Kisan Aandolan-2020 aur Pagadi Sambhal Jatta Aandolan

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लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

किसान आंदोलन- 2020 और 'पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन

अक़्सर सुनने को मिलता है कि इतिहास अपने आप को दोहराता है। पर सच तो यह है कि इतिहास खुद को हूबहू दोहराने की बज़ाय घटनाओं की तुकबंदी जरूर मिलाता है। "History doesn’t repeat itself but it often rhymes.”

केंद्र सरकार ने महामारी के दौरान आपदा में अवसर पर झपटा मारते हुए कृषि सुधार के नाम पर कृषि क्षेत्र में कॉरपोरेट्स को लूट- खसौट मचाने का मौका देने के लिए आनन-फानन में संसद से सितंबर 2020 में तीन किसान विरोधी कानून पास करवा लिए।

इन तीनों काले कानूनों के खिलाफ़ सितंबर 2020 से ही भारत में राष्ट्रीय स्तर का पहला किसान आंदोलन चल रहा है। इस आंदोलन की जो तस्वीरे सामने आ रही है उनमें 1906- 07 के यूनाइटेड पंजाब के किसान आंदोलन की झलक साफ नजर आती है। इतिहास खुद से तुकबंदी मिला रहा है।

बात वर्ष 1906-07 की है। अंग्रेज़ी हुकूमत ने किसानों की जमीनों को हड़पने के लिए दो आब बारी एक्ट, पंजाब लैंड कॉलोनाइजेशन एक्ट और पंजाब लैंड एलियनेशन एक्ट बनाया। बारी दोआब नहर से सिंचित होने वाली जमीनों का लगान दोगुना कर दिया और नहर बनाने के नाम पर किसानों से उनकी जमीन हथियाने के साथ ही उल्टे-सीधे टैक्स भी लगा दिए। एक्ट में यह प्रावधान भी था कि बेऔलाद किसान की मृत्यु के बाद उसकी भूमि सरकार के नाम हस्तांतरण हो जाएगी।

अमर शहीद भगतसिंह के चाचा सरदार अजीतसिंह पंजाब के पहले किसान नेता थे जिन्होंने अंग्रेजी शासन के इन तीन काले कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन परवान चढ़ा दिया था। अंग्रेजों से जंग छेड़ते हुए 3 मार्च 1907 को लायलपुर (अब पाकिस्तान) में उन तीनों कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ एक बड़ी रैली हुई। उस समय झांग स्याल नामक एक अखबार निकलता था। उसके एडिटर बांकेदयाल ने एक गाना सुनाया, जिसके बोल थे -

पगड़ी संभाल जट्टा, पगड़ी संभाल ओए।

यह गाना इतना पॉपुलर हुआ कि गांव- गांव और गली- गली में लोग इसे गाने लगे और पूरे आंदोलन का नाम 'पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन' पड़ गया और यह गाना बाद में क्रांतिकारी गीत बन गया। किसान इस आंदोलन से जुड़ते गए। जगह-जगह प्रदर्शन होने लगे।

आंदोलन के फैलाव को रोकने के लिए अंग्रेजों ने अजीतसिंह को 40 साल के लिए देश निकाला दे दिया। इसके बाद वो जर्मनी, इटली, अफगानिस्तान, बर्मा आदि देशों में गए और अपने देश को आजाद करवाने व किसानों के हक़ में अपनी की आवाज बुलंद करते रहे।

पगड़ी संभाल जट्टा’ नाम का वह आंदोलन नौ महीने तक चला ल और आखिर में किसानों की मांग मानने के लिए अंग्रेजों को झुकना पड़ा। उस आंदोलन में भी ब्रिटिश हुकूमत ने आंदोलनकारियों को ख़ूब परेशान किया था। हाँ, उस समय की हुकूमत ने रास्तों की किलेबंदी और राशन-पानी बंदी नहीं करवाई थी। आज़ाद भारत की सरकार ये सब करवा रही है।

'पगड़ी संभाल जट्टा' गीत का इस्तेमाल भगतसिंह के नाम पर बनने वाली कई फिल्मों में किया गया है। द ‘लीजेंड ऑफ भगत सिंह’ फिल्म में इस गीत का रूप यह है--

तेरा लुट ना जाए माल ओए,

ओ जट्टा पगड़ी संभाल ओए,

पगड़ी संभाल जट्टा पगड़ी संभाल ओए,

तेरा लुट ना जाए माल जट्टा पगड़ी संभाल ओए,

तोड़ गुलामी की जंजीरें,बदल दे तू अपनी तक़दीरें,

पड़ जा ऐसा इनके पल्ले,कर दे इनकी बल्ले-बल्ले,

आसमानो को भी वो झुकाये झुकाये,

यारों जो कभी भी हिम्मत ना हारे,

आदमी यहां पे जो चाहे जो चाहे,

यारों तो जमीन पे लाये सितारें,

बन्दा किसने हवा को, वक्त को किसने देखा,

म्हणत ( मेहनत ) से ही बदलेगी तेरी हाथों की रेखा,

तेरा लुट ना जाए माल जट्टा पगड़ी संभाल ओए,

आज हम करेंगे ये वादा ये वादा जट्टा,

आज हम करेंगे ये वादा,

बेड़ियों को मिल के मिटाना मिटाना जट्टा,

है यही अब अपना इरादा,

फौलादी है बाहें तेरी,पत्थर का है सीना,

करदे करदे इन गोरों का अब तो मुश्किल जीना,

तेरा लुट ना जाए माल जट्टा पगड़ी संभाल ओए,

तोड़ गुलामी की जंजीरें, बदल दे तू अपनी तक़दीरें,

पड़ जा ऐसा इनके पल्ले, कर दे इनकी बल्ले-बल्ले,

(फिल्म - The Legend of Bhagat Singh )

आज जब एक बार फिर भारतव्यापी किसान आंदोलन उफान पर है तब यह गीत देश की सत्ता पर काबिज़ काले अंग्रेजों ( ताली-थाली-शंख बजाकर संकट हरण करने वाले ) के खिलाफ और अधिक प्रासंगिक हो उठा है। 1906- 07 के तीन काले कानूनों जैसे तीन कृषि कानून 2020 में आज़ाद भारत की सरकार ने किसान-हितों पर कुठाराघात करते हुए कॉरपोरेट्स पर कृपा बरसाने के लिए लागू किए हैं। तब और अब में फ़र्क सिर्फ़ इतना- सा है। अब अंग्रेजों की जगह उनकी मुखबिरी करने वालों और माफिनामों का रिकॉर्ड क़ायम रखने वालों की संतति सत्ता पर काबिज़ है।

सुनहरे कानूनों (Golden Acts) का सुनहरा चरण

यूनाइटेड पंजाब के किसान एकजुट रहकर अंग्रेज़ों के शासन काल में भी संघर्ष करते रहे, नतीज़तन कई किसान हितैषी कानून उस दौर में बने। 1920 से 1945 तक यूनाइटेड पंजाब सरकार पर यूनियनिस्ट वह जमीदार पार्टियों का दबदबा रहा। उस दौर के दबंग किसान नेता सर छोटूराम, खेती विकास व राजस्व मंत्री, की अगुवाई में कई नए कृषि कानून बनाए गए और पहले के कई कानूनों में किसानों के हित को ध्यान में रखते हुए संशोधन किए गए। किसानों ने इनको सुनहरे कानूनों का नाम दिया। उन कानूनों के कारण तत्कालीन यूनाइटेड पंजाब के किसान की आर्थिक स्थिति में सुधार हो सकाऔर साहूकारों के शिकंजे से बाहर आ सके। वर्तमान पीढ़ी इस बात से अनभिज्ञ है।

1938 ई. में जब यूनियनिस्ट मंत्रिमंडल ने पंजाब विधान परिषद में किसान- मजदूर हितैषी कानूनों के बिल पास करवाए तो व्यापारियों, साहूकारों एवं साम्प्रदायिक ताकतों ने ख़ूब विरोध किया। इन कानूनों के शिल्पकार सर छोटूराम थे, इसलिए उनके खिलाफ़ ख़ूब विष वमन किया गया। वे कानून और संशोधन ये थे--

पंजाब रेहन प्राप्ति कानून

1901 में लागू कानून में प्रथम संशोधन को रेहन/ गिरवी भूमि वापिस एक्ट( The Punjab Restitution of Mortgaged Lands Act ) नाम से जाना जाता है। 1901 ई. के कानून के अनुसार यदि कृषि योग्य भूमि ग़ैर-ज़मींदार के पास इस कानून से पहले रखी हुई थी उसे ज़मींदार वापिस नहीं ले सकता था। इस कानून को संशोधित कर यह प्रावधान कर दिया गया की खेतिहर उचित भरपाई करने के पश्चात अपनी जमीन वापस ले सकता है। भरपाई के लिए यह सिद्धांत तय हुआ कि यदि मूलधन के दुगुनी राशि साहूकार को नहीं मिली तो उसे दुगुनी राशि देकर भूमि वापस ली जा सकती है या साहूकार ने ब्याज के रूप में दुगुना प्राप्त कर लिया है तो उसे किसान की भूमि किसान को वापस देनी होगी।

यह कानून 9 सितम्बर 1938 को प्रभावी हुआ। इसके जरिए जो जमीनें 8 जून, 1901 के बाद कुर्की से बेची हुई थीं तथा 37 सालों से गिरवी/ रेहनशुदा चली आ रही थीं, वो सारी जमीनें किसानों को वापिस दिलवाई गईं। इस कानून के तहत केवल एक सादे कागज पर जिलाधीश को एक प्रार्थना पत्र देने का प्रावधान किया गया। इस कानून के तहत मूल राशि का दोगुना धन साहूकार प्राप्त कर चुका है तो किसान को जमीन का पूर्ण स्वामित्व दिए जाने का प्रावधान किया गया। एक आंकड़े के अनुसार इस कानून के तहत 13 लाख ज़मींदारों को 40 लाख बीघा जमीन बिना कोई रक़म दिए पुनः प्राप्त हो गई।

1901 के कानून के संदर्भ में यूनियनिस्ट पार्टी ने 1936 ऐक्ट में दूसरा महत्त्वपूर्ण संशोधन किया और उसको बेनामी कानून के नाम से जाना जाता है। इस संशोधन की धारा 13-ए के तहत जिलाधीशों को यह अधिकार दिया गया कि वे सारे बेनामी हस्तांतरण सौदों को अवैध घोषित कर दें और उसकी भूमि उसके असली मालिक ज़मींदारों को दिलवा दें। आगे चलकर 1943 में इसमें एक ख़ास संशोधन यह किया गया जिसके तहत ज़मींदार की भूमि यदि 20 वर्ष से ज्यादा समय के लिए रेहन रखी है तो इन सभी सौदों को इस संशोधन के तहत रद्द कर दिया गया।

ग़ैर-ज़मींदार साहूकार कानून

1901 ई. के कानून में ज़मींदार- साहूकार कानून नाम से जो तीसरा संशोधन किया गया उसमें कर्जदार की भूमि को स्थाई रूप से खरीदने के लिए ज़मींदार- साहूकार पर प्रतिबंध लगा दिया गया ताकि ज़मींदार यानी किसान को उसकी भूमियों से वंचित नहीं किया जा सके।

कर्ज़ा माफ़ी ऐक्ट (The Punjab Relief of indebtednes Act 1935)

यह क्रान्तिकारी ऐतिहासिक अधिनियम दीनबन्धु चौधरी छोटूराम ने 8 अप्रैल 1935 में किसान व मजदूर को सूदखोरों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए बनवाया। इस कानून के तहत अगर कर्जे की दुगुनी रक़म दी जा चुकी है तो वे ऋणी ऋण - मुक्त समझा जाएगा। वस्तुतः यह बिल ऋण के बोझ तले दबे किसानों को कुछ राहत दिलाने के लिए था। कर्जदार राहत’ कानून के तहत यह प्रावधान किया गया कि किसान के खेत, मकान व खेती करने के उपकरण और एक तिहाई अन्न कुर्क नहीं किए जा सकेंगे।

पंजाब- हरियाणा के किसान वर्ग के बुज़ुर्गों की जुबां से जब उस दौर के बनिया, अरोड़ा, खत्री साहूकारों द्वारा किसानों के शोषण की कहानियां सुनते हैं तो रूह कांप उठती है।

कर्जा माफी बिल जब पेश हुआ तो शहरी लोगों की तरफ से भारी विरोध हुआ और इसे हिन्दुओं पर चोट के रूप में प्रचारित किया गया। उस समय पंजाब में साहूकारों की संख्या 40 हज़ार थी। हिंदू सभा के नेता दीवान राजा नरेंद्र नाथ ने चौ. छोटूराम पर आरोप लगाया कि ऋण कानून से हिंदू कौम की तबाही हो जाएगी। इस पर चौ. छोटूराम ने जवाब देते हुए उनसे पूछा कि क्या व्यापारियों व लेन-देन का व्यवसाय करने वालों को छोड़कर और कोई कौम हिंदू कहलाने की हकदार नहीं है।इन कानूनों से पंजाब प्रांत में 90 प्रतिशत किसानों को कर्ज से मुक्ति मिली और किसानों के भूमि स्वामित्व में मजबूती हुई।

पंजाब साहूकार पंजीकरण एक्ट (The Punjab Registration of Moneylenders Act-1938)

यह कानून 2 सितम्बर, 1938 को प्रभावी हुआ। इसके ज़रिए ब्याज पर रुपया देने का धंधा करने वाले महाजनों व साहूकारों पर बिना रजिस्ट्रेशन के किसी को भी कर्ज देने पर प्रतिबंध लगाया गया। इससे अनाप-सनाप ब्याज वसूल करने और किसानों को मुकदमों में फंसाने वाले साहूकारों की फौज पर अंकुश लग गया।

पंजाब कृषि-उत्पाद मार्केटिंग ऐक्ट (The Punjab Agricultural Produce Marketing Act- 1938)

1936 ई. में छोटूराम ने पंजाब विधानसभा में सबसे अधिक चर्चित और विवादित पंजाब कृषि-उत्पाद मार्केटिंग बिल प्रस्तुत किया जो 1939 ई. में कानून के रूप में लागू हो गया। 1941ई. में भी इस कानून में संशोधन किए गए। इस कानून को मंडी कानून भी कहते हैं। इसके तहत नोटिफाइड ऐरिया में मार्किट कमेटियों का गठन किया गया। किसानों के साथ होने वाली ठगी और अन्याय का खुलासा करते हुए मार्केटिंग रिपोर्ट 1911 में यह लिखा कि बिचौलियों की कई कटौतियां काटने के बाद किसान को 100 रुपये के बिक्री माल के केवल 59 रुपये 6 आने मिल पाते हैं। आढ़त, तुलाई, मुनीमी, पल्लेदारी, दलाली, धर्मशाला, गौशाला, धर्मादा, कमीशन आदि के नाम पर किसान की कमाई हड़प ली जाती है। इन सारी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए मंडी कानून बनाया गया।

इस ऐक्ट के अमल में आने पर मंडियों का पंजीकरण किया गया और साहूकारों को मंडी में फसल खरीदने के लिए लाइसेंस लेना जरूरी कर दिया गया। मार्केट कमेटी में प्रावधान किया गया कि मंडी मार्केटि कमेटी में दो तिहाई प्रतिनिधि किसानों के और एक तिहाई प्रतिनिधि व्यापारियों के होंगे।

इस कानून का बिल जब पेश किया गया तो हिन्दू महासभा के विधायक डॉ गोकुलचन्द नारंग ने इसे मारकूट (mighting) बिल कहा। कई गैर-किसानों ने कहा कि इस बिल से हमारा सर्वनाश हो जायेगा। डॉ नारंग ने कहा कि 'इस बिल के पास होने पर रोहतक का दो धेले का जाट लखपति बनिया के बराबर मार्केट कमेटी की कुर्सी पर बैठेगा।' इस पर चौ. छोटूराम का जवाब था कि मुझे दुःख है कि नारंग साहब जातिवादी एनकों से आज पंजाब को देख रहे हैं। 'मैं डाक्टर साहब से कहना चाहता हूं कि जाट एक अरोड़े से किसी भी भांति कम आदर का पात्र नहीं है...वह समय आ रहा है जब धन के गुलाम लोगों को परिश्रमी धनी जाट बहुत पीछे छोड़ देगा।'

इस अधिनियम के तहत किसानों को उसकी फसल का उचित मूल्य दिलवाने का नियम बना। आढतियों के शोषण से किसानों को निजात इसी अधिनियम ने दिलवाई। आगे चलकर इन्ही मंडियों में जब न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज बिकना शुरू हुआ तब किसानों को व्यापारियों की मनमानी से मुक्ति मिल सकी।

सर छोटूराम के प्रयासों से पंजाब विधान सभा में किसान हितैषी बिल पास हो जाने पर शहरी गैर कृषक व्यापारी वर्ग की चिंता और बौखलाहट की ख़बर The Times Of India , दिनांक 1 अगस्त,1938, पेज 14 पर इस प्रकार छपी-

'प्रांतीय गैर-कृषक सम्मेलन, इसकी अध्यक्षता डॉ गोकुलचंद नारंग ने की ...नारंग कहते हैं कि भूमि हस्तांतरण क़ानून बनने से पंजाब दो वर्गों में बाँटा गया , कृषक व गैर- कृषक। क़र्ज़ा माफ़ी व साहूकार पंजीकरण क़ानून से प्रांत में साम्प्रदायिक टकराव बढ़ेगा क्योंकि अधिकतर साहूकार हिंदू व सिख हैं तथा क़र्ज़ा लेने वाले मुस्लिम।'

यहाँ यह बताना जरूरी है कि डॉ नारंग हिंदू महासभा से जुड़े नेता थे और लगभग साहूकार भी, इसलिए इस क़ानून को इन लोगों ने साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश कर रहे थे, जबकि इनके क़र्ज़े तले हर मज़हब का किसान- मज़दूर दबा हुआ था।

पंजाब माप तौल कानून (The Punjab Weight and Measure Act)

सर छोटूराम का कहना था किसान और व्यापारी एक दूसरे के हितैषी हैं और यदि दोनों ईमानदारी से एक दूसरे का सहयोग करें। वे तोल में हेराफेरी करने वाले व्यापारियों से खुलकर कहते थे कि ‘काणी डण्डी, काणे बाट’ कतई नहीं छोड़ूंगा।

प्रोविंशियल बैंकिंग इंक्वायरी कमेटी रिपोर्ट, 1929 के अनुसार 49 प्रतिशत तोल के बाट और 69 प्रतिशत तराजू ठीक नहीं पाए गए। सर छोटूराम ने व्यापारियों द्वारा तोल में गड़बड़ी किए जाने के मामलों की जांच-पड़ताल करने के लिए कमेटी का गठन किया। कमेटी ने पांच जिलों में निरीक्षण कर जो रिपोर्ट प्रस्तुत की, उसके अनुसार 75 प्रतिशत वजन करने वाले बाट गलत पाए गए तथा छोटी तराजुओं का निरीक्षण करने पर 65 प्रतिशत तराजू खराब पाई गईं। रिपोर्ट में यह भी अंकित है कि हर दुकानदार के पास दो- दो तराजू पाए गए, जिसमें माल खरीदने का तराजू अलग है और बेचने का तराजू अलग पाया गया है। इस रिपोर्ट के आधार पर ही सर छोटूराम ने सही तोल सुनिश्चित करने के लिए तराजुओं के अपरी आधार (बैलेंस) में ‘सुई’ स्थापित करने तथा हर वर्ष तोलने के बाट का निरीक्षण कर मोहर लगाने व इसका सरकारी प्रमाण-पत्र प्राप्त करने का कानून बनाया। डण्डी वाली तखड़ी के स्थान पर कांटे वाली तराजू निर्धारित की गई। इनकी जांच पड़ताल के लिए इंस्पेक्टर नियुक्त किए गये। फलतः खरीददारों को निर्धारित मात्रा से कम तोलकर देने और विक्रेताओं से अधिक तोलकर लेने की आदत पर रोक लगी।

यूनाइटेड पंजाब के किसानों के संघर्ष और दुःख- दर्द को समझने के लिए उसके इतिहास में झांक लीजिए। सब कुछ समझ में आ जाएगा।

गोदी मीडिया और मानसिक नसबंदी के शिकार अंधभक्त एक रट लगाए हुए हैं कि वर्तमान किसान आंदोलन सिर्फ पंजाब- हरियाणा के किसानों का आंदोलन है। आंदोलनकारियों को खालिस्तानी कहकर बदनाम करने वाले यह नहीं जानते कि देश के आज़ादी के आंदोलन में सबसे ज्यादा बलिदान यूनाइटेड पंजाब के किसान वर्ग का रहा है। काले पानी की सजा भुगतने वालों में सबसे ज़्यादा संख्या इसी प्रांत के लोगों की थी। इनमें से कोई भी अंग्रेज़ों से माफ़ी मांगकर रिहा नहीं हुआ। अब भी सेना ओर पुलिस में बहादुरी का परचम लहराने वालों में अधिसंख्यक किसान वर्ग की संतानों के नाम शुमार होते हैं। आजादी के बाद पंजाब व हरियाणा 70% गेहूं व धान केंद्रीय भंडारण में देते हैं। गेंहू व धान की खरीद मंडियों का सर्वाधिक विस्तार यहीं हुआ है।


✍️✍️ प्रोफेसर हनुमानाराम ईसराण

पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राज.

दिनांक: 5 फरवरी, 2021


संदर्भ