Khyber Pass

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Author of this article is Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल
Map of Khyber Pass
An overview of Khyber Pass

Khyber Pass (Urdu: در خیبر‎ [pronunciation - दर्रा-ए-खैबर]) is a mountain pass connecting Afghanistan and Pakistan, cutting through the northeastern part of the Spin Ghar mountains. It is also spelt as "Khaiber Pass". An integral part of the ancient Silk Road, it is one of the oldest known passes in the world.

Throughout history, Khyber Pass has been an important trade route between Central Asia and the Indian Subcontinent and a strategic military location. The summit of the pass is 5 kilometres inside Pakistan at Landi Kotal. The Khyber Pass is part of the Asian Highway 1 (AH1). "Khyber" is the Hebrew word for fort.

Variants of name

Bab-e-Khyber

Bab-e-Khyber (Khyber Gate).jpg

Bab-e-Khyber (Khyber Gate) is a monument which stands at the entrance of the Khyber Pass in the Federally Administered Tribal Areas (FATA) of Pakistan. Jamrud Fort is located on its right.

This gate was built in the 10th century and in 1964, it was repaired and renovated.

History

Well known invasions of the area have been predominantly through the Khyber Pass, such as the invasions by Darius I and Alexander the Great, Genghis Khan and later, by various Mongols. Among the Muslim invasions of ancient India, the famous invaders coming through the Khyber Pass are Mahmud Ghaznavi, and Muhammad Ghori. Finally, Sikhs under Maharaja Ranjit Singh captured the Khyber Pass in 1798. Hari Singh Nalwa, who manned the Khyber Pass for years, became a household name in Afghanistan.

Throughout the centuries the Pashtun clans, particularly the Afridis and the Afghan Shinwaris, have regarded the Pass as their own preserve and have levied a toll on travellers for safe conduct. Since this has long been their main source of income, resistance to challenges to the Shinwaris' authority have often been fierce.

For strategic reasons, after the First World War, the British built a heavily engineered railway through the Pass. The Khyber Pass Railway from Jamrud, near Peshawar, to the Afghan border near Landi Kotal, was opened in 1925.

During World War II concrete "dragon’s teeth" (tank obstacles) were erected on the valley floor due to British fears of a German tank invasion of India.


The Uttarajyotika seems to have been the same as Landikotala, Vrindataka as Burindu and Attuck and Dvarpala as the Khybar.[1]

Illegal Arms Trade

The area of the Khyber Pass has been connected with a counterfeit arms industry, making various types of weapons known to gun collectors as Khyber Pass Copies, using local steel and blacksmiths' forges.

Torkham Gate

Torkham Border crossing at Pak-Afghan border.jpg

Torkham (Pashto: تورخم Tūrkham‎) is 5 kilometres west of the summit of the Khyber Pass. It is one of the major International border crossings between Pakistan and Afghanistan, located on the Torkham international border. The spot is also commonly called Torkham Gate though there is no structure which can be called a "gate", but there is a border check-post. It connects Nangarhar province of Afghanistan with Pakistan's Federally Administered Tribal Areas (FATA) and Khyber Pakhtunkhwa. It is the busiest port of entry between the two countries, serving as a major transporting, shipping, and receiving site.

Highway 7 connects Torkham to Kabul through Jalalabad. On the Pakistani side, the border crossing is at the end of the N-5 National Highway, which connects it to Peshawar in the east and further connects it to Islamabad by other routes. The Afghan Border Police and Pakistan's Frontier Corps are the main agencies for controlling Torkham. They are backed by the Pakistani and Afghan Armed Forces.

Jat History

Jauhla: Bhim Singh Dahiya [2] writes that ....It was these Jauhla/Johl Jats who were the defenders of Khyber Pass from the Kabul side for many centuries against the Arabs, while the brave Jats of Kikan or Kikanan, were defending the Bolan Pass.[3]


Khowde: In the Ancient times, when there was no such city as Kabul, there was a city named Kabura on the Silk Road, next to the present day Kabul, and then there is the Khyber Pass, which pretty well sums up the migration route of ancestors of Khabra Jatts, from Khabur River > Tarim Basin > Kabura > Khyber Pass> India.


For more than a thousand years invaders had come down from the Khyber pass and ruled eastern lands. Maharaja Ranjit Singh (Punjab) reversed this trend.

द्वारपाल

विजयेन्द्र कुमार माथुर[4] ने लेख किया है ...द्वारपाल (AS, p.459) महाभारत, सभापर्व के उल्लेख के आधार पर ख़ैबर दर्रे का प्राचीन भारतीय नाम समझा जाता है। अपनी भौगोलिक संरचना के कारण द्वारपाल वास्तव में भारत का 'द्वार रक्षक' था। 'द्वारपाल च तरसा वशे चक्रे महाद्युति:, रामठान् हारहूणांश्च प्रतीच्यश्चैव ये नृपा:'महाभारत, सभापर्व 32, 12.

पाण्डव नकुल ने अपनी दिग्विजय यात्रा के प्रसंग में उत्तर-पश्चिम दिशा के अनेक स्थानों को जीतते हुए द्वारपाल पर भी प्रभुत्व स्थापित किया था। प्रसंग से द्वारपाल, अफ़ग़ानिस्तान और भारत के बीच द्वार के रूप में स्थित खैबर दर्रें का प्राचीन भारतीय नाम जान पड़ता है। यह वास्तव में भारत का द्वार रक्षक था। इस उल्लेख से यह बात स्पष्ट है कि प्राचीन काल में भारतीयों को अपनी उत्तर-पश्चिम सीमा के इस दर्रे का महत्त्व पूरी तरह से ज्ञात था। उपर्युक्त श्लोक में 'रमठ' और 'हारहूण' अफ़ग़ानिस्तान के ही प्रदेश हैं, जिससे द्वारपाल से खैबर दर्रे का अभिज्ञान निश्चित ही जान पड़ता है। इन सब स्थानों को नकुल ने 'शासन' भेजकर ही वश में कर लिया था और वहाँ सेना भेजने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी- 'तान् सर्वान् स वशे चक्रे शासनादव पांडव:'। महाभारत, वनपर्व 83,15 में भी द्वारपाल का उल्लेख है- 'ततो गच्छेत धर्मज्ञ द्वारपालं तरन्तुकम्'।

ख़ैबर दर्रा

विजयेन्द्र कुमार माथुर[5] ने लेख किया है ...खैबर दर्रा (पाकिस्तान) (AS, p.259) भारतीय इतिहास में अंग्रेजों से पूर्व आने वाले अनेक विजातीयों ने खैबर के प्रसिद्ध दर्रे से होकर ही भारत में प्रवेश किया था. यह दर्रा पेशावर के उत्तर-पश्चिम में स्थित है और अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान के बीच का द्वार है. होल्डिश (दि इंडियन बॉर्डरलैंड -पृ.38) के अनुसार मुसलमानों के पहले भारत में पश्चिमोत्तर से आने वाली सड़क खैबर से होकर नहीं आती थी. एलेग्जेंडर की सेनाएँ भी काबुल नदी की घाटी में होकर भारत में प्रविष्ट हुई थीं न कि खैबर के मार्ग से. इतिहास से सूचित होता है कि महमूद गजनी ने खैबर दर्रे से होकर केवल एक बार भारत में प्रवेश किया था. बाबर और हुमायूं कई बार खैबर से होकर आए और गए. 18वीं सदी में नादिरशाह, अहमद शाह अब्दाली और उसका पुत्र शाह जमान इसी मार्ग से भारत में आए थे. (देखें कायु)

ख़ैबर दर्रा परिचय

ख़ैबर दर्रा उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान की सीमा और अफ़ग़ानिस्तान के काबुलिस्तान मैदान के बीच हिन्दुकुश के सफ़ेद कोह पर्वत शृंखला में स्थित एक प्रख्यात दर्रा है। यह 1070 मीटर (3510 फ़ुट) की ऊँचाई पर सफ़ेद कोह शृंखला में एक प्राकृतिक कटाव है। इस दर्रे के ज़रिये भारतीय उपमहाद्वीप और मध्य एशिया के बीच आवागमन किया जा सकता है और इसने दोनों क्षेत्रों के इतिहास पर गहरी छाप छोड़ी है। ख़ैबर दर्रा 33 मील (लगभग 52.8 कि.मी.) लम्बा है और इसका सबसे सँकरा भाग केवल 10 फुट चौड़ा है। यह सँकरा मार्ग 600 से 1000 फुट की ऊँचाई पर बल खाता हुआ बृहदाकार पर्वतों के बीच खो सा जाता है।

इतिहास: इस दर्रे के पूर्वी (भारतीय) छोर पर पेशावर तथा लंदी कोतल स्थित है, जहाँ से अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल को मार्ग जाता है। उत्तर-पश्चिम से भारत पर आक्रमण करने वाले अधिकांश आक्रमणकारी इसी दर्रे से भारत में आये। अब यह दर्रा पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब प्रान्त को अफ़ग़ानिस्तान से जोड़ता है। प्राचीन काल के हिन्दू राजा विदेशी आक्रमणकारियों से इस दर्रे की रक्षा नहीं कर सके। यह माना जाता है कि मुस्लिम शासन काल में तैमूर, बाबर, हुमायूँ, नादिरशाह तथा अहमदशाह अब्दाली ने इसी दर्रे से होकर भारत पर चढ़ाई की। जब पंजाब ब्रिटिश शासन में आ गया, तभी ख़ैबर दर्रे की समुचित रक्षा व्यवस्था की जा सकी और उसके बाद इस मार्ग से भारत पर फिर कोई आक्रमण नहीं हुआ।[6]

भूगोलीय संरचना: पेशावर से काबुल तक इस दर्रे से होकर अब एक सड़क बनाई गई है। यह सड़क चट्टानी ऊसर मैदान से होती हुई जमरूद से, जो अंग्रेज़ सेना की छावनी थी, और जहाँ अब पाकिस्तानी सेना रहती है, 3 मील (लगभग 4.8 कि.मी.) आगे शादीबगियार के पास पहाड़ों में प्रवेश करती है, और यहीं से ख़ैबर दर्रा आरंभ होता है। कुछ दूर तक सड़क एक खड्ड में से होकर जाती है, फिर बाई और शंगाई के पठार की ओर उठती है। इस स्थान से अली मसजिद दुर्ग दिखाई पड़ता है, जो दर्रे के लगभग बीचो-बीच ऊँचाई पर स्थित है। यह दुर्ग अनेक अभियानों का लक्ष्य रहा है। पश्चिम की ओर आगे बढ़ती हुई सड़क दाहिनी ओर घूमती है, और टेढ़े-मेढ़े ढलान से होती हुई अली मसजिद की नदी में उतर कर उसके किनारे-किनारे चलती है। यहीं ख़ैबर दर्रे का सँकरा भाग है, जो महज पंद्रह फुट चौड़ा है और ऊँचाई में 2000 फुट है। 3 मील आगे बढ़ने पर घाटी चौड़ी होने लगती है। इस घाटी के दोनों और छोटे-छोटे गाँव और जक्काखेल अफ्रीदियों की लगभग साठ मीनारें हैं। इसके आगे लोआर्गी का पठार आता है, जो 7 मील (लगभग 11.2 कि.मी.) लंबा है और उसकी अधिकतम चौड़ाई तीन मील है। यह लंदी कोतल में जाकर समाप्त होता है। यहाँ अंग्रेज़ों के काल का एक दुर्ग है। यहाँ से अफ़ग़ानिस्तान का मैदानी भाग दिखाई देता है। लंदी कोतल से आगे सड़क छोटी पहाड़ियों के बीच से होती हुई काबुल नदी को चूमती डक्का पहुँचती है। यह मार्ग अब इतना प्रशस्त हो गया है कि छोटी लारियाँ और मोटर गाड़ियाँ काबुल तक सरलता से जा सकती हैं। इसके अतिरिक्त लंदीखाना तक, जिसे ख़ैबर का पश्चिम कहा जाता है, रेलमार्ग भी बन गया है। इस रेलमार्ग का बनना 1925 में आरंभ हुआ था।

भारत का प्रवेश-द्वार: सामरिक दृष्टि से संसार भर में यह दर्रा सबसे अधिक महत्व का समझा जाता रहा है। भारत के प्रवेश द्वार के रूप में इसके साथ अनेक स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं। समझा जाता है कि सिकंदर के समय से लेकर बहुत बाद तक जितने भी आक्रामक शक-पल्लव, बाख्त्री यवन, महमूद ग़ज़नवी, चंगेज़ ख़ाँ, तैमूर, बाबर आदि भारत आए, उन्होंने इसी दर्रे के मार्ग से भारत में प्रवेश किया। किंतु यह बात सर्वांश में सत्य नहीं है। दर्रे की दुर्गमता और इस प्रदेश के उद्दंड निवासियों के कारण इस मार्ग से सबके लिए बहुत साल तक प्रवेश सहज नहीं था। भारत आने वाले अधिकांश आक्रमणकारी या तो बलूचिस्तान होकर आए या काबुल से घूमकर जलालाबाद के रास्ते काबुल नदी के उत्तर होकर आए, जहाँ से प्रवेश अधिक सुगम रहा था।[7]

संदर्भ: भारतकोश-खैबर दर्रा

हारहूण

विजयेन्द्र कुमार माथुर[8] ने लेख किया है ...हारहूण (पाठांतर 'हारहूर') (AS, p.1019) एक प्राचीन जनपद, जिसका उल्लेख महाभारत सभापर्व में हुआ है। महाभारत सभापर्व 32, 12 के अनुसार इस जनपद को पाण्डव नकुल ने पश्चिम दिशा की दिग्विजय में विजित किया था- 'द्वारपालं च तरसा वशे चक्रे महाद्युतिः, रामठान् हारहूणांश्च प्रतीच्याश्चैव ये नृपाः।'

उपरोक्त उल्लेख में द्वारपाल सम्भवत: 'ख़ैबर' और रमठ 'ग़ज़नी' (अफ़ग़ानिस्तान) है। 'हारहूण' या 'हारहूर' को वासुदेव शरण अग्रवाल ने अफ़ग़ानिस्तान की नदी 'अरगंदाबीन' माना है, जो इस देश के दक्षिण-पश्चिम भाग में बहती है। यदि यह अभिज्ञान ठीक है तो इस प्रसंग में हारहूण को इस नदी का तटवर्ती प्रदेश समझा जा सकता है। (बृहत्संहिता 14, 33) यह भी संभव हो सकता है कि इस स्थान से हूणों का सम्बन्ध हो।

कहानी खैबर की

खैबर दर्रे का भारत के इतिहास में विशेष महत्त्व है। यह दर्रा पश्चिम से भारत में प्रवेश करने का एक महत्त्वपूर्ण मार्ग है। इस दर्रे के जरिए 326 ईसा पूर्व में यूनानियों के द्वारा किए गए आक्रमण के साथ भारत में लूटने और गुलाम बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। आक्रमणकारियों ने इस देश की समृद्धि और संस्कृति को निशाना बनाया। यूनानियों, हूणों और शकों के बाद अरबों, तुर्कों, पठानों, मुगलों के कबीले लगभग दो हजार वर्षों तक इस देश में हमलावर बनकर आते रहे। लंबे अरसे के बाद हरि सिंह नलवा ने खैबर दर्रे के मार्ग को कुछ समय तक बंद करके इस अपमानित और पददलित होने की प्रक्रिया पर रोक लगाई। बाद में अंग्रेजों ने भी इसको ठीक ढंग से नियंत्रित किया। इससे इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि खैबर दर्रे का भारत के इतिहास में क्या योगदान है। खैबर दर्रा दो हजार वर्षों तक भारत में हुए आक्रमणों और भारतीयों द्वारा अपनी सभ्यता, संस्कृति और सम्मान के लिए किए जाने वाले संघर्ष का गवाह रहा है। खैबर दर्रा उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान की सीमा और अफगानिस्तान के काबुलिस्तान मैदान के बीच हिंदूकुश की सफेद कोह पर्वत शृंखला में स्थित एक प्रख्यात दर्रा है। यह 1070 मीटर की ऊंचाई पर सफेद कोह शृंखला में एक प्राकृतिक कटाव है। खैबर दर्रा लगभग 52.8 किमी लंबा है और इसका सबसे संकरा भाग केवल 10 फुट चौड़ा है। इस दर्रे के पूर्वी छोर पर पेशावर तथा लंदी कोतल स्थित है, जहां से अफगानिस्तान की राजधानी काबुल को मार्ग जाता है। अब यह दर्रा पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब प्रांत को अफगानिस्तान से जोड़ता है। हिंदू राजा विदेशी आक्रमणकारियों से इस दर्रे की रक्षा नहीं कर सके। यह माना जाता है कि मुस्लिम शासन काल में तैमूर, बाबर, हुमायूं, नादिरशाह तथा अहमदशाह अब्दाली ने इसी दर्रे से होकर भारत पर चढ़ाई की। जब पंजाब ब्रिटिश शासन में आ गया, तभी खैबर दर्रे की समुचित और स्थायी रक्षा की व्यवस्था की जा सकी, हालांकि इससे पहले हरि सिंह नलवा ने भी कुछ समय तक खैबर दर्रे पर सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करने में सफलता पाई थी। पेशावर से काबुल तक इस दर्रे से होकर अब एक सड़क बनाई गई है। यह सड़क चट्टानी ऊसर मैदान से होती हुई जमरूद से, जो अंग्रेज सेना की छावनी थी, और जहां अब पाकिस्तानी सेना रहती है, 3 मील आगे शादीबगियार के पास पहाड़ों में प्रवेश करती है, और यहीं से खैबर दर्रे का आरंभ होता है। कुछ दूर तक सड़क एक खड्ड में से होकर जाती है, फिर बाई और शंगाई के पठार की ओर उठती है। इस स्थान से अली मस्जिद दुर्ग दिखाई पड़ता है, जो दर्रे के लगभग बीचोंबीच ऊंचाई पर स्थित है। यह दुर्ग अनेक अभियानों का लक्ष्य रहा है। पश्चिम की ओर आगे बढ़ती हुई सड़क दाहिनी ओर घूमती है, और टेढ़ी-मेढ़ी ढलान से होती हुई अली मस्जिद की नदी में उतर कर उसके किनारे-किनारे चलती है। यहीं खैबर दर्रे का संकरा भाग है, जो महज पंद्रह फुट चौड़ा है और ऊंचाई में 2000 फुट है। इस घाटी के दोनों ओर छोटे-छोटे गांव और जक्काखेल अफ्रीदियों की लगभग साठ मीनारें हैं। इसके आगे लोआर्गी का पठार आता है, जो 7 मील लंबा है और उसकी अधिकतम चौड़ाई तीन मील है। यहां अंग्रेजों के काल का एक दुर्ग है, यहां से अफगानिस्तान का मैदानी भाग दिखाई देता है। लंदी कोतल से आगे सड़क छोटी पहाडि़यों के बीच से होती हुई काबुल नदी को चूमती डक्का पहुंचती है। यह मार्ग अब इतना प्रशस्त हो गया है कि छोटी लारियां और मोटर गाडि़यां काबुल तक सरलता से जा सकती हैं। इसके अतिरिक्त लंदीखाना तक, जिसे खैबर का पश्चिम कहा जाता है, रेलमार्ग भी बन गया है।

भारत का प्रवेश-द्वार

सामरिक दृष्टि से संसार भर में यह दर्रा सबसे अधिक महत्त्व का समझा जाता रहा है। भारत के प्रवेश द्वार के रूप में इसके साथ अनेक स्मृतियां जुड़ी हुई हैं। समझा जाता है कि सिकंदर के समय से लेकर बहुत बाद तक जितने भी आक्रामक शक-पल्लव, यवन, महमूद गजनवी, चंगेज खां, तैमूर और बाबर आदि भारत आए, उन्होंने इसी दर्रे के मार्ग से भारत में प्रवेश किया। किंतु यह बात सर्वांश में सत्य नहीं है। दर्रे की दुर्गमता और इस प्रदेश के निवासियों के कारण इस मार्ग से सबके लिए बहुत साल तक प्रवेश सहज नहीं था। खैबर दर्रा केवल भारत पर हुए आक्रमणों का गवाह ही नहीं है बल्कि यह हमें इस बात के लिए खबरदार भी करता है कि यदि हम अपनी सीमाओं को सुरक्षित करने में विफल रहते हैं तो सभ्यता और संस्कृति कुछ भी नहीं बच पाती।[9]

Also see

Khyber Pakhtunkhwa

External Links

References

  1. Proceedings and Transactions of the ... All-India Oriental Conference, Part 1, 1966 - All-India Oriental Conference,p.148
  2. Jats the Ancient Rulers (A clan study)/The Jats, p. 49
  3. R.C. Mazumdar, History and Culture of Indian People, Vol, III, p. 174,
  4. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.459
  5. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.259
  6. भट्टाचार्य, सच्चिदानन्द भारतीय इतिहास कोश, द्वितीय संस्करण-1989 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 233।
  7. गुप्त, परमेश्वरीलाल। खैबर दर्रा (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल.)। ।
  8. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.
  9. http://www.divyahimachal.com/2015/11/कहानी-खैबर-की/

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