लेने से क्या वज्रपात हो गया कि हमारे इन युवकों को जाति से बाहर करने का दण्ड दिया जा रहा है। यदि जनेऊ लेना इतना बड़ा पाप है तो ये सात आठ हमारे युवकों को क्यों जाति से बाहर करते हो, हम कुछ बूढ़े भी हम अपने युवकों का साथ देंगे, हमें भी जाति से बाहर करो " यह सोची विचारी पूर्व की योजना थी।

उसी समय कुछ माने हुये वृद्ध पंच उठे और हाथ में जनेऊ लेकर पंचायत में सबके सन्मुख जनेऊ अपने गले में पहन लिये। सर्वत्र कोलाहल (शोर) मच गया। पंचायत की आज्ञा व निश्चय जान-बूझकर नहीं माना गया अथवा तोड़ दिया गया। पचायत बिगड़ गई, मेला बिछड़ गया, पौराणिक मेले के लड्डू खाकर भीड़ ने भंडारा तथा मेला समाप्त कर दिया। खांडे में रचाया हुआ कूड़े ब्रह्मचारी का खेल बिगड़ गया। इधर सिसाना ग्राम में आर्य समाज का उत्सव कई दिन बड़ी धूमधाम से हुआ। उसका बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ा। उस उत्सव में जाटों में से 80 नये व्यक्तियों ने और जनेऊ ले लिये। सारे हरयाणे में हलचल मच गई, आर्य समाज का बोलबाला हो गया। भीमसिंह आदि युवकों ने सारे प्रान्त में घूम-घूमकर आर्यसमाज का प्रचार किया तथा करवाया। अनेक स्थानों पर उत्सव हुये। हजारों अच्छे घरानों के युवकों ने जनेऊ ले कर आर्य समाज की दीक्षा ले ली। बांकनेर (नरेला), सिरसपुर, खेड़ा गढ़ी , मटिण्डू, कतलूपुर और बघाण ग्राम - ग्राम में प्रचार और उत्सव होने लगे। फिर क्या था, पौराणिकों के पैर उखड़ गये। उस समय इस आर्य वीर चौ० भीमसिंह तथा इनके साथियों ने खूब उत्साह से आर्यसमाज की धूम मचा दी। चौ० भीमसिंह के सगे भाई (ज़ैलदार) टेकचन्द आर्यसमाज के विरोधी थे, किन्तु ग्राम सिरसपुर के शास्त्रार्थ में उन्होंने भी प्रभावित हो कर जनेऊ लेकर आर्यधर्म की दीक्षा ले ली। गुरुकुल कांगड़ी को 5, 6 ( पांच - छ: ) हजार रुपया एक साथ दान देकर हरयाणा प्रान्त के किसी एक विद्यार्थी को सदैव पढ़ते रहने के लिये एक छात्रवृत्ति का प्रबन्ध कर दिया जिस से अनेक हरयाणे के ब्रह्मचारी गुरुकुल कांगड़ी में पढ़कर वहां के स्नातक बने, नहीं तो उस समय हरयाणा प्रान्त की आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं थी। कोई भी विद्यार्थी गुरुकुल कांगड़ी में व्यय देकर पढ़ नहीं सकता था। चौ० भीमसिंह के भ्राता टेकचन्द जी ने यह छात्र वृत्ति देकर उस समय बड़ा पुण्य कमाया और अपने परिवार की यश कीर्ति को चार-चांद लगाये। यह ठीक है आज दिल्ली (कादीपुर) को कुछ भोले लोग हरयाणे से बाहर समझने लगे हैं। उस समय सभी तथा आजकल भी विचारवान व्यक्ति दिल्ली को हरयाणा का भाग मानते हैं। अनेक बाधाओं को सहन करके चौ० भीमसिंह ने उस समय में, उस युग में क्रान्ति का सूत्रपात किया। पौराणिक दम्भ पर बम्ब डाल दिया। पाखण्ड की जड़े खोखली कर डाली। प्रत्येक आर्य समाजी उस समय आर्यसमाज का उपदेशक होता था। दिन में कार्य करता और रात्रि को जो भजन उसको याद होते उन्हें श्रद्धा पूर्वक मस्त होकर गा गाकर प्रचार करता था। उस युग में अनेक उत्साही आर्यसमाजियों का जीव ब्रह्म की भिन्नता आदि सिद्धान्तों पर पौराणिक पुरोहितों से शास्त्रार्थ करते हुवों के मैं ने स्वयं दर्शन किये हैं। उस समय के आर्यसमाजी बड़े सत्सङ्ग प्रेमी तथा स्वाध्यायशील थे। चौ० भीमसिंह जब तक जीवित रहे आर्य समाज के कार्यों में सहयोग देकर कार्यकर्ताओं को उत्साहित करते रहे। उनका निजी पुस्तकालय भी बड़ा अच्छा था। वेदाङ्ग प्रकाश, महर्षि दयानन्द कृत वेद भाष्य तथा अन्य सिद्धान्त की पर्याप्त पुस्तकें उनके पास थी। वे मुझे बार-बार कहा करते थे कि जब कभी इस सड़क से जावो तो कादीपुर आप का घर है यहां होकर जावो, चाहे केवल एक ही घण्टे के लिए आवो। उनकी यह बड़ी इच्छा थी, कि मरते समय मुझे कोई उपनिषदें सुनाये। मुझे भी उन्होंने अनेक बार कहा कि में मरते समय आपको बुलाऊँ तो सब आवश्यक कार्य छोड़ कर आकर मुझे उपनिषदें सुनाना। मुझे यह सौभाग्य नहीं मिला, मैं गुरुकुलों में बाहर पढ़ने के लिए चला गया और उनकी यह अन्तिम इच्छा पूर्ण नहीं की। उनकी मृत्यु का भी मुझे बहुत समय बीतने पर ज्ञान हुआ। उनका आपटे कृत संस्कृत कोष स्मृति रूप में गुरुकुल झज्जर के पुस्तकालय में शेष है। उनकी प्रेममय मूर्ति , उनका आर्यसमाज के सिद्धान्तों से प्रेम और श्रद्धा आज भी मुझे प्रेरणा देता रहता है। ऐसे आर्यवीर की जीवन झांकी आज भी हमारे युवकों के पथ प्रदर्शन का कार्य करती है। उन्होंने अनेक आर्य युवकों का निर्माण किया। जैसे पं० व्यासदेव जी शास्त्रार्थ महारथी अपने बचपन में चौ० भीमसिंह के पास ही कादीपुर में रहे, उनका पालन पोषण भी वहीं हुवा और चौधरी जी की प्रेरणा व सहायता से वे गुरूकुल ज्वालापुर के स्नातक बन आर्यसमाज के उज्ज्वलरत्न और सेवक बने। दिल्ली के पुराने आर्यसमाजी जो आज भी उन्हें श्रद्धा से स्मरण करते हैं। पं० व्यासदेव जी तथा मेरे समान सैंकड़ों सेवकों को प्रेरणा चौ० भीमसिंह के समान आर्य वीरों से मिली है। वे अपनी सेवाओं के लिये अमरवीरता के कारण सच्चे आर्य वीर थे। परमात्मा हमारे युवकों को उनके पद चिन्हों पर चलने की शक्ति और उत्साह प्रदान करें।

Notable Person from village

  • Chaudhary Ramdayal Lumbardar of Qadipur (Kadipur) लम्बरदार रामदयाल
  • Tek Chand Kadipur (Jatrana)
  • Bhim Singh Kadipur (Jatrana)
  • Virendra Singh Kadipur (Jatrana) (Mob: 93508 73694)
  • Harpal Rana (Social Worker)
  • ज़ैलदार ज्यासी राम
  • चौधरी भीम सिंह
  • राय साहब चौधरी नारायण सिंह
  • चौधरी रघुबीर सिंह
  • वकील बृजराज शरण सिंह

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External Links

References


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